हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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6 – निराकार की साकार प्रस्तुति


आदि-मानव वर्षा, बाढ़, बिजली, बिमारियों, मृत्यु तथा समस्त प्राकृतिक आपदाओं का कारण अदृष्य शक्तियों को मानते थे। धीरे धीरे स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपने बौधिक ज्ञान की शक्ति से अदृष्य शक्तियों  को पहचाना तथा उन्हें प्राकृति के साथ जोड़ कर उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दे दी। ऋषि मुनियों ने अपनी कलपना को विज्ञान की कसौटी पर परखा और परमाणित भी किया। उन के संकलित परिणाम वेद, पुराण, उपनिष्द तथा दर्शनशास्त्रों के रुप में संकलित किये गये हैं। ऋषि मुनियों ने पहले जुटाये गये तथ्यों को विस्तारा, संवारा तथा आवश्यक्तानुसार समय समय पर नकारा भी था। क्योंकि हिन्दू धर्म में धर्म सम्बन्धी विषयों की आलोचना करने की पूर्ण स्वतन्त्रता रही है।

यही परिक्रिया दंत-कथाओं के माध्यम से अन्य मानव समुदायों में भी फैलती गयी जहाँ मानव सभ्यता क्रमशः भारत से पिछड़ी अवस्था में थी। रिक्त तथ्यों को सुनाने वालों ने या सुनने वालों ने अपनी समझ-बूझ से भर कर और आगे फैला दिया। आदि-धर्म के सभी संस्करणों में प्रकृति के सभी साधनों और क्रियायों पर किसी ना किसी देवी या देवता का अधिकार था और उन का अनुगृह पाने के लिये देवी देवताओं को बलि, कुर्बानियों तथा आराधना के माध्यम से प्रसन्न करने का विधान कई स्थानों पर चल पड़ा। एक समुदाय के देवी- देवताओं के नामों, विभागों तथा परस्परिक सम्बन्धों में दूसरे समुदायों के साथ विभिन्नता होना स्वाभाविक ही था। धर्म के उन परिवर्तित संस्करणों को कालानतर इसाईयों ने पैगनज़िम कहा और मुसलमानों ने जहालत का नाम दिया ताकि वह अपने नव निर्मित धर्मों का विस्तार आसानी से कर सकें।

विज्ञान तथा कला का संगम

हर घटना प्रमाणित होने के पश्चात इतिहास मान ली जाती है। जैसे जैसे ज्ञान और वैज्ञियानिक विचारधारा का विस्तार हुआ अन्धविश्वास पर आधारित दन्तकथाओं पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे। जो तर्क की कसौटी पर स्थिर नहीं रह सकीं वह अविशवासनीय होती गयीं। स्वार्थ वश कई धर्मों ने अपने अनुयाईयों को वश में रखने के लिये धर्म सम्बन्धी विषयों पर प्रश्न चिन्ह लगाने पर केवल  पाबन्दी ही नहीं लगाई अपितु पश्न पूछने वालों को मृत्यु दण्ड तक भी दे डाले ताकि उन की दंत-कथाओं की पोल ना खुल सके।

जब अन्य स्थानों पर मानव समुदाय जंगलों में वनजारा जीवन व्यतीत कर रहे थे या अपने अपने समुदायों में दंतकथाओं या अंधविशवास के तले जी रहे थे उस समय भारत में पूर्णतया विकसित आदि-धर्म वैज्ञानिक जिज्ञ्यासा की चुनौतियों का सामना करने के लिये तैय्यार हो चुका था। भारत का स्नातन धर्म कल्पनाशक्ति से परिपूर्ण, दार्शिनिक प्रौढ़ता समेटे अपनी आकर्षक चित्रावली के साथ समृध हो चुका था जो आज भी यथार्थ जीवन के एकदम समीप है। परम ज्ञ्यानी वैदिक ऋषियों ने उस विचारधारा को अपने निजि अनुभवों तथा अनुभूतियों से प्रमाणिक्ता प्रदान की थी और उन की सोच आज के वैज्ञ्यानिक अविष्कारों की अग्रज है।  

ऐक बालक का दिमाग़ दार्शनिक अथवा काल्पनिक विचारों को गृहण नहीं कर सकता। अतः बालक को वस्तुओं का बोध कराने के लिये उसे वस्तुओं के चित्र भी दिखाने पड़ते हैं। शाब्दों  के बजाय बालक को चित्रों से आम, बाघ, मानचित्रों से अज्ञात् स्थानों, तथा फोटोग्राफ के माघ्यम से दूरगामी रिश्तेदारों का परिचय करवाना पडता है। अतः वस्तुओं के चित्र ऐसे होने चाहियें कि बालक उन वस्तुओं की आकृति, रंग, गुण दोषों की जानकारी यथासम्भव अनुभूत कर सकें। भले ही चित्र यथार्थ में वस्तु नहीं है लेकिन चित्र बालक को वस्तु का यथार्थ रूप पहचानने और उस के गुण-दोषों को समझने में पूर्णत्या सहायक होते हैं।

हिन्दू धर्म ईश्वर को निराकार तथा सर्वव्यापी मानता है किन्तु हिन्दू ईश्वर का आभास सृष्टि की सभी कृतियों में भी निहारते हैं। अतः हिन्दू धर्म ने धार्मिक चिन्हों, मूर्तियों तथा चित्रों को भी विशेष महत्व दिया है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि जब किसी चिन्ह का शब्दों से उच्चारण किया जाता है तो उस चिन्ह और शब्द में पूर्व-स्थापित सम्बन्ध दृष्य हो जाता है। शब्द और चित्र अभिन्न हो जाते हैं। इस प्रकार चिन्ह मन तथा मस्तिष्क को केन्द्रित कर के वस्तु का साक्षातकार करवाने का एक सक्ष्म साधन बन जाते हैं।

भले ही इसाई तथा मुसलिम धर्म चिन्हों के बहिष्कार का दावा करते हों परन्तु हिन्दूओं की देखा देखी उन के धर्म भी कई चिन्हों का सम्मान करते हैं। इसाई अपने घरों को क्रिसमिस ट्री से सजाते हैं, बच्चों को बहलाने के लिये सांटाक्लाज़ बनाते हैं तथा नकली सांटाक्लाज़ से अपने बच्चों को उपहार भी बटवाते हैं। इसाई मूर्तियों के आगे और मृतकों की कबरों पर मोम-बत्ती भी जलाते हैं। इसी प्रकार मुस्लिम भी काबा की दिशा की ओर सिजदा करते हैं, काबा की तसवीर घरों में लगाते है, 786 को शुभ अंक मान कर उसे तावीज़ बना कर पहनते हैं तथा अरबी भाषा में मुहम्मद या अल्लाह लिख कर घरों में रखना शुभ समझते हैं। सारांश यह है कि हर धर्म में किसी ना किसी रूप में चिन्ह प्रयोग किये जाते हैं। अन्तर केवल उन्नीस बीस का ही है। सभी आराधक पहले तो मन के अन्दर कलपित लक्ष्य की धारणा करते हैं फिर उस पर ध्यान लगाते हैं। अतः चिन्ह या मूर्ति पूजा आराधना का आरम्भ मात्र है, अंत नहीं। स्नातन धर्म ने मूर्ति पूजन को अपनाया किन्तु शून्य में ध्यान लगा कर अनन्त पर मन को केन्द्रित करना भी सिखाया है। यह सब आराधना के भिन्न भिन्न स्तर हैं।

मूर्तियाँ केवल शिल्पकारियों की कला की प्रदर्शन ही नहीं करातीं अपितु ईश्वर से सम्पर्क का सक्ष्म साधन भी हैं। बाहरी तौर पर तो मूर्ति का पूजन होता है किन्तु आराधक की भावनायें जब मूर्ति के साथ जुड़ जाती हैं तभी उसी प्रतिमा के अन्दर आराधक आराध्य का आभास महसूस कर सकता है। दुकान में रखे हुये बुत को शिल्प कारी और सजावट की वस्तु कहा जा सकता है लेकिन जब उसी बुत को श्रद्धा और पूजा भाव के साथ स्थापित कर दिया जाता है तो उसी बुत में देव दर्शन कराने की क्षमता आराधक को अपने आप ही दिखायी पड़ने लगती है।

जब हम दूरदर्शन के माध्यम से दूर गामी स्थानों की आवाज़ तथी छवि को निहार सकते हैं तो मूर्ति के माध्यम से सर्व-व्यापी ईश्वर के साथ भी सम्पर्क बना सकते हैं क्यों कि ईश्वर तो सर्ष्टि के हर कण में विध्यमान है। किसी भी राष्ट्र का झण्डा रंग बिरंगे कपड़ों का टुकड़ा होता है लेकिन जब उसी झण्डे के साथ भावनायें जुड़ जाती हैं तो सिपाही उसी कपडे के टुकडे को  बचाने के लिये अपनी जान पर भी खेल जाते हैं। जिस प्रकार झण्डा रूपी कपडे का टुकडा ऐक सिपाही के अन्दर अद्भुत वीरता का संचार कर देता है उसी प्रकार ऐक मूर्ति ईश्वरीय शक्ति का प्रकाश आराधक पर डाल देती है।   

पूजा की विधि

किसी भी कार्य को सम्पन्न करने को एक निशचित तरीके से करने के लिये कार्य विधि निर्धारित कर दी जाती है ताकि वह कार्य बिना किसी त्रुटि के सुचारु ढंग से सम्पन्न हो सके। इस प्रकार आरम्भिक क्रिया से ले कर समाप्ति की क्रिया तक का सभी ब्योरा क्रिया में भाग लेने वालों को निश्चित तौर पर मालूम हो जाता है। किसी से कोई भूल होने की सम्भावनायें समाप्त हो जाती हैं। जिस प्रकार जलती हुयी मोमबत्ती को बुझाना और केक काटना जन्मदिन उत्सव के अभिन्न अंग बन गये हैं उसी प्रकार ईश्वर की अर्चना पद्धति की रूप-रेखा विशिष्ठ व्यक्तियों के सत्कार की विधि जैसी ही निश्चित हो गयी है।

मुख्यता आराधक मन ही मन में प्रतिष्ठापित मूर्ति के माध्यम से अपने आराध्य देवी-देवता की छवि को निहारता हुआ स्तुति करता है। मूर्ति की उपासना की निम्नलिखित परम्परागत क्रियायें हैं –

सर्व प्रथम मन से आराध्य देवी – देवता का आवाहन किया जाता है। आराध्य को आसन पर आसीन कराया जाता है तथा सत्कार स्वरूप आराध्य के पग धोये जाते हैं। पेय जल तथा जलपान परस्तुत किया जाता है। आराध्य को स्नान कराया जाता है, वस्त्र पहनाये जाते हैं। नया यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है। चन्दन आदि का सुगन्धित तिलक लगाया जाता हैं। पुष्प अर्पण किये जाते हैं। धूप आदि की सुगन्ध ज्वलन्त की जाती है। दीप प्रज्वलन किया जाता है तथा दीप से आराध्य की आरती उतारी जाती है। प्रसाद अर्जित किया जाता है और स्वर्ण आदि की भेंट दी जाती है। अन्त में आराध्य की विदाई भी की जाती है।

अनुमान लगाया जा सकता है कि आराधना की यह विधि किसी भी विशिष्ठ व्यक्ति के सामाजिक सत्कार का ही एक प्रतीक मात्र है, क्यों कि ईश्वर जैसी महाशक्ति जो स्वयं सागरों को ऐक ही क्षण में भर सकती है तथा समूची सृष्टि को प्रकाशित कर सकने में सक्ष्म है वही महाशक्ति आराधक के स्नान और भोजन पर निर्भर नहीं हो सकती।

हिन्दूओं के किसी भी आराधक के लिये अर्चना पद्धति के सभी अंगों का पालन करना अनिवार्य नहीं है। आराधक निजि रुचि ऐवम् सुविधानुसार पूजा अर्चना कर सकता है। चिन्ह में आस्था रखने वाला आराधक प्रत्येक मूर्ति में ईश्वर को निहार सकता है भले ही मूर्ति  पत्थर, मिट्टी, पीतल, या स्वर्ण की बनी हो या केवल कोई चित्र हो। मूर्ति पूजा के माध्यम से आत्म ज्ञान का मार्ग सरल हो जाता है तथा इस का आधार जनसाधारण को पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है।  

आस्था के धार्मिक चिन्ह

मूर्तियों के अतिरिक्त सभी धर्म कई प्रकार के चिन्हों को धार्मिक आस्था का केन्द्र मानते हैं। इसाई क्रास को पवित्र मानते हैं और मुस्लिम काबा का दिशा में सजदा करते हैं तथा कलात्मिक ढंग से अल्लाह या मुहम्मद इतियादि लिखवाते हैं।  हिन्दूओं के पास बहुत से विकल्प हैं जैसे किः-

  • ऊँ का चिन्ह सृष्टि के उस अनाहत नाद का प्रतीक है जो गृहों के परिकर्मा के कारण निरन्तर गूंजती रहती है। समस्त कृतरम नाद कम से कम दो निमितों से पैदा होते हैं जैसे वाध्य यंत्रों में लगे गज और तार का घर्षण, ढोल तथा पीटने के लिये छड़ी की चोट, या वायु का किसी संकरे मार्ग से बाँसुरी की आवाज़ की तरह सुनायी देना। जो नाद इस प्रकार दो वस्तुओं के संघर्ष से उत्पन्न होते है वह भी इसी दैविक नाद से ही जन्म लेते है। किन्तु ऐसे नाद के चार अंग होते हैं। पहले तीन अंग अ ओ तथा म और चौथा अंग खामोशी से बनता है जो सुनाय़ी नहीं देता। यही खामोशी सुनाय़ी पड़ने वाली आवाज़ के आरम्भ और अंत को उजागर करती है।
  • स्वास्तिक का चिन्ह स्थिरता का प्रतीक है जो चारों दिशाओं में घूमाव के मध्य में विद्धमान रहती है। पूरी सृष्टि तेज़ी से  घूम रही है फिर भी स्थिर दिखती है। हिन्दूओं के अतिरिक्त कई योरूप के देशों में भी इसे पवित्र माना जाता रहा हैं।
  • शिव-लिंग सृष्टि में सभी प्रकार के जीवन के प्रजनन का वैज्ञानिक प्रतीक है। सभी प्राणियों की उत्पति लिंग-योनि के योग से ही हुयी है अतः यह चिन्ह दैविक शक्ति का भी प्रतीक है और दर्शाता है कि हम सभी का जीवन किसी पाप से नहीं अपितु दैविक इच्छा का फलस्वरूप है। यह ईश्वर की ओर से दिया गया दण्ड नहीं बल्कि पुरस्कार है।
  • ताँत्रिक चिन्ह – स्नातन धर्म में कई रेखागणित चिन्ह शक्ति का प्रतीक माने जाते हैं तथा ताँत्रिक यन्त्रों में प्रयोग किये जाते हैं।

वास्तव में चिन्ह पहचान के निमित मात्र होते हैं। आज भी सभी देशों की राजकीय मुद्रा सरकार की सार्वभौमिक्ता दर्शाने का प्रतीक मानी जाती है। व्यवसायी कम्पनियां भी अपने लागो की छाप अपने उत्पादकों पर अंकित करती हैं। 

यदि ईसा को क्रास पर ना चढ़ाया गया होता तो क्रास का भी इसाई धर्म में कोई महत्व ना होता। कभी कभी किसी धर्म स्थल के किसी नगर में होने के कारण ही वह नगर धार्मिक दृष्टि से महत्वशाली बन जाता है। हिन्दूओं के धार्मिक चिन्ह वैज्ञानिक्ता का प्रतीक हैं और शाशवत हैं। 

यदि किसी व्यक्ति की निजि आस्था किसी चिन्ह में नहीं तो हिन्दू धर्म में उस पर किसी भी चिन्ह को अपनाना या उस की पूजा-अर्चना करना भी बाध्य नहीं है। यही हिन्दू धर्म में पूर्ण स्वतन्त्रता का मूल-मंत्र है। मूर्तियां तथा चिन्ह हिन्दूओं के दार्शिनिक विचारों का कलात्मिक व्याखिकरण हैं।

चाँद शर्मा

 

 

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