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दिल्ली की रावण लीला


राजधानी के रामलीला मैदान में 4 जून 2011 को ऐक रावण लीला हुयी थी जिस के कारण ऐक निहत्थी महिला राजबाला का देहान्त हो गया था। स्वामी रामदेव के योग-शिविर में उस रात निद्रित अवस्था में निहत्थे स्त्री-पुरुषों, बच्चों और वरिष्ठ नागरिकों पर कमिश्नर दिल्ली पुलिस की देख रेख में लाठी चार्ज किया गया था। वह घटना इतनी अमानवीय थी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय की आत्मा भी उन रावणों के अत्याचार से अपने-आप सजग हो गयी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने तब तत्कालीन सरकार को बरबर्ता के दोषियों के खिलाफ कारवाई करने के आदेश दिये थे। उस के बाद थाने में ‘अज्ञात’ दोषियों के नाम पर ऐफ़ आई आर दाखिल की गयी थी मगर उस के बाद से आज तक क्या हुआ?…सभी को सांप सूंघ गया? और सभी गहरी नीन्द में आज तक क्यों सो रहै हैं?

न्यायपालिका

आम तौर पर हमारे न्यायाधीश अपनी अवमानना के प्रति सजग रहते हैं और किसी को भी फटकार लगाने से नहीं चूकते। परन्तु हैरानी की बात यह है कि जब स्वयं उच्चतम न्यायालय ने इस घटना का कोग्निजेंस लेकर सरकार को निर्देश दिये थे और उन आदेशों की आज तक अनदेखी करी जा रही है तो इस मामले को गम्भीरता से क्यों नहीं लिया गया? यदि न्यायालय के आदेश की अनदेखी इस तरह होने दी जाये गी तो जनता का विशवास न्यायपालिका में कैसे रहै गा? जनता में तो यही संदेश जाये गा कि शायद न्ययपालिका को भी राजनेताओं से और उच्च अधिकारियों से अपमानित होने की आदत हो चुकी है।

विविध आयोग

हमारे देश में कई तरह के आयोग हैं जिन के अध्यक्ष राजनेता या उन के रिश्तेदार होते हैं। यह आयोग बच्चों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिये बने हैं। कभी-कभार यह आयोग पहुंच वाले आरोपियों के हितों का संरक्षण करने कि लिये सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ हस्तक्षेप करने के लिये मैदान में भी उतरते हैं। इशरतजहां, सौहराबूद्दीन, जाकिया जाफरी को इनसाफ दिलाने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं परन्तु बेचारी राजबाला जैसी महिलाओं के साथ जुल्म या किसी मासूम के साथ बलात्कार भी हो जाये तो इन आयोगों को नीन्द से जगाना क्यों पडता है? साधारण जनता के मामलों से उन्हें कोई सरोकार क्यों नहीं होता? अगर होता, तो राजबाला के केस में भी अब तक कई पुलिसकर्मी जेलों मे जाकर वहीं से रिटायर भी हो चुके होते। आयोगों से कोई उम्मीद लगाना भैंसे का दूध दोहने जैसी बात है।

मीडिया

अगर किसी मीडिया – कर्मी को पुलिस या किसी राबर्ट वाड्रा जैसे व्यक्ति के कारण छोटी-मोटी चोट लग जाये तो हमारा मीडिया दिन-रात उसी मुद्दे पर विधवा–विलाप करता रहता है, लेकिन इस घटना पर मीडिया पिछले तीन वर्षों से क्यों चुप्पी साधे बैठा रहा है? कुछ गिने-चुने मिडियाई पेशेवर बहस करने वाले प्रवक्ता संजय-दत्त की पैरोल, सचिन को भारत-रत्न बनाने की सिफारिश, तरुण तेजपाल की बेगुनाही आदि के बारे में विशेष बहस करते हैं उन्हों ने दिल्ली की जनता के खिलाफ़ इस अन्याय पर क्यों बहस नहीं करी ? अनदेखी का यह मुद्दा क्या इनवेस्टीगेटिव जनर्लिज्म के कार्य क्षेत्र में नहीं आता? मीडिया स्टिंग-आप्रेशन या जांच पडताल से क्या पता नहीं करवा सका कि इस ऐफ़ आई आर पर क्या तफ्तीश करी गयी है? क्या इस केस में अब कोई सनसनी या आर्थिक लाभ नहीं?

राजनेता

हमारे राजनेता अकसर भडकाऊ भाषणों से जनता को हिंसा और तोडफोड के लिये उकसाते हैं, निषेध आज्ञाओं का उलंघन करवाते हैं, और अपनी गिरफ्तारी के फोटो निकलवाने के तुरन्त बाद जमानत पर रिहा हो कर अपने घरों को भी लौट जाते हैं। बस, इस से आगे वह अदृष्य हो जाते हैं। अगले चुनावों तक उन का कुछ पता नहीं चलता। इस घटना-स्थल में रहने वाली जनता की सेवा का जिम्मा आजकल जिन नेताओं के पास है वह दिल्ली में सरकार बनाने के चक्कर में व्यस्त हैं। चुनाव के समय ही जनता में दिखाई पडें गे। वैसे नयी दिल्ली विधान सभा क्षेत्र के विधायक केजरीवाल हैं। उन से अपेक्षा करनी चाहिये कि वह इस घटना की स्टेटस रिपोर्ट जनता के सामने रखें।

अपराधी कौन – ?

उस घटना को बीते आज तीन वर्ष पांच महीने बीत चुके हैं। लेकिन राजबाला की आत्मा को आज भी इन्तिजार है कि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद भी इस देश में चेतना आये गी। क्या दिल्ली पुलिस को आज तक भी यह पता नहीं चला कि वह ‘अज्ञात’ लोग कौन थे जिन के विरुद्ध रिपोर्ट लिखी गयी थी? उस थाने के प्रभारी, उस इलाके में जनता के प्रतिनिधि – पार्षद, विधायक, सासंद ने क्या यह जानने की कोशिश करी कि ऐफ़ आई आर पर अभी तक क्या कारवाई करी गयी है? वह ‘अज्ञात’ अपराधी अब तक क्यों नहीं पकडे या पहचाने गये? कौन किस से पूछ-ताछ करने गया था?

राजबाला का परिवार, स्वामी रामदेव, तत्कालीन मुख्य मन्त्री शीला दिक्षित, उस काल की सर्वे-सर्वा सोनियां गांधी, प्रधान मंत्री मनमोहन सिहं, गृह मंत्री शिन्दे, सलाहकार कपिल सिब्बल, चिदाम्बरम और कई अन्य छोटे-बडे लोग, सभी दिल्ली में तो रहते रहै हैं। क्या किसी को भी नहीं पता कि देश की राजधानी में इतना बडा कांड, जिस ने देश को विदेशों में भी शर्म-सार किया था, जिस काण्ड ने उच्चतम न्यायालय की आत्मा को भी झिंझोड दिया था, वह किन ‘अज्ञात’ अपराधियों ने करा था? वह आज तक पकडे क्यों नहीं गये? क्या वह ऐफ़ आई आर अभी तक फाईलों में जिन्दा दफ़न है या मर चुकी है?

सरकार की गुड-गवर्नेंस

इस रावण लीला के समय केन्द्र और दिल्ली, दोनो जगह काँग्रेस की सरकारें थीं। इसलिये उस समय के प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्री को जबाब देना चाहिये कि पिछले तीन वर्षों में ‘अज्ञात’ अपराधियों की पहचान अब तक क्यों नहीं करी गयी? उन्हें पता था कि दिल्ली में स्वामी रामदेव योग शिविर करने वाले थे जिस में काले धन का मुद्दा भी उठाया जाये गा। जब स्वामी रामदेव दिल्ली आये थे तो उन का स्वागत केन्द्र सरकार के वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी, कानून तथा मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल तथा अन्य मन्त्रियों ने किया था। उन के बीच में बातचीत के कई दौर भी चले थे। फिर क्या कारण थे कि अचानक रात को सोते हुये निहत्थे लोगों पर ‘अज्ञात’ लोगों ने लाठिया बरसानी शुरु कर दीं थीं?

देश की राजधानी में इतने मन्त्रियों के रहते कोई साधारण पुलिस अधिकारी इस तरह का निर्णय नहीं ले सकता था। केन्द्र और दिल्ली सरकार दोनो का यह भी पता था कि उस रात स्वामी रामदेव को गिरफ्तार कर के किसी अज्ञात स्थान पर भेजा जाये गा जिस के लिये ऐक हेलिकापटर पहले से ही सफदरजंग हवाई अड्डे पर तैनात था। अतः अगर वरिष्ठ केन्द्रीय मन्त्रियों से पूछा गया होता तो अब तक ‘अज्ञात’ अपराधियों का पता देश वासियों को लग जाना था। क्या हम यह मान लें कि हमारी पुलिस इतनी गयी गुज़री है कि वह इतनी देर तक यह पता नहीं लगा सकी? क्या हमारे देश में गुड-गवर्नेंस के यही मापदण्ड हैं? नरेन्द्र मोदी की सरकार को आये अभी पांच महीने ही हुये हैं इस लिये इन्तिजार करना पडेगा कि वह इस विषय में क्या करती है।

स्वामी रामदेव ने तो चाण्क्य की तरह अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का अनथक प्रयास किया है और काँग्रेसी सत्ता को मिटाने में नरेन्द्र मोदी की भरपूर कोशिश करी है। अब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का उत्तरदाईत्व है कि 2011 की रावण-लीला के दोषियों के साथ क्या कानूनी कारवाई करी जाये ताकि भारत स्वाभिमान के योगऋषि रामदेव को न्याय दिलाया जा सके। आज कल दिल्ली की सातों सीटों पर भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं जो इस केस को निष्कर्ष तक लेजाने के लिये प्रयत्नशील होने चाहियें।

अपनी मृत-आत्मा को पुनर्जीवन दो

सहनशीलता, अहिंसा, सदभावना, धर्म निर्पेक्षता आदि शब्दों के पीछे भारत के नागरिक अपनी लाचारी, अकर्मण्यता और कायरपने को छुपाते रहते हैं। उन के राष्ट्र नायक-नायिकाओं की श्रेणी में आजकल खान-त्रिमूर्ति, तेन्दूलकर, धोनी, और सनी लियोन जैसे नाम हैं जिन के मापदण्डों पर राजबाला जैसी घरेलू महिलाओं का कोई महत्व नहीं। इसलिये भारत में अगले दो सौ वर्षों तक अब कोई युवा-युवती भगत सिहं या लक्ष्मी बाई नहीं बने सकते क्योंकि हमारे पास अब उस तरह का डी ऐन ऐ ही नहीं बचा।

वैसे तो सभी राजनेताओं, मीडिया वालों को, और तो और काँग्रेसियों को भी काला धन की स्वदेश वापिसी में देरी के कारण नीन्द नहीं आ रही और वह नरेन्द्र मोदी को लापरवाही के ताने देते रहते हैं, लेकिन जिस महिला ने कालेधन की खोज के लिये अपनी जान की बलि दी थी उस को न्याय दिलवाने के लिये कोई सामने नहीं आया।

इस वक्त यह सब बातें मामूली दिखाई पडती हैं लेकिन सोचा जाये तो मामूली नहीं। जब हम व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं तो सोचना होगा कि वह कौन ‘अज्ञात’ लोग हैं जो पूरे तन्त्र पर हमैशा हावी रहते हैं। जिन के कारण राजबाला को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद भी इनसाफ नहीं मिलता और सुप्रीम कोर्ट भी अवमानना को इस तरह क्यों सह लेती है। राजबाला तो हमैशा के लिये इस भ्रष्ट तंत्र के मूहं पर कालिख पोत कर जा चुकी हैं लेकिन अगली बार आप में से किसी के घर की सदस्या भी राजबाला हो सकती है – यह समझने की जरूरत हम सभी को है।

अगर आप की आत्मा जाग रही है तो इस लेख को इतना शेयर करें कि मृत राजबाला की चीखें बहरे लोगों को भी चुनाव के समय तो सुनाई दे जायें। हम यह गीत देश भक्ति से ज्यादा नेहरू भक्ति के कारण गाते रहते हैं जिसे कभी दिल से भी गाना चाहिये – इस गीत को चुनाव का मुद्दा बना दो –

जो शहीद हुये हैं उन की ज़रा याद करो कुरबानी।

चाँद शर्मा

 

काँग्रेसी दीमक का प्रकोप


काँग्रेस ने देश का तीन हथियारों से विनाश किया है।

पहला विनाश – विकास के नाम गाँधी-नेहरू परिवारों के नाम पर योजनायें तैयार हो जाती रही हैं और फिर कुछ समय बाद ही उन योजनाओं में से घोटाले और जाँच कमेटियाँ आदि शुरु होती रही हैं। भ्रष्टाचार सभी तरह के विकास योजनाओं को निगलता रहा है। मीडिया कुछ दिन तक ढोल पीटता है, जाने पहचाने बुद्धिजीवी टीवी पर बहस करते हैं, कुछ गिरफतारियाँ होती हैं, अपराधी जमानतों पर छूट जाते हैं और चींटी की चाल से अदालतों में केस रैंगने लगते हैं। लम्बे अरसे के बाद ज्यादातर आरोपी सबूतों के अभाव के कारण छूट जाते हैं।

दूसरा विनाश तुष्टीकरण के नाम पर किया है। अल्प संख्यकों, दलितों, महिलाओं, विकलांगों, वरिष्ट नागरिकों, किसानों, उग्रवादियों तथा ‘स्वतन्त्रता सैनानियों’ के नाम पर कई तरह की पुनर्वास योजनायें, स्शकतिकरण कानून, विशेष अदालतें, वजीफे, सबसिडिज, कोटे, बनाये जाते रहै हैं। आरक्षण के बहाने समाज को बाँटा है, भ्रष्टाचार के रास्ते खोलने के लिये कई कानूनों में भारी छूट दी है। इन सब कारणों से समाज के अंग मुख्य धारा से टूट कर अलग अलग टोलियों में बटते रहै हैं।

तीसरा विनाश बाहरी शक्तियों के तालमेल से किया है। पाकिस्तानी और बंगलादेशी घुसपैठियों के अतिरिक्त नेपाल, तिब्बत और श्रीलंका से शर्णार्थी यहाँ आकर कई वर्षों से बसाये गये हैं। जिन के खाने खर्चे का बोझ भी स्थानीय लोग उठाते हैं। मल्टीनेशनल कम्पनियाँ अपने व्यापारिक लाभ उठा रही हैं।  बडे शहरों में अविकसित राज्यों से आये बेरोजगार परिवार सरकारी जमीनो पर झुग्गियाँ डाल कर बैठ जाते हैं, मुफ्त में बिजली पानी सिर्फ इस्तेमाल ही नहीं करते बल्कि उसे वेस्ट भी करते हैं। फिर ‘ गरीबी हटाओ ’ के नारे के साथ कोई नेता उन्हें अपना निजि वोट बैंक बना कर उन्हें अपना लेता है और इस तरह शहरी विकास की सभी योजनायें अपना आर्थिक संतुलन खो बैठती हैं। अंत में य़ह सभी लोग ऐक वोट बैंक बन कर काँग्रेस को सत्ता में बिठा कर अपना अपना ऋण चुका देते हैं।

उमीद किरण को ग्रहण                                                   

काँग्रेस के भ्रष्टाचार से तंग आकर स्वामी रामदेव ने भारत स्वाभिमान आन्दोलन के माध्यम से देश में योग, स्वदेशी वस्तुओं के प्रति जाग़ृति, शिक्षा पद्धति में राष्ट्रभाषा का प्रयोग, विदेशों में भ्रष्ट नेताओं के काले धन की वापसी और व्यवस्था परिवर्तन आदि विषयों को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर चेतना की ऐक लहर पैदा करी। उन के प्रयास को विफल करने के लिये काँग्रेस ने अन्ना हजारे और केजरीवाल को भ्रष्टाचार के विरूद्ध नकली योद्धा के तौर पर खडा करवा दिया। काँग्रेस तो अपना वर्चस्व खो ही चुकी है इस लिये काँग्रेसियों के सहयोग से अब नये शासक आम आदमी के नाम से खडे हो चुके हैं जो स्वामी रामदेव और नरेन्द्र मोदी का विरोध करें गे। भ्रष्टाचार से लडने के लिये जनलोक पाल का ऐक सूत्री ऐजेंडा ले कर भेड चाल में बरगलाये गये युवा, स्वार्थी और दलबदलू नेता अब आम आदमी पार्टी की स्दस्यता पाने की दौड में जुट रहै हैं। वास्तव में यह लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध नहीं बल्कि देश की संस्कृति की पहचान की रक्षा करने वाले स्वामी रामदेव, विकास पुरुष नरेन्द्र मोदी और आम आदमी के खिलाफ ही लडें गे और देश को आर्थिक गुलामी और आराजिक्ता की तरफ धकेल दें गे।

‘AAP’ के नेताओं की नीयत और नीति

अमेरिका और उस के सहयोगी योरोपीय देश नहीं चाहते कि भारत विकसित होकर आधुनिक महा शक्ति बने और उन का प्रति स्पर्द्धी बन जाये। वह भारत को ऐक साधारण, गरीब और दया पर जीने वाला देश ही बने रहना चाहते है ताकि यह देश अपनी सँस्कृति से दूर उन्ही देशों का पिछलग्गू बना रहै, और ऐक अन्तरराष्ट्रीय मण्डी या सराय बन जाये जहाँ विदेशी मौज मस्ती के लिये आते जाते रहैं। भारत के ‘आम आदमियों ’ की आकाँक्षायें केवल अपनी शरीरिक जरूरतों को पूरा करने में ही सिमटीं रहैं।

अनुभव के आभाव में केजरीवाल और उन के मंत्री पंचायती सूझबूझ ही भारत की राजधानी का शासन चला रहै हैं। कल को यही तरीका राष्ट्रीय सरकार को चलाने में भी इस्तेमाल करें गे तो यह देश ऐक बहुत बडा आराजिक गाँव बन कर रह जाये गा जिस में अरेबियन नाईटस के खलीफों की तरह सरकारी नेता, कर्मचारी भेष बदल आम आदमी की समस्यायें हल करने के लिये कर घूमा करें गे। उन की लोक-लुभावन नीतियाँ भारत को महा शक्ति नहीं – मुफ्तखोरों का देश बना दें गी जहाँ ‘आम आदमी ’ जानवरों की तरह खायें-पियें गे, बच्चे पैदा करें और मर जायें – यह है ‘AAP’ की अदूरदर्शी नीति।

केवल खाने पीने और सुरक्षा के साथ आराम करना, बच्चे पैदा करना और मर जाना तो जानवर भी करते हैं परन्तु उन का कोई देश या इतिहास नहीं होता। लेकिन कोई भी देश केवल ‘आम आदमियों ’ के बल पर महा शक्ति नहीं बन सकता। ‘आम आदमियों ’ के बीच भी खास आदमियों, विशिष्ठ प्रतिभाओं वाले नेताओं की आवशक्ता होती है। जो मानव शरीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता।

फोकट मे जीना

लडकपन से अभी अभी निकले आम आदमी पार्टी के नेता यह नहीं जानते कि हमारे पूर्वजों ने मुफ्त खोरी के साथ जीने को कितना नकारा है और पुरुषार्थ के साथ ही कुछ पाने पर बल दिया है। आज से हजारों वर्ष पूर्व जब अमेरिका तथा योरुपीय विकसित देशों का नामोनिशान भी कहीं नहीं था भारत के ऋषि मनु ने अपने विधान मे कहा थाः-

यत्किंचिदपि वर्षस्य दापयेत्करसंज्ञितम्।

व्यवहारेण जीवंन्तं राजा राष्ट्रे पृथग्जनम्।।

कारुकाञ्छिल्पिनश्चैव शूद्रांश्चात्मोपजीविनः।

एकैकं कारयेत्कर्म मसि मसि महीपतिः ।। (मनु स्मृति 7- 137-138)

राजा (सभी तरह के प्रशासक) अपने राज्य में छोटे व्यापार से जीने वाले व्यपारियों से भी कुछ न कुछ वार्षिक कर लिया करे। कारीगरी का काम कर के जीने वाले, लोहार, बेलदार, और बोझा ढोने वाले मज़दूरों से कर स्वरुप महीने में एक दिन का काम ले।

नोच्छिन्द्यात्मनो मूलं परेषां चातितृष्णाया।

उच्छिन्दव्ह्यात्मनो मूलमात्मानं तांश्च पीडयेत्।।

तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात्कार्यं वीक्ष्य महीपतिः।

तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राजा भवति सम्मतः ।। (मनु स्मृति 7- 139-140)

(प्रशासन) कर न ले कर अपने मूल का उच्छेद न करे और अधिक लोभ वश प्रजा का मूलोच्छेदन भी न करे क्यों कि मूलोच्छेद से अपने को और प्रजा को पीड़ा होती है। कार्य को देख कर कोमल और कठोर होना चाहिये। समयानुसार राजा( प्रशासन) का कोमल और कठोर होना सभी को अच्छा लगता है।

अतीत काल में लिखे गये मनुसमृति के यह श्र्लोक आजकल के उन नेताओं के लिये अत्यन्त महत्वशाली हैं जो चुनावों से पहले लेप-टाप, मुफ्त बिजली-पानी, और तरह तरह के लोक लुभावन वादे करते हैं और स्वार्थवश बिना सोचे समझे देश के बजट का संतुलन बिगाड देते हैं। अगर उन्हें जनता का आवशक्ताओं का अहसास है तो सत्ता समभालने के समय से ही जरूरी वस्तुओं का उत्पादन बढायें, वितरण प्रणाली सें सुधार करें, उन वस्तुओं पर सरकारी टैक्स कम करें नाकि उन वस्तुओं को फोकट में बाँट कर, जनता को रिशवत के बहाने अपने लिये वोट संचय करना शुरु कर दें। अगर लोगों को सभी कुछ मुफ्त पाने की लत पड जाये गी तो फिर काम करने और कर देने के लिये कोई भी व्यक्ति तैयार नहीं होगा।

सिवाय भारत के आजकल पानी और बिजली जैसी सुविधायें संसार मे कहीं भी मुफ्त नहीं मिलतीं। उन्हें पैदा करने, संचित करने और फिर दूरदराज तक पहुँचाने में, उन का लेखा जोखा रखने में काफी खर्चा होता है। अगर सभी सुविधायें मुफ्त में देनी शुरू हो जायें गी तो ऐक तरफ तो उन की खपत बढ जाये गी और दूसरी तरफ सरकार पर बोझ निरंकुशता के साथ बडने लगे गा। क्या जरूरी नहीं कि इस विषय पर विचार किया जाये और सरकारी तंत्र की इस सार्वजनिक लूट पर अंकुश लगाया जाये। अगर ऐसा नहीं किया गया तो फोकट मार लोग देश को दीमक की तरह खोखला करते रहैं गे और ऐक दिन चाट जायें गे।

आरक्षण और सबसिडी आदि दे कर इलेक्शन तो जीता जा सकता है परन्तु वह समस्या का समाधान नहीं है। इस प्रकार की बातें समस्याओं को और जटिल कर दें गी। इमानदार और मेहनत से धन कमाने वालों को ही इस तरह का बोझा उठाना पडे गा जो कभी कम नहीं होगा और बढता ही जाये  गा।

 चाँद शर्मा

 

केजरीवाल से सवाल


भारत में जहाँ हवा और सूर्य की रौशनी जा सकती है वहाँ पर भ्रष्टाचार भी जा चुका है। पिछले सात दशकों में हमारे समाज की मान्यताओं में जो बदलाव आये हैं उन में प्रमुख स्थान भ्रष्टाचार को मिला है। किसी भी काम को शार्टकट से करने लेना या करवाने वाले को ‘हैल्पफुल एटिच्यूड’, ‘टैक्ट फुल’, ‘अडजस्टेबल’, या ‘ओपन-माईडिड’ कह कर दरकिनार कर दिया जाता है। जो नियमों के अनुसार चले उसे ‘रिजिड’, ‘दकियानूस’ या ‘रेडटेपिस्ट’ की उपाधि मिल जाती है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार अब हमारी रगों में समा गया है।

लेकिन कहीं भी अन्धेरा ज्यादा देर तक नहीं रहता। सुबह जरूर होती है। अब फिर से लोग भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं। पिछले दो दश्कों से तो हम बेसबरी से इमानदार व्यक्ति की तलाश कर रहै हैं। जिस ने भी अपने आप को ‘इमानदार’ बताया हम ने उसे ही प्रधानमन्त्री की कुरसी आफ़र कर दी। राजीव गान्धी, वी पी सिहँ, आई के गुजराल और मनमोहन सिहं आदि जैसे कई ‘इमानदार’ आये और भ्रष्टाचार के साथ साथ कई अन्य रोग भी हमारी राजनीति में लगा गये।

अन्ना और स्वामी रामदेव

इसी वातावरण में ऐक नाम अन्ना हजारे का भी उभरा जो महाराष्ट्र की राजनीति में अनशन कर के मशहूर होते गये। अन्ना अपने आप को गाँधी वादी कहते रहै हैं। सत्य तो यह है कि जब गाँधी जी ने बिडला हाऊस के प्रांगण में ‘हेराम’ कह कर अन्तिम सांस लिया था तो अन्ना नौ दस वर्ष की आयु के रहै होंगे। फिर भी वह गाँधी की तरह अपनी जिद मनवाने के लिये आमरण-अनशन का सहारा लेते रहै हैं। वह बात अलग है कि अपने आप को ‘री-यूज़’ करने के लिये अन्ना खुद ही कोई ना कोई बहाना ले कर अनशन खोलते भी रहै हैं।

अन्ना को राष्ट्रीय मंच पर स्वामी रामदेव लाये जो भ्रष्टाचार के खिलाफ सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रहै थे बल्कि व्यवस्था परिवर्तन का सक्षम विकल्प भी दे रहै थे। उस विकल्प को ठोस रूप दिया जा चुका था। उनकी योजना में स्वदेशी वस्तुओं का दैनिक जीवन में इस्तेमाल, भ्रष्ट व्यकतियों का राजनीति से निष्कासन, हिन्दी तथा प्रान्तीय भाषाओं के माध्यम से उच्च शिक्षा, योगाभ्यास के दूआरा चरित्र निर्माण और भारत स्वाभिमान की पुनर्स्थापना आदि शामिल थे। स्वामी राम देव अपने विकल्प को प्रत्यक्ष रूप देने के लिये ऐक सक्ष्म संगठन भारत स्वाभिमान भी स्थापित कर चुके थे। भारत स्वाभिमान की बहती गंगा में हाथ धोने के लिये अन्ना भी ऐक जनलोक पाल का घिसापिटा विषय लेकर कूद पडे।

थोडे ही समय पश्चात अन्ना ने अपने समर्थकों के साथ, जिन में केजरीवाल, किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश आदि अग्रेसर थे दिल्ली में अनशन पर बैठ गये। स्वामी रामदेव और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थन से देश भर में इमानदारी की चिंगारी शोलों में परिवर्तित हो चुकी थी। युवा वर्ग उत्साहित हो कर स्वामी रामदेव के साथ उन के नये समर्थक अन्ना के गीत भी गाने लगा। भाण्ड मीडिया ने शंख नाद किया की “सरकार पाँच दिन में हिल गयी… ! ”

सत्ता में बैठी काँग्रेस ने नबज को पकडा और अन्ना से तोलमोल शुरु हो गया जिस में केजरीवाल और स्वामी अग्निवेश और कपिल सिब्बल थे। आननफानन में समझोता होगया – केजरीवाल और अग्निवेश ने जोश में अपनी पीठ थपथपाई और यह कह कर सरकार का भी धन्यवाद कर दिया कि समझोता कर के “सरकार ने उन्हें अपेक्षा से अधिक दे दिया है.. !”

सफलता के जोश में अन्ना और उन के साथियों ने पहले स्वामी रामदेव का साथ छोडा। फिर केजरीवाल ने अन्ना को भी किनारे कर दिया और अपनी राजनैतिक पार्टी खडी कर दी। अन्ना का प्रभाव टिमटिमाने लगा तो वह मायूस और बीमार पड गये, मगर केजरीवाल को चेतावनी दे गये कि “ राजनीति में ना तो मेरा फोटो इस्तेमाल करना और ना ही मेरा नाम इस्तेमाल करना।”  किरण बेदी भी केजरीवाल से अलग हो गयीं। केजरीवाल नें राजनीति में अपने कदम जमाने शुरु किये। थोडे ही दिनों में जग जाहिर होगया कि सरकार का समझोता केवल छलावा था जिस का मकसद भारत स्वाभिमान आन्दोलन को कमजोर करना था। उस के बाद की कहानी सभी जानते हैं।

जोश में दिशीहीनता

केजरीवाल को काँग्रेस ने इस्तेमाल करना शुरू किया। अपनी निष्पक्षता दिखाने के लिये केजरीवाल नें भी बीजेपी नेताओं के साथ काँग्रेस के नेताओं पर भी  भ्रष्टाचार के आक्षेप लगाये। भारत में प्रगट हुये ऐकमात्र इमानदार केजरीवाल के साथ वह महत्वकाँक्षी नेता जुडने लग गये जिन के मन में चुनाव जीतने की ललक थी लेकिन न्हें कोई बडी पार्टी टिकट नहीं देती थी। मोमबत्तियों के सहारे भ्रष्टाचार के अन्धेरे को मिटाने का प्रयास करते करते युवा तो दिशा हीन हो कर थकते जा रहै थे। यह सब कुछ काँग्रेस की इच्छा के अनुकूल हो रहा था। रामदेव के संस्थानों के खिलाफ सी बी आई और सरकारी तंत्र कारवाई तेज होती गयी लेकिन केजरीवाल ने स्वामी रामदेव के समर्थन में ऐक शब्द भी नहीं कहा।

आदि काल से भारत की पहचान केवल हिन्दू देश की ही रही है। स्वामी रामदेव भारत की संस्कृति की पुनर्स्थापना की बात कर रहै थे। केजरीवाल इन विषयों से अलग हो कर जामा मसजिद के इमाम अब्दुल्ला  बुखारी को संतुष्ट करने में जुटे रहै और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से दूरी बनाने या कोसने में तत्पर रहै। काँग्रेस के साथ कदम मिलाने के लिये केजरीवाल ने अपने आप को धर्म निर्पेक्ष बताने का मार्ग चुना और इमानदारी का बुर्का ओढ लिया।

भ्रष्टाचार विरोध में सेंध

यह सर्व-विदित सत्य है कि भ्रष्टाचार करने और भ्रष्टाचारी कामों को छुपाने के साधन उसी के पास होते हैं जो सत्ता में रहता है। इस देश में पिछले छः दशकों से काँग्रेस ही सत्ता में रही है। अतः भ्रष्टाचार के लिये सर्वाधिक जिम्मेदारी काँग्रेस की है।  भ्रष्टाचार के पनपने में बी जे पी या अन्य दलों का योग्दान अगर कुछ है तो वह आटे में नमक के बराबर है।

मुख्यता सभी इमानदार लोगों को काँग्रेस के विरुद्ध ऐक जुट होना चाहिये था ताकि भ्रष्टाचार विरोधी वोटों का बिखराव ना हो। छोटे दलों से तो बाद में भी निपटा जा सकता है। लेकिन अब केजरीवाल ने भ्रष्टाचार विरोधी वोटों का बिखराव करने के लिये अपनी पार्टी को खडा किया है। इस का फायदा सिर्फ काँग्रेस को होगा और वह सत्ता में बनी रहै गी। अगर कुछ थोडे से केजरीवाल के समर्थक चुनाव जीत गये तो वह अपनी सरकार कभी नहीं बना सकें गे। वह केवल पिछलग्गू बने रहैं गे।

सरकार का काम केवल भ्रष्टाचार बन्द करना ही नहीं होता। सरकार पर देश का प्रशासन, सुरक्षा, विकास और विदेश नीति की जिम्मेदारी होती है। ऐक जनलोकपाल को कुर्सी पर तैनात कर देने से ही देश की दूसरी समस्यायें अपने आप हल नहीं करी जा सकतीं। केजरीवाल के पास कोई इस तरह की प्रतिभा या संगठन नहीं जो सरकार की जिम्मेदारियों को निभा सके। देश को इमानदारी के जोश मे इकठ्टी करी गयी भीड के सपुर्द नहीं किया जा सकता। दूर की बातें अगर दरकिनार भी करें तो भी आजतक स्थानीय बातों पर ही केजरीवाल ने अपनी राय कभी व्यक्त नहीं करी। अगर उन की नियत साफ है तो सार्वजनिक तौर पर बताये कि निम्नलिखित मुद्दों पर उन की राय क्या हैः-

  1. इनकम टैक्स कमिश्नर रहते हुए उन्हों ने कितने भ्रष्ट नेताओं को बेनकाब किया।
  2. उन की पत्नी पिछले दो दशकों से दिल्ली में ही असिस्टेन्ट इंकमटेक्स कमिश्नर के पद पर किन कारणों से तैनात रही हैं।
  3. काशमीर समस्या के समाधान के लिये उन की तथा उन की पार्टी की सोच क्या है।
  4. अयोध्या में राम जन्म भूमी विवाद के बारे में उन की पार्टी की सोच क्या है।
  5. बटला हाउस इनकाउंटर में शहीद मोहनचंद्र शर्मा के बारे क्या सोचते है।
  6. माओवादी नेता बिनायक सेन को AAP की कोर कमेटी में क्या काम दिया गया है।
  7. इमाम बुखारी के खिलाफ दर्जनों अरेस्ट वारंट है, उसके साथ अपने सम्बन्ध के बारे में क्या कहना है।
  8. कृषि घोटाला में शरद पवार के नाम पर चुप्पी क्यों साध रखी है।
  9. अनशन के दौरान, भारत माता की तस्वीर क्यों हटाई गयी थी।
  10. लोकपाल जैसी संस्था में योग्यता के बजाये आरक्षण क्यों होना चाहिये।

य़ह केवल वही प्रश्न हैं जिन का सम्बन्ध दिल्ली चुनावों से है। केजरीवाल के लिये यह केवल लिट्मस टेस्ट है कि पार्टी अध्यक्ष के नाते इन का उत्तर दें। इन बातों को केवल कुछ सदस्यों की निजि राय कह कर दर किनार नहीं किया जा सकता। कोई भी भीड चाहे कितनी भी जोश से भरी हो वह होश का स्थान नहीं ले सकती। अगर वास्तव में केजरीवाल भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते हैं तो पहले सभी भ्रष्टाचारी विरोधियों के साथ ऐक जुट हो कर भारत को काँघ्रेस मुक्त करें क्यों की काँग्रेस ही भ्रष्टाचार का वट वृक्ष है। काँग्रेस की तुलना में बी जे पी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारतीय संस्कृति का वट वृक्ष है। अगर उन में कुछ भ्रष्टाचार है तो उस से बाद में निपटा जा सकता है।

चाँद शर्मा

मीडिया की माफ़ियागिरी


मैं संत आसाराम या किसी भी धर्मगुरू का औपचारिक शिष्य नहीं हूँ। आसाराम आज कल अपने अभिमान और छिछोरेपन की वजह से अपमानित हो रहै हैं तथा घृणा और उपहास के पात्र बन गये हैं। उन का सब से बडा अपराध है कि उन्हों ने गुरू परम्परा को कलंकित किया है। उन के लिये अब ऐक ही रास्ता है कि चरित्र-हीनता के जो कुछ दोष उन पर लगे हैं उन सभी से अपने आप को कोर्ट में निरापराधी साबित करें या फिर कडी सजा भुगतने के लिये तैय्यार रहैं।

लेकिन आसाराम के गुनाहों से कहीं अधिक हमारा मीडिया गुनाहगार है जो केवल आरोपों की सूची के आधार पर कम से कम अब तक के ऐक जन-मान्य संत का चरित्र हनन करने में गैर कानूनी ढंग से मनमानी कर रहा है। जब तक आसाराम के विरुद्ध कोर्ट में कोई आरोप परमाणित नहीं हो जाता तब तक हमारे देश के कानून अनुसार आसाराम और उन का परिवार निरापराध ही माना जाये गा। मीडिया को कोई हक नहीं कि वह दिन रात उस व्यक्ति के चरित्र पर कीचड उछालता रहै जिस को देश के हजारों लोग संत मानते रहै हैं और कई आज भी मानते हैं।

अगर मीडिया को पीडित महिलाओं की सहायता करनी है तो उन्हें आर्थिक सहायता दे दें ताकि वह अपने लिये वकील कर सकें, उन महिलाओं को आश्रय दे दें जिन की सुरक्षा को खतरा है या जिन का पास साधन नहीं हैं – ताकि वह कोर्ट में जा कर अपराधी के विरूद्ध सबूत पेश कर सके। उन पीडितों के चेहरे ढक कर टी वी चैनलों पर अपनी वर्षों पुरानी व्यथा सुनाना नाटकबाजी के सिवाय और कुछ नहीं।

आज कल दो तीन आर्थिक तौर से बीमार किसम के टी वी सुबह से शाम तक आसाराम और उस के परिवार के विरुद्ध जो आनाप शनाप बकवास करते रहते हैं उन पर अंकुश लगना चाहिये और उन के खिलाफ कडी कारवाई होनी चाहिये। अगर ऐसा नहीं होता तो यह साफ है कुछ धर्मान्त्रण करवाने वाले हिन्दू विरोधी तत्व ऐक हिन्दू संत को अपमानित करने का यत्न कर रहै हैं और हमारा समाज तथा सरकारी तन्त्र यह सब कुछ खामोशी का आवरण ओढ कर देख रहा है। पहले स्वामी नित्या नन्द को, और फिर निर्मल बाबा को टीवी चैनलों के माध्यम मे दुष्प्रचार से बदनाम किया जा चुका है। अब आसाराम इस का शिकार हो रहा है । फिर स्वामी रामदेव का नम्बर लगेगा। शर्म की बात है कि ईर्षालु किस्म के कुछ बिकाऊ संत भी आसाराम के विरुद्ध इस घिनौने खेल में जुडे हुये हैं।

हिन्दू संत समाज अपने इतिहास से ही कुछ सीखे और आसाराम के विरुद्ध मीडिया प्रचार का विरोध करे। अगर पीडित महिलाओं को अपनी कहानी टीवी पर सुनानी है तो उन्हें चेहरा छुपाने के बजाये खुल कर बोलना चाहिये ताकि जनता उन की सच्चाई को भी परख सके। उन की व्यथा पर  तो अब निर्णय तो कोर्ट ने लेना है तो उन्हें अपनी कहानी जनता के बजाये कोर्ट को ही सुनानी चाहिये। ढके हुये चेहरे के पीछे जनता के सामने तो कोई भी किसी के खिलाफ कुछ भी बोल सकता है।

चांद शर्मा

नरेन्द्र मोदी की पहचान


काँग्रेस और बिकाऊ मीडिया नरेन्द्र मोदी को ‘साम्प्रदायक’ कह रहै हैं तो मुस्लिम वोट हासिल करने के लिये बी जे पी उन्हें ‘धर्म निर्पेक्ष’ बनने के लिये मजबूर कर रही है। ‘साम्प्रदायक’ और ‘धर्म निर्पेक्ष’ की परिभाषा और पहचान क्या है यह नरेन्द्र मोदी ने स्वयं स्पष्ट कर दी है – ‘इण्डिया फर्स्ट’ ! नरेन्द्र मोदी की लोक प्रियता का कारण उन की भ्रष्टाचार मुक्त ‘मुस्लिम तुष्टिकरण रहित’ छवि है। अगर नरेन्द्र मोदी को काँग्रेसी ब्राँड का धर्म निर्पेक्ष बना कर चुनाव में उतारा जाये तो फिर नितिश कुमार और नरेन्द्र मोदी में कोई फर्क नहीं रहै गा। इस लिये नरेन्द्र मोदी को नरेन्द्र मोदी ही बने रहना चाहिये।

बी जे पी के  जिन स्वार्थी नेताओं को ‘हिन्दू समर्थक’ कहलाने में ‘साम्प्रदायकता’ लगती है तो फिर वह बी जे पी छोड कर काँग्रेसी बन जायें। अगर सिख समुदाय के लिये शिरोमणि अकाली दल, मुस्लमानो के लिये मुस्लिम लीग को ‘सैक्यूलर’ मान कर उन के साथ चुनावी गठ जोड करे जा सकते हैं तो हिन्दू समर्थक पार्टी को साम्प्रदायक क्यों कहा जाता है? इस लिये अब बी जे पी केवल उन्हीं पार्टियों के साथ चुनावी गठ जोड करे जिन्हें हिन्दूत्व ऐजेंडा मंजूर हो नहीं तो ऐकला चलो…

काँग्रेस की हिन्दू विरोधी नीति

1947 के बटवारे के बाद हिन्दूओं ने सोचा था कि देश का ऐक भाग आक्रानताओं को  दे कर हिन्दू और मुस्लमान अपने-अपने भाग में अपने धर्मानुसार शान्ति से रहैं गे लेकिन गाँधी और नेहरू जैसे नेताओं के कारण हिन्दू बचे खुचे भारत में भी चैन से नहीं रह सके। उन का जीवन और हिन्दू पहचान ही मिटनी शुरु हो चुकी है। अब इटली मूल की सोनियाँ दुस्साहस कर के कहती है ‘भारत हिन्दू देश नहीं है’। उसी सोनियाँ का कठपुतला बोलता है ‘मुस्लिमों का इस देश पर प्रथम हक है’।

जयचन्दी नेता मुस्लमानों के अधिक से अधिक सुविधायें देने के लिये ऐक दूसरे से प्रति स्पर्धा में जुटे रहते हैं। मुस्लिम अपना वोट बैंक कायम कर के ‘किंग-मेकर’ के रूप में पनप रहै हैं। आज वह ‘किंग-मेकर’ हैं तो कल वह ‘इस्लामी – सलतनत’ भी फिर से कायम कर दें गे और भारत की हिन्दू पहचान हमेशा के लिये इतिहास के पन्नों में ग़र्क हो जाये गी।

देश विभाजन की पुनः तैय्यारियाँ

सिर्फ मुस्लिम धर्मान्धता को संतुष्ट करने के लिये आज फिर से हिन्दी के बदले उर्दू भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जा रहा है, सरकारी खर्च पर इस्लामी तालीम देने के लिये मदरस्सों का जाल बिछाया जा रहा है। शैरियत कानून, इस्लामी अदालतें, इस्लामी बैंक और मुस्लिम आरक्षण के जरिये समानान्तर इस्लामी शासन तन्त्र स्थापित किया जा रहा है। क्या धर्म निर्पेक्षता के नाम पर यह सब कुछ  राष्ट्रीय ऐकता को बढावा देगा या फिर से विभाजन के बीज बोये गा?

पुनर्विभाजन के फूटते अंकुर

आज जिन राज्यों में मुसलमानों ने राजनैतिक सत्ता में अपनी पकड बना ली है वहाँ पडोसी देशों से इस्लामी आबादी की घुस पैठ हो रही है, आतंकवादियों को पनाह मिल रही है, अलगाव-वाद को भड़काया जा रहा है और हिन्दूओं का अपने ही देश में शर्णार्थियों की हैसियत में पलायन हो रहा है। काशमीर, असम, केरल, आन्ध्राप्रदेश, पश्चिमी बंगाल आदि इस का  प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यासिन मलिक, अबदुल्ला बुखारी, आजम खां, सलमान खुर्शीद, औबेसी, और अनसारी जैसे लोग खुले आम धार्मिक उन्माद भडकाते हैं मगर काँग्रेसी सरकार चुप्पी साधे रहती है। अगर कोई हिन्दू प्रतिक्रिया में सच भी बोलता है तो मीडिया, अल्प संख्यक आयोग और सरकारी तंत्र सभी ऐक सुर में हिन्दू को साम्प्रदायकता का प्रमाणपत्र थमा देते हैं। बी जे पी के कायर और स्वार्थी  नेता अपने आप को अपराधी मान कर अपनी धर्म निर्पेक्षता की सफाई देने लग जाते हैं।

भारत में इस्लाम 

यह ऐक ऐतिहासिक सच्चाई है कि इस्लाम का जन्म भारत की धरती पर नहीं हुआ था। इस्लाम दोस्ती और प्रेम भावना से नहीं बल्कि हिन्दू धर्म की सभी पहचाने मिटाने के लिये ऐक आक्रान्ता की तरह भारत आया था। भारत में मुस्लमान हैं उन्ही आक्रान्ताओं के वंशज हैं या फिर उन हिन्दूओं के वंशज हैं जो मृत्यु, भय, और अत्याचार से बचने के लिये या किसी लालच से इस्लाम में परिवर्तित किये गये थे। पाकिस्तान बनने के बाद अगर मुस्लमानों ने भारत में रहना स्वीकारा था तो वह उन का हिन्दूओं पर कोई अहसान नहीं था। उन्हों ने अपना घर बार त्यागने  के बजाये भारत में हिन्दूओं के साथ रहना स्वीकार किया था। लेकिन आज भी मुस्लमानों की आस्थायें और प्ररेणा स्त्रोत्र भारत से बाहर अरब देशों में है। भारत का नागरिक होने के बावजूद वह वन्दे मात्रम, समान आचार संहिता, योगिक व्यायाम तथा स्थानीय हिन्दू परम्पराओं से नफरत करते हैं। उन का उन्माद इस हद तक है कि संवैधानिक पदों पर रहते हुये भी उन की सोच में कोई बदलाव नहीं। और क्या प्रमाण चाहिये?

 गोधरा की चिंगारी

गोधरा स्टेशन पर हिन्दू कर-सेवकों को जिन्दा ट्रेन में जला डालना अमानवी अत्याचारों की चरम सीमा थी जो गुजरात में ऊँट की पीठ पर आखिरी तिनका साबित हुयी थी। अत्याचार करने वालों पर हिन्दूओं ने तत्काल प्रतिकार लिया और जब तक सरकारी तंत्र अचानक भडकी हिंसा को रोकने के लिये सक्ष्म होता बहुत कुछ हो चुका था। उस समय देश की सैनायें सीमा की सुरक्षा पर तैनात थीं। फिर भी गुजरात की नरेन्द्र मोदी सरकार ने धर्म निर्पेक्षता के साथ प्रतिकार की आग को काबू पाया और पीडितों की सहायता करी। लेकिन क्या आज तक किसी धर्म निर्पेक्ष, मानवअधिकारी ने मुस्लिम समाज को फटकारा है? क्या किसी ने कशमीर असम, और दिल्ली सरकार को हिन्दू-सिख कत्लेआम और पलायन पर फटकारा है?

अत्याचार करना पाप है तो अत्याचार को सहना महापाप है। सदियों से भारत में हिन्दू मुस्लमानों के संदर्भ में यही महापाप ही करते आ रहै थे। क्या आज तक किसी मानव अधिकार प्रवक्ता, प्रजातंत्री, और धर्म निर्पेक्षता का राग आलापने वालों ने मुस्लमानों की ‘जिहादी मुहिम’ को नकारा है? भारत में धर्म निर्पेक्षता की दुहाई देने वाले बेशर्म मीडिया या किसी मुस्लिम बुद्धिजीवी ने इस्लामी अत्याचारों के ऐतिहासिक तथ्यों की निंदा करी है?

 हिन्दूओं की आदर्शवादी राजनैतिक मूर्खता

मूर्ख हिन्दू जिस डाली पर बैठते हैं उसी को काटना शुरु कर देते हैं। खतरों को देख कर कबूतर की तरह आँखें बन्द कर लेते हैं और कायरता, आदर्शवाद और धर्म निर्पेक्षता की दलदल में शुतर्मुर्ग की तरह अपना मूँह छिपाये रहते हैँ। आज देश आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अल्प-संख्यक तुष्टीकरण, बेरोजगारी और महंगाई से पूरा देश त्रस्त है। अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर देश की अनदेखी हो रही है लेकिन हिन्दू पाकिस्तान क्रिकेट देखने में व्यस्त रहते हैं या पाकिस्तानी ग़ज़लें सुनने में मस्त रहते हैं। अगर निष्पक्ष हो कर विचार करें तो भारत की दुर्दशा के केवल दो ही कारण है – अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और नेताओं का स्वार्थ जिस में सब कुछ समा रहा है।

अंधेरी गुफा में ऐक किरण आज के युवा अंग्रेजी माध्यम से फैलाई गयी इकतरफा धर्म निर्पेक्षता के भ्रमजाल से छुटकारा पाना चाहते हैं। वह अपनी पहचान को ढूंडना चाहते हैं लेकिन उन्हें मार्ग नहीं मिल रहा क्योंकि हमारे अधिकांश राजनेता और   बुद्धिजीवी नागरिक  मैकाले तथा जवाहरलाल नेहरू के बहकावे के वातारवर्ण में ही रंगे हुये हैं।

केवल ऐक ही विकल्प – नरेन्द्र मोदी

युवाओं के समक्ष केवल नरेन्द्र मोदी ही ऐक उमीद की किरण बनकर ऐक अति लोकप्रिय नेता की तरह उभरे हैं। आज भ्रष्टाचार और मुस्लिम तुष्टिकरण के खिलाफ सुब्रामनियन स्वामी का ऐकाकी संघर्ष युवाओं को प्रेरणा दे रहा है। आज युवाओं को अतीत के साथ जोडने में स्वामी रामदेव की योग-क्रान्ति, स्वदेशी आयुर्वेदिक विकल्प तथा भारत स्वाभिमान आन्दोलन सफल हो रहै हैं लेकिन धर्म निर्पेक्षता की आड में काँग्रेस, पारिवारिक नेता, बिकाऊ पत्रकार, स्वार्थी नेता, बी जे पी के कुछ नेता, इस्लामिक संगठन तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तरह तरह से भ्रान्तियाँ फैलाने में जुटे हैं ताकि भारत अमरीका जैसी महा शक्तियों का पिछलग्गु ही बना रहै।

बी जे पी अब तो  साहस करे

अगर बी जे पी को भारत माता या राम से कोई लगाव है तो बे खटके यह घोषणा करनी चाहिये कि दो तिहाई मतों से सत्ता में आने पर पार्टी निम्नलिखित काम करे गीः-

  •  धर्म के नाम पर मिलने वाली सभी तरह की सबसिडियों को बन्द किया जाये गा।
  • परिवारों या नेताओं के नाम पर चलने वाली सरकारी योजनाओं का राष्ट्रीय नामंकरण दोबारा किया जाये गा।
  •  भ्रष्ट लोगों के खिलाफ समय सीमा के अन्तर्गत फास्ट ट्रैक कोर्टों में मुकदमें चलाये जायें गे और मुकदमें का फैसला आने तक उन की सम्पत्ति जब्त रहै गी।
  • पूरे देश में शिक्षा का माध्यम राष्ट्रभाषा या राज्य भाषा में होगा। अंग्रजी शिक्षा ऐच्छिक हो गी।
  •  जिन चापलूस सरकारी कर्मचारियों ने कानून के विरुद्ध कोई काम किया है तो उन के खिलाफ भी प्रशासनिक कारवाई की जाये गी।
  • धारा 370 को संविधान से खारिज किया जाये गा।
  • पूरे देश में सरकारी काम हिन्दी और राज्य भाषा में होगा।
  • समान आचार संहिता लागू करी जाये गी।

तुष्टीकरण की जरूरत नहीं

अकेले नरेन्द्र मोदी ने ही प्रमाणित किया है कि ‘तुष्टिकरण’ के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। दिल्ली में बैठे बी जे पी के नेताओं को कोई संशय नहीं रहना चाहिये कि आज भारत के राष्ट्रवादी केवल मोदी की अगुवाई को ही चाहते हैं। देश के युवा अपनी हिन्दू पहचान को ढूंड रहै हैं जो धर्म निर्पेक्षता के झूठे आवरणों में छुपा दी गयी है। जो नेता इस समय मोदी के साथ नहीं होंगे हिन्दूओं के लिये उन का कोई राजनैतिक अस्तीत्व ही नहीं रहै गा।

चाँद शर्मा

54 – भारतीय ज्ञान का निर्यात


भारतीय साहित्य का नष्टीकरण इतना व्यापक था कि प्राचीन इतिहास के कोई उल्लेख शेष नहीं बचे थे और वास्तव में आज जो कुछ भी भारतीय इतिहास में पढाया जाता है उस का सर्जन योरूपियन लोगों ने लंका, चीन, मयनमार (बर्मा), तिब्बत आदि देशों से प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों से, बचे खुचे पुरातत्व समारकों के अवशेषों और इस्लामी शासकों के ‘वाक्यानवीसों’ के लेखान आदि से इकठ्ठा किया है। बहुत कुछ स्वार्थवश मन घडन्त भी जोडा है जिस से अंग्रेज़ी उपनेषवाद की नीति को समर्थन मिलता रहै।

बचे खुचे अवशेष

मुस्लिम आक्रान्ताओं ने विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया था और बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। फिर भी सौभाग्यवश गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र, चिकित्सा तथा दर्शन क्षेत्र के कई ग्रन्थ तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के नष्ट होने से पूर्व अरबी भाषा में अनुवादित हो चुके थे। इसी श्रंखला में सौभाग्यवशः-

  • कुछ धार्मिक तथा अध्यात्मिक ग्रन्थों की मूल प्रतियाँ जो देश भर में कई स्थलों पर कुछ हितेषियों ने बचा कर छिपा दीं थी वह भी बच गयीं। उन्हीं में से कुछ को कालान्तर अरबी फारसी में अनुवाद कर के अरब देशों में प्रयोग किया गया और फिर वह योरुप में भी अनुवादित रूप में ही पहुँच गयीं।
  • कुछ सूफी दार्शनिक भारतीय ज्ञान-विज्ञान तथा ललित कलाओं से प्रभावित भी हुये थे और उन्हों ने भी उस ज्ञान का क्रियात्मक इस्तेमाल भी किया।

अपवाद स्वरूप कुछ गिने चुने मुस्लिम बुद्धिजीवियों तथा शासकों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान को संरक्षण भी दिया और उस में योग्दान भी दिया जिन में हिन्दी साहित्य, कला तथा संगीत के क्षेत्र मुख्य हैं। इन में अमीर खुसरो, मलिक मुहम्मद जायसी, रहीम, रसखान, तानसेन, दारा शिकोह, मसीतखान और रजाखान के नाम मुख्य हैं।

संगीत का रूपान्तिकरण

तेहरवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत पद्धति में संस्कृत शब्दों के उच्चारण के स्थान पर तबले के बोल तथा निरअर्थक शब्दों को फिट कर के भारतीय रागों में ‘तराना गायन शैली’ का समावेश किया था। ‘कव्वाली’ गायन शैली आयात करने का श्रेय भी अमीर खुसरो तथा सूफी संतों को जाता है।

खुसरो ने ‘वीणा’ वाद्य यन्त्र से प्रेरित हो कर ‘सितार’ वाद्य का निर्माण किया। ‘पखावज’ को दो भागों में विभाजित कर के ‘तबले’ का रूप भी खुसरो ने दिया। यह सभी प्रयोग बाद में लोक प्रिय तो हो गये किन्तु संगीतकारों में अभी भी खुसरो के प्रयोगत्मिक प्रयासों को पूर्णत्या स्वीकारा नहीं है क्योंकि भारत में सितार वाद्ययन्त्र खुसरो से पूर्वकालीन ही माना जाता है। सितार पर आज भी मसीतखान (दिल्ली) और रजाखान (लखनऊ) की ‘बंदिशें’ ही बजाई जाती हैं।

विशेष अनुवादी प्रयत्न

अनुवाद के क्षेत्र में कुछ मुख्य उदाहरण निम्नलिखित है –

अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी – ‘बृहतसंहिता’ का सर्वप्रथम सर्वप्रथम महमूद गज़नवी के समकालीन अलबैरूनी ने अरबी भाषा में अनुवाद किया था । तत्पश्चात इसी भारतीय ग्रन्थ का फारसी भाषा में अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी ने अनुवाद किया।

नक्शाबी – 1362 ईसवी मेंसुलतान फिरोज शाह तुग़लक ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा वहाँ उसे ज्वालामुखी  मन्दिर से 1300 प्राचीन ग्रन्थ मिले। अधिकाँश ग्रन्थ तो नष्ट कर दिये गये थे किन्तु उन में से कुछ ग्रन्थों को फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। इज्जुद्दीन खालिद खानी ने भौतिक विज्ञान तथा खगोल विज्ञान के ग्रन्थों को ‘दालाएल फिरोज़शाही’ तथा ‘अबदुल’ के नाम से अनुवादित किया।. 

सुलतान ज़ायनुल अबादीन – सुलतान ज़ायनुल अबादीन ने कई संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद करवाया। इस के अतिरिक्त सुलतान सिकन्दर लोदी ने भी कई ग्रन्थों का अनुवाद फारसी भाषा को समृद्ध करने के लिये करवाया।

क़बर – गिने चुने संस्कृत ग्रन्थों का अरबी तथा फारसी भाषा में अनुवाद करने के लिये मुगल शहनशाह अक़बर ने ‘मक़तबखाना’ नाम से ऐक विभाग कायम किया था। अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर के काल में भी वैसा होता रहा। पश्चात उस के पोते दारा शिकोह ने उपनिष्दों का अनुवाद फारसी में करवाया था।

अन्तकुवेतिल दुपरोन – उन्हों नेअरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत ग्रन्थों का फरैंच तथा लेटिन भाषाओं में अनुवाद किया जो योरुप में भारतीय साहित्य को लोकप्रिय करने का निमित बने। जर्मन विदूान स्कोपन्हार भी इन्ही से प्रभावित हुआ था।

ज्ञान के प्रति योरुपियन उदासीनता

आरम्भ में योरुपवासी भारतीय ज्ञान को अपनाने के प्रति उदासीन से रहे। अधिकतर ग्रन्थों का अनुवाद ही होता रहा परन्तु उन में अर्जित ज्ञान को प्रयोगात्मिक नहीं किया गया था। आरम्भ में य़ोरुपवासी भारत के अंकों तथा दशामलव पद्धति को समझ पाने में भी विफल रहे थे। सन 1548- 1620 में डच गणितिज्ञय साईमन स्टीवन ने अपनी कृति ‘ला-थिन्डे’ के माध्यम से कुछ सफलता प्राप्त की थी। उस के पश्चात 1621 में माकिनी तथा क्रिस्टोफर क्लाइडस नें भारतीय पद्धति को अपनी कृतियों में और सरलता से उजागर किया। 1621 में ही बैकिट ने अरबी भाषा में अनुवादित संस्करण को लेटिन भाषा में ‘अर्थमैटिका’ के नाम से प्रकाशित किया 

विदेशी पर्यटकों के वृतान्त

प्राचीन काल से ही भारत में विदेशी राजदूत अथवा पर्यटक के रूप में आते रहै हैं। उन्हों ने वापिस जा कर भारत के ज्ञान, अध्यात्मिक्ता, कला-संस्कृति तथा समृद्धि के विषय में जो आलेख और वृतान्त अपने अपने देश वासियों को दिये उन के कारण भी समस्त विश्व में भारत का नाम ऐक समृद्ध ऐवम शक्तिशाली देश के रूप में उभरा और रिनेसाँ के युग में भारत खोजने के लिये योरूपीय देशों में होड सी मच गयी थी। फ्रांस, डच डैन तथा इंग्लैण्ड वासी भारत के कपडे, स्वर्ण, रत्न, इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों तथा गर्म मसालों की प्रसिद्धि से प्रभावित हो चुके थे। ऋषि वात्सायन के ‘कामसूत्र’ ने भी योरुप वासियों को विशेषता प्रभावित किया। अतः इंग्लैण्ड, फ्राँस, हालैण्ड, स्पेन तथा पुर्तगाल के नाविक भारत तक पहुँने की दौड में लग गये थे। विदेशी राजदूतों तथा पर्यटकों में मुख्य नाम निम्नलिखित हैं –

  • मैग्स्थनीज – ईसा से 350-290 वर्ष पूर्व यूनानी राजदूत मैग्स्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा। स्वदेश जा कर उस ने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक लिख कर भारत की तत्कालीन स्मृद्धि, राजनैतिक तथा प्रशासनिक परिस्थस्तियों, बुद्ध धर्म के प्रचार तथा ‘हरकुलीस’ की भारत यात्रा के बारे में अपने देश वासियों को अवगत कराया।
  • बौद्ध प्रचारक – सम्राट अशोकनें तिब्बत, अफगानिस्तान, लंका, बर्मा, कम्बोडिया, चीन, जापान, तथा दक्षिण ऐशिया के कई दूीपों में बौद्ध प्रचारक भेजे थे। विश्व का सब से बडा बौद्ध स्मारक बोरोबन्दर (इण्डोनेशिया) में आठवी शताब्दी में बनाया गया था। कम्बोडिया में विष्णु का भव्य मन्दिर है। तिब्बती भाषाकी वर्णमाला गुप्तकालीन प्रभावित है।
  • फाह्यिान – पाँचवी शताब्दी के प्रथम चरण में चीनी राजदूत फाह्यिान सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमदिूतीय के दरबार में आया था। वह कपिलस्तु, लंका तथा मगध में रहा जहाँ उस ने कई बौद्ध ग्रंथों को चीनी भाषा में अनुवाद किया और अपने साथ चीन ले गया। उस के आलेखों से प्रेरणा पा कर प्रसिद्ध चीनी ऐतिहासिक उपन्यास जरनी टु दि वेस्ट अंग्रेजी में लिखा गया था।
  • ह्यूनत्साँग –602 इस्वी में अन्य चीनी पर्यटक ह्यूनसाँग समरकन्द, अफगानिस्तान के रास्ते से सम्राट हर्षवर्द्धन के दरबार में आया था। भारत में वह 657 इस्वी तक रह कर उस ने उस ने संस्कृत का अध्यन किया और की ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया। बौद्ध मत तथा योग सम्बन्धी विषयों को उस ने अपने देश में प्रचारित किया।
  • इबन बतूता – लम्बे प्रवासों के कारण इबन बतूता को मध्यकालीन युग (1304-1368)का महान प्रवासी माना जाता है जिस ने लग भग 75000 मील की भिन्न भिन्न देशों की यात्रायें की थी जिन में पश्चिमी मध्य ऐशिया से ले कर चीन और दक्षिण पूर्वी ऐशिया के देश शामिल हैं। तुगलक वंश के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में वह अफगानिस्तान, हिन्दूकुश होता हुआ हिन्दुस्तान आया। वह सुलतान के दरबार में रहा और फिर हाँसी, खम्भात, कालीकट होता हुआ जावा सुमात्रा भी गया था। राजपूतों के नगर हाँसी को उस ने विश्व का अति सुन्दर नगर उल्लेख किया है। इबन बतूता के वृतान्त योरुपीय नाविकों के लिये प्रेरणादायक और मार्गदर्शक रहै।  
  • सर टामस रो –ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार भारत में पुर्तगालियों के आने के लगभग सौ वर्ष पीछे शुरु हुआ था। अपने व्यापार को बढाने के लिये उन्हों ने इंग्लैण्ड के तत्कालकि राजा जेम्स प्रथम को भारत में एक राजदूत भेजने की प्रार्थना की थी तभी अंग्रेजी राजदूत सर टामस रो सन 1615 में मुगल शहनशाह जहाँगीर के दरबार में आया था। टामस रो ने जहाँगीर के साथ शराब पीने की मार्फत मित्रता बढाई और अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने की सहूलियतों के साथ साथ इसाई धर्म फैलाने की इजाज़त भी दिलवायीं। उस के प्रयासों से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने में बढावा मिला और इंग्लैंड में वस्त्र निर्माण का काम शुरु हुआ। उसी के समकालीन कैप्टन हाकिन (1608) ने भी भारतीय स्मृद्धि के चर्चे समस्त योरुप वासियों को सुनाये।
  • मार्को पोलो – मार्को पोलो (1254-1324) ने पहली बार ‘सिल्क-मार्ग’ से चीन यात्रा करी और समुद्री मार्ग से वापिस ‘वेनिस-लौच’ गया था। उस ने योरुपवासियों को चीन, भारत  तथा दक्षिण ऐशिया के राज्यों के बारे में ‘दि ट्रैवल्स आफ मार्को पोलो के माध्यम से इस क्षेत्र के जन जीवन, दार्शनिक्ता, रेखागणित, खगोल विज्ञान, तथा ज्योतिष, के बारे में अवगत करवाया जिस से प्रेरणा ले कर कोलम्बस भारत खोज के लिये निकला था।

मैक्स मुल्लर दूारा ऋगवेद अनुवाद

उपनिष्दों के ज्ञान योरुप में प्रचारित किया जा चुका था जिस से वैज्ञानिक ज्ञान को क्रियात्मिक रूप मिल रहा था। सन 1845 में जर्मन विदूान मैक्स मुल्लर ने सर्व प्रथम ‘हितोपदेश ’ कथा संग्रह का अनुवाद किया। तत्पश्चात वह हिन्दू साहित्य और दार्शनिक्ता की ओर अधिक प्रभावित हुआ। उस ने 1846 में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी से सम्पर्क किया और ‘ब्रह्मो-समाज’ में शामिल हो कर भारत में संस्कृत का अध्यन किया। उसी ने ऋगवेद का जर्मन भाषा में अनुवाद किया जो कालान्तर अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया था। मेक्स मुल्लर ने चार्ल्स डार्विन की जीव उत्पति और विकास थियोरी को नहीं स्वीकारा था और उस ने हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को प्राकृतिक शक्तियों का सांकेतिक चित्रण के रूप सें स्वीकारा था जो हिन्दू विचारधारा की पुष्टि करता था। मैक्स मुल्लर के अनुवाद के फलस्वरूप योरूपवासियों में वेदों के प्रति अधिक जिज्ञासा बढी।

प्राकृतिक संयोग से बचाव 

हमें निसंकोच स्वीकारना होगा कि देश भक्ति, ज्ञान जिज्ञासा तथा ज्ञान को क्रियाशील बनाने के दृढ़ निशच्य में अंग्रेज कम से कम हमारी वर्तमान पीढी से कहीं आगे रहै हैं। उन्हों ने यूनान के माध्यम से भारतीय ज्ञान को सीखा, उस पर अनुसंधान किये और अपनी तकनीक के सहारे उसे साकार भी कर दिखाया। इस क्षेत्र में हम असफल रहै हैं। हमें तो अपने पूर्वजों के ज्ञान का अहसास ही नहीं है।

यह केवल ऐक प्राकृतिक संयोग ही है कि हमारे कई अमूल्य ग्रन्थ और उन की हस्तलिपियाँ मुस्लिम कट्टरपंथियों को हाथों नष्ट होने से बच गयीं और विश्व पटल पर आज फिर से दिखायी पड रही हैं। किसी के माध्यम से ही सही – उन का प्रयोग आज तक मानव कल्याण के लिये किया गया है। यदि वैसा ना हुआ होता तो शायद भारत में कुछ भी ना बच पाता। राजनैतिक संरक्षण के अभाव के कारण हमारे विद्या कोषों की क्षति लूट के कारण होती रही है। हम क्षति का अनुमान लगाने में भी असमर्थ हैं। हमारी सरकार धर्म निर्पेक्ष कहलाने की लालसा में हिन्दू धरोहर को बचाने कि दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रही। जब तक देश की युवा पीढी अपनी विरासत को बचाने के लिये कृत संकल्प नहीं होती तब तक हमारे पूर्वजों के अर्जित किये हुये खजाने नष्ट अथवा लुप्त होते रहें गे।

उल्लेखनीय है कि प्रचीन ग्रंथों के रख रखाव में स्वामी रामदेव के पतंजली योगपीठ ने सराहनीय काम किया है और पतंजली योगपीठ में कई दुर्लभ ग्रंथों को पुनर्जीवित किया गया है।

चाँद शर्मा

39 – आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति


स्थानीय पर्यावरण के संतुलन का संरक्षण करते करते ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त पर चलना ही हिन्दू धर्म है। प्राकृतिक जीवन जीना ही नैचुरोपैथी कहलाता है जो हिन्दू धर्म के साथ संलगित है। अतः चिकित्सा विज्ञान भारत का प्राचीनतम ज्ञान है। पृथ्वी पर सभी जीवों, पर्वतों, वनस्पतियों, खनिजों तथा औषधियों की सागर से उत्पत्ति ऐक प्रमाणित सत्य है। आयुर्वेद ग्रंथ को दिव्य चिकित्सक धनवन्तरी सागर मंथन के फलस्वरूप पृथ्वी पर लाये थे। उन्हों ने आयुर्वेद ग्रंथ प्रजापति को सौंप दिया था ताकि उस के ज्ञान को जनहित के लिये क्रियाशील किया जा सके। अनादि काल से ही भारत की राजकीय व्यवस्था प्रजा के स्वास्थ, पर्यावरण की रक्षा तथा जन सुविधाओ के प्रति कृत संकल्प रही है। 

भारतीय चिकित्सा पद्धति का उदय अथर्व वेद से हुआ, जहां रोगों के लक्षण और औषधियों की सूची के साथ उन के उपयोग भी उल्लेख किये गये हैं। आयुर्वेद ग्रंथ अथर्व वेद का ही उप वेद है जो दीर्घ आयु के संदर्भ में पूर्ण ज्ञान दर्शक है। ऋषि पतंजली कृत योगसूत्र स्वस्थ जीवन के लिये जीवन यापन पद्धति का ग्रंथ है जिस में उचित आहार, विचार तथा व्यवहार पर ज़ोर दिया गया है। इस के अतिरिक्त पुराणों उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों में भी आहार, व्यवहार तथा उपचार सम्बन्धी मौलिक जानकारी दी गयी है।

रोग जाँच प्रणाली

प्राचीन ग्रंथो के अनुसार मानव शरीर में तीन दोष पहचाने गये हैं जिन्हें वात, पित, और कफ़ कहते हैं। स्वास्थ इन तीनों के उचित अनुपात पर निर्भर करता है। जब भी इन तीनों का आपसी संतुलन बिगड जाता है तो शरीर रोग ग्रस्त हो जाता है। रोग के लक्षणों को पहचान कर संतुलन का आँकलन किया जाता है और उपचार की क्रिया आरम्भ होती है। जीवन शैली को भी तीन श्रेणियों में रखा गया है जिसे सात्विक, राजसिक तथा तामसिक जीवन शैली की संज्ञा दी गयी है। आज के वैज्ञानिक तथा चिकित्सक दोनों ही इस वैदिक तथ्य को स्वीकार करते हैं कि जीवन शैली ही मानव को स्वस्थ अथवा अस्वस्थ बनाती है। आज कल इसे ‘लाईफ़ स्टाईल डिसीज़ कहा जाता है। 

रोगों के उपचार के लिये कई प्रकार की जडी-बूटियों तथा वनस्पतियों का वर्णन अथर्व वेद तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में किया गया है। अथर्व वेदानुसार जल में सभी औषधियां समाई हुई हैं और आज भी लगभग सभी औषधियाँ जल के साथ तरल रूप में ही प्रयोग करी जाती हैं।

शल्य चिकित्सा

भले ही यह आस्था की बातें हैं परन्तु गणेश के मानवी शरीर पर हाथी का सिर, वराह अवतार के मानवी शरीर पर जंगली सुअर का सिर, नरसिहं अवतार के मानवी शरीर पर सिहं का सिर साक्षी हैं कि अंग प्रत्यारोपण के लिये भारत के चिकित्सकों को वैचारिक प्रेरणा तो आदि काल से ही मिल चुकी थी। गौतम ऋषि दूारा शापित इन्द्र को सामान्य करने के लिये बकरे के अण्डकोष भी लगाये गये थे। उल्लेख है कि भगवान शिव ने प्रजापति दक्ष के धड पर प्रतीक स्वरूप बकरे का सिर लगा कर उसे जीवन दान दे दिया था।

वास्तव में पराचीन भारतीय चिकित्सिक भी उपचार में अत्यन्त अनुभवी तथा अविष्कारक थे। वह रुग्ण अंगों को काट कर दूसरे अंगों का प्रत्यारोपण कर सकते थे, गर्म तेल और कप आकार की पट्टी से रक्त स्त्राव को रोक सकते थे। उन्हों ने कई प्रकार के शल्य यन्त्रों का निर्माण भी किया था तथा शिक्षार्थियों को सिखाने के लिये लाक्ष या मोम को किसी पट पर फैला कर शल्य क्रिया का अभ्यास करवाया जाता था। इस के अतिरिक्त सब्ज़ियों  तथा मृत पशुओं पर भी शल्य चिकित्सा के लिये प्रयोगात्मिक अभ्यास करवाये जाते थे। भारतीय शल्य चिकित्सा चीन, श्रीलंका तथा  दक्षिण पूर्व ऐशिया के दूीपों में भी फैल गयी थी।

शरीरिक ज्ञान

अंग विज्ञान चिकित्सा विज्ञान का आरम्भ है। ईसा से छटी शताब्दी पूर्व ही भारतीय चिकित्सकों नें स्नायु तन्त्र आदि का पूर्ण ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन्हें पाचन प्रणाली, उस के विभिन्न पाचक द्रव्यों तथा भोजन के दूारा पौष्टिक तत्वों और रक्त के निर्माण की पूर्ण जानकारी थी।

ऋषि पिपलाद कृत ‘गर्भ-उपनिष्द’ के अनुसार मानव शरीर में 180 जोड, 107 मर्मस्थल, 109 स्नायुतन्त्र, और 707 नाडियाँ, 360 हड्डियाँ, 500 मज्जा (मैरो) तथा 4.5 करोड सेल होते हैं। हृदय का वजन 8 तोला, जिव्हा का 12 तोला और यकृत (लिवर) का भार ऐक सेर होता है। स्पष्ट किया गया है कि यह मर्यादायें सभी मानवों में ऐक समान नहीं होतीं क्यों कि सभी मानवों की भोजन ग्रहण करने और मल-मूत्र त्यागने की मात्रा भी ऐक समान नहीं होती। 

ईसा से पाँच सौ वर्ष पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने संतान नियोजन का वैज्ञानिक ज्ञान उल्लेख कर दिया था। उन के मतानुसार मासिक स्त्राव के प्रथम बारह दिनों में गर्भ नहीं ठहरता। गर्भ-उपनिष्द में गर्भ तथा भ्रूण विकास सम्बन्धी जो समय तालिका दी गयी है वह आधुनिक चिकित्सा ज्ञान के अनुकूल है। कई प्रकार के आहार और उपचार जन्म से पूर्व लिंग परिवर्तन सें सक्षम बताये गये हैं। ऐक अन्य ‘त्रिशिख-ब्राह्मणोपनिष्द’ में तो शरीरिक मृत्यु समय के लक्षण भी आलेखित किये गये हैं जैसे कि प्राकृतिक मुत्यु काल से पूर्व संवेदनायें शरीर से समाप्त होने लगती है। ऐक वर्ष पूर्व – पैरों के तलवों तथा हाथ पाँव के अंगूठों से, छः मास पूर्व – हाथ की कलाईयों तथा पाँव के टखनों से, एक मास पूर्व – हाथ की कोहनियों से, एक पखवाडा पूर्व – आँखों से संवेदनायें नष्ट हो जाती हैं। स्वाभाविक मृत्यु से दस दिन पूर्व – भूख पूर्णत्या नष्ट हो जाती है, पाँच दिन पूर्व – नेत्र ज्योति में जूगनु की चमक जितनी क्षमता रह जाती है, तीन दिवस पूर्व – अपनी ही नासिका की नोक दिखाई नहीं पडती और दो दिवस पूर्व – आँखों के सामने ज्योति दिखाई देनी बन्द हो जाती है। कोई चिकित्सक चाहे तो उपरोक्त आलेखों की सत्यता को आज भी आँकडे इकठ्ठे कर के परख सकता है।

जडी बूटी उपचार 

भारत में कई प्रकार के धातु तथा उन के मिश्रण, रसायन और वर्क आदि भी औषधि के तौर पर प्रयोग किये जाते थे। भारतीय चिकित्सा का ज्ञान मध्यकाल में अरब वासियों के माध्यम से योरूप गया। कीकर बबूल की गोंद लगभग दो हजार वर्ष से घरेलू उपचार की भाँति कई रोगों के निवार्ण में प्रयोग की जाती रही है। गुगल का प्रयोग ईसा से 600 वर्ष पूर्व मोटापा, गंठिया, तथा अन्य रोगों का उपचार रहा है। पुर्तगालियों ने भी कई भारतीय उपचार अपनाये जिन में त्वचा के घावों को भरने और उन्हें ठंडा रखने के लिये घावों पर हल्दी का लेप करना मुख्य था। चूलमोगरा की छाल, हरिद्रा तथा पृश्निपर्णीः कुष्ट रोग का पूर्ण निवारण करने में सक्षम हैं। भृंगशिराः (क्षयरोग), रोहणिवनस्पति (घाव भरने के लिये), कैथ (वीर्य वृद्धि के लिये) तथा पिप्पली क्षिप्त वात रोग निवारण के साथ सभी रोगों को नष्ट कर के प्राणों को स्थिर रखने में समर्थ औषधि है। भारत के प्राचीन उपचार आज भी सफलता के कारण पाश्चात्य चिकित्सकों के मन में भारतीय चिकित्सा पद्धति के प्रति ईर्षा का कारण बने हुये हैं।  

हिपनोटिजम की उत्पति

हिपनोटिजम की उत्पति भी भारत में ही हुयी थी। हिन्दू अपने रोगियों को मन्दिरों मे भी ले जाते थे जहाँ विशवास के माध्यम से वह रोग निवृत होते थे। आज कल इसी पद्धति को फेथहीलिंग कहा जाता है। बौध भिक्षु इस पद्धति को भारत से चीन और जापान आदि देशों में ले कर गये थे।

प्राचीन भारत के चिकित्साल्य

इतिहासकार विन्संट स्मिथ के मतानुसार योरूप में अस्पतालों का निर्माण दसवीं शताब्दी में हुआ किन्तु सर्व प्रथम भारतीयों नें जन साधारण के लिये चिकित्साल्यों का निर्माण किया था जो राजकीय सहायता और धनिकों के निजि संरक्षण से चलाये जाते थे। रोगियों की सेवा सर्वोत्तम सेवा समझी जाती थी। चीनी पर्यटक फाह्यान के पाटलीपु्त्र के उल्लेख के अनुसार – वहाँ कई निर्धन रोगी अपने उपचार के लिये आते थे जिन को चिकित्सक ध्यान पूर्वक देखते थे तथा उन के भोजन तथा औषधि की देख भाल करी जाती थी। वह निरोग होने पर ही विसर्जित किये जाते थे। 

स्वास्थ तथा चिकित्सा के सामाजिक नियम  

भारतीय समाज में पौरुष की परीक्षा विवाह से पूर्व अनिवार्य थी। मनु समृति में तपेदिक, मिर्गी, कुष्टरोग, तथा तथा सगोत्र से विवाह सम्बन्ध वर्जित किया गया है। 

छुआछुत का प्रचलन भी स्वास्थ के कारणों से जुडा है। अदृष्य रोगाणु रोग का कारण है यह धारणा भारतीयों में योरूप वासियों से बहुत काल पूर्व ही विकसित थी। आधुनिक मेडिकल विज्ञान जिसे जर्म थियोरी कहता है वह शताब्दियों पूर्व ही मनु तथा सुश्रुत के विधानों में प्रमाणिक्ता पा चुकी थी। इसीलिये हिन्दू धर्म के सभी विधानों सें शरीर, मन, भोजन तथा स्थल की सफाई को विशेष महत्व दिया गया है।

मनुसमृति में सार्वजनिक स्थानों को गन्दा करने वालों के प्रति मानवीय भावना रखते हुये केवल चेतावनी दे कर छोड देने का विधान है परन्तु मनु महाराज ने अयोग्य झोला छाप चिकित्सकों को दण्ड देने का विधान भी इस प्रकार उल्लेखित कर दिया थाः-

       आपद्गतो़तवा वृद्धा गर्भिणी बाल एव वा।

       परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः।।

       चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्या प्रचरतां दमः।

       अमानुषेषु प्रथमो मानषेषु तु मध्यमः।। (मनु स्मृति 9– 283-284)

जो किसी प्रकार के रोग आदि आपत्तियों में फंसा हो, अथवा वृद्धा, गर्भिणी स्त्री, बालक, यदि रास्ते में मल आदि का उत्सर्ग करें तो वह दण्डनीय नहीं हैं। उन को केवल प्रतारण मात्र कर के उन से मलादि को रास्ते से साफ करा दें, यही शास्त्रीय व्यवस्था है। वैद्यक शास्त्र के बिना अध्यन किये झूठे वैद्य हो कर विचरने वालों को, जो पशुओं की चिकित्सा में अयोग्य हों उन्हें प्रथम साहस, मनुष्यों के चिकित्सा में अयोग्य हों तो मध्यम साहस का दण्ड दें। 

भारत में पशु चिकित्सा

सम्राट अशोक ने जन साधरण के अतिरिक्त पशु पक्षियों के उपचार के लिये भी चिकित्साल्यों का प्रावधान किया था। पशु पक्षियों के उपचार की राजकीय व्यवस्था करी गयी थी जिस के फलस्वरूप भारत में पशु उपचार मानव उपचार की तरह ऐक स्वतन्त्र प्रणाली की तरह विकसित हुआ। पशु चिकित्सा के लिये प्रथक चिकित्साल्य और विशेषज्ञ थे। अश्वों तथा हाथियों के उपचार से सम्बन्धित कई मौलिक ग्रंथ उपलब्ध हैं –  

  • विष्णु धर्महोत्रः महापुराण में पशुओं के उपचार में दी जाने वाली प्राचीनतम औषधियों का वर्णन है।
  • पाल्कयामुनि रचित हस्तार्युर् वेद का उल्लेख यूनानी राजदूत मैगस्थनीज़ ने भी किया है और लिखा है कि विशेष उपचार से हाथियों की आयु भी बढायी जाती थी।
  • शालिहोत्रः उच्च कोटि के अश्वों की प्रजनन व्यव्स्था के विशेषज्ञ थे।
  • अश्व वैद्य ग्रंथ के रचिता हिप्पित्रेय जुदुदत्ता नें गऊओं के उपचार के बारे में विस्तरित  विवरण दिये हैं।

पाश्चात्य संसार के महान यूनानी दार्शनिक अरस्तु का काल ईसा से लगभग 350 वर्ष पूर्व का है। किन्तु भारत की उच्च चिकित्सा पद्धति की तुलना में उन के मतानुसार पक्षियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। ऐक वह जिन में रक्तप्रणाली थी तथा दुसरे पक्षी रक्तहीन माने गये थे। क्या वैज्ञानिक दृष्टि से ऐसा सम्भव हो सकता है। इस की तुलना मनुस्मृति में समस्त पशु पक्षियों का उन के जन्म के आधार पर, शरीरिक अंगों के अनुसार तथा उन की प्रकृति के अनुसार विस्तरित ढंग से वर्गीकरण कर के जीवन श्रंखला लिखी गयी है। इस के अतिरिक्त वाल्मीकि रामायण में भी समस्त प्राणियों की परिवार श्रंखला उल्लेख की गयी है।

भारतीय ऋषियों तथा विशेषज्ञ्यों के प्राणी वर्गीकरण को केवल इसी आधार पर नकारा नहीं जा सकता कि उन का वर्गीकरण पाश्चात्य  विशेषज्ञो के परिभाषिक शब्दों के अनुकूल नहीं है। भारतीय वर्गीकरण पूर्णत्या मौलिक तथा वैज्ञानिक है तथा हर प्रकार के संशय का निवारण करने में सक्षम है।

वर्तमान युग में भी स्वामी रामदेव प्राचीन भारतीय योग एवम चिकित्सा पद्धति का डंका विश्व पटल पर बजवा चुके हैं किन्तु व्यवसायिक स्वार्थों के कारण पाश्चात्य विशेषज्ञ्य और कुछ स्वार्थी भारतीय चिकित्सक उन का विरोध करने में जुटे हैं। भारतीय चिकित्सा पद्धति का पुर्नोदय चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ऐक शुभ संकेत है।

चाँद शर्मा

 

20 – व्यक्तित्व विकास


आजकल बड़े नगरों में व्यक्तित्व विकास के कई केन्द्र भारी फ़ीस ले कर युवाओं को नौकरियों के प्रशिक्षण देते हैं। वहाँ व्याख्यानों, गोष्ठियों  तथा सामूहिक वार्तालाप के माध्यम से युवाओं को अंग्रेज़ी में बातचीत करना तथा शिष्टाचार के गुर सिखाये जाते हैं। वास्तव में यह प्रशिक्षण सीमित होता है और किसी ना किसी नौकरी या पद विशेष के लिये ही कुछ सीमा तक उपयुक्त होता है। इसे मानवी व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कहा जा सकता।

हर व्यक्ति को पद तथा परिस्थितिनुसार कार्य प्रणाली भी बदलनी पड़ती है। प्रत्येक व्यवसाय की कार्य शैली तथा कार्य स्थल का वातावरण ऐक दूसरे से भिन्न होता है। अतः कार्य स्थल के वातावरण और कार्य शौली के अनुसार प्रत्येक कार्य वर्ग के लिये अलग अलग क्षमताओं की आवश्यक्ता भी पड़ती है। व्यक्ति तथा उस के कार्य क्षेत्र को आसानी से ऐक दूसरे के अनुकूल नहीं बदला जा सकता। व्यक्तित्व विकास के आधुनिक पाठयक्रम का क्षेत्र किसी ऐक व्यवसाय तक ही सीमित होता है।          

व्यक्तित्व विकास का मूल उद्दैश्य मानव के सम्पूर्ण व्यक्तित्व को इस प्रकार विकसित करना होना चाहिये कि व्यक्ति प्रत्येक परिस्थिति में अपना कार्य सक्ष्मता से कर सके। भारत की प्राचीन व्यक्तित्व विकास पद्धति इस कसौटी पर सक्ष्म है। 

क्रिया के निमित आवेश 

शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक आवश्यक्ताओं की पूर्ति के साथ साथ सभी जीव अपनी भावनाओं से भी प्रेरित हो कर अपने अपने कर्म करते हैं। हिन्दू विचारघारा में पाँच प्रकार की तीव्र भावनाओं के आवेशों की पहचान की गयी है जो समस्त जीवों में ऐक समान है। यह भावनायें हैं – काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार।

यह वैज्ञानिक तथ्य है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार में से किसी भी भावना का आवेश आते ही शरीर में ऐक प्रकार की रसायनिक क्रिया अपने आप आरम्भ हो जाती है जो मानव की बुद्धि को प्रभावित कर देती हैं। प्रभाव सकारात्मिक हो तो आवेश बुद्धि का सहायक बन कर कर्म का मार्ग भी दर्शाते हैं और उस के लिये साहस और क्षमता भी अर्जित कर देते हैं। ऐसी अवस्था में आवेश की रसायनिक क्रिया से प्रोत्साहित मानव अपनी जान की बाज़ी लगा कर दूसरे की जान बचाता है, ख्याति पाने के लिये असाध्य काम भी कर लेता है। आवेश के प्रभाव से ग्रस्त मानव में थोडे समय के लिये अदभुत क्षमता पैदा हो जाती हैं जिस पर बाद में मानव स्वयं ही अपनी छिपी हुई क्षमता पर आश्चर्य करने लगता है। यह आवेशों का सकारात्मिक पक्ष है।

इस के विपरीत यदि आवेश नकारात्मिक हों तो मानव चोरी, हत्या, बलात्कार, और कई बार आत्महत्या आदि करने को उद्यत हो उठता है। इस कारण से इन भावनात्मिक आवेशों को विकार भी कहा गया है और इन को नियन्त्रण में रखना आवश्यक है। इन्हीं विकारों के कारण पशु पक्षी भी सहवास, भोजन, ठिकाने, सुरक्षा तथा अपने प्रभाव के लिये मानवों की तरह ही लडते हैं। आवेश के नकारात्मिक प्रभाव से ग्रस्त मानव और पशु के स्वभाव तथा कर्म में कोई अन्तर नहीं होता।

आवेशों का जीवन में प्रभाव

प्रत्येक व्यक्ति किसी ना किसी ऐक अथवा अनेक आवेशों अथवा विकारों के प्रभाव के अधीन होता है। यही आवेश कई बार व्यक्ति के व्यक्तित्व की पहचान भी बन जाते हैं। कुछ लोग स्वभाव से अहंकारी होते हैं। कुछ उग्र स्वभाव के, कुछ कामुक तथा अप्राकृतिक आदतों के शिकार भी होते हैं। लोभ या मोह वश कुछ लोग सामाजिक तथा नैतिक मर्यादाओं को लाँघ कर अपने स्वजनो और मित्रों या किसी ऐक ही व्यक्ति का हित करने में लगे रहते हैं। कई लालच और लोभ में इतने ग्रस्त होते हैं कि उन के जीवन में अन्य कर्तव्यों का कोई महत्व नहीं रहता। आवेशों तथा विकारों में फर्क की लकीर अति सूक्षम होती है जैसे किसी असाध्य कार्य की पूर्ति स्वाभिमान बन जाती है तो किसी असाध्य कार्य को पूरा करने का केवल दावा करना अहंकार बन जाता है। क्रोध के आवेश में रण भूमि में शत्रु की हत्या करना वीरता है किन्तु क्रोध या अभिमान वश स्वार्थ के लिये किसी की हत्या करना दण्डनीय अपराध होता।

कुछ आवेश माता पिता से संस्कारों के रूप में जन्मजात होते हैं तो कुछ संगति तथा रहवास के वातावरण के कारण अपने आप पनप उठते हैं। मानव की आवश्यक्ताये भी उस के अर्जित आवेशों के स्वभावानुकूल ही बनती हैं जिन की पूर्ति के लिये मानव कर्म करते रहते हैं और फल पाते हैं। किसी ऐक ही अच्छे या बुरे कर्म से मानव जीवन में अच्छे-बुरे कर्मों के अटूट चक्कर आरम्भ हो जाते हैं जहाँ से बाहर निकल पाना कई बार असम्भव भी हो जाता है। 

मानव के शरीर में जिस प्रकार का आवेश प्रधान होता है उसी के अनुसार व्यक्ति का स्वभाव और व्यक्तित्व बन जाता है। कोई झगडालु, ईर्षालु, लालची, दबंग, डरपोक या रसिक आदि बन जाता है तो कोई वीर, निडर, दयालु और दानवीर बन जाता है। सभी मानव अपने अपने आवेशानुसार कर्म कर के उसी प्रकार के परिणाम भी भुगतते है। आवेश दुधारी तलवार की तरह हैं। आत्म सम्मान के आवेश से प्रेरित हो कर ही कुछ लोग वीरता और साहस के काम कर जाते है जिस के कारण व्यक्ति, परिवार और समाज गर्वित होता है और इस के विपरीत कुछ अहंकार के कारण छोटी सी बात पर ही दूसरों की हत्या कर देते हैं और फाँसी पर लटक जाते हैं। वह अपने परिवारों के लिये दुःख और लज्जा का कारण बन जाते हैं।

आवेश नियन्त्रण

मानव संसाधन विकास के पाठ्यक्रम में पाश्चात्य दार्शनिक अब्राहम मासलो की ‘नीड थियोरी पढाई जाती है और इस के अन्तर्गत निजि आवश्यक्ताओं की पूर्ति को ही कर्म का निमित माना गया है। अब्राहम मासलो के अनुसार निजि आवश्यक्तायें शारीरिक तथा मानसिक क्रमशः निम्न और उच्च श्रेणियों में विभाजित की गयी हैं जिन्हें पूरा करने के लिये मानवों को प्रेरणा मिलती है। लेकिन अब्राहम मासलो का ज्ञान और सिद्धान्त अधूरे हैं। उस में यह नहीं बताया गया कि आवश्यक्तायें जन्म ही क्यों लेती हैं ? इस तथ्य का उत्तर आवेशों के भारतीय सिद्धान्त में छुपा है। आवेशों के सक्रिय होने पर ही इच्छाओं और आवश्यक्ताओं का जन्म होता है जिन की पूर्ति के लिये पुरुषार्थ करना पडता है। इसीलिये इच्छाओं पर नियन्त्रण रखने पर बल दिया जाता है।  

आवेशों को संतुलित रखना जरूरी है। यदि आवेशों पर नियन्त्रण ना किया जाय तो वह विकार बन कर सब से बडे शत्रु बन जाते हैं और जीव को विनाश की ओर धकेल देते हैं। अपने आवेशों को नियन्त्रित करना, तथा विपक्षी के नकारात्मिक आवेशों को अपनी इच्छानुसार सकारात्मिक बनाना ही किसी व्यक्ति की क्षमता और सफलता का प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। इसी को दक्षता और कार्य निपुणता कहते हैं।

आवेशों को साधना के माध्यम से, स्वेछिक अनुशासन से, यम नियमों से नियन्त्रित किया जा सकता है ताकि उन का साकारात्मिक लाभ उठाया जा सके। काम को ब्रह्मचर्य, स्वच्छता, और सदाचार से, क्रोध को सत्य और अहिंसा से, लोभ को संतोष और अस्तेय की भावना से, मोह को वैराग्य, निष्पक्ष्ता और कर्तव्य परायणता से, तथा अहंकार को अपारिग्रह, सरलता, ज्ञान शालीनता तथा सेवा सहयोग से वश में रखा जा सकता है। यम नियम का निरन्तर अभ्यास ही प्राणी को पशुता से मानवता की ओर ले जाता है। जब तक आलस्य और अज्ञान की परिवृतियों को यम नियम से नियन्त्रित नहीं किया जाये गा मानव का व्यक्तित्व संतुलित नहीं हो सकता।

स्वेच्छिक अनुशासन

हिन्दू समाज में निजि रुचि अनुसार व्यवसाय चुनने तथा स्वैच्छिक अनुशासन पर बल दिया जाता है। अनुशासन को सैनिक तरीकों से लागू नहीं करवाया जाता। प्रत्याशी को आत्म-निरीक्षण, स्वैच्छिक अनुशासन तथा स्वाध्याय के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। जीवन के संस्कारों की आधारशिला बचपन से ही माता पिता घर के वातावरण में रख देते हैं तथा फिर उसी दिशा में व्यक्तित्व का विकास  निरन्तर चलता रहता है। बालक को आदर्शवाद के सामाजिक सिद्धान्त घर के वातावरण में माता पिता के संरक्षण में प्रत्यक्ष सिखाये जाते है। यम नियम बालक के मानवी विकास की दिशा में प्रथम एवमं महत्व पूर्ण कदम है। यदि इन का पालन दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में किया जाये तो चाहे हम विश्व के किसी भी स्थान पर रहैं और किसी भी धर्म अनुयायी हों, हमारे जीवन की अधिकतर समस्यायें तो पैदा ही नहीं होंगी। यदि दूसरों के कारण समस्यायें उत्पन्न हो भी गयीं तो वह प्रभावित किये बिना अपने आप ही निषक्रिय भी हो जायें गी तथा यम नियमों का पालन करने वाले के जीवन में कोई तनाव और हताशा नहीं होगी।

आत्म विकास

श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं उन में से प्रत्येक व्यक्ति अपनी रुचि अनुसार किसी भी साधना का मार्ग अपने लिये चुन सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग साधना को अपना सकते हैं। भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुन सकते हैं। इसी प्रकार तर्कवादी राज योग से अपने निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संनयासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे।

मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है।

सारांश यह है कि इस प्रकार से जो व्यक्तित्व निर्माण हो गा वह विश्व भर में सभी परिस्थितियों में सफल रहे गा। हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं कि आज भी भारत के विद्यार्थी विदेशों में सफल हैं जहाँ उन्हीं देशों के स्थानीय छात्र उन से स्पर्धा नहीं कर पाते। भारतीय सैनिक प्रथम तथा दूसरे महायुद्ध के कठिनत्म प्रदेशों में भी सक्षम रहै जब कि अन्य देशों के सैनिक उन कठिनाईयों को झेल नहीं पाये। वियतनाम जैसे छोटे देश के सामने अमेरिका जैसे समर्द्ध तथा शक्तिशाली देश के सैनिक समझोता कर के वहाँ से सुरक्षित निकलने का मार्ग खोजने के लिये मजबूर हो गये थे।  भारत का वाहन चालक विदेशों में भी धडल्ले से गाड़ी चला सकता है लेकिन एक विदेशी चालक अति-आधुनिक कार को अपने देश से बाहर नहीं चला सकता। इस प्रक्रिया में भारतीय व्यक्ति की मानसिक तथा शारीरिक क्षमता छिपी हुयी है जो उसे सभी परिस्थितियों का सामना करने का हौसला देती है। यह गुणवत्ता आधुनिक तकनीक से नहीं उपजी अपितु इस का श्रेय भारतीय जीवन के उन मूल्यों को जाता है जो व्यक्ति को हर कठिन परिस्थिति का सामना करने के लिये प्रोत्साहित करती हैं। भारतीय व्यकतित्व विकास पद्धति हर अग्नि परीक्षा में सफल होती रही है।  

तुलनात्मिक विशलेषण 

भारतीय पाठ्यक्रम में स्दैव आत्म-निर्भरता, आत्म-नियन्त्रण, दक्ष्ता, तथा मितव्यता पर बल दिया जाता रहा है। गुरुकुल वातावरण में व्यसनों, ऐशवर्य तथा अकर्मणता के लिये कोई स्थान नहीं था। स्वस्थ शरीर में स्वच्छ मन को लक्ष्य रख कर य़ोग साधना के दूारा व्यक्ति का विकास किया जाता था। उसी पद्धति का ही आज स्वामी रामदेव पुर्नप्रचार सफलता पूर्वक कर रहै हैं।

आजकल व्यक्ति की वास्तविक कमियों को बनावटी ढंग से छुपा दिया जाता है उस में योग्यताओं को विकसित नहीं किया जाता। बनावटी शिष्टाचार, वेषभूषा तथा ‘वर्क कलचर केवल आवरण हैं जो असली पर्सनेलिटी को थोडी देर के लिये ढक देते हैं। पाश्चात्य व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को दूसरे मानव से प्रतिस्पर्धा करने के लिये उकसाती है। सदाचारी बनने के बजाय मानव स्वेच्छाचारी तथा पूर्ण स्वार्थी बन कर समाज में दूसरों को मात देने की राह पर चलने लगता है। वह समाज को जोडने के बजाय समाज को तोड़ कर निजि सफलता को ही प्राथमिकता देता है। पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से यही क्रम आजकल हमारे विद्यालयों, दफतरों तथा जीवन के हर क्षेत्र में हो रहा है जिस के कारण निराशा, हताशा तथा निरंकुशता का वातावरण ही समाज में पनप रहा है। हिन्दू व्यक्तित्व सृष्टि के सभी जीवों में एकीकरण ढूंडता है, प्रतिस्पर्धी नहीं।

हिन्दू व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को निजि कर्तव्यों की ओर प्रोत्साहित करती है निजि अधिकारों तथा स्वार्थों की ओर नहीं। निजि कर्तव्यों में सर्व प्रथम देश, समाज तथा परिवार की प्राथमिक्ता है और निजि स्वार्थ सभी के पश्चात आता है। दैनिक कार्य क्षैत्र में सर्वप्रथम पर्यावरण, पशु पक्षियों के प्रति उत्तरदाईत्व को स्थान दिया गया है। पाश्चात्य व्यवसायिक कम्पनियाँ जिस सामाजिक उत्तरदाईत्व की केवल चर्चा करती हैं वह भारतीयों ने दैनिक जीवन शैली में सहस्त्रों वर्ष पूर्व ही अपना लिया था। विदेशों में कोई व्यक्ति स्वैच्छा से पीपल, बरगद या तुलसी के पौधै को पानी नहीं देता ना ही चींटियों से ले कर बड़े जानवरों के लिये गर्मी में पेय जल की व्यव्स्था ही करता है। भारत में यह कार्य किसी मजबूरी से नहीं अपितु निजि व्यक्तित्व की प्रेरणा से किया जाता है। मोक्ष (टोटल सेटिस्फेक्शन) की परिकल्पना व्यवसायिक संतुष्टि (जोब सेटिस्फेक्शन) से कहीं ऊँची परिकल्पना है। अतः हिन्दू व्यक्तित्व विकास पद्धति मानव को मानवता का अभिन्न अंग बनने को प्रेरित करती है तभी उस का पूर्ण वास्तविक विकास होता है – केवल नौकरी पाने के लिये विकास नहीं करवाया जाता।

जीवन में ऐकीकरण

आजकल हर व्यक्ति की ‘प्राईवेट लाईफ ‘और ‘प्बलिक लाईफ में ऐकीकरण नहीं होता। इस का अर्थ यह हुआ कि यदि कोई व्यक्ति जो समाज में ईमानदार, सत्यवादी और चरित्रवान होने का दावा करता है वह अपने निजि जीवन में बेइमान, झूठा या व्यभिचारी भी रह सकता है। यह व्यकतित्व का विकास नहीं विनाश है क्यों कि अन्दर बाहर व्यक्ति को ऐक समान ही होना चाहिये।

ज्ञान को केवल प्राप्त कर लेना ही मानव जीवन का लक्ष्य नहीं है। शिक्षा तथा शिष्टता के सदाचारी गुणों को दैनिक क्रियाओं में निरन्तर अपनाना भी आवश्यक है। केवल यह जान लेना कि इमानदारी और सत्य का पालन करना चाहिये पर्याप्त नहीं जब तक इमानदारी और सत्य को मन, वचन तथा कर्म से जीवन के हर प्रत्यक्ष और अपर्त्यक्ष रूप में अपनाया और दर्शाया ना जाये। यम नियम तथा गीता के योग इन्हीं को व्यक्तित्व विकास की सीढियाँ मानते हैं।

पाश्चात्य जीवन पद्धति केवल कामचलाऊ नौकरी पाने के लिये ही विकसित करती है और मानव को ऐक दूसरे का प्रतिस्पर्द्धी बना कर स्वार्थी जीवन जीने के लिये प्रोत्साहित करती है जबकि भारतीय जीवन शैली व्यक्ति को परिवार, समाज और पर्यावरण के कल्याण और पूर्ण विकास की ओर विकसित करती है।   

चाँद शर्मा 

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