हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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72 – अभी नहीं तो कभी नहीं


यह विडम्बना थी कि ऐक महान सभ्यता के उत्तराधिकारी होने के बावजूद भी हम ऐक हज़ार वर्षों से भी अधिक मुठ्ठी भर आक्रान्ताओं के दास बने रहै जो स्वयं ज्ञान-विज्ञान में पिछडे हुये थे। किन्तु उस से अधिक दःखदाई बात अब है। आज भी हम पर ऐक मामूली पढी लिखी विदेशी मूल की स्त्री कुछ गिने चुने स्वार्थी, भ्रष्ट और चापलूसों के सहयोग से शासन कर रही है जिस के सामने भारत के हिन्दू नत मस्तक हो कर गिडगिडाते रहते हैं। उस का दुस्साहसी कथन है कि ‘भारत हिन्दू देश नहीं है और हिन्दू कोई धर्म नहीं है ’। किसी भी देश और संस्कृति का इस से अधिक अपमान नहीं हो सकता।

हमारा निर्जीव स्वाभिमान

हम इतने पलायनवादी हो चुके हैं कि प्रजातन्त्र शासन प्रणाली में भी अपने हितों की रक्षा अपने ही देश करने में असमर्थ हैं। हमारे युवा आज भी लाचार और कातर बने बैठे हैं जैसे ऐक हजार वर्ष पहले थे। हमारे अध्यात्मिक गुरु तथा विचारक भी इन तथ्यों पर चुप्पी साधे बैठे हैं। ‘भारतीय वीराँगनाओं की आधुनिक युवतियों ’ में साहस या महत्वकाँक्षा नहीं कि वह अपने बल बूते पर बिना आरक्षण के अपने ही देश में निर्वाचित हो सकें । हम ने अपने इतिहास से कुछ सीखने के बजाय उसे पढना ही छोड दिया है। इसी प्रकार के लोगों के बारे में ही कहा गया है कि –

जिस को नहीं निज देश गौरव का कोई सम्मान है

वह नर नहीं, है पशु निरा, और मृतक से समान है।

अति सभी कामों में विनाशकारी होती है। हम भटक चुके हैं। अहिंसा के खोखले आदर्शवाद में लिपटी धर्म-निर्पेक्ष्ता और कायरता ने हमारी शिराओं और धमनियों के रक्त को पानी बना दिया है। मैकाले शिक्षा पद्धति की जडता ने हमारे मस्तिष्क को हीन भावनाओं से भर दिया है। राजनैतिक क्षेत्र में हम कुछ परिवारों पर आश्रित हो कर प्रतीक्षा कर रहै हैं कि उन्हीं में से कोई अवतरित हो कर हमें बचा ले गा। हमें आभास ही नहीं रहा कि अपने परिवार, और देश को बचाने का विकल्प हमारी मुठ्ठी में ही मत-पत्र के रूप में बन्द पडा है और हमें केवल अपने मत पत्र का सही इस्तोमाल करना है। लेकिन जो कुछ हम अकेले बिना सहायता के अपने आप कर सकते हैं हम वह भी नहीं कर रहै।

दैविक विधान का निरादर

स्थानीय पर्यावरण का आदर करने वाले समस्त मानव, जो ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त में विशवास रखते हैं तथा उस का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं उन की नागरिकता तथा वर्तमान पहचान चाहे कुछ भी हो। धर्म के माध्यम से आदि काल से आज तक का इतिहास, अनुभव, विचार तथा विशवास हमें साहित्य के रूप में मिले हैं। हमारा कर्तव्य है कि उस धरोहर को सम्भाल कर रखें, उस में वृद्धि करें और आगे आने वाली पीढ़ीयों को सुरक्षित सौंप दें। हमारा धार्मिक साहित्य मानवता के इतिहास, सभ्यता और विकास का पूर्ण लेखा जोखा है जिस पर हर भारतवासी को गर्व करने का पूरा अधिकार है कि हिन्दू ही मानवता की इस स्वर्ण धरोहर के रचनाकार और संरक्षक थे और आज भी हैं। विज्ञान के युग में धर्म की यही महत्वशाली देन हमारे पास है।

हम भूले बैठे हैं कि जन्म से ही व्यक्तिगत पहचान के लिये सभी को माता-पिता, सम्बन्धी, देश और धर्म विरासत में प्रकृति से मिल जाते हैं। इस पहचान पत्र के मिश्रण में पूर्वजों के सोच-विचार, विशवास, रीति-रिवाज और उन के संचित किये हुये अनुभव शामिल होते हैं। हो सकता है जन्म के पश्चात मानव अपनी राष्ट्रीयता को त्याग कर दूसरे देश किसी देश की राष्ट्रीयता अपना ले किन्तु धर्म के माध्यम से उस व्यक्ति का अपने पूर्वजों से नाता स्दैव जुड़ा रहता है। विदेशों की नागरिक्ता पाये भारतीय भी अपने निजि जीवन के सभी रीति-रिवाज हिन्दू परम्परानुसार ही करते हैं। इस प्रकार दैविक धर्म-बन्धन भूत, वर्तमान, और भविष्य की एक ऐसी मज़बूत कड़ी है जो मृतक तथा आगामी पीढ़ियों को वर्तमान सम्बन्धों से जोड़ कर रखती है।

पलायनवाद – दास्ता को निमन्त्रण

हिन्दू युवा युवतियों को केवल मनोरंजन का चाह रह गयी हैं। आतंकवाद के सामने असहाय हो कर हिन्दू अपने देश में, नगरों में तथा घरों में दुहाई मचाना आरम्भ कर देते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि कोई पडोसी आ कर उन्हें बचा ले। हमने कर्म योग को ताक पर रख दिया है हिन्दूओं को केवल शान्ति पूर्वक जीने की चाह ही रह गयी है भले ही वह जीवन कायरता, नपुसंक्ता और अपमान से भरा हो। क्या हिन्दू केवल सुख और शान्ति से जीना चाहते हैं भले ही वह अपमान जनक जीवन ही हो?

यदि दूरगामी देशों में बैठे जिहादी हमारे देश में आकर हिंसा से हमें क्षतिग्रस्त कर सकते हैं तो हम अपने ही घर में प्रतिरोध करने में सक्ष्म क्यों नहीं हैं ? हिन्दू बाह्य हिंसा का मुकाबला क्यों नहीं कर सकते ? क्यों मुठ्ठी भर आतंकवादी हमें निर्जीव लक्ष्य समझ कर मनमाना नुकसान पहुँचा जाते हैं ? शरीरिक तौर पर आतंकवादियों और हिन्दूओं में कोई अन्तर या हीनता नहीं है। कमी है तो केवल संगठन, वीरता, दृढता और कृतसंकल्प होने की है जिस के कारण हमेशा की तरह आज फिर हिन्दू बाहरी शक्तियों को आमन्त्रित कर रहै हैं कि वह उन्हे पुनः दास बना कर रखें।

आज भ्रष्टाचार और विकास से भी बडा मुद्दा हमारी पहचान का है जो धर्म निर्पेक्षता की आड में भ्रष्टाचारियों, अलपसंख्यकों और मल्टीनेश्नल गुटों के निशाने पर है। हमें सब से पहले अपनी और अपने देश की हिन्दू पहचान को बचाना होगा। विकास और भ्रष्टाचार से बाद में भी निपटा जा सकता है। जब हमारा अस्तीत्व ही मिट जाये गा तो विकास किस के लिये करना है? इसलिये  जो कोई भी हिन्दू समाज और संस्कृति से जुडा है वही हमारा ‘अपना’ है। अगर कोई हिन्दू विचारधारा का भ्रष्ट नेता भी है तो भी हम ‘धर्म-निर्पेक्ष’ दुशमन की तुलना में उसे ही स्वीकारें गे। हिन्दूओं में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये प्रत्येक हिन्दू को अपने आप दूसरे हिन्दूओं से जुडना होगा।

सिवाय कानवेन्ट स्कूलों की ‘मोरल साईंस’ के अतिरिक्त हिन्दू छात्रों को घरों में या ‘धर्म- निर्पेक्ष’ सरकारी स्कूलों में नैतिकता के नाम पर कोई शिक्षा नहीं दी जाती। माता – पिता रोज मर्रा के साधन जुटाने या अपने मनोरंजन में व्यस्त-मस्त रहते हैं। उन्हें फुर्सत नहीं। बच्चों और युवाओं को अंग्रेजी के सिवा बाकी सब कुछ बकवास या दकियानूसी दिखता है। ऐसे में आज भारत की सवा अरब जनसंख्या में से केवल ऐक सौ इमानदार व्यक्ति भी मिलने मुशकिल हैं। यह वास्तव में ऐक शर्मनाक स्थिति है मगर भ्रष्टाचार की दीमक हमारे समस्त शासन तन्त्र को ग्रस्त कर चुकी है। पूरा सिस्टम ही ओवरहाल करना पडे गा।

दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता

इजराईल भारत की तुलना में बहुत छोटा देश है लेकिन अपने स्वाभिमान की रक्षा करनें में हम से कई गुना सक्षम है। वह अपने नागरिकों की रक्षा करने के लिये अमेरीका या अन्य किसी देश के आगे नहीं गिड़गिड़ाता। आतंकियों को उन्हीं के घर में जा कर पीटता है। भारत के नेता सबूतों की गठरी सिर पर लाद कर दुनियां भर के आगे अपनी दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता का रोना रोने निकल पड़ते हैं। कितनी शर्म की बात है जब देश की राजधानी में जहां आतंकियों से लड़ने वाले शहीद को सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया जाता है वहीं उसी शहीद की कारगुज़ारी पर जांच की मांग भी उठाई जाती है क्यों कि कुछ स्वार्थी नेताओं का वोट बेंक खतरे में पड़ जाता है।

आज अपने ही देश में हिन्दु अपना कोई भी उत्सव सुरक्षा और शान्ति से नहीं मना पाते। क्या हम ने आज़ादी इस लिये ली थी कि मुसलमानों से प्रार्थना करते रहें कि वह हमें इस देश में चैन से जीने दें ? क्या कभी भी हम उन प्रश्नों का उत्तर ढूंङ पायें गे या फिर शतरंज के खिलाडियों की तरह बिना लडे़ ही मर जायें गे ?

अहिंसात्मिक कायरता

अगर हिन्दूओं को अपना आत्म सम्मान स्थापित करना है तो गाँधी-नेहरू की छवि से बाहर आना होगा। गाँधी की अहिंसा ने हिन्दूओं के खून में रही सही गर्मी भी खत्म कर दी है ।

गाँधी वादी हिन्दू नेताओं ने हमें अहिंसात्मिक कायरता तथा नपुंसक्ता के पाठ पढा पढा कर पथ भ्रष्ट कर दिया है और विनाश के मार्ग पर धकेल दिया है। हिन्दूओं को पुनः समर्ण करना होगा कि राष्ट्रीयता परिवर्तनशील होती है। यदि धर्म का ही नाश हो गया तो हिन्दूओं की पहचान ही विश्व से मिट जाये गी। भारत की वर्तमान सरकार भले ही अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष कहे परन्तु सभी हिन्दू धर्म-निर्पेक्ष नहीं हैं बल्कि धर्म-परायण हैं। उन्हें जयघोष करना होगा कि हमें गर्व है कि हम आरम्भ से आखिर तक हिन्दू थे और हिन्दू ही रहैं गे।

उमीद की किऱण

हिन्दूओं के पास सरकार चुनने का अधिकार हर पाँच वर्षों में आता है फिर भी यदि प्रजातन्त्र प्रणाली में भी हिन्दूओं की ऐसी दुर्दशा है तो जब किसी स्वेच्छाचारी कट्टरपंथी अहिन्दू का शासन होगा तो उन की महा दुर्दशा की परिकल्पना करना कठिन नहीं। यदि हिन्दू पुराने इतिहास को जानकर भी सचेत नही हुये तो अपनी पुनार्वृति कर के इतिहास उन्हें अत्याधिक क्रूर ढंग से समर्ण अवश्य कराये गा। तब उन के पास भाग कर किसी दूसरे स्थान पर आश्रय पाने का कोई विकल्प शेष नहीं होगा। आने वाले कल का नमूना वह आज भी कशमीर तथा असम में देख सकते हैं जहाँ हिन्दूओं ने अपना प्रभुत्व खो कर पलायनवाद की शरण ले ली है।

आतंकवाद के अन्धेरे में उमीद की किऱण अब स्वामी ऱामदेव ने दिखाई है। आज ज़रूरत है सभी राष्ट्रवादी, और धर्मगुरू अपनी परम्पराओं की रक्षा के लिये जनता के साथ स्वामी ऱामदेव के पीछे एक जुट हो जाय़ें और आतंकवाद से भी भयानक स्वार्थी राजनेताओं से भारत को मुक्ति दिलाने का आवाहन करें। इस समय हमारे पास स्वामी रामदेव, सुब्रामनियन स्वामी, नरेन्द्र मोदी, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संगठित नेतृत्व से उत्तम और कोई विकल्प नहीं है। शंका निवार्ण के लिये यहाँ इस समर्थन के कारण को संक्षेप में लिखना प्रसंगिक होगाः-

  • स्वामी राम देव पूर्णत्या स्वदेशी और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। उन्हों ने भारतीयों में स्वास्थ, योग, आयुर्वौदिक उपचार तथा भ्रष्टाचार उनमूलन के प्रति जाग्रुक्ता पैदा करी है। उन का संगठन ग्राम इकाईयों तक फैला हुआ है।
  • सुब्रामनियन स्वामी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के बुद्धिजीवी हैं और भ्रष्टाचार उनमूलन तथा हिन्दू संस्कृति के प्रति स्मर्पित हो कर कई वर्षों से अकेले ही देश व्यापी आन्दोलन चला रहै हैं।
  • नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्व-सक्ष्म लोक प्रिय और अनुभवी विकास पुरुष हैं। वह भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं।
  • राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश का ऐक मात्र राष्ट्रवादी संगठन है जिस के पास सक्ष्म और अनुशासित स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं का संगठन है। यही ऐक मात्र संगठन है जो आन्तकवाद और धर्मान्तरण का सामना करने में सक्ष्म है तथा हिन्दू राष्ट्र के प्रति समर्पित है।

आज अगर कोई भी नेता या संगठन, चाहे किसी भी कारण से हिन्दूओं के इस अन्तिम विकल्प को समर्थन नहीं देता तो वह हिन्दू विरोधी और हिन्दू द्रोही ही है। अगर अभी हम चूक गये तो फिर अवसर हाथ नहीं आये गा। इस लिये अगर अभी नहीं तो कभी नहीं।

समापन

हिन्दू महा सागर की यह लेख श्रंखला अब समापन पर पहुँच गयी है। इस के लेखों में जानकारी केवल परिचयात्मिक स्तर की थी। सागर में अनेक लहरें दिखती हैं परन्तु गहराई अदृष्य होती है। अतिरिक्त जानकारी के लिये जिज्ञासु को स्वयं जल में उतरना पडता है।

यदि आप गर्व के साथ आज कह सकते हैं कि मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है तो मैं श्रंखला लिखने के प्रयास को सफल समझूं गा। अगर आप को यह लेखमाला अच्छी लगी है तो अपने परिचितों को भी पढने के लिये आग्रह करें और हिन्दू ऐकता के साथ जोडें। आप के विचार, सुझाव तथा संशोधन स्दैव आमन्त्रित रहैं गे।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

 

 

 

70 – धर्म हीनता या हिन्दू राष्ट्र ?


हिन्दुस्तान में अंग्रेजों का शासन पूर्णत्या ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शासन था। उन्हों ने देश में ‘विकास’ भी किया। दैनिक जीवन के प्रशासन कार्यों में अंग्रेज़ हमारे भ्रष्ट नेताओं की तुलना में अधिक अनुशासित, सक्ष्म तथा ईमानदार भी थे। फिर भी हम ने स्वतन्त्रता के लिये कई बलिदान दिये क्योंकि हम अपने देश को अपने पूर्वजों की आस्थाओं और नैतिक मूल्यों के अनुसार चलाना चाहते थे। परन्तु स्वतन्त्रता संघर्ष के बाद भी हम अपने लक्ष्य में असफल रहै। 

भारत विभाजन के पश्चात तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दुस्तान की पहचान ही मिटती जा रही है। शहीदों के बलिदान के ऐवज में इटली मूल की मामूली हिन्दी-अंग्रजी जानने वाली महिला हिन्दुस्तान के शासन तन्त्र की ‘सर्वे-सर्वा’ बनी बैठी है। हिन्दू संस्कृति और इतिहास का मूहँ चिडा कर यह कहने का दुसाहस करती है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। उसी महिला का मनोनीत किया हुआ प्रधान मन्त्री कहता है कि ‘देश के संसाधनों पर प्रथम हक तो अल्पसंख्यकों का है’। हमारे देश का शासन तन्त्र लगभग अल्प संख्यकों के हाथ में जा चुका है और अब स्वदेशी को त्याग भारत विदेशियों की आर्थिक गुलामी की तरफ तेजी से लुढक रहा है। हम बेशर्मी से अपनी लाचारी दिखा कर प्रलाप कर रहै हैं “अब हम ‘अकेले (सौ करोड हिन्दू)’ कर ही क्या सकते हैं? ”

धर्म-निर्पेक्षता का असंगत विचार

शासन में ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का विचार ‘कालोनाईजेशन काल’ की उपज है। योरूप के उपनेषवादी देशों ने जब दूसरे देशों में जा कर वहाँ के स्थानीय लोगों को जबरदस्ती इसाई बनाना आरम्भ किया था तो उन्हें स्थानीय लोगों का हिंसात्मक विरोध झेलना पडा था। फलस्वरुप उन्हों ने दिखावे के लिये अपने प्रशासन को इसाई मिशनरियों से प्रथक कर के अपने सरकारी तन्त्र को ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बताना शुरु कर दिया था ताकि आधीन देशों के लोग विद्रोह नहीं करें। इसी कारण सभी आधीन देशों में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारों की स्थापना करी गई थी।

शब्दकोष के अनुसार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शब्द का अर्थ है – जो किसी भी ‘नैतिक’ तथा ‘धार्मिक आस्था’ से जुडा हुआ ना हो। हिन्दू विचारधारा में जो व्यक्ति या शासन तन्त्र नैतिकता अथवा धर्म में विश्वास नहीं रखता उसे ‘अधर्मी’ या ‘धर्म-हीन’ कहते हैं। ऐसा तन्त्र केवल अनैतिक, स्वार्थी, व्यभिचारिक तथा क्रूर राजनैतिक शक्ति है, जिसे अंग्रेजी में ‘माफिया’ कहते हैं। अनैतिकता के कारण वह उखाड फैंकने लायक है। 

आज पाश्चात्य जगत में भी जिन  देशों में तथा-कथित ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारें हैं उन का नैतिक झुकाव स्थानीय आस्थाओं और नैतिक मूल्यों पर ही टिका हुआ है। पन्द्रहवीं शाताब्दी में जब इसाई धर्म का दबदबा अपने उफान पर था तब इंग्लैण्ड के ट्यूडर वँशी शासक हेनरी अष्टम नें ईंग्लैण्ड के शासन क्षेत्र में पोप तथा रोमन चर्च के हस्तक्षेप पर रोक लगा दी थी और ईंग्लैण्ड में कैथोलिक चर्च के बदले स्थानीय प्रोटेस्टैंट चर्च की स्थापना कर दी थी। प्रोटेस्टैंट चर्च को ‘चर्च आफ ईंग्लैण्ड भी कहा जाता है। यद्यपि ईंग्लैण्ड की सरकार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ होने का दावा करती है किन्तु वहाँ के बादशाहों के नाम के साथ डिफेन्डर आफ फैथ (धर्म-रक्षक) की उपाधि भी लिखी जाती है। ईंग्लैण्ड के औपचारिक प्रशासनिक रीति रिवाज भी इसाई और स्थानीय प्रथाओं और मान्यताओं के अनुसार ही हैं। 

भारत सरकार को पाश्चात्य ढंग से अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष घोषित करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है क्यों कि भारत में उपजित हिन्दू धर्म यथार्थ रुप में ऐक प्राकृतिक मानव धर्म है जो पर्यावरण के सभी अंगों को अपने में समेटे हुये है। आदिकाल से हिन्दू धर्म और हिन्दू देश ही भारत की पहचान रहै हैं।

पूर्णत्या मानव धर्म

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से स्वतन्त्र है। प्रत्येक व्यक्ति निजि क्षमता और रुचि अनुसार अपने लिये मोक्ष का मार्ग स्वयं ढूंडने के लिये स्वतन्त्र है। ईश्वर से साक्षाताकार करने के लिये हिन्दू ईश्वर के पुत्र, ईश्वरीय के पैग़म्बर या किसी अन्य ‘विचौलिये’ की मार्फत नहीं जाते। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर का प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों को अपना ‘ईश्वरीयत्व’ स्वीकार करने के लिये बाधित और दण्डित नहीं कर सकता। 

हम बन्दरों की संतान नहीं हैं। हमारी वँशावलियाँ ऋषि परिवारों से ही आरम्भ होती हैं जिन का ज्ञान और आचार-विचार विश्व में मानव कल्याण के लिये कीर्तिमान रहै हैं। अतः 1869 में जन्में मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा देना ऐक राजनैतिक भूल नहीं, बल्कि देश और संस्कृति के विरुद्ध काँग्रेसी नेताओं और विदेशियों का ऐक कुचक्र था जिस से अब पर्दा उठ चुका है।

हिन्दू धर्म वास्तव में ऐक मानव धर्म है जोकि विज्ञान तथा आस्थाओं के मिश्रण की अदभुत मिसाल है। हिन्दूओं की अपनी पूर्णत्या विकसित सभ्यता है जिस ने विश्व के मानवी विकास के हर क्षेत्र में अमूल्य योग्दान दिया है। स्नातन हिन्दू धर्म ने स्थानीय पर्यावरण का संरक्षण करते हुये हर प्रकार से ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दिया है। केवल हिन्दू धर्म ने ही विश्व में ‘वसुदैव कुटम्बकुम’ की धारणा करके समस्त विश्व के प्राणियों को ऐक विस्तरित परिवार मान कर सभी प्राणियों में ऐक ही ईश्वरीय छवि का आभास किया है। 

भारत का पुजारी वर्ग कोई प्रशासनिक फतवे नहीं देता। हिन्दूओं ने कभी अहिन्दूओं के धर्मस्थलों को ध्वस्त नहीं किया। किसी अहिन्दू का प्रलोभनों या भय से धर्म परिवर्तन नहीं करवाया। हिन्दू धर्म में प्रवेष ‘जन्म के आधार’ पर होता है परन्तु यदि कोई स्वेच्छा से हिन्दू बनना चाहे तो अहिन्दूओं के लिये भी प्रवेष दूार खुले हैं।

हिन्दू धर्म की वैचारिक स्वतन्त्रता

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, या साकार। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं जो अन्य धर्मों में घृणा के पात्र समझे जाते हैं।

हिन्दूओं ने कभी किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है। प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार ऐक या अनेक ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी दी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बल्कि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं।

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार वस्त्र पहने या कुछ भी ना पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन बिताये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हर नयी विचारघारा को हिन्दू धर्म में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है। नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान दिया गया है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है तथा हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी धर्म में नहीं है।

राष्ट्र भावना का अभाव 

पूवर्जों का धर्म, संस्कृति, नैतिक मूल्यों में विशवास, परम्पराओ का स्वेच्छिक पालन और अपने ऐतिहासिक नायकों के प्रति श्रध्दा, देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भ हैं। आज भी हमारी देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भों पर कुठाराघात हो रहा है। ईसाई मिशनरी और जिहादी मुसलिम संगठन भारत को दीमक की तरह खा रहे हैं। धर्मान्तरण रोकने के विरोध में स्वार्थी नेता धर्म-निर्पेक्ष्ता की दीवार खडी कर देते हैं। इन लोगों ने भारत को एक धर्महीन देश समझ रखा है जहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर सकता है। अगर कोई हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बनाये तो वह ‘उदार’,‘प्रगतिशील’ और धर्म-निर्पेक्ष है – परन्तु अगर कोई इस देश के हिन्दू को हिन्दू बने रहने को कहे तो वह ‘उग्रवादी’ ‘कट्टर पंथी’ और ‘साम्प्रदायक’ कहा जाता है। इन कारणों से भारत की नयी पी़ढी ‘लिविंग-इन‘ तथा समलैंगिक सम्बन्धों जैसी विकृतियों की ओर आकर्षित होती दिख रही है।

इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता

कत्लेाम और भारत विभाजन के बावजूद अपने हिस्से के खण्डित भारत में हिन्दू क्लीन स्लेट ले कर मुस्लमानों और इसाईयों के साथ नया खाता खोलने कि लिये तैय्यार थे। उन्हों नें पाकिस्तान गये मुस्लमान परिवारों को वहाँ से वापिस बुला कर उन की सम्पत्ति भी उन्हें लौटा दी थी और उन्हें विशिष्ट सम्मान दिया परन्तु बदले में हिन्दूओं को क्या मिला ? ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रमाण पत्र पाने के लिये हिन्दू और क्या करे ? 

व्यक्तियों से समाज बनता है। कोई व्यक्ति समाज के बिना अकेला नहीं रह सकता। लेकिन व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की सीमा समाज के बन्धन तक ही होती है। एक देश के समाजिक नियम दूसरे देश के समाज पर थोपे नही जा सकते। यदि कट्टरपंथी मुसलमानों या इसाईयों को हिन्दू समाज के बन्धन पसन्द नही तो उन्हें हिन्दुओं से टकराने के बजाये अपने धर्म के जनक देशों में जा कर बसना चाहिये।

मुस्लिम देशों तथा कई इसाई देशों में स्थानीय र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में धर्म-निर्पेक्ष्ता के साये में उन्हें ‘खुली छूट’ क्यों है ? महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर भीड़ नमाज़ पढ सकती है, दिन हो या रात किसी भी समय लाउडस्पीकर लगा कर आजा़न दी जा सकती है। किसी भी हिन्दू देवी-देवता के अशलील चित्र, फि़ल्में बनाये जा सकते हैं। हिन्दु मन्दिर, पूजा-स्थल, और सार्वजनिक मण्डप स्दैव आतंकियों के बम धमाकों से भयग्रस्त रहते हैं। इस प्रकार की इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता से हिन्दू युवा अपने धर्म, विचारों, परम्पराओं, त्यौहारों, और नैतिक बन्धनो से विमुख हो उदासीनता या पलायनवाद की और जा रहे हैं।

हिन्दू सैंकडों वर्षों तक मुसलसान शासकों को ‘जज़िया टैक्स’ देते रहै और आज ‘हज-सब्सिडी‘ के नाम पर टैक्स दे रहै हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय भी अवैध घौषित कर चुका है। भारत की नाम मात्र धर्म-निर्पेक्ष केन्द्रीय सरकार ने ‘हज-सब्सिडी‘ पर तो रोक नहीं लगायी, उल्टे इसाई वोट बैंक बनाये रखने के लिये ‘बैथलहेम-सब्सिडी` देने की घोषणा भी कर दी है। भले ही देश के नागरिक भूखे पेट रहैं, अशिक्षित रहैं, मगर अल्पसंख्यकों को विदेशों में तीर्थ यात्रा के लिये धर्म-निर्पेक्षता के प्रसाद स्वरूप सब्सिडी देने की भारत जैसी मूर्खता संसार में कोई भी देश नही करता।

यह कहना ग़लत है कि धर्म हर व्यक्ति का ‘निजी’ मामला है, और उस में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जब धर्म के साथ ‘जेहादी मानसिक्ता’ जुड़ जाती है जो दूसरे धर्म वाले का कत्ल कर देने के लिये उकसाये तो वह धर्म व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। ऐसे धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था भी दूषित होती है और सरकार को इस पर लगाम लगानी आवशयक है।

धर्म-निर्पेक्षता का छलावा

हमारे कटु अनुभवों ने ऐक बार फिर हमें जताया है कि जो धर्म विदेशी धरती पर उपजे हैं, जिन की आस्थाओं की जडें विदेशों में हैं, जिन के जननायक, और तीर्थ स्थल विदेशों में हैं वह भारत के विधान में नहीं समा सकते। भारत में रहने वाले मुस्लमानों और इसाईयों ने किस हद तक धर्म निर्पेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकारा है और वह किस प्रकार से हिन्दू समाज के साथ रहना चाहते हैं यह कोई छिपी बात नहीं रही।        

धार्मिक आस्थायें राष्ट्रीय सीमाओं के पार अवश्य जाती हैं। भारत की सुरक्षा के हित में नहीं कि भारत में विदेशियों को राजनैतिक अधिकारों के साथ बसाया जाये। मुस्लिमों के बारे में तो इस विषय पर जितना कहा जाय वह कम है। अब तो उन्हों ने हिन्दूओं के निजि जीवन में भी घुसपैठ शुरु कर दी है। आज भारत में हिन्दू अपना कोई त्यौहार शान्त पूर्ण ढंग से सुरक्षित रह कर नहीं मना सकते। पूजा पाठ नहीं कर सकते, उन के मन्दिर सुरक्षित नहीं हैं, अपने बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते, तथा उन्हें सुरक्षित स्कूल भी नहीं भेज सकते क्यों कि हर समय आतंकी हमलों का खतरा बना रहता है जो स्थानीय मुस्लमानों के साथ घुल मिल कर सुरक्षित घूमते हैं।

अत्मघाती धर्म-निर्पेक्षता

धर्म-निर्पेक्षता की आड ले कर साम्यवादी, आतंकवादी, और कट्टरपँथी शक्तियों ने संगठित हो कर  भारत में हिन्दूओं के विरुद्ध राजसत्ता के गलियारों में अपनी पैठ जमा ली है। स्वार्थी तथा राष्ट्रविरोधी हिन्दू राजनेताओं में होड लगी हुई है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे से बढ चढ कर हिन्दू हित बलिदान कर के अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करें और निर्वाचन में उन के मत हासिल कर सकें। आज सेकूलरज्मि का दुर्प्योग अलगाववादी तथा राष्ट्रविरोधी तत्वों दूारा धडल्ले से हो रहा है। विश्व में दुसरा कोई धर्म निर्पेक्ष देश नहीं जो हमारी तरह अपने विनाश का सामान स्वयं जुटा रहा हो।

ऐक सार्वभौम देश होने के नातेहमें अपना सेकूलरज्मि विदेशियों से प्रमाणित करवाने की कोई आवश्यक्ता नहीं। हमें अपने संविधान की समीक्षा करने और बदलने का पूरा अधिकार है। इस में हिन्दूओं के लिये ग्लानि की कोई बात नहीं कि हम गर्व से कहें कि हम हिन्दू हैं। हमें अपनी धर्म हीन धर्म-निर्पेक्षता को त्याग कर अपने देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना होगा ताकि भारत अपने स्वाभिमान के साथ स्वतन्त्र देश की तरह विकसित हो सके।

धर्म-हीनता और लाचारी भारत को फिर से ग़ुलामी का ओर धकेल रही हैं। फैसला अब भी राष्ट्रवादियों को ही करना है कि वह अपने देश को स्वतन्त्र रखने के लिये हिन्दू विरोधी सरकार हटाना चाहते हैं या नहीं। यदि उन का फैसला हाँ में है तो अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होकर कर उस सरकार को बदल दें जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़।

चाँद शर्मा

 

64 – बटवारे के पश्चात भारत


15 अगस्त 1947 के मनहूस दिन अंग्रेजों ने भारत हिन्दूओं तथा मुस्लमानों के बीच में बाँट दिया। जिन मुठ्ठी भर मुस्लिम आक्रान्ताओं ने तलवार के साये में स्थानीय लोगों का धर्म परिवर्तन करवा कर अपनी संख्या बढायी थी, उन्हीं के लिये भारत का ऐक तिहाई भाग मूल वासियों से छीन कर मुस्लमानों को दे दिया गया। आक्रान्ताओं ने शताब्दियों पुराने हिन्दुस्तानी मूल वासियों को उन के रहवासों से भी खदेड दिया। भारत की सीमायें ऐक ही रात में अन्दर की ओर सिमिट गयीं और हिन्दूओं की इण्डियन नेशनेलिटीके बावजूद उन्हें पाकिस्तान से  हिन्दू धर्म के कारण स्दैव के लिये निकालना पडा। कितने ही स्त्री-पुरुषों और बच्चों को उन के परिवार जनों के सामने ही कत्ल कर दिया गया और कितनी ही अबलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार किये गये लेकिन उस समय और उस के बाद भी मानव अधिकारों पर भाषण देने वाले आज भी चुप्पी साधे हुये हैं। अतः यह प्रमाणित है कि व्यक्तिगत धर्म की पहचान ‘राष्ट्रीयता’ की खोखली पहचान पर हमैशा भारी पडती है।

धर्म राष्ट्रीयता से ऊपर 

य़ह दोहराना प्रासंगिक होगा कि “राष्ट्रीयता” जीवन में कई बार बदली जा सकती है किन्तु पूर्वजों का “धर्म” जीवन पर्यन्त और जीवन के बाद भी पहचान स्वरूप रहता है। धर्म के कारण ही हिन्दूओं को भारत के ऐक भाग से अपने बसे बसाये घरों को छोड कर दूसरे भाग में जा कर बे घर होना पडा था क्यों कि बटवारे के बाद वह भाग ‘पाकिस्तानी राष्ट्र’ बन गया था। हमारे हिन्दू पूर्वजों ने धर्म की खातिर अपने घर-बार और जीवन के सुखों को त्याग कर गर्व से कहा था कि ‘हम जन्म से अन्त तक केवल हिन्दू हैं और हिन्दू ही रहें गे ’। लेकिन बदले में हिन्दूओं के साथ काँग्रेसी नेताओं ने फिर छल ही किया।

हिन्दूओं के लिये स्वतन्त्रता भ्रम मात्र

15 अगस्त 1947 को केवल ‘सत्ता का बदालाव’ हुआ था जो अंग्रेजों के हाथों से उन्हीं के ‘पिठ्ठुओं’ के हाथ में चली गयी थी। गाँधी और नेहरू जैसे नेताओं के साथ विचार विमर्श करने में अंग्रेजी प्रशासन को ‘अपनापन’ प्रतीत होता था। उन्हें अंग्रेजी पत्रकारों ने विश्व पटल पर ‘प्रगतिशील’ और ‘उदारवादी’ प्रसारित कर रखा था। साधारण भारतीयों के सामने वह अंग्रेजी शासकों की तरह के ही ‘विदूान’ तथा ‘कलचर्ड लगते थे। जब वह भारत के नये शासक बन गये तो उन्हों ने अंग्रेजी परम्पराओं को ज्यों का त्यों ही बना रहने दिया। अंग्रेजों के साथ तोल-मोल करते रहने के फलस्वरूप शहीदों के खून से सींची तथाकथित ‘आजादी’ की बागडोर काँग्रेसी नेताओं के हाथ लग गयी। 

काँग्रेसी नेताओं ने दिखावटी तौर पर बटवारे को ‘स्वीकार नहीं किया’ और ‘हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे’ की दुहाई देते रहे। उन्हों ने बटवारे की जिम्मेदारी का ठीकरा मुहमम्द अली जिन्हा तथा हिन्दूवादी नेताओं के सिर पर फोडना शुरु कर दिया और उन्हें ‘फिरकापरस्त’ कह कर स्वयं ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’  के राग अलापते रहे। उसी प्रकार वह आज तक अपने दिखावटी आदर्शवाद से यथार्थ को छिपाने का असफल प्रयत्न करते रहे हैं। भारत वासियों को भ्रम में डालने के लिये काँग्रेस ने भारत को ऐक ‘धर्म-निर्पेक्ष’ देश घोषित कर दिया और हिन्दुस्तान में रहने वाले आक्रान्ताओं को बचे खुचे हिन्दू भाग का फिर से हिस्सेदार बना दिया।

भारत का बटवारा किसी ‘नस्ल’ अथवा ‘रंग-भेद’ के आधार पर नहीं हुआ था। बटवारे का कारण मुस्लमानों की हिन्दू परम्पराओं के प्रति घृणा और परस्परिक अविशवास था। चतुराई से पाकिस्तान ने हिन्दूओं को अपने देश से निकाल कर, या फिर उन्हें जबरदस्ती मुस्लमान बना कर हिन्दू-मुस्लिम समस्या का हमेशा के लिये समाधान कर लिया किन्तु भारत के काँग्रेसी नेताओं ने समस्या को कृत्रिम ढंग से छुपा कर उसे फिर से जटिल बनने दिया। सरकार धर्म-निर्पेक्ष होने का ढोंग तो करती रही किन्तु निजि जीवन में हिन्दू और मुस्लमान अपने अपने धर्म तथा उन से जुडी आस्थाओं, परम्पराओं से विमुख नहीं हुए थे। गाँधी जी नित्य “ईश्वर आल्लाह तेरो नाम” का राग अपनी प्रार्थना सभाओं में आलापते थे। हिन्दूओं ने तो इस गीत को मन्दिरों में गाना शुरू कर दिया था परन्तु किसी मुस्लमान को आज तक मस्जिद में “ईश्वर आल्लाह तेरो नाम” का गीत गाते कभी नहीं देखा गया। यथार्थ में स्वतन्त्रता के बदले हिन्दूओं की भारत में बसे हुए मुस्लमानों को संतुष्ट रखने की ऐक ज़िम्मेदारी और बढ गयी थी।

बटवारे पश्चात दूरगामी भूलें

हिन्दूओं ने स्वतन्त्रता के लिये कुर्बानियाँ दीं थी ताकि ऐक हजार वर्ष की गुलामी से मुक्ति होने के पश्चात वह अपनी आस्थाओं और अपने ज्ञान-विज्ञान को अपने ही देश में पुनः स्थापित कर के अपनी परम्पराओॆ के अनुसार जीवन व्यतीत करें। किन्तु आज बटवारे के सात दशक पश्चात भी हिन्दूओं को अपने ही देश में सिमिट कर रहना पड रहा है ताकि यहाँ बसने वाले अल्प-संख्यक नाराज ना हो जायें। हिन्दू धर्म और हिन्दूओं का प्राचीन ज्ञान आज भी भारत में उपेक्षित तथा संरक्षण-रहित है जैसा मुस्लिम और अंग्रेजों के शासन में था। हिन्दूओं की वर्तमान समस्यायें उन राजनैतिक कारणों से उपजी हैं जो बटवारे के पश्चात भारत के काँग्रेसी शासकों ने अपने निजि स्वार्थ के कारण पैदा किये।

पूर्वजों की उपेक्षा

इस्लामी शासकों के समय भी हमारे देश को ‘हिन्दुस्तान’ के नाम से जाना जाता था।  बटवारे के पश्चात नव जात पाकिस्तान नें अपने ‘जन्म-दाता’ मुहमम्द अली जिन्नाह को “कायदे आजिम” की पदवी दी तो उस की नकल कर के जवाहरलाल नेहरू ने भी मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत के “राष्ट्रपिता” की उपाधि दे डाली। भारत बीसवी शताब्दी के पाकिस्तान की तरह का कोई नव निर्मित देश नहीं था। हमारी राष्ट्रीयता तो हिमालय से भी प्राचीन थी। किन्तु नेहरू की उस ओछी और असंवैधानिक हरकत के कारण भारत वासियों के प्राचीन काल के सभी सम्बन्ध मानसिक तौर पर टूट गये और हम विश्व के सामने नवजात शिशु की तरह नये राष्ट्रपिता का परिचय ले कर घुटनों के बल चलने लगे। पूर्वजों के ज्ञान क्षेत्र की उपलब्द्धियों को नेहरू ने “गोबरयुग” (काऊडंग ऐज) की उपाधि दे डाली। वह ऐक सोची समझी साजिश थी जिस से अब पर्दा उठ चुका है।

मैकाले की शिक्षा नीति के क्रम को आगे बढाते हुये, नेहरू ने मौलाना अबुअल कलाम आज़ाद को देश का शिक्षा मन्त्री नियुक्त दिया। हिन्दू ग्रन्थ तो इस्लामी मौलानाओं की दृष्टी में पहले ही ‘कुफर’ की श्रेणी में आते थे इस लिये धर्म निर्पेक्षता का बहाना बना कर काँग्रेसी सरकार ने भारत के प्राचीन ग्रन्थों को शैक्षशिक प्रतिष्ठानों से ‘निष्कासित’ कर दिया। नेहरू की दृष्टि में नेहरू परिवार के अतिरिक्त कोई शिक्षशित और प्रगतिशील कहलाने के लायक नहीं था इसी लिये मौलाना आज़ाद के पश्चात हुमायूँ कबीर और नूरुल हसन जैसे शिक्षा मन्त्रियों की नियुक्ति से हमारे अपने ज्ञान-विज्ञान के प्राचीन ग्रन्थ केवल ‘साम्प्रदायक हिन्दू साहित्य’ बन कर शिक्षा के क्षेत्र में उपेक्षित हो गये।

इतिहास से छेड़ छाड़

मुस्लमानों ने भारत के ऐतिहासिक पुरातत्वों को नष्ट किया था। उन से ऐक कदम आगे चल कर अँग्रेजों ने अपने राजनैतिक स्वार्थ के कारण हमारे इतिहास का भ्रमात्मिक सम्पादन भी किया था – किन्तु बटवारे के पश्चात काँग्रेसी शासकों ने इतिहास को ‘धर्म-निर्पेक्ष बनाने के लिये’  ऐतिहासिक तथ्यों से छेड छाड करनी भी शुरू कर दी। प्राचीन ज्ञान विज्ञान के ग्रन्थों, वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों और पौराणिक साहित्य को हिन्दूओं का अन्धविशवास बता कर शिक्षा के क्षेत्र से निष्कासित कर के पुजारियों के हवाले कर दिया गया। देश भक्त हिन्दू वीरों तथा महानायकों के आख्यानों को साम्प्रदायक साहित्य की श्रेणी में रख दिया गया और उन के स्थान पर मुस्लिम आक्रान्ताओं को उदारवादी, धर्म निर्पोक्ष और राष्ट्रवादी की छवि में रंगना पोतना शुरु कर दिया ताकि धर्म निर्पेक्षता का सरकारी ढोंग चलता रहे। इतना ही नहीं गाँधी-नेहरू परिवार को छोडकर सभी शहीदों के योगदान की इतिहास में अनदेखी होने लगी। जहाँ तहाँ नेहरू-गाँधी परिवारों के समारक ही उभरने लगे। उन्ही के नाम से बस्तियों, नगरों, मार्गों, और सरकारी योजनाओं का नामाकरण होने लग गया और वही क्रम आज भी चलता जा रहा है।

मुस्लिमों के साधारण योगदान को ‘महान’ दिखाने की होड में तथ्यों को भी तोडा मरोडा गया ताकि वह राष्ट्रवादी और देश भक्त दिखें। आखिरी मुगल बहादुरशाह ज़फ़र को 1857 का ‘महानायक’ घोषित कर दिया गया जब कि वास्तविकता इस के उलट थी। जब सैनिक दिल्ली की रक्षा करते हुये अपना बलिदान दे रहे थे तो बहादुरशाह जफर अपने मुन्शी रज्जब अली को मध्यस्थ बना कर अपने निजि बचाव की याचना करने के लिये गुप्त मार्ग से हुमायूँ के मकबरे जा पहुँचा था और अंग्रेजों ने उसे गिरफ्तार कर लिया था।

बौद्धिक सम्पदा की उपेक्षा

अंग्रेजी तथा धर्म निर्पेक्ष शिक्षा नीति के कारण आज हिन्दू नव युवकों की नयी पीढी अपने पूर्वजों की कुर्बानियों और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र की उपलब्द्धियों से बिलकुल अनजान बन चुकी है। दुष्प्रचार के कारण हिन्दू युवा पीढी अपने पूर्वजों को अन्धविशवासी और दकियानूस ही समझती है। सरकारी धर्म निर्पेक्ष बुद्धिजीवियों का शैक्षिक संस्थानों पर ऐकाधिकार है किन्तु उन का भारतीय संस्कृति के प्रति कोई लगाव नहीं। उन के मतानुसार अंग्रेजी शिक्षा से पहले भारत में कोई शिक्षा प्रणाली ही नहीं थी। कानवेन्टों तथा अंग्रेजी माध्यम के पब्लिक स्कूलों से प्रशिक्षित स्भ्रान्त वर्ग, भारतीय जीवन शैली तथा प्रम्पराओं की अवहेलना और आलोचना करनें को ही अपनी ‘प्रगतिशीलता’ मानता है और हिन्दू धारणाओं का उपहास करना अपनी शान समझता है। 

ऐसी तुच्छ मानसिक्ता के कारण विश्व में आज भारत के सिवाय अन्य कोई देश नहीं जहाँ के नागरिकों की दिनचर्या अपने देश की संस्कृति तथा पूर्वजों की उपलब्द्धियों का उपहास उडाना मात्र रह गयी हो। उन के पास स्वदेश प्रेम और स्वदेश गौरव की कोई भी समृति नहीं है। यदि कोई किसी प्राचीन भारतीय उप्लब्द्धि का ज़िक्र भी करे तो उस का वर्गीकरण फिरकापरस्ती, दकियानूसी, भगवावाद या हिन्दू शावनिज़म की परिभाषा में किया जाता है। 

हमारे तथाकथित बुद्धिजीवी भारतीय ग्रन्थों को बिना पढे और देखे ही नकार देना अपनी योग्यता समझते हैं जो वास्तव में उन की अनिभिज्ञ्यता और आत्महीनता का प्रमाण है। यह नितान्त दुःख की बात है कि जो भारतीय ग्रन्थ विश्वविद्यालयों की शोभा बनने लायक हैं वह बोरियों में बन्द कर के किसी ना किसी निर्धन पुजारी के घर या किसी धनी के भवन की बेसमेन्ट में रखे हों गे। कुछ ग्रन्थों को विदेशी सैलानी एनटीक बना कर जब भारत से बाहर ले जाते हैं तो कभी कभार उन में संचित ज्ञान भी विश्व पटल पर विदेशी मुहर के साथ प्रमाणित हो जाता है।

यदि धर्म निर्पेक्षता का कैंसर इसी प्रकार चलता रहा तो थोडे ही समय पश्चात भारतीय ग्रन्थों को पढने तथा संस्कृत सीखने के लिये जिज्ञासुओं को आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज आदि विश्वविद्यालयों में ही जाना पडे गा। धर्म निर्पेक्षता के बहाने विद्यालयों में हिन्दू जीवन की नैतिकता तथा दार्शनिक्ता का आज कोई महत्व नहीं रह गया है। इस की तुलना में कट्टरपंथी अल्पसंख्यकों की धार्मिक शिक्षा भारत में सरकारी खर्चों पर मदरस्सों तथा अल्प संख्यक विश्वविद्यालयों में उपलब्द्ध है जिस का बोझ हिन्दू कर दाताओं पर पडता है। 

आत्म-घाती धर्म निर्पेक्षता का ढोंग

भूगोलिक दृष्टि से भारत के चारों ओर कट्टरवादी मुस्लिम देश हैं जिन की सीमायें भारत के साथ लगती हैं। उन देशों में इस्लामी सरकारें हैं जहाँ धर्म निर्पेक्षता का कोई महत्व नहीं। इस्लामी सरकार का रुप-स्वरुप स्दैव हिन्दू विरोधी होता है। उन्हों ने अपने देश के दरवाजों को गैर मुस्लिमों के लिये बन्द कर रखा है। उन के सामाजिक रीति-रीवाजों तथा परम्पराओं का हिन्दू संस्कृति से कोई सम्पर्क नहीं। उन की स्दैव कोशिश रहती है कि प्रत्येक गैर मुस्लिम देश को इस्लामी देश बनाया जाये य़ा नष्ट कर दिया जाय। ऐसी स्थिति की तुलना में हिन्दूओं ने अपने इतिहास तथा अनुभवों से कुछ नहीं सीखा और पुरानी गलतियों को बार बार दोहराते जा रहे हैं।

आज भी हिन्दू धर्म निर्पेक्षता की आड लेकर पलायनवाद में लिप्त हैं। हम ने अपनी सीमायें सभी के लिये खोल रखी हैं। भारत के काँग्रेसी नेताओं ने ‘वोट-बेंक’ बनाने के लिये ना केवल पाकिस्तान जाने वाले मुस्लमानों को रोक लिया था बल्कि जो मुस्लमान उधर जा चुके थे उन को भी वापिस बुला कर भारत में ही बसा दिया था। वही स्वार्थी नेता आज भी अल्पसंख्यकों को प्रलोभनों से उकसा रहै हैं कि भारत के साधनों पर हिन्दूओं से पहले उन का ‘प्रथम अधिकार’ है।

सभी नागरिकों में देश के प्रति प्रेम और एकता की भावना समान नहीं होती। कुछ नियमों की पूर्ति करने के पश्चात कोई भी व्यक्ति किसी भी देश की ‘नागरिक्ता’ तो प्राप्त कर सकता है किन्तु व्यक्ति की निजी अनुभूतियाँ, आस्थायें, परम्परायें, और नैतिक मूल्य ही उसे भावनात्मिक तौर पर उस देश की संस्कृति से जोडते हैं। हम ने कभी भी यह आंकने की कोशिश नहीं की कि अल्पसंख्यकों ने किस सीमा तक धर्म-निर्पेक्षता को अपने जीवन में अपनाया है। हमारी धर्म निर्पेक्षता इकतरफा हिन्दूओं पर ही लादी जाती रही है।

हिन्दूओं का शोषण

अतः बलिदानों के बावजूद हिन्दूओं को केवल बटवारा ही हाथ लगा, और वह अपने ही देश में राजकीय संरक्षण तथा सहयोग से वंचित हो कर परायों की तरह जी रहै हैं। ऐक तरफ उन्हें अपने ही दम पर समृद्ध इसाई धर्म के ईसाईकरण अभियान का सामना करना है तो दूसरी ओर उन्हें क्रूर इस्लामी उग्रवाद का मुकाबला करना पड रहा है जिन को पडौसी सरकारों के अतिरिक्त कुछ स्थानीय तत्व भी सहयोग देते हैं। इन का सामना करने में जहाँ धर्म निर्पेक्षता का ढोंग करने वाली भारतीय सरकार निरन्तर कतराती रही है, वहीं अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण के लिये हिन्दूओं की मान मर्यादाओं की बलि सरकार तत्परता से देती रहती है।

यह तो ऐक कठोर सत्य है कि हिन्दू तो स्वयं ही अपनी दयानीय स्थिति के लिये ज़िम्मेदार हैं, परन्तु इस के अतिरिक्त वह हिन्दू विरोधी तत्वों की गुटबन्दी का सामना करने में भी पूर्णत्या असमर्थ हैं जिन्हें देश के स्वार्थी राजनेताओं से ही प्रोत्साहन मिल रहा है।

चाँद शर्मा

62 – कुछ उपेक्षित हिन्दू शहीद


देश तथा धर्म के लिये अपने शहीदों की उपेक्षा करने से बडा और कोई पाप नहीं होता। वैसे तो इतिहास के पृष्टों पर इस्लामिक  तथा इसाई अत्याचारों की, और देश भक्तों की कुर्बानियों की अनगिनित अमानवीय घटनायें दर्ज हैं किन्तु यहाँ केवल उन शहीदों का संक्षिप्त उल्लेख है जिन्हें आज भी “धर्म-निर्पेक्ष” हिन्दू समाज ने मुस्लमानों की नाराजगी के कारण से उपेक्षित कर रखा है और आने वाली पीढियाँ उन के नामों से ही अपरिचित होती जा रही हैं।

1 – सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय

प्रारम्भिक जीवन – हेम चन्द्र का जन्म सन 1501 में ऐक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन के पिता राय पूर्ण दास यजमानों के लिये कर्म काण्ड तथा पूजा पाठ कर के अपनी जीविका दारिद्रता से चलाते थे।आखिरकार उन्हों ने जाति व्यवसाय के बन्धन तोड दिये और ब्राह्मण जीविका के बदले रिवाडी के समीप कुतबपुर शहर में व्यापार दूारा अपने परिवार की जीविका चलाने लगे। उन के पुत्र ‘हेमू’ (हेम चन्द्र) की शिक्षा रिवाडी में आरम्भ हुई। उस ने संस्कृत, हिन्दी, फारसी, अरबी तथा गणित के अतिरिक्त घुडसवारी में भी महारत हासिल की। समय के साथ साथ हेमू ने पिता के नये व्यवसाय में अपना योगदान देना शुरु किया। पिता सुलतान शेरशाह सूरी के लशकर को अनाज बेचते थे। अपनी योग्यता तथा इमानदारी से हेमू ने भी वहीं अपनी पहचान बना ली।

यह वह समय था जब शेरशाह सूरी ने मुगल बादशाह हुमायूँ को पराजित कर के ईरान पलायन के लिये मजबूर कर दिया था। शेरशाह सूरी की मृत्यु 1545 में हो गयी। उस के पश्चात उस का पुत्र इस्लामशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इस्लामशाह ने हेम चन्द्र को अपना सलाहकार तथा दारोग़ा चौकी तैनात कर दिया।

इस्लामशाह का उत्तराधिकारी आदिलशाह सूरी था। योग्यता तथा इमानदारी के कारण हेंम चन्द्र आदिलशाह सूरी का भी अति विशवसनीय बन गया था। उस ने हेमचन्द्र को अपना ‘वजीर-ए-आला’ नियुक्त किया और साथ ही उसे अफगान फौज का सिपहसालार भी बना दिया। आदिलशाह सूरी आराम प्रस्त, व्यसनी, और विलासी था इस लिये प्रशासन का पूरा कार्यभार हेमचन्द्र ही सम्भालता था। आदिलशाह सूरी के कई अफगान सरदारों ने विद्रोह किये जिसे दबाने के लिये हेमचन्द्र उत्तरी भारत के कई प्राँतों में गया। वह हिन्दूओं के अतिरिक्त अफगानों में लोकप्रिय था।

हिन्दू साम्राज्य की पुनर्स्थापना – हुमायूँ ने ईरान के बादशाह की मदद से 15 वर्ष के निष्कासन के बाद जुलाई 1555 में पंजाब, देहली और आगरा पर पुनः कब्जा कर लिया किन्तु छः महीने पश्चात 26 जनवरी 1556 को उस की मृत्यु हो गयी। उस समय हेमचन्द्र बँगाल में था। अफगान अपने आप को स्थानीय तथा मुगलों को अक्रान्ता समझते थे। हुमायूँ की अकस्माक मृत्यु ने हेमचन्द्र को अफगानों की अगुवाई करते हुये मुगल सत्ता को उखाड फैंकने का अवसर प्रदान कर दिया। उस ने बँगाल से दिल्ली की ओर कूच किया और मार्ग में सभी छोटे बडे युद्ध विजय करता आया। मुगल किलेदार घबरा कर इधर उधर भाग गये। ऐक के बाद ऐक, हेमचन्द्र ने 22 विजय प्राप्त कीं तथा समस्त मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश उस की आधीनता में आ गये। 6 अकतूबर 1556 को हेमचन्द्र ने दिल्ली पर भी अपना अधिकार कर लिया और मुगल सैना अपने सेनापति ताडदी बैग के साथ दिल्ली छोड कर भाग गयी।    

हेमचन्द्र ने अपने आप को सम्राट घोषित किया तथा ‘विक्रमादूतीय’ की उपाधि धारण की। इन्द्रप्रस्थ (पुराने किला) के सिंहासन पर उस का राज्याभिषेक समारोह 7 अकतूबर 1556 को हुआ जिस में हिन्दू तथा अफगान सैनापति ऐकत्रित हुये थे। इस प्रकार सम्राट पृथ्वीराज चौहान के पश्चात सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय ने चार शताब्दी पुराने मुसलिम शासन को समाप्त कर के ऐक बार फिर दिल्ली में हिन्दू साम्रज्य की स्थापना की।

प्रशासनिक सुधार – शेरशाह सूरी के काल से ही हेमचन्द्र प्रशासनिक सुधारों के साथ संलग्न थे जिन का श्रेय इतिहासकार शारशाह सूरी को देते हैं। सत्ता सम्भालते ही सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय ने प्रशासन के तन्त्र में तुरन्त सुधार करने की योजनाओं को पुनः क्रियावन्त किया तथा दोषियों को दण्डित किया। उन्हीं के बनाये हुये तन्त्र को मुगल बादशाह अकबर ने कालान्तर अपनाया था।

हिन्दूओं की अदूरदर्शिता –  जब दिल्ली में हुमायूँ की मृत्यु हुई थी, उस समय उस का 16 वर्षीय पुत्र अकबर अपने उस्ताद बैरमखाँ के साथ कलानौर पँजाब में था। बैरमखाँ ने कलानौर में ही अकबर की ताजपोशी कर दी और स्वयं को उस का संरक्षक नियुक्त कर के दिल्ली की ओर सैना के साथ कूच कर दिया। उस की सैना को रोकने के लिये सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय ने राजपूतों से संयुक्त हो कर सहयोग करने को कहा किन्तु दुर्भाग्यवश राजपूतों ने अदूरदर्श्कता से यह कह कर इनकार कर दिया कि वह किसी ‘बनिये’ के आधीन रह कर युद्ध नहीं करें गे। 

दूःखद परिणाम – पानीपत की दूसरी लडाई हिन्दू सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय और मुगल आक्रान्ता अकबर के मध्य हुई। अकबर की पराजय निशिचित थी परन्तु ऐक तीर हेमचन्द्र की आँख में जा लगा और वह बेहोश हो गये जिस के फलस्वरूप उन की सैना में भगदड मच गयी। हिन्दूओं की पराजय और अकबर की विजय हुई। हेमचन्द्र को अकबर की उपस्थिति में बैरम खाँ और अली कुली खाँ, (कालान्तर नूरजहाँ का पति) ने कत्ल कर दिया था। सम्राट हेमचन्द्र का सिर मुग़ल हरम की स्त्रियों को दिखाने के लिये काबुल भेजा गया था और उन के शरीर को दिल्ली में जलूस निकाल कर घुमाया गया था। मुगल राज पुनः स्थापित हो गया।
पिता का बलिदान – बैरमखाँ ने सैनिकों के सशस्त्र दल को हेमचन्द्र के अस्सी वर्षीय पिता के पास भेजा। उन को मुस्लमान होने अथवा कत्ल होने का विकल्प दिया गया। वृद्ध पिता ने गर्व से उत्तर दिया कि ‘जिन देवों की अस्सी वर्ष तक पूजा अर्चना की है उन्हें कुछ वर्ष और जीने के लोभ में नहीं त्यागूं गा’। उत्तर के साथ ही उन्हे कत्ल कर दिया गया था।

हिन्दू समाज के लिय़े शर्म – दिल्ली पहुँच कर अकबर ने ‘कत्ले-आम’ करवाया ताकि लोगों में भय का संचार हो और वह दोबारा विद्रोह का साहस ना कर सकें। कटे हुये सिरों के मीनार खडे किये गये। पानीपत के युद्ध संग्रहालय में इस संदर्भ का ऐक चित्र आज भी हिन्दूओं की दुर्दशा के समारक के रूप मे सुरक्षित है किन्तु हिन्दू समाज के लिय़े शर्म का विषय तो यह है कि हिन्दू सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय का समृति चिन्ह भारत की राजधानी दिल्ली या हरियाणा में कहीं नहीं है। इस से शर्मनाक और क्या होगा कि फिल्म ‘जोधा-अकबर’ में अकबर को महान और सम्राट हेमचन्द्र को खलनायक की तरह दिखाया गया था।

2 – बन्दा बहादुर सिहं

प्रारम्भिक जीवन – लच्छमन दास का जन्म 1670 ईस्वी में ऐक राजपूत परिवार में हुा था। उसे शिकार का बहुत शौक था। ऐक दिन उस ने ऐक हिरणी का शिकार किया । मरने से पहले लच्छमन दास के सामने ही हिरणी ने दो शावकों को जन्म दे दिया। इस घटना से वह स्तब्द्ध रह गया और उस के मन में वैराग्य जाग उठा। संसार को त्याग कर वह बैरागी साधू ‘माधवदास’ बन गया तथा नान्देड़ (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट पर कुटिया बना कर रहने लगा।  

पलायनवाद से कर्म योग – आनन्दपुर साहिब में खालसा पंथ की स्थापना कर के गुरु गोबिन्दसिहँ दक्षिण चले गये थे। संयोगवश उन की मुलाकात बैरागी माधवदास से हो गयी। गुरु जी ने उसे उत्तरी भारत में हिन्दूओं की दुर्दशा के बारे में बताया तथा पलायनवाद का मार्ग छोड कर धर्म रक्षा के लिये हथियार उठाने के कर्मयोग की प्रेरणा दी, और उस का हृदय परिवर्तन कर दिया। गुरूजी ने उसे नयी पहचान ‘बन्दा बैरागी बहादुर सिंह’ की दी। प्रतीक स्वरुप उसे अपने तरकश से ऐक तीर, ऐक नगाडा तथा पंजाब में अपने शिष्यों के नाम ऐक आदेश पत्र (हुक्मनामा) भी लिख कर दिया कि वह मुगलों के जुल्म के विरुद्ध बन्दा बहादुर को पूर्ण सहयेग दें। इस के पश्चात तीन सौ घुडसवारों की सैनिक टुकडी ने आठ कोस बन्दा बहादुर के पीछे चल कर उसे भावभीनी विदाई दी। बन्दा बहादुर पँजाब आ गये। 

प्रतिशोध – पँजाब में हिन्दूओं तथा सिखों ने बन्दा बहादुर सिहँ का अपने सिपहसालार तथा गुरु गोबिन्द सिहं के प्रतिनिधि के तौर पर स्वागत किया। ऐक के बाद ऐक, बन्दा बहादुर ने मुगल प्रशासकों को उन के अत्याचारों और नृशंस्ता के लिये सज़ा दी। शिवालिक घाटी में स्थित मुखलिसपुर को उन्हों ने अपना मुख्य स्थान बनाया। अब बन्दा बहादुर और उन के दल के चर्चे स्थानीय मुगल शासकों और सैनिकों के दिल में सिहरन पैदा करने लगे थे। उन्हों ने गुरु गोबिन्द सिहँ के पुत्रों की शहादत के जिम्मेदार मुगल सूबेदार वज़ीर खान को सरहन्द के युद्ध में मार गिराया। इस के अतिरिक्त गुरु गोबिन्द सिहँ के परिवार के प्रति विशवासघात कर के उसे वजीर खान को सौंपने वाले ब्राह्मणों तथा रँघरों को भी सजा दी।

अपनों की ग़द्दारी – अन्ततः दिल्ली से मुगल बादशाह ने बन्दा बहादुर के विरुध अभियान के लिये अतिरिक्त सैनिक भेजे। बन्दा बहादुर को साथियों समेत मुगल सैना ने आठ मास तक अपने घेराव में रखा। साधनों की कमी के कारण उन का जीना दूभर हो गया था और केवल उबले हुये पत्ते, पेडों की छाल खा कर भूख मिटाने की नौबत आ गयी थी। सैनिकों के शरीर अस्थि-पिंजर बनने लगे थे। फिर भी बन्दा बहादुर और उन के सैनिकों ने हार नहीं मानी। आखिरकार कुछ गद्दारों की सहायता और छल कपट से मुगलों ने बन्दा बहादुर को 740 वीरों समेत बन्दी बना लिया। 

अमानवीय अत्याचार – 26 फरवरी 1716 को पिंजरों में बन्द कर के सभी युद्ध बन्दियों को दिल्ली लाया गया था। लोहे की ज़ंजीरों से बन्धे 740 कैदियों के अतिरिक्त 700 बैल गाडियाँ भी दिल्ली लायी गयीं जिन पर हिन्दू सिखों के कटे हुये सिर लादे गये थे और 200 कटे हुये सिर भालों की नोक पर टाँगे गये थे। तत्कालिक मुगल बादशाह फरुखसैय्यर के आदेशानुसार दिल्ली के निवासियों नें 29 फरवरी 1716 के मनहूस दिन वह खूनी विभित्स प्रदर्शनी जलूस अपनी आँखों से देख कर उन वीर बन्दियों का उपहास किया था।

अपमानित करने के लिये बन्दा बहादुर सिहँ को लाल रंग की सुनहरी पगडी पहनाई गयी थी तथा सुनहरी रेशमी राजसी वस्त्र भी पहनाये गये थे। उसे पिंजरे में बन्द कर के, पिंजरा ऐक हाथी पर रखा गया था। उस के पीछे हाथ में नंगी तलवार ले कर ऐक जल्लाद को भी बैठाया गया था। बन्दा बहादुर के हाथी के पीछे उस के 740 बन्दी साथी थे जिन के सिर पर भेड की खाल से बनी लम्बी टोपियाँ थीं। उन के ऐक हाथ को गर्दन के साथ बाँधे गये दो भारी लकडी की बल्लियों के बीच में बाँधा गया था।

प्रदर्शन के पश्चात उन सभी वीरों को मौत के घाट उतारा गया। उन के कटे शरीरों को फिर से बैल गाडियों में लाद कर नगर में घुमाया गया और फिर गिद्धों के लिये खुले में फैंक दिया गया था। उन के कटे हुये सिरों को पेडों से लटकाया गया। उल्लेखनीय है कि उन में से किसी भी वीर ने क्षमा-याचना नहीं करी थी। बन्दा बहादुर को अभी और यतनाओं के लिये जीवित रखा हुआ था।

विभीत्समय अन्त – 9 जून 1716 को बन्दा बहादुर के चार वर्षीय पुत्र अजय सिहँ को उस की गोद में बैठा कर, पिता पुत्र को अपमान जनक जलूस की शक्ल में कुतब मीनार के पास ले जाया गया। बन्दा बहादुर को अपने पुत्र को कत्ल करने का आदेश दिया गया जो उस ने मानने से इनकार कर दिया। तब जल्लाद ने बन्दा बहादुर के सामने उन के पुत्र के टुकडे टुकडे कर डाले और उन रक्त से भीगे टुकडों को बन्दा बहादुर के मुहँ पर फैंका गया। उस का कलेजा निकाल कर उस के मूहँ में ठोंसा गया। वह बहादुर सभी कुछ स्तब्द्ध हो कर घटित होता सहता रहा। अंत में जल्लाद ने खंजर की नोक से बन्दा बहादुर की दोनों आँखें ऐक ऐक कर के निकालीं, ऐक ऐक कर के पैर तथा भुजायें काटी और अन्त में लोहे की गर्म सलाखों से उस के जिस्म का माँस नोच दिया। उस के शरीर के सौ टुकडे कर दिये गये।

शर्मनाक उपेक्षा – आदि काल से ले कर आज तक हिन्दू विजेताओं ने कभी इस प्रकार की क्रूरता नहीं की थी। आज भारत में औरंगजेब के नाम पर औरंगाबाद और फरुखसैय्यर के नाम पर फरुखाबाद तो हैं किन्तु बन्दा बहादुरसिंह का कोई स्मारक नहीं है।

3 – वीर हक़ीक़त राय

इस 12 वर्षीय वीर बालक ने धर्म परिवर्तन के बदले अपना सिर कटवाना पसन्द किया और शहीद हो गया। उसे नहीं पता था कि तथाकथित धर्म-निर्पेक्ष नपुसंक हिन्दू ही पुनः मृतक तुल्य बना छोडें गे कि कोई उस का सार्वजनिक तौर पर नाम भी ना ले और हिन्दू मुसलिम सोहार्द का नाटक चलता रहै। आज इस वीर का नाम वर्तमान पीढी के मानसिक पटल से मिट चुका है और दिल्ली स्थित हिन्दू महासभा भवन में इस शहीद की मूक प्रतिमा उपेक्षित सी खडी है। बूढें नेहरू का जन्म तो मरणोपरान्त भी ‘बाल-दिवस’ के रूप में मनाया जाता है किन्तु आज कोई भी हिन्दू बालक वीर हकीकत राय के अनुपम बलिदान को नहीं जानता।

हकीकतराय का जन्म सियालकोट में 1724 को हुआ था। उस समय वह ऐक मात्र हिन्दू बालक मुस्लमान बालकों के साथ पढता था। उस की प्रगति से सहपाठी ईर्षालु थे और अकेला जान कर उसे बराबर चिडाते रहते थे। ऐक दिन मुस्लिम बालकों ने देवी दुर्गा के बारे में असभ्य अपशब्द कहे जिस पर हकीकतराय ने आपत्ति व्यक्त की। मुस्लिम बच्चों ने अपशब्दों को दोहरा दोहरा कर हकीकतराय को भडकाया और उस ने भी प्रतिक्रिया वश मुहमम्द की पुत्री फातिमा के बारे में वही शब्द दोहरा दिये। 

मुस्लिम लडकों ने मौलवी को रिपोर्ट कर दी और मौलवी ने हकीकतराय को पैगंम्बर की शान में गुस्ताखी करने के अपराध में कैद करवा दिया। हकीकतराय के मातापिता ने ऐक के बाद ऐक लाहौर के स्थानीय शासक तक गुहार लगाई। उसे जिन्दा रहने के लिये मुस्लमान बन जाने का विकल्प दिया गया जो उस वीर बालक ने अस्वीकार कर दिया। उस ने अपने माता-पिता और दस वर्षिया पत्नी के सामने सिर कटवाना सम्मान जनक समझा। अतः 20 जनवरी 1735 को जल्लाद ने हकीकत राय का सिर काट कर धड से अलग कर दिया।

उपरोक्त ऐतिहासिक वृतान्त इस्लामी क्रूरता और नृशंस्ता के केवल अंशमात्र उदाहरण हैं। किन्तु हिन्दू समाज की कृतघन्ता है कि वह अपने वीरों को भूल चुका हैं जिन्हों ने बलिदान दिये थे। आज वह उन के नाम इस लिये नहीं लेना चाहते कि कहीं भारत में रहने वाले अल्पसंख्यक नाराज ना हो जायें। धर्म निर्पेक्ष भारत में अत्याचारी मुस्लिम शासकों के कई स्थल, मार्ग और मकबरे सरकारी खर्चों पर सजाये सँवारे जाते हैं। कई निम्न स्तर के राजनैताओं के मनहूस जन्म दिन और ‘पुन्य तिथियाँ’ भी सरकारी उत्सव की तरह मनायी जाती हैं परन्तु इन उपेक्षित वीरों का नाम भी लेना धर्म निर्पेक्षता का उलंघन माना जाता है।

बटवारे पश्चात हिन्दूस्तान के प्रथम हिन्दू शहीद नाथूराम गोडसे का चित्र हिन्दूस्तान के किसी मन्दिर या संग्रहालय में नहीं लगा जिस ने पाकिस्तानी हिन्दू नर-संहार का विरोध करते हुये अपना बलिदान दिया था। हिन्दुस्तान में हिन्दूओं की ऐसी अपमान जनक स्थिति आज भी है जो उन्हीं की कायरता के फलस्वरूप है क्योंकि उन की स्वाभिमान मर चुका है।  

चाँद शर्मा

59 – ईस्लाम का अतिक्रमण


इस्लाम भारत में जिहादी लुटेरों और शत्रुओं की तरह आया जिन्हें हिन्दूओं से घृणा थी। मुस्लिम स्थानीय लोगों को ‘काफिर’ कहते थे और उन्हें को कत्ल करना अपना ‘धर्म’ मानते थे। उन्हों ने लाखों की संख्या में हिन्दूओं को कत्ल किया और वह सभी कुछ ध्वस्त करने का प्रयास किया जो स्थानीय लोगों को अपनी पहचान के लिये प्रिय था। इस्लामी जिहादियों का विशवास था कि अल्लाह ने केवल उन्हें ही जीने का अधिकार दिया था और अल्लाह ने मुहमम्द की मार्फत उन्हें आदेश भिजवा दिया था कि जो मुस्लमान नहीं उन्हें मुस्लमान बना डालो, ना बने तो उन्हें कत्ल कर डालो।

आदेश का पालन करने में लगभग 63000 हिन्दू पूजा स्थलों को ध्वस्त किया गया, लूटा गया, और उन में से कईयों को मस्जिदों में तबदील कर दिया गया। हिन्दू देवी देवताओं की प्रतिमायें तोड कर मुस्लमानों के पैरों तले रौंदी जाने के लिये उन्हें नव-निर्मत मस्जिदों की सीढियों के नीचे दबा दिया जाता था। जो दबाई या अपने स्थान से उखाडी नहीं जा सकतीं थीं उन्हें विकृत कर दिया जाता था। उन कुकर्मों के प्रमाण आज भी भारत में जगह जगह देखे जा सकते हैं। ‘इस्लामी फतेह’ को मनाने के लिये हिन्दूओं के काटे गये सिरों के ऊंचे ऊंचे मीनार युद्ध स्थल पर बनाये जाते थे। पश्चात कटे हुये सिरों को ठोकरों से अपमानित कर के मार्गों पर दबा दिया जाता था ताकि काफिरों के सिर स्दैव मुस्लमानों के पैरों तले रौंदे जाते रहैं।

खूनी नर-संहार और विधवंस  

मुस्लिम विजयों के उपलक्ष में हिन्दू समाज के अग्रज ब्राह्मणों को मुख्यतः कत्ल करने का रिवाज चल पडा था। क्षत्रिय युद्ध भूमि पर वीर गति प्राप्त करते थे, वैश्य वर्ग को लूट लिया जाता था और अपमानित किया जाता था और शूद्रों को मुस्लमान बना कर गुलाम बना लिया जाता था।

उत्तरी भारत में सर्वाधिक ऐतिहासिक नरसंहार हुये जिन में से केवल कुछ का उदाहरण स्वरूप वर्णन इस प्रकार हैः- 

  • छच नामा के अनुसार 712 ईस्वी में जब मुहमम्द बिन कासिम नें सिन्धु घाटी पर अधिकार किया तो मुलतान शहर में 6 हजार हिन्दू योद्धा वीर गति को प्राप्त हुये थे। उन सभी के परिजनों को गुलाम बना लिया गया था।
  • 1399 ईस्वी में अमीर तैमूर नें दिल्ली विजय के पश्चात सार्वजनिक नरसंहार (कत्ले-आम) का हुक्म दिया था। उस के सिपाहियों ने ऐक ही दिन में ऐक लाख हिन्दूओं को कत्ल किया जो अन्य स्थानों के नरसंहारों और लूटमार के अतिरिक्त था।
  • 1425 ईस्वी में चन्देरी का दुर्ग जीतने के बाद मुगल आक्रान्ता बाबर ने 12 वर्ष से अधिक आयु के सभी हिन्दूओं को कत्ल करवा दिया था तथा औरतों और बच्चों को गुलाम बना लिया था। चन्देरी का इलाका कई महीनों तक दुर्गन्ध से सडता रहा था।
  • 1568 ईस्वी में तथाकथित ‘उदार’ मुगल सम्राट अकबर ने चित्तौड के राजपूत किलेदार जयमल को उस समय गोली मार दी थी जब वह किले की दीवार की मरम्मत करवा रहा था। उस के सिपहसालार फतेह सिहं को हाथ पाँव बाँध कर हाथी के पैरों तले कुचलवाया गया था। उसी स्थान पर उन तीस हजार हिन्दूओं को कत्ल भी किया गया था जिन्हों ने युद्ध में भाग नहीं लिया था। आठ हजार महिलायें सती की अग्नि में प्रवेश कर गयीं थी।
  • 1565 ईस्वी में बाह्मनी सुलतानो ने संयुक्त तौर पर हिन्दू राज्य विजय नगर का विधवंस कत्ले आम तथा सर्वत्र लूटमार के साथ मनाया। फरिशता के उल्लेखानुसार  बाह्मनी सुलतान केवल निचले दर्जे के राजवाडे थे किन्तु वह काफिरों को सजा देने के बहाने हजारों की संख्या में हिन्दूओं का कत्ल करवा डालते थे।
  • आठारहवीं शताब्दी में नादिर शाह तथा अहमदशाह अब्दाली ने दिल्ली को लूटा, ध्वस्त किया और कत्लेआम करवाया ।

मुसलिम शासकों ने हिन्दूओ के नरसंहार का उल्लेख अभिमान स्वरूप अपने रोजनामचों (दैनिक गेजेट) में करवाया है क्यों कि वह इस को पवित्र कर्म मानते थे। काफिरों का कत्ल करवाने की संख्या के विषय में प्रत्येक अक्रान्ता और मुस्लिम शासक की अपनी अपनी धारणायें थी और परिताड़ण करने के नृशंसक तरीके थे जो सर्वथा क्रूर और अमानवीय होते थे। काफिरों को जिन्दा जलाना, आरे से चिरवा देना, उन की खाल उतरवा देना, उन्हें तेल के कडाहों में उबलवा देना आदि तो आम बातें थी जिन के चित्र संग्रहालयों में आज भी देखे जा सकते हैं।   

सर्वत्र अंधंकार मय युग

शीघ्र ही हिन्दूओं का संजोया हुआ सुवर्ण युग इस्लाम की विनाशात्मक काली रात में परिवर्तित हो गया, जिस के फलस्वरूपः-  

  • तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला आदि सभी विश्व विद्यालय धवस्त कर दिये गये तथा शिक्षा और ज्ञान के सभी क्षेत्रों में अन्धकार छा गया।
  • बुद्धिजीवियों को चुन चुन की मार डाला जाता था। बालकों के प्रराम्भिक शिक्षण संस्थान ही बन्द हो गये। इस्लामी धार्मिक शिक्षा का काम मदरस्सों के माध्यम से कट्टरवादी मौलवियों नें शुरू कर दिया।
  • इस्लामी शासन के अन्तरगत सभी प्रकार के मौलिक भारतीय ज्ञान लुप्त हो गये। जहाँ कहीं हिन्दू प्रभाव बच पाया वहीँ संस्कृत व्याकरण, गणित, चिकित्सा तथा दर्शन और प्राचीन ग्रन्थों का पठन छिप छिपा कर बुद्धिजीवियों के निजी परिश्रमों से चलता रहा। परन्तु उन्हें राजकीय संरक्षण तथा आर्थिक सहायता देने वाला कोई नहीं था।
  • ‘जज़िया’ जैसे अधिकतर इस्लामी करों के प्रभाव से हिन्दूओं को धन का अभाव सताने लगा। हिन्दू गृहस्थियों के लिये दैनिक यज्ञ तो दूर उन के लिये परिवार का निजि खर्च चलाना भी दूभर हो गया था। वह बुद्धिजीवियों की आर्थिक सहायता करना तो असम्भव अपने बच्चों को साधारण शिक्षा भी नहीं दे सकते थे क्यों कि उन का धन, धान्य स्थानीय मुस्लिम जबरन हथिया लेते थे।
  • हिन्दूओं के लिये मुस्लमानों के अत्याचारों के विरुध न्याय, संरक्षण और सहायता प्राप्त करने का तो कोई प्रावधान ही नहीं बचा था। मुस्लमानों के समक्ष हिन्दूओं के नागरिक अधिकार कुछ नहीं थे। मानवता के नाम पर भी उन्हें जीवन का मौलिक अधिकार भी प्राप्त नहीं था। न्याय के नाम से मुस्लिम की शिकायत पर मौखिक सुनवाई कर के साधारणत्या स्थानीय अशिक्षित मौलवी किसी भी हिन्दू को मृत्यु दण्ड तक दे सकते थे। हिन्दूओं के लिये केवल निराशा, हताशा, तथा भय का युग था और काली लम्बी सुरंग का कोई अन्त नहीं सूझता था।

इस कठिन और कठोर अन्धकारमय युग में भी हिन्दू बुद्धिजीवियों ने छिप छिपा कर ज्ञान की टिमटिमाती रौशनी को बुझने से बचाने के भरपूर पर्यत्न किये जिन में गणित के क्षेत्र में भास्कराचार्य (1114 -1185) का नाम उल्लेखनीय है। ज्ञान क्षेत्र की स्वर्णमयी परम्परा को भास्कराचार्य ने आधुनिक युग के लिये अमूल्य योगदान पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के सिद्धान्त की व्याख्या कर के दिया।  

सामाजिक कुरीतियों का पदार्पण

अन्धकारमय वातावरण के कारण हिन्दू समाज में कई कुरीतियों ने महामारी बन कर जन्म ले लिया। प्रगति के स्थान पर अशिक्षता और अन्धविशवासों के कारण जीवन का स्वरुप और दृष्टिकोण निराशामय और नकारात्मिक हो गया था जिस के फलस्वरूपः-

  • मुस्लिम लूटमार, छीना झपटी और जजि़या जैसे विशेष करों के कारण हिन्दू दैनिक जीवन-यापन के लिये मुस्लमानों की तुलना में असमर्थ होने लगे थे।  
  • शिक्षण संस्थानों के ध्वस्त हो जाने से हिन्दू अशिक्षित हो गये। उन का व्यवसायिक प्रशिक्षण बन्द हो जाने से उन की अर्थ व्यव्स्था छिन्न भिन्न हो गयी थी। वह केवल मजदूरी कर के दो वक्त की रोटी कमा सकते थे। उस क्षेत्र में भी ‘बेगार’ लेने का प्रचलन हो गया था तथा काम के बदले में उन्हें केवल मुठ्ठी भर अनाज ही उपलब्द्ध होता था। किसानों की जमीन शासकों ने हथिया ली थी। उन का अनाज शासक अधिकृत कर लेते थे।
  • पहले संगीत साधना हिन्दूओं के लिये उपासना तथा मुक्ति का मार्ग था। अब वही कला मुस्लिम उच्च वर्ग के प्रमोद का साधन बन गयी थी। साधना उपासना की कथक नृत्य शैली मुस्लिम हवेलियों में कामुक ‘मुजरों’ के रूप में परिवर्तित हो गयी ताकि काम प्रधान भाव प्रदर्शन से लम्पट आनन्द उठा सकें। 
  • अय्याश मुस्लिम शाहजादों और शासकों के मनोरंजन के लिये श्री कृष्ण के बारें में कई मन घडन्त ‘छेड-छाड’ की अशलील कहानियाँ, चित्रों और गीतों का प्रसार भी हुआ। इस में कई स्वार्थी हिन्दूओं ने भी योगदान दिया।
  • अपनी तथा परिवार की जीविका चलाने के लिये कई बुद्धि जीवियों ने साधारण पुरोहित बन कर कर्म-काँड का आश्रय लिया जिस के कारण हिन्दू समाज में दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन भी पड गया। पुरोहितों ने यजमानों को रीति रीवाजों की आवश्यक्ता जताने के लिये ग्रन्थों में बेतुकी और मन घडन्त कथाओं को भी जोड दिया ।

हिन्दू समाज का विघटन 

असुरक्षित ब्राह्मण विदूान मुसलमानों से अपमानित होते थे और हिन्दूओं से उपेक्षित हो रहे थे। उन्हें अपना परम्परागत पठन पाठन, दान ज्ञान का मार्ग त्यागना पड गयाथा। निर्वाह के लिये उन्हें समर्थ हिन्दूओं से दक्षिणा के बजाय दान और दया पर आश्रित होना पडा। जीविका के लिये भी उन्हें रीतिरीवाजों के लिये अवसर और बहाने तराशने पडते थे जिस के कारण साधारण जनता के लिये संस्कार और रीति रिवाज केवल दिखावा और बोझ बनते गये। हिन्दू समाज का कोई मार्ग-दर्शक ना रहने के कारण प्रान्तीय रीति रिवाजों और परम्पराओं का फैलाव होने लगा था। जातियों में कट्टरता आ गयी तथा ऐक जाति के लोग दूसरी जाति के लोगों को घृणा, भय, तथा अविशवास से देखने लगे थे। हिन्दू समाज का पूरा ताना बाना जो परस्पर सहयोग, विशवास और प्रेम पर निर्भर था विकृत हो गया। रीतिरिवाज जटिल, विकृत और खर्चीले हो जाने के कारण हर्ष- उल्लास देने के बजाय दुःख दायक हो गये। अन्ततः निर्धन लोग रीति रिवाजों की उपेक्षा कर के धर्म-परिवर्तन के लिये भी तत्पर हो गये। 

अपमानजनक वातावरण

हिन्दूओं के आत्म सम्मान को तोडने के लिये मुस्लमानों ने क्षत्रियों का अपने सामने घोडे पर चढना वर्जित कर दिया था। उन के सामने वह शस्त्र भी धारण नहीं कर सकते थे। अतः कई क्षत्रियों ने परम्परागत सैनिक और प्रशासनिक जीवन छोड कर कृषि या जीविका के अन्य व्यवसाय अपना लिये। धर्म रक्षा का मुख्य कर्तव्य क्षत्रियों से छूट गया। जो कुछ क्षत्रिय बचे थे वह युद्ध भूमि पर मुस्लमानों के विरुद्ध या कालान्तर मुस्लमानों के लिये लडते लडते हिन्दू योद्धाओं के हाथों वीर गति पा चुके थे। हिन्दू राजा मुगलों की डयौहडियों पर ‘चौकीदारी’ करते थे या हाथ बाँधे दरबार में खडे रहते थे।   

सामाजिक कुरीतियों का चलन

मुस्लिम नवाबों तथा शासकों की कामुक दृष्टि सुन्दर और युवा लडके लडकियों पर स्दैव रहती थी। उन्हें पकड कर जबरन मुस्लमान बनाया जाता था तथा उन का यौन शोषण किया जाता था। इसी लिये हिन्दू समाज में भी महिलाओं के लिये पर्दा करने का रिवाज चल पडा। फलस्वरुप विश्षेत्या उत्तरी भारत में रात के समय विवाह करने की प्रथा चल पडी थी। वर पक्ष वधु के घर सायं काल के अन्धेरे में जाते थे, रात्रि को विवाह-संस्कार सम्पन्न कर के प्रातः सूर्योदय से पूर्व वधु को सुरक्षित घर ले आते थे। समाजिक बिखराव के कारण हिन्दू समाज में कन्या भ्रूण की हत्या, बाल विवाह, जौहर तथा विधवा जलन की कुप्रथायें भी बचावी विकल्पों के रूप में फैल गयीं।

मुस्लिम हिन्दूओं की तरह बाहर लघू-शंका के लिये नहीं जाते थे और इस चलन को ‘कुफ़र’ मानते थे। उन के समाज में लघु-शंका पर्दे में की जाती थी। गन्दगी को बाहर फैंकवाने के लिये और हिन्दूओं को अपमानित करने के लिये उन्हों ने सिरों पर मैला ढोने के लिये मजबूर किया। इस प्रथा ने हिन्दू समाज में मैला ढोने वालों के प्रति घृणा और छुआ छुत को और बढावा दिया क्यों कि हिन्दू विचार धारा में यम नियम के अन्तर्गत स्वच्छता का बहुत महत्व था। छुआ छूत का कारण स्वच्छता का अभाव था। स्वार्थी तत्वों ने इस का अत्याधिक दुषप्रचार धर्म परिवर्तन कराने के लिये और हिन्दू समाज को खण्डित करने के लिये किया जो अभी तक जारी है।   

चाँद शर्मा

 

52 – भारत का वैचारिक शोषण


ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भारतीय उपलब्द्धियों को पाश्चातय बुद्धिजीवियों और भारत में उन्हीं के मार्ग दर्शन में प्रशिक्षित शिक्षा के ठेकेदारों ने स्दैव नकारा है। उन के बारे में भ्रामिकतायें फैलायी है। उन  की आलोचना इस कदर की है कि विदेशी तो ऐक तरफ, भारत के लोगों को ही विशवास नहीं होता के उन के पूर्वज भी ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में कभी कुछ योग दान करने लायक थे।

स्वार्थवश, जान बूझ कर, सोची समझी साज़िश के अनुसार पिछले 1200 वर्षों का भारतीय इतिहास तोड मरोड कर विकृत कर के यही संकेत दिया जाता रहा है कि विश्व में आधुनिक सभ्यता और ज्ञान-विज्ञान के सृजन कर्ता केवल योरुपीय ईसाई ही थे ताकि ज्ञान-विज्ञान पर उन्हीं का ऐकाधिकार बना रहै, जबकि वास्तविक तथ्य इस के उलट यह हैं कि आधुनिक सभ्यता तथा विज्ञान के जनक हिन्दूओं के पूर्वज ही थे और प्राचीन काल में ईसाईयों ने ज्ञान-विज्ञान का विरोध कर के उसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोडी थी। 

योरूप का अन्धकार युग

जिस समय भारत का नाम ज्ञान-विज्ञान के आकाश में सर्वत्र चमक रहा था उसी समय को पाश्चात्य इतिहासकार ही योरुप का ‘अन्धकार-युग’ (डार्क ऐजिस) कहते हैं। उस समय योरुप में गणित, विज्ञान, तथा चिकित्सा के नाम पर सिवाय अन्ध-विशवास के और कुछ नहीं था। यूनान देश में कुछ ज्ञान प्रसार था जिसे योरुपीय इतिहासकार योरुप की ‘प्रथम-जागृति’ (फर्स्ट अवेकनिंग आफ योरुप) मानते हैं। यद्यपि इस ज्ञान को भी यूनान में भारत से छटी शताब्दी में आयात किया गया माना जाता है। वही ज्ञान ऐक हजार वर्षों के पश्चात 16 वीं शताब्दी में योरुप में जब पुनः फैला तो इसे जागृति के क्राँति युग (ऐज आफ रिनेसाँ) का नाम दिया जाने गया था। रिनेसाँ के पश्चात ही योरुपियन नाविक भारत की खोज करने को उत्सुक्त हो उठे और लग भग वहाँ के सभी देश ऐक दूसरे से इस दिशा में प्रति स्पर्धा करने की होड में जुट गये थे। भारत की खोज करते करते उन्हें अमेरिका तथा अन्य कई देशों के अस्तीत्व का ज्ञान प्राप्त हुआ था।

योरुपवासियों के भूगोलिक ज्ञान का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उन को प्रशान्त महासागर का पता तब चला था जब अमेरिका से सोना प्राप्त करने की खोज में स्पेन का नाविक बलबोवा अटलाँटिक महासागर पार कर के अगस्त 1510 में मैक्सिको पहुँचा था। तब बलबोवा ने देखा कि मैक्सिको के पश्चिमी तट पर ऐक और विशालकाय महासागर भी दुनियाँ में है जिस को अब प्रशान्त महासागर कहा जाता है। यह वह समय है जब भारत पर लोधी वँश का शासन था। योरूपवासियों की तुलना में रामायण का वह वृतान्त अत्यन्त महत्वपूर्ण है जब सुग्रीव सीता की खोज में जाने वाले वानर दलों को विश्व के चारों महासागरों के बारे में जानकारी देते हैं।

इतिहास का पुनर्वालोकन

किस प्रकार ज्ञान-विज्ञान के भारतीय भण्डारों को नष्ट किया गया अथवा लूट कर विदेशों में ले जाया गया – इस बात का आँकलन करने के लिये हमें भारत के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का पुनर्वालोकन करना हो गा। यह भी स्मर्ण रखना हो गा कि वास्तव में वही काल पाश्चात्य जगत का के इतिहास का अन्धकार-युग कहलाता है।

भारत में स्वयं जियो के साथ साथ औरों को भी जीने दो का संदेश धर्म के रुप में पूर्णत्या क्रियात्मक रूप से विकसित हो चुका था। इसी आदर्श का वातावरण भारत ने अपने निकटवर्ती ऐशियाई देशों में पैदा करने की कोशिश भी लगातार की थी। य़ह वातावरण भारत की आर्थिक उन्नति, सामाजिक परम्पराओं, ज्ञान-विज्ञान के प्रसार तथा राजनैतिक स्थिरता के कारण बना था। उस समय चीन, मिस्र, मैसोपोटामिया, रोम और यूनान आदि देश ही विकासशील माने जाते थे। बाकी देशों का जन-जीवन आदि-मानव युग शैली से सभ्यता की ओर केवल सरकना ही आरम्भ ह्आ था।

योरुप की प्रथम जागृति

आरम्भ से ही भारत ज्ञान-विज्ञान का जनक रहा है। तक्षशिला विश्वविद्यालय ज्ञान प्रसारण का ऐक मुख्य केन्द्र था जहाँ ईरान तथा मध्य पश्चिमी ऐशिया के शिक्षार्थी विद्या ग्रहण करने के लिये आते थे। ईसा से लग भग ऐक दशक पूर्व ईरान भारतीय संस्कृति का ही विस्तरित रूप था। तुर्की को ऐशिया माईनर कहा जाता था तथा वह स्थल यूनानियों और ईरानियों के मध्य का सेतु था। तुर्की के रहवासी मुस्लिम नहीं थे। उस समय तो इस्लाम का जन्म ही नहीं हुआ था। 

उपनिष्दों का प्रभाव

ईरान योरुप तथा ऐशिया के चौराहे पर स्थित देश था। वह भिन्न भिन्न जातियों और पर्यटकों के लिये ऐक सम्पर्क स्थल भी था। समय के उतार चढाव के साथ साथ ईरान की सीमायें भी घटती बढती रही हैं। कभी तो ईरान ऐक विस्तरित देश रहा और उस की सीमायें मिस्त्र तथा भारत के साथ जुडी रहीं, और कभी ऐसा समय भी रहा जब ईरान को विदेशी आक्रान्ताओं के आधीन भी रहना पडा। ईसा से 1500 वर्ष पूर्व उत्तरी दिशा से कई लोग ईरान में प्रवेश करने शुरु हुये जिन्हें इतिहासकारों ने कभी ईन्डोयोरुपियन तो कभी आर्यन भी कहा है। ईरान देश को पहले ‘आर्याना’ और अफ़ग़ानिस्तान को ‘गाँधार’ कहा जाता था। तब मक्का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र होने के साथ साथ ऐक धर्म स्थल भी था। वहाँ अरब वासी ऐकत्रित हो कर ऐक काले पत्थर की पूजा करते थे जिसे वह स्वर्ग से गिराया गया मानते थे। वास्तव में वह ऐक शिव-लिंग का ही चिन्ह था।

उपनिष्दों के माध्यम से ऐक ईश्वरवाद भारत में अपने पूरे उत्थान पर पहुँच चुका था। इस विचार धारा ने जोराष्ट्रईन (पारसी), जूडाज्मि (यहूदी), तथा मिस्त्र के अखेनेटन (1350 ईसा पूर्व) साम्प्रदायों को भी प्रभावित किया था। झोरास्टर ईसा से 5 शताब्दी पूर्व ईरान के पूर्वी भाग में रहे जो भारत के साथ सटा हुआ है। उन की विचारधारा में पाप और पुण्य तथा अंधकार और प्रकाश के बीच निरन्तर संघर्ष उपनिष्दवादी विचारधारा के प्रभाव को ही उजागर करती है। इसी प्रकार मध्य ऐशिया की तत्कालिक विचारधारा में ऐक ईश्वरवाद और सही-ग़लत की नैतिकता के बीच संघर्ष भी हिन्दू विचारघारा का प्रभाव स्वरूप ही है यद्यपि मिस्त्र में उपनिष्दों का प्रभाव ऐकमात्र संरक्षक अखेनेटन की मृत्यु के साथ ही लुप्त हो गया था। 

मित्तराज्मि नाम से ऐक अन्य वैदिक प्रभावित विचारधारा ईरान, दक्षिणी योरुप और मिस्त्र में फैली हुयी थी। मित्रः को वैदिक सू्र्य देव माना जाता है तथा उन का जन्म दिवस 25 दिसम्बर को मनाया जाता था। कदाचित इसी दिन के पश्चात सूर्य का दक्षिणायण से उत्तरायण कटिबन्ध में प्रविष्टि होती है। कालान्तर उसी दिन को ईसाईयों ने क्रिसमिस के नाम से ईसा का जन्म दिन के साथ जोड कर मनाना आरम्भ कर दिया।

हिन्दू मान्यताओं का असर

ईसा से तीन शताब्दी पहले बहुत से भारतीय मिस्त्र के सिकन्द्रीया (एलेग्ज़ाँड्रीया)) नगर में रहते थे। मिस्त्र में व्यापारियों के अतिरिक्त कई बौध भिक्षु और वेदशास्त्री भी मध्य ऐशिया की यात्रा करते रहते थे। इस कारण हिन्दू दार्शनिक्ता, विज्ञान, रीति-रिवाज, आस्थायें इस्लाम और इसाई धर्म के आगमन से पूर्व ही उन इलाकों में फैल चुकीं थीं। हिन्दू विज्ञान के सिद्धान्त, भारतीय मूल के राजनैतिक तथा दार्शनिक विचार भी योरुप तथा मध्य ऐशिया में अपना स्थान बना चुके थे। कुछ प्रमुख विचार जो वहाँ फैल चुके थे वह इस प्रकार हैं-

  • दुनियां गोल है – हिन्दू धर्म ने कभी भी दुनियाँ के गोलाकार स्वरूप को चुनौती नहीं दी। पौराणिक चित्रों में भी वराह भगवान को गोल धरती अपने दाँतों पर उठाये दिखाया जाता है। शेर के रूप में बुद्ध अवतार को भी अज्ञान तथा अऩ्ध विशवास रूपी ड्रैगन के साथ युद्ध करते दिखाया जाता है तथा उन के पास पूंछ से बंधी गोलाकार धरती होती है। 
  • रिलेटीविटी का सिद्धान्त– हिन्दू मतानुसार मानव को सत्य की खोज में स्दैव लगे रहना चाहिये। यह भी स्वीकारा है कि प्रथक प्रथक परिस्थितियों में भिन्न भिन्न लोग ऐक ही सत्य की छवि प्रथक प्रथक देखते हैं। अतः हिन्दू मतानुसार सहनशीलता के साथ वैचारिक असमान्ता स्वीकारने की भी आवश्यक्ता है। ज्ञान अर्जित कलने के लिये यह दोनों का होना अनिवार्य है अतः ऋषियों ने ज्ञान को रिलेटिव बताया है। 
  • धार्मिक स्वतन्त्रता हिन्दू धर्म ने नास्तिक्ता को भी स्थान दिया है। आस्था तथा धार्मिक विचार निजि परिकल्पना के क्षेत्र हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति इस क्षेत्र में स्वतन्त्र है। उस पर परिवार, समाज अथवा राज्य का कोई दबाव नहीं है। अतः हिन्दू विचारधारा में कट्टरपंथी मौलवियों और पाश्चात्य श्रेणी के पादरियों के लिये कोई प्रावधान नहीं जो अपनी ही बात के अतिरिक्त सभी कुछ नकारनें में विशवास रखते हैं।। हिन्दू परम्परा के अनुसार पुजारियों का काम केवल रीति रीवाजों को यजमान की इच्छा के अनुरूप सम्पन्न करवाना मात्र ही है। 
  • यूनिफीड फील्ड थियोरीब्रहम् के इसी सिद्धान्त ने कालान्तर रिलेटीविटी के सिद्धान्त की प्ररेणा दी तथा भौतिक शास्त्र में यूनिफीड फील्ड थियोरी को जन्म दिया।
  • कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त हिन्दू मतानुसार ‘सत्य’ शोध का विषय है ना कि अन्ध विशवास कर लेने का। प्रत्येक स्त्री पुरुष को भगवान के स्वरुप की निजि अनुभूति करने के लिये प्रोत्साहित किया जाता है। कोई किसी को अन्य के बताये मार्ग को मूक बन कर अपना लेने के लिये बाध्य नहीं करता। ब्रह्माणड को समय अनुकूल कारण तथा प्रभाव के आधीन माना गया है। यही तथ्य आज कारण तथा प्रभाव का सिद्धान्त (ला आफ काज़ ऐण्ड इफेक्ट) कहलाता है।
  • कर्म सिद्धान्त – हिन्दूओं दूारा प्रत्येक व्यक्ति कोकर्म-सिद्धान्त’ के अनुसार अपने कर्मों के परिणामों के लिये उत्तरदाई मानना तथा क्रम के फल को दैविक शक्ति के आधीन मानना ही वैज्ञानिक विचारधारा का आरम्भ था। इस तर्क संगत विचार धारा के फलस्वरूप भारत अन्य देशों से आधुनिक विचार, विज्ञान तथा गणित के क्षेत्र में आगे था। इस की तुलना में कट्टर विचारधारा के फलस्वरूप यहूदी, इसाई तथा मुसलिम केवल उन के धर्म के ईश्वर को ही मानते थे और अन्य धर्मों के ईश को असत्य मानते थे। जो कुछ ‘उन के ईश’ ने ‘पैग़म्बर’ को बताया था केवल वही अंश सत्य था तथा अन्य विचार जो उन से मेल नहीं खाते थे वह नकारने और नष्ट करने लायक थे। परिणाम स्वरूप उन्हों ने धर्मान्धता, ईर्षा और असहनशीलता का वातावरण ही फैलाया। 

सिकंदर महान का अभियान

यह वह समय था सिकन्दर महान अफ़रीका तथा ऐशिया के देशों की विजय यात्रा पर निकला था। सिकन्दर के व्यक्तित्व का ऐक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि वह वास्तव में ऐक सैनिक विजेता था और केवल स्वर्ण लूटने वाला लुटेरा नहीं था। उस ने जहाँ कहीं भी विजय प्राप्त करी तो भी वहाँ की स्थानीय सभ्यता को ध्वस्त नहीं किया। विजित क्षेत्रों में यदि वह किसी पशु, पक्षी, या ग्रन्थ को देखता था तो उसे अपने गुरु अरस्तु के पास यूनान भिजवा देता था ताकि उस का गुरू उस के सम्बन्ध में अतिरिक्त खोज कर सके।

विजय यात्रा के दौरान सिकन्दर भारत के कई बुद्धिजीवियों को मिला, उस ने उन से विचार विमर्श किया और उन्हें सम्मानित भी किया। सिकन्दर ने उन बुद्धिजीवियों से उन का ज्ञान-विज्ञान भी ग्रहण किया। पाश्चात्य देशों के साथ भारतीय ज्ञान का प्रसार सिकन्दर के माध्यम से ही आरम्भ हुआ था और सिकन्दर भारतीय के ज्ञान विज्ञान तथा समृद्धि की प्रशंसा सुन कर ही भारत विजय की अभिलाषा के साथ यहाँ आया था। उस काल में भारत विजय का अर्थ समस्त संसार पर विजय पाना माना जाता था। सिकन्दर ने तक्षशिला की भव्यता से प्रभावित हो कर सिकन्द्रिया में वैसा ही विश्वविद्यालय निर्माण करवाया था।

पाश्चात्य बुद्धिजीवी अपने अज्ञान और स्वार्थ के कारण भारत को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में उचित श्रेय ना देकर भारत को शोषण ही करते रहै हैं और भारतवासी अपनी लापरवाही के कारण शोषण सहते रहै हैं।

चाँद शर्मा

 

 

 

48 – भारत की सैनिक परम्परायें


सर्वत्र, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान – यह तीनों ईश्वर की विश्षतायें हैं। ईश्वर दयालु, करुणा-निधान. संवेदनशील तथा वत्सल होने के साथ साथ रौद्र रूप में ‘संहारक’ भी है। ईश्वरीय छवि के सभी गुण हिन्दू चित्रावली तथा आलेखों में स्दैव दिखते हैं।

अस्त्र शस्त्रों का महत्व

साधारणत्या ईश्वर के ऐक हाथ में ‘कृपा’ के प्रतीक पुष्प दर्शाये जाते हैं, दूसरा हाथ ‘ शुभ-आशीष’ देने की मुद्रा में होता है, तीसरे हाथ में दुष्कर्मिओं को ‘चैतावनी’ देने के लिये शंख होता है, तथा चौथे हाथ में दुष्ट का ‘संहार’ करने के लिये शस्त्र भी होता है। ईश्वर को स्दैव क्रोध-रहित, प्रसन्न-मुद्रा में युद्ध करते समय भी शान्त-भाव में ही चित्रित किया जाता है। सभी देवी-देवताओं के पास वरदान देने की क्षमता के साथ धर्म की रक्षा के लिये शस्त्र अवश्य होते हैं।

हिन्दू धर्म में केवल पिटते रहने की भावना को प्रोत्साहित नहीं किया जाता और कायरता को सब से बडा अभिशाप माना जाता है। “अहिंसा परमो धर्मः” के साथ – “धर्म हिंसा त्थैवः चः” का पाठ भी पढाया जाता है जिस का अर्थ है अहिंसा उत्तम धर्म है परन्तु धर्म रक्षार्थ की गयी हिंसा भी उतनी ही श्रेष्ठ है। युद्ध भूमि पर प्राण त्याग कर वीरगति पाना श्रेष्ठतम है और कायरता का जीवन नारकीय अधोगति समझा जाता है। स्वयं-रक्षा, शरणागत-रक्षा और धर्म-रक्षा समस्त मानवों के लिये सर्वोच्च कर्तव्य तथा मोक्ष के मार्ग हैं। शस्त्र और शास्त्र दोनो का उद्देश्य धर्म रक्षा है। हिन्दू समाज में अस्त्र शस्त्रों की पूजा अर्चना का विधान है। शस्त्रों का ज्ञान साधना तथा उपासना के माध्यम से ही गुरुजनों से प्राप्त होता है।

आत्म-रक्षा का अधिकार

प्रकृति नें सभी जीवों का अपनी आत्म-रक्षा के लिये सींग, दाँत, नख, डंक तथा शारीरिक बल आदि के साधन दिये हैं। आत्म-रक्षा के लिये ही प्रकृति ने जीवों को तेज भागने, छिपने तथा गिरगिट आदि की तरह अपना रंग बदल कर अदर्ष्य होने की कला भी सिखाई है। गाय और गिलहरी से ले कर सभी जीव अपने बचाव के लिये उपलब्द्ध साधनों और विकल्पों का उपयोग करते हैं जिस के लिये उन्हें चेतना तथा प्रेरणा अकस्माक दैविक शक्ति से ही प्राप्त होती है। वह अपनी रक्षा के लिये कोई लम्बी चौडी योजनायें नहीं बनाते। उन की सभी क्रियायें तत्कालिक होती हैं। उन के लिये जीव हत्या कर देना कोई अधर्म भी नहीं है।

‘जियो तथा जीने दो’ धर्म का सिद्धान्त मुख्यता मानवों के लिये है अतः युद्ध के लिये पूर्व अभ्यास, तैय्यारी करना इत्यादि धर्म की व्याख्या में आता है। धर्म-रक्षा और धर्म संस्थापना के लिये ईश्वर नें स्वयं कई बार शास्त्र धारण कर के कीर्तिमान भी स्थापित किये हैं तथा अवश्यक्तानुसार पुनः पुनः वैसा ही करने की संकल्प भी दोहराया है। अतः हिन्दू धर्म प्रत्येक धर्म परायण व्यक्ति को धर्म-रक्षा के लिये हिंसक युद्ध मार्ग की पूर्ण स्वीकृति प्रदान करता है ताकि वह निस्संकोच अधर्म का विनाश कर सके।

रण भूमि का वातावरण

प्राचीन हिन्दू ग्रन्थों के मतानुसार धर्म-रक्षा हेतु युद्ध भी धर्म की मर्यादाओं के अनुरूप ही होना चाहिये। अतः ग्रन्थों में धर्म-युद्ध के विषय में विस्तरित उल्लेख दिये गये हैं। रामायण, महाभारत तथा पुराणों में सैनिक गति-विधियों, सैनिक व्यूहों, सैनिक संगठनों तथा सैनापतियों के उत्तरदाईत्वों और अधिकारों का ब्योरा दिया गया है। सैनापतियों के पद नगर-संरक्षक, दु्र्गाधिपति, दुर्ग-अभियन्ता, रथी, महारथी, तथा उच्च सैनापति आदि होते थे।

ग्रन्थों के अनुसार दुर्ग तथा व्यूह रचनायें आवश्यक्तानुसार होती थीं। कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का वर्णन भी किया गया है। तोप को ‘शतघनी’ कहा जाता था तथा यह शस्त्र अग्नि अस्त्रों की श्रेणी में आता था। इस अस्त्र से ऐक ही बार में सौ से अधिक शत्रुओं का संहार किया जा सकता था। अग्नि अस्त्रों के अतिरिक्त रसायनास्त्र तथा कीटास्त्र (केमीकल तथा बायोलोजिकल वार हैडस) का प्रयोग भी किया जाता था। युद्ध थल, जल तथा नभ सभी तलों पर लडे जाते थे। आलोचकों की तुष्टि के लिये यदि उन उल्लेखों को हम केवल अतिश्योक्ति भी माने, तो भी उस काल के युद्धों के सिद्धान्त आज भी मान्य हैं। सैनिक चलन की गतिविधियाँ तथा परस्पारिक क्रियायें वर्तमान काल के युद्ध के चित्रण के अनुरूप ही हैं।

अन्य महाकाव्यों की तुलना में भारतीय युद्ध भूमि के उल्लेख किसी ऐक युद्ध भूमि के वृतान्त तक ही सीमित नहीं थे। ग्रीक भाषा के महाकाव्य ओडैसी में वर्णित किया गया है, कि किसी ने सैनिकों को ऐक विशाल घोडे के आकार में छिपा कर इलुम दुर्ग में प्रवेश करवा कर किला जीत लिया था। इस की तुलना में रामायण तथा महाभारत के युद्ध ‘महायुद्धों’ की तरह लडे गये थे और युद्ध में सैनायें कई युद्ध स्थलों (वार थ्यिटरों) पर अलग अलग सैनापतियों के निर्देशानुसार ऐक ही समय पर लडतीं थी, परन्तु विकेन्द्रीयकरण होते हुये भी केन्द्रीय नियन्त्रण सर्वोच्च सैनापति के आधीन ही रहता था।

युद्ध के प्राचीन मौलिक सिद्धान्त वर्तमान युग में भी युद्ध क्षेत्र को प्रभावित करते हैं जैसे कि सैनिकों तथा अस्त्र शस्त्रों की संख्या, अक्रामिक क्षमता, युद्ध संचालन नीति, सैना नायकों का व्यक्तित्व, वीरता, अनुभव तथा सक्रियता, भेद नीति, साहस एवम मनोबल आदि। सैनिक गतिविधियाँ जैसे कि शत्रु से भेद छिपाना, अथवा शत्रु का मनोबल तोडने के लिये कोई भ्रामिक प्रचार जान बूझ कर फैला देना, रात्रि युद्ध, तथा आत्मदाही दस्तों का प्रयोग आदि भी भारतीय युद्ध दक्षता के प्रमाण स्वरूप इतिहास के पन्नों पर उल्लेखित हैं। यह वर्णन किसी युद्ध संवादी या उपन्यासकार के नहीं बल्कि ऋषियों के संकलन हैं जो सत्यता पर स्दैव अडिग रहते थे।

ध्वजों का प्रयोग

युद्ध में ध्वजों का प्रयोग भी ग्रन्थों में वर्णित है। ऋगवेद संहिता के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी ध्वज प्रयोग का उल्लेख है। इन के आकारनुसार कई नाम थे जैसे कि अक्रः. कृतध्वजः, केतु, बृहतकेतु, सहस्त्रकेतु आदि। ध्वज तथा नगाडे (वार-ड्रम्स), दुन्दभि आदि सैन्य गरिमा के चिन्ह माने जाते थे। महाभारत युद्ध के समय प्रत्येक रथी और महारथी का निजि ध्वज और शंखनाद सैना नायक की पहचान के प्रतीक थे।

अस्त्र शस्त्रों का निर्माण

अस्त्रों के क्षेत्र में राकेट (मिसाइल) का अविष्कार भी भारतीय है। योरुपीय सैनिक जब सर्व प्रथम भारत में आये तो उन्हों ने भारतीयों के पास राकेट होने को स्वीकारा है। सिकंदर महान ने यूनान में बैठे अपने गुरु अरस्तु को पत्र में सूचित किया था कि भारत के ‘सीमावर्ती क्षेत्र के स्थानीय सैनिकों’ ने यूनानी सैना पर भयानक आग के गोलों से वर्षा की थी। यह पाश्चात्य इतिहासकारों का ही स्वीकृत प्रमाण है कि विश्व विजेता सिकन्दर तथा उस की सैना मगघ देश की सैनिक क्षमता से इतनी भयभीत हो चुकी थी कि सैनिकों ने सिकन्दर को बिना युद्ध किये भारत भूमि से यूनान लौटने के लिये विवश होना पडा था।

ऐक अन्य प्राचीन ग्रंथ ‘शुक्रनीति’ में राईफल तथा तोप की तरह के अस्त्र शस्त्रों के निर्माण की विधि को उल्लेख करती है। भारतीयों को गोला बारूद (गन पाउडर) की जानकारी भी थी। इतिहासकार इलियट के कथनानुसार अरब वासियों ने गन पाउडर का प्रयोग भारतीयों से सीखा था और उस से पहले वह नेप्था में बुझे तीरों का ही प्रयोग करते थे।

युद्ध के नियम

यह हिन्दुओं के लिये गर्व की बात है कि उन की युद्ध परम्पराओं में निहत्थे, घायल, आश्रित, तथा युद्ध से विरक्त शत्रु पर प्रहार नहीं किया जाता था। प्राचीन काल में युद्ध वीरता पुर्वक लडे जाते थे। अन्य देशों की तुलना में भारतीय युद्धों में कम से कम शक्ति, हिंसा तथा क्रूरता का प्रयोग किया जाता था। ‘कत्लेआम’ की तरह प्राजित शत्रु सैनिकों का नरसंहार करने की परम्परा नहीं थी। बालकों तथा स्त्रीयों का वध या उन्हें गुलाम बनाने की प्रथा भी नहीं थी। शत्रु के बुद्धिजीवियों का अपमानित नहीं किया जाता था। रथी केवल रथियों से, घुड-सवार केवल घुडसवारों से युद्ध करते थे। सैनानायक पैदल सैनिकों पर वार नहीं करते थे। स्त्रियों, धर्माचार्यों, अनुचरों, चिकित्सकों तथा साधारण नागरिकों को आघात नहीं पहुँचाया जाता था। चिकित्साल्यों, विद्यालयों तथा रहवासी क्षेत्रों और रात्रि के समय युद्ध वर्ज्य था।

यही भारतीय सिद्धान्त वर्तमानयुग में ‘जिनेवा कनवेन्शन की आधार शिला हैं जिन की दुहाई तो दी जाती है परन्तु उन का उल्लंघन आज भी अधिकाँश देशों की सैनाये करती रहती हैं। भारतीयों ने अपने आदर्शवाद की भारी कीमत चुका कर भी नियमों का आदर्श तो निभाया जिस का विदेशी आक्रान्ताओं ने मक्कारी से हथियार के रुप में भारतीयों के विरुद्ध हमैशा प्रयोग किया।

नौका निर्माण तथा तटीय सुरक्षा

भारत उत्तर दिशा में हिमालय पर्वत श्रंखला के कारण अन्य देशों से कटा हुआ है तथा पूर्व और दक्षिण की ओर से समुद्र से घिरा हुआ है। इस कारण विश्व के अन्य देशों के साथ सम्पर्क रखने के लिये नौकाओं का विकास और प्रयोग भारत के लिये अनिवार्यता रही है। ग्रन्थों में ‘वरुण’ को सागर देवता माना गया है। देव तथा दानव दोनो कश्यप ऋषि तथा उन की पत्नियों दिति और अदिति की संतानें थीं। आज कल भी जब किसी नोका या जहाज को सागर में उतारा जाता है तो ‘अदिति’ को प्रार्थना समर्पित की जाती है।

ऋग वेद में नौका दूारा समुद्र पार करने के कई उल्लेख हैं तथा ऐक सौ नाविकों दूारा बडे जहाज को खेने का उल्लेख है। ‘पल्लव’ का उल्लेख भी है जो तूफान के समय भी जहाज को सीधा और स्थिर रखने में सहायक होते थे। पल्लव को आधुनिक स्टेबिलाइजरों का अग्रज कहा जा सकता है। अथर्ववेद में ऐसी नौकाओं का उल्लेख है जो सुरक्षित, विस्तरित तथा आरामदायक भी थीं।

ऋगवेद में सागर मार्ग से व्यापार के साथ साथ भारत के दोनो महासागरों (पूर्वी तथा पश्चिमी) का उल्लेख है जिन्हें आज खाडी बंगाल तथा अरब सागर कहा जाता है। वैदिक युग के जन साधारण की छवि नाविकों की है जो सरस्वती घाटी सभ्यता के ऐतिहासिक अवशेषों के साथ मेल खाती है। संस्कृत ग्रंथ ‘युक्तिकल्पत्रु’ में नौका निर्माण का ज्ञान है। इसी का चित्रण अजन्ता गुफाओं में भी विध्यमान है। इस ग्रंथ में नौका निर्माण की विस्तरित जानकारी है जैसे किस प्रकार की लकडी का प्रयोग किया जाये, उन का आकार और डिजाइन कैसा हो। उस को किस प्रकार सजाया जाये ताकि यात्रियों को अत्याधिक आराम हो। युक्तिकल्पत्रु में जलवाहनों की वर्गीकृत श्रेणियाँ भी निर्धारित की गयीं हैं।

नौ सैना का विकास

भारत में नौका यातायात का प्रारम्भ सिन्धु नदी में लग भग 6000 वर्ष पूर्व हुआ। अंग्रेजी शब्द नेवीगेशन का उदग्म संस्कृत शब्द नवगति से हुआ है। नेवी शब्द नौ से निकला है। ऋगवेद में सरस्वती नदी को ‘हिरण्यवर्तनी’ (सु्वर्ण मार्ग) तथा सिन्धु नदी को ‘हिरण्यमयी’ (स्वर्णमयी) कहा गया है। सरस्वती क्षेत्र से सुवर्ण धातु निकाला जाता था और उस का निर्यात होता था। इस के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं का निर्यात भी होता था। भारत के लोग समुद्र के मार्ग से मिस्त्र के साथ इराक के माध्यम से व्यापार करते थे। तीसरी शताब्दी में भारतीय मलय देशों (मलाया) तथा हिन्द चीनी देशों को घोडों का निर्यात भी समुद्री मार्ग से करते थे।

विश्व का प्रथम ज्वार स्थल ईसा से 2300 वर्ष पूर्व हडप्पा सभ्यता के समकालीन लोथल में निर्मित हुआ था। यह स्थान आधुनिक गुजरात तट पर स्थित मंगरोल बन्दरगाह के निकट है। ऋगवेद के अनुसार वरुण देव सागर के सभी मार्गों के ज्ञाता हैं।

आर्य भट्ट तथा वराह मिहिर नें नक्षत्रों की पहचान कर सागर यात्रा के मान चित्रों का निर्माण की कला भी दर्शायी है। इस के लिये ऐक ‘मत्स्य यन्त्र’ का प्रयोग किया जाता था जो आधुनिक मैगनेटिक कम्पास का अग्रज है। इस यन्त्र में लोहे की ऐक मछली तेल जैसे द्रव्य पर तैरती रहती थी और वह स्दैव उत्तर दिशा की तरफ मुहँ रखती थी।

सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य़ ने अपने नौका सैनानायक के आधीन ऐक नवसैना स्थापित की थी जिस का उत्तरदाईत्व तटीय सुरक्षा के साथ साथ झीलों और जल यातायात को सुरक्षा पहुँचाना था। भारतीय जलयान काम्बोज (कमबोडिया), यवदूीप (जावा), सुमात्रा, तथा चम्पा में भारतीय उपनिवेषों के साथ साथ हिन्दचीनी (इन्डोनेशिया) फिल्पाईन, जापान, चीन, अरब तथा मिस्त्र के जलमार्गों पर भारतीय व्यापारिक वाहनों को सुरक्षा प्रदान करना था। क्विलों से चल कर भारतीय नाविकों ने दक्षिणी चीन और अफ्रीका के सम्पूर्ण समुद्री तट का भ्रमण किया हुआ था। उन्हों ने अफरीका से ले कर मेडागास्कर तक की सभी बन्दरगाहों से सम्पर्क स्थापित किया था। प्रचीन काल से मध्यकाल तक भारत को ऐक सैनिक महाशक्ति माना जाता था।

चाँद शर्मा

47 – राष्ट्रवाद की पहचान – हिन्दुत्व


आदि काल से मानव जहाँ पैदा होता था वही जन्म भूमि जीवन भर के लिये उस की पहचान बन जाती थी तथा माता पिता का समुदाय उस का जन्मजात धर्म बन जाता था। यदि मानव समुदाय ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे तो उन की पहचान साथ जाती थी किन्तु नये प्रदेश में या तो ‘अक्रान्ता’ कहलाते थे या ‘शरणार्थी’। अक्रान्ता नये स्थान पर स्थानीय परमपराओं को नष्ट कर के अपनी परमपराओं को लागू करते थे। शरणार्थियों को विवश हो कर अपनी परम्परायें छोड कर नये स्थान की परम्पराओं को अपनाना पडता था। कालान्तर मानव समुदायों ने धरती पर अपना अधिकार घोषित कर के उस स्थान को अपना इलाका, खण्ड या देश कहना आरम्भ कर दिया और धर्म, स्थान, नस्लों, जातियों, तथा व्यवसाय के आधार से मानवों की पहचान होने लगी।

सभ्यताओं का संघर्ष

भारत में भी कई आक्रान्ता आये किन्तु उन्हों ने भारत के स्थानीय रीति रिवाज अपना लिये थे और भारत वासियों की पहचान को अपना कर इसी धरती से घुल मिल गये। सातवीं शताब्दी में मुस्लिम भी इस देश में अक्रान्ता बन कर आये परन्तु स्थानीय सभ्यता के साथ मिलने के बजाये उन्हों ने स्थानीय सभ्यता की सभी पहचानों को नष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया जिस कारण मुसलमानों का स्थानीय लोगों के साथ स्दैव वैर विरोध ही चलता रहा। इस तथ्य के कभी कभार अपवाद हुये भी तो वह आटे में नमक के बराबर ही थे। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त, धार्मिक ऐकता होते हुये भी मुस्लिम आपस में नस्लों, परिवारों तथा खान्दानों की पहचान के आधार पर भी लडते रहेते थे। उन की आपसी प्रतिस्पर्धा में जो ऐक लक्ष्य समान था वह था धर्म के नाम पर इस्लामी भाईचारा जिस का उद्देश स्थानीय हिन्दू धर्म और परम्पराओं का विनाश करना था। उन्हों ने भारत को अधिकृत तो किया किन्तु भारत की स्थानीय सभ्यता को अपनाया नहीं। इस वजह से भारत में उन की पहचान आक्रान्ताओं जैसी ही आज तक रही है।

धर्म निर्पेक्षता का ढोंग

मुसलमानों के पश्चात योरुपवासियों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया। उन के मुख्य प्रतिस्पर्धी भी ईसाई थे। अतः उपनिवेश की नीति को सफल बनाने के लिये उन्हों ने मानवी पहचान के लिये ऐक नई परिभाषा का निर्माण किया जिसे आजकल ‘राष्ट्रीयता’ कहा जाता है। इसाई अपनी अपनी पहचान देश के आधार पर करते थे। अंग्रेज़ अपने आप को ईसाई कहने के बजाय अपने आप को ‘ब्रिटिश साम्राज्य’ या ‘किंग आफ इंगलैण्ड का वफादार सेवक कहना अधिक पसंद करते थे। नस्ल के आधार पर वह अपने आप को ‘ऐंगलो सैख्सन’ भी नहीं कहते थे।

भारत पर अपने अतिक्रमण को ‘न्यायोचित’ करने के लिये उन्हों ने आर्य जाति के भारत पदार्पण की मनघडन्त कहानी को भी बढ चढ कर फैलाया ताकि वह स्थानीय भारत वासियों को बता सकें कि अगर आर्य जाति के लोग बाहर से आकर भारत पर अपना अधिकार जमा सकते थे तो फिर ब्रिटिश वैसा क्यों नहीं कर सकते। उन का कथन था कि सोने की चिडिया भारत किसी की मिलकीयत नहीं थी। हर कोई चिडिया के पंख नोच सकता था। सभी लुटेरों के अधिकार भी स्थानीय लोगों के समान ही थे। इसाई आक्रान्ता ऐसा ही कुछ अमेरिका आदि देशों में भी कर रहे थे। इसी मिथ्यात्मिक प्रचार का परिणाम भारत के बटवारे के रूप में निकला और 1947 के बाद अभी भी धर्म निरर्पेक्ष्ता की आड में प्रचार किया गया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं था बल्कि जातियों और छोटी छोटी रियासतों में बटा हु्आ इलाका था जिसे केवल अंग्रेजों नें ‘इण्डिया’ की पहचान दे कर ऐक सूत्र में बाँधा और देश कहलाने लायक बनाया।

राष्ट्रीयता के माप दण्ड

पाश्चात्य जगत के आधुनिक राजनीति शास्त्री किसी देश के वासियों की राष्ट्रीयता को जिन तथ्यों के आधार से आँकते हैं अगर उन्हीं के मापदण्डों को हम भी आधार मान लें तो भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण स्पष्ट उजागर हो जाते है। उन के मापदण्डों के अनुसार मानवी राष्ट्रीयता का आंकलन इस आधार पर किया जाता है यदिः-

  1. उस देश की जन संख्या किसी स्पष्ट और निर्धारित भू खण्ड में निवास करती हो।
  2. जिन की भाषा तथा साहित्य में समानता हो।
  3. जिन के रीति रिवाजों में समानता हो । 
  4. जिन की ‘उचित–अनुचित’ के व्यवहारिक निर्णयों के बारे में समान विचारधारा हो।    

उपरोक्त मापदण्डों के आधार से भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण इस प्रकार स्पष्ट हैं-

प्रथम आधार – स्पष्ट और निर्धारित भूगोलिक आवास

आधुनिक भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और म्यनमार को संयुक्त कर के देखें तो विश्व में केवल प्राचीन भारत ही ऐक मात्र क्षेत्र है जिस के ऐक तरफ दुर्गम पर्वत श्रंखला और तीन तरफ महासागर उसे ऐक विशाल दुर्ग की तरह सुरक्षा प्रदान कर रहै हैँ। भारत को प्रकृति ने स्पष्ट तौर से भूगौलिक सीमाओं से बाँधा है तथा इस तथ्य का कई प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। विष्णु पुराण में भारत की सीमाओं के साथ साथ वहाँ के निवासियों की पहचान के बारे में इस प्रकार उल्लेख किया गया हैः-  

            उतरं यत् समुद्रस्य हिमेद्रश्चैव दक्षिण्म , वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति

            (साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र से घिरा हुआ जो देश है वहाँ के निवासी भारतीय हैं।)

‘बृहस्पति आगम’ के अनुसार भारत की पहचान इस प्रकार हैः-

हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात – हिमालय से ले कर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक का देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
मुस्लमानों ने ‘हिन्दुस्थान’ शब्द का अपभ्रंश ‘हिन्दुस्तान’ कर दिया था।

रामायण का कथानक समस्त पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, उत्तरी भारत, मध्य भारत, दक्षिणी पठार से होता हुआ रामेश्वरम और लंका तक फैला हुआ है। महाभारत का कथानक भी उसी प्रकार भारत के चारों कोनो तक फैला हुआ है। इस भू खण्ड में रहने वाले सभी हिन्दू थे यहाँ तक कि लंकाधिपति रावण भी ब्राह्मण था और त्रिमूर्ति शक्ति शिव का पुजारी था। वह वेदों का ज्ञाता था और यज्ञ भी करता था।

दिूतीय आधार – भाषा और साहित्य में समानता

भारत की सभी भाषायों की जननी संस्कृत हैं जो आदि काल से ग्यारहवीं शताब्दी तक लगातार भारत की साहित्यिक तथा सभी प्रान्तों को ऐक सूत्र में बाँधे रखने के माध्यम से भारत की राष्ट्रभाषा भी रही है। आज भी संस्कृत भाषा ऐक सजीव भाषा है। कई दर्जन पत्र पत्रिकायें आज भी संस्कृत में प्रकाशित होती हैं। अखिल भारतीय रेडियो माध्यम से समाचारों का प्रसारण भी संस्कृत में होता है। चलचित्रों तथा दूरदर्शन पर संस्कृत में फिल्में भी दिखायी जाती हैं। तीन हजार से अधिक जन संख्या वाला ऐक भारतीय गाँव आज भी केवल संस्कृत भाषा में ही दैनिक आदान प्रदान करता है। भारत के कई बुद्धिजीवी परिवारों की भाषा आज भी संस्कृत है। केवल उदाहरण स्वरूप संस्कृत भाषा का प्रसिद्ध गायत्री मंत्र आज भी प्रत्येक हिन्दू से सुना जाता है जोकि संस्कृत की चिरंजीवता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, धर्म शास्त्रों, रामायण तथा महाभारत का प्रभाव भारत के कोने कोने में है।   

तृतीय आधार – समान रीति रिवाज

निम्नलिखित तथ्य भारत की राष्ट्रीय ऐकता को दर्शाने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं –

  1. समस्त भारत के हिन्दू परिवारों में जब भी कोई रीति रिवाज किये जाते हैं तो उन में पढे जाने वाले संस्कृत के मन्त्रों में गंगा यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, तथा सिन्धु नदियों का नाम लिया जाता है जो भारत की विशालता और ऐकता का प्रमाण हैं।
  2. यातायात के सीमित साधनों के बावजूद भी हिन्दू भारत के चारों कोनों में स्थित तीर्थ-स्थलों की यात्रा करते रहै हैं जिन में मथुरा, अयोध्या, पुरी, सोमनाथ, कामाक्षी, इन्दौर, उज्जैन, मीनाक्षीपुरम, और रामेश्वरम के मन्दिर मुख्य हैं।
  3. विपरीत परिस्थितियों और मौसम के बावजूद भी हिन्दू अमरनाथ, बद्रीनाथ, सोमनाथ, जगन्नाथ, कैलास-मानसरोवर, वैश्णो देवी तथा राम सेतु जैसे दुर्गम  तीर्थ स्थलों की यात्रा निष्ठा पूर्वक स्वेच्छा से कर के निजि जीवन की अभिलाषा की पूर्ति करते हैं।
  4. यातायात की असुविधाओं के बावजूद, स्वेच्छा से निश्चित समय पर भारत के चारों कोनों से हिन्दूओं का यात्रा कर के प्रयाग, हरिदूार, नाशिक तथा काशी में कुम्भ स्नान के लिये ऐकत्रित हो जाना कोई जनसंख्या का त्रास्ती पलायन नहीं होता अपितु आस्था और हिन्दूओं के समान वैचारिक, सामाजिक और रीतिरीवाजों का प्रदर्शन है।
  5. देश भर में 12 ज्योतिर्लिंग हिन्दू ऐकता का अनूठा प्रमाण हैं। यह भी भारत की ऐकता का प्रतीक है जब प्रत्येक वर्ष पैदल चल कर लाखों की संख्या में आज भी काँवडिये हरिदूार से गंगा जल ला कर काशी स्थित ज्योतिर्लिंग का शिवरात्री के पर्व पर अभिषेक कराते हैं।
  6. ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति के अतिरिक्त राम, कृष्ण, गणेश, हनुमान, दुर्गा तथा लक्ष्मी समस्त भारत के सर्वमान्य देवी-देवता हैं।

विश्व के किसी भी अन्य देश में भारत के जैसी समान रीति रिवाजों की परम्परा नहीं है। मकर संक्रान्ति, शिवरात्रि, रामनवमी, बुद्ध जयन्ती, वैशाखी, महीवीर जयन्ती जन्माष्टमी तथा दीपावली के अतिरिक्त कई पर्व हैं जो भारत के पर्यावरण, इतिहास, तथा जन नायकों के जीवन की घटनाओं से जुडे हैं और विचारधारा की ऐकता के सूचक हैं। इन पर्वों की तुलना में ईद, मुहर्रम, क्रिसमिस, ईस्टर आदि पर्वों से भारत के जन साधारण का कोई सम्बन्ध नहीं।

चतुर्थ आधार – समान नैतिकता

नैतिकता की समानतायें हिन्दूओं के सभी साम्प्रदाओं में ऐक जैसी ही हैं। पाप और पुण्य की धारणायें भी समान हैं। समस्त हिन्दू राम की रावण पर विजय को धर्म की अधर्म पर विजय के अनुरूप देखते हैं। विदेशी लोग इस घटना को आर्यों की अनार्यों (द्राविडों) पर विजय का दुष्प्रचार तो करते हैं परन्तु वह यह तथ्य नहीं जानते कि दक्षिण भारत में भी कोई रावण, कुम्भकरण, या मेधनाद की मूर्ति घर में स्थापित नहीं करता।

विविधता में ऐकता स्वरूप हिन्दुत्व

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में समानतायें पाई जाती हैं – 

  • सभी हिन्दू ऐकमत हैं कि ईश्वर ऐक है, निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है, ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भारत में भगवा रंग पवित्रता, वैराग्य, अध्यात्मिकता तथा ज्ञान का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक विचारधारा के आधार पर हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है। हिन्दू कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते। हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं। हिन्दूओं में विदूानो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं। हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है। हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है। हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है। हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रसमों का आदर करते हैं। धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता। संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

पर्यावर्ण के प्रति भी वैचारिक समानतायें हैं। समस्त नदीयाँ और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है। तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है। सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है। सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है। मुख्य तथ्य यह है कि सभी हिन्दूओं पर ऐक ही आचार विचार तथा संस्कार संहिता लागू है।

हिन्दू संस्कृति ही भारत वासियों की राष्ट्रीय पहचान है। मुसलिम और ईसाई धर्मों के तीर्थ स्थल, धर्म ग्रँथ, नैतिकता के नियम अकसर हिन्दूओं के विरोध में आते है क्यों कि इन धर्मों का जन्म भारत के वातावरण में ना हो कर अन्य देशों में हुआ था। इस के फलस्वरूप उन के प्रेरणा स्त्रोत्र भी भारत से बाहर ही हैं। उन के जीवन नायक भी विदेशी है तथा वह भारत के मौलिक आधार से स्दैव संघर्ष करते रहै हैं। यदि वह स्थानीय विचारधारा को ना अपनायें तो निराधार धर्म निर्पेक्षी बनावटी राष्ट्रीयता उन्हें ऐक राष्ट्र में नहीं बाँध सकती।

चाँद शर्मा

 

46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

42- स्मृद्ध भारतीय जन-जीवन


आज विकसित कहे जाने वाले देशों के लोग जब तन ढकने के लिये पशुओं की खालें ओढते थे और भोजन कि लिये कच्चे पक्के माँस पर ही निर्वाह करते थे तब से भी सैंकडों वर्ष पूर्व भारत को ऐक विकसित महाशक्ति के रूप में जाना जाता था। सिकन्दर के गुरु अरस्तु के अनुसार ‘भारत-विजय’ का अर्थ ही ‘विश्व-विजय’ था। भारत धरती पर जीता जागता स्वर्ग था। तब भारत के लोग विदेश जाने को तत्पर नहीं होते थे बल्कि विदेशी भारत आने के लिये ललायत रहते थे।

पुरुषार्थ से जी भर के जियो

हिन्दू जीवन का लक्ष्य धर्म के मार्ग पर चल कर कर्तव्यों का पालन करते हुये जीवन में ‘अर्थ’ और ‘काम’ की तृप्ति कर के जीवन काल में ही ‘मोक्ष’ की प्राप्ति करना था। मृत्यु के पश्चात मोक्ष का कोई अर्थ नहीं रहता। मोक्ष की प्राप्ति संन्यास से पूर्व ही होनी चाहिये नहीं तो संन्यासी बनने के पश्चात घोटालों में फंस जाने के कारण सब किया कराया भी नष्ट हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति की होड में ‘धर्म’ की स्थानीय मर्यादाओं का उलंघन और किसी चीज़ की इति नहीं होनी चाहिये।

बिना गृहस्थाश्रम का धर्म निभाये वानप्रस्थाश्रम या संन्यासाश्रम में प्रवेश लेना उचित नहीं समझा जाता। हिन्दू समाज में स्त्री-पुरुष दोनों को ही संतान रहित होने पर ‘अधूरा’ समझा जाता है क्यों कि उन्हों ने ईश्वर के प्रति सृष्टी क्रम को प्रवाहित रखने के लिये निजि उत्तरदाईत्व का निर्वाह नहीं किया। जो स्त्री-पुरुष अपने पुरुषार्थ के भरोसे अपनी स्वाभाविक इन्द्रीय सुखों से वँचित रहे हों वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते।

अर्थ के बिना भी कुछ सार्थक नहीं हो सकता केवल अनर्थ ही होता है। जीवन के साधन अर्जित करना सभी का कर्तव्य है। वन में रहने वाले संन्यासी को भी कम से कम बीस-तीस वस्तुओं की आवशयक्ता निरन्तर पडती रहती है जिन की आपूर्ति का भार गृहस्थी ही उठाते हैं। अतः संसाधनों के बिना कभी मोक्ष प्राप्त नहीं होता।

धर्म, अर्थ, और काम – जीवन में तीनों का महत्व है। केवल धर्म के मार्ग पर चल कर, अर्थ और काम से वँचित रह कर मोक्ष प्राप्ति कर लेना अति कठिन है। भारत के ऋषि अपनी अपनी पत्नियों के संग ही आश्रमों में रह कर संन्यास धर्म का पालन करते रहै हैं। स्वेच्छा से संन्यासी हो जाना ऐक मानसिक अवस्था है तथा संन्यास का भौतिक दिखावा करते रहना केवल नाटकबाजी है।   

विदेशी धर्मों के मतानुसार वैवाहिक सम्बन्ध का लक्ष्य संतान उपन्न करना ही है। इस की तुलना में हिन्दू जीवन का लक्ष्य पुरुषार्थ दूारा धर्म (कर्तव्यों का निर्वाह), अर्थ (संसाधनों का सदोप्योग तथा आपूर्ति), काम (सभी प्रकार के सुख भोगना) तथा मोक्ष ( पूर्ण सँतुष्टि) की प्राप्ति है। इन सभी का समान महत्व है। किसी अवस्था में यदि धर्म, अर्थ और काम समान मात्रा में अर्जित ना किये जा सकते हों तो क्रमशाः काम, अर्थ को छोडना चाहिये। धर्म का त्याग किसी भी अवस्था में नहीं किया जा सकता क्यों कि केवल धर्म का पालन ही मोक्ष प्राप्ति करवा सकता है। निजि कर्तव्यों का पालन करना अनिवार्य है।

काम-सूत्र  

ऋषि वात्सायन दूारा लिखित काम-सूत्र शरीरिक सुखों के विषय पर सम्पूर्ण गृन्थ है। हिन्दू धर्म में वैवाहिक काम सम्बन्ध किसी ‘ईश्वरीय-आज्ञा’ का उलन्धन नहीं माने जाते। वह ईश्वर के प्रति मानव कर्तव्यों के निर्वाह के निमित हैं और सृष्टि के क्रम को चलाये रखने की श्रंखला के अन्तर्गत आते हैं। कामदेव को देवता माना जाता है ना कि शैतान। काम-सूत्र गृन्थ का लग भग सभी विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और भारतीय अध्यात्मिकता की तरह अपने क्षेत्र में यह गृन्थ भी सर्वत्र प्रेरणादायक है। इस से प्रेरणा ले कर शिल्पियों और चित्रकारों ने अपनी कला से विश्व भर के पर्यटकों को चकित किया है। चन्देल राजाओं दूारा निर्मित खजुरोहो के तीस मन्दिर काम-कला कृतियों को ही समर्पित हैं जो इस विषय में मानव कल्पनाओ की पराकाष्ठा दर्शाती हैं। काम को धर्म शास्त्रों की पूर्ण स्वीकृति है अतः शिल्प कृतियों में अधिकतर देवी – देवताओ को ही नायक नायकाओं के रूप में दिखाया गया है।     

हिन्दू समाज में कोई ‘तालिबानी ’ ढंग का अंकुश नहीं है। केवल धर्म और सार्वजनिक स्थलों पर सामान्य शिष्टाचार का निर्वाह करना ही आवश्यक है।  खजुरोहो कृतियों के पीछे छिपा अध्यात्मवाद और इतिहास शायद तथाकथित ओवर-लिबरल विदेशी पर्यटकों को समझ नहीं आये गा फिर भी उन्हें स्वीकारना पडे गा कि काम-कला प्रदर्शन में भी आज से दस शताब्दी पूर्व भारतवासी योरूप्यिन लोगों से कहीं आगे थे। 

काम का क्षेत्र केवल शरीरिक सम्बन्धों तक ही सीमित नहीं है। इस के अन्तर्गत सहचर्य के अतिरिक्त अच्छा भोजन, वस्त्र, आभूषण, रहन-सहन, कला, मनोरंजन, आराम, सुगन्धित वातावरण आदि जीवन के सभी भौतिक ऐश्वर्यों के आकर्षण आ जाते हैं। धर्म की सीमा के प्रतिबन्ध के अन्तर्गत सभी कुछ हिन्दू समाज में स्वीकृत है। यही वास्तविक ‘लिबरलज़िम है।

वाल्मीकि रामायण में कई भौतिक सुखों की परम्पराओ के उल्लेख देखे जा सकते हैं। ऱाजा दशरथ को प्रातः जगाने का विधान अयोध्या नगरी की भव्यता तथा ऐश्वर्य  का भान कराता है। ऋषि भारदूाज चित्रकूट मार्ग पर राजकुमार भरत तथा अयोध्या वासियों के सत्कार में ऐक भोज का प्रबन्ध अपने आश्रम में ही करते है जो किसी भी पाँचतारा होटल की ‘बैंक्विट’ से कम नहीं। ऱावण के अन्तःपुर में सीता की खोज में जब हनुमान प्रवेष करते हैं तो वहाँ के वातावरण का चित्रण अमेरिका के किसी भी नाईटकल्ब को पीछे छोड दे गा। किन्तु ऋषि वालमीकि कहीं भी वर्णन चित्रण करते समय भव्यता और शालीनता की रेखा को नहीं लाँघते।

भारतीय खान-पान 

हिन्दू धर्म शास्त्रों में, कर्म क्षेत्र के अनुसार, समाज के सभी वर्गों के लिये, भोजन का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया गया है जिसे सात्विक, राजसिक, तथा तामसिक भोजन कहते हैं। य़ह वर्गीकरण आधुनिक डायटीशियनों के विचारों से आज भी पूर्णत्या प्रमाणित हो रहा है। मनुस्मृति में भोजन परोसने, खाने तथा अन्त में हाथ और दाँत साफ करने तक की क्रियाओं का लिखित वर्णन है जैसा कि आधुनिक आई ऐस ओ मानकशास्त्री आजकल कम्पनियों में करवाते हैं।

हिन्दू जीवन में अधिकाँश तौर पर शाकाहारी भोजन को ही प्रोत्साहन दिया जाता है किन्तु धर्म अपने अपने कर्म क्षेत्र के उत्तरदाईत्व का निर्वाह करने के लिये सभी को शाकाहारी अथवा मांसाहारी भोजन गृहण करने की स्वतन्त्रता भी देता है। आखेट के माध्यम से मांसाहारी भोजन जुटाने की अनुमति है क्यों कि इस से जीवों की व्यवसायिक मात्रा में हत्यायें नहीं होंगी। आखेट पर प्रतिबन्ध पशु-पक्षियों के प्रजन्न काल की अवधि में पालन करना अनिवार्य होता है।

जहाँ अन्य धर्मों के कुछ लोग व्यक्तिगत स्वास्थ के कारणों से मांसाहारी भोजन त्याग कर शाकाहारी बन जाते हैं, वहीं हिन्दू जीवों के प्रति संवेदनशील हो कर जीवों की रक्षा के कारण शाकाहारी बने रहते हैं। इसी तथ्य में जियो – और जीने दो का मूलमंत्र छिपा है। 

भारतवासी कई प्रकार के अनाजों का उत्पादन करते थे जिन में अनाज, दालें और फल भी शामिल हैं। चावल, बाजरा, मक्की, गेहूँ की खेती भारत में प्राचीन काल से ही करी जाती थी। भारत में आम, केले, खरबूजे, और नारियल आदि कई प्रकार के फलों के निजि कुंज भी थे। गाय पालन गौरवशाली समझा जाता था। दूध, दही, मक्खन, घी, और पनीर आदि पदार्थ दैनिक प्रयोग के घरेलू पदार्थ थे। इन तथ्यों की तुलना में अमेरिका तथा योरूप के प्रगतिशील महिलायें आज भी दालों, मसालों तथा घी का प्रयोग नहीं जानतीं। आज भी विदेशी भोजन में प्रोटीन की प्राप्ति मांसाहार या जंक-फूड से ही पूरी करते हैं।

जंगल में शिकार को आग पर भून कर खाने, और पेट भर जाने पर वहीं नाचने-गाने की आदत को आज कल केम्प-फायर तथा बारबेक्यू कहते हैं। नुकीले तीरों या छुरियों से भुने मांस को नोच कर खाने का आधुनिक सभ्य रूप छुरी-काँटे से खाना है। इसकी तुलना में शाकाहारी खाना सभ्यता और संस्कृति की प्रगति का बोध करवाता है।  

पाक-कला

पाक-कला को चौंसठ कलाओं की श्रेणी में रखा गया है। भारतीय विविध रीतियों से भोजन पकाना जानते थे जिस में उबलाना, सेंकना, भूनना, धीमी आँच पर पकाना, तलना, तथा धूप में सुखाना भी शामिल हैं। प्रत्येक गृहणी को मसालों के औषधीय गुणों की जानकारी थी तथा वह दैनिक जीवन में मसालों का यथोचित प्रयोग करती थीं। संतुलन बनाये रखने के विचार से दिन के प्रत्येक भोजन में छः मौलिक स्वादों (मीठा, कडुआ, खट्टा, नमकीन, तीखा और फीका) को सम्मिलित किया जाता था। यह परम्परा आज भी अधिकाँश घरों में है। भोजन के पश्चात सुगन्धयुक्त पान अर्पित करना विशिष्ट शिष्टाचार माना जाता था। गृहस्थाश्रम में मदिरा पान पर शालीनता में रहने के अतिरिक्त अन्य कोई रोक-टोक नहीं थी। इस की तुलना में अन्य देशों में केवल माँस, नान, पिज्जा या इस प्रकार के पदार्थों को आग पर भूनना ही मुख्यता आता था। आज भी उन्हें मसालों की जानकारी नहीं के बराबर है और उन का दैनिक भोजन स्वाद में लगभग फीका ही होता है।

चीनी – भारत का उतपादन

अन्य देशों नें ‘शूगर शब्द भारतीय शब्द शक्करा से ही अपनाया है। इसी को अरबी भाषा में शक्कर, लेटिन में साकारम, फरैंच में साकरे, जर्मन भाषा में ज़क्कार तथा अंग्रेज़ी में शूगर कहते हैं। चीनी का निर्माण भारत ही शूगरकेन (गन्ने) से किया था। अंग्रेजी में शूगरकेन का शब्दिक अर्थ “शूगर वाला बाँस” होता है।

हिन्दू घरों में मिष्टान को सात्विक भोजन माना जाता है। देवी देवताओं को अर्पण किये जाने वाले प्रसाद मीठे ही होते हैं। मीठे दूध में चावल पका व्यंजन क्षीर (पायसम) अति पवित्र तथा संतोष जनक माना जाता है। भारत के खान पान में विभन्न प्रकार की मिठाईयों की भरमार है जिन से विश्व के अन्य समाज आज तक भी अनिभिज्ञ्य हैं। आज  भारतीय मिठाईयाँ विदेशों में भी लोकप्रिय हो रही हैं। यह भारत का दुर्भाग्य है कि कुछ मिलावटखोरों के कारण भारत में ही भारतीय मिठाईयों का स्थान चोकलेट, कुकीस और विदेशी मिठाईयों ने छीनना शुरु कर दिया है। 

भारतीय परिधान

मानव सभ्यता को कपास की खेती तथा उन से निर्मित सूती वस्त्र भी भारत की ही देन हैं। पाँच लाख वर्ष पूर्व हडप्पा के अविशेषों में चाँदी के गमले में कपास, करघना तथा सूत कातना और बुनती का पाया जाना इस कला की पूरी कहानी दर्शाता है। वैदिक साहित्य में भी सूत कातने तथा अन्य की प्रकार के साधनों के प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं। योरूप वासियों को कपास की जानकारी ईसा से 350 वर्ष पूर्व सिकंदर महान के सैनिकों के माध्यम से हुई थी। तब तक योरूप के लोग जानवरों की खालों से तन ढांकते थे। कपास का नाम भी भारत से ही विश्व की अन्य भाषाओं में प्रचिल्लत हुआ जैसे कि संस्कृत में कर्पस, हिन्दी में कपास, हिब्रू (यहूदी भाषा) में कापस, यूनानी तथा लेटिन भाषा में कार्पोसस

हथ-कर्घा तथा हाथ से बुने वस्त्र आज भी भारत का गौरव हैं। आज से दो हजार वर्ष पूर्व तक मिस्र के लोग मम्मियों को भारतीय मलमल में ही लपेट कर सुरक्षित करते थे। जूलियस सीज़र के काल तक भारतीय सूती वस्त्रों का कोई भी प्रतिस्पर्धी नहीं था। भारतीय वस्त्रों के कलात्मिक पक्ष और गुणवत्ता के कारण उन्हें अमूल्य उपहार माना जाता था। खादी से ले कर सुवर्णयुक्त रेशमी वस्त्र, रंग बिरंगे परिधान, अदृष्य लगने वाले काशमीरी शाल भारत के प्राचीन कलात्मिक उद्योग का प्रत्यक्ष प्रमाण थे जो ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व विकसित हो चुके थे। कई प्रकार के गुजराती छापों तथा रंगीन वस्त्रों का मिस्र में फोस्तात के मकबरे के में पाया जाना भारतीय वस्त्रों के निर्यात का प्रमाण है।

आरम्भ में योरूप वासी भारत की ओर गर्म मसालों के व्यापार की होड में आये थे किन्तु शीघ्र ही भारतीय परिधान उन का मुख्य व्यवसाय बन गये। कताई बुनाई के क्षेत्र में पाँच हजार वर्षों के अनुभव तथा अनुसंधान का जादु इंगलैण्ड वासियों पर इस कदर चढा कि वस्त्रों का मानव निर्मित होना असम्भव जान पडता था।

ढाके की मलमल

मलमल एक प्रकार का पतला कपड़ा होता है जो बहुत बारीक़ सूत से बुना जाता है। प्राचीनकाल में यह कपड़ा विशेषकर बंगाल और बिहार में बुना जाता था। ढाके की मलमल अपनी बारीकी और नफासत के लिए विश्व विख्यात थी। एक अंगूठी से सात थान मलमल आर-पार किया जा सकता था। ढाके के मलमल के आगे मैनचेस्टर में बने वस्त्र फीके पड़ जाने के भय से अंग्रेजों ने भारतीय बुनकरों की उंगलियां काटवा दीं थी।

बंगाली बुनकरों की मलमल इतनी निर्मल और महीन थी कि उसे चलता पानी (रनिंग वाटर) तथा सायंकालीन ओस (ईवनिंग डयू) की उपाधि दी जाती थी। बनारसी सिल्क पर सोने चाँदी के महीन तारों की नक्काशी विश्व चर्चित थी। कशमीर के पशमीना शाल एक अंगूठी में से निकाले जा सकते थे। परिधानों के रंग प्रत्येक धुलाई के पश्चात और निखरते थे।   

परिधानों, आभूष्णों तथा सौंदर्य प्रसाधनों के कारण भारतीय स्त्रियों की तुलना स्वर्ग की अप्सराओं से करी जाती थी क्यों कि वह हर प्रकार के इन्द्रीय विलास के गुणों से पूर्णत्या सम्पन्न थीं। जो लोग आज विदेशी तकनीक की वकालत करते हैं उन के लिये यह कहना प्रसंगिक होगा कि भारत के उस समृद्ध वातावरण में तब तक पाश्चात्य तकनीक की कोई छाया भी नहीं पडी थी।  

चाँद शर्मा

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