हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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27 – पूजा और रीति रिवाज


हिन्दू मतानुसार धर्म तथा अध्यात्मिक्ता प्रत्येक व्यक्ति का निजि क्षेत्र है। ईश्वर तथा आत्मा का सम्बन्ध अटूट है। किसी व्यक्ति पर कोई दबाव नहीं कि वह कोई मन्दिर बनवाये या किसी विशेष समय और स्थल पर जा कर किसी विशेष ढंग से पूजा अर्चना करे। हिन्दूओं के लिये उन के अपने शरीर में ही परमात्मा का वास होता है। जब हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि तत्वों से बना है तो इन सभी तत्वों के देवता भी हमारे शरीर में ही वास करते है। हमारे शरीर में सूर्य की गर्मी तथा चन्द्र की शीतलता होने के कारण उन का भी वास है। मानव में ब्रह्मा की सर्जन शक्ति, विष्णु की पोषण शक्ति तथा शिव की संहारक शक्ति भी है, अतः हिन्दू धर्म यह घोषणा भी करता है – जो ब्रह्माण्डे सो ही पिण्डे। हमारे शरीर में ईश्वर तथा देवताओं का वास है। इसी कारण मन्दिर को भी मानव शरीर का प्रतीक मान कर मन्दिरों के भवन के सभी भागों के नाम भी शरीर के अँगों की तरह ही होते हैं।  

रामायण और महाभारत काल में यज्ञशालाओं का उल्लेख तो है परन्तु मन्दिरों का उल्लेख नहीं है। सम्भवता मन्दिरों का निर्माण बुद्ध काल में जब मठ और विहार बने तभी बुद्ध की प्रतिमाओं के साथ साथ अन्य देवी देवताओं की स्थापना भी मन्दिरों में करी गयी। वास्तव में मन्दिरों का महत्व विद्यालयों जैसा है जहाँ समाज के लिये अध्यात्मिकता की कक्षायें लगायी जाती हैं। मन्दिरों ने विभिन्न पर्वों के माध्यम से हिन्दू धर्म, समाज, संस्कृति, कला तथा हस्त कलाओं के उत्थान में विशेष योग्दान दिया है। देश के दूर दराज़ इलाकों में फैले हुये मन्दिरों नें सामाजिक सम्मेलन स्थलों की भूमिका भी निभायी है तथा देश की ऐकता को मज़बूत किया है। कुम्भ आयोजन तथा जगन्नाथ रथ यात्रा इस के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जब लोग लम्बी दूरी तय कर के निर्धारित समय पर स्वेच्छा से एकत्रित होते हैं। मन्दिर, पर्व तथा रीतिरिवाज हिन्दू जीवन शैली का अविभाज्य अंग हैं।

भारत को ऐकता सूत्र में पिरोने के अतिरिक्त मन्दिरों नें समाज के लिये सूचना केन्द्रों तथा समुदायों में ताल मेल करने में भी सहायता की है। भारत में पर्यटन को भी तीर्थयात्राओं के माध्यम से प्रोत्साहन मिलता रहा है।

रीति रिवाजों का महत्व

हिन्दू धर्म में प्राकृतिक जीवन तथा समाज में प्राणी मात्र के कल्याण पर विशेष बल दिया जाता है। किन्तु इन भावात्मिक शब्दों को क्रियात्मिक रूप देना हर किसी की योग्यता के बस की बात नहीं। जब तक कोई गति-विधि दिखाई ना पडे, कोई भी भावनात्मिक तथा दार्शनिक काम जन साधारण की कल्पना से बाहर रहता है। भावनाओं को साकार करने का कार्य रीति रिवाज करते हैं। रीति रिवाजों का अस्तीत्व भोजन में मसालों की तरह का है। जिन के बिना जीवन ही नीरस और फीका हो जाये गा। किसी भी क्रिया को निर्धारित परणाली से करना ही रीति रिवाज होता है ताकि सभी को क्रिया के आरम्भ होने तथा समाप्त होने का प्रत्यक्ष आभास हो जाये और क्रिया में से कोई भी मुख्य कडी छूट ना जाये। किन्तु जब राति रिवाज क्रिया का यथार्थ लक्ष्य छोड कर केवल दिखावा बन जाते हैं या समय और साधनों की समर्थ से बाहर निकल जाते हैं तो वह बेकार का बोझ बन जाते हैं। 

विश्व में कहीं भी कोई मानव समाज ऐसा नहीं है जहाँ लोगों ने सारे रीति रिवाज छोड़ कर केवल भावनात्मिक क्रियाओं के सहारे जीवन व्यतीत किया हो। जैसे पूजा पाठ करना या बलि देना आदि रीतिरिवाज हैं उसी प्रकार झण्डा लहराना, शप्थ लेना, या विश्वविद्यालयों में गाऊन पहन कर प्रमाण पत्र गृहण करना भी रीति रिवाज ही हैं जो किसी घटना के घटित होने के प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ साथ जीवन में क्रियात्मिकता और उल्लास भर देते हैं।

प्रथा तथा रीति रिवाज समय और समाज की ज़रूरत के अनुसार बदलते रहते हैं। पहले साधक प्रातः ब्रह्म महूर्त में या सूर्योदय के समय, दोपहर, तथा सूर्यास्त के समय लगभग अनिवार्य तौर से ध्यान लगा कर किसी ना किसी मंत्र का जाप करते थे, या मूर्तियों की पूजा अर्चना तथा आरती करते थे, हवन आदि करते थे। समय के अभाव के कारण आज कल यह प्रथायें या तो लुप्त हो चुकी हैं या संशोधित कर के संक्षिप्त रूप में करी जाती हैं। सब कुछ स्वेच्छिक है।

किसी भी प्रथा या रीति रिवाज को जब मन और श्रद्धा से किया जाये तो वह उनुकूल वातावर्ण उत्पन्न करने में सहायक हैं। साधक आसानी से अपने को मन वाँछित दिशा में केन्द्रित कर सकता है तथा दैनिक गतिविधियों से अपने आप को अलग कर के ईश्वरीय शक्ति का आभास महसूस कर सकता है। यह मनोवैज्ञानिक क्रिया है।

पूजा अर्चना के रीति रिवाजों में दो तरह के नित्य-नियम हैं जिन्हें दैनिक नित्य-नियम और घटना प्रधान विधान कह सकते हैं । दैनिक नित्य-नियम के विधान निजि सान्त्वना के लिये होते हैं। घटना प्रधान विधान किसी विशेष घटना के घटित होने के घटित होने पर किये जाते हैं।

रीति रिवाजों का प्रावधान सभी मानव समाजों में तथा धर्मों में किसी ना किसी रूप में है। थोडा बहुत अन्तर स्थानीय भूगौलिक, आर्थिक तथा राजनैतिक कारणों से है। हिन्दू राति रिवाज सरल, आसान तथा परिवर्तनशील हैं। उन्हें समय तथा आवश्यक्तानुसार बदला जा सकता है। समाज हित में रीजि रिवाजों को बदलने की क्रिया सर्व सम्मति अथवा बहु सम्मति से होनी चाहिये, व्यक्तिगत सुविधा के लिये नहीं।  

व्यक्तिगत पूजा

संध्या, होम तथा पूजा स्वेच्छिक, व्यक्तिगत दैनिक नित्यक्रम हैं। उपासक किसी भी स्थान को चुन कर अपनी समय, साधनों तथा सुविधानुसार सभी या कुछ दैनिक नित्यक्रमों को कर सकता है। यह दैनिक नित्यक्रम ऐकान्त में या सार्वजनिक स्थल पर अकेले या परिवार के साथ कर सकते हैं। नित्यक्रम मन्दिर, सामाजिक केन्द्र, पार्क या किसी भी मनचाहे स्थान पर किया जा सकता है। उल्लेखनीय बात यह है कि यह दैनिक नित्यक्रम निजि संन्तुष्टि के लिये हैं जिस से दूसरों को असुविधा नहीं होनी चाहिये। व्यक्तिगत दैनिक नित्यक्रम का विधान केवल सुझाव मात्र है जिसे सुविधानुसार बदला जा सकता हैः-

  1. संध्या संध्या का लक्ष्य अपनी इच्छानुसार किसी स्वच्छ और पवित्र स्थान पर शान्ति से बैठ कर ईश्वर का समर्ण करना है। किसी भी दिशा की ओर मुँह किया जा सकता है क्यों कि ईश्वर तो सर्व-व्यापक है। साधारणत्या उचित समय प्रातः सूर्योदय से पहले और सायंकाल सूर्यास्त के पश्चात का है जव कि दैनिक गतिविधियाँ पूर्ण हो चुकी हों। उपासक ईश्वर का धन्यवाद चाहे तो मूक रह कर केवल मन से, चाहे तो धीरे से, या लाऊडस्पीकर लगा कर मनचाही भाषा में, गद्य, पद्य, मंत्रोच्चारण कर के, या गीत गा कर भी कर सकता है । ईश्वर को सभी कुछ स्वीकार हैं लेकिन लाऊडस्पीकर अवश्य ही आस पास के लोगों तथा स्थानीय प्रशासन का ध्यान आकर्षित करे गा। किसी भी प्रकार के वस्त्र पहने जा सकते हैं। मौलिक बात यह है कि स्थल स्वच्छ, शान्त होना चाहिये तथा दूसरों की शान्ति भंग ना हो।
  2. होम होम ऐक वैदिक क्रिया है जो निराकार ईश्वरीय शक्ति के प्रति की जाती है। मन्त्रोच्चारण के साथ साथ अग्नि के अन्दर सुगन्धमय पदार्थों की आहूतियाँ डाल कर वातावरण को प्रदूषणमुक्त किया जाता है। अग्नि में जलाने से सुगन्धित पदार्थों की क्षमता कई गुणा बढ़ जाती है। होम व्यक्तिगत अथवा सामूहिक तौर पर भी किया जा सकता है।
  3. पूजा आराधना – पूजा आराधना की परिक्रिया संध्या की अपेक्षा क्रमशा औपचारिक क्रिया है, किन्तु इस क्रिया के कुछ या सभी उपक्रमों को उपासक की सुविधानुसार परिवर्तित अथवा स्थगित भी किया जा सकता है। ईश्वर की अर्चना पद्धति की रूप-रेखा विशिष्ठ व्यक्तियों के सत्कार की परम्परा जैसी ही बन गयी है। मुख्यता आराधक मन ही मन में प्रतिष्ठापित मूर्ति के माध्यम से अपने आराध्य देवी-देवता की छवि को निहारता हुआ स्तुति करता है। मूर्ति की उपासना की निम्नलिखित परम्परागत क्रियायें हैं – सर्व प्रथम मन से आराध्य देवी – देवता का आवाहन किया जाता है। आराध्य को आसन पर आसीन कराया जाता है तथा सत्कार स्वरूप आराध्य के पग धोये जाते हैं। फिर पेय जल तथा जलपान परस्तुत किया जाता है। पाद्य स्वरूप आराध्य के चरण धोये जाते हैं वस्त्र पहनाये जाते हैं। नया यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है। अर्घ चन्दन आदि का सुगन्धित तिलक लगाया जाता हैं। पुष्प अर्पण किये जाते हैं। धूप आदि की सुगन्ध ज्वलन्त की जाती है। दीप प्रज्वलन किया जाता है तथा दीप से आराध्य की आरती उतारी जाती है। नैवैद्यम प्रसाद अर्जित किया जाता है और स्वर्ण आदि की भेंट दी जाती है। अन्त में आराध्य का विसर्जन किया जाता है। अनुमान लगाया जा सकता है कि आराधना की यह विधि किसी भी विशिष्ठ व्यक्ति के सामाजिक सत्कार का ही एक प्रतीक मात्र है। पूजा घर, मन्दिर, अथवा अन्य किसी भी स्थान पर की या करवाई जा सकती है।

सामाजिक रीति रिवाज

सामाजिक रीति रिवाज किसी विशेष घटना के घटित होने पर किये जाते हैं। अतः उन को करने का समय निश्चित नहीं है। वह घटना के घटित होने के परिणाम स्वरूप समाज में प्रसारण के लिये किये जाते हैं। सैंकडों वर्ष पूर्ण मानव जीवन में घटित होने वाली प्रमुख घटनाओं को आधार मान कर सोलह संस्कारों का उल्लेख सर्व प्रथम मनुसमृति में किया गया था और विश्व भर में वही सोलह संस्कार स्थानीय फेर बदलों के साथ आज भी अपनाये जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव के कारण कुछ हिन्दू इन राति रिवाजों का मज़ाक उड़ा कर उन की उपेक्षा भी करते हैं किन्तु वास्तव में यह उन की अपने पूर्वजों के प्रति अज्ञानता तथा कर्तघनता का ही प्रमाण है।

मानव अपने शरीर अथवा मनोवृत्तियों से जितने भी कर्म करता है उस के सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रिया, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशायें,जल, पृथ्वी, काल और धर्म साक्षी रहते हैं। हिन्दू रीति रिवाजों की विशेषता है कि उन को क्रियावन्त करते समय देवताओं तथा गृहों का आवाहन साक्षी बनाने के लिये किया जाता है। विशेष रूप से श्री गणेश तथा अग्नि को साक्षी बनाया जाता है। मानव साक्षियों के बदले प्राकृतिक गृहों तथा शक्तियों को घटना का साक्षी बनाया जाता है। इस का कारण यह है कि मानव कई कारणों की वजह से बदल सकते हैं तथा स्थायी नहीं हैं किन्तु प्राकृतिक साक्षी शाशवत, सर्व-व्यापक तथा भेद भाव रहित होते हैं। उदाहरण स्वरूप जिस अग्नि ने हमारे पूर्वजों के विवाह की घटनाओं का साक्ष्य किया था वही अग्नि आज हमारे जीवन में भी साक्ष्य दे रही हैं। इस प्रकार की अनुभूती मानव साक्ष्य नहीं करवा सकते। 

हिन्दू मतानुसार ईश्वर किसी विशेष परिधान अथवा भाषा, भोजन, प्रसाद स्थल पर किये गये रीति रिवाज से प्रसन्न नहीं होता। लोग जिस प्रकार से संतुष्ट हों वही रिवाज अच्छा है। लोग अपनी इच्छा, सामर्थ, तथा विशवासों के आधार पर रीति रिवाज करते हैं। यदि किसी को मिठाई अच्छी लगती है तो वह ईश्वर को मिठाई अर्पण कर के अपने आप को संतुष्ट करता है तथा दूसरों को भी वैसा करने की सलाह देता है। रीति रिवाज तभी तक प्रसन्नता प्रदान करते हैं जब तक वह व्यक्ति के निजि समय और साधनों की समर्थ में हों तथा स्वेच्छा से किये जायें। थोपे गये रीति रिवाज अभिशाप बन जाते हैं। 

चाँद शर्मा

 

25 – सती तथा भ्रूण हत्या


हिन्दू समाज में प्रत्येक जीवित पतिवृता स्त्री जो अपने सतीत्व की रक्षा करती है वह ‘सती ’ कहलाती है। पौराणिक कथा नायिका सावित्री ने अपने पति सत्यवान के जीवन को यमराज से छुडवा कर अपने स्तीत्व की रक्षा की थी, जिस कारण सावित्री को उस के जीवन काल में ही सती की गौरवशाली उपाद्धि प्राप्त हो गयी थी। आदर स्वरूप हिन्दू समाज में प्रत्येक चरित्रवान पत्नि को पति के जीवन काल में ही ‘सती सावित्री ’ अथवा ‘सती-साध्वी’ कहा जाता है।

सती प्रथा

भगवान शिव की पत्नी का भी तथा-कथित सती प्रथा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। संक्षिप्त में, शिवपुराण अनुसार दक्ष प्रजापति की ऐक सौ कन्यायें थीं। उन में से सब से छोटी कन्या का नाम ही ‘सती ’ था। सती ने राजा दक्ष की स्वीकृति के बिना भगवान शिव से विवाह कर लिया था जिस के कारण दक्ष ने शिव का अपमान करने के लिये एक यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उस यज्ञ में शिव को आमन्त्रित नहीं किया गया था। सती शिव की स्वीकृति के बिना ही, उस यज्ञ को देखने के लिये अपने पिता राजा दक्ष की यज्ञशाला में चली गयी थी। राजा दक्ष नें यज्ञशाला में सती की पूर्णत्या अनदेखी की। यह अपमान सती से सहा नहीं गया और उस ने क्षुब्ध हो कर यज्ञ की अग्नि में कूद कर अपने प्राणों की आहूति दे डाली। वह पति की चिता पर जलायी नहीं गयी थी।

इस वृतान्त से प्रथम तथ्य तो यह उजागर होता है कि यदि कन्या हत्या का चलन हिन्दू धर्म में होता तो दक्ष प्रजापति की कन्याओं की संख्या ऐक सौ तक कभी ना पहुँचती। दूसरा, सती ने अपने प्राणों का अन्त अपने पति के जीवन काल में ही किया था और इसे विधवा को जलाने वाली कुप्रथा के साथ नहीं जोडा जा सकता। इस कथा का उद्देष्य केवल विवाहित स्त्रियों का मार्ग दर्शन करना है कि विवाह के पश्चात उन्हें अपने पिता के घर भी बिन बुलाये और अपने पति के बिना अकेले नहीं जाना चाहिये। यह केवल सामान्य शिष्टाचार की परम्परा निभाने की बात है।  

ऐतिहासिक ग्रंथों के प्रमाण

चारों वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, महाकाव्यों तथा मनुसमृति – किसी भी धर्म ग्रंथ में सती प्रथा की आड में विधवाओं को चिता में झोंकने का कोई प्रावधान नहीं है। रामायण तथा महाभारत दोनो महा काव्यों में भी सती कुप्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। निम्नलिखित तथ्य इस सत्य को प्रमाणित करते हैं –

  • राजा दशरथ की मृत्यु पश्चात उन की तीन रानियों में से कोई भी सती नहीं हुयी थी।
  • किष्कन्धा नरेश बाली की मृत्यु के पश्चात उस की पत्नि – रानी तारा का विवाह बाली के छोटे भाई सुग्रीव से कर दिया गया था। अतः यह तथ्य विधवा को जला कर मारने के बजाय पुनर्विवाह कर के पत्नि को व्यवस्थापित रह कर जीने का प्रावधान दर्शाता है।
  • रावण के वध पश्चात उस की रानी मन्दोदरी या अन्य कोई भी रानी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी। 
  • हस्तिनापुर के राजा शान्तनु की मृत्यु के पश्चात उस की नव-विवाहिता पत्नी सत्यवती भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।
  • जब शान्तनु के पुत्र विचित्रवीर्य और चित्रांगद की मृत्यु हुयी तो उन की पत्नीयां भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।
  • महाभारत में केवल ऐक उल्लेख है – जब वनवास में राजा पान्डु की मृत्यु हुयी तो उस की छोटी रानी माद्री ने अपने आप को पान्डु की मृत्यु का कारण समझा और इसी आत्म ग्लानि के कारण ही उस ने भी पान्डु की चिता में बैठ कर अपने जीवन का अन्त कर लिया था। इस घटना को सती कहने के बजाय ‘आत्महत्या ’ कहना उचित हो गा। यदि इसे सती प्रथा का नाम दिया जाय तो बड़ी रानी कुन्ती को भी अग्नि में जल कर सती होना चाहिये था। इस उल्लेख के अतिरिक्त महाभारत में जहाँ लाखों पुरुषों ने वीरगति पायी, परन्तु पति की चिता के साथ किसी भी पत्नि के सती होने का कोई वर्णन नहीं है। एक सौ कौरव राजकुमारों में से किसी ऐक की पत्नी भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।  

ऊपरलिखित तथ्यों के प्रमाण के विपरीत सती का दुष्प्रचार केवल हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये ही किया जाता है। अगर कोई अपने निजि परिवारों को ही देखे तो पता चले गा कि वहाँ भी किसी विधवा स्त्री को जीवित नहीं जलाया गया होगा।

स्त्री जलन का चलन 

कोलम्बिया इनसायक्लोपीडिया के अनुसार मृत पति के साथ उस की चहेता पत्नी को जलाने की कुप्रथा का उल्लेख भारत से बाहर के देशों में पाया जाता है। उन उल्लेखों के अनुसार थ्रेशियन, स्किथियन, सकेनडनेवियन, प्राचीन मिस्र, चीन, ओशियाना तथा अफ्रीका में ऐसे रिवाज थे।

भारत में मौर्य तथा गुप्त वंश के काल में भी सती प्रथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह कुप्रथा कुशान वंश के समय भारत में विदेशों से आयी तथा मध्य काल में राजपूत वँशो तक सीमित रही। ऱाजपूत अकसर लम्बे समय तक युद्धों में व्यस्त रहते थे। विदेशी अक्रान्ता विजयी होने के पश्चात स्त्रियों के साथ जीवन पर्यन्त बलात्कार करते थे। इस दुर्दशा के विकल्प स्वरूप ‘जौहर’ की प्रथा राजपूत परिवारों में अपनायी गयी जो कि उस समय की सामाजिक और राजनैतिक आवश्यक्ता थी। पति के वीरगति पाने की सम्भावना के केवल विचार मात्र से ही वीरांग्ना राजपूत पत्नियों ने स्वेच्छा से अग्नि प्रवेश कर के अपने सतीत्व की रक्षा करने में अपना गौरव समझतीं थीं। जब महलों के प्राँगण में स्त्रियाँ जौहर की रस्म करतीं थी, तो उस के साथ ही रण भूमि पर शत्रुओं की विशाल सैना के सामने राजपूत केसरिया वस्त्र पहन कर ‘साका’ की रस्म अदा करते थे और धर्म तथा स्वाभिमान की खातिर युद्ध कर के शत्रु के सामने झुकने के बजाय अपनी आत्म बलि देते थे।

रानी पद्मनी का ‘जौहर’ भी सती होना नहीं था। वह जौहर था। रानी पद्मनी किसी धार्मिक कारण से अपनी सखियों के साथ चिता में नही बैठी थीं अपितु अपने स्तीत्व और आदर्शों की रक्षा के कारण ऐसे साहसी कदम को उठाने के लिये उद्यत हुयी थीं। जौहर प्रथा को राजपूतों ने इस लिये सम्मानित करना आरम्भ किया था ताकि नव-विवाहित युवतियाँ प्रोत्साहित हो कर अग्नि में स्वेच्छा से प्रवेश कर सके और पति की मृत्यु पश्चात अपमान जनक जीवन जीने के बजाय स्वाभिमान से अपने आप अपने स्तीत्व की रक्षा कर सकें। वास्तव में यह उन शूरवीर पत्नियों के लिये ऐसी गौरवमयी मिसाल है जिस की तुलना विश्व इतिहास में और कहीं नहीं मिलती।

सती कुप्रथा का ढोल केवल भारत और हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये पी़टा जाता है। भारत के कुछ प्राँतों में जहाँ ब्रिटिश शासन था वहाँ मृत व्यक्ति की पत्नी को पति के साथ जला कर सम्पति हडपने के लिये विधवा स्त्री को सती के नाम से जलाने की कुप्रथा चल पड़ी थी जिस का हिन्दू धर्म से कुछ सम्बन्ध नही था। लेकिन फिर भी यह हिन्दू समाज सुधारकों के लिये सांत्वना की बात है कि उस कुप्रथा को बन्द करने के लिये राजा राम मोहन राय जैसे हिन्दू समाज सुधारक ही आगे आये थे। बाहर के लोगों के कारण इस प्रथा का उनमूलन नहीं हुआ था। आज इस कुप्रथा का उल्लेख हि्न्दू विधवाओं के लिये केवल ऐक दुःखद स्मृति चिन्ह है।

कन्या शिशु हत्या

कन्या शिशु हत्या के दुष्प्रचार को ले कर भी हिन्दू समाज को इस प्रकार की निराधार आलोचना के कारण शर्मिन्दा होने या बचाव मुद्रा में जाने की जरूरत नहीं है क्यों कि वास्तविक तथ्य इस आरोप के विपरीत हैं।

  • हमारे महाकाव्यों, पुराणों, साहित्य, जातक कथाओं, पँचतंत्र, हितोपदेश, बेताल पच्चीसी या किसी भी अन्य पुस्तक में ऐक भी वृतान्त उल्लेखित नही जो कन्या भ्रूण हत्या या कन्या शिशु हत्या की घटना का साक्षी हो।
  • यदि कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथा हिन्दू समाज में प्रचिल्लत होती तो सीता, द्रौपदी, कुन्ती, देवकी, शकुन्तला, जीजाबाई जैसी महिलायें हमारे इतिहास में ना आतीं। यह सभी कन्यायें अपने अपने माता पिता के घरों में प्यार दुलार से पाली गयीं थीं।
  • हिन्दू समाज में माता-पिता विवाह के समय कन्यादान करना ऐक पवित्र और पुन्य कर्म मानते हैं। अतः इस प्रकार की मानसिक्ता रखने वाले हिन्दू माता-पिता कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य पाप का समर्थन कदापि नहीं कर सकते।
  • परिवार नियोजन के लिये हिन्दू धर्म तो गर्भपात का ही विरोध करता रहा है और संयम पर बल देता रहा है। पुत्री तथा पुत्रियों को अनचाहे कह कर गर्भपात के तरीके से हत्या की कुप्रथा पाश्चात्य समाज की देन है जो संयम में विशवास नही रखते  और अपने आप को माडर्न समझते हैं।
  • महिलाओं के लिये विविध प्रकार के प्राचीन कालिक वस्त्राभूष्ण, सौन्दर्य प्रसाधन, सुगन्धित द्रव्य इस बात का प्रमाण हैं कि हिन्दू समाज में पुत्रियों को प्रेम दुलार से सजा कर पाला जाता था और कन्या भ्रूण हत्या जैसी घृणित बात सोचना भी कठिन था।
  • माता पिता विवाह के समय अपनी बेटियों को स्वेच्छा से दहेज में धन, सम्पत्ति आदि देते हैं। वह किसी आर्थिक कारण से भी बेटी को बोझ नहीं समझते। कुछ नीच लोग दहेज की माँग करते हैं परन्तु हिन्दू धर्म उन का समर्थन कभी नहीं करता।
  • रक्षाबन्घन का पर्व समस्त भारत में भाई बहन के प्रेम का प्रतीक है। ऐसा त्योहार किसी अन्य मानवी समाज में नहीं मनाया जाता। फिर इन परम्पराओं को स्वेच्छा से मानने वाला समाज कन्या भ्रूण हत्या का समर्थन कभी नहीं करे गा।

कन्या भ्रूण हत्या की कुप्रथा भारत के कुछ भागों में इस्लामी शासन काल में उभरी थी। ‘महान’ कहे जाने वाले मुग़ल बादशाह अकबर ने जब अपने राजनैतिक स्वार्थ के कारण राजपूत परिवारों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने आरम्भ किये तो बदले में मुग़लों को भी राजपूत परिवारों में बेटियाँ ब्याहनी ज़रूरी थीं। यदि मुगल शाहजादियों के विवाह राजपूतों के साथ होते तो मुगल बादशाहों को राजपूत जमाईयों के लिये मुगल शाहजादों के समान दर्जा भी देना पडना था। इस से बचने के लिये धूर्त ‘अकबर महान’ ने मुगल शाहजादियों के विवाह पर ही रोक लगा दी थी। मुगल शाहजादियों के विवाह पर प्रतिबन्ध अकबर के काल से आरम्भ हो कर जहाँगीर तथा शाहजहाँ के काल तक रहा क्यों कि अकबर की तरह राजपूतों से इकतरफा वैवाहिक सम्बन्ध उन्हों ने भी बनाये रखे थे। शाहजहाँ की दोनों पुत्रियाँ जहाँ आरा और रौशन आरा अविवाहित जीवन जीती रहीं थी। औरंगजेब को राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध रखने की चाह नहीं थी अतः उस ने मुगल शाहजादियों पर से प्रतिबन्ध हटा दिया था। ‘अकबर महान’ का निर्णय अमानवी और धूर्ततापूर्ण था। सम्भव है कि कई मुगल शाहजादियों की जन्म समय हत्या भी किले के तहखानों में करी जाती होगी जिस से प्रेरणा पा कर कुछ राजपूत सामन्तों ने भी बेटी मुगलों को देने के बजाये उन की हत्या करना आधिक सम्मान जनक समझा हो। कुछ भी हो हिन्दू समाज इस प्रकार की घृणित प्रथा का समर्थन नहीं करता।

आज पाश्चात्य प्रभाव के कारण गर्भपात जैसी अमानवीय कुप्रथाओं का चलन है। कुछ कमीने लोग लिंग जाँच करवाने के पश्चात कन्या भ्रूण की हत्या भी करवाते हैं किन्तु इस प्रकार की कुप्रथाओं का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। हिन्दू धर्म प्रचारक इस का स्दैव विरोध करते हैं। इन कुकर्मों को हिन्दू समाज का धार्मिक या सामाजिक समर्थन नहीं है।  

विश्व सभ्यता का सूत्रधार  

हिन्दू समाज को दुष्प्रचार से भयभीत अथवा त्रास्त होने के बजाये तथ्यों के आधार पर दुष्प्रचार का खण्डन करना चाहिये और यदि कोई हिन्दू इस प्रकार का घृणित काम निजि तौर पर करे तो उस का पूर्णत्या बहिष्कार भी करना चाहिये।

चाँद शर्मा

 

 

19 – मानव जीवन के लक्ष्य


हिन्दू धर्म ने संसारिक सुखों को सर्वथा त्यागने की वकालत कभी नहीं की। हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन का मुख्य लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष वह स्थिति है जब मन में कोई भी अतृप्त कामना ना रह गयी हो तथा समस्त इन्द्रीय भोगों की धर्मानुसार पूर्ण संतुष्टि हो चुकी हो। इसी स्थिति को पाश्चात्य संदर्भ में ‘टोटल सेटिस्फेक्शन कहते हैं।

हिन्दू जीवन शैली स्दैव इस सत्य के प्रति सजग रही है कि प्रत्येक प्राणी में इच्छायें तथा भावनायें हमेशा पनपती रहती हैं। बिना तृप्ति के कामनाओं को शान्त करना व्यावहारिक नहीं। अतः हिन्दू धर्म प्रत्येक व्यक्ति को धर्मपूर्वक पुरुषार्थ कर के अपनी समस्त कामनाओं की तृप्ति करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

यह हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपनी निजि आवश्यक्ताओं के साथ साथ अपने परिवार तथा मित्रों के लिये भी पर्याप्त सुख सम्पदा अर्जित करे और उस का सदोपयोग भी करे। अनिवार्यता केवल इतनी है कि यह सब करते हुये प्रत्येक स्थिति में धर्म, स्थानीय मर्यादाओं तथा निजि कर्तव्यों की अनदेखी नहीं हो।

पुरुषार्थ अर्जित जीवन लक्ष्य

हिन्दू धर्म के मतानुसार किसी भी प्रकार के इन्द्रीय सुख भोगने में कोई पाप नहीं है। ईश्वर ने मानव को किसी भी फल के खाने से मना नहीं किया है। प्रत्येक मानव को यह अधिकार है कि वह अपने और अपने परिवार, मित्रों, तथा सम्बन्धियों के इन्द्रीय सुखों के लिये अतुलित धन सम्पदा अर्जित करे जिस से सभी जन अपनी अपनी अतृप्त कामना से मुक्त हो जाये। अतः मानव को जीवन के चार मुख्य उद्देश हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, तथा इन चारों लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये मानवों को यत्न करते रहना चाहिये।

धर्मः- सृष्टि के सभी जीवों का प्रथम लक्ष्य है – स्वयं जियो। अपने जीवन की रक्षा करना सभी जीवों के लिये ऐक प्राकृतिक और स्वभाविक निजि धर्म और अधिकार है। ‘दूसरों को भी जीने दो’ का मार्ग कर्तव्यों से भरा है जिस को साकार करने के लिये मानव नें निजि धर्म का विस्तार कर के अपने आप को नियम-बद्ध किया है। उन नियमों को ही धर्म कहा गया है। जीने दो के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी अपनी भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये धर्म सम्बन्धी नियम बनाये हैं। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं तथा उन का पालन करना सभी का कर्तव्य है।

श्रष्टि के सभी जीवों में मानव शरीर श्रेष्ट और सक्षम है इस लिये जीने दो का उत्तरदाईत्व  पशु-पक्षियों की अपेक्षा मानवों पर अधिक है। इसी लिये दूसरों के प्रति धर्म के नियमों का पालन करना ही मानवों को पशु-पक्षियों से अलग करता हैः-

           आहार निद्राभय मैथुन च सामान्यमेतस शाभिर्वरीणम्

                    धर्मो ही तेषामधिसो धर्मेणहीनाः पशुभिसमाना ।। (-हितोपदेश)

आहार, निद्रा, भय और मैथुन – यह प्रवृतियाँ मनुष्य और पशुओं में समान रुप से पाई जाती हैं। परन्तु मनुष्य में धर्म विशेष रुप से पाया जाता है। धर्म विहीन मनुष्य पशु के समान ही है।

जिस प्रकार सभी पशु पक्षी अपने अपने कर्तव्यों का स्वाचालित रीति से पालन करते हैं उसी प्रकार मानव भी जिस स्थान पर जन्मा है वहाँ के पर्यावरण की रक्षा तथा वृद्धि करे। अपने पूर्वजों की परम्परा का निर्वाह करे अपनी आने वाली पीढ़ियों के प्रति अपना उत्तरदाईत्व निभाये और विश्व कल्याण में अपना योगदान देने के लिये स्दैव सजग एवं तत्पर रहै।

इन चारों लक्ष्यों में धर्म सर्वोपरि है। प्रत्येक परिस्थिति में धर्म का पालन करना अनिवार्य है। यदि किसी अन्य लक्ष्य की प्राप्ति में धर्म के मूल्यों का उल्लंधन होता हो तो मानव का कर्तव्य है कि उस लक्ष्य को त्याग दे। जो निजि धर्म का पालन करते करते किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करे वह स्दैव पापमुक्त रहता है तथा जो धर्म की अवहेलना करते हुये निष्क्रिय हो बैठे वही पापी है।

जब धर्म प्रगट होता है तो अपने दस लक्षण भी मनुष्य में प्रतिष्ठित करता है। यह लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेय, पवित्रता, इन्द्रीय निग्रह, शुद्ध बुद्धि, सत्य, उत्तम विद्या, अक्रोध। जब मनुष्य में यह लक्षण प्रतिष्ठित हों गे तो समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व स्वतः ही सुन्दर, आदर्श ऐवं शान्तमय दिखे गा। इस लिये आवश्यक है कि आज का अशान्त मनुष्य धार्मिक हो।

अर्थः- अर्थ से तात्पर्य है जीवन के लिये भौतिक सुख सम्पदा अर्जीत करना। मानव को ना केवल अपने शारीरिक सुखों के लिये पदार्थ अर्जित करने चाहियें अपितु संतान, माता पिता, सम्बन्धी, जीव जन्तु तथा स्थानीय पर्यावरण के उन सभी प्राणियों के लिये भी, जो उस पर आश्रित हों उन के प्रति भी अपने कर्तव्यों को निभा सके। धन सम्पदा अर्जित करना तथा उस का उपयोग करना कर्तव्य है, किन्तु धन सम्पदा ऐकत्रित कर के संचय कर लेना अधर्म है। हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार –       

       शत हस्त समोहरा सहस्त्र हस्त संकिरा

(अर्थात मानव यदि एक सौ हाथों से कमाये तो उसे हज़ार हाथों से समाज कल्याण के लिये दान भी करना चाहिये।)

अर्थ लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी धर्म तथा पुरुषार्थ दोनों का निर्वाह अनिवार्य है। धर्म उल्लंधन कर के अर्थ अर्जित करना पाप है तथा सक्षम होते हुये भी निष्क्रिय हो कर निजि आवश्यक्ताओं के लिये दूसरों से अर्थ प्राप्ति की अपेक्षा करते रहना भी पाप है। सुखी जीवन तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये धन-सम्पदा केवल साधन मात्र हैं, किन्तु वह जीवन का परम लक्ष्य नहीं हैं। धर्म पालन ( कर्तव्य पालन) करने से अर्थ हीन को भी मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। अधर्म से अर्थ जुटाने वालों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।

कामः- काम से तात्पर्य है समस्त ज्ञान इन्द्रियों तथा कर्म इन्द्रियों के सुखों को भोगना। इस के अन्तर्गत स्वादिष्ट खाना-पीना, संगीत, नाटक, नृत्य जैसी कलायें, वस्त्र, आभूषण, बनाव-सिंगार और रहन-सहन के साधन, तथा सहवास, संतानोत्पति, खेल कूद और मनोरजंन के सभी साधन आते हैं। इन साधनों के अभाव से मानव का जीवन नीरस हो जाता है और वह सदैव अतृप्त रहता है और उसे पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन और अस्वाभाविक है। जो लोग काम इच्छाओं का दमन कर के किसी अन्य कारण से सन्यास ग्रहन कर लेते हैं, अकसर वही लोग जीवन भर अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये ललायत भी रहते हैं। इस प्रकार के लोग अवसर मिलने पर पथ भृष्ट हो जाते हैं और दुष्कर्म कर के अपना सम्मान भी गँवा बैठते हैं। काम इच्छाओं का दमन नहीं अपितु शमन कर के ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। काम तृप्ति के बिना प्रत्येक प्राणी का जीवन अधूरा रहता है। कुछ लोग इस तथ्य को नकार कर भले ही अपवाद होने का दावा करें परन्तु उन की संख्या लग भग शून्य के बराबर ही होती है। इसी सच्चाई को मान्यता देते हुये हिन्दू धर्म ने काम दमन के बजाये काम शमन को प्राथमिक्ता दी है और जीवन में वैवाहिक सम्बन्धों को सर्वोच्च माना है। काम शमन के साथ धर्म तथा अर्थ, तीनो का पालन करना अनिवार्य है अन्याथ्वा सभी कुछ अधर्म होगा। किसी कारण वश यदि धर्म, अर्थ तथा काम का समावेश सम्भव ना हो तो क्रमशा सर्वप्रथम काम का त्याग करना चाहिये, फिर अर्थ का त्याग करना चाहिये। धर्म का त्याग किसी भी स्थिति में कदापि नहीं करना चाहिये

मोक्षः- मोक्ष से तात्पर्य है जीवन में पूर्णत्या संतुष्टि प्राप्त करना है। सुख और शान्ति की यह चरम सीमा है जब मन में कोई भी इच्छा शेष ना रही हो, किसी प्रकार के संसारिक सुख की कामना, किसी से कोई अपेक्षा या उपेक्षा का कोई कारण ना हो तभी मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस के लिये कोई यत्न नहीं करना पड़ता। किये गये कर्मों के फलस्वरूप ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह अवस्था मानव जीवन की सफलता की प्राकाष्ठा है। निस्संदेह यह शुभावस्था बहुत कम लोगों को ही प्राप्त होती है। अधिकतर व्यक्ति पहले तीन लक्ष्यों के पीछे भागते भागते असंतुष्ट जीवन बिता देते हैं। अज्ञानी, अधर्मी, निष्क्रय, असंतुष्ट, ईर्शालु, क्रूर, रोगी, भोगी, दारिद्र तथा अप्राकृतिक जीवन जीने वाले व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती।

मर्यादित संतुलन

‘दूसरों को भी जीने दो’ के सिद्धान्त पर जब भी हम किसी कर्तव्य को निभाने के लिये निष्काम भावना से अगर कोई कर्म करते हैं तो वह ‘धर्म’ के अन्तर्गत आता है। इसी ‘जीने दो’ के सिद्धान्त पर ही अगर  स्वार्थ भी मिला कर यदि कोई कर्म किया जाता है तो वह व्यापार या ‘अर्थ’ बन जाता है और यदि किसी कर्म को केवल अपने मनोरंजन या खुशी के लिये किया जाये तो वही ‘काम’ बन जाता है।

धर्म, अर्थ, और काम में से केवल धर्म ही सशक्त है जो अकेले ही मोक्ष की राह पर ले जा सकता है। यदि किसी मानव नें अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह किया है तो वह अर्थ के अभाव में भी मानसिक तौर पर संतुष्ट ही हो गा। इसी प्रकार यदि किसी नें अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह किया है परन्तु उसे अपने लिये इन्द्रीय सुख नहीं प्राप्त हुये तो भी ऐसा व्य़क्ति निराश नहीं होता। इस के विपरीत यदि किसी के पास अपार धन तथा सभी प्रकार के काम प्रसाधन उपलब्ध भी हों तो भी निजि कर्तव्यों का धर्मपूर्वक निर्वाह किये बिना उसे पूर्ण संतुष्टि – मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। जीवन में अर्थ तथा काम संतुष्टि के पीछे अति करना हानिकारक है तथा अधर्म के मार्ग से इन लक्ष्यों की प्राप्ति करना भी पाप और दण्डनीय अपराध है। अन्ततः मोक्ष के स्थान पर दुख, निराशा तथा अपयश ही प्राप्त होते हैं।

जीवन में इन लक्ष्यों के लिये पुरुषार्थ करते समय मानव को स्दैव अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ सुननी चाहिये और जब भी मन में कोई शंका अथवा दूविधा उतपन्न हो तो स्दैव धर्म का मार्ग ही सभी परिस्थितियों, देश और काल में कष्ट रहित मार्ग होता है। मानव को अपनी रुचि और क्षमता अनुसार तीनों लक्ष्यों का एक निजि समिश्रण स्वयं निर्धारित करना चाहिये जो देश काल तथा स्थानीय वातावरण के अनुकूल हो। निस्संदैह इस समिश्रण में दूसरों के प्रति धर्म की मात्रा ही सर्वाधिक होनी चाहिय

हिन्दू धर्म ने जीवन के जो लक्ष्य अपनाये हैं वही लक्ष्य विश्व भर में अन्य मानव समाज भी अपनाते रहे हैं। जहाँ भी इन लक्ष्यों की अवहेलना हुयी है वहाँ पर सभ्यताओं का विध्वंस भी हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि हिन्दू धर्म के सभी देवी देवता स्दैव धर्मपरायण, साधन सम्पन्न तथा वैवाहिक परिवार में दर्शाये जाते हैं। सभी ऋषि भी अपने अपने परिवारों के साथ वनों में सक्रिय जीवन व्यतीत करते रहे हैं। हिन्दू धर्म प्रकृतिक, सकारात्मक, कर्तव्यनिष्ट तथा सुख सम्पन्न जीवन व्यतीत करने को प्रोतसाहित करता रहा है जो विश्व कल्याण के प्रति कृतसंकल्प है। जीवन के यही लक्ष्य सभी धर्मों और जातियों के लिये ऐक समान हैं ।

चाँद शर्मा

18 – आदर्श जीवन का निर्माण


स्वयं जीना पशुता है और दूसरों को भी जीने देना ही धर्म है। यही मानव धर्म का मूलमंत्र है। सात्विकिता तथा आदर्शों के बिना हिन्दू के लिये जीवन व्यर्थ होता है। हिन्दू जीवन के संस्कारों की आधारशिला बचपन से ही माता पिता घर के वातावरण में रख देते हैं तथा उसी दिशा में व्यक्तित्व का विकास जीवन पर्यन्त चलता रहता है। हिन्दू धर्म में कुछ मानवीय मर्यादाओं को जीवन पद्धति के रूप में पिरोया गया है ताकि उसी दिशा में व्यक्तित्व का विकास निरन्तर चलता रहै। प्रथम गुरु के नाते माता अपने शिशु को आदर्शवादी वीरों की कहानियाँ सुना कर उसे भी आदर्शवादी वीर बनने की प्रेरणा देती है। पशु पक्षियों से प्रेम करना, पेड़ पौधों की रक्षा करना, अपने से बड़ों का आदर करना आदि कथाओं और दृष्टान्तों दूारा सिखाया जाता है। माता-पिता सकारात्मिक विचारों का बीजारोपन बच्चों में अपने कुल की मर्यादाओं के अनुसार अपने घर में यम-नियम से अवगत करवा कर शुरु करते हैं जिस में खानपान, बैठना उठना भले बुरे का फर्क सभी कुछ शामिल है। यही संस्कारों की प्रथम पादान है जिस पर आगे चल कर चरित्र का दुर्ग निर्माण होता है।

मर्यादाओं के आधार-यम और नियम 

हमारे ऋषियों ने जीवन के आदर्शों तथा समाज की मर्यादाओं को संक्षिप्त कर के दो सूत्रों में बाँध दिया है जिन्हें ‘यम’ और ‘नियम’ कहते हैं। बालक को ‘यम-नियम’ घर के वातावरण में माता पिता के संरक्षण में प्रत्यक्ष क्रिया से सिखाये जाते हैं जो बालक के मानवी विकास की दिशा में प्रथम पादान है। उन्हीं की आधारशिला पर जीवन का निर्माण आरम्भ होता है।

यम – यम आदर्शवाद के सामाजिक सिद्धान्त हैं। यदि इन का पालन दैनिक जीवन की प्रत्येक क्रिया में किया जाये तो चाहे हम किसी भी स्थान पर रहैं और किसी भी धर्म के अनुयायी हों, हमारे जीवन में तथा समाज में अधिकतर समस्यायें पैदा ही नहीं होंगी, ना ही जीवन में कोई तनाव या हताशा उपजे गी। यम समाज कल्याण के लिये मानवीय मूल्यों के निम्नलिखित पाँच सिद्धान्त हैं –

  1. अहिंसा अहिंसा से तात्पर्य है कि किसी भी जीव को मन से, वचन से तथा कर्म से दुःख ना दिया जाय तथा उस की इच्छा के विरुद्ध उस से कुछ भी ना करवाया जाये। उस के ऊपर कोई प्रतिबन्ध ना लगाया जाये। अहिंसा का सिद्धान्त ही जियो और जीने दो का मूल मन्त्र है। किन्तु यदि अहिंसा की भावना कर्तव्य पालन में बाधा डाले तो वही अहिंसा कायरता बन जाती है जिस का त्याग करना चाहिये।
  2. सत्य सत्य का तात्पर्य है कि हम अपनी सभी क्रियाओं में, लेन-देन में, बोल-चाल में सत्यता पर अडिग रहें तथा कभी भी मन से, वचन से, कर्म से झूठ और छलावे का आश्रय ना लें। किन्तु यह ना भूलें कि कभी कभी झूठ के बोझ तले दबाये गये सत्य को बाहर निकाल कर मनवाने के लिये शक्ति की आवश्यकता भी पडती है।
  3. अस्तेय – अस्तेय का तात्पर्य है कि हम दूसरों के साधनो को हडपने की चेष्टा, इच्छा या प्रयत्न कभी ना करें और अपने निजि सुखों को निजि साधनों पर ही आधिरित रख कर संतुष्ट रहैं। अपनी चादर के अनुसार ही पाँव फैलायें किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने साधनों को ही गँवा बैठें या परिश्रम से उन में वृद्धि ना करें।
  4. ब्रह्मचर्य ब्रह्मचर्य से तात्पर्य है कि हम अपनी सभी इन्द्रीयों पर नियन्त्रण रख कर प्राकृतिक जीवन जियें। उन सभी विचारों, क्रियाओं तथा वस्तुओं का प्रयोग जीवन में कभी ना करें जो अप्राकृतिक तथा निजि कर्तव्यों से विमुख होने के लिये प्ररेरित करने वाली हौं। ब्रह्मचर्य का पालन आयु पर्यन्त करना होता है।
  5. अपरिग्रह – अपरिग्रह का तात्पर्य है कि हम अपनी निजि आवश्यक्ताओं को भी नियन्त्रण में रखें तथा भौतिक वस्तुओं से अधिक मोह ना करें। इच्छाओं को नियन्त्रण में रखें, अन्यथा पूरा जीवन वस्तुओं को चाहने, जुटाने तथा संग्रह करने में ही व्यतीत हो जाये गा। जीवन जितना सादगी भरा होगा उतना ही सुखदायक भी हो गा।

देखने में यह सिद्धांत बहुत साधारण से दिखते हैं किन्तु यदि विचार करें तो हमारे जीवन के शत प्रति शत कष्ट और तनाव तभी आते हैं जब स्वार्थ वश हम इन सिद्धान्तों का उल्लंघन करते हैं या दूसरे लोग हमारे प्रति इन सिद्धान्तों का पालन नहीं करते। यदि सभी लोग इन सिद्धान्तों को स्वेच्छा से अपना लें तो समस्त समाज सुखमय बन सकता है। माता पिता स्वयं उदाहरण बन कर यदि अपनी संतान में इस प्रकार के संस्कारों का बीजारोपण करें तो जीवन में हताशा निराशा कभी नहीं आये गी।

नियम – यमों का दैनिक जीवन शैली में पालन करना आवश्यक है जिस के लिये संकल्प तथा अनुशासन ज़रूरी है। अनुशासन स्वेच्छित होना चाहिये। अतः निरन्तर अभ्यास के लिये  नियम बनाये गये हैं जिन का पालन माता पिता तथा प्राथमिक गुरू के सानिध्य में हो सके और नियम जीवन की दैनिक दिनचर्या का ही हिस्सा बन जायें। अनुशासित मानवीय जीवन के लिये पाँच नियम इस प्रकार हैं

  1. शौच – शौच का सम्बन्ध स्वच्छता से है। मानव को अपना शरीर, रहवास, कार्यशाला, पर्यावरण साफ रखने चाहियें। इन के अतिरिक्त अपने विचार, मन, वाणी तथा आचरण को भी स्वच्छ रखना चाहिये। पर्यावरण से विचार, विचारों से क्रियायें, तथा क्रियाओं से प्रतिक्रियायें जन्म लेती हैं। स्वच्छता के बिना जीवन दूषित हो जाता है।
  2. संतोष – संतोष से तात्पर्य है कि मानव अपनी इच्छाओं तथा आकाँक्षाओं पर नियन्त्रण रखे। उन की पूर्ति जहाँ तक निजि सामर्थ्य से हो सके उसी पर संतोष करे। इस का यह अर्थ कदापि नहीं कि हम कर्म करना ही छोड़ दे। कर्म अवश्य करे परन्तु यदि वाँछित फल ना मिले तो हताश होने के बजाय संतोष पूर्वक कर्म करते रहैं।
  3. तप – तप से तात्पर्य है कि मानव अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कठिन से कठिन परिश्रम से ना हिचकिचाये। जीवन में कठिनाईयाँ झेलने की क्षमता तप से ही आती है। किसी क्रिया को बार बार करते रहना, इन्द्रियों के ऊपर नियन्त्रण करते हुये कडा परिश्रम करते रहना ही तप कहलाता है। भूख पर उपवास से, वाणी पर मौन वृत से, भावनाओं पर ब्रह्मचर्य और शरीरिक विपदाओं पर योग साधना से ही विजय पायी जाती है। तप स्वेच्छा से ही किया जाता है। जो मानव अपने आप पर नियन्त्रण कर लेता है वही सर्वत्र विजयी होता है।
  4. स्वाध्याय – स्वाध्याय से तात्पर्य है कि बचपन से ही अपने विकास की ओर हम स्वयं प्रेरित हो तथा जिज्ञासु बनें। ज्ञान प्राप्ति के लिये स्वयं यत्न करे। गुणी, शिक्षित और सदाचारी लोगों का संग और उन का अनुसरण करें।
  5.   ईश्वरीय प्राणिधाना – ईश्वरीय प्राणिधाना से तात्पर्य है कि मानव सर्वथा गर्वरहित रहे। अपने कर्मों तथा उपलब्धियों को ईश्वरीय शक्ति के आधीन ही समझें।

भारतवासी कानवेन्ट स्कूलों की चकाचौंध से बहुत प्रभावित रहते हैं लेकिन सोच कर देखें तो उन स्कूलों में भी भारतीय  यम नियम ही मोरल साईंस के नाम से सिखाये जाते हैं। अन्तर यह है कि वहाँ ब्रह्मचर्य पर विशोष महत्व नहीं दिया जाता और यही पाशचात्य जगत में मानसिक तनाव का मुख्य कारण है। विध्यार्थी जीवन से ही जब ब्रह्मचर्य का खण्डन, ड्रग्स, नशीले पदार्थ, समलैंगिक्ता, लिविंग इन रिलेशनशिप्स, गर्भ निरोधक, अनैतिक गर्भपात, और हिंसा आदि जीवन में बेतहाशा प्रवेश कर जाते हैं तो जीवन नकारात्मिक दिशा में चल पडता है। केवल निराश और हताशा जीवन के साथ चल पडती हैं।

यम तथा नियम किसी विशेष धर्म, जाति, या देश के लिये नहीं – अपितु समस्त मानव कल्याण के लिये हैं। यदि उन का पालन किया जाये तो कोई विद्यार्थी हताश हो कर आत्महत्या नहीं करे गा, ना ही कोई व्यस्क जीवन में तनाव और मानसिक-हीनता का शिकार होगा। यम-नियम का पालन करने वाले के कदम किसी भी परिस्थिति में नहीं डगमगायें गे।

यम-नियम के निरन्तर अभ्यास से निम्नलिखित व्यक्तिगत गुण अपने आप ही विकसित होने लगते हैं जो सफल और सुखमय जीवन के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं –

  • धृति – अपने लक्ष्य पर अडिग रहने की क्षमता।
  • दया – मानव में दूसरों के प्रति संवेदना तथा दूसरों को भी जीने देने की भावना।
  • अर्जवा –सामाजिक सम्बन्धों में इमानदारी बर्तने का साहस।
  • मिताहार – स्वस्थ तथा सुखी जीवन का मूल-मंत्र।
  • हरि – अपने दोषों से सीख लेना निजि विकास की प्रथम पादान है।
  • दान – दूसरों के दुख तथा अपने सुखों को दूसरों के साथ बाँटनें की भावना।
  • आस्तिक्य – जीवन में निराशा मिटा कर आत्मविशवास भरने का गुण।
  • मति – तथ्यों, विचारों, कर्मों तथा निर्णयों का सूक्ष्म विशलेण करने का गुण।
  • वृतः – वृत पालन और संकल्प को दृढता से क्रियावन्त करने की क्षमता।
  • जप – तथ्यों के सूक्षम ज्ञान को समर्ण रखने की क्षमता।
  • धैर्य – प्रतिकूल प्रतिस्थितियों में कृतसंकल्प रहने की क्षमता।
  • क्षमा – बदला लेने की परवर्ति तथा संकीर्णता से छुटकारा पाने की क्षमता।

प्राचीन भारत की शिक्षा व्यवस्था

काँनवेंट की तरह के रहवासी स्कूल भारत में इसाईयों के आगमन से पहिले ही थे जिन्हें गुरुकुल कहते थे। उन का खर्चा राजकीय सहायता, सामाजिक दान, तथा उन की निजि आन्तरिक अर्थ व्यवस्था से चलता था। गुरुजन विदूान तथा चरित्रवान होते थे और उन को समाज में सर्वोच्च सम्मान दिया जाता था। पाँच वर्ष की आयु पश्चात बालक-बालिकाओं को गुरुकुल में विद्या ग्रहण के लिये भेजा जाता था। कृष्ण – सुदामा तथा द्रुपद-द्रौणाचार्य का एक ही गुरुकुल में साथ साथ पढ़ना साक्षी हैं कि गुरुकुल का वातावरण भेद-भाव रहित था। आज की तरह विद्या बिकाऊ वस्तु नहीं थी। उसे गुरु की कृपा और आशीर्वाद समझ कर ही ग्रहण किया जाता था। गुरु शिष्य का सम्बन्ध आज की तरह व्यापारिक सम्बन्ध नहीं थे।

पाठ्यक्रम में आत्म-निर्भरता, आत्म-नियन्त्रण, दक्ष्ता, तथा मितव्यता पर बल दिया जाता था। गुरुकुल के वातावरण में व्यसनों, ऐशवर्य तथा अकर्मणता के लिये कोई स्थान नहीं था। स्वस्थ शरीर में स्वच्छ मन को लक्ष्य रख कर य़ोग साधना के प्रथम चार अंगों (यम, नियम, आसन तथा पराणायाम) पर विशेष ध्यान दिया था। विद्यार्थीयों में उदण्डता का तो कोई प्रश्न ही नहीं था। विद्यार्थियों को राजनीति का ज्ञान दिया जाता था किन्तु उन्हे आज की तरह का विद्यार्थी राजनैता बना कर स्वार्थी और महत्वकाँक्षी नहीं बनाया जाता था।

गुरुकुल में विद्यार्थियों को तथ्यों के साथ साथ प्रत्यक्ष और क्रियात्मिक  परिशिक्षण भी दिया जाता था। अस्त्र शस्त्र, सैनिक अभ्यास, तकनीकी शिक्षा तथा व्यवसाईक परिशिक्षण का भी प्रावधान होता था। शिक्षा  के स्तर का आँकलन करने के लिये परीक्षायें भी ली जाती थी।

उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा केवल उन्हीं को दी जाती थी जिन में रुचि, जिज्ञासा तथा परिश्रम करने की क्षमता होती थी। इस में कोई शक नहीं कि शरीर के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति अपने माता पिता के संस्कार भी जन्म के अतिरिक्त घर के वातावरण से ग्रहण करता है। यही कारण था कि उच्च शिक्षा का आधार साधारणत्या जाति की पहचान के साथ जुडा था। आजकल भी उच्च शिक्षा में प्रवेश रुचि के आधार पर ही होता है जिसे एप्टीच्यूड टेस्ट कहते हैं। जिन में रुचि और परिश्रम की क्षमता नहीं होती वह उच्च शिक्षा से आज भी वँचित रहते हैं।

शिक्षा के पश्चात दीक्षान्त समारोह भी होता था। सफल विद्यार्थियों को यज्ञोपवीत पहना कर दीक्षा दी जाती थी कि वह स्दैव शिक्षा का समाज हित में स्दोप्योग ही करें गे तथा किसी अयोग्य तथा असामाजिक व्यक्ति को वह शिक्षा नहीं सिखायें गे। हमारे ग्रंथों में ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं जहाँ शिक्षा का दुरोप्योग करने के कारण गुरु ने शिष्य को शापित कर के अथवा अन्य किसी तरह से उसे उच्च शिक्षा के प्रयोगात्मिक लाभ से वँचित कर दिया था।

प्राचीन भारत का शिक्षा तन्त्र आजकल की शिक्षा पद्धति की तरह ही उन्नत था किन्तु वह समाज कल्याण के आदर्श पर टिका था। आज का शिक्षा तन्त्र व्यक्तिगत स्वार्थों पर केन्द्रित है। आज के युग में परिशिक्षण संस्थानो का वातावरण हिंसा, उद्दण्डता नशीले पदार्थों का सेवन तथा अय्याशी के प्रसाधनों की वजह से दूषित हो चुका है। यदि उस को सुधारना है तो हमें प्रचीन भारतीय शिक्षण पद्धति के सिद्धान्तों को पुनर्जाग्रित करना होगा।

चाँद शर्मा

9 -विष्णु के दस अवतार


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानमं सृजाम्यहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (श्रीमद्भाग्वद् गीता 4/7-8)

हिन्दूओं का विशवास है कि सृष्टि में सभी प्राणी पूर्वनिश्चित धर्मानुसार अपने अपने कार्य करते  रहते हैं और जब कभी धर्म की हानि की होती है तो सृष्टिकर्ता धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये धरती पर अवतार लेते हैं। मुख्यतः आज तक सृष्टि पालक भगवान विष्णु नौ बार धरती पर अवतरित हो चुके हैं और दसवीं बार अभी हों गे। सभी अवतारों की कथायें पुराणों में विस्तार पूर्वक संकलित हैं। उन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः –

  1. मत्स्य अवतार – एक बार राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी के तट पर तर्पण कर रहे थे तो एक छोटी मछली उन की अंजली में आकर विनती करने लगी कि वह उसे बचा लें। राजा सत्यव्रत ने एक पात्र में जल भर कर उस मछली को सुरक्षित कर दिया किन्तु शीघ्र ही वह मछली पात्र से भी बड़ी हो गयी। राजा ने मछली को क्रमशः तालाब, नदी और अंत में सागर के अन्दर रखा पर हर बार वह पहले से भी बड़े शरीर में परिवर्तित होती गयी। अंत में मछली रूपी विष्णु ने राजा सत्यव्रत को एक महाभयानक बाढ़ के आने से समस्त सृष्टि पर जीवन नष्ट हो जाने की चेतावनी दी।  तदन्तर राजा सत्यव्रत ने एक बड़ी नाव बनवायी और उस में सभी धान्य, प्राणियों के मूल बीज भर दिये और सप्तऋषियों के साथ नाव में सवार हो गये। मछली ने नाव को खींच कर पर्वत शिखर के पास सुरक्षित पहँचा दिया। इस प्रकार मूल बीजों और सप्तऋषियों के ज्ञान से महाप्रलय के पश्चात सृष्टि पर पुनः जीवन का प्रत्यारोपन हो गया। इस कथा का विशलेशन हज़रत नोहा की आर्क के साथ किया जा सकता है जो बाईबल में संकलित है। यह कथा डी एन ऐ सुरक्षित रखने की वैज्ञानिक क्षमता की ओर संकेत भी करती है जिस की सहायता से सृष्टि के विनाश के बाद पुनः उत्पत्ति करी जा सके।
  2. कुर्मा अवतार – महाप्रलय के कारण पृथ्वी की सम्पदा जलाशाय़ी हो गयी थी। अतः भगवान विष्णु ने कछुऐ का अवतार ले कर सागर मंथन के समय पृथ्वी की जलाशाय़ी सम्पदा को निकलवाया था। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आईस ऐज के बाद सृष्टि का पुनरर्निमाण हुआ था। पौराणिक सागर मंथन की कथानुसार सुमेरु पर्वत को सागर मंथन के लिये इस्तेमाल किया गया था। माऊंट ऐवरेस्ट का ही भारतीय नाम सुमेरू पर्वत है तथा नेपाल में उसे सागर मत्था कहा जाता है। जलमग्न पृथ्वी से सर्व प्रथम सब से ऊँची चोटी ही बाहर प्रगट हुयी होगी। यह तो वैज्ञानिक तथ्य है कि सभी जीव जन्तु और पदार्थ सागर से ही निकले हैं। अतः उसी घटना के साथ इस कथा का विशलेशन करना चाहिये।
  3. वराह अवतार भगवान विष्णु ने दैत्य हिरणाक्ष का वध करने के लिये वराह रूप धारण किया था तथा उस के चुंगल से धरती को छुड़वाया था। पौराणिक चित्रों में वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर संतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर ला रहे होते हैं। वराह को पूर्णतया वराह (जंगली सूअर) के अतिरिक्त कई अन्य चित्रों में अर्ध-मानव तथा अर्ध-वराह के रूप में भी दर्शाया जाता है। वराह अवतार के मानव शरीर पर वराह का सिर और चार हाथ हैं जो कि भगवान विष्णु की तरह शंख, चक्र, गदा और पद्म लिये हुये दैत्य हिरणाक्ष से युद्ध कर रहे हैं। विचारनीय वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सभी प्राचीन चित्रों में धरती गोलाकार ही दर्शायी जाती है जो प्रमाण है कि आदि काल से ही हिन्दूओं को धरती के गोलाकार होने का पता था। इस अवतार की कथा का सम्बन्ध महाप्रलय के पश्चात सागर के जलस्तर से पृथ्वी का पुनः प्रगट होना भी है।
  4. नर-सिहं अवतार भगवान विष्णु ने नर-सिंह (मानव शरीर पर शेर का सिर) के रूप में अवतरित  हो कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध किया था जिस के अहंकार और क्रूरता ने सृष्टि का समस्त विधान तहस नहस कर दिया था। नर-सिंह एक स्तम्भ से प्रगट हुये थे जिस पर हिरण्यकशिपु ने गदा से प्रहार कर के भगवान विष्णु की सर्व-व्यापिक्ता और शक्ति को चुनौती दी थी। यह अवतार इस धारणा का प्रतिपादन करता है कि ईश्वरीय शक्ति के लिये विश्व में कुछ भी करना असम्भव नहीं भले ही वैज्ञानिक तर्क से ऐसा असम्भव लगे।
  5. वामन अवतार वामन अवतार के रूप नें भगवान विष्णु मे दैत्यराज बलि से तीन पग पृथ्वी दान में मांगी थी।  राजा बलि ने दैत्यगुरू शुक्राचार्य के विरोध के बावजूद जब वामन को तीन पग पृथ्वी देना स्वीकार कर लिया तो वामन ने अपना आकार बढ़ा लिया और दो पगों में आकाश और पाताल को माप लिया। जब तीसरा पग रखने के लिये कोई स्थान ही नहीं बचा तो प्रतिज्ञा पालक बलि ने अपना शीश तीसरा पग रखने के लिये समर्पित कर दिया। विष्णु ने तीसरे पग से बलि को सुतल-लोक में धंसा दिया परन्तु उस की दान वीरता से प्रसन्न हो कर राजा बलि को अमर-पद भी प्रदान कर दिया। आज भी बलि सुतुल-लोक के स्वामी हैं। दक्षिण भारत में इस कथा को पोंगल त्योहार के साथ जोडा जाता है।
  6. परशुराम अवतार परशुराम का विवरण रामायण तथा महाभारत दोनो महाकाव्यों में आता है। वह ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे और उन्हों ने भगवान शिव की उपासना कर के एक दिव्य परशु (कुलहाड़ा) वरदान में प्राप्त किया था। एक बार राजा कृतवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु अपनी सैना का साथ जमदग्नि के आश्रम में आये तो ऋषि ने उन का आदर सत्कार किया। ऋषि ने सभी पदार्थ कामधेनु दिव्य गाय की कृपा से जुटाये थे। इस से आश्चर्य चकित हो कर कृतवीर्य ने अपने सैनिकों को ज़बरदस्ती ऋषि की गाय को ले जाने का आदेश दे दिया। अंततः परशुराम ने कृतवीर्य तथा उस की समस्त सैना का अपने परशु से संहार किया। तदन्तर कृतवीर्य के पुत्रों ने ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया तो परशुराम ने कृतवीर्य और समस्त क्षत्रिय जाति का विनाश कर दिया और पूरी पृथ्वी उन से छीन कर ऋषि कश्यप को दान कर दी। सम्भवतः बाद में कश्यप ऋषि के नाम से ही उन के आश्रम के समीप का सागर कश्यप सागर (केस्पीयन सी) के नाम से आज तक जाना जाता है। पूरा कथानांक  प्रचीन इतिहास अपने में छुपाये हुये है। परशुराम अवतार राजाओं के अत्याचार तथा निरंकुश्ता के विरुध शोषित वर्ग का प्रथम शक्ति पलट अन्दोलन था। परशुराम अवतार ने शासकों को अधिकारों के दुरुप्योग के विरुध चेताया और आज के संदर्भ में भी इसी प्रकार के अवतार की पुनः ज़रूरत है।
  7. राम अवतार – परशुराम अवतार राजसत्ता के दुरुप्योग के विरुध शोषित वर्ग का आन्दोलन था तो भगवान विष्णु ने ऐक आदर्श राजा तथा आदर्श मानव की मर्यादा स्थापित करने के लिये राम अवतार लिया। राम का चरित्र हिन्दू संस्कृति में एक आदर्श मानव, भाई, पति, पुत्र के अतिरिक्त राजा के व्यवहार का भी कीर्तिमान है। अंग्रेजी साहित्य के लेखक टोमस मूर ने पन्द्रवीं शताब्दी में आदर्श राज्य के तौर पर एक यूटोपिया राज्य की केवल कल्पना ही करी थी किन्तु राम राज्य टोमस मूर के काल्पनिक राज्य से कहीं अधिक वास्तविक आदर्श राज्य स्थापित हो चुका था। राम का इतिहास समेटे रामायण विश्व साहित्य का प्रथम महाकाव्य है।
  8. कृष्ण अवतार कृष्ण अवतार का समय आज से लगभग 5100 वर्ष या ईसा से 3102 वर्ष पूर्व का माना जाता है। कृष्ण ने महाभारत युद्ध में एक निर्णायक भूमिका निभाय़ी और उन के दुआरा गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया जो कि संसार का सब से सक्ष्म दार्शनिक वार्तालाप है। कृष्ण के इतिहास का वर्णन महाभारत के अतिरिक्त कई पुराणों तथा हिन्दू साहित्य की पुस्तकों में भी है। उन के बारे में कई सच्ची तथा काल्पनिक कथायें भी लिखी गयी हैं। कृष्ण दार्शनिक होने के साथ साथ एक राजनीतिज्ञ्, कुशल रथवान, योद्धा, तथा संगीतिज्ञ् भी थे। उन को 64 कलाओं का ज्ञाता कहा जाता है और सोलह कला सम्पूर्ण अवतार कहा जाता है। कृष्ण को आज के संदर्भ में पूर्णत्या दि कम्पलीट मैन कहा जा सकता है।
  9. बुद्ध अवतार विष्णु ने सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के रूप में जन-साधारण को पशु बलि के विरुध अहिंसा का संदेश देने के लिये अवतार लिया। भारतीय शिल्प कला में सब से अधिक मूर्तियां भगवान बुद्ध की ही हैं। आम तौर पर बौध मत के अनुयायी गौतम बुद्ध के अतिरिक्त बुद्ध के और भी बोधिसत्व अवतारों को मानते हैं।
  10. कलकी अवतार विष्णु पुराण में सैंकड़ों वर्ष पूर्व ही भविष्यवाणी की गयी है कि कलियुग के अन्त में कलकी महा-अवतार होगा जो इस युग के अन्धकारमय और निराशा जनक वातावरण का अन्त करे गा। कलकी शब्द सदैव तथा समय का पर्यायवाची है। कलकी अवतार की भविष्यवाणी के कई अन्य स्त्रोत्र भी हैं।

 अवतार-वाद

 हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने आप में ईश्वरीय छवि का आभास कर सकता है तथा ईश्वर से बराबरी भी कर सकता है। इतने पर भी संतोष ना हो तो अपने आप को ही ईश्वर घोषित कर के अपने भक्तों का जमावड़ा भी इकठ्ठा कर सकता है। हिन्दू् धर्म में ईश्वर से सम्पर्क करने के लिये किसी दलाल, प्रतिनिधि या ईश्वर के किसी बेटे-बेटी की मार्फत से नहीं जाना पड़ता। ईश्वरीय-अपमान (ब्लासफेमी) का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्यों कि हिन्दू धर्म में पूर्ण स्वतन्त्रता है।

हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने विचारों से अवतार-वाद की व्याख्या कर सकता है। कोई किसी को अवतार माने या ना माने इस से किसी को भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। सभी हिन्दू धर्म के मत की छत्र छाया तले समा जाते हैं। हिन्दू धर्माचार्यों ने  अवतार वाद की कई व्याख्यायें प्रस्तुत की हैं। उन में समानतायें, विषमतायें तथा विरोधाभास भी है।

  • सृष्टि की जन्म प्रक्रिया – एक मत के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाते हैं। इस मतानुसार जल से सभी जीवों की उत्पति हुई अतः भगवान विष्णु सर्व प्रथम जल के अन्दर मत्स्य रूप में प्रगट हुये। फिर कुर्मा बने। इस के पश्चात वराह, जो कि जल तथा पृथ्वी दोनो का जीव है। नरसिंह, आधा पशु – आधा मानव, पशु योनि से मानव योनि में परिवर्तन का जीव है। वामन अवतार बौना शरीर है तो परशुराम एक बलिष्ठ ब्रह्मचारी का स्वरूप है जो राम अवतार से गृहस्थ जीवन में स्थानांतरित हो जाता है। कृष्ण अवतार एक वानप्रस्थ योगी, और बुद्ध परियावरण का रक्षक हैं। परियावरण के मानवी हनन की दशा सृष्टि को विनाश की ओर धकेल देगी। अतः विनाश निवारण के लिये कलकी अवतार की भविष्यवाणी पौराणिक साहित्य में पहले से ही करी गयी है।
  • मानव जीवन के विभन्न पड़ाव – एक अन्य मतानुसार दस अवतार मानव जीवन के विभन्न पड़ावों को दर्शाते हैं। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कुर्मा भ्रूण, वराह गर्भ स्थति में बच्चे का वातावरण, तथा नर-सिंह नवजात शिशु है। आरम्भ में मानव भी पशु जैसा ही होता है। वामन बचपन की अवस्था है, परशुराम ब्रह्मचारी, राम युवा गृहस्थी, कृष्ण वानप्रस्थ योगी तथा बुद्ध वृद्धावस्था का प्रतीक है। कलकी मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म की अवस्था है।
  • राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त – कुछ विचारकों के मतानुसार राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त को बल देने के लिये कुछ राजाओं ने अपने कृत्यों के आश्रचर्य चकित करने वाले वृतान्त लिखवाये और कुछ ने अपनी वंशावली को दैविक अवतारी चरित्रों के साथ जोड़ लिया ताकि वह प्रजा उन के दैविक अधिकारों को मानती रहे। अवतारों की कथाओं से एक और तथ्य भी उजागर होता है कि खलनायक भी भक्ति तथा साधना के मार्ग से दैविक शक्तियां प्राप्त कर सकते थे। किन्तु जब भी वह दैविक शक्ति का दुर्पयोग करते थे तो भगवान उन का दुर्पयोग रोकने के लिये अवतार ले कर शक्ति तथा खलनायक का विनाश भी करते थे।
  • भूगोलिक घटनायें – एक प्राचीन यव (जावा) कथानुसार एक समय केवल आत्मायें ही यव दूइप पर निवास करती थीं। जावा निवासी विशवास करते हैं कि उन की सृष्टि स्थानांतरण से आरम्भ हुयी थी। वराह अवतार कथा में दैत्य हिरण्याक्ष धरती को चुरा कर समुद्र में छुप गया था तथा वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर समतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर लाये थे। कथा और यथार्थ में कितनी समानता और विषमता होती है इस का अंदाज़ा इस बात मे लगा सकते हैं कि जावा से ले कर आस्ट्रेलिया तक सागर के नीचे पठारी दूइप जल से उभरते और पुनः जलग्रस्त भी होते रहते हैं। आस्ट्रेलिया नाम आन्ध्रालय (आस्त्रालय) से परिवर्तित जान पडता है। यव दूइप पर ही संसार के सब से प्राचीन मानव अस्थि अवशेष मिले थे। पौराणिक कथाओं में भी कई बार दैत्यों ने देवों को स्वर्ग से निष्कासित किया था। इस प्रकार के कई रहस्य पौराणिक कथाओं में छिपे पड़े हैं।

मानना, ना मानना – निजि निर्णय

अवतारवाद का मानना या ना मानना प्रत्येक हिन्दू का निजि निर्णय है। कथाओं का सम्बन्ध किसी भूगौलिक, ऐतिहासिक घटना, अथवा किसी आदर्श के व्याखीकरण हेतु भी हो सकता है। हिन्दू धर्म किसी को भी किसी विशेष मत के प्रति बाध्य नहीं करता। जितने हिन्दू ईश्वर को साकार तथा अवतारवादी मानते हैं उतने ही हिन्दू ईश्वर को निराकार भी मानते हैं। कई हिन्दू अवतारवाद में आस्था नहीं रखते और अवतारी चरित्रों को महापुरुष ही मानते हैं। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अवतारी कथाओं में मानवता का इतिहास छुपा है।

कारण कुछ भी हो, निश्चित ही अवतारों की कथाओं में बहुत कुछ तथ्य छिपे हैं। अवश्य ही प्राचीन हिन्दू संस्कृति अति विकसित थी तथा पौराणिक कथायें इस का प्रमाण हैं। पौराणिक कथाओं का लेखान अतिश्योक्ति पूर्ण है अतः साहित्यक भाषा तथा यथार्थ का अन्तर विचारनीय अवश्य है। साधारण मानवी कृत्यों को महामानवी बनाना और ईश्वरीय शक्तियों को जनहित में मानवी रूप में प्रस्तुत करना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है। 

चाँद शर्मा

 

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