हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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27 – पूजा और रीति रिवाज


हिन्दू मतानुसार धर्म तथा अध्यात्मिक्ता प्रत्येक व्यक्ति का निजि क्षेत्र है। ईश्वर तथा आत्मा का सम्बन्ध अटूट है। किसी व्यक्ति पर कोई दबाव नहीं कि वह कोई मन्दिर बनवाये या किसी विशेष समय और स्थल पर जा कर किसी विशेष ढंग से पूजा अर्चना करे। हिन्दूओं के लिये उन के अपने शरीर में ही परमात्मा का वास होता है। जब हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि तत्वों से बना है तो इन सभी तत्वों के देवता भी हमारे शरीर में ही वास करते है। हमारे शरीर में सूर्य की गर्मी तथा चन्द्र की शीतलता होने के कारण उन का भी वास है। मानव में ब्रह्मा की सर्जन शक्ति, विष्णु की पोषण शक्ति तथा शिव की संहारक शक्ति भी है, अतः हिन्दू धर्म यह घोषणा भी करता है – जो ब्रह्माण्डे सो ही पिण्डे। हमारे शरीर में ईश्वर तथा देवताओं का वास है। इसी कारण मन्दिर को भी मानव शरीर का प्रतीक मान कर मन्दिरों के भवन के सभी भागों के नाम भी शरीर के अँगों की तरह ही होते हैं।  

रामायण और महाभारत काल में यज्ञशालाओं का उल्लेख तो है परन्तु मन्दिरों का उल्लेख नहीं है। सम्भवता मन्दिरों का निर्माण बुद्ध काल में जब मठ और विहार बने तभी बुद्ध की प्रतिमाओं के साथ साथ अन्य देवी देवताओं की स्थापना भी मन्दिरों में करी गयी। वास्तव में मन्दिरों का महत्व विद्यालयों जैसा है जहाँ समाज के लिये अध्यात्मिकता की कक्षायें लगायी जाती हैं। मन्दिरों ने विभिन्न पर्वों के माध्यम से हिन्दू धर्म, समाज, संस्कृति, कला तथा हस्त कलाओं के उत्थान में विशेष योग्दान दिया है। देश के दूर दराज़ इलाकों में फैले हुये मन्दिरों नें सामाजिक सम्मेलन स्थलों की भूमिका भी निभायी है तथा देश की ऐकता को मज़बूत किया है। कुम्भ आयोजन तथा जगन्नाथ रथ यात्रा इस के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जब लोग लम्बी दूरी तय कर के निर्धारित समय पर स्वेच्छा से एकत्रित होते हैं। मन्दिर, पर्व तथा रीतिरिवाज हिन्दू जीवन शैली का अविभाज्य अंग हैं।

भारत को ऐकता सूत्र में पिरोने के अतिरिक्त मन्दिरों नें समाज के लिये सूचना केन्द्रों तथा समुदायों में ताल मेल करने में भी सहायता की है। भारत में पर्यटन को भी तीर्थयात्राओं के माध्यम से प्रोत्साहन मिलता रहा है।

रीति रिवाजों का महत्व

हिन्दू धर्म में प्राकृतिक जीवन तथा समाज में प्राणी मात्र के कल्याण पर विशेष बल दिया जाता है। किन्तु इन भावात्मिक शब्दों को क्रियात्मिक रूप देना हर किसी की योग्यता के बस की बात नहीं। जब तक कोई गति-विधि दिखाई ना पडे, कोई भी भावनात्मिक तथा दार्शनिक काम जन साधारण की कल्पना से बाहर रहता है। भावनाओं को साकार करने का कार्य रीति रिवाज करते हैं। रीति रिवाजों का अस्तीत्व भोजन में मसालों की तरह का है। जिन के बिना जीवन ही नीरस और फीका हो जाये गा। किसी भी क्रिया को निर्धारित परणाली से करना ही रीति रिवाज होता है ताकि सभी को क्रिया के आरम्भ होने तथा समाप्त होने का प्रत्यक्ष आभास हो जाये और क्रिया में से कोई भी मुख्य कडी छूट ना जाये। किन्तु जब राति रिवाज क्रिया का यथार्थ लक्ष्य छोड कर केवल दिखावा बन जाते हैं या समय और साधनों की समर्थ से बाहर निकल जाते हैं तो वह बेकार का बोझ बन जाते हैं। 

विश्व में कहीं भी कोई मानव समाज ऐसा नहीं है जहाँ लोगों ने सारे रीति रिवाज छोड़ कर केवल भावनात्मिक क्रियाओं के सहारे जीवन व्यतीत किया हो। जैसे पूजा पाठ करना या बलि देना आदि रीतिरिवाज हैं उसी प्रकार झण्डा लहराना, शप्थ लेना, या विश्वविद्यालयों में गाऊन पहन कर प्रमाण पत्र गृहण करना भी रीति रिवाज ही हैं जो किसी घटना के घटित होने के प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ साथ जीवन में क्रियात्मिकता और उल्लास भर देते हैं।

प्रथा तथा रीति रिवाज समय और समाज की ज़रूरत के अनुसार बदलते रहते हैं। पहले साधक प्रातः ब्रह्म महूर्त में या सूर्योदय के समय, दोपहर, तथा सूर्यास्त के समय लगभग अनिवार्य तौर से ध्यान लगा कर किसी ना किसी मंत्र का जाप करते थे, या मूर्तियों की पूजा अर्चना तथा आरती करते थे, हवन आदि करते थे। समय के अभाव के कारण आज कल यह प्रथायें या तो लुप्त हो चुकी हैं या संशोधित कर के संक्षिप्त रूप में करी जाती हैं। सब कुछ स्वेच्छिक है।

किसी भी प्रथा या रीति रिवाज को जब मन और श्रद्धा से किया जाये तो वह उनुकूल वातावर्ण उत्पन्न करने में सहायक हैं। साधक आसानी से अपने को मन वाँछित दिशा में केन्द्रित कर सकता है तथा दैनिक गतिविधियों से अपने आप को अलग कर के ईश्वरीय शक्ति का आभास महसूस कर सकता है। यह मनोवैज्ञानिक क्रिया है।

पूजा अर्चना के रीति रिवाजों में दो तरह के नित्य-नियम हैं जिन्हें दैनिक नित्य-नियम और घटना प्रधान विधान कह सकते हैं । दैनिक नित्य-नियम के विधान निजि सान्त्वना के लिये होते हैं। घटना प्रधान विधान किसी विशेष घटना के घटित होने के घटित होने पर किये जाते हैं।

रीति रिवाजों का प्रावधान सभी मानव समाजों में तथा धर्मों में किसी ना किसी रूप में है। थोडा बहुत अन्तर स्थानीय भूगौलिक, आर्थिक तथा राजनैतिक कारणों से है। हिन्दू राति रिवाज सरल, आसान तथा परिवर्तनशील हैं। उन्हें समय तथा आवश्यक्तानुसार बदला जा सकता है। समाज हित में रीजि रिवाजों को बदलने की क्रिया सर्व सम्मति अथवा बहु सम्मति से होनी चाहिये, व्यक्तिगत सुविधा के लिये नहीं।  

व्यक्तिगत पूजा

संध्या, होम तथा पूजा स्वेच्छिक, व्यक्तिगत दैनिक नित्यक्रम हैं। उपासक किसी भी स्थान को चुन कर अपनी समय, साधनों तथा सुविधानुसार सभी या कुछ दैनिक नित्यक्रमों को कर सकता है। यह दैनिक नित्यक्रम ऐकान्त में या सार्वजनिक स्थल पर अकेले या परिवार के साथ कर सकते हैं। नित्यक्रम मन्दिर, सामाजिक केन्द्र, पार्क या किसी भी मनचाहे स्थान पर किया जा सकता है। उल्लेखनीय बात यह है कि यह दैनिक नित्यक्रम निजि संन्तुष्टि के लिये हैं जिस से दूसरों को असुविधा नहीं होनी चाहिये। व्यक्तिगत दैनिक नित्यक्रम का विधान केवल सुझाव मात्र है जिसे सुविधानुसार बदला जा सकता हैः-

  1. संध्या संध्या का लक्ष्य अपनी इच्छानुसार किसी स्वच्छ और पवित्र स्थान पर शान्ति से बैठ कर ईश्वर का समर्ण करना है। किसी भी दिशा की ओर मुँह किया जा सकता है क्यों कि ईश्वर तो सर्व-व्यापक है। साधारणत्या उचित समय प्रातः सूर्योदय से पहले और सायंकाल सूर्यास्त के पश्चात का है जव कि दैनिक गतिविधियाँ पूर्ण हो चुकी हों। उपासक ईश्वर का धन्यवाद चाहे तो मूक रह कर केवल मन से, चाहे तो धीरे से, या लाऊडस्पीकर लगा कर मनचाही भाषा में, गद्य, पद्य, मंत्रोच्चारण कर के, या गीत गा कर भी कर सकता है । ईश्वर को सभी कुछ स्वीकार हैं लेकिन लाऊडस्पीकर अवश्य ही आस पास के लोगों तथा स्थानीय प्रशासन का ध्यान आकर्षित करे गा। किसी भी प्रकार के वस्त्र पहने जा सकते हैं। मौलिक बात यह है कि स्थल स्वच्छ, शान्त होना चाहिये तथा दूसरों की शान्ति भंग ना हो।
  2. होम होम ऐक वैदिक क्रिया है जो निराकार ईश्वरीय शक्ति के प्रति की जाती है। मन्त्रोच्चारण के साथ साथ अग्नि के अन्दर सुगन्धमय पदार्थों की आहूतियाँ डाल कर वातावरण को प्रदूषणमुक्त किया जाता है। अग्नि में जलाने से सुगन्धित पदार्थों की क्षमता कई गुणा बढ़ जाती है। होम व्यक्तिगत अथवा सामूहिक तौर पर भी किया जा सकता है।
  3. पूजा आराधना – पूजा आराधना की परिक्रिया संध्या की अपेक्षा क्रमशा औपचारिक क्रिया है, किन्तु इस क्रिया के कुछ या सभी उपक्रमों को उपासक की सुविधानुसार परिवर्तित अथवा स्थगित भी किया जा सकता है। ईश्वर की अर्चना पद्धति की रूप-रेखा विशिष्ठ व्यक्तियों के सत्कार की परम्परा जैसी ही बन गयी है। मुख्यता आराधक मन ही मन में प्रतिष्ठापित मूर्ति के माध्यम से अपने आराध्य देवी-देवता की छवि को निहारता हुआ स्तुति करता है। मूर्ति की उपासना की निम्नलिखित परम्परागत क्रियायें हैं – सर्व प्रथम मन से आराध्य देवी – देवता का आवाहन किया जाता है। आराध्य को आसन पर आसीन कराया जाता है तथा सत्कार स्वरूप आराध्य के पग धोये जाते हैं। फिर पेय जल तथा जलपान परस्तुत किया जाता है। पाद्य स्वरूप आराध्य के चरण धोये जाते हैं वस्त्र पहनाये जाते हैं। नया यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है। अर्घ चन्दन आदि का सुगन्धित तिलक लगाया जाता हैं। पुष्प अर्पण किये जाते हैं। धूप आदि की सुगन्ध ज्वलन्त की जाती है। दीप प्रज्वलन किया जाता है तथा दीप से आराध्य की आरती उतारी जाती है। नैवैद्यम प्रसाद अर्जित किया जाता है और स्वर्ण आदि की भेंट दी जाती है। अन्त में आराध्य का विसर्जन किया जाता है। अनुमान लगाया जा सकता है कि आराधना की यह विधि किसी भी विशिष्ठ व्यक्ति के सामाजिक सत्कार का ही एक प्रतीक मात्र है। पूजा घर, मन्दिर, अथवा अन्य किसी भी स्थान पर की या करवाई जा सकती है।

सामाजिक रीति रिवाज

सामाजिक रीति रिवाज किसी विशेष घटना के घटित होने पर किये जाते हैं। अतः उन को करने का समय निश्चित नहीं है। वह घटना के घटित होने के परिणाम स्वरूप समाज में प्रसारण के लिये किये जाते हैं। सैंकडों वर्ष पूर्ण मानव जीवन में घटित होने वाली प्रमुख घटनाओं को आधार मान कर सोलह संस्कारों का उल्लेख सर्व प्रथम मनुसमृति में किया गया था और विश्व भर में वही सोलह संस्कार स्थानीय फेर बदलों के साथ आज भी अपनाये जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव के कारण कुछ हिन्दू इन राति रिवाजों का मज़ाक उड़ा कर उन की उपेक्षा भी करते हैं किन्तु वास्तव में यह उन की अपने पूर्वजों के प्रति अज्ञानता तथा कर्तघनता का ही प्रमाण है।

मानव अपने शरीर अथवा मनोवृत्तियों से जितने भी कर्म करता है उस के सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रिया, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशायें,जल, पृथ्वी, काल और धर्म साक्षी रहते हैं। हिन्दू रीति रिवाजों की विशेषता है कि उन को क्रियावन्त करते समय देवताओं तथा गृहों का आवाहन साक्षी बनाने के लिये किया जाता है। विशेष रूप से श्री गणेश तथा अग्नि को साक्षी बनाया जाता है। मानव साक्षियों के बदले प्राकृतिक गृहों तथा शक्तियों को घटना का साक्षी बनाया जाता है। इस का कारण यह है कि मानव कई कारणों की वजह से बदल सकते हैं तथा स्थायी नहीं हैं किन्तु प्राकृतिक साक्षी शाशवत, सर्व-व्यापक तथा भेद भाव रहित होते हैं। उदाहरण स्वरूप जिस अग्नि ने हमारे पूर्वजों के विवाह की घटनाओं का साक्ष्य किया था वही अग्नि आज हमारे जीवन में भी साक्ष्य दे रही हैं। इस प्रकार की अनुभूती मानव साक्ष्य नहीं करवा सकते। 

हिन्दू मतानुसार ईश्वर किसी विशेष परिधान अथवा भाषा, भोजन, प्रसाद स्थल पर किये गये रीति रिवाज से प्रसन्न नहीं होता। लोग जिस प्रकार से संतुष्ट हों वही रिवाज अच्छा है। लोग अपनी इच्छा, सामर्थ, तथा विशवासों के आधार पर रीति रिवाज करते हैं। यदि किसी को मिठाई अच्छी लगती है तो वह ईश्वर को मिठाई अर्पण कर के अपने आप को संतुष्ट करता है तथा दूसरों को भी वैसा करने की सलाह देता है। रीति रिवाज तभी तक प्रसन्नता प्रदान करते हैं जब तक वह व्यक्ति के निजि समय और साधनों की समर्थ में हों तथा स्वेच्छा से किये जायें। थोपे गये रीति रिवाज अभिशाप बन जाते हैं। 

चाँद शर्मा

 

19 – मानव जीवन के लक्ष्य


हिन्दू धर्म ने संसारिक सुखों को सर्वथा त्यागने की वकालत कभी नहीं की। हिन्दू धर्म के अनुसार जीवन का मुख्य लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति है। मोक्ष वह स्थिति है जब मन में कोई भी अतृप्त कामना ना रह गयी हो तथा समस्त इन्द्रीय भोगों की धर्मानुसार पूर्ण संतुष्टि हो चुकी हो। इसी स्थिति को पाश्चात्य संदर्भ में ‘टोटल सेटिस्फेक्शन कहते हैं।

हिन्दू जीवन शैली स्दैव इस सत्य के प्रति सजग रही है कि प्रत्येक प्राणी में इच्छायें तथा भावनायें हमेशा पनपती रहती हैं। बिना तृप्ति के कामनाओं को शान्त करना व्यावहारिक नहीं। अतः हिन्दू धर्म प्रत्येक व्यक्ति को धर्मपूर्वक पुरुषार्थ कर के अपनी समस्त कामनाओं की तृप्ति करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

यह हर व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपनी निजि आवश्यक्ताओं के साथ साथ अपने परिवार तथा मित्रों के लिये भी पर्याप्त सुख सम्पदा अर्जित करे और उस का सदोपयोग भी करे। अनिवार्यता केवल इतनी है कि यह सब करते हुये प्रत्येक स्थिति में धर्म, स्थानीय मर्यादाओं तथा निजि कर्तव्यों की अनदेखी नहीं हो।

पुरुषार्थ अर्जित जीवन लक्ष्य

हिन्दू धर्म के मतानुसार किसी भी प्रकार के इन्द्रीय सुख भोगने में कोई पाप नहीं है। ईश्वर ने मानव को किसी भी फल के खाने से मना नहीं किया है। प्रत्येक मानव को यह अधिकार है कि वह अपने और अपने परिवार, मित्रों, तथा सम्बन्धियों के इन्द्रीय सुखों के लिये अतुलित धन सम्पदा अर्जित करे जिस से सभी जन अपनी अपनी अतृप्त कामना से मुक्त हो जाये। अतः मानव को जीवन के चार मुख्य उद्देश हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, तथा इन चारों लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये मानवों को यत्न करते रहना चाहिये।

धर्मः- सृष्टि के सभी जीवों का प्रथम लक्ष्य है – स्वयं जियो। अपने जीवन की रक्षा करना सभी जीवों के लिये ऐक प्राकृतिक और स्वभाविक निजि धर्म और अधिकार है। ‘दूसरों को भी जीने दो’ का मार्ग कर्तव्यों से भरा है जिस को साकार करने के लिये मानव नें निजि धर्म का विस्तार कर के अपने आप को नियम-बद्ध किया है। उन नियमों को ही धर्म कहा गया है। जीने दो के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी अपनी भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये धर्म सम्बन्धी नियम बनाये हैं। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं तथा उन का पालन करना सभी का कर्तव्य है।

श्रष्टि के सभी जीवों में मानव शरीर श्रेष्ट और सक्षम है इस लिये जीने दो का उत्तरदाईत्व  पशु-पक्षियों की अपेक्षा मानवों पर अधिक है। इसी लिये दूसरों के प्रति धर्म के नियमों का पालन करना ही मानवों को पशु-पक्षियों से अलग करता हैः-

           आहार निद्राभय मैथुन च सामान्यमेतस शाभिर्वरीणम्

                    धर्मो ही तेषामधिसो धर्मेणहीनाः पशुभिसमाना ।। (-हितोपदेश)

आहार, निद्रा, भय और मैथुन – यह प्रवृतियाँ मनुष्य और पशुओं में समान रुप से पाई जाती हैं। परन्तु मनुष्य में धर्म विशेष रुप से पाया जाता है। धर्म विहीन मनुष्य पशु के समान ही है।

जिस प्रकार सभी पशु पक्षी अपने अपने कर्तव्यों का स्वाचालित रीति से पालन करते हैं उसी प्रकार मानव भी जिस स्थान पर जन्मा है वहाँ के पर्यावरण की रक्षा तथा वृद्धि करे। अपने पूर्वजों की परम्परा का निर्वाह करे अपनी आने वाली पीढ़ियों के प्रति अपना उत्तरदाईत्व निभाये और विश्व कल्याण में अपना योगदान देने के लिये स्दैव सजग एवं तत्पर रहै।

इन चारों लक्ष्यों में धर्म सर्वोपरि है। प्रत्येक परिस्थिति में धर्म का पालन करना अनिवार्य है। यदि किसी अन्य लक्ष्य की प्राप्ति में धर्म के मूल्यों का उल्लंधन होता हो तो मानव का कर्तव्य है कि उस लक्ष्य को त्याग दे। जो निजि धर्म का पालन करते करते किसी भी लक्ष्य को प्राप्त करे वह स्दैव पापमुक्त रहता है तथा जो धर्म की अवहेलना करते हुये निष्क्रिय हो बैठे वही पापी है।

जब धर्म प्रगट होता है तो अपने दस लक्षण भी मनुष्य में प्रतिष्ठित करता है। यह लक्षण हैं – धैर्य, क्षमा, संयम, अस्तेय, पवित्रता, इन्द्रीय निग्रह, शुद्ध बुद्धि, सत्य, उत्तम विद्या, अक्रोध। जब मनुष्य में यह लक्षण प्रतिष्ठित हों गे तो समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण विश्व स्वतः ही सुन्दर, आदर्श ऐवं शान्तमय दिखे गा। इस लिये आवश्यक है कि आज का अशान्त मनुष्य धार्मिक हो।

अर्थः- अर्थ से तात्पर्य है जीवन के लिये भौतिक सुख सम्पदा अर्जीत करना। मानव को ना केवल अपने शारीरिक सुखों के लिये पदार्थ अर्जित करने चाहियें अपितु संतान, माता पिता, सम्बन्धी, जीव जन्तु तथा स्थानीय पर्यावरण के उन सभी प्राणियों के लिये भी, जो उस पर आश्रित हों उन के प्रति भी अपने कर्तव्यों को निभा सके। धन सम्पदा अर्जित करना तथा उस का उपयोग करना कर्तव्य है, किन्तु धन सम्पदा ऐकत्रित कर के संचय कर लेना अधर्म है। हिन्दू धर्म शास्त्रानुसार –       

       शत हस्त समोहरा सहस्त्र हस्त संकिरा

(अर्थात मानव यदि एक सौ हाथों से कमाये तो उसे हज़ार हाथों से समाज कल्याण के लिये दान भी करना चाहिये।)

अर्थ लक्ष्य की प्राप्ति के लिये भी धर्म तथा पुरुषार्थ दोनों का निर्वाह अनिवार्य है। धर्म उल्लंधन कर के अर्थ अर्जित करना पाप है तथा सक्षम होते हुये भी निष्क्रिय हो कर निजि आवश्यक्ताओं के लिये दूसरों से अर्थ प्राप्ति की अपेक्षा करते रहना भी पाप है। सुखी जीवन तथा मोक्ष प्राप्ति के लिये धन-सम्पदा केवल साधन मात्र हैं, किन्तु वह जीवन का परम लक्ष्य नहीं हैं। धर्म पालन ( कर्तव्य पालन) करने से अर्थ हीन को भी मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है। अधर्म से अर्थ जुटाने वालों को मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती।

कामः- काम से तात्पर्य है समस्त ज्ञान इन्द्रियों तथा कर्म इन्द्रियों के सुखों को भोगना। इस के अन्तर्गत स्वादिष्ट खाना-पीना, संगीत, नाटक, नृत्य जैसी कलायें, वस्त्र, आभूषण, बनाव-सिंगार और रहन-सहन के साधन, तथा सहवास, संतानोत्पति, खेल कूद और मनोरजंन के सभी साधन आते हैं। इन साधनों के अभाव से मानव का जीवन नीरस हो जाता है और वह सदैव अतृप्त रहता है और उसे पूर्ण मोक्ष की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन और अस्वाभाविक है। जो लोग काम इच्छाओं का दमन कर के किसी अन्य कारण से सन्यास ग्रहन कर लेते हैं, अकसर वही लोग जीवन भर अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये ललायत भी रहते हैं। इस प्रकार के लोग अवसर मिलने पर पथ भृष्ट हो जाते हैं और दुष्कर्म कर के अपना सम्मान भी गँवा बैठते हैं। काम इच्छाओं का दमन नहीं अपितु शमन कर के ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। काम तृप्ति के बिना प्रत्येक प्राणी का जीवन अधूरा रहता है। कुछ लोग इस तथ्य को नकार कर भले ही अपवाद होने का दावा करें परन्तु उन की संख्या लग भग शून्य के बराबर ही होती है। इसी सच्चाई को मान्यता देते हुये हिन्दू धर्म ने काम दमन के बजाये काम शमन को प्राथमिक्ता दी है और जीवन में वैवाहिक सम्बन्धों को सर्वोच्च माना है। काम शमन के साथ धर्म तथा अर्थ, तीनो का पालन करना अनिवार्य है अन्याथ्वा सभी कुछ अधर्म होगा। किसी कारण वश यदि धर्म, अर्थ तथा काम का समावेश सम्भव ना हो तो क्रमशा सर्वप्रथम काम का त्याग करना चाहिये, फिर अर्थ का त्याग करना चाहिये। धर्म का त्याग किसी भी स्थिति में कदापि नहीं करना चाहिये

मोक्षः- मोक्ष से तात्पर्य है जीवन में पूर्णत्या संतुष्टि प्राप्त करना है। सुख और शान्ति की यह चरम सीमा है जब मन में कोई भी इच्छा शेष ना रही हो, किसी प्रकार के संसारिक सुख की कामना, किसी से कोई अपेक्षा या उपेक्षा का कोई कारण ना हो तभी मोक्ष की प्राप्ति होती है। उस के लिये कोई यत्न नहीं करना पड़ता। किये गये कर्मों के फलस्वरूप ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह अवस्था मानव जीवन की सफलता की प्राकाष्ठा है। निस्संदेह यह शुभावस्था बहुत कम लोगों को ही प्राप्त होती है। अधिकतर व्यक्ति पहले तीन लक्ष्यों के पीछे भागते भागते असंतुष्ट जीवन बिता देते हैं। अज्ञानी, अधर्मी, निष्क्रय, असंतुष्ट, ईर्शालु, क्रूर, रोगी, भोगी, दारिद्र तथा अप्राकृतिक जीवन जीने वाले व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति कभी नहीं होती।

मर्यादित संतुलन

‘दूसरों को भी जीने दो’ के सिद्धान्त पर जब भी हम किसी कर्तव्य को निभाने के लिये निष्काम भावना से अगर कोई कर्म करते हैं तो वह ‘धर्म’ के अन्तर्गत आता है। इसी ‘जीने दो’ के सिद्धान्त पर ही अगर  स्वार्थ भी मिला कर यदि कोई कर्म किया जाता है तो वह व्यापार या ‘अर्थ’ बन जाता है और यदि किसी कर्म को केवल अपने मनोरंजन या खुशी के लिये किया जाये तो वही ‘काम’ बन जाता है।

धर्म, अर्थ, और काम में से केवल धर्म ही सशक्त है जो अकेले ही मोक्ष की राह पर ले जा सकता है। यदि किसी मानव नें अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह किया है तो वह अर्थ के अभाव में भी मानसिक तौर पर संतुष्ट ही हो गा। इसी प्रकार यदि किसी नें अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह किया है परन्तु उसे अपने लिये इन्द्रीय सुख नहीं प्राप्त हुये तो भी ऐसा व्य़क्ति निराश नहीं होता। इस के विपरीत यदि किसी के पास अपार धन तथा सभी प्रकार के काम प्रसाधन उपलब्ध भी हों तो भी निजि कर्तव्यों का धर्मपूर्वक निर्वाह किये बिना उसे पूर्ण संतुष्टि – मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। जीवन में अर्थ तथा काम संतुष्टि के पीछे अति करना हानिकारक है तथा अधर्म के मार्ग से इन लक्ष्यों की प्राप्ति करना भी पाप और दण्डनीय अपराध है। अन्ततः मोक्ष के स्थान पर दुख, निराशा तथा अपयश ही प्राप्त होते हैं।

जीवन में इन लक्ष्यों के लिये पुरुषार्थ करते समय मानव को स्दैव अपनी अन्तरात्मा की आवाज़ सुननी चाहिये और जब भी मन में कोई शंका अथवा दूविधा उतपन्न हो तो स्दैव धर्म का मार्ग ही सभी परिस्थितियों, देश और काल में कष्ट रहित मार्ग होता है। मानव को अपनी रुचि और क्षमता अनुसार तीनों लक्ष्यों का एक निजि समिश्रण स्वयं निर्धारित करना चाहिये जो देश काल तथा स्थानीय वातावरण के अनुकूल हो। निस्संदैह इस समिश्रण में दूसरों के प्रति धर्म की मात्रा ही सर्वाधिक होनी चाहिय

हिन्दू धर्म ने जीवन के जो लक्ष्य अपनाये हैं वही लक्ष्य विश्व भर में अन्य मानव समाज भी अपनाते रहे हैं। जहाँ भी इन लक्ष्यों की अवहेलना हुयी है वहाँ पर सभ्यताओं का विध्वंस भी हुआ है। यह उल्लेखनीय है कि हिन्दू धर्म के सभी देवी देवता स्दैव धर्मपरायण, साधन सम्पन्न तथा वैवाहिक परिवार में दर्शाये जाते हैं। सभी ऋषि भी अपने अपने परिवारों के साथ वनों में सक्रिय जीवन व्यतीत करते रहे हैं। हिन्दू धर्म प्रकृतिक, सकारात्मक, कर्तव्यनिष्ट तथा सुख सम्पन्न जीवन व्यतीत करने को प्रोतसाहित करता रहा है जो विश्व कल्याण के प्रति कृतसंकल्प है। जीवन के यही लक्ष्य सभी धर्मों और जातियों के लिये ऐक समान हैं ।

चाँद शर्मा

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