हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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46 – राजनीति शास्त्र का उदय


सर्व प्रथम राजतन्त्रों की स्थापना भारत के आदि मानवों करी थी। उन्हों ने वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बना कर आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा था।  उन्हों ने ही समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चैयन कर के व्यवहारिक नियम बनाये जिन से आगे सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ।

राजा पद का दैविक आधार

सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है। भारत के ऋषियों ने ना केवल मानवी समाज के संगठन को सुचारु ढंग से राजनीति का पाठ पढाया बल्कि उन्हों ने तो सृष्टि के प्रशासनिक विधान की परिकल्पना भी कर दी थी जो आज भी प्रत्यक्ष है। मानवी समाज सें राजा के पद को दैविक आधार इस प्रकार प्रदान किया गया थाः-

…इस जगत के रक्षार्थ ईश्वर ने इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमां, और कुबेर देवताओं का सारभूत अंश (उन की प्राकृतिक शक्तियाँ या विशेषतायें) लेकर राजा को उत्पन्न किया ताकि देवताओं की तरह राजा सभी प्राणियों को अपने वश में कर सके। ऱाजा यदि बालक भी हो तो भी साधारण मनुष्य उस का अपमान ना करे क्यों कि वह देवताओं का नर रूप है। राजा अपनी शक्ति, देश काल, और कार्य को भली भान्ति  विचार कर धर्म सिद्धि के निमित्त अनेक रूप धारण करता है। जो राजा के साथ शत्रुता करता है वह निश्चय ही नष्ट हो जाता है…राजा भले लोगों के लिये जो इष्ट धर्म और बुरे लोगों के लियो जो अनिष्ट धर्म को निर्दिष्ट करे उस का अनादर नहीं करना चाहिये। दण्ड सभी प्रजाओं का शासन करता है, सोते हुये को जगाता है। इसी लिये ज्ञानी पुरुष दण्ड को ही धर्म कहते हैं। दण्ड का उचित उपयोग ना हो तो सभी वर्ण दूषित हो जायें, धर्म (कर्तव्यों) के सभी बाँध टूट जायें और सब लोगों में विद्रोह फैल जाये। जो राजा हृदय का पवित्र, सत्यनिष्ठ, शास्त्र के अनुसार चलने वाला, बुद्धिमान और अच्छे सहायकों वाला हो वह इस दण्ड धर्म को चला सकता है। राजा अपने कार्य के लिये जितने सहायकों की आवश्यक्ता हो, उतने आलस्य रहित, कार्य दक्ष, प्रवीण स्यक्तियों को रखे…

यही सिद्धान्त पाश्चात्य राजनीतिज्ञ्यों की परिभाषा में ‘डिवाईन राईट आफ किंग्स कहलाता है। कालान्तर प्रजातन्त्र का जन्म भी भारत में हुआ था।

भारत में प्रजातन्त्र

पश्चिमी देशों के लिये राजनैतिक विचारधारा के जनक यूनानी दार्शनिक थे। सभी विषयों पर उन की सोच विचार की गंगोत्री अरस्तु (एरिस्टोटल) की विचारधारा ही रही है, जबकि वेदों में प्रतिनिधि सरकार की सम्पूर्ण रूप से परिकल्पना की गयी है जिसे हिन्दूओं ने यूनानी दार्शनिकों के जन्म से एक हजार वर्ष पूर्व यथार्थ रूप भी दे दिया था। किन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी और भारत के बुद्धिहीन अंग्रेजी प्रशंसक आज भी इगंलैण्ड को ‘मदर आफ डैमोक्रेसी मानते हैं।

वैधानिक राजतन्त्र 

वेदों और मनु समृति की आधारशिला पर ही मिस्त्र, ईरान, यूनान तथा रोम की राजनैतिक व्यवस्थाओं की नींव पडी थी। इस्लाम, इसाई और ज़ोरास्ट्रीयन धर्म तो बहुत काल बाद धरती पर आये। ऋगवेद, मनुसमृति से लेकर रामायण, महाभारत, विदुर नीति से कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र तक हिन्दू विधानों की धारायें प्राकृतिक नियमों पर आधारित थीं और विकसित हो कर क्रियावन्त भी हो चुकीं थीं। यह विधान अपने आप में सम्पूर्ण तथा विस्तरित थे जिन में से सभी परिस्थितियों की परिकल्पना कर के समाधान भी सुझा दिये गये थे।

भारतीय ग्रन्थों की लेखन शैली की विशेषता है कि उन में राजाओं, मन्त्रियों, अधिकारियों तथा नागरिकों के कर्तव्यों की ही व्याख्या की गयी है। कर्तव्यों के उल्लेख से ही उन के अधिकार अपने आप ही परौक्ष रूप से उजागर होने लगते हैं। उत्तराधिकार के नियम स्पष्ट और व्याखत्मिक हैं। उन में संदेह की कोई गुजांयश नहीं रहती। यही कारण है कि भारत के प्राचीन इतिहास में किसी शासक की अकासमिक मृत्यु के पश्चात उत्तराधिकार के लिये कोई युद्ध वर्षों तक नहीं चलता रहा जैसा कि अन्य देशों में अकसर होता रहा है।

धर्म शासन का आधार स्तम्भ रहा है। ऐक आदर्श कल्याणकारी राजा को प्रजापति की संज्ञा दी जाती रही है तथा उस का उत्तरदाईत्व प्रजा को न्याय, सुरक्षा, विद्या, स्वस्थ जीवन तथा जन कल्याण के कार्य करवाना निर्धारित है। राजा के लिये भी निजि धर्म के साथ साथ राज धर्म का पालन करना अनिवार्यता थी। राजगुरू राजाओं पर अंकुश रखते थे और आधुनिक ‘ओम्बड्समेन या ‘जन-लोकपाल’ की भान्ति कार्य करते थे। धर्म का उल्लंधन सभी के लिये अक्षम्य था। 

राजतन्त्र का विकास

यह उल्लेखनाय है कि कई प्रावधानों का विकास प्राचीन काल में हुआ। वेदों तथा मनुसमृति के पश्चात आवशयक्तानुसार अन्य प्रावधान भी आये जिन में महाभारत काल में विदुर नीति तथा मौर्य काल में चाणक्य नीति (कौटिल्य का अर्थशास्त्र) प्रमुख हैं। इन में राजनीति, कूटनीति, गुप्तचर विभाग, सुरक्षा नीति, अर्थ व्यव्स्था, कर व्यव्स्था और व्यापार विनिमय आदि का विस्तरित विवरण है। उल्लेखनीय है कि यह सभी व्यवस्थायें ईसा से पूर्व ही विकसित हो चुकीं थीं।

महाकाव्य युग में आदर्श राज्य की परिकल्पना ‘राम-राज्य’ के रूप में साक्षात करी गयी थी। राम राज्य इंगलैण्ड के लेखक टोमस मूर की ‘यूटोपियन कानसेप्ट से कहीं बढ चढ कर है। राजा दू्ारा स्वेच्छा से अगली पीढी को शासन सत्ता सौंपने का प्रमाण भी दिया गया है। भरत भी राम के ‘वायसराय के रूप में राज्यभार सम्भालते हैं। रामायण में यह उल्लेख भी है कि युद्ध भूमि से ही राम अपने अनुज लक्ष्मण को शत्रु रावण के पास राजनीति की शिक्षा ग्रहण करने के लिये भेजते हैं।

ऐक आदर्श राजा का कीर्तिमान स्थापित करने के लिये राम ने अपनी प्रिय पत्नी को भी वनवास दे दिया था और निजि सम्बन्धों को शासन के कार्य में अडचन नहीं बनने दिया। आज केवल कहने मात्र के लिये ‘सीज़र की पत्नि’ सभी संदेहों से ऊपर होनी चाहिये किन्तु वास्तव में आजकल के सीजर, शासक, राष्ट्रपति ऐसे सिद्धान्तो पर कितना अमल करते हैं यह सर्व विदित हैं।  

प्रजातान्त्रिक शासन प्रणाली

भारतवासियों को गर्व होना चाहिये कि प्रजातन्त्र का जनक भारत है, रोम या इंग्लैण्ड नहीं। वास्तव में प्राचीन भारतीय ग्रंथों में ऐक ‘समाजनाना’ नाम की दैवी का उल्लेख है जिसे प्रजातन्त्र की अधिठाष्त्री कहना उचित हो गा। ऋगवेद के अन्तिम छन्द में उस की स्तुति की गयी है। ईसा से लग भग 6 शताब्दी पूर्व बुद्ध काल तक भारत में प्रजातन्त्र विकसित था और बुद्ध के ऐक हजार वर्ष पश्चात तक स्थापित रहा। प्रत्येक नगर अपने आप में ऐक गणतन्त्र था। समस्त भारत इन गणतन्त्रों का ही समूह था। यद्यपि राजा के बिना शासन प्रबन्धों का उल्लेख वैदिक काल तक मिलता है किन्तु बुद्ध के समय प्रजातन्त्र प्रणाली अधिक लोकप्रिय थीं। पाली, संस्कृत, बौद्ध तथा ब्राह्मण ग्रंथों में कई प्रकार के शब्दों का उल्लेख मिलता है जो उन समूहों को लिखते हैं जो स्वयं शासित थे।

भारत ने अपना स्थानीय तन्त्र विकसित किया हुआ था जो आधुनिकता की कसौटी पर खरा उतरता है। उन के पास आश्चर्य जनक दोषमुक्त अर्थ व्यवस्था थी जो नगर तथा ग्राम प्रशासन चलाने, उस के आर्थिक तथा सामाजिक विकास के लिये सक्ष्म थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेषों से नगर व्यवस्था के प्रबन्धन का अन्दाजा आज भी लगाया जा सकता है। इसी प्रशासनिक व्यवस्था ने देश की ऐकता और अखण्डता को उपद्रवों तथा आक्रमणकारियों से बचाये रखा। विश्व में अन्य कोई ऐसा देश नहीं है जहाँ गणतन्त्र इतने लम्बे समय तक सफल रहै हों।

वैचारिक स्वतन्त्रता

वैचारिक स्वतन्त्रता तथा लोकताँत्रिक विचारधारा भारतीयों के जनजीवन तथा हिन्दू धर्म की आधार शिला हैं। भारत की उदारवादी सभ्यता के कारण ही दक्षिण-पूर्वी ऐशिया में स्थित भारतीय उपनेषवादों में भी पूर्ण वैचारिक स्वतन्त्रता का वातावरण रहा और स्थानीय परम्पराओं को फलने फूलने का अवसर मिलता रहा। समस्त इतिहास में भारत ने किसी अन्य देश पर आक्रमण कर के उसे अपने अधीन नहीं बनाया। रामायण काल से ही यह परम्परा रही कि विजेता ने किसी स्थानीय सभ्यता को नष्ट नहीं किया। राम ने बाली का राज्य उस के भाई सुग्रीव को, और लंका का अधिपत्य राक्षसराज विभीषण को सौंपा था और वह दोनो ही राम के अधीन नहीं थे, केवल मित्र थे।

भारत में बहुत से गणतन्त्र राज्यों का उल्लेख यूनानी लेखकों ने भी किया है। इस बात का महत्व और भी अधिक इस लिये हो जाता है कि यूनानी लेखकों की भाषा ही पाश्चात्य बुद्धिजीवियों को ‘मान्य’ है। सिकन्दर महान के साथ आये इतिहासकारों ने लिखा है कि भारत में उन्हें हर मोड पर गणराज्य ही मिले। आधुनिक आफग़ानिस्तान – पाकिस्तान सीमा पर स्थित न्यास नगर का प्रशासन उस समय ऐक प्रधान ऐक्युलफिस के आधीन था जिसे परामर्श देने के लिये 300 सदस्यों की ऐक परिष्द थी।

ऐसा ही उल्लेख कौटिल्लय के अर्थ शास्त्र में भी मिलता है कि उस समय दो प्रकार के जनपद थे जिन्हें ‘आयुद्धप्राय’ तथा ‘श्रेणीप्राय’ कहा जाता था। आयुद्धप्राय के सदस्य सैनिक होते थे तथा श्रेणी-प्राय के सदस्य कारीगर, कृषक, व्यापारी आदि होते थे। इस के अतिरिक्त सत्ता का विकेन्द्रीयकरण था और उस के भागीदारों की संख्या प्रयाप्त थी.। ऐक जातक कथा के अनुसार वैशाली की राजधानी लिच्छवी में 7707 राजा, 7707 प्रतिनिधि, 7707 सैनापति तथा 7707 कोषाध्क्ष थे।

कूटनीति

भारत में कूटनीती का इतिहास ऋगवेद संहिता से आरम्भ होता है। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये गुप्तचरों का प्रयोग करने का प्रावधान था। ऋगवेद संहिता के काल से ही कूटनीति की व्यवस्था के प्रचलन का प्रमाण मिलता है। सतयुग काल में देवताओं ने बृहस्पति के पुत्र कच्च को दैत्य शत्रुओं के गुरू शुक्राचार्य के पास संजीविनी विद्या सीखने के लिये भेजा था। गुरू शुक्राचार्य की इकलौती पुत्री देवयानी को कच्च से प्रेम हो गया। दैत्य कच्च के अभिप्राय को ताड गये थे और उन्हों ने कच्च की हत्या कर दी थी किन्तु देवयानी के अनुरोध पर शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या सिखानी पडी थी। यह कथा रोचक और लम्बी है तथा आज कल के टेकनोलोजी-एस्पायोनाज (जैसे कि अणुबम बनाने की विधि चुराना) का प्राचीनत्म उदाहरण है।

भारतीय ग्रन्थों में कूटनीति के चार मुख्य स्तम्भ इस प्रकार दर्शाये गये हैः-

  • साम – प्रतिदून्दी के साथ समानता का व्यवहार कर के उसे अपने पक्ष में कर लेना।
  • दाम –तुष्टिकरण अथवा रिश्वत आदि से प्रतिदून्दी को अपने पक्ष में कर लेना।
  • दण्ड – बल प्रयोग और त्रास्ती के माध्यम से प्रतिदून्दी को अपने वश में करना।
  • भेद –गुप्त क्रियाओं से प्रतिदून्दी के प्रयासों को विफल कर देना।

यही प्रावधान आधुनिक युग में भी अमेरिका से लेकर पाकिस्तान तक, विश्व की सभी सरकारों के गुप्तचर विभाग अपनाते हैं।

भ्रष्टाचार नियन्त्रण

ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण रखने के लिये विस्तरित निर्देश दिये गये हैं तथा गुप्तचरों को जिम्मेदारी भी दी गयी है। उन्हें ‘स्पासाह’ अथवा ‘वरुण’ कहा जाता था। उन का उत्तरदाईत्व शत्रुओं की गतिविधि के बारे में सतर्क्ता रखने के अतिरिक्त अधिकारियों के घरों की निगरानी करना भी था। इस जिम्मेदारी के लिये इमानदार तथा चरित्रवान लोगों का चैयन किया जाता था जिन्हें किसी प्रकार का लोभ लालच नहीं होना चाहिये। ऋगवेद में भ्रष्टाचार पर नियन्त्रण करने के विषय में भी कई निर्देश दिये गये हैं। 

गुप्तचर विभाग

रामायण में गुप्तचरों को राजा की दृष्टी कहा गया है। यह जान कर कईयों को आशचर्य हो गा कि वाल्मीकि रामायण में जब शरूपर्नखा नकटी हो कर रावण के समक्ष पहुँचती है तो वह रावण को शत्रुओं की गति विधि से अनिभिज्ञ्य रहने और कोताही बर्तने के लिये खूब फटकार लगाती है। वह रावण से इस तरह के प्रश्न पूछती है जो आज कल विश्व के किसी भी सतर्क्ता विभाग की क्षमता को आँकने (सिक्यूरिटी आडिट) के लिये पूछे जाते हैं। मनु स्मृति में भी देश की सुरक्षा और कूटनीति विभाग के बारे में विस्तरित अध्याय लिखा गया है।  

महाभारत में उल्लेख है कि गऊओं को सुगँध से, पण्डितों को ज्ञान से, राजाओं को गुप्तचरों से तथा सामान्य जनो को अपनी आँखों से अपनी अपनी सुरक्षा का प्रबन्ध करना चाहिये। भीष्म पितामह ने राजदूतों की सात योग्यताओं का वर्णन किया है जो इस प्रकार हैं-

  • वह कुलीन परिवार से हों,
  • चरित्रवान हों,
  • वार्तालाप निपुण,
  • चतुर
  • लक्ष्य के प्रति कृत-संकल्प
  • तथा अच्छी स्मर्ण शक्ति वाले होने चाहियें।

महाभारत में उच्च कोटि के कूटनीतिज्ञ्यों का उल्लेख मिलता है जिन में विदुर, कृष्ण तथा शकुनि उल्लेखलीय हैं।   

प्राचीन ग्रन्थों के अतिरिक्त ईसा से चार शताब्दी पूर्व कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में गुप्तचरों का महत्व तथा उन की कार्य शैली के विषय में लिखा है कि मेरे शत्रु का शत्रु मेरा मित्र है। सम्राट चन्द्रगुप्त के दरबार में यूनानी राजदूत मैगेस्थनीज़ के कथनानुसार भारत ने किसी देश पर आक्रमण नहीं किया ना ही इस देश पर किसी बाहरी शक्ति ने आक्रमण किया था। भारत के सभी देशों के साथ मित्रता के सम्बन्ध थे। सम्राट चन्द्रगुप्त के सेल्यूकस निकाटोर के साथ और सम्राट चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दूसार के एन्टोकस के साथ मित्रता पूर्वक राजनैतिक सम्बन्ध थे। इसी प्रकार सम्राट अशोक और सम्राट समुद्रगुप्त ने लंका, पुलास्की, ईरानियों के साथ भी मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे थे। सम्राट हर्ष वर्द्धन नें भी नेपाल तथा चीन के साथ मित्रता के सम्बन्ध बनाये रखे।

राजनैतिक तथा सामाजिक जागृति

‘त्रिमूर्ति’ का विधान फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू के ‘शक्ति विभाजन के सिद्धान्त’ का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उस ने उन्नीसवीं शताब्दी में योरूप वासियों को सिखाया था। ‘त्रिमूर्ति’ में तीन ईशवरीय शक्तियाँ सर्जन, पोषण तथा हनन का अलग अलग कार्य करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं।

प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं लेकिन भारत के देवी देवता भी अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं। पति पत्नी के आपसी सहयोग के बिना कोई भी अनुष्ठान सम्पन्न नहीं माना जाता।

वर्ण व्यवस्था का आधार ‘श्रम सम्मान’, ‘श्रम विभाजन’ तथा सामाजिक वर्गों के बीच ‘परस्पर सहयोग’ पर टिका है। यह सभी तथ्य भारतीयों के राजनैतिक और सामाजिक जागृति के प्राचीन उदाहरण हैं। निश्चय ही हमें पोलिटिकल साईंससीखने के लिये पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के आलेखों के साथ अपनी बुद्धि से भी काम लेना चाहिये।

चाँद शर्मा

26 – हमारी सामाजिक परम्परायें


किसी भी देश या समाज के कानून वहाँ के सामाजिक विकास, सभ्यता, तथा नैतिक्ता मूल्यों के दर्पण होते हैं। जहाँ कोई नियम-कानून नहीं होते वहाँ ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के आधार पर जंगल-राज होता है। आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व समस्त योरूप में जंगल-राज ही था मगर जो लोग यह समझते हैं कि भारत में शिष्टाचार के औपचारिक नियम योरुप वासियों की देन है वह केवल अपनी अज्ञानता का ही प्रदर्शन करते हैं क्यों कि सभ्यता और शिष्टाचार का आरम्भ तो भारत से ही हुआ था। हिन्दू समाज की सामाजिक परम्परायें मानव समाज के और स्थानीय पर्यावरण के सभी अंगों को एक सूत्र में रखने के अभिप्राय से विकसित हुई हैं ताकि ‘जियो और जीने दो ’ के आदर्श को साकार किया जा सकें।

समाज शास्त्र के अग्रिम ग्रंथ मनुसमृति में सभी नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, व्यवसायिक विषयों पर विस्तरित आलेख हैं। मनुस्मृति के पश्चात अन्य स्मृतियां भी समय समय पर सामाजिक व्यवस्था में प्रभावशाली रहीं परन्तु मुख्यतः मूल मनुस्मृति ही सर्वोपरि रही। समय समय पर उन प्रावधानों पर पुनर्विचार और संशोधन भी होते रहे हैं तथा अधिकाँश प्रावधान आज भी सभी मानवी समाजों में वैद्य हैं। केवल उदाहरण के लिये यहाँ कुछ सीमित सी बातों का उल्लेख किया गया है।

सार्वजनिक स्वच्छता  

भोजन तथा स्वास्थ सम्बन्धी व्यवस्थाओं के लिये मनुस्मृति में लिखा है कि आदर की दृष्टी से किया भोजन बल और तेज का देता है, और अनादर की दृष्टी से किया गया भोजन दोनों का नाश कर देता है। किसी को जूठा ना दे और ना किसी का जूठा स्वयं ही खावें। अधिक भोजन न करे और ना ही बिना भोजन कर कहीं यात्रा करे। परोसे गये भोजन की कभी आलोचना नहीं करनी चाहिये। प्रत्येक भोजन के पश्चात दाँत तथा मुख को अच्छी तरह से स्वच्छ करना चाहिये। यह सभी नियम आज भी सर्वमान्य हैं जैसे तब थे। 

किसी को भी नग्न हो कर स्नान नहीं करना चाहिये। जल के स्त्रोत्र में, जुते हुये खेत में, राख के ढेर पर, किसी मन्दिर य़ा अन्य सार्वजनिक स्थल पर मूत्र विसर्जन नहीं करना चाहिये। राख को इस लिये शामिल किया गया है क्यों कि यह सभी पदार्थों को शुद्ध करने का सक्ष्म साधन है। नियमों के उल्लंघन के कारण प्रदूषण सब से बडी समस्या बन चुका है।

भारतीय शिष्टाचार  

सम्बोधन – आजकल अन्य समाजों में माता पिता के अतिरिक्त सभी पुरुषों को ‘अंकल’ और स्त्रियों को आँटी ’ कह कर ही सम्बोधित किया जाता है जो ध्यानाकर्षण करने के लिये केवल औपचारिक सम्बोधन मात्र ही होता है। इस की तुलना में भारतीय समाज में सभी सम्बन्धों को कोई ना कोई विशिष्ट नाम दिया गया है ताकि ऐक दूसरे के सम्बन्धों की घनिष्टता को पहचाना जा सके। कानूनी सम्बन्धों का परिवारों में प्रयोग नहीं होता। किसी को ‘फादर इन ला, मदर इन ला, सन इन ला, या ‘डाटर इन ला कह कर नहीं पुकारा जाता। हिन्दू समाज में सभी मानवी सम्बन्धों को आदर पूर्वक सार्थक किया गया है। सभी सम्बन्ध प्राकृतिक सम्बन्धों से आगे विकसित होते हैं और वह कानून का सहारा नहीं लेते।

आयु का सम्मान – सम्बन्धों में आयु का विशेष महत्व है। अपने अग्रजों को स्दैव उन के सम्बन्ध की संज्ञा से सम्बोधित किया जाता है उन के नाम से नहीं। वरिष्ठ आयु में कनिष्ठों को स्दैव प्रिय शब्द और आशीर्वाद ही प्रदान कर के सम्बोधित करते हैं। यह केवल अग्रजों का विशेष अधिकार है कि वह कनिष्ठों को उन के नाम से पुकारें। आजकल टी वी चैनलों पर बेटे-बेटी की आयु वाले पाश्चातय संस्कृति में ढले एंकर अपने दादा-दादी की आयु वालों को नाम से सम्बोधित कर के अपना संस्कारी दिवालियापन ही परस्तुत करते हैं और इस बेशर्मी को ‘प्रगतिशीलता’ मान बैठे हैं। उन्हें ज्ञात ही नहीं कि उन के पूर्वज मनु नें सभ्य शिष्टाचार की मर्यादायें ईसा के जन्म से कई शताब्दियाँ पूर्व स्थापित कीं थीं। 

प्रत्यभिवादन – प्रत्येक अग्रज तथा कनिष्ठ को अभिवादन का यथेष्ट उत्तर अवश्य देना चाहिये। भारत की यह प्रथा आज सभी देशों के सैनिक नियमों में भी शामिल है।     

          यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।

                 नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः ।। (मनु स्मृति 2- 125-126)

       जो विप्र अभिवादन करने का प्रत्यभिवादन करना नहीं जानता हो पण्डितों को उसे अभिवादन नहीं करना चाहिये। जैसे शूद्र है वैसा ही वह भी है।

गुरू-शिष्य परम्परा – यदि अग्रज अपने स्थान पर ना हों तो उन के आसन पर नहीं बैठना चाहिये तथा परोक्ष में भी गुरु का नाम आदर से लेना चाहिये। गुरु के चलने, बोलने या किसी प्रकार की शारीरिक चेष्टा की नकल नहीं करें। जहाँ गुरु का उपहास अथवा निन्दा होती हो वहाँ कानों को बन्द कर लें अथवा कहीं अन्यत्र चले जायें।

सोये हुए, बैठे हुए, भोजन करते हुए, मुहं फेर कर खड़े हुए गुरु से संभाषण नहीं करना चहिये। यदि गुरु बैठे हों तो स्वयं उठ कर, खड़े हों तो सामने जा कर, आते हों तो उन के सम्मुख चल कर, चलते हों तो उन के पीछे दौड़ कर गुरु की आज्ञा सुननी चाहिये।

अतिथि सत्कार भारतीय समाज में अतिथि को देव तुल्य मान कर सत्कार करने का विधान हैः

                 अप्रणोद्योSतिथिः सायं सूर्योढी गृहमेधिना।

                       काले प्राप्तास्त्वकाले वा नास्यानश्नगृहे वसेत्।। (मनु स्मृति 3- 105)

       सूर्यास्त के समय यदि कोई अतिथि घर पर आ जाये तो उसे नहीं टालना चाहिये। अतिथि समय पर आये या असमय, उसे भोजन उवश्य करा दें।

सेवकों की देख भाल सेवकों के साथ संवेदनशीलता का व्यवहार करने के विषय में विस्तरित विवर्ण मनु स्मृति में हैं जैसे कि –

                भुभवत्स्वथ विप्रेषु स्वेषु भ़त्येषु चैव हि।

                       भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्ठं तु दम्पति।। (मनु स्मृति 3- 116)

पहले ब्राह्मणों को और अपने भृत्यों को भोजन करा कर पीछे जो अन्न बचे वह पति पत्नी भोजन करें।

हिन्दू धर्म में रीति रिवाजों को मानना स्वैच्छिक है, अनिवार्य नहीं है। परन्तु यदि किसी पुजारी से कोई पूजा, अर्चना या विधि करवायी है तो उसे उचित दक्षिणा देना अनिवार्य है। सदा सत्य बोलना चाहिये और प्रिय वचन बोलने चाहिये।

वृद्ध, रोगी, भार वाहक, स्त्रियाँ, विदूान, राजा तथा वाहन पर बैठे रोगियों का मार्ग पर पहला अधिकार होता है।

कुछ प्रावधानों का संक्षिप्त उल्लेख इस लिये किया गया है कि भारतीय जीवन का हर क्षेत्र विस्तरित नियमों से समाजिक बन्धनों के साथ जुडा हुआ है जो वर्तमान में अनदेखे किये जा रहै हैं।

अपराध तथा दण्ड 

आज के संदर्भ में यह प्रावधान अति प्रसंगिक हैं। प्रत्येक शासक  का प्रथम कर्तव्य है कि वह अपराधियों को उचति दण्ड दे। जो कोई भी अपराधियों का संरक्षण करे, उन से सम्पर्क रखे, उन को भोजन अथवा आश्रय प्रदान करें उन्हें भी अपराधी की भान्ति दण्ड देना चाहिये।

मनु महाराज ने बहुत सारे दण्डों का विधान भी लिखा है। जैसे कि जो कोई भी जल स्त्रोत्रों के दूषित करे, मार्गों में रुकावट डाले, गति रोधक खडे करे – उन को कडा दण्ड देना चाहिये।

महत्वशाली तथ्य यह भी है कि मनु महाराज नें रोगियों, बालकों, वृद्धों,स्त्रियों और त्रास्तों को मानवी आधार पर दण्ड विधान से छूट भी दी है।

राजकीय व्यव्स्था को प्रभावशाली बनाये रखने के विचार से अपराधियों को सार्वजनिक स्थलों पर दण्ड देने का विधान सुझाया गया है। लेख को सीमित रखने के लिये केवल भावार्थ ही दिये गये हैं जिन के बारे में वर्तमान शासक आज भी सजग नहीं हैं –

  • गौ हत्या, पशुओं के साथ निर्दयता का व्यवहार करना या केवल मनोरंजन के लिये पशुओ का वद्य करना।
  • राज तन्त्र के विरुद्ध षटयन्त्र करना।
  • हत्या तथा काला जादू टोना करना।
  • स्त्रियों, बच्चों की तस्करी करना तथा माता पिता तथा गुरूओं की अन देखी करना
  • पर-स्त्री गमन, राजद्रोह, तथा वैश्या-वृति करना और करवाना।
  • प्रतिबन्धित वस्तुओ का व्यापार करना, जुआ खेलना और खिलाना।
  • चोरी, झपटमारी, तस्करी, आदि।
  • उधार ना चुकाना तथा व्यापारिक अनुबन्धों से पलट जाना।

असामाजिक व्यवहार

मनु महाराज ने कई प्रकार के अनैतिक व्यवहार उल्लेख किये हैं जैसे किः –

  • दिन के समय सोना, दूसरों के अवगुणों का बखान करना, निन्दा चुगली, अपरिचित स्त्री से घनिष्टता रखना।
  • सार्वजनिक स्थलों पर मद्य पान, नाचना तथा आवारागर्दी करना,
  • सार्वजनिक शान्ति भंग करना, कोलाहल करना।
  • किसी की कमजोरी को दुर्भावना से उजागर करना।
  • बुरे कर्मों से अपनी शैखी बघारना,
  • ईर्षा करना,
  • गाली गलोच करना,
  • विपरीत लिंग के अपरिचितों को फूल, माला, उपहार आदि भेजना, उन से हँसी मजाक करना, उन के आभूष्णों, अंगों को छूना, आलिंगन करना, उन के साथ आसन पर बैठना तथा वह सभी काम जिन से सामाजिक शान्ति भंग हो करना शामिल हैं।

जन क्ल्याण सुविधायें

मनु ने उल्लेख किया है कि शासक को कुयें तथा नहरें खुदवानी चाहियें और राज्य की सीमा पर मन्दिरों का निर्माण करवाना चाहिये। असामाजिक गतिविधियों को नियन्त्रित करने के लिये प्रशासन को ऐसे स्थानों पर गुप्तचरों के दूारा निगरानी रखनी चाहिये जैसे कि मिष्टान्न भण्डार, मद्य शालायें, चौराहै, विश्रामग्रह, खाली घर, वन, उद्यान, बाजार, तथा वैश्याग्रह।

मनु ने जन कल्याण सम्बन्धी इन विष्यों पर भी विस्तरित विधान सुझाये हैं-

  • नाविकों के शुल्क, तथा दुर्घटना होने पर मुआवजा,
  • ऋण, जमानत, तथा गिरवी रखने के प्रावधान,
  • पागलों तथा बालकों का संरक्षँण तथा अभिभावकों के कर्तव्य,
  • धोबीघाटों पर स्वच्छता सम्बन्धी नियम.
  • कर चोरी, तस्करी, तथा मिलावट खोरी, और झोला छाप चिकित्स्कों पर नियंत्रण,
  • व्यवसायिक सम्बन्धी नियम,
  • उत्तराधिकार के नियम  

शासक को जन सुविधायाओं के निर्माण तथा उन्हें चलाने के लिये कर लेना चाहिये। कर व्यवस्था से निर्धनों को छूट नहीं होनी चाहिये अन्यथ्वा निर्धनों को स्दैव छूट पाने की आदत पड जाये गी। आज के युग में जब सरकारें तुष्टिकरण और सबसिडिज की राजनीति करती हैं उस के संदर्भ में मनु महाराज का यह विघान अति प्रसंगिक है। शासकों को व्यापिरियों के तोलने तथा मापने के उपकरणों का निरन्तर नीरीक्षण करते रहना चाहिये। 

तन्त्र को क्रियावन्त रखने के उपाय 

कोई भी विधान तब तक सक्षम नहीं होता जब तक उस को लागू करने के उपायों का समावेष ना किया जाय। इस बात को भी मनु ने अपने विधान में उचित स्थान दिया है। मनुस्मृति में ज्यूरी की तरह अनुशासनिक समिति का विस्तरित प्रावधान किया गया है। विधान में जो विषय अलिखित हैं उन्हें सामन्य ज्ञान के माध्यम से समय, स्थान तथा लक्ष्य पर विचार कर के सुलझाना चाहिये। य़ह उल्लेख भी किया गया है कि ऐक विदूान का मत ऐक सहस्त्र अज्ञानियों के मत के बराबर होता है। वोट बैंक की गणना का कोई अर्थ नहीं।

प्रत्येक विधान तत्कालिक समाज की उन्नति का पैमाना होता है। मनु ने उस समय विधान बनाये थे जब संसार के अधिकतर मानवी समुदाय गुफाओं में रहते थे और बंजारा जीवन से ही मुक्त नहीं हो पाये थे। भारतीय समाज कोई पिछडा हुआ दकियानूसी समाज नहीं था ना ही सपेरों या लुटेरों का देश था जैसा कि योरूपवासी अपनी ही अज्ञानता वश कहते रहे हैं और हमारे अंग्रेज़ी ग्रस्त भारतीय उन की हाँ में हाँ मिलाते रहे हैं। उन्हें आभास होना चाहिये कि आदि काल से ही हिन्दू सभ्यता ऐक पूर्णत्या विकसित सभ्यता थी और हम उसी मनुवादी सभ्यता के वारिस हैं।   

चाँद शर्मा

8 – संसार का प्रशासनिक विधान


यूनानी दार्शनिक अरस्तु तथा योरूप के अन्य राजनीति शास्त्रियों और प्रशासनाचार्यों के जन्म से हज़ारों वर्ष पूर्व भारतीय पौराणिक गृंथों में प्रशासन का जो स्वरूप दर्शाया गया था वह आज भी प्रशासनाचार्यों के लिये ऐक कीर्तिमान है। संसार के प्रशासन का विभागी-करण, उत्तरदाईत्व वितरण, कार्य क्षेत्रों का वर्णन तथा कार्य करने के साधन आज की सरकारों से अधिक सक्ष्म हैं। आधुनिक सरकारों में केवल साधनों और कर्मचारियों के नामों में ही थोड़ा बहुत बदलाव आया है, किन्तु सिद्धाँतों में कोई बदलाव नहीं आया।

भारत के ऋषि-मुनियों ने संसार के प्रशासन की जो व्याख्या की है वही विश्व के अन्य धर्म समुदायों ने भी थोड़ा बहुत स्थानीय फेरबदल कर के अपना है। उन्हों ने केवल देवी देवताओं को स्थानीय भाषा में नाम और परिधान ही बदले कर सभी कुछ भारतीय ही अपनाया है। मानस रुप में सौर मण्डल के सभी ग्रह तथा तत्व प्रशासन कार्यालय में शामिल हैं।

आधुनिक शब्दावली में संसार का प्रशासन मुख्यता इस प्रकार चलता हैः –

देवराज इन्द्र – इन्द्र देवताओं तथा स्वर्ग के अधिपति हैं। संसार में सभी कुछ शक्ति से चलता है अतः वर्षा तथा विद्युत आदि शक्ति के सभी साधन उन के आधीन हैं जो इस सत्य को दर्शाता है कि शक्ति के बिना कोई भी प्रशासन नहीं चल सकता। देवराज इन्द्र का रहन-सहन तथा कार्य शैली उद्योग जगत के किसी भी मुख्य निदेशक के समान ही है। इन्द्र सर्वोच्च सृष्टि कर्ता के प्रधान प्रतिनिधि हैं तथा वह अपनी कार्य सिद्धी के लिये उन सभी साधनों का प्रयोग करते हैं जो आज के युग में अमेरिका, रूस या अन्य किसी भी देश के खुफिया तंत्र इस्तेमाल करते हैं।

साम दाम दण्ड और भेद के सभी हथियारों का आवश्यक्तानुसार प्रयोग करने से इन्द्र कभी भी नहीं हिचकिचाते। यदि उन की सत्ता के विरुद्ध कोई भी खतरा पनपने लगता है तो इन्द्र उस से निपटने के लिये शक्ति के साथ सुरा और सुन्दरी का सहारा भी लेते रहते हैं। उन का वाहन ऐश्वर्य का प्रतीक चिन्ह सफेद हाथी ऐरावत है तथा मुख्य शस्त्र वज्र। सारांश यह कि इन्द्र सभी प्रकार के सुख साधनों से सम्पन्न हैं क्योंकि वह स्वर्ग के स्वामी हैं।

प्रशासक में कलात्मिक रुचि भी होनी चाहिये अतः इन्द्र के चारों ओर अप्सराओं तथा गँधर्वों का जमावडा भी रहता है जो देवताओं के निजि मनोरंजन के अतिरिक्त विश्व में कहीं भी ज़रूरत पड़ने पर कर्तव्य पालन के लिये कृत संकल्प हैं। इन्द्र के अमरावती मुख्यालय से अधिक समर्थवान तथा सुखदायक अन्य कोई सचिवालय संसार में नहीं है।

अग्नि – अग्नि का दर्जा इन्द्र से दूसरे स्थान पर है। देवताओं को दी जाने वाली सभी आहूतियाँ अग्नि के दूआरा ही देवताओं को प्राप्त होती हैं। अग्नि सभी प्राणियों में पाचन शक्ति का प्रतीक है। अर्थात सभी पदार्थ अग्नि में भस्म हो कर ही एक से दूसरे रूप में परिवर्तित होते हैं। चित्रों में अग्नि के दो चेहरे दर्शाये जाते हैं जो स्दैव विपरीत दिशाओं में निहारते रहते हैं। इस का अर्थ अग्नि की सार्थक तथा विनाशक शक्तियों को दर्शाना है। अग्नि पवित्र भी करती हैं तथा भस्म भी करती है।

सूर्य – सूर्य प्रत्यक्ष देवता है जो हमारे सौर मण्डल का केन्द्र है। सौर मण्डल में होने वाली सभी क्रियायें सूर्य की ऊर्जा से ही सम्पन्न होती हैं तथा जीवन के प्रत्येक अंग पर सूर्य का प्रभाव क्षेत्र है। दिन-रात पर सूर्य का ही अधिकार है अतः वह विश्व में समय निदेशक भी है। उस का कार्य-भार सरकार के मुख्य सचिव जैसा है।

वायु – वायु को पवन देव भी कहा जाता है तथा उन के आधीन वह प्राणदायनी शक्ति है जिस के बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता और बिना वायु के सृष्टि का समस्त जीवन क्षण भर में नष्ट हो सकता है। वायु को सर्व व्यापक रहना पडता है। वनस्पतियों की प्रजनन क्रिया (फल-फूल लगना) में वायु का ही मुख्य योगदान है जो स्त्री-पुरुष पौधों को सम्पर्क में लाती है।

वरुण – वरुण जल स्त्रोत्रों का स्वामी है तथा वायु की तरह विश्व की एक अन्य जीवनदायनी शक्ति का संचालन करता है। वरुण को बर्फ के रूप में रिझ़र्व स्टाक रखना पडता है और बादल के रूप में सभी जगहों पर आपूर्ति भी करना पडती है। अगर यही काम आजकल के किसी भ्रष्ट ठेकेदार के हाथ में होता तो सोचिये क्या स्थिति बन गयी होती।

यमराज – यमराज सृष्टि में मृत्यु के विभागाध्यक्ष हैं। सृष्टि के समस्त प्राणियों के भौतिक शरीरों को नष्ट कर के उन के तत्वों को पुनः रीसाईकिलिंग करना ही उन का मुख्य उत्तरदाईत्व है। य़मराज के बिना पृथ्वी पर ही जीवन नरक समान हो जाये गा क्योंकि मृत्यु के अभाव में चंगेज़खाँ, बाबर, औरंगज़ेब तथा नादिरशाह जैसे दुष्ट पात्र आज भी हमारे जीवन को त्रासित कर रहे होते। यमराज विश्व में बदलाव के निमित हैं। विश्व की सब से बडी म्युनिस्पेलिटी के महापौर यमराज ही हैं।

कुबेर – कुबेर धन के अधिपति है तथा उन की छवि की तुलना किसी भी अर्थ शास्त्री या किसी भी वित्त मंत्री से कर सकते हैं। कुबेर देते ही है लेकिन बदले में वह कोई कर वसूल नहीं करते। ऐसी व्यव्स्था और किसी आदर्श सरकार में नहीं है।

मित्रः – मित्रः इमानदारी, मित्रता तथा व्यव्हारिक सम्बन्धों के प्रतीक देवता हैं। तुलनात्मक तौर पर उन्हें आधुनिक युग के किसी वरिष्ठ जन-सम्पर्क ऐवं स्तर्कता विभागाध्यक्ष का अग्रज कहा जा सकता है।

कामदेव – कामदेव स़ृष्टि में समस्त प्रजन्न क्रिया के निदेशक हैं। उन की पत्नी रति की तुलना विश्व-सुन्दरी से की जा सकती है तथा रति-कामदेव दम्पति आधुनिक युग में भी प्रेम प्रसंगों की सभी कल्पनाओं के प्रेरणादायक हैं । उन के बिना सृष्टि की कलपना ही नहीं की जा सकती। पौराणिक कथानुसार कामदेव का शरीर भगवान शिव ने भस्म कर दिया था अतः उन्हें अनंग ( बिना शरीर ) भी कहा जाता है। इस का अर्थ यह है कि काम एक भाव मात्र है जिस का भौतिक वजूद नहीं होता। युवा रति-कामदेव दम्पति का तो प्रसंगिक औचित्य है लेकिन उन के समक्ष हाथ में पुष्प बाण लिये अधनंगे बाल रूपी रोमन क्यूपिड में चुलबुले पन के अतिरिक्त कोई औचित्य नहीं।

आदिति – आदिति को भूत, भविष्य, चेतना, तथा उपजाऊपन की देवी माना जाता है।

धर्मराज और चित्रगुप्त – संसार के लेखा जोखा कार्यालय को सम्भालते हैं और यमराज, स्वर्ग, तथा नरक के मुख्यालयों में ताल-मेल भी कराते रहते हैं।

सृष्टि के प्रशासन से सम्बन्धित देवी तथा देवताओं की सूची बहुत लम्बी है। यहाँ संक्षिप्त में केवल मुख्य देवों का ही चित्रण तथा उल्लेख किया गया है जो इस तथ्य को उजागर करता है कि प्राचीन काल में भी स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों की विचार धारा प्रशासन के क्षेत्र में कितनी सशक्त और यथार्थयुक्त थी। भारत केवल सपेरों का ही देश नहीं था अपितु आधुनिक प्रशासकों का मार्ग दर्शक भी था। प्रशासन के सभी कार्यक्षेत्रों का सुन्दर और सरल तरीके से व्यक्तिकरण कर दिया गया है।

अन्य धर्मों में तो अल्लाह और गाड सभी कार्य अपने पैगम्बर या पुत्र के माध्यम से ही करते है लेकिन हिन्दू विचार धारा में सभी प्राणी जिन में पशु पक्षी भी शामिल हैं सृष्टि के विधान में अपना अपना योग्दान देते रहते हैं। इसी लिये हिन्दूओं के पास 33 करोड देवी देवता हैं जो सृष्टि के विशाल प्रजातन्त्र को चलाते हैं और इसी तालमेल को हम आज इकोलोजिकल बैलेंस कहते हैं।

नारी प्रतिनिधित्व

विश्व में अपने प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं। इन की तुलना में हिन्दू समाज ने स्त्रियों की अनदेखी कभी नहीं की। सम्स्त प्राणियों के वैवाहिक सम्बन्धों को भी महत्व दिया गया है। उत्तरदाईत्व का वितरण स्त्री-पुरूषों के परस्परिक सम्बन्धों के अनुकूल ही किया गया है। वरदान देने तथा श्राप देने की क्षमता ईश्वरीय दम्पतियों में भी समान है। देवी देवता अकेले नहीं है और अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं।

त्रिमूर्ति –  भगवान ब्रह्मा – सरस्वती (सर्जन तथा ज्ञान), विष्णु -लक्ष्मी (पालन तथा साधन), और शिव – पार्वती (विसर्जन तथा शक्ति) का परस्पर सम्बन्ध प्रसंगिक है। कार्य विभाजन अनुसार पत्नीयां ही पतियों की शक्तियाँ हैं। सृजन के लिये विद्या की, पौषण के लिये धन की तथा विध्वंस और रक्षा के लिये शक्ति की आवशयक्ता पड़ती है। त्रिमूर्ति की स्त्री शक्तियाँ भी अपने हाथों में पुष्प एवं शस्त्र धारण करती हैं जो विद्या, धन तथा शक्ति की सृजनता और ध्वंस करने की क्षमता का प्रतीक है।

अन्य देवी देवताओं का दाम्पत्य चित्रण भी इसी प्रकार प्रसंगिक है। कुछ अन्य पौराणिक देवगण यह हिन्दू धर्म की विचारधारा की विशालता है कि स्नातन धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की गणना करी जाती है क्यों कि वसुदैव कुटुम्बकम की भावना को सार्थक करने कि लिये हर प्राणी के जीवन को महत्व दिया गया है।

छोटा बडा कोई नहीं सभी अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं किन्तु सभी का वर्णन करना सम्भव नहीं। कुछ जाने पहचाने देवों की व्याख्या ही यहाँ की गयी हैः –

गणेष – गणेष बुद्धिमता के देव हैं तथा विघ्न नाशक माने जाते हैं। ऋद्धि और सिद्धी उन की पत्नियाँ हैं। पूजा–अर्चना में सर्व प्रथम गणेष जी की पूजा का विधान है क्यों कि बुद्धिमता के दुआरा ही सभी बाधाओं को दूर किया जा सकता है। गणेष का शरीर मानव जैसा है किन्तु उन का शीश हाथी का है। उन का वाहन चूहा होता है। प्रकृति के एक छोटे से जीव का वाहन होना तथा प्रकृति के एक बड़े जीव का शीश धारण करना प्राणियों की उत्पति तथा विकास की परिक्रिया को भी दर्शाता है कि चूहा क्रमशः हाथी और फिर मानव में विकसित होता है। छोटे बडें सभी जीव परियावरण में ऐक दूसरे पर आश्रित हैं।

कार्तिकेय – कार्तिकेय वीरता के देव हैं तथा वह देवताओं के सेनापति हैं। उन का वाहन मोर है तथा वह भगवान शिव के पुत्र हैं।

देवऋर्षि नारद – नारद देवताओं के ऋषि हैं तथा चिरंजीवी हैं। वह तीनों लोकों में विचरने में समर्थ हैं। उन को आधुनिक संदेशवाहकों का अग्रज कहना उचित होगा। सृष्टि में घटित होने वाली सभी घटनाओं की जानकारी देवऋषि नारद के पास होती है तथा ऐक निजि सचिव की भान्ति स्दैव ईश्वर के सम्पर्क में रहते हैं। एक परम कुशल संदेशवाहक की तरह वह किसी भी स्थान पर किसी भी समय पहुँच सकते हैं। देवऋषि नारद उपने ऊपर कटाक्ष करने में अपनी ऐक ही मिसाल हैं। यह अत्यन्त शर्मनाक बात है कि देवऋर्षि नारद को चल-चित्रों तथा नाटकों में एक विदूषक की छवि में परस्तुत किया जाता है य़ा व्यंगात्मक ढंग से किसी भी चुगलखोर की तुलना उन से की जाती है। देवऋर्षि नारद सर्वोच्च ऋषि हैं।

हनुमान – हनुमान जी भी चिरंजीवी हैं। उन को एक आदर्श, निस्वार्थ, एवं कर्मठ योगी के रूप में दर्शाया जाता है। उन्हों ने अपने आप को प्रभु राम की सेवा के लिये पूर्णतया समर्पित कर दिया था। सेवा भाव के अतिरिक्त हनुमान जी विनम्र, बलशाली, बुद्धिमान आठ सिद्धियों के स्वामी हैं। यह सिद्धियाँ अणिमा (अदृष्य होना), लघिमा (अपना रूप सूक्ष्म कर के गुप्त होना) गरिमा (अपना रूप विशाल कर लेना) प्राप्ति (किसी भी अभिलाषित वस्तु की प्राप्ति होना) प्राकाम्यं (मन चाहा कार्य हो जाना), महिमा (अपना स्वरूप विशाल कर लेना), ईशित्वं (इश्वर की तरह शक्ति पा लेना), और वशित्वं (किसी को भी वश में कर लेना) हैं।

विचार करें तो इन में से कई सिद्धियाँ आज कम्प्यूटर की एनीमेशन तकनीक से कोई भी साधारण मानव यथार्थ कर सकता हैं। जो भ्रम आज कम्प्यूटर टच स्क्रीन के माध्यम से पैदा किया जा सकता है वही यदि योग साधना से अगर हनुमान जी ने प्राप्त किया हो तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। हनुमान जी ने कभी अपने बल अथवा बुद्धी पर गर्व नहीं किया।

हिन्दू धर्माचार्यों ने दार्शनिक्ता की सूक्ष्म विचारधारा के विकास को चित्रों एवं पौराणिक कथाओं के माध्यम से जन-साधारण तक पहुंचाने की कोशिश लगातार की है। एक ओर ऋषि मुनियों की जटिल दार्शनिक्ता का सूक्ष्म ज्ञान वैज्ञियानिक तर्क की हर कसौटी पर खरा उतरता रहा है ता दूसरी ओर सूक्ष्म ज्ञान का मानवीकरण कर के उसे कथाओं तथा चित्रों के माध्यम से जन-साधारण तक भी पहुँचाया गया है।

सूक्ष्म ज्ञान तथा पौराणिक संग्रहों में समयानुसार यथोचित संशोधन भी होते रहे हैं। इस ज्ञान का भण्डार हमारे पास वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों, पुराणों तथा महा-काव्यों के साहित्य में आज भी संकलित तथा सुरक्षित है।

हिन्दू धर्म कोरा पैग्निज़िम या अन्ध-विशवास नहीं अपितु यथार्थवाद तथा कल्पना का सृजनात्मक मिश्रण है।

चाँद शर्मा

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