हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

Posts tagged ‘अग्नि’

36 – तकनीकी उपलब्द्धियाँ


हिन्दू शास्त्रों में विश्वकर्मा को समस्त सर्जन कलाओं का अग्रज माना जाता है। भारत के इंजिनियर तथा कारीगर आज भी प्रत्येक शुभ कार्य को आरम्भ करने से पूर्व सर्व प्रथम विश्वकर्मा की पूजा करते हैं। देवी देवताओं के अस्त्र शस्त्रों के निर्माण का श्रेय भी विश्वकर्मा को ही प्राप्त है। विश्व के अन्य देशों में तकनीक और आविष्कार का उदय आकस्माक हुआ। उस के विपरीत भारत में तकनीक और अविष्कार लगातार कोशिशों और अनुभवों के आधार पर हुये हैं।

विश्वकर्मा ने विष्णु का सुदर्शन चक्र, रामायण का शिव-धनुष, तथा अर्जुन का गाँडीव धनुष बनाया था। विश्वकर्मा ने ही इन्द्रप्रस्थ के आश्चर्य जनक भवन, इन्द्र की राजधानी अमरावती, तथा कुबेर का पुष्पक-विमान बनाया था, जिसे रावण ने कुबेर से छीन लिया था। पुष्पक विमान सात मंजिला पाँच सितारा होटल जैसा था और मन की गति से चलता था। वह अमेरिका के ऐयर फोर्स वन विमान से कहीं अधिक आधुनिक था। आज कल टच-स्क्रीन तकनीक की सहायता से हम मन वाँच्छित आँकडे प्राप्त कर सकते हैं, सटैल्थ बम-वर्षक विमान भी बन चुके हैं तीन मंजिला जुम्बो जेट भी उडान भरते हैं, परन्तु पुष्पक विमान जैसी तकनीक अभी तक विकसित नहीं हुई है। यह हमारी इच्छा पर निर्भर है कि हम चाहें तो इन्हें आस्था माने या खोया हुआ इतिहास, लेकिन इस में कोई शक नहीं कि उन सम्भव होने वाले सभी आविष्कारों की कल्पना तो हम भारत वासियों ने ही करी थी।

पहिये का अविष्कार

पहिये का अविष्कार मानव विज्ञान के इतिहास में अभूतपूर्व उपलब्द्धी थी जिस के बल पर मानव ने गति को दिशा परिवर्तन और तीव्रता प्रदान की है। पता नहीं क्यों पहिये के अविष्कार का श्रेय इराक को दिया जाता है जहाँ रेतीले मैदान हैं, जबकि सर्वप्रथम हम पौराणिक चित्रों में सुदर्शन चक्र के माध्यम से ही पहिये का साक्षाताकार करते हैं। रामायण महाभारत काल से पहले ही पहिये का चमत्कारी आविष्कार भारत में हो चुका था और रथों में पहियों का प्रयोग किया जाता था। जब कि इराक के लोग उन्नीसवीं सदी तक रेगिस्तान में ऊँटों की सवारी करते हैं और योरूपीय साँटाकलाज़ को भी बिना पहिये की गाडी सलैज पर ही आता जाता दिखाया जाता है।

पहिये की तकनीक के सहारे याँत्रिक मशीनों और उपकरणों में शक्ति को निरन्तरता, गति तथा दिशा प्रदान करी जाती है। आधुनिक विज्ञान की प्रगति में  पहिये का महत्व सर्वाधिक है। विश्व की सब से प्राचीन सभ्यता सिन्धु घाटी के अवशेषों से प्राप्त (ईसा से 3000-1500 वर्ष पूर्व की बनी) खिलोना हाथ गाडी भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रमाणित करती है कि विश्व में पहिये का निर्माण इराक में नहीं बल्कि भारत में ही हुआ था।  

चरखा चक्र

चरखा चक्र निस्संदेह भारत की अन्य देन है। इस के आविष्कार से वस्त्रों के उत्पादन का खर्चा कम हुआ तथा कालान्तर चरखा चक्र के साथ पेटी जोड कर शक्ति वितरण की तकनीक भी आई। यह अविष्कार अत्यन्त महत्वशाली था क्यों कि इस प्रयोग से भारत ने योरूप को निरन्तर चाल का विचार दिया जिस के कारण आज के युग में याँत्रिक (मेकेनिकल) प्रगति सम्भव हुयी है। इस खोज का श्रेय भास्कराचार्य को जाता है। भारत से यह तकनीक अरबों के माध्यम से योरूप पहुँची थी और आज समस्त विश्व में वैज्ञिानिक प्रगति का माध्यम बनी है।

राजाभोज के समय की ‘समरांगणा सूत्रधारा’ (1100 ईस्वी) में कई याँत्रिक खोजो का वर्णन है जैसे कि चक्री (पुल्ली), लिवर, ब्रिज, छज्जे (केन्टीलिवर) आदि। कालान्तर अरब वासियों ने उन्हें सीखा और अरबी फारसी भाषाओं के माध्यम से डा विंसी के मैकेनिक आलेखों दूारा योरुपवासियों में उन्हीं तकनीकों को प्रचारित किया। कदाचित योरुप वासियों ने यह अनुमान भी लगा लिया कि यह सभी अविष्कार अरबों ने किये।

धातु तथा खनिज

धातुओं तथा खनिजों के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुयी थी। ईसा से तीन हज़ार वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी क्षेत्र में स्वर्ण, चाँदी, तथा ताँबे की खदाने थीं। वैदिक काल में ताँबे, काँसे, तथा पीतल का प्रयोग घरेलू बर्तन बनाने, अस्त्र – शस्त्र तथा मूर्तियों के निर्माण में होता था। जहाँ अन्य देशों के माईथोलोजिकल देवी देवता पशुओं के सींगों वाले मुकट पहने चित्रित किये जाते हैं वहीं भारत के देवी देवता स्दैव सुवर्ण-रत्न जटित मुकट पहने होते हैं। 

पातञ्जली ऋषि ने लोहशास्त्र ग्रन्थ में धातुओं के प्रयोग से कई प्रकार के रसायन, लवण, और लेप बनाने के निर्देश दिये हैं। धातुओं के निरीक्षण, सफाई तथा निकालने के बारे में भी निर्देश हैं। स्वर्ण तथा पलेटिनिम को पिघलाने के लिये अकुआ रेगिना तरह का घोल नाइटरिक एसिड तथा हाइड्रोक्लोरिक एसिड के मिश्रण से तैय्यार किया जाता था। तथा इस का श्रेय भी पातञ्जली ऋषि को जाता है।

मनु समृति में भी धातुओं को शुद्ध करने के बारे में उल्लेख मिलता हैः-

       अपामग्नेश्च संयोगाद्धेमं रौप्यं च निर्वभो।

                 तत्मात्तयोः स्वयोन्यैव निर्णेको गुणवत्तरः ।।

                         ताम्रायः कांस्यरैत्यानां त्रपुणः सीसकस्य च।

                                 शौचं यथार्हं कर्तव्यं क्षारोम्लोदकवारिभिः ।। (मनु स्मृति5- 113-114)

अग्नि और जल के संयोग से सोना और चाँदी उत्पन्न होते हैं, इसलिये दोनो की शुद्धि अपने उत्पादक जल और अग्नि से ही श्रेष्ठ होती है। ताँबा, लोहा, काँसा, पीतल, राँगा और शीशा, इन की यथायोग्य क्षार, खटाई और जल से शुद्धि करनी चाहिए।

रसायन शास्त्र तथा धातु शास्त्र

भारत में रसायन शास्त्र की उपलब्द्धियाँ चिकित्सा, धातुविज्ञान तथा निर्माण के क्षेत्र से प्राप्त हुयीं। कौटिल्लय रचित अर्थशास्त्र में बाँधों तथा पुलों का वर्णन है जिन में झूलापुल (सस्पैन्शन ब्रिज) का भी वर्णन है। कृषि का विकास भी ईसा से 4500 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी में हुआ था। सिंचाई तथा जल संग्रह की उत्तम व्यवस्था के अवशेष गिरनार (ईसा से 3000 वर्ष पूर्व) में देखे जा सकते हैं। भूतल पर बने स्नानागार, जिन में भट्टियों में सेंके गये पक्की मिट्टी के पाईप नलियों के तौर पर प्रयोग किये गये थे तथा 7-10 फुट चौडी और धरती से दो फुट अन्दर नालियाँ बनी थीं। हडप्पा के लोग तांम्बे, पीतल, काँसे की धातुओं का प्रयोग करना जानते थे। वहाँ से प्राप्त तलवारें ताँम्बे की बनी हुयी थीं। 

गुप्त काल से ही रोम वासी भारत को उद्यौगिक तथा सैनिक महाशक्ति के रूप में देखते थे। रसायनों का प्रयोग रंगाई, टेनिंग, साबुन निर्माण, सीमेन्ट निर्माण, तथा दर्पण निर्माण आदि के क्षेत्रों में अधिक होता था। दूसरी शताब्दी में नागार्जुन नें पारा धातु के बारे में मौलिक ग्रन्थ लिखा था। छटी शताब्दी से ही भारतीय रसायन प्रयाग से केलसीनेशन, डिस्टिलेशन, स्बलीमेशन, स्टीमिंग, फिक्सेशन, तथा बिना गर्मी के हल्के इस्पात निर्माण के क्षेत्र में भारतीयों की उपलब्धी योरूपवासियों से कहीं अधिक थी। भारत में कई प्रकार के खनिज लवण, चूर्ण और रसायन तैय्यार किये जाते थे।  

ईसा से लगभग 150 वर्ष पूर्व भारतीयों को लोहा तथा मिश्र धातुओं के प्रयोग से इस्पात बनाने में सर्वाधिक निपुणता प्राप्त की थी जिस के प्रमाण ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई के उपरान्त मिले हैं। इस के अतिरिक्त भारतियों को जिस्त मिश्रण तथा पीतल आदि धातुओं का भी ज्ञान था।जिस्त की तकनीक भारत से चीन तथा योरूप गयी। 1735 ईस्वी तक योरूप के रसायन शास्त्री यही समझते थे कि जिस्त को धातु के रूप में ताँबे के बिना नहीं बदला जा सकता।

धातु उत्पादन

धातुओं का प्रयोग चिकित्सा क्षेत्र में भी होता था। कई तरह के रसायन, सोने चाँदी की भस्म, तथा वर्क प्रयोग किये जाते थे। दक्षिण भारत धातु उद्योग के लिये प्रसिद्ध था तथा वहाँ के उत्पादन विश्व विख्यात थे, विशेष तौर परः-

  • कर्नाटक –कर्नाटक पतले और महीन तारों के उत्पादन में प्रसिद्ध था जो संगीत वाद्यों में इस्तेमाल किये जाते थे। उस समय पाश्चात्य तथा अन्य देशों के वाद्य यन्त्रों में तारों के स्थान पर जानवरों की अन्तडियों का प्रयोग किया जाता था।
  • केरल केरल लोहे को भट्टियों में ढालने के लिये प्रसिद्ध था। इस के अतिरिक्त केरल के धातु विशेषज्ञ्य धातु को विशेष प्रकार की तकनीक से दर्पण बनाने में भी प्रयोग करते थे जैसा कि अरनमला में किया गया है।
  • तामिल नाडु – तामिल नाडु से उत्तम प्रकार का इस्पात रोम के अतिरिक्त समस्त विश्व को निर्यात किया जाता था।
  • आन्ध्र आन्ध्र प्रदेश का कोनास्मुद्रम विश्व प्रसिद्ध वूटस – स्टील उत्पादन के लिये जाना जाता था। यह इस्पात अस्त्र-शस्त्र बनाने में प्रयोग होता था। सुलतान सलाहुद्दीन की दमस्कस तलवार इसी धातु से निर्मित हुई थी। भारत में लोहे से इस्पात बनाने की कला का प्रति स्पर्धी अन्य कोई देश नहीं था।
  • राजस्थान – ईसा से  400 वर्ष पूर्व उदयपुर के समीप झावर में जिंक की खाने थीं 

झेलम के राजा पोरस ने विश्व-विजेता सिकंदर को उपहार स्वरूप स्वर्ण या रजत नहीं भेजे थे अपितु उसे 30 पाऊड उच्च कोटि का भारत निर्मित इस्पात उपहार में दिया था। कालान्तर मुसलिम कारीगर भारत के धातु ज्ञान को पूर्व ऐशिया, मध्य ऐशिया तथा योरूप में ले गये और उसी प्रणाली से दमस्कस तलवारों का निर्माण किया। यह तकनीक भारत से ईरान तथा ईरान से अन्य मुसलिम देशों के माध्यम से योरूप गयी।

नटराज की प्रतिमा पाँच धातुओं के मिश्रण से बनी है। यूनानी इतिहासकार फिलोत्रस ने भी अपने उल्लेखों में दो से अधिक धातुओं के मिश्रण की भारतीय तकनीक का वर्णन किया है। हिन्दू मन्दिरों के कलश स्दैव स्वर्ण, पीतल तथा अन्य धातुओं के मिश्रण से तैय्यार होते थे। 

तकनीकी मापदण्डों का निर्माण

  • छटी शताब्दी में यतिव्रासाभा ने अपनी कृति तिलोयापन्नति में समय तथा दूरी मापने के लिये तालिकायें बनाईं तथा अनिश्चित समय के मापने के परिमाणों का निर्माण किया।
  • यकास्पति मिश्र ने डेस्कारटेस (AD 1644). से आठ सौ वर्ष पूर्व (840 ईस्वी) में अपनी कृति न्यायसुचिनिबन्ध में सोलिड कोर्डिनेट ज्योमैट्री का उल्लेख किया।  उस ने यह भी बताया कि किसी भी अंतरीक्ष में ऐक कण की स्थिति अन्य स्थित चिन्ह से तीन काल्पलिक रेखाओं के मिलान और माप से आँकलन की जा सकती है।
  • न्याय विशेषिका के खगोल शास्त्रियों ने सूर्य दिवस की अवधि 1,944,000 क्षण मापी। ऐक क्षण आधुनिक सैकिण्ड के दशमलव 044 भाग के बराबर होता है। ऐक ‘त्रुटि’ को समय के लिये सब से छोटा मापदण्ड माना गया है।
  • शिल्पशास्त्र में लम्बाई मापने कि लिये सब से छोटा मापदण्ड ‘पारामणु’ था जो आधुनिक इंच के 1/349525 भाग के बराबर है। यह मापदण्ड न्याय विशेषिका के ‘त्रास्रेणु’ (अन्धेरे कमरे में आने वाली सूर्य किरण की रौशनी में दिखने वाला अति सूक्षम कण) के बराबर था।  वराहमिहिर के अनुसार 86 त्रास्रेणु ऐक उंगली के बराबर (ऐक इंच का तीन चौथाई भाग) होते हैं। 64 त्रास्रेणु ऐक बाल के बराबर मोटे होते हैं।

दिल्ली का लोह स्तम्भ

भारत के लोहे तथा इस्पात की कई विशेषतायें थी। वह पू्र्णतया ज़ंग मुक्त थे। इस का प्रत्यक्ष प्रमाण पच्चीस फुट ऊंचा कुतुब मीनार के स्मीप दिल्ली स्थित लोह स्तम्भ है जो लग भग 1600 वर्ष पूर्व गुप्त वँश के सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल का है और धातु ज्ञान का आश्चर्य जनक कीर्तिमान है। इस लोह स्तम्भ का व्यास 16.4 इन्च है तथा वज़न साढे छः टन है। 16 शताब्दियों तक मौसम के उतार चढाव झेलने के पश्चात भी इसे आज तक ज़ंग नहीं लगा। कुछ प्रमाणों के अनुसार यह स्तम्भ  पहले विष्णु मन्दिर का गरूड़ स्तम्भ था। मुस्लिम शासकों ने मन्दिर को लूट कर ध्वस्त कर दिया था और स्तम्भ को उखाड कर उसे विजय चिन्ह स्वरूप ‘कुव्वतुल-इसलाम मसजिद’ के समीप दिल्ली में गाड़ दिया था।

हाल ही में ईन्डियन इन्टीच्यूट आफ टेकनोलोजी कानपुर के विशेषज्ञ्यों नें स्तम्भ का निरीक्षण कर के अपना मत प्रगट किया है कि स्तम्भ को जंग से सुरक्षित रखने के लिये उस पर मिसाविट नाम के रसायन की  ऐक पतली सी परत चढाई गयी थी जो लोह, आक्सीजन तथा हाईड्रोजन के मिश्रण से तैय्यार की गयी थी। यही परिक्रिया आजकल अणुशक्ति के प्रयाग में लाये जाने वाले पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिये डिब्बे बनाने में प्रयोग की जाती है। सुरक्षा परत को बनाने में उच्च कोटि का पदार्थ प्रयोग किया गया था जिस में फासफोरस की मात्रा लोहे की तुलना में एक प्रतिशत के लगभग थी। आज कल यह अनुपात आधे प्रतिशत तक भी नहीं होता। फासफोरस का अधिक प्रयोग प्राचीन भारतीय धातु ज्ञान तथा तकनीक का प्रमाण है जो धातु वैज्ञ्यिानिकों को आश्चर्य चकित कर रही है।

आजकल विकसित देश टेक्नोलोजी ट्राँसफर को हथियार बना कर अविकसित देशों पर आर्थिक दबाव बढाते हैं। जो लोग पाश्चात्य तकनीक की नकल करने की वकालत करते हैं उन्हें स्वदेशी तकनीक पर शोध करना चाहिये ताकि हम आत्म निर्भर हो सकें।

चाँद शर्मा

 

 

 

35. भारत का भौतिक ज्ञान


दार्शिनक्ता और वैज्ञानिक्ता का घनिष्ट सम्बन्ध है। ‘दार्शनिक’ आविष्कारों की कल्पना करता है जिसे ‘वैज्ञानिक’ साकार कर देता है। पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के जन्मदाता अरस्तु आदि भी दार्शनिक ही थे। विचार आविष्कारों से पूर्व उजागर होते हैं तथा दीर्घायु होते हैं। तकनीक विचारों को साकार करती है किन्तु उस में बदलाव तेजीं से आते हैं। नयी तकनीकें पुरानी तकनीकों का स्थान ले लेती हैं जैसे कि ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर संदेश भेजने के लिये आवाज को विद्युत तरंगों में बदल देने का विचार आज भी पुरातन है किन्तु उसे भेजने की तकनीक तार से आरम्भ हो कर, बेतार, मोबाईल फोन, सैटेलाईट चैनल आदि के कितने ही रूप ले चुकी है। दार्शनिक विचारों की कल्पना के सहारे ही वैज्ञानिक आविष्कार होते हैं।

भौतिक ज्ञान का आरम्भ 

आज भौतिक शास्त्र की पुस्तकों में पढाया जाता है कि “पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं जिन्हें ठोस, तरल, और गैस की श्रेणी में में रखा जा सकता है”। यह पदार्थों का केवल दिखावटी तथ्य है। आधुनिक विज्ञान को सर्वप्रथम वेदों से ज्ञात हुआ था कि सृष्टी में मौलिक पदार्थ केवल पाँच महाभूत पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ही हैं। अन्य सभी पदार्थ उन्हीं पाँच महाभूतों के भिन्न भिन्न मिश्रण हैं। इसी मूल तथ्य से ही संसार का भौतिक विज्ञान विकसित हुआ है। सर्वप्रथम मानव ने नक्षत्रो, ग्रहों, ऋतुओं तथा वनस्पतियों से प्रत्यक्ष साक्षाताकार कर के प्राकृति के भौतिक स्वरूप में कारण और प्रभाव के सम्बन्धों को जाना है। 

वैदिक साहित्य में भौतिक ज्ञान

प्राचीन काल में आज की तरह की के वैज्ञानिक लेख नहीं लिखे जाते थे। विश्व की सभी भाषाओं में लेखन कार्य सर्व प्रथम पद्य रचना में ही होता था। मन्त्र-लेखन किसी भी तथ्य को सूक्षम कर के समर्ण-योग्य बनाने की शैली है। वैदिक साहित्य में भौतिक तत्वों और प्राकृतिक शक्तियों की देवता के रूप में स्तुति कर के उन के लक्षण, गुणों तथा उपयोग का उल्लेख किया गया है। वेदों के अतिरिक्त आध्यात्मवाद और भौतिक शास्त्र के अग्रिम ग्रंथ उपनिष्द, दर्शनशास्त्र और पुराण हैं। इन ग्रंथों के मंत्रों में अध्यात्मवाद के साथ पदार्थों की विशोषताओ (प्रापरटीज), का वर्णन भी दिया गया है।

अथर्व वेद के अनुसार जगत में सात ‘तत्व’ – धरा, जल, तेज, वायु, क्षितिज, तन्मात्रा, और घमण्ड हैं। उन के अतिरिक्त तीन ‘गुण’ सत्तव, रज और तम हैं। इन्हीं सात पदार्थों और तीन गुणों के मिश्रण से 21 ‘पदार्थों’ की रचना होती है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, और मन, यह नौ ‘द्रव्य’ हैं जिन की विशेषतायें भौतिक शास्त्र की वैज्ञानिक भाषा में ही इस प्रकार से व्यक्त की गयी हैं –

पृथ्वी पृथ्वी में गन्ध, रस, रुप और स्पर्श चार गुण (प्रापरटीज) हैं जिन में से गन्ध मुख्य है।

जल – जल में रस, रूप और स्पर्श तीन गुण हैं जिन में से रस मुख्य है। जल की पहचान शीत स्पर्श है। जल में जो ऊष्णता होती है वह अग्नि की है।

अग्नि अग्नि की पहचान स्पर्श है, रूप और स्पर्श दो गुण हैं जिन में से रूप मुख्य है।

वायु – वायु की पहचान ऐक विलक्षण स्पर्श हैं।

आकाश – आकाश की पहचान शब्द है। जहाँ शब्द है वहाँ आकाश भी है। आकाश का कोई शरीर नहीं। कर्ण छिद्र के अन्दर का आकाश स्रोत्र है।

काल काल सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होता है जैसे – ‘यह जल्दी हो गया’ और ‘वह देर से हुआ’ आदि। व्यवहार के लिये पल, घडी, दिन, महीना, वर्ष, युग, भूत भविष्य और वर्तमान आदि अनेक भेद कल्पना से कर लिये जाते हैं।

दिशा व्यवहार के लिये दिशायें दस प्रकार की हैं जो काल की तरह ही सारे कार्यों की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश में निमित्त होती हैं।

आत्मा आत्मा की पहचान चैतन्य ज्ञान है। ज्ञान इन्द्रियों का गुण नहीं क्यों कि किसी इन्द्री के नष्ट हो जाने पर भी उस के पहले अनुभव किये हुए विषय की समृति रहती है। अनुभव करने वाला इन्द्रियों से भिन्न है। इच्छा, देूष, प्रयत्न, सुख दुःख भी शरीर से अलग हो कर आत्मा की पहचान कराते हैं।

मन मन इन्द्रियों की तरह सुख दुःख के ज्ञान का साधन है।

शुष्क वैज्ञानिक तथ्यों को मनोरंजक कथाओं के माध्यम से जन साधारण तक पहुँचाना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है। वैज्ञानिक भौतिक तथ्यों के मोती भारत के प्राचीन साहित्य में जहाँ तहाँ बिखरे पडे हैं जैसे किः-

  • कृषि, चिकित्सा, खगोल तथा गणित, अंकगणित, और साँक्रमिक आदि से सम्बन्धित तथ्यों का भौतिक ज्ञान ऋगवेद 1-71-9,4-57-5 तथा सामवेद 121 में संकलित है। इस ज्ञान के प्रयोग से जन साधारण के दुःख दूर किये जा सकते हैं। (ऋगवेद 1-34-1 से 5, 5-77-4)
  • जल, वायु तथा अग्नि की विशेषतायें तथा विमानों और वाहनों के निर्माण के लिये उन के प्रयोग के बारे में उल्लेख किया गया है। (ऋगवेद 1-3-1,2,1-34-1,1-140-1)
  • अणु कणों, ईश्वर्य शक्ति तथा उस के गुणों के पदार्थों में समावेश के बारे में ऋगवेद 5-47-2 तथा सामवेद 222 में उल्लेख किया है।
  • भौतिक ज्ञान सम्बन्धी परिभाषायें तथा गुण यजुर्वेद 18-25 में उल्लेखित हैं।
  • आधुनिक भौतिक शास्त्रियों का मत है कि सूर्य कि किरणें सीधी रेखा के विपरीत कमान की भाँति धरती पर उतरती हैं। यही तथ्य हमारे पूर्वजों ने कलात्मिक ढंग से बताया है – भुजंगनः मितः सप्तः तुर्गः – कि सूर्य  के रथ को सर्पों से बन्धे हुये सात घोडे खींच कर चलते हैं। सर्प सीधी लाईन में नहीं चलते टेढें मेढे़ चलते हैं।
  • सूर्य की किरणों में सात रंग होते हैं। इसी प्रकार उन्हों ने रौशनी के सम्बन्ध में कहा है कि सूर्य की श्वेत किरणों में ही सात रंग छिपे होते हैं। अथर्व वेद में कहा है सप्तः सूर्य्स रसम्यः।
  • ऋगवेद’ में सूर्य के प्रकाश की गति के बारे में कहा गया है कि सूर्य का प्रकाश आधे निमिष में 2 ,202 योजन की यात्रा करता है। एक योजन लगभग 9 मील के बराबर है जिस के अनुसार यह गति 185793.75 मील होती है जब कि सूर्य के प्रकाश की आधुनिक वैज्ञानिक गणना 187372 मील है।  
  • तरल रूप में जल, गैस रूप में बादल बन कर वर्षा करता है। पर्वत शिखरों पर ठोस रूप में बर्फ भी जल का परिवर्तित रूप है – यजुर्वेद
  • अग्नि दृष्यमान है। पृथ्वी पर अग्नि ज्वाला, लावा, और भस्म के रूप में स्थित है। आकाश में सूर्य, बादलों में विद्युत तथा जल में बडवा नल, वृक्षों में दावानल तथा देह में जीवन का रूप है। शक्ति रूप और स्थान बदलती है। अग्नि सभी वस्तुओं को शुद्ध करती है। (यजुर्वेद)
  • यद्यपि तम (अन्धेरा) काले रंग का है और चलता हुआ प्रतीत होता है तथापि उस का अपना कोई अस्तित्व नहीं है। ‘प्रकाश का अभाव’ ही तम है। प्रकाश के ना होने से न दीखना ही उस में कालापन है। प्रकाश के आगे आगे चलने से ही अन्धेरा चलता हुआ प्रतीत होता है जैसे मानव के चलने से उस की छाया चलती हुई प्रतीत होती है।

भारतीय वैज्ञानिकों का योगदान

भौतिक शास्त्र के क्षेत्र में ईसा से 600 वर्ष पूर्व विशेषिका दर्शन शास्त्रों में भौतिक तत्वों, पदार्थों तथा वनस्पतियों की विशेषताओं का विशलेषण करने का सफल प्रयत्न किया गया है जिन में से कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं।

अणु शक्ति – वैशिसिका दर्शन शास्त्र के जन्मदाता ऋषि कनाद के अनुसार सृष्टि के सभी पदार्थों का सर्जन उसी पदार्थ के अणुओं से हुआ है। अणु (ऐटम) ना तो बनाये जा सकते हैं ना ही समाप्त किये जा सकते हैं। उन को विभाजित भी नहीं किया जा सकता उन का अपना निजि अस्तीत्व शाशवत रहता है। वह ऊर्जा पुंज होते हैं। कनाद ने यह भी प्रमाणित किया कि रौशनी तथा ऊष्णता ऐक ही स्त्रोत्र से हैं केवल मात्रा में फर्क है। जैन समुदाय के मुनियों के मतानुसार सभी अणु ऐक ही प्रकार के होते हैं किन्तु उन की भिन्नता इस बात पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे के सम्पर्क में आते हैं।

ध्वनि और रौशनी – सुश्रत ने सर्वप्रथम अविष्कार किया था कि हम आसपास की वस्तुओं को बाह्य स्त्रोत्र से रौशनी पडने के कारण देख सकते हैं। इसी तथ्य कि पुष्टि कालान्तर आर्य भट्ट नें भी की। तब तक य़ूनान के दार्शनिक समझते रहै कि हम आस पास की वस्तुऐं अपनी आँख की ज्योति के कारण देखते हैं। छटी शताब्दी में वराहमिहिर ने वस्तु पर पडने वाले रौशनी के प्रतिबिम्ब का विमोचन कर के वस्तुओं की छाया का आँकलन किया। इसी अविष्कार को आधार मान कर दसवी शताब्दी में मिस्त्र के भौतिक शास्त्री अलहैयथ्म ने विस्तार किया कि प्रथक प्रथक वस्तुओं से रौशनी की तरंगें  अलग अलग गति से निकलती हैं।

चक्रपाणी ने सर्वप्रथम अविष्कार किया कि ध्वनि और रौशनी तरंगों के रूप में गतिशील होते हैं और रौशनी की गति ध्वनि से कई गुणा तीव्र होती है। प्रस्तापदा ने इसी तथ्य का विस्तार करते हुये उल्लेख किया कि ध्वनि वायु में वृताकार तरंगों के माध्यम से विस्तरित हो कर गतिशील होती हैं और प्रत्येक ध्वनि की प्रति ध्वनि (इको) भी रहती है। वाचस्पति के मतानुसार रौशनी पदार्थों के अणुओं दुारा आँख से टकराती है। यह तथ्य कारपस्कुलर के रौशनी सिद्धान्त जैसा है जो सदियों पश्चात न्यूटन ने किया था।

आकर्षण शक्ति की खोज

यजुर्वेद में व्याख्या की गयी है कि पृथ्वी अपने स्थान पर सूर्य की महान आकर्षण शक्ति के कारण स्थिर रहती है। गुप्त काल के खगोल शास्त्री सभी ग्रहों की गति तथा मार्ग परिधि के बारे में जानते थे तथा उन्हों ने सूर्य और चन्द्र गृहण का कारण तथा समय की गणना के विषय में मौलिक जीनकारी दी है।

  1. आर्य भट्ट सर्व प्रथम आर्य भट्ट ने ही विश्व को जानकारी दी थी  किः-
  • कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है जिस के कारण दिन और रात बनते हैं।
  • तारे अपने स्थान पर स्थिर होते हुये भी गतिशील दिखते हैं क्योंकि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती रहती है।
  • पृथ्वी के निरन्तर घूमने के कारण सितारे उदय तथा अस्त होते दिखायी पडते हैं।
  • उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों पर दिन और रात की अवधि छः मास के बराबर होती है।
  • आर्य भट्ट में पृथ्वी की परिधि 4967 योजन उल्लेख की है तथा पृथ्वी का व्यास 1,5811.24 योजन बताया था। ऐक योजन 5 अंग्रेज़ी मीलों के बराबर होता है जिस के अनुसार आर्य भट्ट का माप आज के वैज्ञायानिकों की गणना से मेल खाता है। आज के वैज्ञायानिकों की गणना के अनुसार पृथ्वी की परिधि 24,835 मील तथा व्यास 79055.24 मील है। आर्य भट्ट रचित सूर्य सिद्धान्त पुस्तक में खगोलिक गणनायें आज भी हिन्दू केलेन्डरों में प्रयोग करी जाती हैं।
  1. ब्रह्मगुप्त – (598 – 665 ईसवी)  ने नेगेटिव अंकों  तथा गणित में शून्य की खोज की। उन का ग्रंथ ब्रह्मस्फुतः सिद्धान्त खगोल शास्त्र के पूर्व ग्रंथ ब्रह्म सिद्धान्त का संशोधन माना जाता है जिस में उन्हों ने पृथ्वी के व्यास तथा धूरी का माप दिया है।
  2. वराहमिहिर – उन्हों ने छटी शताब्दी में खगोल शास्त्र, भूगोल तथा खनिज शास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन के मतानुसार चन्द्र का आधा भाग जो सूर्य की ओर रहता है तथा पृथ्वी और सूर्य के मध्य में चक्कर लगाता है स्दैव चमकता है और शेष आधा भाग स्दैव छाया के कारण अन्धकार ग्रस्त रहता है। जब चन्द्र पर पृथ्वी की छाया पडती है तो चन्द्र गृहण होता है। उसी प्रकार सूर्य पर चन्द्र की छाया पडने से सूर्य गृहण होता है। चन्द्र गृहण सदा पश्चिम दिशा से लगता है तथा सूर्य गृहण सदा पूर्व दिशा से लगता है। उन्हों ने गृहण के बारे में जो गणना कर के आँकडे दिये वह पूर्णतया वैज्ञानिक थे।
  3. भास्कर आचार्य भाषकराचार्य ने प्रथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति पर एक पूरा ग्रन्थ रच डाला था। उन के ग्रन्थ सिद्धांतशिरोमणि गोलाध्याय के भुवनकोश प्रकरण में वस्तुओं की शक्ति के बारे में कहते हैः –

            मरुच्लो भूरचला स्वभावतो यतो विचित्रावतवस्तु शक्त्य:।।

                      आकृष्टिशक्तिश्च मही तया यत् खस गुरुस्वाभिमुखं स्वशक्तत्या

                                आकृष्यते तत्पततीव भा समेसमन्तात् क्व पतत्वियं खे।।

अर्थात् पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है। पृथ्वी अपनी आकर्षण शक्ति से भारी पदार्थों को अपनी ओर खींचती है और आकर्षण के कारण वह जमीन पर गिरते हैं पर जब आकाश में समान ताकत चारों ओर से लगे, तो कोई कैसे गिरे? अर्थात् आकाश में ग्रह निरावलम्ब रहते हैं क्योंकि विविध ग्रहों की गुरुत्व शक्तियाँ संतुलन बनाए रखती हैं। आकाश में पृथ्वी, ग्रह, तारे, चन्द्र तथा सूर्य अपनी निश्चित गति, शक्ति तथा स्थान से ऐक दूसरे को खींचते हैं जिस के कारण सभी अपनी अपनी धुरी तथा परिकर्मा मार्ग से बाहर नहीं होते। यह सिद्धा्न्त न्यूटन के जन्म से सैंकडों वर्ष पूर्व ‘सिद्धान्त-शिरोमणि’ में दर्शाया जा चुका था।

ब्रह्मगुप्त, तथा भास्कराचार्य के अनुसार पृथ्वी का व्यास 7182 मील था और किसी अन्य अनुमान के अनुसार 7905 मील था। आधुनिक वैज्ञानिक इसे 7918 मानते हैं । अन्तर केवल 13 मील का है। 

चाँद शर्मा

27 – पूजा और रीति रिवाज


हिन्दू मतानुसार धर्म तथा अध्यात्मिक्ता प्रत्येक व्यक्ति का निजि क्षेत्र है। ईश्वर तथा आत्मा का सम्बन्ध अटूट है। किसी व्यक्ति पर कोई दबाव नहीं कि वह कोई मन्दिर बनवाये या किसी विशेष समय और स्थल पर जा कर किसी विशेष ढंग से पूजा अर्चना करे। हिन्दूओं के लिये उन के अपने शरीर में ही परमात्मा का वास होता है। जब हमारा शरीर पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश आदि तत्वों से बना है तो इन सभी तत्वों के देवता भी हमारे शरीर में ही वास करते है। हमारे शरीर में सूर्य की गर्मी तथा चन्द्र की शीतलता होने के कारण उन का भी वास है। मानव में ब्रह्मा की सर्जन शक्ति, विष्णु की पोषण शक्ति तथा शिव की संहारक शक्ति भी है, अतः हिन्दू धर्म यह घोषणा भी करता है – जो ब्रह्माण्डे सो ही पिण्डे। हमारे शरीर में ईश्वर तथा देवताओं का वास है। इसी कारण मन्दिर को भी मानव शरीर का प्रतीक मान कर मन्दिरों के भवन के सभी भागों के नाम भी शरीर के अँगों की तरह ही होते हैं।  

रामायण और महाभारत काल में यज्ञशालाओं का उल्लेख तो है परन्तु मन्दिरों का उल्लेख नहीं है। सम्भवता मन्दिरों का निर्माण बुद्ध काल में जब मठ और विहार बने तभी बुद्ध की प्रतिमाओं के साथ साथ अन्य देवी देवताओं की स्थापना भी मन्दिरों में करी गयी। वास्तव में मन्दिरों का महत्व विद्यालयों जैसा है जहाँ समाज के लिये अध्यात्मिकता की कक्षायें लगायी जाती हैं। मन्दिरों ने विभिन्न पर्वों के माध्यम से हिन्दू धर्म, समाज, संस्कृति, कला तथा हस्त कलाओं के उत्थान में विशेष योग्दान दिया है। देश के दूर दराज़ इलाकों में फैले हुये मन्दिरों नें सामाजिक सम्मेलन स्थलों की भूमिका भी निभायी है तथा देश की ऐकता को मज़बूत किया है। कुम्भ आयोजन तथा जगन्नाथ रथ यात्रा इस के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं जब लोग लम्बी दूरी तय कर के निर्धारित समय पर स्वेच्छा से एकत्रित होते हैं। मन्दिर, पर्व तथा रीतिरिवाज हिन्दू जीवन शैली का अविभाज्य अंग हैं।

भारत को ऐकता सूत्र में पिरोने के अतिरिक्त मन्दिरों नें समाज के लिये सूचना केन्द्रों तथा समुदायों में ताल मेल करने में भी सहायता की है। भारत में पर्यटन को भी तीर्थयात्राओं के माध्यम से प्रोत्साहन मिलता रहा है।

रीति रिवाजों का महत्व

हिन्दू धर्म में प्राकृतिक जीवन तथा समाज में प्राणी मात्र के कल्याण पर विशेष बल दिया जाता है। किन्तु इन भावात्मिक शब्दों को क्रियात्मिक रूप देना हर किसी की योग्यता के बस की बात नहीं। जब तक कोई गति-विधि दिखाई ना पडे, कोई भी भावनात्मिक तथा दार्शनिक काम जन साधारण की कल्पना से बाहर रहता है। भावनाओं को साकार करने का कार्य रीति रिवाज करते हैं। रीति रिवाजों का अस्तीत्व भोजन में मसालों की तरह का है। जिन के बिना जीवन ही नीरस और फीका हो जाये गा। किसी भी क्रिया को निर्धारित परणाली से करना ही रीति रिवाज होता है ताकि सभी को क्रिया के आरम्भ होने तथा समाप्त होने का प्रत्यक्ष आभास हो जाये और क्रिया में से कोई भी मुख्य कडी छूट ना जाये। किन्तु जब राति रिवाज क्रिया का यथार्थ लक्ष्य छोड कर केवल दिखावा बन जाते हैं या समय और साधनों की समर्थ से बाहर निकल जाते हैं तो वह बेकार का बोझ बन जाते हैं। 

विश्व में कहीं भी कोई मानव समाज ऐसा नहीं है जहाँ लोगों ने सारे रीति रिवाज छोड़ कर केवल भावनात्मिक क्रियाओं के सहारे जीवन व्यतीत किया हो। जैसे पूजा पाठ करना या बलि देना आदि रीतिरिवाज हैं उसी प्रकार झण्डा लहराना, शप्थ लेना, या विश्वविद्यालयों में गाऊन पहन कर प्रमाण पत्र गृहण करना भी रीति रिवाज ही हैं जो किसी घटना के घटित होने के प्रत्यक्ष प्रमाण के साथ साथ जीवन में क्रियात्मिकता और उल्लास भर देते हैं।

प्रथा तथा रीति रिवाज समय और समाज की ज़रूरत के अनुसार बदलते रहते हैं। पहले साधक प्रातः ब्रह्म महूर्त में या सूर्योदय के समय, दोपहर, तथा सूर्यास्त के समय लगभग अनिवार्य तौर से ध्यान लगा कर किसी ना किसी मंत्र का जाप करते थे, या मूर्तियों की पूजा अर्चना तथा आरती करते थे, हवन आदि करते थे। समय के अभाव के कारण आज कल यह प्रथायें या तो लुप्त हो चुकी हैं या संशोधित कर के संक्षिप्त रूप में करी जाती हैं। सब कुछ स्वेच्छिक है।

किसी भी प्रथा या रीति रिवाज को जब मन और श्रद्धा से किया जाये तो वह उनुकूल वातावर्ण उत्पन्न करने में सहायक हैं। साधक आसानी से अपने को मन वाँछित दिशा में केन्द्रित कर सकता है तथा दैनिक गतिविधियों से अपने आप को अलग कर के ईश्वरीय शक्ति का आभास महसूस कर सकता है। यह मनोवैज्ञानिक क्रिया है।

पूजा अर्चना के रीति रिवाजों में दो तरह के नित्य-नियम हैं जिन्हें दैनिक नित्य-नियम और घटना प्रधान विधान कह सकते हैं । दैनिक नित्य-नियम के विधान निजि सान्त्वना के लिये होते हैं। घटना प्रधान विधान किसी विशेष घटना के घटित होने के घटित होने पर किये जाते हैं।

रीति रिवाजों का प्रावधान सभी मानव समाजों में तथा धर्मों में किसी ना किसी रूप में है। थोडा बहुत अन्तर स्थानीय भूगौलिक, आर्थिक तथा राजनैतिक कारणों से है। हिन्दू राति रिवाज सरल, आसान तथा परिवर्तनशील हैं। उन्हें समय तथा आवश्यक्तानुसार बदला जा सकता है। समाज हित में रीजि रिवाजों को बदलने की क्रिया सर्व सम्मति अथवा बहु सम्मति से होनी चाहिये, व्यक्तिगत सुविधा के लिये नहीं।  

व्यक्तिगत पूजा

संध्या, होम तथा पूजा स्वेच्छिक, व्यक्तिगत दैनिक नित्यक्रम हैं। उपासक किसी भी स्थान को चुन कर अपनी समय, साधनों तथा सुविधानुसार सभी या कुछ दैनिक नित्यक्रमों को कर सकता है। यह दैनिक नित्यक्रम ऐकान्त में या सार्वजनिक स्थल पर अकेले या परिवार के साथ कर सकते हैं। नित्यक्रम मन्दिर, सामाजिक केन्द्र, पार्क या किसी भी मनचाहे स्थान पर किया जा सकता है। उल्लेखनीय बात यह है कि यह दैनिक नित्यक्रम निजि संन्तुष्टि के लिये हैं जिस से दूसरों को असुविधा नहीं होनी चाहिये। व्यक्तिगत दैनिक नित्यक्रम का विधान केवल सुझाव मात्र है जिसे सुविधानुसार बदला जा सकता हैः-

  1. संध्या संध्या का लक्ष्य अपनी इच्छानुसार किसी स्वच्छ और पवित्र स्थान पर शान्ति से बैठ कर ईश्वर का समर्ण करना है। किसी भी दिशा की ओर मुँह किया जा सकता है क्यों कि ईश्वर तो सर्व-व्यापक है। साधारणत्या उचित समय प्रातः सूर्योदय से पहले और सायंकाल सूर्यास्त के पश्चात का है जव कि दैनिक गतिविधियाँ पूर्ण हो चुकी हों। उपासक ईश्वर का धन्यवाद चाहे तो मूक रह कर केवल मन से, चाहे तो धीरे से, या लाऊडस्पीकर लगा कर मनचाही भाषा में, गद्य, पद्य, मंत्रोच्चारण कर के, या गीत गा कर भी कर सकता है । ईश्वर को सभी कुछ स्वीकार हैं लेकिन लाऊडस्पीकर अवश्य ही आस पास के लोगों तथा स्थानीय प्रशासन का ध्यान आकर्षित करे गा। किसी भी प्रकार के वस्त्र पहने जा सकते हैं। मौलिक बात यह है कि स्थल स्वच्छ, शान्त होना चाहिये तथा दूसरों की शान्ति भंग ना हो।
  2. होम होम ऐक वैदिक क्रिया है जो निराकार ईश्वरीय शक्ति के प्रति की जाती है। मन्त्रोच्चारण के साथ साथ अग्नि के अन्दर सुगन्धमय पदार्थों की आहूतियाँ डाल कर वातावरण को प्रदूषणमुक्त किया जाता है। अग्नि में जलाने से सुगन्धित पदार्थों की क्षमता कई गुणा बढ़ जाती है। होम व्यक्तिगत अथवा सामूहिक तौर पर भी किया जा सकता है।
  3. पूजा आराधना – पूजा आराधना की परिक्रिया संध्या की अपेक्षा क्रमशा औपचारिक क्रिया है, किन्तु इस क्रिया के कुछ या सभी उपक्रमों को उपासक की सुविधानुसार परिवर्तित अथवा स्थगित भी किया जा सकता है। ईश्वर की अर्चना पद्धति की रूप-रेखा विशिष्ठ व्यक्तियों के सत्कार की परम्परा जैसी ही बन गयी है। मुख्यता आराधक मन ही मन में प्रतिष्ठापित मूर्ति के माध्यम से अपने आराध्य देवी-देवता की छवि को निहारता हुआ स्तुति करता है। मूर्ति की उपासना की निम्नलिखित परम्परागत क्रियायें हैं – सर्व प्रथम मन से आराध्य देवी – देवता का आवाहन किया जाता है। आराध्य को आसन पर आसीन कराया जाता है तथा सत्कार स्वरूप आराध्य के पग धोये जाते हैं। फिर पेय जल तथा जलपान परस्तुत किया जाता है। पाद्य स्वरूप आराध्य के चरण धोये जाते हैं वस्त्र पहनाये जाते हैं। नया यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है। अर्घ चन्दन आदि का सुगन्धित तिलक लगाया जाता हैं। पुष्प अर्पण किये जाते हैं। धूप आदि की सुगन्ध ज्वलन्त की जाती है। दीप प्रज्वलन किया जाता है तथा दीप से आराध्य की आरती उतारी जाती है। नैवैद्यम प्रसाद अर्जित किया जाता है और स्वर्ण आदि की भेंट दी जाती है। अन्त में आराध्य का विसर्जन किया जाता है। अनुमान लगाया जा सकता है कि आराधना की यह विधि किसी भी विशिष्ठ व्यक्ति के सामाजिक सत्कार का ही एक प्रतीक मात्र है। पूजा घर, मन्दिर, अथवा अन्य किसी भी स्थान पर की या करवाई जा सकती है।

सामाजिक रीति रिवाज

सामाजिक रीति रिवाज किसी विशेष घटना के घटित होने पर किये जाते हैं। अतः उन को करने का समय निश्चित नहीं है। वह घटना के घटित होने के परिणाम स्वरूप समाज में प्रसारण के लिये किये जाते हैं। सैंकडों वर्ष पूर्ण मानव जीवन में घटित होने वाली प्रमुख घटनाओं को आधार मान कर सोलह संस्कारों का उल्लेख सर्व प्रथम मनुसमृति में किया गया था और विश्व भर में वही सोलह संस्कार स्थानीय फेर बदलों के साथ आज भी अपनाये जाते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि पाश्चात्य शिक्षा के प्रभाव के कारण कुछ हिन्दू इन राति रिवाजों का मज़ाक उड़ा कर उन की उपेक्षा भी करते हैं किन्तु वास्तव में यह उन की अपने पूर्वजों के प्रति अज्ञानता तथा कर्तघनता का ही प्रमाण है।

मानव अपने शरीर अथवा मनोवृत्तियों से जितने भी कर्म करता है उस के सूर्य, अग्नि, आकाश, वायु, इन्द्रिया, चन्द्रमा, संध्या, रात, दिन, दिशायें,जल, पृथ्वी, काल और धर्म साक्षी रहते हैं। हिन्दू रीति रिवाजों की विशेषता है कि उन को क्रियावन्त करते समय देवताओं तथा गृहों का आवाहन साक्षी बनाने के लिये किया जाता है। विशेष रूप से श्री गणेश तथा अग्नि को साक्षी बनाया जाता है। मानव साक्षियों के बदले प्राकृतिक गृहों तथा शक्तियों को घटना का साक्षी बनाया जाता है। इस का कारण यह है कि मानव कई कारणों की वजह से बदल सकते हैं तथा स्थायी नहीं हैं किन्तु प्राकृतिक साक्षी शाशवत, सर्व-व्यापक तथा भेद भाव रहित होते हैं। उदाहरण स्वरूप जिस अग्नि ने हमारे पूर्वजों के विवाह की घटनाओं का साक्ष्य किया था वही अग्नि आज हमारे जीवन में भी साक्ष्य दे रही हैं। इस प्रकार की अनुभूती मानव साक्ष्य नहीं करवा सकते। 

हिन्दू मतानुसार ईश्वर किसी विशेष परिधान अथवा भाषा, भोजन, प्रसाद स्थल पर किये गये रीति रिवाज से प्रसन्न नहीं होता। लोग जिस प्रकार से संतुष्ट हों वही रिवाज अच्छा है। लोग अपनी इच्छा, सामर्थ, तथा विशवासों के आधार पर रीति रिवाज करते हैं। यदि किसी को मिठाई अच्छी लगती है तो वह ईश्वर को मिठाई अर्पण कर के अपने आप को संतुष्ट करता है तथा दूसरों को भी वैसा करने की सलाह देता है। रीति रिवाज तभी तक प्रसन्नता प्रदान करते हैं जब तक वह व्यक्ति के निजि समय और साधनों की समर्थ में हों तथा स्वेच्छा से किये जायें। थोपे गये रीति रिवाज अभिशाप बन जाते हैं। 

चाँद शर्मा

 

8 – संसार का प्रशासनिक विधान


यूनानी दार्शनिक अरस्तु तथा योरूप के अन्य राजनीति शास्त्रियों और प्रशासनाचार्यों के जन्म से हज़ारों वर्ष पूर्व भारतीय पौराणिक गृंथों में प्रशासन का जो स्वरूप दर्शाया गया था वह आज भी प्रशासनाचार्यों के लिये ऐक कीर्तिमान है। संसार के प्रशासन का विभागी-करण, उत्तरदाईत्व वितरण, कार्य क्षेत्रों का वर्णन तथा कार्य करने के साधन आज की सरकारों से अधिक सक्ष्म हैं। आधुनिक सरकारों में केवल साधनों और कर्मचारियों के नामों में ही थोड़ा बहुत बदलाव आया है, किन्तु सिद्धाँतों में कोई बदलाव नहीं आया।

भारत के ऋषि-मुनियों ने संसार के प्रशासन की जो व्याख्या की है वही विश्व के अन्य धर्म समुदायों ने भी थोड़ा बहुत स्थानीय फेरबदल कर के अपना है। उन्हों ने केवल देवी देवताओं को स्थानीय भाषा में नाम और परिधान ही बदले कर सभी कुछ भारतीय ही अपनाया है। मानस रुप में सौर मण्डल के सभी ग्रह तथा तत्व प्रशासन कार्यालय में शामिल हैं।

आधुनिक शब्दावली में संसार का प्रशासन मुख्यता इस प्रकार चलता हैः –

देवराज इन्द्र – इन्द्र देवताओं तथा स्वर्ग के अधिपति हैं। संसार में सभी कुछ शक्ति से चलता है अतः वर्षा तथा विद्युत आदि शक्ति के सभी साधन उन के आधीन हैं जो इस सत्य को दर्शाता है कि शक्ति के बिना कोई भी प्रशासन नहीं चल सकता। देवराज इन्द्र का रहन-सहन तथा कार्य शैली उद्योग जगत के किसी भी मुख्य निदेशक के समान ही है। इन्द्र सर्वोच्च सृष्टि कर्ता के प्रधान प्रतिनिधि हैं तथा वह अपनी कार्य सिद्धी के लिये उन सभी साधनों का प्रयोग करते हैं जो आज के युग में अमेरिका, रूस या अन्य किसी भी देश के खुफिया तंत्र इस्तेमाल करते हैं।

साम दाम दण्ड और भेद के सभी हथियारों का आवश्यक्तानुसार प्रयोग करने से इन्द्र कभी भी नहीं हिचकिचाते। यदि उन की सत्ता के विरुद्ध कोई भी खतरा पनपने लगता है तो इन्द्र उस से निपटने के लिये शक्ति के साथ सुरा और सुन्दरी का सहारा भी लेते रहते हैं। उन का वाहन ऐश्वर्य का प्रतीक चिन्ह सफेद हाथी ऐरावत है तथा मुख्य शस्त्र वज्र। सारांश यह कि इन्द्र सभी प्रकार के सुख साधनों से सम्पन्न हैं क्योंकि वह स्वर्ग के स्वामी हैं।

प्रशासक में कलात्मिक रुचि भी होनी चाहिये अतः इन्द्र के चारों ओर अप्सराओं तथा गँधर्वों का जमावडा भी रहता है जो देवताओं के निजि मनोरंजन के अतिरिक्त विश्व में कहीं भी ज़रूरत पड़ने पर कर्तव्य पालन के लिये कृत संकल्प हैं। इन्द्र के अमरावती मुख्यालय से अधिक समर्थवान तथा सुखदायक अन्य कोई सचिवालय संसार में नहीं है।

अग्नि – अग्नि का दर्जा इन्द्र से दूसरे स्थान पर है। देवताओं को दी जाने वाली सभी आहूतियाँ अग्नि के दूआरा ही देवताओं को प्राप्त होती हैं। अग्नि सभी प्राणियों में पाचन शक्ति का प्रतीक है। अर्थात सभी पदार्थ अग्नि में भस्म हो कर ही एक से दूसरे रूप में परिवर्तित होते हैं। चित्रों में अग्नि के दो चेहरे दर्शाये जाते हैं जो स्दैव विपरीत दिशाओं में निहारते रहते हैं। इस का अर्थ अग्नि की सार्थक तथा विनाशक शक्तियों को दर्शाना है। अग्नि पवित्र भी करती हैं तथा भस्म भी करती है।

सूर्य – सूर्य प्रत्यक्ष देवता है जो हमारे सौर मण्डल का केन्द्र है। सौर मण्डल में होने वाली सभी क्रियायें सूर्य की ऊर्जा से ही सम्पन्न होती हैं तथा जीवन के प्रत्येक अंग पर सूर्य का प्रभाव क्षेत्र है। दिन-रात पर सूर्य का ही अधिकार है अतः वह विश्व में समय निदेशक भी है। उस का कार्य-भार सरकार के मुख्य सचिव जैसा है।

वायु – वायु को पवन देव भी कहा जाता है तथा उन के आधीन वह प्राणदायनी शक्ति है जिस के बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता और बिना वायु के सृष्टि का समस्त जीवन क्षण भर में नष्ट हो सकता है। वायु को सर्व व्यापक रहना पडता है। वनस्पतियों की प्रजनन क्रिया (फल-फूल लगना) में वायु का ही मुख्य योगदान है जो स्त्री-पुरुष पौधों को सम्पर्क में लाती है।

वरुण – वरुण जल स्त्रोत्रों का स्वामी है तथा वायु की तरह विश्व की एक अन्य जीवनदायनी शक्ति का संचालन करता है। वरुण को बर्फ के रूप में रिझ़र्व स्टाक रखना पडता है और बादल के रूप में सभी जगहों पर आपूर्ति भी करना पडती है। अगर यही काम आजकल के किसी भ्रष्ट ठेकेदार के हाथ में होता तो सोचिये क्या स्थिति बन गयी होती।

यमराज – यमराज सृष्टि में मृत्यु के विभागाध्यक्ष हैं। सृष्टि के समस्त प्राणियों के भौतिक शरीरों को नष्ट कर के उन के तत्वों को पुनः रीसाईकिलिंग करना ही उन का मुख्य उत्तरदाईत्व है। य़मराज के बिना पृथ्वी पर ही जीवन नरक समान हो जाये गा क्योंकि मृत्यु के अभाव में चंगेज़खाँ, बाबर, औरंगज़ेब तथा नादिरशाह जैसे दुष्ट पात्र आज भी हमारे जीवन को त्रासित कर रहे होते। यमराज विश्व में बदलाव के निमित हैं। विश्व की सब से बडी म्युनिस्पेलिटी के महापौर यमराज ही हैं।

कुबेर – कुबेर धन के अधिपति है तथा उन की छवि की तुलना किसी भी अर्थ शास्त्री या किसी भी वित्त मंत्री से कर सकते हैं। कुबेर देते ही है लेकिन बदले में वह कोई कर वसूल नहीं करते। ऐसी व्यव्स्था और किसी आदर्श सरकार में नहीं है।

मित्रः – मित्रः इमानदारी, मित्रता तथा व्यव्हारिक सम्बन्धों के प्रतीक देवता हैं। तुलनात्मक तौर पर उन्हें आधुनिक युग के किसी वरिष्ठ जन-सम्पर्क ऐवं स्तर्कता विभागाध्यक्ष का अग्रज कहा जा सकता है।

कामदेव – कामदेव स़ृष्टि में समस्त प्रजन्न क्रिया के निदेशक हैं। उन की पत्नी रति की तुलना विश्व-सुन्दरी से की जा सकती है तथा रति-कामदेव दम्पति आधुनिक युग में भी प्रेम प्रसंगों की सभी कल्पनाओं के प्रेरणादायक हैं । उन के बिना सृष्टि की कलपना ही नहीं की जा सकती। पौराणिक कथानुसार कामदेव का शरीर भगवान शिव ने भस्म कर दिया था अतः उन्हें अनंग ( बिना शरीर ) भी कहा जाता है। इस का अर्थ यह है कि काम एक भाव मात्र है जिस का भौतिक वजूद नहीं होता। युवा रति-कामदेव दम्पति का तो प्रसंगिक औचित्य है लेकिन उन के समक्ष हाथ में पुष्प बाण लिये अधनंगे बाल रूपी रोमन क्यूपिड में चुलबुले पन के अतिरिक्त कोई औचित्य नहीं।

आदिति – आदिति को भूत, भविष्य, चेतना, तथा उपजाऊपन की देवी माना जाता है।

धर्मराज और चित्रगुप्त – संसार के लेखा जोखा कार्यालय को सम्भालते हैं और यमराज, स्वर्ग, तथा नरक के मुख्यालयों में ताल-मेल भी कराते रहते हैं।

सृष्टि के प्रशासन से सम्बन्धित देवी तथा देवताओं की सूची बहुत लम्बी है। यहाँ संक्षिप्त में केवल मुख्य देवों का ही चित्रण तथा उल्लेख किया गया है जो इस तथ्य को उजागर करता है कि प्राचीन काल में भी स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों की विचार धारा प्रशासन के क्षेत्र में कितनी सशक्त और यथार्थयुक्त थी। भारत केवल सपेरों का ही देश नहीं था अपितु आधुनिक प्रशासकों का मार्ग दर्शक भी था। प्रशासन के सभी कार्यक्षेत्रों का सुन्दर और सरल तरीके से व्यक्तिकरण कर दिया गया है।

अन्य धर्मों में तो अल्लाह और गाड सभी कार्य अपने पैगम्बर या पुत्र के माध्यम से ही करते है लेकिन हिन्दू विचार धारा में सभी प्राणी जिन में पशु पक्षी भी शामिल हैं सृष्टि के विधान में अपना अपना योग्दान देते रहते हैं। इसी लिये हिन्दूओं के पास 33 करोड देवी देवता हैं जो सृष्टि के विशाल प्रजातन्त्र को चलाते हैं और इसी तालमेल को हम आज इकोलोजिकल बैलेंस कहते हैं।

नारी प्रतिनिधित्व

विश्व में अपने प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं। इन की तुलना में हिन्दू समाज ने स्त्रियों की अनदेखी कभी नहीं की। सम्स्त प्राणियों के वैवाहिक सम्बन्धों को भी महत्व दिया गया है। उत्तरदाईत्व का वितरण स्त्री-पुरूषों के परस्परिक सम्बन्धों के अनुकूल ही किया गया है। वरदान देने तथा श्राप देने की क्षमता ईश्वरीय दम्पतियों में भी समान है। देवी देवता अकेले नहीं है और अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं।

त्रिमूर्ति –  भगवान ब्रह्मा – सरस्वती (सर्जन तथा ज्ञान), विष्णु -लक्ष्मी (पालन तथा साधन), और शिव – पार्वती (विसर्जन तथा शक्ति) का परस्पर सम्बन्ध प्रसंगिक है। कार्य विभाजन अनुसार पत्नीयां ही पतियों की शक्तियाँ हैं। सृजन के लिये विद्या की, पौषण के लिये धन की तथा विध्वंस और रक्षा के लिये शक्ति की आवशयक्ता पड़ती है। त्रिमूर्ति की स्त्री शक्तियाँ भी अपने हाथों में पुष्प एवं शस्त्र धारण करती हैं जो विद्या, धन तथा शक्ति की सृजनता और ध्वंस करने की क्षमता का प्रतीक है।

अन्य देवी देवताओं का दाम्पत्य चित्रण भी इसी प्रकार प्रसंगिक है। कुछ अन्य पौराणिक देवगण यह हिन्दू धर्म की विचारधारा की विशालता है कि स्नातन धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की गणना करी जाती है क्यों कि वसुदैव कुटुम्बकम की भावना को सार्थक करने कि लिये हर प्राणी के जीवन को महत्व दिया गया है।

छोटा बडा कोई नहीं सभी अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं किन्तु सभी का वर्णन करना सम्भव नहीं। कुछ जाने पहचाने देवों की व्याख्या ही यहाँ की गयी हैः –

गणेष – गणेष बुद्धिमता के देव हैं तथा विघ्न नाशक माने जाते हैं। ऋद्धि और सिद्धी उन की पत्नियाँ हैं। पूजा–अर्चना में सर्व प्रथम गणेष जी की पूजा का विधान है क्यों कि बुद्धिमता के दुआरा ही सभी बाधाओं को दूर किया जा सकता है। गणेष का शरीर मानव जैसा है किन्तु उन का शीश हाथी का है। उन का वाहन चूहा होता है। प्रकृति के एक छोटे से जीव का वाहन होना तथा प्रकृति के एक बड़े जीव का शीश धारण करना प्राणियों की उत्पति तथा विकास की परिक्रिया को भी दर्शाता है कि चूहा क्रमशः हाथी और फिर मानव में विकसित होता है। छोटे बडें सभी जीव परियावरण में ऐक दूसरे पर आश्रित हैं।

कार्तिकेय – कार्तिकेय वीरता के देव हैं तथा वह देवताओं के सेनापति हैं। उन का वाहन मोर है तथा वह भगवान शिव के पुत्र हैं।

देवऋर्षि नारद – नारद देवताओं के ऋषि हैं तथा चिरंजीवी हैं। वह तीनों लोकों में विचरने में समर्थ हैं। उन को आधुनिक संदेशवाहकों का अग्रज कहना उचित होगा। सृष्टि में घटित होने वाली सभी घटनाओं की जानकारी देवऋषि नारद के पास होती है तथा ऐक निजि सचिव की भान्ति स्दैव ईश्वर के सम्पर्क में रहते हैं। एक परम कुशल संदेशवाहक की तरह वह किसी भी स्थान पर किसी भी समय पहुँच सकते हैं। देवऋषि नारद उपने ऊपर कटाक्ष करने में अपनी ऐक ही मिसाल हैं। यह अत्यन्त शर्मनाक बात है कि देवऋर्षि नारद को चल-चित्रों तथा नाटकों में एक विदूषक की छवि में परस्तुत किया जाता है य़ा व्यंगात्मक ढंग से किसी भी चुगलखोर की तुलना उन से की जाती है। देवऋर्षि नारद सर्वोच्च ऋषि हैं।

हनुमान – हनुमान जी भी चिरंजीवी हैं। उन को एक आदर्श, निस्वार्थ, एवं कर्मठ योगी के रूप में दर्शाया जाता है। उन्हों ने अपने आप को प्रभु राम की सेवा के लिये पूर्णतया समर्पित कर दिया था। सेवा भाव के अतिरिक्त हनुमान जी विनम्र, बलशाली, बुद्धिमान आठ सिद्धियों के स्वामी हैं। यह सिद्धियाँ अणिमा (अदृष्य होना), लघिमा (अपना रूप सूक्ष्म कर के गुप्त होना) गरिमा (अपना रूप विशाल कर लेना) प्राप्ति (किसी भी अभिलाषित वस्तु की प्राप्ति होना) प्राकाम्यं (मन चाहा कार्य हो जाना), महिमा (अपना स्वरूप विशाल कर लेना), ईशित्वं (इश्वर की तरह शक्ति पा लेना), और वशित्वं (किसी को भी वश में कर लेना) हैं।

विचार करें तो इन में से कई सिद्धियाँ आज कम्प्यूटर की एनीमेशन तकनीक से कोई भी साधारण मानव यथार्थ कर सकता हैं। जो भ्रम आज कम्प्यूटर टच स्क्रीन के माध्यम से पैदा किया जा सकता है वही यदि योग साधना से अगर हनुमान जी ने प्राप्त किया हो तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। हनुमान जी ने कभी अपने बल अथवा बुद्धी पर गर्व नहीं किया।

हिन्दू धर्माचार्यों ने दार्शनिक्ता की सूक्ष्म विचारधारा के विकास को चित्रों एवं पौराणिक कथाओं के माध्यम से जन-साधारण तक पहुंचाने की कोशिश लगातार की है। एक ओर ऋषि मुनियों की जटिल दार्शनिक्ता का सूक्ष्म ज्ञान वैज्ञियानिक तर्क की हर कसौटी पर खरा उतरता रहा है ता दूसरी ओर सूक्ष्म ज्ञान का मानवीकरण कर के उसे कथाओं तथा चित्रों के माध्यम से जन-साधारण तक भी पहुँचाया गया है।

सूक्ष्म ज्ञान तथा पौराणिक संग्रहों में समयानुसार यथोचित संशोधन भी होते रहे हैं। इस ज्ञान का भण्डार हमारे पास वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों, पुराणों तथा महा-काव्यों के साहित्य में आज भी संकलित तथा सुरक्षित है।

हिन्दू धर्म कोरा पैग्निज़िम या अन्ध-विशवास नहीं अपितु यथार्थवाद तथा कल्पना का सृजनात्मक मिश्रण है।

चाँद शर्मा

टैग का बादल