हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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अंग्रेज़ी-भक्तों का हिन्दी विरोध


उपनेशवाद का युग समाप्त होने के बाद आज भी इंग्लैंड को विश्व में ऐक सैन्य तथा आर्थिक महाशक्ति के तौर पर माना जाता है। उच्च तथा तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में इंग्लैंड का आज भी ऐकाधिकार है। यह दबदवा राजनैतिक कारणों से नहीं, बल्कि अंग्रेजी भाषा के कारण है। अंग्रेज़ों ने अपने ऐक ‘डायलेक्ट’(अपभ्रंश) को विकसित कर के अंग्रेज़ी भाषा को जन्म दिया, लिपि रोमन लोगों से ली और भाषा का आधार बना कर विश्व पर शासन कर रहै हैं। अंग्रेजी से प्राचीन हिन्दी भाषा होते हुये भी हम मूर्ख हिन्दुस्तानी अपनी ही भाषा को स्वदेश में ही राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं दे पाये – यह बदनसीबी नहीं तो और क्या है जो हम लोगों में राष्ट्रीय स्वाभिमान शून्य है।

पिछडी मानसिक्ता वाले देशों में आज भी यही समझा जाता है कि अंग्रेजी भाषा के बिना दुनियां का काम ही नहीं चल सकता और विकास के सारे कम्प्यूटर ठप हो जायें गे। दास-बुद्धियों को भ्रम है कि विश्व में केवल अंग्रेजी ही सक्ष्म भाषा है जबकि विकसित देश भी दबी जबान में संस्कृत भाषा का गुण गान ही नहीं कर रहै, उसे सीखने के मार्ग को अपना चुके हैं। हमारे देश के मानसिक गुलाम फिर भी यह मानने को तैयार नहीं कि कि अंग्रेजी वैज्ञानिक भाषा ना हो कर केवल परम्परागत भाषा है जिस में लिखा कुछ जाता है और पढा कुछ और ही जाता है। उस की तुलना में हिन्दी पूर्णत्या ऐक वैज्ञानिक भाषा है जिस में जो लिखा जाता है वही पढा भी जा सकता है। विश्व की किसी भी भाषा को देवनागरी लिपि में लिखा जा सकता है और सक्ष्मता से पढा जा सकता है। अंग्रेजी में अपने नाम को ही लिख कर देख लीजिये पढने के बाद आप कुछ और ही सुनाई दें गे।

राष्ट्रभाषा का विरोध

नरेन्द्र मोदी सरकार ने राष्ट्रभाषा को महत्व देने का उचित निर्णय लिया है। यह भी अपेक्षाकृत था कि मोदी विरोधी नेता और अपना चुनावी वर्चस्व बनाये रखने वाले प्रान्तीय नेता इस का विरोध भी करें गे। बी जे पी में ही कई छिपे मोदी-विरोधी सरकार को हिन्दी अति शीघ्र लागू करने के लिये उकसायें गे भी ताकि सरकार गलतियां करे, और उकसाई गयी पथ-भ्रष्ट जनता का कडा विरोध भी झेले।

नीचे लिखे तत्वों का दूआरा प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से भारत में हिन्दी का विरोध और अंग्रेजी के समर्थन में स्वाभाविक हैः-

  • विदेशी पत्र-पत्रिकाओं के मालिक, जिन के व्यवसायिक उद्द्श्य हैं।
  • योरूपीय देश, कामनवेल्थ देश, और भारत विरोधी देश जो अंग्रेजी को अन्तरराष्ट्रीय भाषा बनाये रखना चाहते हैं।
  • कम्पयूटर तथा अंग्रेजी-साफ्टवेयर बनाने वाली कम्पनियां।
  • विदेशों में बस चुके कई भारतीय युवा जो विदेशी कम्पनियों की नौकरी करते हैं और भारत से आऊट सोर्सिंग के जरिये से अपने ही देसवैसियों से सस्ते में विदेशी कम्पनियों के लिये काम करवाते हैं।
  • काल सैन्टर के मालिक और कई कर्मचारी।
  • कुछ ईसाई संस्थान, कानवेन्ट स्कूल और मैकाले भक्त प्रशासनिक अधिकारी।
  • उर्दू-भाषी जिहादी तथा धर्म निर्पेक्ष।

इलेक्शन में हार हुये नेताओं को तो नये मुद्दों की तालाश रहती है। सत्ता से गिर चुकने का बाद करुणानिधि और उस की श्रेणी के कई अन्य प्रान्तीय नेताओं को सत्ता की सीढी चढने के लिये फिर से हिन्दी विरोध का मुद्दा बैठे बैठाये मिल गया है। करुणानिधि और उस की श्रेणी के अन्य साथी कृप्या यह तो बतायें कि उन के प्रान्तों में क्या सभी लोग अंग्रेजी में ही लिखते पढते हैं? सच्चाई तो यह है कि उन्हीं के प्रान्तों के अधिकाँश लोग आज भी अशिक्षित और गरीब हैं। वह अंग्रेजी पढे या ना पढें उन्हें विदेशों में नहीं जाना है। भारत में ही रोजी-रोटी के लिये रोजगार ढूंडना है। लेकिन इन नेताओं को इन बातों से कोई सरोकार नहीं। उन्हें तो पिछले सत्तर वर्षों की तरह अपने परिवारों की खातिर सत्ता में बने रहना है, मुफ्त लैपटाप, रंगीन टेलीविजन, साईकिलें और ऐक रुपये किलो चावल आदि की भीख से लोगों का तुष्टिकरण कर के वोट बटोरते रहना है। इस लिये अब धीरे धीरे दूसरे प्रान्तो से भी कुछ चुनाव-हारे क्षेत्रीय नेता अपना अंग्रेजी प्रेम दिखायें गे और विकास की दुहाई दें गे। मोदी विरोधी फौज में लाम बन्द होना शुरु करें गे। यह नेता क्या जनता को बतायें गे कि उन के शासन काल में उन्हों ने युवाओं को देश की राष्ट्रभाषा के साथ जोडने के सम्बन्ध में आज तक क्या कुछ किया? अपने प्रान्तों में ही कितने अंग्रेजी स्कूल खोले? युवाओं को विदेशों में या देश में ही रोजगार दिलवाया? अपने देश की राष्ट्रभाषा कि विकास के लिये क्या किया? देश की ऐकता और पहचान के लिये क्या यह उन का कर्तव्य नहीं था? प्रान्तीयता के नाम पर उकसाने वाले नेताओं का स्वाभिमान तब क्यों बेबस हो गया था जब अंग्रेजों ने भारत में प्रान्तीय भाषाओं को हटा कर अंग्रेजी उन के सिरों पर थोप दी थी?

व्यवस्था परिवर्तन

व्यवस्था परिवर्तन की शुरूआत राष्ट्रभाषा के सम्मान के साथ होनी चाहिये ताकि जनता में भारतीयता के प्रति आत्म विशवास का संचार हो। नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में मंत्री मण्डल के अधिकांश सदस्यों का हिन्दी में शप्थ लेना और  राष्ट्रभाषा को सरकारी काम काज की भाषा बनाना ऐक अच्छी शुरूआत है। अब आगे संसद की कारवाई हिन्दी में चले और सरकारी काम काज हिन्दी में हो, ई-गवर्नेंस में भी हिन्दी को प्रमुखता से जोडा जाये तो देश में ऐक नया आत्म विशवास जागे गा। किसी पर भी अंग्रेजी के इस्तेमाल पर कोई पाबन्दी नहीं लगाई गयी लेकिन राष्ट्रभाषा के पक्ष में ऐक साकारात्मिक पहल जरूर करी गयी है।

पिछले साठ वर्षों से हम ने अपने देश की राष्ट्रभाषा को वह सम्मान नहीं दिया जो मिलना चाहिये था। हम अंग्रेजी की चाकरी ही करते रहै हैं और अपनी भाषा के इस्तेमाल से हिचकचाते रहै हैं। अपनी भाषा सीखने के लिये साठ वर्ष का समय प्रयाप्त होता है और अनिच्छा होने पर साठ जन्म भी कम होते हैं।इस का अर्थ अंग्रेजी का बहिष्कार करना नहीं है केवल अपनी राष्ट्रभाषा का सत्कार करना है। जनता अपेक्षा करती है कि भारत के संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों को देश की राष्ट्रभाषा का ज्ञान और सम्मान अवश्य होना चाहिये। अगर उन्हें अभी भी हिन्दी नहीं आती तो अपने प्रांत की भाषा (मातृभाषा) का इस्तेमाल तो कर सकते हैं जिस का ट्रांसलेशन करा जा सकता है।

आम देशवासियों को भी अगर अपने आप को भारतीय कहने में गर्व है तो अपने देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी को भी गर्व से प्रयोग करना चाहिये। अंग्रेजी लिखने पढने में कोई बुराई नहीं, लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि केवल अंग्रेजी लिखने पढने के कारण ही कोई व्यक्ति महान नहीं होता। उसी तरह हिन्दी लिखने पढने वाला अनपढ नहीं होता। लेकिन हिन्दी लिखने पढने वाला राष्ट्रभक्त अवश्य होता है और राष्ट्रभाषा को नकारने वाला निश्चित ही गद्दार होता है।

स्पीड में सावधानी जरूरी

हिन्दी के प्रचार, विस्तार और प्रसार में उतावलापन नहीं करना चाहिये। समस्याओं का धैर्य से समाधान करना चाहिये लेकिन विरोध का दमन भी अवश्य कडाई से करना चाहिये। देश में स्पष्ट संदेश जाना चाहिये कि सरकार देश की राष्ट्र भाषा को समय-बद्धता के साथ लागू करे गी, समस्याओं को सुलझाया जाये गा मगर जो नेता अपनी नेतागिरि करने के लिये विरोध करें गे उन के साथ कडाई से उसी तरह से निपटा जाये गा जैसे देश द्रोहियों के साथ करना चाहिये।

सरकार को हिन्दी प्रोत्साहन देना चाहिये लेकिन अंग्रेजी परन्तु अगले पाँच वर्षों तक अभी रोक नहीं लगानी चाहिये।

  • हिन्दी का अत्याधिक ‘संस्कृत-करण’ना किया जाये। अगर अन्य भाषाओं के जो शब्द आम बोलचाल का हिस्सा बन चुके हैं तो उन्हें सरकारी मान्यता भी दे देनी चाहिये।
  • सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी को ‘अनिवार्य विषय’ के तौर पर ना पढाया जाये। अंग्रेजी को ऐच्छिक विषय (इलेक्टिव) की तरह पढाना चाहिये या ऐडिश्नल विषय की तरह पढाना चाहिये और उस के लिये अतिरिक्त फीस वसूलनी चाहिये।
  • उच्च शिक्षा तथा नौकरियों के लिये सभी कम्पीटीशनों में भाग लेने के लिये हिन्दी के प्रयोग की सुविधा होनी चाहिये। अगले पाँच वर्षों तक अंग्रेजी में भी परीक्षा देने की सुविधा रहनी चाहिये लेकिन नौकरी या प्रमोशन देने के समय “अगर दो प्रतिस्पर्धियों की अन्य योग्यतायें बराबर हों ” तो हिन्दी माध्यम के प्रतिस्पर्धी को प्राथमिकता मिलनी चाहिये।
  • जिन सरकारी विभागों या मंत्रालयों में हिन्दी अपनाई जाये वहाँ सभी तरह के आँकडे हिन्दी में रखने और उन का विशलेषण करने की पूरी सुवाधायें पूर्व उपलब्द्ध होनी चाहियें।
  • निजि स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम से पढाई की छूट रहनी चाहिये जिस के लिये विद्य़ार्थी विध्यालय को तय शुदा फीस दें गे।
  • जो लोग विदेशों में जा कर बसना चाहते हों या नौकरी करना चाहैं उन के लिये अंग्रेजी सीखने की सुवाधायें सभी यूनिवर्स्टियों में रहनी चाहियें जिस में फीस का खर्च विध्यार्थी खुद उठायें।
  • हमारे देश में कम्पयूटर तथा साफ्टवेयर विकास की प्रयाप्त क्षमता है इस लिये अंग्रेजी में लिख गये साफ्टवेयर में हिन्दी के बटन लगाने के बजाये कम्पयूटर साफ्टवेयर को हिन्दी में ही मौलिक रूप से तैय्यार करना चाहिये।
  • समय समय पर कम्पयूटर साफ्टवैयर इंजीनियरों को सरकारी सम्मान देना चाहिये।
  • प्रत्येक स्तर पर हिन्दी लागू करने के लिये ऐक सैल का गठन करना चाहिये। सैल का अध्यक्ष हिन्दी तथा अंग्रेजी दोनो भाषाओं की अच्छी जानकारी रखने वाला व्यक्ति होना चाहिये। विशेष तौर पर वह व्यकति ‘हिन्दी-उन्मादी’नहीं होना चाहिये। उसे अंग्रेजी भाषा से ‘नफरत’भी नहीं होनी चाहिये, तभी वह निष्पक्ष रह कर स्कारात्मिक ढंग से दैनिक समस्याओं का समाधान कर सकता है।
  • जो संस्थान अपना काम राष्ट्रभाषा में करें उन्हें आयकर, विक्रय कर आदि में कुछ छूट मिलनी चाहिये। इसी तरह हिन्दी के उपकरणों पर कुछ आर्थिक छूट दी जा सकती है। महानगरों को छोड कर मध्य वर्ग के शहरों में बिल बोर्ड हिन्दी या प्रान्तीय़ भाषा में होने चाहियें।

प्रवासी भारतीय

  • प्रवासी भारतीय जब भी ऐतक दूसरे से मिलें तो आपस में हिन्दी का प्रयोग ही करें।
  • ई मैग्जीनस में हिन्दी में पोस्ट लिखने का प्रयास करें।
  • अपने बच्चों को हिन्दी सिखाने में गर्व करें।

जन संख्या के आधार पर चीन के बाद भारत विश्व का दूसरा देश है। अतः संख्या के आधार पर चीनी भाषा हिन्दी से ऐक कदम आगे तो है लेकिन अपनी जटिल लिपि के कारण वह हिन्दी का मुकाबला नहीं कर सकती। अगर भारत वासियों में यह लग्न, साहस और कर्मठता पैदा हो जाये तो हिन्दी ही अंग्रेजी का स्थान अन्तरराष्ट्रीय भाषा के तौर पर ले सकती है। भारत के पास कम्पयूटर साफ्टवेयर की सक्ष्म युवा शक्ति है जो अपने दाश का भाषा को विश्व में मान्यता दिला सकते हैं। जो कदम आगे बठाया है वह पीछे नहीं हटना चाहिये।

चाँद शर्मा

70 – धर्म हीनता या हिन्दू राष्ट्र ?


हिन्दुस्तान में अंग्रेजों का शासन पूर्णत्या ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शासन था। उन्हों ने देश में ‘विकास’ भी किया। दैनिक जीवन के प्रशासन कार्यों में अंग्रेज़ हमारे भ्रष्ट नेताओं की तुलना में अधिक अनुशासित, सक्ष्म तथा ईमानदार भी थे। फिर भी हम ने स्वतन्त्रता के लिये कई बलिदान दिये क्योंकि हम अपने देश को अपने पूर्वजों की आस्थाओं और नैतिक मूल्यों के अनुसार चलाना चाहते थे। परन्तु स्वतन्त्रता संघर्ष के बाद भी हम अपने लक्ष्य में असफल रहै। 

भारत विभाजन के पश्चात तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दुस्तान की पहचान ही मिटती जा रही है। शहीदों के बलिदान के ऐवज में इटली मूल की मामूली हिन्दी-अंग्रजी जानने वाली महिला हिन्दुस्तान के शासन तन्त्र की ‘सर्वे-सर्वा’ बनी बैठी है। हिन्दू संस्कृति और इतिहास का मूहँ चिडा कर यह कहने का दुसाहस करती है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। उसी महिला का मनोनीत किया हुआ प्रधान मन्त्री कहता है कि ‘देश के संसाधनों पर प्रथम हक तो अल्पसंख्यकों का है’। हमारे देश का शासन तन्त्र लगभग अल्प संख्यकों के हाथ में जा चुका है और अब स्वदेशी को त्याग भारत विदेशियों की आर्थिक गुलामी की तरफ तेजी से लुढक रहा है। हम बेशर्मी से अपनी लाचारी दिखा कर प्रलाप कर रहै हैं “अब हम ‘अकेले (सौ करोड हिन्दू)’ कर ही क्या सकते हैं? ”

धर्म-निर्पेक्षता का असंगत विचार

शासन में ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का विचार ‘कालोनाईजेशन काल’ की उपज है। योरूप के उपनेषवादी देशों ने जब दूसरे देशों में जा कर वहाँ के स्थानीय लोगों को जबरदस्ती इसाई बनाना आरम्भ किया था तो उन्हें स्थानीय लोगों का हिंसात्मक विरोध झेलना पडा था। फलस्वरुप उन्हों ने दिखावे के लिये अपने प्रशासन को इसाई मिशनरियों से प्रथक कर के अपने सरकारी तन्त्र को ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बताना शुरु कर दिया था ताकि आधीन देशों के लोग विद्रोह नहीं करें। इसी कारण सभी आधीन देशों में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारों की स्थापना करी गई थी।

शब्दकोष के अनुसार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शब्द का अर्थ है – जो किसी भी ‘नैतिक’ तथा ‘धार्मिक आस्था’ से जुडा हुआ ना हो। हिन्दू विचारधारा में जो व्यक्ति या शासन तन्त्र नैतिकता अथवा धर्म में विश्वास नहीं रखता उसे ‘अधर्मी’ या ‘धर्म-हीन’ कहते हैं। ऐसा तन्त्र केवल अनैतिक, स्वार्थी, व्यभिचारिक तथा क्रूर राजनैतिक शक्ति है, जिसे अंग्रेजी में ‘माफिया’ कहते हैं। अनैतिकता के कारण वह उखाड फैंकने लायक है। 

आज पाश्चात्य जगत में भी जिन  देशों में तथा-कथित ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारें हैं उन का नैतिक झुकाव स्थानीय आस्थाओं और नैतिक मूल्यों पर ही टिका हुआ है। पन्द्रहवीं शाताब्दी में जब इसाई धर्म का दबदबा अपने उफान पर था तब इंग्लैण्ड के ट्यूडर वँशी शासक हेनरी अष्टम नें ईंग्लैण्ड के शासन क्षेत्र में पोप तथा रोमन चर्च के हस्तक्षेप पर रोक लगा दी थी और ईंग्लैण्ड में कैथोलिक चर्च के बदले स्थानीय प्रोटेस्टैंट चर्च की स्थापना कर दी थी। प्रोटेस्टैंट चर्च को ‘चर्च आफ ईंग्लैण्ड भी कहा जाता है। यद्यपि ईंग्लैण्ड की सरकार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ होने का दावा करती है किन्तु वहाँ के बादशाहों के नाम के साथ डिफेन्डर आफ फैथ (धर्म-रक्षक) की उपाधि भी लिखी जाती है। ईंग्लैण्ड के औपचारिक प्रशासनिक रीति रिवाज भी इसाई और स्थानीय प्रथाओं और मान्यताओं के अनुसार ही हैं। 

भारत सरकार को पाश्चात्य ढंग से अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष घोषित करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है क्यों कि भारत में उपजित हिन्दू धर्म यथार्थ रुप में ऐक प्राकृतिक मानव धर्म है जो पर्यावरण के सभी अंगों को अपने में समेटे हुये है। आदिकाल से हिन्दू धर्म और हिन्दू देश ही भारत की पहचान रहै हैं।

पूर्णत्या मानव धर्म

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से स्वतन्त्र है। प्रत्येक व्यक्ति निजि क्षमता और रुचि अनुसार अपने लिये मोक्ष का मार्ग स्वयं ढूंडने के लिये स्वतन्त्र है। ईश्वर से साक्षाताकार करने के लिये हिन्दू ईश्वर के पुत्र, ईश्वरीय के पैग़म्बर या किसी अन्य ‘विचौलिये’ की मार्फत नहीं जाते। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर का प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों को अपना ‘ईश्वरीयत्व’ स्वीकार करने के लिये बाधित और दण्डित नहीं कर सकता। 

हम बन्दरों की संतान नहीं हैं। हमारी वँशावलियाँ ऋषि परिवारों से ही आरम्भ होती हैं जिन का ज्ञान और आचार-विचार विश्व में मानव कल्याण के लिये कीर्तिमान रहै हैं। अतः 1869 में जन्में मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा देना ऐक राजनैतिक भूल नहीं, बल्कि देश और संस्कृति के विरुद्ध काँग्रेसी नेताओं और विदेशियों का ऐक कुचक्र था जिस से अब पर्दा उठ चुका है।

हिन्दू धर्म वास्तव में ऐक मानव धर्म है जोकि विज्ञान तथा आस्थाओं के मिश्रण की अदभुत मिसाल है। हिन्दूओं की अपनी पूर्णत्या विकसित सभ्यता है जिस ने विश्व के मानवी विकास के हर क्षेत्र में अमूल्य योग्दान दिया है। स्नातन हिन्दू धर्म ने स्थानीय पर्यावरण का संरक्षण करते हुये हर प्रकार से ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दिया है। केवल हिन्दू धर्म ने ही विश्व में ‘वसुदैव कुटम्बकुम’ की धारणा करके समस्त विश्व के प्राणियों को ऐक विस्तरित परिवार मान कर सभी प्राणियों में ऐक ही ईश्वरीय छवि का आभास किया है। 

भारत का पुजारी वर्ग कोई प्रशासनिक फतवे नहीं देता। हिन्दूओं ने कभी अहिन्दूओं के धर्मस्थलों को ध्वस्त नहीं किया। किसी अहिन्दू का प्रलोभनों या भय से धर्म परिवर्तन नहीं करवाया। हिन्दू धर्म में प्रवेष ‘जन्म के आधार’ पर होता है परन्तु यदि कोई स्वेच्छा से हिन्दू बनना चाहे तो अहिन्दूओं के लिये भी प्रवेष दूार खुले हैं।

हिन्दू धर्म की वैचारिक स्वतन्त्रता

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, या साकार। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं जो अन्य धर्मों में घृणा के पात्र समझे जाते हैं।

हिन्दूओं ने कभी किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है। प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार ऐक या अनेक ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी दी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बल्कि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं।

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार वस्त्र पहने या कुछ भी ना पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन बिताये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हर नयी विचारघारा को हिन्दू धर्म में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है। नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान दिया गया है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है तथा हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी धर्म में नहीं है।

राष्ट्र भावना का अभाव 

पूवर्जों का धर्म, संस्कृति, नैतिक मूल्यों में विशवास, परम्पराओ का स्वेच्छिक पालन और अपने ऐतिहासिक नायकों के प्रति श्रध्दा, देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भ हैं। आज भी हमारी देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भों पर कुठाराघात हो रहा है। ईसाई मिशनरी और जिहादी मुसलिम संगठन भारत को दीमक की तरह खा रहे हैं। धर्मान्तरण रोकने के विरोध में स्वार्थी नेता धर्म-निर्पेक्ष्ता की दीवार खडी कर देते हैं। इन लोगों ने भारत को एक धर्महीन देश समझ रखा है जहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर सकता है। अगर कोई हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बनाये तो वह ‘उदार’,‘प्रगतिशील’ और धर्म-निर्पेक्ष है – परन्तु अगर कोई इस देश के हिन्दू को हिन्दू बने रहने को कहे तो वह ‘उग्रवादी’ ‘कट्टर पंथी’ और ‘साम्प्रदायक’ कहा जाता है। इन कारणों से भारत की नयी पी़ढी ‘लिविंग-इन‘ तथा समलैंगिक सम्बन्धों जैसी विकृतियों की ओर आकर्षित होती दिख रही है।

इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता

कत्लेाम और भारत विभाजन के बावजूद अपने हिस्से के खण्डित भारत में हिन्दू क्लीन स्लेट ले कर मुस्लमानों और इसाईयों के साथ नया खाता खोलने कि लिये तैय्यार थे। उन्हों नें पाकिस्तान गये मुस्लमान परिवारों को वहाँ से वापिस बुला कर उन की सम्पत्ति भी उन्हें लौटा दी थी और उन्हें विशिष्ट सम्मान दिया परन्तु बदले में हिन्दूओं को क्या मिला ? ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रमाण पत्र पाने के लिये हिन्दू और क्या करे ? 

व्यक्तियों से समाज बनता है। कोई व्यक्ति समाज के बिना अकेला नहीं रह सकता। लेकिन व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की सीमा समाज के बन्धन तक ही होती है। एक देश के समाजिक नियम दूसरे देश के समाज पर थोपे नही जा सकते। यदि कट्टरपंथी मुसलमानों या इसाईयों को हिन्दू समाज के बन्धन पसन्द नही तो उन्हें हिन्दुओं से टकराने के बजाये अपने धर्म के जनक देशों में जा कर बसना चाहिये।

मुस्लिम देशों तथा कई इसाई देशों में स्थानीय र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में धर्म-निर्पेक्ष्ता के साये में उन्हें ‘खुली छूट’ क्यों है ? महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर भीड़ नमाज़ पढ सकती है, दिन हो या रात किसी भी समय लाउडस्पीकर लगा कर आजा़न दी जा सकती है। किसी भी हिन्दू देवी-देवता के अशलील चित्र, फि़ल्में बनाये जा सकते हैं। हिन्दु मन्दिर, पूजा-स्थल, और सार्वजनिक मण्डप स्दैव आतंकियों के बम धमाकों से भयग्रस्त रहते हैं। इस प्रकार की इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता से हिन्दू युवा अपने धर्म, विचारों, परम्पराओं, त्यौहारों, और नैतिक बन्धनो से विमुख हो उदासीनता या पलायनवाद की और जा रहे हैं।

हिन्दू सैंकडों वर्षों तक मुसलसान शासकों को ‘जज़िया टैक्स’ देते रहै और आज ‘हज-सब्सिडी‘ के नाम पर टैक्स दे रहै हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय भी अवैध घौषित कर चुका है। भारत की नाम मात्र धर्म-निर्पेक्ष केन्द्रीय सरकार ने ‘हज-सब्सिडी‘ पर तो रोक नहीं लगायी, उल्टे इसाई वोट बैंक बनाये रखने के लिये ‘बैथलहेम-सब्सिडी` देने की घोषणा भी कर दी है। भले ही देश के नागरिक भूखे पेट रहैं, अशिक्षित रहैं, मगर अल्पसंख्यकों को विदेशों में तीर्थ यात्रा के लिये धर्म-निर्पेक्षता के प्रसाद स्वरूप सब्सिडी देने की भारत जैसी मूर्खता संसार में कोई भी देश नही करता।

यह कहना ग़लत है कि धर्म हर व्यक्ति का ‘निजी’ मामला है, और उस में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जब धर्म के साथ ‘जेहादी मानसिक्ता’ जुड़ जाती है जो दूसरे धर्म वाले का कत्ल कर देने के लिये उकसाये तो वह धर्म व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। ऐसे धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था भी दूषित होती है और सरकार को इस पर लगाम लगानी आवशयक है।

धर्म-निर्पेक्षता का छलावा

हमारे कटु अनुभवों ने ऐक बार फिर हमें जताया है कि जो धर्म विदेशी धरती पर उपजे हैं, जिन की आस्थाओं की जडें विदेशों में हैं, जिन के जननायक, और तीर्थ स्थल विदेशों में हैं वह भारत के विधान में नहीं समा सकते। भारत में रहने वाले मुस्लमानों और इसाईयों ने किस हद तक धर्म निर्पेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकारा है और वह किस प्रकार से हिन्दू समाज के साथ रहना चाहते हैं यह कोई छिपी बात नहीं रही।        

धार्मिक आस्थायें राष्ट्रीय सीमाओं के पार अवश्य जाती हैं। भारत की सुरक्षा के हित में नहीं कि भारत में विदेशियों को राजनैतिक अधिकारों के साथ बसाया जाये। मुस्लिमों के बारे में तो इस विषय पर जितना कहा जाय वह कम है। अब तो उन्हों ने हिन्दूओं के निजि जीवन में भी घुसपैठ शुरु कर दी है। आज भारत में हिन्दू अपना कोई त्यौहार शान्त पूर्ण ढंग से सुरक्षित रह कर नहीं मना सकते। पूजा पाठ नहीं कर सकते, उन के मन्दिर सुरक्षित नहीं हैं, अपने बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते, तथा उन्हें सुरक्षित स्कूल भी नहीं भेज सकते क्यों कि हर समय आतंकी हमलों का खतरा बना रहता है जो स्थानीय मुस्लमानों के साथ घुल मिल कर सुरक्षित घूमते हैं।

अत्मघाती धर्म-निर्पेक्षता

धर्म-निर्पेक्षता की आड ले कर साम्यवादी, आतंकवादी, और कट्टरपँथी शक्तियों ने संगठित हो कर  भारत में हिन्दूओं के विरुद्ध राजसत्ता के गलियारों में अपनी पैठ जमा ली है। स्वार्थी तथा राष्ट्रविरोधी हिन्दू राजनेताओं में होड लगी हुई है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे से बढ चढ कर हिन्दू हित बलिदान कर के अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करें और निर्वाचन में उन के मत हासिल कर सकें। आज सेकूलरज्मि का दुर्प्योग अलगाववादी तथा राष्ट्रविरोधी तत्वों दूारा धडल्ले से हो रहा है। विश्व में दुसरा कोई धर्म निर्पेक्ष देश नहीं जो हमारी तरह अपने विनाश का सामान स्वयं जुटा रहा हो।

ऐक सार्वभौम देश होने के नातेहमें अपना सेकूलरज्मि विदेशियों से प्रमाणित करवाने की कोई आवश्यक्ता नहीं। हमें अपने संविधान की समीक्षा करने और बदलने का पूरा अधिकार है। इस में हिन्दूओं के लिये ग्लानि की कोई बात नहीं कि हम गर्व से कहें कि हम हिन्दू हैं। हमें अपनी धर्म हीन धर्म-निर्पेक्षता को त्याग कर अपने देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना होगा ताकि भारत अपने स्वाभिमान के साथ स्वतन्त्र देश की तरह विकसित हो सके।

धर्म-हीनता और लाचारी भारत को फिर से ग़ुलामी का ओर धकेल रही हैं। फैसला अब भी राष्ट्रवादियों को ही करना है कि वह अपने देश को स्वतन्त्र रखने के लिये हिन्दू विरोधी सरकार हटाना चाहते हैं या नहीं। यदि उन का फैसला हाँ में है तो अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होकर कर उस सरकार को बदल दें जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़।

चाँद शर्मा

 

68 – अपमानित मगर निर्लेप हिन्दू


बटवारे से पहले रियासतों में हिन्दू धर्म को जो संरक्षण प्राप्त था वह बटवारे के पश्चात धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण पूर्णत्या समाप्त हो गया। आज के भारत में हिन्दू धर्म सरकारी तौर पर बिलकुल ही उपेक्षित और अनाथ हो चुका है और अब काँग्रेसियों दूआरा अपमानित भी होने लगा है। अंग्रेज़ों ने जिन राजनेताओं को सत्ता सौंपी थी उन्हों ने अंग्रेजों की हिन्दू विरोधी नीतियों को ना केवल ज्यों का त्यों चलाये रखा बल्कि अल्प-संख्यकों को अपनी धर्म निर्पेक्षता दिखाने के लिये हिन्दूओं पर ही प्रतिबन्ध भी कडे कर दिये।

बटवारे के फलस्वरूप जो मुसलमान भारत में अपनी स्थायी सम्पत्तियाँ छोड कर पाकिस्तान चले गये थे उन में विक्षिप्त अवस्था में पाकिस्तान से निकाले गये हिन्दू शर्णार्थियों ने शरण ले ली थी। उन सम्पत्तियों को काँग्रेसी नेताओं ने शर्णार्थियों से खाली करवा कर उन्हें पाकिस्तान से मुस्लमानों को वापस बुला कर सौंप दिया। गाँधी-नेहरू की दिशाहीन धर्म निर्पेक्षता की सरकारी नीति तथा स्वार्थ के कारण हिन्दू भारत में भी त्रस्त रहे और मुस्लिमों के तुष्टिकरण का बोझ अपने सिर लादे बैठे हैं।

प्राचीन विज्ञान के प्रति संकीर्णता

शिक्षा के क्षेत्र में इसाई संस्थाओं का अत्याधिक स्वार्थ छुपा हुआ है। भारतीय मूल की शिक्षा को आधार बना कर उन्हों ने योरूप में जो प्रगति करी थी उसी के कारण वह आज विश्व में शिक्षा के अग्रज माने जाते रहै हैं। यदि उस शिक्षा की मौलिकता का श्रेय अब भारत के पास लौट आये तो शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में इसाईयों की ख्याति बच नहीं सके गी। यदि भारत अपनी शिक्षा पद्धति को मैकाले पद्धति से बदल कर पुनः भारतीयता की ओर जाये तो भारत की वेदवाणी और भव्य संस्कृति इसाईयों को मंज़ूर नहीं।

दुर्भाग्य से भारत में उच्च परिशिक्षण के संस्थान, पब्लिक स्कूल तो पहले ही मिशनरियों के संरक्षण में थे और उन्ही के स्नातक भारत सरकार के तन्त्र में उच्च पदों पर आसीन थे। अतः बटवारे पश्चात भी शिक्षा के संस्थान उन्ही की नीतियों के अनुसार चलते रहै हैं। उन्हों ने अपना स्वार्थ सुदृढ रखने कि लिये अंग्रेजी भाषा, अंग्रेज़ी मानसिक्ता, तथा अंग्रेज़ी सोच का प्रभुत्व बनाये रखा है और भारतीय शिक्षा, भाषा तथा बुद्धिजीवियों को पिछली पंक्ति में ही रख छोडा है। उन्हीं कारणों से भारत की राजभाषा हिन्दी आज भी तीसरी पंक्ति में खडी है। शर्म की बात है कि मानव जाति के लिये न्याय विधान बनाने वाले देश की न्यायपालिका आज भी अंग्रेजी की दास्ता में जकडी पडी है। भारत के तथाकथित देशद्रोही बुद्धिजीवियों की सोच इस प्रकार हैः-

  • अंग्रेजी शिक्षा प्रगतिशील है। वैदिक विचार दकियानूसी हैं। वैदिक विचारों को नकारना ही बुद्धिमता और प्रगतिशीलता की पहचान है।
  • हिन्दू आर्यों की तरह उग्रवादी और महत्वकाँक्षी हैं और देश को भगवाकरण के मार्ग पर ले जा रहै हैं। देश को सब से बडा खतरा अब भगवा आतंकवाद से है।
  • भारत में बसने वाले सभी मुस्लिम तथा इसाई अल्पसंख्यक ‘शान्तिप्रिय’ और ‘उदारवादी’ हैं और साम्प्रदायक हिन्दूओं के कारण ‘त्रास्तियों’ का शिकार हो रहै हैं।

युवा वर्ग की उदासीनता

इस प्रकार फैलाई गयी मानसिक्ता से ग्रस्त युवा वर्ग हिन्दू धर्म को उन रीति रिवाजों के साथ जोड कर देखता है जो विवाह या मरणोपरान्त आदि के समय करवाये जाते हैं। विदेशा पर्यटक अधनंगे भिखारियों तथा बिन्दास नशाग्रस्त साधुओं की तसवीरें अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं में छाप कर विराट हिन्दू धर्म की छवि को धूमिल कर रहै हैं ताकि वह युवाओं को अपनी संस्कृति से विमुख कर के उन का धर्म परिवर्तन कर सकें। युवा वर्ग अपनी निजि आकाँक्षाओं की पूर्ति में व्यस्त है तथा धर्म-निर्पेक्षता की आड में धर्महीन पलायनवाद की ओर बढ रहा है।

लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से सर्जित किये गये अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं के लेखक दिन रात हिन्दू धर्म की छवि पर कालिख पोतने में लगे रहते हैं। इस श्रंखला में अब न्यायपालिका का दखल ऐक नया तथ्य है। ऐक न्यायिक आदेश में टिप्पणी कर के कहना कि जाति पद्धति को स्क्रैप कर दो हिन्दूओं के लिये खतरे की नयी चेतावनी है। अंग्रेजी ना जानने वाले हिन्दुस्तानी भारत के उच्चतम न्यायालय के समक्ष आज भी उपेक्षित और अपमानित होते हैं।

आत्म सम्मान हीनतता 

इस मानसिक्ता के कारण से हमारा आत्म सम्मान और स्वाभिमान दोनो ही नष्ट हो चुके हैं। जब तक पाश्चात्य देश स्वीकार करने की अनुमति नहीं देते तब तक हम अपने पूर्वजों की उपलब्द्धियों पर विशवास ही नहीं करते। उदाहरणत्या जब पाश्चातय देशों ने योग के गुण स्वीकारे, हमारे संगीत को सराहा, आयुर्वेद की जडी बूटियों को अपनाया, और हमारे सौंदर्य प्रसाधनों की तीरीफ की, तभी कुछ भारतवासियों की देश भक्ति जागी और उन्हों ने भी इन वस्तुओं को ‘कुलीनता’ की पहचान मान कर अपनाना शुरु किया।

जब जान सार्शल ने विश्व को बताया कि सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है तो हम भी गर्व से पुलकित हो उठे थे। आज हम ‘विदेशी पर्यटकों के दृष्टाँत’ दे कर अपने विद्यार्थियों को विशवास दिलाने का प्रयत्न करते हैं कि भारत में नालन्दा और तक्षशिला नाम की विश्व स्तर से ऊँची यूनिवर्स्टियाँ थीं जहाँ विदेशों से लोग पढने के लिये आते थे। यदि हमें विदेशियों का ‘अनुमोदन’ नहीं मिला होता तो हमारी युवा पीढियों को यह विशवास ही नहीं होना था कि कभी हम भी विदूान और सभ्य थे।

आज हमें अपनी प्राचीन सभ्यता और अतीत की खोज करने के लिये आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज जाना पडता है परन्तु यदि इस प्रकार की सुविधाओं का निर्माण भारत के अन्दर करने को कहा जाये तो वह सत्ता में बैठे स्वार्थी नेताओं को मंज़ूर नहीं क्योंकि उस से भारत के अल्प संख्यक नाराज हो जायें गे। हमारे भारतीय मूल के धर्म-निर्पेक्षी मैकाले पुत्र ही विरोध करने पर उतारू हो जाते हैं।

हिन्दू ग्रन्थो का विरोध

जब गुजरात सरकार ने विश्वविद्यालयों में ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन का विचार रखा था तो तथाकथित बुद्धिजीवियों का ऐक बेहूदा तर्क था कि इस से वैज्ञानिक सोच विचार की प्रवृति को ठेस पहुँचे गी। उन के विचार में ज्योतिष में बहुत कुछ आँकडे परिवर्तनशील होते हैं जिस के कारण ज्योतिष को ‘विज्ञान’ नहीं कहा जा सकता और विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल नहीं किया जा सकता।

इस तर्कहीन विरोध के उत्तर में यदि कहा जाय कि ज्योतिष विध्या को ‘विज्ञान’ नहीं माना जा सकता तो ‘कला’ के तौर पर उध्ययन करने में क्या आपत्ति हो सकती है? संसार भर में मानव समुदाय किसी ना किसी रूप में भविष्य के बारे में जिज्ञासु रहा हैं। मानव किसी ना किसी प्रकार से अनुमान लगाते चले आ रहै हैं। झोडिक साईन पद्धति, ताश के पत्ते, सितारों की स्थिति, शुभ अशुभ अपशगुण, तथा स्वप्न विशलेशण से भी मानव भावी घटनाओं का आँकलन करते रहते हैं। इन सब की तुलना में भारतीय ज्योतिष विध्या के पास तो उच्च कोटि का साहित्य और आँकडे हैं जिन को आधार बना कर और भी विकसित किया जा सकता है। 

व्यापारिक विशलेशण (फोरकास्टिंग) भी आँकडों पर आधारित होता है जिन से वर्तमान मार्किट के रुहझान को परख कर भविष्य के अनुमान लगाये जाते हैं। अति आधुनिक उपक्रम होने के बावजूद भी कई बार मौसम सम्बन्धी जानकारी भी गलत हो जाती है तो क्या बिज्नेस और मौसम की फोरकास्टों को बन्द कर देना चाहिये ? इन बुद्धजीवियों का तर्क माने तो किसी देश में योजनायें ही नहीं बननी चाहिये क्यों कि “भविष्य का आंकलन तो किया ही नहीं जा सकता”।

ज्योतिष के क्षेत्र में विधिवत अनुसंधान और परिशिक्षण से कितने ही युवाओं को आज काम मिला सकता है इस का अनुमान टी वी पर ज्योतिषियों की बढती हुय़ी संख्या से लगाया जा सकता है। इस प्रकार की मार्किट भारत में ही नहीं, विदेशों में भी है जिस का लाभ हमारे युवा उठा सकते हैं। यदि ज्योतिष शास्त्रियों को आधुनिक उपक्रम प्रदान किये जायें तो कई गलत धारणाओं का निदान हो सकता है। डेटा-बैंक बनाया जा सकता है। वैदिक परिशिक्षण को विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में जोडने से हम कई धारणाओं का वैज्ञानिक विशलेशण कर सकते हैं जिस से भारतीय मूल के सोचविचार और तकनीक का विकास और प्रयोग बढे गा। हमें विकसित देशों की तकनीक पर निर्भर नहीं रहना पडे गा।

अधुनिक उपक्रमों की सहायता से हमारी प्राचीन धारणाओं पर शोध होना चाहिये। उन पर केस स्टडीज करनी चाहियें। हमारे पास दार्शनिक तथा फिलोसोफिकल विचार धारा के अमूल्य भण्डार हैं यदि वेदों तथा उपनिष्दों पर खोज और उन को आधार बना कर विकास किया जाये तो हमें विचारों के लिये अमरीका या यूनान के बुद्धिजीवियों का आश्रय नहीं लेना पडे गा। परन्तु इस के लिये शिक्षा का माध्यम उपयुक्त स्वदेशी भाषा को बनाना होगा।

संस्कृत भाषा के प्रति उदासीनता 

प्राचीन भाषाओं में केवल संस्कृत ही इकलौती भाषा है जिस में प्रत्येक मानवी विषय पर मौलिक और विस्तरित जानकारी उपलब्द्ध है। किन्तु ‘धर्म-निर्पेक्ष भारत’ में हमें संस्कृत भाषा की शिक्षा अनिवार्य करने में आपत्ति है क्यों कि अल्पसंख्यकों की दृष्टि में संस्कृत तो ‘हिन्दू काफिरों’ की भाषा है। भारत सरकार अल्पसंख्यक तुष्टिकरण नीति के कारण उर्दू भाषा के विकास पर संस्कृत से अधिक धन खर्च करने मे तत्पर है जिस की लिपि और साहित्य में में वैज्ञानिक्ता कुछ भी नहीं। लेकिन भारत के बुद्धिजीवी सरकारी उदासीनता के कारण संस्कृत को प्रयोग में लाने की हिम्म्त नहीं जुटा पाये। उर्दू का प्रचार कट्टरपंथी मानसिकत्ता को बढावा देने के अतिरिक्त राष्ट्रभाषा हिन्दी का विरोधी ही सिद्ध हो रहा है। हिन्दू विरोधी सरकारी मानसिक्ता, धर्म निर्पेक्षता, और मैकाले शिक्षा पद्धति के कारण आज अपनेी संस्कृति के प्रति घृणा की भावना ही दिखायी पडती है।

इतिहास का विकृतिकरण

अल्पसंख्यकों को रिझाने के लक्ष्य से हमारे इतिहास में से मुस्लिम अत्याचारों और विध्वंस के कृत्यों को निकाला जा रहा है ताकि आने वाली पीढियों को तथ्यों का पता ही ना चले। अत्याचारी आक्रान्ताओं के कुकर्मों की अनदेखी कर दी जाय ताकि बनावटी साम्प्रदायक सदभाव का क्षितिज बनाया जा सके।

धर्म निर्पेक्षकों की नजर में भारत ऐक ‘सामूहिक-स्थल’ है या नो मेन्स लैण्ड है, जिस का कोई मूलवासी नहीं था। नेहरू वादियों के मतानुसार गाँधी से पहले भारतीयों का कोई राष्ट्र, भाषा या परम्परा भी नहीं थी। जो भी बाहर से आया वह हमें ‘सभ्यता सिखाता रहा’ और हम सीखते रहै। हमारे पास ऐतिहासिक गौरव करने के लिये अपना कुछ नहीं था। सभी कुछ विदेशियों ने हमें दिया। हमारी वर्तमान पीढी को यह पाठ पढाने की कोशिश हो रही है कि महमूद गज़नवी और मुहमम्द गौरी आदि ने किसी को तलवार के जोर पर मुस्लिम नहीं बनाया था और धर्मान्धता से उन का कोई लेना देना नहीं था। “हिन्दवी-साम्राज्य” स्थापित करने वाले शिवाजी महाराज केवल मराठवाडा के ‘छोटे से’ प्रान्तीय सरदार थे। अब पानी सिर से ऊपर होने जा रहा है क्यों कि काँग्रेसी सरकार के मतानुसार ‘हिन्दू कोई धर्म ही नहीं’।

हमारे कितने ही धार्मिक स्थल ध्वस्त किये गये और आज भी कितने ही स्थल मुस्लिम कबजे में हैं जिन के ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्द्ध है किन्तु सरकार में हिम्मत नहीं कि वह उन की जाँच करवा कर उन स्थलों की मूल पहचान पुनर्स्थापित कर सके।

हिन्दू आस्तीत्व की पुनर्स्थापना अनिवार्य 

पाश्चात्य देशों ने हमारी संचित ज्ञान सम्पदा को हस्तान्तरित कर के अपना बना लिया किन्तु हम अपना अधिकार जताने में विफल रहै हैं। किसी भी अविष्कार से पहले विचार का जन्म होता है। उस के बाद ही तकनीक विचार को साकार करती है। तकनिक समयानुसार बदलती रहती है किन्तु विचार स्थायी होते हैं। तकनीकी विकास के कारण बिजली के बल्ब के कई रूप आज हमारे सामने आ चुके हैं किन्तु जिस ने प्रथम बार बल्ब बनाने का विचार किया था उस का अविष्कार महानतम था। इसी प्रकार आज के युग के कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अविष्कारों के जन्मदाता भारतीय ही हैं। कितने ही अदभुत विचार आज भी हमारे वेदों, पुराणों, महाकाव्यों तथा अन्य ग्रँथों में दबे पडे हैं और साकार होने के लिये तकनीक की प्रतीक्षा कर रहै हैं। उन को जानने के लिये हमें संस्कृत को ही अपनाना होगा।

उद्यौगिक घराने विचारों की खोज करने के लिये धन खर्च करते हैं, गोष्ठियाँ करवाते हैं, तथा ब्रेन स्टारमिंग सेशन आयोजित करते हैं ताकि वह नये उत्पादकों का अविष्कार कर सकें। यदि भारत में कोई विचार पंजीकृत कराने की पद्धति पहले होती तो आज भारत विचारों के जनक के रूप में इकलौता देश होता। किन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि संसार में दूसरा अन्य कोई देश नहीं जहाँ स्वदेशी विचारों का उपहास उडाया जाता हो। हम विदेशी वस्तुओं की प्रशंसा तोते की तरह करते हैं। भारत में आज विदेशी लोग किसी भी तर्कहीन अशलील, असंगत बात या उत्पादन का प्रचार, प्रसार खुले आम कर सकते हैं किन्तु यदि हम अपने पुरखों की परम्परा को भारत में ही लागू करवाने का विचार करें तो उस का भरपूर विरोध होता है।

हमें बाहरी लोग त्रिस्करित करें या ना करें, धर्म निर्पेक्षता का नाम पर हम अपने आप ही अपनी ग्लानि करने में तत्पर रहते हैं। विदेशी धन तथा सरकारी संरक्षण से सम्पन्न इसाई तथा मुस्लिम कटुटरपंथियों का मुकाबला भारत के संरक्षण वंचित, उपेक्षित हिन्दू कैसे कर सकते हैं इस पर हिन्दूओं को स्वयं विचार करना होगा। लेकिन इस ओर भी हिन्दू उदासीन और निर्लेप जीवन व्यतीत कर रहै हैं जो उन की मानसिक दास्ता ही दर्शाती है।

चाँद शर्मा

58 – क्षितिज पर अन्धकार


पश्चिम में जब सूर्य उदय होने से पहले ही भारत का सूर्य डूब चुका था। जब योरूपीय देशों के जिज्ञासु और महत्वकाँक्षी नाविक भारत के तटों पर पहुँचे तो वहाँ सभी तरफ अन्धकार छा चुका था। जिस वैभवशाली भारत को वह देखने आये थे वह तो निराश, आपसी झगडों और अज्ञान के घोर अन्धेरे में डूबता जा रहा था। हर तरफ राजैतिक षटयन्त्रों के जाल बिछ चुके थे। छोटे छोटे पडौसी राजे, रजवाडे, सामन्त और नवाब आपस में ऐक दूसरे का इलाका छीनने के सपने संजो रहै थे। देश में नाम मात्र की केन्द्रीय सत्ता उन मुगलों के हाथ में थी जो सिर से पाँव तक विलासता और जहालत में डूब चुके थे। हमें अपने इतिहास से ढूंडना होगा कि गौरवशाली भारत जर्जर हो कर गुलामी की जंजीरों में क्यों जकडा गया?

हिन्दू धर्म का विग्रह

ईसा से 563-483 वर्ष पूर्व भारत में बुद्ध-मत तथा जैन-मत वैदिक तथा ब्राह्मण वर्ग की कुछ परम्पराओं पर ‘सुधार’ स्वरूप आये। दोनों मतों के जनक क्रमशः क्षत्रिय राज कुमार सिद्धार्थ तथा महावीर थे। वह भगवान गौतम बुद्ध तथा भगवान महावीर के नाम से पूजित हुये। दोनों की सुन्दर प्रतिमाओं ने भारतीय शिल्प कला को उत्थान पर पहुँचाया। बहुत से राज वँशों ने बुद्ध अथवा जैन मत को अपनाया तथा कई तत्कालिक राजा संन्यास स्वरूप भिक्षुक बन गये स्वेछा से राजमहल त्याग कर मठों में रहने लगे।

बौद्ध तथा जैन मत के कई युवा तथा व्यस्क घरबार त्याग कर मठों में रहने लगे। उन्हों ने अपना परिवारिक व्यवसाय तथा कर्म छोड कर भिक्षु बन कर जीवन काटना शुरु कर दिया था। रामायण और महाभारत के काल में सिवाय शिवलिंग के अन्य मूर्ति पूजा का प्रचलन नहीं था किन्तु इस काल में यज्ञ विधान के साथ साथ मूर्ति पूजा भी खूब होने लगी थी। सिकन्दर की वापसी के पश्चात बुद्ध-मत का सैलाब तो भारत में रुक गया और उस के प्रसार की दिशा भारत से बाहर दक्षिण पूर्वी देशों की ओर मुड गयी। चीन, जापान, तिब्बत, लंका और जावा सुमात्रा आदि देशों में बुद्ध-मत फैलने लगा था, किन्तु जैन-मत भारत से बाहर नहीं फैल पाया।

हिन्दूओं का स्वर्ण युग

भारत में गुप्त काल के समय हिन्दू विचार धारा का पुर्नोत्थान हुआ जिस को हिन्दूओ का ‘सुवर्ण-युग’ कहा जाता है। हर क्षेत्र में प्रगति हुई। संस्कृत साहित्य में अमूल्य ग्रन्थों का सर्जन हुआ तथा संस्कृत भाषा कुलीन वर्ग की पहचान बन गयी। परन्तु इसी काल में हिन्दू धर्म में कई गुटों का उदय भी हुआ जिन में ‘वैष्णव समुदाय’, ‘शैव मत’ तथा ‘ब्राह्मण मत’ मुख्य हैं। इन सभी ने अपने अपने आराध्य देवों को दूसरों से बडा दिखाने के प्रयत्न में काल्पनिक कथाओं तथा रीति-रिवाजों का समावेश भी किया। माथे पर खडी तीन रेखाओं का तिलक विष्णुभक्त होने का प्रतीक था तो पडी तीन रेखाओं वाला तिलक शिव भक्त बना देता था – बस। देवों की मूर्तियाँ मन्दिरों में स्थापित हो गयीं तथा रीति रिवाजों की कट्टरता ने तर्क को अपने प्रभाव में ले लिया जिस से कई कुरीतियों का जन्म हुआ। पुजारी-वर्ग ने ऋषियों के स्थान पर अपना अधिकार जमा लिया।

कई मठ और मन्दिर आर्थिक दृष्टि से समपन्न होने लगे। कोई अपने आप को बौध, जैन, शैव या वैष्णव कहता था तो कोई अपनी पहचान ‘ताँत्रिक’ घोषित करता था। धीरे धीरे कोरे आदर्शवाद, अध्यात्मवाद, और रूढिवादिता में पड कर हिन्दू वास्तविकता से दूर होते चले गये और राजनैतिक ऐकता की अनदेखी भी करने लगे थे।

ईसा के 500 वर्ष पश्चात गुप्त वंश का प्रभुत्व समाप्त हो गया। गुप्त वँश के पश्चात कुशाण वँश में सम्राट कनिष्क प्रभाव शाली शासक थे किन्तु उन के पश्चात फिर हूण काल में देश में सत्ता का विकेन्द्रीय करण हो गया और छोटे छोटे प्रादेशिक राज्य उभर आये थे। उस काल में कोई विशेष प्रगति नहीं हुयी।

हिन्दू धर्म का मध्यान्ह

सम्राट हर्ष वर्द्धन की मृत्यु के पश्चात ही भारत के हालात पतन की दिशा में तेजी से बदलने लग गये। देश फिर से छोटे छोटे राज्यों में बट गया और प्रादेशिक जातियाँ, भाषायें, परम्परायें उठने लग पडी। छोटे छोटे और कमजोर राज्यों ने भारत की राजनैतिक ऐकता और शक्ति को आघात लगाया। राजाओं में स्वार्थ और परस्पर इर्षा देूष प्रभावी हो गये। वैदिक धर्म की सादगी और वैज्ञानिक्ता रूढिवाद और रीतिरिवाजों के मकडी जालों में उलझने लग पडी क्यों कि ब्राह्मण वर्ग अपने आदर्शों से गिर कर स्वार्थी होने लगा था। अध्यात्मिक प्रगति और सामाजिक उन्नति पर रोक लग गयी। 

कट्टर जातिवाद, राज घरानो में जातीय घमण्ड, और छुआ छूत के कारण समाज घटकों में बटने लग गया था। ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य विलासिता में घिरने लगे। संकुचित विचारधारा के कारण लोगों ने सागर पार जाना छोड दिया जिस के कारण सागर तट असुरक्षित हो गये, सीमाओं पर सारा व्यापार आक्रामिक अरबों, इरानियों और अफग़ानों के हाथ चला गया। सैनिकों के लिये अच्छी नस्ल के अरबी घोडे उप्लब्द्ध नहीं होते थे। अहिंसा का पाठ रटते रटते क्षत्रिय भूल गये थे कि धर्म-सत्ता और राजसत्ता की रक्षा करने के लिये समयानुसार हिंसा की भी जरूरत होती है। अशक्त का कोई स्वाभिमान, सम्मान या अस्तीत्व नहीं होता। इन अवहेलनाओं के कारण देश सामाजिक, आर्थिक, सैनिक और मानसिक दृष्टि से दुर्बल, दिशाहीन और असंगठित हो गया।

अति सर्वत्र वर्ज्येत

भारत में सांस्कृतिक ऐकता की प्रथा तो वैदिक काल से ही चली आ रही थी अतः जो भी भारत भूमि पर आया वह फिर यहीं का हो गया था। यूनानी, पा्रथियन, शक, ह्यूण गुर्जर, प्रतिहार कुशाण, सिकिथियन सभी हिन्दू धर्म तथा संस्कृति में समा चुके थे। कालान्तर सम्राट हर्ष वर्द्धन ने भी बिखरे हुये मतों को ऐकत्रित करने का पर्यास किया। बुद्ध तथा जैन मत हिन्दू धर्म का ही अभिन्न अंग सर्वत्र माने गये तथा उन के बौधिस्त्वों और तीर्थांकरों को विष्णु के अवतारों के समक्ष ही माना जाने लगा। सभी मतों की जीवन शैलि का आधार ‘जियो और जीने दो’ पर ही टिका हुआ था और भारतवासी अपने में ही आनन्द मग्न हो कर्म तथा संगठन का मार्ग भूल कर अपना जीवन बिता रहै थे। भारत से थोडी ही दूरी पर जो तूफान उभर रहा था उस की ध्वंस्ता से भारत वासी अनजान थे।

विचारने योग्य है कि यदि सिहं, सर्प, गरुड आदि अपने प्राकृतिक हिंसक स्वधर्म को त्याग कर केवल अहिंसा का मार्ग ही अपना लें और जीव नियन्त्रण कर्तव्य से विमुख हो जायें तो उन के जीवन का सृष्टि की श्रंखला में कोई अर्थ नहीं रहे गा। वह व्यर्थ के जीव ही माने जायें गे। भारत में अहिंसा के प्रति अत्याधिक कृत संकल्प हो कर शक्तिशाली राजाओं तथा क्षत्रियों नें अस्त्र-शस्त्रों का परित्याग करना शुरु दिया था। देश और धर्म की रक्षा की चिन्ता छोड कर उन्हों ने अपने मोक्ष मार्ग या निर्वाण को महत्व देना आरम्भ कर दिया जिस के कारण देश की सुरक्षा की अनदेखी होने लगी थी। युद्ध कला का प्रशिक्षण गौण होगया तथा भिक्षा-पात्र महत्व शाली हो गये। युद्ध नीति में प्रहारक पहल का तो नाम ही मिट गया। प्रशासन तन्त्र छिन्न भिन्न होने लगा और देश छोटे छोटे उदासीन, दिशाहीन, कमजोर राज्यों में बटने लगा। देश की सीमाओं पर बसने वाले छोटे छोटे लुटेरों के समूह राजाओं पर भारी पडने लगे थे। महाविनाश के लिये वातावरण तैयार होने लग पडा था।

विनाश की ओर

हिमालय नें हिन्दूओं को ना केवल उत्तरी ध्रुव की शुष्क हवाओं से बचा कर रखा हुआ था बलकि लूटमार करने वाली बाहरी क्रूर और असभ्य जातियों से भी सुरक्षित रखा हुआ था। हिन्दू अपनी सुरक्षा के प्रति अत्याधिक आसावधान और निशचिन्त होते चले गये और अपने ऋषियों के कथन – अति सर्वत्र वर्ज्येत – अति सदैव बुरी होती है –  को भी भूल बैठे थे। आलस्य, अकर्मण्यता तथा जातीय घमंड के कारण वह भारत के अन्दर कूयें के मैण्डकों की तरह रहने लग गये थे। मोक्ष प्राप्ति के लिये अन्तरमुखी हो कर वह देख ही नहीं पाये कि मुत्यु और विनाश नें उन के घर के दरवाजों को दस्तक देते देते तोड भी दिया था और महाविनाश उन के सम्मुख प्रत्यक्ष आ खडा हुआ था। यह क्रम भारत के इतिहास में बार बार होता रहा है और आज भी हो रहा है।

ईस्लामी विनाश की आँधी

इस्लाम की स्थापना कर के जब मुहमम्द ने आपस में स्दैव लडते रहने वाले रक्त पिपासु अनुयाईयों को उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव तक दुनियाँ को फतेह कर के अल्लाह का पैगाम फैला देने का आदेश दिया तो जहाँ कहीं भी सभ्य मानव समुदाय अपने अपने ढंग से शान्ति पूर्वक जीवन व्यतीत कर रहै थे वहाँ मुजाहिदों ने जिहाद आरम्भ कर दिया। शान्ति से जीवन काटते लोगों को जिहादियों की क्रूरता और बरबर्ता का अनुमान ही नहीं था। आन की आन में ही वहशियों ने उन्हें तथा उन की सभ्यताओं को तहस नहस कर के रख दिया।

मुहमम्द ने अपने आप को खुदा का इकलौता रसूल (प्रतिनिधि) घोषित किया था तथा अपने बन्दों को हुक्म दे रखा था कि उस के बताये उसूलों को तर्क की कसौटी पर मत परखें। केवल मुहमम्द पर इमान लाने के बदले में सभी को मुस्लिम समाज में मुस्सावियत (बराबरी) का हक़ दिया जाता था जिस के बाद उन क परम कर्तव्य था कि वह इस्लाम के ना मानने वालों को अल्लाह के नाम से कत्ल कर डालें। इस्लाम की विचारधारा में ‘जियो और जीने दो’ के बजाय ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ का ही प्रवधान था। अल्लाह के नाम पर मुहम्मद ने अपनी निजि पकड अरबवासियों पर कायम रखने के लिये उन्हें आदेश दिये किः-

              तुम अल्लाह और उस के भेजे गये रसूल (मुहम्मद), और कुरान पर यकीन करो। जो भी व्यक्ति अल्लाह, अल्लाह के फरिशतों, अल्लाह की किताब (कुरान),  अल्लाह के (मुहम्मद के जरिये दिये गये) आदेशों और अक़ाबत पर यकीन ना करे वह मुनक्कर (भटका हुआ) है। (4.136)

मुहम्माद ने अल्लाह के नाम पर अपने समर्थकों को काफिरों के वास्ते आदेश दियेः-

  • (याद रखो जब) अल्लाह ने अपना ‘आदेश’ फरिशतों से कहा-“ बेशक मैं तुम विशवस्नीयों के साथ हूँ, मैं काफिरों के दिल में खौफ पैदा करूँगा, और तुम उन की गर्दन के ऊपर, उंगलियों के छौरों और पैरों के अंगूठों पर सख्ती से वार करना।”(8.12)
  • उन के (काफिरों के) खिलाफ जितनी ताकत जुटा सको वह ताकतवर घोडों के समेत जुटाओ ताकि अल्लाह और तुम्हारे दुशमनों और उन के साथियों (जिन्हें तुम नहीं जानते मगर अल्लाह जानता है) के दिल में खौफ पैदा हो। तुम अल्लाह के लिये जो कुछ भी करो गे उस की भरपाई अल्लाह तुम्हें करे गा और तुम्हारे साथ अन्याय नहीं हो गा।(8.60)

अपने साथियों का मनोबल बढाने के लिये मुहम्मद ने उन्हें इस प्रकार के प्रलोभन जन्नत में वादा कियेः-

  • अल्लाह तमाम मुस्लमानों को जन्नत में स्थान देगा जो कि खास उन्हीं के लिये बनाय़ी गयी है। (47.6)
  • काफिरों के लिये जहन्नुम की आग में जलना और यातनायें सहना ही है। (47.8)
  • ऐ रसूल (मुहम्मद)! मुस्लमानों को जंग के लिये तौय्यार करो। अगर तुम्हारी संख्या बीस है तो वह दो सौ काफिरों पर फतेह पाये गी और अगर ऐक सौ है तो ऐक हजार काफिरों पर फतेह पाये गी क्यों कि काफिरों को कुछ समझ नहीं होती। (8.65)

इस्लाम में काफिरों के साथ हर प्रकार के विवाहित सम्बन्ध वर्जित थे। मुहम्मद ने मृत्यु से कुछ महीने पहले अपना अंतिम फरमान स प्रकार दियाः-

मेरे बाद कोई रसूल, संदेशवाहक, और कोई नया मजहब नहीं होगा।… मैं तुम्हेरे पास खुदा की किताब (कुरान) और निजि सुन्ना (निजि जीवन चरित्र) अपनाते रहने के लिये छोड कर जा रहा हूँ। 

अतः मुहम्मद ने इस प्रकार का मजहबी आदेश और मानसिक्ता दे कर मुस्लमानो को दुनियाँ में जिहाद के जरिये इस्लाम फैलाने का फरमान दिया जो प्रत्येक मुस्लिम के लिये किसी भी गैर मुस्लिम को कत्ल करना उन के धर्मानुसार न्यायोचित मानता है। यदि कोई मुस्लिम काबा की जियारत (तीर्थयात्रा) करे तो वह ‘हाजी’ कहलाता है, लेकिन हाजी कहलाने से भी अधिक ‘पुण्य-कर्म’ हे किसी काफिर का गला काटना जिस के फलस्वरूप वह ‘गाजी’ कहला कर जन्नत में जगह पाये गा जहाँ प्रत्येक मुस्लमान के लिये 72 ‘हूरें’ (सुन्दरियाँ) उस की सभी वासनाओं और इच्छाओं की पूर्ति करने के लिये हरदम तैनात रहैं गी।

सभ्यताओं का विनाश

इस मानसिक्ता और जोश के कारण इस्लाम नें लगभग आधे विश्व को तलवार के ज़ोर से फतेह कर

ऐक ऐक कर के अनेकों सभ्यतायें, जातियाँ और देश इस्लामी जिहादियों की तलवार की भैन्ट चढ गये। जिहादी वास्तव में सभ्यता से कोसों दूर केवल भेडों और ऊँटों को पालने का काम करते रहे थे। कोई भी देश उस प्रकार की तत्कालिक हिंसात्मक विनाश का सामना नहीं कर पाया जो असभ्य खूनियों ने विस्तरित संख्या में फैला दी थी। इस्लाम  के फतेह किये गये इलाकों में रक्तपात तभी रुका जब स्थानीय लोग या तो ईस्लामी धर्म में परिवर्तित हो गये या फिर कत्ल कर डाले गये। इस्लाम के जिहादियों ने स्थानीय लोगों को कत्ल तो किया ही, उन के पूजा स्थल भी ध्वस्त कर दिया और उन के धार्मिक ग्रन्थों तथा साहित्य को जला डाला, उन की परम्पराओं पर प्रतिबन्ध लगाये ताकि स्थानीय लोगों की पहचान का कोई भी चिन्ह बाकी ना रहै। बचे खुचे लोग या तो दुर्गम स्थलों पर जा कर रहने लगे, या इस्लाम में परिवर्तित हो कर मुसलमानों के गुलाम बना दिये गये। 

ऐशिया तथा योरूप के देशों ने मृत्यु के सामने साधारणत्या इस्लाम कबूल कर लिया किन्तु भारत में वातावरण वैसा नहीं था। भारत में मुहमम्द के जन्म से सदियों पहले ही सभ्यता का अंकुर फूट कर अब ऐक विशाल वृक्ष का रुप ले चुका था। हिन्दूओं ने इस्लाम को नहीं स्वीकारा और इस लिये भारत में इस्लाम का कडा विरोध निश्चित ही था। भारतवासियों के लिये वह प्रश्न गौरव के साथ जीने और गौरव के साथ ही मरने से जुडा था। भारत में भी गाँव और नगर आग से फूंक डाले गये, जनता का कत्ले आम किया गया फिर भी हिन्दू स्दैव इस्लाम की विरोध करते रहै।

चाँद शर्मा

56 – भारतीय ज्ञान का हस्तान्तिकरण


आठवी शताब्दी में मध्य ऐशिया क्षेत्र अरबों के राजनैतिक प्रभाव में आ चुका था और उन का शासन क्षेत्र सिन्धु से स्पेन तक फैल गया था। भारतीय ज्ञान का प्रभाव बग़दाद तक फैल तो चुका था किन्तु उस क्षेत्र की सत्ता अरबों के हाथ में थी जो इस्लाम कबूल कर चुके थे। समस्त अब्बासि सलतनत में अरबी भाषा के मदरस्से खुल चुके थे। अतः भारत से जो भी ज्ञान अभी तक वहाँ पहुँचा था उसे अरबी भाषा में अनुवाद कर के ही प्रयोग किया जा रहा था। जैसे जैसे भारतीय ज्ञान का प्रसार आगे बढा उस की पहचान मिट कर बदलती गयी।

सभी क्षेत्रों की उन्नति के लिये राजनैतिक स्थिरता का होना अति आवश्यक है। उस के बिना सभी कुछ बिखर जाता है। जब भारत में राजनैतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गयी तो सभी कुछ नष्ट होने लगा। हिन्दू धर्म का कोई संरक्षक भारत में ही नहीं रहा था जिस के कारण हिन्दूओं के सामाजिक, आर्थिक तथा धार्मिक संस्थान ऐक ऐक कर के चर्मराने लगे। भारतीय ज्ञान को भी अब अरबी फारसी का लिबास पहनाया जाने लगा था।

संस्कृत से अरबी के अनुवाद केन्द्र

सभी सूत्रों से ऐकत्रित किये गये ज्ञान को अरबी भाषा में अनुवाद करने का क्रम निम्नलिखित केन्द्रों पर चलने लगा थाः-

  • स्पेन – खलीफा अब्दुल रहमान III (891–961)  ने ऐक बडा पुस्तकालय कोरडोबा (स्पेन) में खुलवाया जिस में बग़दाद से लाये गये ग्रन्थों को रखा गया। इस पुस्तकालय में लगभग  400,000 पुस्तकों का संग्रह था।
  • सिसली – सिसली में भी अरबों का शासन था। उन्हों ने भी बग़दाद से प्राचीन ग्रन्थों को ला कर स्थानीय पुस्तकालय को भर दिया था। संस्कृत से अरबी अनुवाद का क्रम सोहलवीं शताब्दी के अन्त तक निरन्तर चलता रहा।
  • सीरिया – स्पेन के अतिरिक्त अनुवाद केन्द्र सीरिया, दमास्कस, पालेर्मो में भी काम कर रहे थे। इन्हीं स्थलों पर आर्यभट्ट की कृतियों का अनुवाद भी किया गया था।
  • योरुप – 1120 ईस्वी में ऐक स्पेन वासी अंग्रेज रोबर्ट आफ चैस्टर अलख्वारिसमि की कृति अलगोरित्मी डी न्यूमरो इनडोरम को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। यह कृति आर्य भट्ट के ग्रन्थ पर आधारित थी। इस अनुवाद के फलस्वरूप  भारतीय मूल के अंक, गणित, अंक-गणित तथा खगोल शास्त्र लेटिनी भाषा में प्रचलित हो कर योरुप वासियों तक पहुँचे तथा उन्ही के माध्यम से फ्रैक्शनंस, क्वार्डिक समीकर्ण, वर्गीकर्ण आदि के ज्ञान का प्रकाश योरुपीय देशों में हुआ।
  • फलस्तीन – 1224 ईस्वी में फ्रेड्ररिक ने नेप्लस में ऐक विश्व विद्यालय स्थापित किया जिस में संस्कृत तथा अरबी भाषा के ग्रन्थों का ऐक बडा संग्रह था। कई संस्कृत भाषा के मूल ग्रन्थो की अरबी भाषा में व्याख्या भी थी। वहाँ स्पेन से ऐक अनुवादक को भी लाया गया जिस ने अरस्तु के जीव विज्ञान के क्षेत्र की कृतियों को लेटिन भाषा में अनुवाद किया। अनुवादित ग्रन्थों की लेटिनी प्रतियाँ पैरिस तथा बोल्गना के विश्व विद्यालयों को भी प्रदान की गयीं थीं। फ्रेड्ररिक ने  1228-1229 ईस्वी में फिल्सतीन (पेलेस्टाईन) के विरुद्ध पंचम धर्म युद्ध भी छेडा और योरोश्लम, बेथेलहम तथा नजारथ नाम के ईसाई धर्म केन्द्रों को अरबों से पुनः विजय कर लिया। इस विजय के फलस्वरूप सुकरात, अफलातून तथा अरस्तु (सोक्रेटस, प्लेटो, एरिस्टोटल) की कृतियाँ पुनः योरप वासियों को प्राप्त हो गयीं। उन के साथ ही भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का ज्ञान भी योरुप में पहुँच गया जो गणित, खगोल शासत्र, चिकित्सा, भौतिक शास्त्र, रसायन, दर्शन तथा संगीत के क्षेत्र में विशष्ट ज्ञान था।

भ्रमात्मिक पडी भारतीय पहचान

समर्ण रहै यह वह समय था जब योरुपीय इतिहासकारों के अनुसार योरुप में ‘अंधकार-युग’ चल रहा था और रिनेसाँ का पदार्पण अभी नहीं हुआ था। इस समय भारत में तुग़लक वंश का शासन चल रहा था। ईसा के बाद भी ऐक हजार वर्षों तक उस काल के योरूप वासियों में भारत के बारे में कितनी अज्ञानता थी इस का अनुमान निम्नलिखित तथ्यों से लगाया जा सकता हैः-

  • यद्यपि अरब देशों में भारतीय अंकों को ‘हिन्दसे’ – (भारत से) के नाम से ही पुकारा जाता था तो भी भारतीय अंक 976 ईस्वी तक योरुपीय देशों में अरेबिक न्यूमेरल्स के भ्रमात्मिक नाम से पहचाने जाते थे। 1202 ईस्वी में लियोनार्डो पिसानो ने औपचारिक रुप से भारतीय हिन्दसों को योरुप में प्रसारित किया जिस के पश्चात हिन्दसे विश्व भर में लेन देन के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय अंकों के रुप में प्रचिल्लत हो गये।  
  • स्पेन की मोनास्ट्री सेन्टा मेरिया डि रिपौल में बहुत सारे अरबी भाषा के ग्रन्थो का अनुवाद लेटिन भाषा में हो चुका था। वास्तव में इन में से अधिकांश ग्रन्थ मूलतः संस्कृत से अरबी भाषा में अनुवाद किये गये थे किन्तु स्पेन वासियों को मौलिक ग्रंथों की जानकारी नहीं थी।
  • दसवीं शताब्दी में गरबर्ट आरिलैक (946-1003) ने पोप का पद सम्भाला। उन्हों ने भारतीय गिनती का विधान स्पेन के मूर विदूानों से सीखा था तथा उसी से प्रभावित होने के कारण 990 ईस्वी में उन्हों ने हिन्दसों के माध्यम से गिनती करना अपने शिष्यों को भी सिखाया। उन्हों ने उत्तरी स्पेन की यात्रा भी की और वहाँ से ‘अबाकस’ तथा ‘अस्ट्रोबल्स’ के अरबी अनुवादों का ला कर लेटिन भाषा में अनुवादित करवाया। समुद्री नाविकों तथा व्यापारियों को उन का प्रयोग करने के लिये प्रोत्साहित किया जिस के फलस्वरुप योरुपीय व्यापारिक तथा लेखा जोखा के क्षेत्रों में बहुत प्रगति हुयी। 

अंग्रेजी पर संस्कृत का प्रभाव

सम्बन्ध बोधक शब्द – संस्कृत भाषा का ‘पित्र’ शब्द अरबी फारसी में ‘पिदर’ और अंग्रेजी में ‘फादर’ बन गया। उसी प्रकार ‘मातृ’ – ‘मादर’ और ‘मदर’ बन गया, ‘भ्रातृ’ – ‘बिरादर’ से ‘ब्रदर’ बन गया। अंग्रेजी़ भाषा का ‘हजबैंड’ शब्द भी संस्कृत से ही जन्मा है। हजबैंड से तात्पर्य उस पुरुष से है जिस के हाथ किसी महिला के हाथों के साथ ऐक ‘बैंड’ लगा कर बाँध दिये गये हों ताकि वह अन्य महिलाओं के पीछा ना करे। यह विचार वैदिक विवाह पद्धति की उस परम्परा की ओर संकेत करता है जिस में पति अपनी पत्नी का दाहिना हाथ पकडता है और पति-पत्नी के हाथों में ऐक पवित्र धागा बाँध दिया जाता है।

नामकरण – विदेशों में नगरों के कई नाम भी संस्कृत से ही प्रभावित हुये हैं। उदाहरण स्वरूप ताशकन्द ‘तक्षकखण्ड’ का अपभ्रंश है। भारत का नाम कभी ‘भरतखण्ड’ भी था और उसी परम्परानुसार भारत में ‘बुन्देलखण्ड’ तथा ‘रोहेलखण्ड’ आदि इलाके आज भी हैं। दुर्गम नगरों को ‘गढ’ कहा जाता था जैसे कि – ‘लक्ष्मणगढ’, ‘पिथौरागढ’ आदि। लेनिनग्राद, स्टालिनग्राद आदि के नाम ‘गढ’ परम्परागत हैं। ‘लक्ष्मणबुर्ज’ की तर्ज पर ‘लक्ष्मबर्ग’ और इस प्रकार के अन्य नगरों के नाम बने हैं। इन के अतिरिक्त ‘सिहंपुर’ से सिंगापुर, ‘मलय’ से मलाया, ‘काम्बोज’ से कम्बोडिया आदि नाम परिवर्तित होते चले गये। कुछ भारतीय पुरुष और महिलायें भी आजकल विदेशों में जाकर विदेशियों की तरह अपने नाम उच्चारण करवाने का शोक रखते हैं। उसी प्रकार से ‘हरिकुल-ईश’ से हरकुलिस, ‘शम्भुसिहं’ से शिन बू सेन और ‘अलक्षेन्द्र’ से ऐलेगज़ेण्डर आदि नाम बनने लगे। भारत में ही अंग्रेज़ों ने कानपुर को ‘काउनपोर’ और लखनऊ को ‘लकनाओ’ बना रखा था।

पारवारिक परम्परायें – नव वधु जब पति के घर में पहली बार प्रवेश करती है तो दहलीज पर रखे हुये अक्ष्य पात्र को पाँव से ठोकर मार कर गिरा कर शुभ संकेत देती है कि उस के पदार्पण के पश्चात पति के घर में धन-धान्य की कभी कमी ना आये। क्योंकि योरुपीय देशों में चावल खाने का रिवाज नहीं है, परन्तु इसी रिवाज के समक्ष कई योरुपीय देशों के इसाई परिवारों में नव वधु प्रथम बार पति के घर में प्रवेश करते समय (अक्ष्य पात्र के बदले) शैम्पियन शराब की ऐक बोतल को ठोकर मार कर घर में प्रवेश करती है। 

कैलेण्डर – पुर्तगाली भाषा में, अंग्रेज़ी कैलेंडर के लिए ‘कलांदर’ शब्द प्रयुक्त होता है, जो शुद्ध संस्कृत ‘कालांतर’ (काल+अन्तर) का अपभ्रंश  है। भारतीय काल गणना के लिये युगांतर, मन्वंतर, कल्पांतर इत्यादि संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग किया गया है। कई अंग्रेज़ी महीनों के नाम जैसे कि सप्टेम्बर, ऑक्टोबर, नोह्वेम्बर, डिसेम्बर शुद्ध संस्कृत में  सप्ताम्बर (सप्त+अम्बर), अष्टाम्बर, नवाम्बर, दशाम्बर के रूपान्तर मात्र हैं।  एन्सायक्लोपिडीयाब्रिटानिका  के विश्व कोष के अनुसार ग्रेगॅरियनकैलैण्डर (रोमन कैलैण्डर) का प्रयोग 1750 ईसवी में इंगलैण्ड में स्वीकारा गया था। उस से योरुप में पहले ज्युलियनकैलैण्डर का प्रचलन था और मार्च महीने से ही नव वर्ष प्रारंभ होता था। तब सितम्बर सातवां, अक्तुबर आठवां, नवम्बर नव्मा, और डिसम्बर दसवां महीना होता था। फरवरी को वर्ष का अन्तिम महीना माना जाता था तथा फरवरी के अन्दर वर्ष में बचे खुचे दिनों को जोड दिया जाता था। कभी फरवरी में 28 दिन और कभी 29 दिन होते थे जब कि वर्ष के अन्य महीनों में 30-31 दिन होते थे। इंग्लैंड में सन 1752 तक 25 मार्च को नवीन वर्ष दिन मनाया जाता था। सन 1752 में पार्लियामेंट के प्रस्ताव द्वारा कानून पारित कर, नवीन वर्ष का प्रारंभ  पहली जनवरी को बदला गया था।

कट्टरपंथियों का ज्ञान विरोध 

सोहलवीं शताब्दी में सर्व प्रथम गेलिलो ने ब्रह्मगुप्त के ‘सिद्धान्त-शिरोमणी’ के लेटिन अनुवाद को समझने का प्रयत्न किया। 1585 तक गेलिलो ने भारत व्याखित कई प्राकृतिक नियमों को समझ लिया था। 1609 में उस ने अपने लिये ऐक नया टेलीस्कोप बनाया तथा चन्द्र के गड्ढों को देखा। 1610 में उस ने बृहस्पति के उपग्रहों को देखा। वास्तव में गेलिलो पाश्चात्य खगोल ज्ञान का जनक था जिस ने ग्रहों की गति के बारे में स्पष्ट व्याख्या की, किन्तु उसे पुरस्करित करने के बजाय उसे चर्च के कट्टरपंथियों का कडा विरोध इनक्यूजीशन के रूप में झेलना पडा था। जब उस नें ब्रह्मगुप्त के सिद्धान्त के आधार पर धरती की प्ररिकर्मा करने के बारे में व्याख्या की तो उसे चर्च की भ्रत्सना झेलनी पडी क्यो कि गेलिलो की ब्रह्मगुप्त सिद्धान्त पर आधारित व्याख्या गोस्पल से मेल नहीं खाती थी। गेलिलो को उस के घर साईना, इटली में बन्दी बनाया गया। जो भी वैज्ञायानिक तथ्य चर्च के कथन से मेल नहीं खाते थे उन का विरोघ होता था। वहाँ हिन्दू धर्म जैसी वैचारिक स्वतन्त्रता नहीं थी।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना मानव जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य है परन्तु रोज मर्रा के जीवन में तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से चर्च का हस्तक्षेप सीमित करने में योरुपवासियों को कई शताब्दियों तक परिश्रम करना पडा था। धीरे धीरे तथा कथित धर्म को सरकारी तथा ज्ञान और विद्या के क्षेत्र से स्वतन्त्र कर के ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बनाने की परिक्रिया शुरु हुई। इन्ही कारणों से धर्म-निर्पेक्षता नाम की शब्दावली का प्रयोग और महत्व आरम्भ हुआ। इस के पश्चात ही योरुपवासी विज्ञान के क्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से काम करने में सक्षम हुये और उन्हों ने हिन्दू ग्रन्थों के आधार पर अपने शोध कार्य को आगे बढाया जो अरबी से लेटिन में अनुवाद किये गये थे। चर्च के हस्तक्षेप में पाबन्दी तथा ज्ञान विज्ञान के आयात ने समस्त योरुप में प्रकाश फैलाया जिस कारण योरुपीय देशों का प्रभुत्व पूरे विश्व में फैलने लगा।  

पेटेन्ट चोरी के प्रयत्न

ना केवल क्रिश्चियन विदूानो का अपितु उस काल के योरूपियन वैज्ञानिकों का भी तब तक यही तर्क था कि सृष्टि का रचना केवल 5000 वर्ष पुरानी है। उन का ज्ञान डारविन के सिद्धान्त पर आधारित था जिस पर आज प्रश्न चिन्ह लग चुके हैं। विकास के नाम-मात्र छलावे में वह स्दैव पुरानी असत्य आस्थाओं को छोडते रहे हैं परन्तु पाश्चात्य बुद्धिजीवी नयी भ्रमाँतमिक आस्थायें भी अपने साथ बटोरते रहे है। यही चक्र उन के ज्ञान विकास के साथ चलता रहा है। इस की तुलना में भारतीय वैदिक ज्ञान अपने अर्जित सत्यों पर दृढ रहा है। वह स्थिर और शाश्वक है तथा समय के बदलाव भी उस की सत्यता को नहीं झुटला सके। 

भारत के ऋषियों ने आत्म ज्ञान के साथ साथ ज्ञान की खोज में यत्न भी किये। उन के समक्ष कोई ‘पेटेन्ट’ कराये गये निजि सम्पदा स्वरूप तथ्य नहीं थे जैसे कि पाश्चात्य बुद्धजीवियों ने अर्जित कर रखे हैं। पाश्चात्य देशों में आज भी ज्ञान चोरी और उसे अपना कहने का क्रम निरन्तर चल रहा है जिस के घृणित आधार पर पाश्चात्य जगत के लोग भारत को सपेरों का देश कहने का दुस्साहस करते हैं। पाश्चात्य देश आज भी योग, बासमती चावल, नीम आदि भारतीय उत्पादकों को अपने नाम से पेटेन्ट करवाने की फिराक में लगे हैं ताकि उन का व्यापार किया जा सके।

चाँद शर्मा

 

 

55 – योरुप में भारतीय रोशनी


योरूपीय देशों के लोग तुर्कों तथा पश्चिम ऐशिया के सम्पर्क में तो थे ही। योरूप के बुद्धिजीवियों ने ‘प्रथम-जागृति’ के समय लैटिन और ग्रीक पुस्तकों को अपनाया। उस के पश्चात उन्हों ने अरबी तथा फारसी के ग्रंथों को अनुवादित किया जो संस्कृत ग्रंथों से पहले ही प्रभावित हो चुके थे। प्रारम्भ में योरूप वासियों की गति विधियाँ ग्रंथों को अनुवादित करने और उन की प्रतिलिपियाँ बनाने तक ही सीमित रहीं। धीरे धीरे उन्हें अरबी-फारसी के ग्रन्थों में उन्हें भारतीय मौलिकता का ज्ञान हुआ। उस के पश्चात ही कई अरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत गर्न्थों का अनुवाद योरुपियन भाषाओं में किया गया और योरूप में ज्ञान की नयी रौशनी फैलने लगी जिसे ‘रिनेसाँ’ का युग कहा जाता है।

विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय ज्ञान

गणित –  1100 ईस्वी में रोबर्ट चेस्टर नामक अंग्रेज़ ने स्पेन की यात्रा की। उस ने वहाँ अलख्वारिस्मी की पुस्तक का लेटिन में अनुवाद किया। जिस के फलस्वरुप नये गणित के रुप में दशमलव पद्धति और अंकों के ‘स्थान’ (पोजीश्नल नोटेशन) से योरुपीय वासी परिचित हुये जो प्रारम्भ में योरुप वासियों को समझ नही पडे थे। नयी भारतीय पद्धति तथा अंकों को समझने में उन्हें देर लगी थी। वह दशमलव को क्रियात्मक ढंग से प्रयोग नहीं कर सके थे। बाद में जब डच गणितिज्ञ्य साईमन स्टेवन (1548-1620) ने दशामलव पद्धति को विस्तार से अपना पुस्तक लाथिन्डे में सझाया तो योरुपवासी भी दशमलव का प्रयोग करने लगे। साईमन स्टेवन के पश्चात मागिनी और क्रिस्टोफर क्लाडिस ने दशमलव पद्धति को अपनी कृतियों में प्रयोग किया। तत्पश्चात 1621 ईस्वी में बैकेट ने अरबी भाषा से अर्थमैटिका का अनुवाद लेटिन भाषा में किया।   

अंक गणित – अल मामोन ने 820 ईस्वी में अबू जफर मुहम्मद मूसा अलख्वारिस्मी (780-850) को बग़दाद में निमन्त्रित किया था। वह बग़दादी प्रतिनिधि मण्डलों की अगुवायी कर के दो बार भारत गया तथा वहाँ के विदूानों को मिल कर उन से कई ग्रन्थों की हस्तलिपियाँ ले कर वापिस आया। उन्हीं के आधार पर उस नें अरबी भाषा में ‘किताब अलजबर वा मुकाबला’ लिखी जिस का सारांशिक अर्थ जमा और घटाने की परिक्रिया से गिनती करना था। अलजबरा इसी परिक्रिया का संक्षिप्त लेटिन नाम है। कालान्तर इसी ग्रन्थ का लेटिन अनुवाद योरुप के विश्व विद्यालयों में गणित शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया।   

लोगरिद्म तथा पोज़ीश्नल नोटेशन पद्धति – 825 ईस्वी में अबू जफर अलख्वारिस्मी ने लोगरिद्म शून्य पद्धति तथा पोज़ीश्नल नोटेशन पद्धतिपर ऐक पुस्तक लिखी जो ब्रह्मगुप्त के ग्रन्थ पर आधारित थी। इस का लेटिन अनुवाद ‘अलगोरिदमी डि न्यूमरो इन्डोरम के नाम से छपा था। जिस समय स्पेन पर अरबों का अधिकार था उस समय इस पुस्तक का अरबी संस्करण स्पेन भी ले जाया गया था।

खगोल विज्ञान

अल बत्तानी (850-929) को योरुप में अलबत्तगिनस कहा जाता है। उस ने भारतीय खगोल शास्त्र, दर्शन शास्त्र, पतंजली योग सूत्रों तथा गणित का अध्यन किया था। उस ने श्रीमद् भागवद् गीता, सांख्य करिका, सृष्टि की उत्पत्ति तथा विनाश, हिन्दू पुनर्जन्म चक्र आदि का आलोचनात्मिक विशलेशण भी किया था। उस ने ट्रिग्नोमैट्री पद्धति का विस्तार कर के भारतीय विचारों की पुष्टि की तथा स्वीकारा कि पृथ्वी और सूर्य का अन्तर वर्ष में घटता बढता रहता है। किन्तु इस्लामी कट्टर पंथियों के डर से उस ने अपने स्वीकृत तथ्यों को परिभाषित कर दिया था कि “वैसा हिन्दू सोचते हैं ”। उदाहरणत्या उस ने कहा कि “हिन्दू मानते हैं कि सृष्टि की आयु 5 खरब वर्ष है जो कि उस के निजी ईस्लामी विचारों में ग़लत है”। अमेरिका के विषय में हिन्दूओं की भूगौलिक जानकारी के संदर्भ में भी उस ने कहा कि हिन्दू मानते हैं कि ऐक महादूीप रोम शहर से डायगनली विपरीत दिशा में है। यही विचार बाद में लेटिन में अनुवाद किये गये जिन से प्रभावित हो कर कोलम्बस आदि भारत की खोज के लिये पश्चिम जाने के लिये प्ररेरित हो गये थे और उस ने अमेरिका को ढूंड निकाला।

असेट्रोलेब्स 

आर्य भट्ट का जीवनकाल 475-550 ईस्वी का है। सर्वप्रथम उन्हों ने ही खोज निकाला था कि चन्द्र तथा अन्य ग्रह सूर्य की रौशनी से ही चमकते हैं, पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के फलस्वरुप दिन और रात बनते हैं तथा पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है जिस से वर्ष का अन्तरकाल बनता है। उन्हों ने ही गृहण के कारणों का विशलेशण किया और यह निष्कर्ष भी निकाला कि ग्रहों की सूर्य परिक्रमा गोल ना हो कर अण्डाकार होती है। आर्य भट्ट की गणना अनुसार पृथ्वी का व्यास 8316 मील बताया और इसी गणना से पाश्चात्य खगोल शास्त्री भी उत्साहित हुये। उस के पश्चातः-

  • 1050 ईस्वी में असेट्रोलेब्स ऐशिया से योरुप में प्रविष्ट हुये जहाँ उन का प्रयोग अक्षाँश तथा देशान्तर रेखाओं के निर्माण में किया गया। बाद में उन का प्रयोग समुद्र पर अपनी स्थिति और समय जानने कि लिये भी किया जाने लगा जिस से नाविकों के कार्य में गति आ गयी।   
  • बाथ निवासी अदिलार्ड (1075-1160) ने समुद्री जहाज़ के दूारा नये पूर्वी मार्ग से इसाई अधिकृत सीरिया तट तक की यात्रा की। उस ने अरबी भाषा में अनुवादित मूल यूक्लिड का लेटिन भाषा में अनुवाद भी किया।
  • ईटली वासी गेरार्ड ग्रीमोना ग्रीक तथा अरबी दोनो भाषायें जानता था। 1175 ईस्वी में उस ने पटोल्मी की खगौलिक कृति ‘दि अलमागेस्ट का लेटिन में अनुवाद किया। इस उनुवाद के फलस्वरूप पटोल्मी की भ्रमात्मिक जानकारी का प्रसार भी हुआ। इस के अतिरिक्त गेरार्ड ग्रीमोना ने गालेन, अरस्तु, यूक्लिड तथा अलख्वारिस्मी की कृतियों को भी अरबी भाषा से लेटिन में अनुवाद किया।
  • 1190 ईस्वी में यहूदी दार्शनिक मोज़ेज माइमोनिडस ने अरस्तु की दार्शनिक विचारों से प्रेरित हो कर दि गाईड फार दि परपलेक्सड.’ की रचना की।

नक्षत्रों के मान चित्र तथा तालिकायें

भारतीय ज्ञान पर आधिरित खगोल शास्त्र सम्बन्धी प्राचीनत् आँकडे तथा मानचित्र बग़दाद में कनक नामक भारतीय के दूारा लाये गये थे। बग़दाद से वह स्पेन के रास्ते से योरुप पहुँचे। 1126 ईस्वी में स्पेन में उन का लेटिन  अनुवाद किया गया था। उन आँकडों तथा मानचित्रों को योरुपीय देशों में खगोल जानकारी के क्षेत्र की अमूल्य प्राप्ति  माना गया। उन के फलस्वरुपः

  • 1272 ईस्वी में अलफोंसाईन टेबल्स (नक्षत्रों की तालिकायें) टोलेडो स्पेन में बनाये गये जिन से ग्रहों की चाल तथा स्थिति की जानकारी मिलती थी।
  • उन्हीं मानचित्रों को प्रकाशित करने में 200 वर्ष का समय लगा तथा 1483 में प्रकाशित होने के पश्चात उन की जानकारी का विस्तरित प्रयोग होने लगा। प्रकाशन की क्रिया को समपन्न करने के लिये उस समय के चोटी के खगोलशास्त्रियों को सहायतार्थ केस्टाईल के अलफैंन्सो दशम ने ऐकत्रित किया था। 

पृथ्वी की गति 

आर्य भट्ट की पृथ्वी सम्बन्धी खोज से सभी सहमत थे कि पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के फलस्वरुप दिन और रात बनते हैं तथा पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है जिस से वर्ष का अन्तरकाल बनता है तथा पृथ्वी का व्यास 8316 मील है। 1224 ईस्वी में अबदुल्लाउर रऊमी ने ‘मुजामुल बुलदान’ नामक भूगौलिक बृहदकोष (ज्योग्राफिकल ऐनसाइक्लोपीडिया) तैयार किया। उस क् पश्चात 1440 में कासानस ने पृथ्वी के निरन्तर गतिमान रहने के सिद्धान्त की व्याख्या की और कहा कि अंतरीक्ष अति विस्तरित है। इन्हीं विचारों को ऐडविन हब्बल नें बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में दोहराया और कहा कि ग्रह पृथ्वी से बाहर की ओर फैल कर सृष्टि को विस्तरित करते जा रहे हैं । यह वही बात थी जो भारत के प्राचीनतम ग्रन्थ शताब्दियों पूर्व से ही कहते चले आ रहे थे।

न्यूटन का अग्रज

सर्वप्रथम गति के विभिन्न आँकलन विशेषका दर्शन शास्त्र में किये गये थे परन्तु प्रस्थापदा ने इस विज्ञान का छटी शताब्दी में विस्तार से विशलेषण किया। उस के अनुसंघानों का आधार ग्रहों की गति, ध्रुवीकरण और आकर्षण था। उस की व्याख्या का आधार गति की तीव्रता तथा लचीलापन भी था जिस का प्रभाव विपरीत दिशा में पडता था। यह सिद्धान्त न्यूटन के ‘ला आफ मोशन का अग्रज था।

चिकित्सा विज्ञान

औषधि तथा शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में सुश्रुत तथा चरक के समय से ही महत्वशील प्रगति हो चुकी थी। ईसा से छटी शताब्दी पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने स्नायु तन्त्र, हृदय की धमनियों तथा अन्य शरीरिक द्रव्यों के बारे में विस्तरित उल्लेख कर दिये थे। उन्हें पाचन क्रिया, तथा उस में सहायक द्रव्यों और भोजन को रक्त में परिवर्तित होने की पूर्ण जानकारी थी। पाशचात्य जानकारी तो इन विषयों पर उजागर ही नहीं हुयी थी। उन को इस विषय पर बहुत समय पश्चात ज्ञान हुआ।

  • औषधि शास्त्र ईटली केऔषध शास्त्री पीयट्रो डी अबानो (1200-1300) ने कोंसिलेटर डिफरेंशिया रम् नामक पुस्तक लिखी जो यूनानी और अरब वासियों की चिकित्सा जानकारी का मिश्रण मात्र थी। उस ने मस्तिष्क को स्नायु तन्त्र का केन्द्र तथा हृदय को रक्त शिराओं का स्त्रोत्र बताया। ईसाई कट्टरपंथियों ने उसे ‘जादूगर’ घोषित कर दिया तथा उसे चर्च विचारधारा के विरुद्ध जानकारी प्रसारित करने के अपराध में स्पेनिश कोर्ट ने मृत्यु दण्ड दे दिया।
  • मानव शरीर ऐन्ड्रियाज विसालिया ने 1543 में मानव शरीर के सम्बन्ध में ऐक पुस्तक लिखी जिसका नाम – औन दि स्टरक्चर आफ ह्यूमन बाडीथा। उस ने समस्त जानकारी चोरी छिपे मृत शीरीरों को काट काट कर प्राप्त की थी जो उस समय अपराध मानी जाती थी। परन्तु कालान्तर उस की कृति ने मानव शरीर सम्बन्धी कई योरुपीय भ्रानतियों को दूर करने में सहायता की।
  • रक्त प्रवाह विलियम हार्वे ने1628 ईस्वी में मानव शरीर में रक्त संचालन क्रिया की जानकारी दी जिस से य़ोरूप के आधुनिक ज्ञान का जन्म हुआ। हार्वे से पूर्व रक्त संचलन क्रिया के बारे में पाश्चात्य देशों में कई भ्रानतियाँ थीं। उदाहरणत्या अरस्तु के मतानुसार “रक्त लिवर में उत्पन्न होता था ”। अन्य लोगों के मतानुसार शरीर में रक्त हल्के झटकों के साथ गतिमान होता है। हार्वे ने पहली बार रक्त तथा हृदय का यथार्थ उल्लेख किया। उस ने यह जानकारी भी दि कि स्तनधारी जीव अण्डों से पैदा होते हैं। परन्तु उस के सिद्धान्त को स्वीकारने में लोगों को 150 वर्ष लगे।

ललित कलायें

ओपेरा का जन्म कालीदास के समय में भारत मे ही हुआ था। फ्रैड्रिक दूतीय ने भारतीय तथा अरबी भाषा के ग्रन्थों के अनुवाद को प्रोत्साहन दिया। फ्रैड्रिक को 1220 में पवित्र रोमन शासक बनाया गया था । उस के समीप दार्शनिकों, विदूानों तथा बगदाद और सीरिया से आये साधू संतों का जमावडा लगा रहता था। इस के अतिरिक्त भारत और ईरान से नर्तकियों का भी जमावडा रहता था। इस कारण कई भारतीय नृत्यों का समावेश पाश्चात्य नृत्य कला में भी हुआ। भारतीय परमपराओं ने ईटली के ओपेरा को भी प्रभावित किया।

जब हमारे पूर्वज उन्नति के शिखर पर रह चुके थे तो उस की तुलना में उन्नीसवीं शताब्दी तक अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन रात को ‘भालू की खाल’ ओढ कर सोते थे और उन के सम्बन्धी मृग चर्म से अपने शरीर ढकते थे। य़ोरुपीय देश अपनी कालोनियों के स्थानीय निवासियों को लूटने, उन का धर्मान्तरण करवाने और उन्हें गुलाम बना कर बेचने के कारोबार में ही लगे हुये थे।   

चाँद शर्मा

 

51 – अवशेषों से प्रत्यक्ष प्रमाण


आधुनिक भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है। उस से पूर्व के इतिहास को ‘ प्रमाण-रहित’ कह कर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देसी अंग्रेजों’ को यदि सर जान मार्शल प्रमाणित नहीं करते तो हमारे  ‘बुद्धिजीवियों’ को विशवास ही नहीं होना था कि हडप्पा और मोइन जोदडो स्थल ईसा से लग भग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।

विदेशी इतिहासकारों के उल्लेख 

विश्व की प्राचीनतम् सिन्धु घाटी सभ्यता मोइन जोदडो के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोइन जोदडो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्हों ने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पडे थे। कई अस्थि पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड रखे थे मानों किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।

उन नर कंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो -ऐक्टीविटी  के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे। मोइन जोदडो स्थल के अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन  के जो चिन्ह पाये गये थे उस का कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्यों कि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है। 

मोइनजोदडो की भूगोलिक स्थिति

मोइन जोदडो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उस के चारों ओर दो किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से आरम्भ हो कर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने पाया कि मिट्टी चूने के बर्तनों के अवशेष किसी ऊष्णता के कारण पिघल कर ऐक दूसरे के साथ जुड गये थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों को पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने काले पत्थरों ‘बलैक –स्टोन्सकी संज्ञा दी। वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोइन जोदडो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी। 

निशकर्ष यही हो सकता है कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची जिस में चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये । अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार की घटना अणु बम के विस्फोट पश्चात ही घटती है। 

महाभारत के आलेख

इतिहास मौन है परन्तु महाभारत युद्ध में महा संहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान रथों के साथ ऐक एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट  था और उस में चार पहिये लगे थे। देव दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लैस सैनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्व शाली जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के वज्र अपने चक्रदार रफलेक्टर  के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस अस्त्र को जब दाग़ा गया तो ऐक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उस ने अपने लक्ष्य को निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-

“अत्यन्त शक्तिशाली विमान से ऐक शक्ति – युक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया…धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिस की चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा…वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया…उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे. उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे…बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे…कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए…उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया…” 

उपरोक्त वर्णन दृश्य रूप में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।

ऐक अन्य वृतान्त में श्री कृष्ण अपने प्रतिदून्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उस को नष्ट करने के विचार से श्री कृष्ण नें ऐक ऐसा अस्त्र छोडा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर सकता था। आजकल ऐसे मिस्साईल्स  को हीटसीकिंग और साऊडसीकरस  कहते हैं और आधुनिक सैनाओं दूारा प्रयोग किये जाते हैं।

रामायण से भी

प्राचीन ग्रन्थों में चन्द्र यात्रा का उल्लेख भी किया गया है। रामायण में भी विमान से चन्द्र यात्रा का विस्तरित उल्लेख है। इसी प्रकार ऐक अन्य उल्लेख चन्द्र तल पर अशविन वैज्ञानिक के साथ युद्ध का वर्णन है जिस से भारत के तत्कालित अन्तरीक्ष ज्ञान तथा एन्टी  –ग्रेविटी  तकनीक के बारे में जागृति का आभास मिलता है जो आज के वैज्ञानिक तथ्यों के अनुरूप है जब कि अन्य मानव सभ्यताओं ने तो इस ओर कभी सोचा भी नहीं था। रामायण में हनुमान की उडान का वर्णन किसी कोनकार्ड हवाई जहाज के सदृष्य है

       “समुत्पतित वेगात् तु वेगात् ते नगरोहिणः। संहृत्य विटपान् सर्वान् समुत्पेतुः समन्ततः।।    (45)…उदूहन्नुरुवेगन जगाम विमलsम्बरे…सारवन्तोsथ ये वृक्षा न्यमज्जँल्लवणाम्भसि…  तस्य वानरसिहंहस्य प्लवमानस्य सागरम्। कक्षान्तरगतो वायुजीर्मूत इव गर्जति।।(64)… यं यं देशं समुद्रस्य जगाम स महा कपि। स तु तस्यांड्गवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते।। (68)…  तिमिनक्रझषाः कूर्मा दृश्यन्ते विवृतास्तदा…प्रविशन्नभ्रजालीनि निष्पंतश्र्च पुनःपुनः…” (82)

       “जिस समय वह कूदे, उस समय उन के वेग से आकृष्ट हो कर पर्वत पर उगे हुये सब वृक्ष  उखड गये और अपनी सारी डालियों को समेट कर उन के साथ ही सब ओर से वेग पूर्वक उड चले…हनुमान जी वृक्षों को अपने महान वेग से उपर की ओर खींचते हुए निर्मल आकाश  में अग्रसर होने लगे…उन वृक्षों में जो भारी थे, वह थोडी ही देर में गिर कर क्षार समुद्र में डूब  गये…ऊपर ऊपर से समुद्र को पार करते हुए वानर सिहं हनुमान की काँख से होकर निकली हुयी वायु बादल के समान गरजती थी… वह समुद्र के जिस जिस भाग में जाते थे वहाँ वहाँ उन के अंग के वेग से उत्ताल तरंगें उठने लगतीं थीं उतः वह भाग उन्मत से दिखाई देता था…जल के हट जाने के कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, नाकें, मछलियाँ और कछुए  साफ साफ दिखाई देते थे… वे बारम्बार बादलों के समूह में घुस जाते और बाहर निकल आते थे…”  

क्या कोई ऐरियोनाटिक विशेष्ज्ञ इनकार कर सकता है कि उपरोक्त वृतान्त किसी वेग गति से उडान भरने वाले विमान पर वायु के भिन्न भिन्न दबावों का कलात्मिक और वैज्ञानिक चित्रण नहीं है? हम अंग्रेजी समाचार पत्रों में इस प्रकार के शीर्षक अकसर पढते हैं  कि ‘ओबामा फलाईज टू इण्डिया– अब यदि दो हजार वर्ष पश्चात इस का पाठक यह अर्थ निकालें कि ओबामा  वानर जाति के थे और हनुमान की तरह उड कर भारत गये थे तो वह उन के  अज्ञान को आप क्या कहैं गे ?

राजस्थान से भी

प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव  राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।

हमें गर्वित कौन करे?

भारतीय स्त्रोत्र के ग्रन्थ प्रचुर संख्या में प्राप्त हो चुके है। उन में से कितने ही संस्कृत से अन्य भाषाओं में अनुवाद नहीं किये गये और ना ही पढे गये हैं। आवश्यक्ता है कि उन का आंकलन करने के लिये उन पर शोध किया जाये। ‘यू एफ ओ (अन आईडेन्टीफाईड औबजेक्ट ) तथा ‘उडन तशतरियों ‘के आधुनिक शोध कर्ताओं का विचार रहा है कि सभी यू एफ ओ तथा उडन तशतरियाँ या तो बाह्य जगत से आती हैं या किसी देश के भेजे गये छद्म विमान हैं जो सैन्य समाचार एकत्रित करते हैं लेकिन वह आज तक उन के स्त्रोत्र को पहचान नहीं पाये। ‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल पालतु जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जातीं हैं, अपने आप खुलने और बन्द होजाने वाले दरवाजे किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजे पहले आशचर्य जनक थीं परन्तु आज ऐक आम बात बन चुकी हैं। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उडान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।

निस्संदेह रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो प्रथक-प्रथक ऋषि थे और आजकल की सैनाओं के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं था। वह दोनो महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक – फिक्शन  के थ्रिल्लर – राईटर  नहीं थे। उन के उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यक कल्पना क्या होती है। कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यक्ता होती है।

भारत के असुरक्षित भण्डार 

भारतीय मौसम-ज्ञान का इतिहास भी ऋगवेद काल का है। उडन खटोलों के प्रयोग के लिये मौसमी प्रभाव का ज्ञान होना अनिवार्य है। प्राचीन ग्रन्थों में विमानों के बारे में विस्तरित जानकारीके साथ साथ मौसम की जानकारी भी संकलित है। विस्तरित अन्तरीक्ष और समय चक्रों की गणना इत्यादी के सहायक विषय भारतीय ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से उल्लेखित हैं। भारत के ऋषि-मुनी बादल तथा वेपर, मौसम और ऋतु का सूक्षम फर्क, वायु के प्रकार, आकाश का विस्तार तथा खगौलिक समय सारिणी बनाने के बारे में में विस्तरित जानकारी रखते थे। वैदिक ज्ञान कोई धार्मिक कवितायें नहीं अपितु पूर्णत्या वैज्ञानिक उल्लेख है और भारत की विकसित सभ्यता की पुष्टि करते है। 

कंसेप्ट का जन्म पहले होता है और वह दीर्घ जीवी होती है। कंसेप्ट  को तकनीक के माध्यम से साकार किया जाता है किन्तु तकनीक अल्प जीवी होती है और बदलती रहती है। अतः कम से कम यह तो प्रमाणित है कि आधुनिक विज्ञान की उन सभी महत्वपूर्ण कंसेप्ट्स  का जन्म भारत में हुआ जिन्हें साकार करने का दावा आज पाश्चात्य वैज्ञानिक कर रहै हैं। प्राचीन भारतियों नें उडान के निर्देश ग्रन्थ स्वयं लिखे थे। विमानों की देख रेख के विधान बनाये थे। यदि यथार्थ में ऐसा कुछ नहीं था तो इस प्रकार के ग्रन्थ आज क्यों उपलब्द्ध होते? इस प्रकार के ग्रन्थों का होना किसी लेखक का तिलसमी साहित्य नहीं है अपितु ठोस यथार्थ है। 

बज़बम

पाणिनि से लेकर राजा भोज के काल तक हमें कई उल्लेख मिलते हैं कि तक्षशिला वल्लभी, धार, उज्जैन, तथा वैशाली में विश्व विद्यालय थे। इतिहास यह भी बताता है कि दूसरी शताब्दी से ही नर संहार और शैक्षिक संस्थानों का हनन भी आरम्भ हो गया था। इस के दो सौ वर्ष पश्चात तो भारत में विदेशियों के आक्रमणों की बाढ प्रति वर्ष आनी शुरु हो गयी थी। अरबों के आगमन के पश्चात तो सभी विद्यालय तथा पुस्तकालय अग्नि की भेंट चढ गये थे और मानव विज्ञान की बहुत कुछ सम्पदा नष्ट हो गयी या शेष लुप्त हो गयी। बचे खुचे उप्लब्द्ध अवशेष धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण ज्ञान केन्द्रों से बहिष्कृत कर दिये गये।

जर्मनी के नाझ़ियों ने सर्व प्रथम बज़ बमों के लिये पल्स –जेट ईंजनों का अविष्कार किया था। यह ऐक रोचक तथ्य है कि सन 1930 से ही हिटलर तथा उस के नाझी सलाहकार भारत तथा तिब्बत के इलाके में इसी ज्ञान सम्बन्धी तथ्यों की जानकारी इकठ्ठी करने के लिये खोजी मिशन भेजते रहै हैं। समय के उलट फेरों के साथ साथ कदाचित वह मशीनें और उन से सम्बन्धित रहिस्यमयी जानकारी भी नष्ट हो गयी थी। 

तिलिसम नहीं यथार्थ

ऐक वर्ष पूर्व 2009 तक पाश्चात्य वैज्ञानिक विश्व के सामने अपने सत्य का ढोल पीटते रहे कि “चन्द्र की धरती पर जल नहीं है”। फिर ऐक दिन भारतीय ‘चन्द्रयान मिशन’ नें चन्द्र पर जल होने के प्रमाण दिये। अमेरिका ने पहले तो इस तथ्य को नकारा और अपने पुराने सत्य की पुष्टि करने के लिये ऐक मिशन चन्द्र की धरती पर उतारा। उस मिशन ने भी भारतीय सत्यता को स्वीकारा जिस के परिणाम स्वरूप अमेरिका आदि विकसित देशों ने दबे शब्दों में भारतीय सत्यता को मान लिया।

इस के कुछ समय पश्चात ऐक अन्य पौराणिक तथ्य की पुष्टि भी अमेरिका के नासा वैज्ञानिकों ने करी। भारत के ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा था कि “कोटि कोटि ब्रह्माण्ड हैं”। अब पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसी बात को दोहरा रहे हैं कि उन्हों नें बिलियन  से अधिक गेलेख्सियों का पता लगाया है। अतः अधुनिक विज्ञान और भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान में कोई फर्क नहीं रहा जो स्वीकारा नहीं जा सकता।

सत्य तो क्षितिज की तरह होता है। जितना उस के समीप जाते हैं उतना ही वह और परे दिखाई देने लगता है। इसी तथ्य को ऋषियों ने ‘माया’ कहा है। हिन्दू विचार धारा में ईश्वर के सिवा कोई अन्य सत्य नहीं है। जो भी दिखता है वह केवल माया के भिन्न भिन्न रूप हैं जो नश्वर हैं। कल आने वाले सत्य पहिले ज्ञात सत्यों को परिवर्तित कर सकते हैं और पू्र्णत्या नकार भी सकते हैं। यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। विज्ञान का यह सब से महत्व पूर्ण तथ्य हिन्दू दार्शिनकों नें बहुत पहले ही खोज दिया था।

हमारी दूषित शिक्षा का परिणाम

आधुनिक विमानों के आविष्कार सम्बन्धी आलेख बताते हैं कि बीसवीं शताब्दी में दो पाश्चात्य जिज्ञासु उडने के विचार से पक्षियों की तरह के पंख बाँध कर छत से कूद पडे थे और परिणाम स्वरूप अपनी हड्डियाँ तुडवा बैठे थे, किन्तु भारतीय उल्लेखों में इस प्रकार के फूहड वृतान्त नहीं हैं अपितु विमानों की उडान को क्रियावन्त करने के साधन (इनफ्रास्टर्क्चर) भी दिखते हैं जिसे आधुनिक विज्ञान की खोजों के साथ मिला कर परखा जा सकता है। सभी कुछ सम्भव हो चुका है और शेष जो रह गया है वह भी हो सकता है।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना, हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।

जो विदेशी पर्यटक भारत आ कर चरस गाँजा पीने वाले अध नंगे फकीरों के चित्र पश्चिमी पत्रिकाओं में छपवाने के आदि हो चुके हैं वह भारत को सपेरों लुटेरों का ही देश मान कर अपने विकास का बखान करते रहते हैं। वह भारत के प्राचीन इतिहास को कभी नहीं माने गे। उन्हीं के सिखाये पढाये तोतों की तरह के कुछ भारतीय बुद्धिजीवी भी पौराणिक तथ्यों को नकारते रहते हैं किन्तु सत्यता तो यह है कि उन्हों ने भारतीय ज्ञान कोषों को अभी तक देखा ही नहीं है। जो कुछ विदेशी यहाँ से ले गये और उसी को समझ कर जो कुछ विदेशी अपना सके वही आज के पाश्चात्य विज्ञान की उपलब्द्धियाँ हैं जिन्हें हम योरूप के विकासशील देशों की देन मान रहे हैं। 

य़ह आधुनिक हिन्दू बुद्धिजीवियों पर निर्भर करता है कि वह अपने पूर्वजों के अर्जित ज्ञान को पहचाने, उस की टूटी हुई कडियों को जोडें और उस पर अपना अधिकार पुनः स्थापित करें या उस का उपहास उडा कर अपनी मूर्खता और अज्ञानता का प्रदर्शन करते रहैं। 

चाँद शर्मा

50 – प्राचीन वायुयानों के तथ्य


भारत के प्राचीन ग्रन्थों में आज से लगभग दस हजार वर्ष पूर्व विमानों तथा उन के युद्धों का विस्तरित वर्णन है। सैनिक क्षमताओं वाले विमानों के प्रयोग, विमानों की भिडन्त, तथा ऐक दूसरे विमान का अदृष्य होना और पीछा करना किसी आधुनिक वैज्ञिानिक उपन्यास का आभास देते हैं लेकिन वह कोरी कलपना नहीं यथार्थ है।

प्राचीन वामानों के प्रकार

प्राचीन विमानों की दो श्रेणिया इस प्रकार थीः-

  • मानव निर्मित विमान, जो आधुनिक विमानों की तरह पंखों के सहायता से उडान भरते थे।
  • आश्चर्य जनक विमान, जो मानव निर्मित नहीं थे किन्तु उन का आकार प्रकार आधुनिक ‘उडन तशतरियों’ के अनुरूप है।

विमान विकास के प्राचीन ग्रन्थ

भारतीय उल्लेख प्राचीन संस्कृत भाषा में सैंकडों की संख्या में उपलब्द्ध हैं, किन्तु खेद का विषय है कि उन्हें अभी तक किसी आधुनिक भाषा में अनुवादित ही नहीं किया गया। प्राचीन भारतीयों ने जिन विमानों का अविष्कार किया था उन्हों ने विमानों की संचलन प्रणाली तथा उन की देख भाल सम्बन्धी निर्देश भी संकलित किये थे, जो आज भी उपलब्द्ध हैं और उन में से कुछ का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया जा चुका है। विमान विज्ञान विषय पर कुछ मुख्य प्राचीन ग्रन्थों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

1.     ऋगवेद– इस आदि ग्रन्थ में कम से कम 200 बार विमानों के बारे में उल्लेख है। उन में तिमंजिला, त्रिभुज आकार के, तथा तिपहिये विमानों का उल्लेख है जिन्हे अश्विनों (वैज्ञिानिकों) ने बनाया था। उन में साधारणत्या तीन यात्री जा सकते थे। विमानों के निर्माण के लिये स्वर्ण, रजत तथा लोह धातु का प्रयोग किया गया था तथा उन के दोनो ओर पंख होते थे। वेदों में विमानों के कई आकार-प्रकार उल्लेखित किये गये हैं। अहनिहोत्र विमान के दो ईंजन तथा हस्तः विमान (हाथी की शक्ल का विमान) में दो से अधिक ईंजन होते थे। एक अन्य विमान का रुप किंग-फिशर पक्षी के अनुरूप था। इसी प्रकार कई अन्य जीवों के रूप वाले विमान थे। इस में कोई सन्देह नहीं कि बीसवीं सदी की तरह पहले भी मानवों ने उड़ने की प्रेरणा पक्षियों से ही ली होगी। याता-यात के लिये ऋग वेद में जिन विमानों का उल्लेख है वह इस प्रकार है-

  • जल-यान – यह वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 6.58.3)
  • कारा – यह भी वायु तथा जल दोनो तलों में चल सकता था। (ऋग वेद 9.14.1)
  • त्रिताला – इस विमान का आकार तिमंजिला था। (ऋग वेद 3.14.1)
  • त्रिचक्र रथ – यह तिपहिया विमान आकाश में उड सकता था। (ऋग वेद 4.36.1)
  • वायु रथ – रथ की शकल का यह विमान गैस अथवा वायु की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 5.41.6)
  • विद्युत रथ – इस प्रकार का रथ विमान विद्युत की शक्ति से चलता था। (ऋग वेद 3.14.1).

2.     यजुर्वेद में भी ऐक अन्य विमान का तथा उन की संचलन प्रणाली उल्लेख है जिस का निर्माण जुडवा अशविन कुमारों ने किया था। इस विमान के प्रयोग से उन्हो मे राजा भुज्यु को समुद्र में डूबने से बचाया था।

3.         विमानिका शास्त्र 1875 ईसवी में भारत के ऐक मन्दिर में विमानिका शास्त्र ग्रंथ की ऐक प्रति मिली थी। इस ग्रन्थ को ईसा से 400 वर्ष पूर्व का बताया जाता है तथा ऋषि भारदूाज रचित माना जाता है। इस का अनुवाद अंग्रेज़ी भाषा में हो चुका है। इसी ग्रंथ में पूर्व के 97 अन्य विमानाचार्यों का वर्णन है तथा 20 ऐसी कृतियों का वर्णन है जो विमानों के आकार प्रकार के बारे में विस्तरित जानकारी देते हैं। खेद का विषय है कि इन में से कई अमूल्य कृतियाँ अब लुप्त हो चुकी हैं। इन ग्रन्थों के विषय इस प्रकार थेः-

  • विमान के संचलन के बारे में जानकारी, उडान के समय सुरक्षा सम्बन्धी जानकारी, तुफान तथा बिजली के आघात से विमान की सुरक्षा के उपाय, आवश्यक्ता पडने पर साधारण ईंधन के बदले सौर ऊर्जा पर विमान को चलाना आदि। इस से यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि इस विमान में ‘एन्टी ग्रेविटी’ क्षेत्र की यात्रा की क्षमता भी थी।
  • विमानिका शास्त्र में सौर ऊर्जा के माध्यम से विमान को उडाने के अतिरिक्त ऊर्जा को संचित रखने का विधान भी बताया गया है। ऐक विशेष प्रकार के शीशे की आठ नलियों में सौर ऊर्जा को एकत्रित किया जाता था जिस के विधान की पूरी जानकारी लिखित है किन्तु इस में से कई भाग अभी ठीक तरह से समझे नहीं गये हैं। 
  • इस ग्रन्थ के आठ भाग हैं जिन में विस्तरित मानचित्रों से विमानों की बनावट के अतिरिक्त विमानों को अग्नि तथा टूटने से बचाव के तरीके भी लिखित हैं। 
  • ग्रन्थ में 31 उपकरणों का वर्तान्त है तथा 16 धातुओं का उल्लेख है जो विमान निर्माण में प्रयोग की जाती हैं जो विमानों के निर्माण के लिये उपयुक्त मानी गयीं हैं क्यों कि वह सभी धातुयें गर्मी सहन करने की क्षमता रखती हैं और भार में हल्की हैं।

4.         यन्त्र सर्वस्वः – यह ग्रन्थ भी ऋषि भारदूाजरचित है। इस के 40 भाग हैं जिन में से एक भाग ‘विमानिका प्रकरण’के आठ अध्याय, लगभग 100 विषय और 500 सूत्र हैं जिन में विमान विज्ञान का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में ऋषि भारदूाजने विमानों को तीन श्रेऩियों में विभाजित किया हैः-

  • अन्तरदेशीय – जो ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं।
  • अन्तरराष्ट्रीय – जो ऐक देश से दूसरे देश को जाते
  • अन्तीर्क्षय – जो ऐक ग्रह से दूसरे ग्रह तक जाते

इन में सें अति-उल्लेखलीय सैनिक विमान थे जिन की विशेषतायें विस्तार पूर्वक लिखी गयी हैं और वह अति-आधुनिक साईंस फिक्शन लेखक को भी आश्चर्य चकित कर सकती हैं। उदाहरणार्थ सैनिक विमानों की विशेषतायें इस प्रकार की थीं-

  • पूर्णत्या अटूट, अग्नि से पूर्णत्या सुरक्षित, तथा आवश्यक्ता पडने पर पलक झपकने मात्र समय के अन्दर ही ऐक दम से स्थिर हो जाने में सक्ष्म।
  • शत्रु से अदृष्य हो जाने की क्षमता।
  • शत्रुओं के विमानों में होने वाले वार्तालाप तथा अन्य ध्वनियों को सुनने में सक्ष्म। शत्रु के विमान के भीतर से आने वाली आवाजों को तथा वहाँ के दृष्यों को रिकार्ड कर लेने की क्षमता।
  • शत्रु के विमान की दिशा तथा दशा का अनुमान लगाना और उस पर निगरानी रखना।
  • शत्रु के विमान के चालकों तथा यात्रियों को दीर्घ काल के लिये स्तब्द्ध कर देने की क्षमता।
  • निजि रुकावटों तथा स्तब्द्धता की दशा से उबरने की क्षमता।
  • आवश्यक्ता पडने पर स्वयं को नष्ट कर सकने की क्षमता।
  • चालकों तथा यात्रियों में मौसमानुसार अपने आप को बदल लेने की क्षमता।
  • स्वचालित तापमान नियन्त्रण करने की क्षमता।
  • हल्के तथा उष्णता ग्रहण कर सकने वाले धातुओं से निर्मित तथा आपने आकार को छोटा बडा करने, तथा अपने चलने की आवाजों को पूर्णत्या नियन्त्रित कर सकने में सक्ष्म।

विचार करने योग्य तथ्य है कि इस प्रकार का विमान अमेरिका के अति आधुनिक स्टेल्थ फाईटर और उडन तशतरी का मिश्रण ही हो सकता है। ऋषि भारदूाजकोई आधुनिक ‘फिक्शन राईटर नहीं थे परन्तुऐसे विमान की परिकल्पना करना ही आधुनिक बुद्धिजीवियों को चकित कर सकता है कि भारत के ऋषियों ने इस प्रकार के वैज्ञिानक माडल का विचार कैसे किया। उन्हों ने अंतरीक्ष जगत और अति-आधुनिक विमानों के बारे में लिखा जब कि विश्व के अन्य देश साधारण खेती बाडी का ज्ञान भी पूर्णत्या हासिल नहीं कर पाये थे। 

5.         समरांगनः सुत्रधारा – य़ह ग्रन्थ विमानों तथा उन से सम्बन्धित सभी विषयों के बारे में जानकारी देता है।इस के 230 पद्य विमानों के निर्माण, उडान, गति, सामान्य तथा आकस्माक उतरान एवम पक्षियों की दुर्घटनाओं के बारे में भी उल्लेख करते हैं।

लगभग सभी वैदिक ग्रन्थों में विमानों की बनावट त्रिभुज आकार की दिखायी गयी है। किन्तु इन ग्रन्थों में दिया गया आकार प्रकार पूर्णत्या स्पष्ट और सूक्ष्म है। कठिनाई केवल धातुओं को पहचानने में आती है।

समरांगनः सुत्रधारा के आनुसार सर्व प्रथम पाँच प्रकार के विमानों का निर्माण ब्रह्मा, विष्णु, यम, कुबेर तथा इन्द्र के लिये किया गया था।  पश्चात अतिरिक्त विमान बनाये गये। चार मुख्य श्रेणियों का ब्योरा इस प्रकार हैः-

  • रुकमा – रुकमानौकीले आकार के और स्वर्ण रंग के थे।
  • सुन्दरः –सुन्दर राकेट की शक्ल तथा रजत युक्त थे।
  • त्रिपुरः –त्रिपुर तीन तल वाले थे।
  • शकुनः – शकुनः का आकार पक्षी के जैसा था।

दस अध्याय संलगित विषयों पर लिखे गये हैं जैसे कि विमान चालकों का परिशिक्षण, उडान के मार्ग, विमानों के कल-पुरज़े, उपकरण, चालकों एवम यात्रियों के परिधान तथा लम्बी विमान यात्रा के समय भोजन किस प्रकार का होना चाहिये।

ग्रन्थ में धातुओं को साफ करने की विधि, उस के लिये प्रयोग करने वाले द्रव्य, अम्ल जैसे कि नींबु अथवा सेब या कोई अन्य रसायन, विमान में प्रयोग किये जाने वाले तेल तथा तापमान आदि के विषयों पर भी लिखा गया है।

सात प्रकार के ईजनों का वर्णन किया गया है तथा उन का किस विशिष्ट उद्देष्य के लिये प्रयोग करना चाहिये तथा कितनी ऊचाई पर उस का प्रयोग सफल और उत्तम होगा। सारांश यह कि प्रत्येक विषय पर तकनीकी और प्रयोगात्मक जानकारी उपलब्द्ध है। विमान आधुनिक हेलीकोपटरों की तरह सीधे ऊची उडान भरने तथा उतरने के लिये, आगे पीछ तथा तिरछा चलने में भी सक्ष्म बताये गये हैं 

6.         कथा सरित-सागर – यह ग्रन्थ उच्च कोटि के श्रमिकों का उल्लेख करता है जैसे कि काष्ठ का काम करने वाले जिन्हें राज्यधर और प्राणधर कहा जाता था। यह समुद्र पार करने के लिये भी रथों का निर्माण करते थे तथा एक सहस्त्र यात्रियों को ले कर उडने वालो विमानों को बना सकते थे। यह रथ-विमान मन की गति के समान चलते थे।

कोटिल्लय के अर्थ शास्त्र में अन्य कारीगरों के अतिरिक्त सोविकाओं का उल्लेख है जो विमानों को आकाश में उडाते थे । कोटिल्लय  ने उन के लिये विशिष्ट शब्द आकाश युद्धिनाह का प्रयोग किया है जिस का अर्थ है आकाश में युद्ध करने वाला (फाईटर-पायलेट) आकाश रथ, चाहे वह किसी भी आकार के हों का उल्लेख सम्राट अशोक के आलेखों में भी किया गया है जो उस के काल 256-237 ईसा पूर्व में लगाये गये थे।

उपरोक्त तथ्यों को केवल कोरी कल्पना कह कर नकारा नहीं जा सकता क्यों कल्पना को भी आधार के लिये किसी ठोस धरातल की जरूरत होती है। क्या विश्व में अन्य किसी देश के साहित्य में इस विषयों पर प्राचीन ग्रंथ हैं ? आज तकनीक ने भारत की उन्हीं प्राचीन ‘कल्पनाओं’ को हमारे सामने पुनः साकार कर के दिखाया है, मगर विदेशों में या तो परियों और ‘ऐंजिलों’ को बाहों पर उगे पंखों के सहारे से उडते दिखाया जाता रहा है या किसी सिंदबाद को कोई बाज उठा कर ले जाता है, तो कोई ‘गुलफाम’ उडने वाले घोडे पर सवार हो कर किसी ‘सब्ज परी’ को किसी जिन्न के उडते हुये कालीन से नीचे उतार कर बचा लेता है और फिर ऊँट पर बैठा कर रेगिस्तान में बने महल में वापिस छोड देता है। इन्हें कल्पना नहीं, ‘फैंटेसी’ कहते हैं।

चाँद शर्मा

 

49 – वीरता की प्रतियोग्यतायें


 स्नातन धर्म के सभी देवी देवता शस्त्र धारण करते हैं। युद्धाभ्यास केवल क्षत्रियों तक ही सीमित नहीं थे, अन्य वर्ग भी इस का प्रशिक्षण ले सकते थे। शस्त्र ज्ञान के क्षेत्र में महिलायें भी पुरुषों के समान ही निपुण थीं। ऋषि वात्सायन कृत काम-सूत्र में महिलाओं के लिये तलवार, छडी, धनुषबाण के साथ युद्धकलाभ्यास के लिये भी प्रोत्साहन दिया गया है।

युद्ध कला साहित्य

विज्ञान तथा कलाओं की भान्ति युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास का उद्गम भी वेद ही हैं। वेदों में अठारह ज्ञान तथा कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। अग्नि पुराण का उपवेद ‘धनुर्वेद’ पूर्णत्या धनुर्विद्या को समर्पित है। अग्नि पुराण में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है कि उस में पाँच भाग इस प्रकार थेः-

  • यन्त्र-मुक्ता – अस्त्र-शस्त्र के उपकरण जैसे घनुष और बाण।
  • पाणि-मुक्ता – हाथ से फैंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला।
  • मुक्ता-मुक्ता – हाथ में पकड कर किन्तु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि  बर्छी, त्रिशूल आदि।
  • हस्त-शस्त्र – हाथ में पकड कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा अदि।
  • बाहू-युद्ध – निशस्त्र हो कर युद्ध करना।

युद्ध कला परिशिक्षण

प्रथम शताब्दि में भी में युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। आठवीं शताब्दी के उद्योत्ना कृत ग्रंथ ‘कुव्वालय-माला’ में कई कई युद्ध क्रीडाँओं का उल्लेख किया गया है जिन में धनुर्विद्या, तलवार, खंजर, छडियों, भालों तथा मुक्कों के प्रयोग से परिशिक्षण दिया जाता था।

शिक्षार्थियों की दक्षता आँकने के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित करी जाती थीं। रामायण में राम दूारा शिव धनुष उठा कर अपनी शारीरिक क्षमता का प्रमाण देने का वृतान्त सर्व विदित है। महाभारत मे भी उल्लेख मिलते हैं जब गुरु द्रौणाचार्य ने  कौरव पाँडव राजकुमारों के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित कीं थीं। सभी राजकुमारों को ऐक मिट्टी के बने पक्षी की आँख पर लक्ष्य साधना था जिस में केवल अर्जुन ही सफल हुआ था। इसी प्रकार उर्जुन नें द्रौप्दी के स्वयंबर के समय नीचे रखे तेल के कढाहे में देख कर ऊपर घूमती हुई मछली की आँख को बींध दिया था। ऐक अन्य महाभारत कालीन उल्लेख में निशस्त्र युद्ध कला का वर्णन है जिस में दो प्रतिदून्दी मुक्कों, लातों, उंगलियों तथा अपने शीश के आघातों से परस्पर युद्ध करते हैं।

निशस्त्र युद्धाभ्यास  – बाहु-युद्ध 

सुश्रुत लिखित सुश्रुत संहिता में मानव शरीर के 107 स्थलों का उल्लेख है जिन में से 49 अंग अति संवेदनशील बताये गये हैं। यदि उन पर घूंसे से या किसी अन्य वस्तु से आघात किया जाये तो मृत्यु हो सकती है। भारतीय शस्त्राभ्यास के समय उन स्थलों पर आघात करना तथा अपने आप को आघात से कैसे बचाना चाहिये सिखाया जाता था।  

लगभग 630 ईस्वी में पल्लवराज नरसिंह्म वर्मन ने कई पत्थर की प्रतिमायें लगवायीं थी जिन को निश्स्त्र अभ्यास करते समय अपने प्रतिदून्दी को निष्क्रय करते दर्शाया गया था।

युद्ध क्रीडा

कुश्ती को मल-युद्ध कहा जाता था। हनुमान, भीम, और कृष्ण के बडे भाई बलराम इस कला में निपुण थे। आज भी भारतीय खिलाडी उन्हीं में से किसी ऐक को अपना आराघ्य मान कर अभ्यास करते हैं।

प्रथम शताब्दी की बुद्ध धर्म की कृति ‘लोटस-सूत्र’ में भी मुक्केबाज़ी, मुष्टिका प्रहार, अंगों को जकडना तथा उठा कर फैंकने आदि के अभ्यासों का उल्लेख मिलता है।   

तीसरी शताब्दी में पतंजली योग सूत्र के कुछ अंश, तथा नट नृत्य कला की मुद्रायें भी युद्ध क्रीडाओं सें शामिल करी गयीं थीं।

प्राचीन काल से कलारिप्पयात, वज्र-मुष्ठि तथा गतका आदि कलायें युद्ध परिशिक्षण का अंग रही हैं।

कलारिप्पयात  

कलारिप्पयात विश्व का सर्व प्रथम युद्ध अभ्यास है। इस की शुरुआत केरल के चौला राजाओं के काल से हुयी। यह अति उग्र और भयानक कलाभ्यास है जिस में लात, घूंसों के आघातों से क्रमशः निरन्तर कठिन और उग्र शस्त्रों का प्रयोग भी किया जाता है। इस में खंजर, तलवार, भाले सभी कुछ प्रयोग किये जाते हैं तथा उन के अतिरिक्त ऐक अन्य भयानक शस्त्र धातु मे बना हुआ चाबुक भी प्रयोग में आता है। खंजर तीन धार वाले तथा अत्यन्त तीखे होते हैं। आघात मर्म स्थलों पर और वध करने की धारणा से किये जाते हैं।कलारिप्पयात  का मुख्य हथियार ऐक लचीली दो घारी तलवार होती है जिसे प्रतिस्पर्धी अपनी कमर पर लपेट कर रखते हैं। युद्ध के समय इसे हाथ में गोलाकार स्थिति में पकड कर रखा जाता है और फिर अचानक प्रतिदून्दी पर अघात किया जाता है। सावधान ना रहने की अवस्था में प्रतिस्पर्धी की मृत्यु निशचित है। यह विश्व भर में ऐक अनूठा शस्त्र है। इस कला का अभ्यास कडे नियमों तथा कुशल गुरू के सन्निध्य में किया जाता है। 

इस कला के शिक्षार्थी शिव और शक्ति को अपना आराध्य मानते हैं। बुद्ध धर्म के साथ साथकलारिप्पयात का प्रसार दूरगामी पूर्वी देशों में भी हुआ। बुद्ध प्रचारक दूरगामी देशों की यात्रा करते थे इस लिये दूसरे धर्म के हिंसक विरोधियों से अपनी सुरक्षा के लिये वह इस कला का प्रयोग भी सीखते थे।इस का प्रयोग केवल प्रतिरक्षा के लिये ही होता था अतः कलारिप्पयात कला बुद्ध धर्म की  अहिंसा की नीति के अनुकूल थी।

वज्र मुष्टि  

वज्रमुष्टि का अर्थ है इन्द्र के वज्र का समान मुष्टिका से प्रहार करना। क्षत्रियों को युद्ध में कई बार अपने वाहन और शस्त्रों के खो जाने के कारण निशस्त्र हो कर पैदल भी युद्ध करना पडता था। यद्धपि युद्ध के नियमानुसार निशस्त्र पर प्रहार करना नियम विरुद्ध था तथापि नियम का उल्लंघन करने वाले भी सभी जगह होते हैं। अतः कुटिल शत्रुओं से युद्ध की स्थिति में क्षत्रिय मल युद्ध तथा मुष्टिका प्रहारों से अपना बचाव करते थे। आघात तथा बचाव के विधान परम्परा गत पीढी दर पीढी सिखाये जाते थे।

वज्र मुष्टि का अभ्यास शान्ति काल में सीखा जाता था और सभी प्रकार के आक्रमण तथा बचाव के गुर सिखाये जाते थे। संस्कृत में उन्हें संस्कृत नट कहा जाता है। नट को जाग्रित करने की अध्यात्मिक  कला  कठिन परिश्रम, अनुशासन नियमों के पालन तथा ऐकाग्रता की साधना के पश्चात ही सम्भव थी। मुसलिमों के आगमन और अधिकरण के पश्चात इस कला के विशेषज्ञ मार दिये गये और यह समाप्त हो गयी। 1804 ईसवी में अँग्रेज़ों ने इस पर पूर्णत्या प्रतिबन्ध लगा दिया। 

गतका

गतका पंजाब का युद्ध कौशल है। यह दो अथवा चार टोलियों में खेला जाता है। प्रतिस्पर्धियों के पास बेंत, तलवार या खडग (खाँडा) आदि हथियार होते हैं तथा गोलाकार ढाल भी होता है। इस को योरुपीय तलवारबाज़ी की तरह ही खेला जाता है और इस कला में पँजाब के निहँग समुदाय की गतका बाजी अति लोकप्रिय प्रदर्शन है।

भारतीय युद्ध कलाओं का निर्यात

भारत के युद्ध कौशल क्रीडायें जैसे कि जूडो, सुम्मो मलयुद्ध बुद्ध प्रचारकों के साथ साथ चीन, जापान तथा अन्य पू्रवी देशों में प्रचिल्लत हुयीं। 

जापान की युद्ध कला सुमराई में भी कई विशेषतायें भारतीय संस्कृति से परिवर्तित हुईं जैसे कि तलवारों की पवित्रता, वीरगति की लालसा तथा अपने स्वामी के लिये प्राणों का बलिदान करने की भावना, मानव का प्राणायाम के माध्यम से पांच महाभूतों के साथ ऐकाकार करना आदि मानसिक्तायें भारत की उपज हैं। यदि मन और शरीर में ऐकाग्रता है तो शरार की क्षमतायें असीमित हो जाती हैं। इस सिद्धान्त को आधार मान कर बुद्ध धर्म के ऐक प्रचारक बौधिधर्म ने शाओलिन मन्दिर का निर्माण चीन में किया था जहां से युद्ध कलाओं की इस परम्परा की शुरुआत हुयी।

  • जूडो तथा कराटे खेल में ऐक शिक्षार्था तथा गुरु के सम्बन्ध भारत की गुरु शिष्य परम्परा के अनुकूल और प्रभावित हैं।
  • इसी प्रकार प्राणायाम के माध्यम से श्वास नियन्त्रण भी ताये क्वान दो कराते का प्रमुख अंश बन गया।

बोधि धर्मः

बोधिधर्म का जन्म कच्छीपुरम, तामिलनाडु के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 522 ईसवी में वह चीन के महाराज लियांग-नुति के दरबार में आया। उस ने चीन के मोंक्स को कलारिप्पयातकी कला का प्रशिक्षण दिया ताकि वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकें।  शीघ्र ही वह शिक्षार्थी इस कला के पारांगत हो गये जिसे कालान्तर शाओलिन मुष्टिका प्रतियोग्यता के नाम से पहचाना गया। बोधिधर्म ने जिस कला के साथ प्राणा पद्धति (चीं) को भी संलगित किया और उसी से आक्यूपंक्चर का समावेश भी हुआ। ईसा से 500 वर्ष पूर्व जब बुद्ध मत का प्रभाव भारत में फैला तो नटराज को  बुद्ध धर्म संरक्षक के रूप में पहचाना जाने लगा। उन का नया नामकरण नरायनादेव ( चीनी भाषा में  ना लो यन तिंय) पडा तथा उन्हें पूर्वी दिशा मण्डल के संरक्षक के तौर पर जाना जाता है।

वल्लमकली नाव स्पर्धा

केरल में वल्लमकली नाव स्पर्धा ऐक आकर्षक क्रीडा है जिस में सौ से अधिक नाविक ऐक साथ सागर में नौका दौड की प्रतियोग्यता में भाग लेते हैँ। इस के सम्बन्ध में ऐक रोचक कथा हैः 

चार सौ वर्ष पूर्व चन्दनवल्लम मुख्यता युद्ध में प्रयोग किये जाते थे। चन्दनवल्लम बनाने के लिये 20 से 30 लाख सिक्कों तक की लागत आती था और निर्माण में दो वर्ष से अधिक समय लगता था।  

चम्पाकेसरी प्रदेश के राजा ने अपने मुख्य नाव निर्माता को आदेश दिया कि वह ऐक ऐसी नाव का निर्माण करे जिस में ऐक सौ सिपाही  ऐक साथ नाव खेने का काम कर सकें। इस प्रकार की क्षमता प्राप्त कर के उस ने अपने प्रतिदून्दी कायामुखम के राजा को प्राजित किया।

प्राजित राजा ने गुप्तचर भेज कर चन्दनवल्लम के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाही। ऐक गुप्तचर नें नाविक की पुत्री को प्रेम जाल में फाँस कर उस की माता का स्नेह भी प्राप्त कर लिया। फलस्वरूप माँ-बेटी दोनो ने नाविक पर प्रभाव डाल कर उसे भेजे गये गुप्तचर को नाव निर्माण की कला सिखाने के लिये विवश कर दिया।

नाव निर्माण की कला सीखने के पश्चात अगले ही दिन गुप्तचर चुपचाप अपने प्रदेश चम्पाकेसरी चला गया। कायामुखम के राजा ने नाविक निर्माता को बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया। परन्तु उसे शीघ्र ही रिहाई मिल गयी क्यों कि अगली लडाई में कायामुखम को पुनः प्राजय का मुहँ देखना पडा। पता चला कि नाविक ने केवल नाव बनाने की कला ही सिखाई थी परन्तु चन्दनवल्लम का वास्तविक ज्ञान नहीं दिया था।

वल्लमकली क्रीडा भिन्न भिन्न जातियों, धर्मों तथा प्रदेशों के लोगों को ऐक सूत्र में बाँधती है। नौका पर बैठे सभी शरीर ऐक साथ विजय लक्ष्य के सूत्र में बँध जाते हैं। आजकल भी यह नौका दौड पर्यटकों को आकर्षित करती है।

चाँद शर्मा

47 – राष्ट्रवाद की पहचान – हिन्दुत्व


आदि काल से मानव जहाँ पैदा होता था वही जन्म भूमि जीवन भर के लिये उस की पहचान बन जाती थी तथा माता पिता का समुदाय उस का जन्मजात धर्म बन जाता था। यदि मानव समुदाय ऐक स्थान से दूसरे स्थान पर चले जाते थे तो उन की पहचान साथ जाती थी किन्तु नये प्रदेश में या तो ‘अक्रान्ता’ कहलाते थे या ‘शरणार्थी’। अक्रान्ता नये स्थान पर स्थानीय परमपराओं को नष्ट कर के अपनी परमपराओं को लागू करते थे। शरणार्थियों को विवश हो कर अपनी परम्परायें छोड कर नये स्थान की परम्पराओं को अपनाना पडता था। कालान्तर मानव समुदायों ने धरती पर अपना अधिकार घोषित कर के उस स्थान को अपना इलाका, खण्ड या देश कहना आरम्भ कर दिया और धर्म, स्थान, नस्लों, जातियों, तथा व्यवसाय के आधार से मानवों की पहचान होने लगी।

सभ्यताओं का संघर्ष

भारत में भी कई आक्रान्ता आये किन्तु उन्हों ने भारत के स्थानीय रीति रिवाज अपना लिये थे और भारत वासियों की पहचान को अपना कर इसी धरती से घुल मिल गये। सातवीं शताब्दी में मुस्लिम भी इस देश में अक्रान्ता बन कर आये परन्तु स्थानीय सभ्यता के साथ मिलने के बजाये उन्हों ने स्थानीय सभ्यता की सभी पहचानों को नष्ट करने का भरपूर प्रयत्न किया जिस कारण मुसलमानों का स्थानीय लोगों के साथ स्दैव वैर विरोध ही चलता रहा। इस तथ्य के कभी कभार अपवाद हुये भी तो वह आटे में नमक के बराबर ही थे। स्थानीय लोगों के अतिरिक्त, धार्मिक ऐकता होते हुये भी मुस्लिम आपस में नस्लों, परिवारों तथा खान्दानों की पहचान के आधार पर भी लडते रहेते थे। उन की आपसी प्रतिस्पर्धा में जो ऐक लक्ष्य समान था वह था धर्म के नाम पर इस्लामी भाईचारा जिस का उद्देश स्थानीय हिन्दू धर्म और परम्पराओं का विनाश करना था। उन्हों ने भारत को अधिकृत तो किया किन्तु भारत की स्थानीय सभ्यता को अपनाया नहीं। इस वजह से भारत में उन की पहचान आक्रान्ताओं जैसी ही आज तक रही है।

धर्म निर्पेक्षता का ढोंग

मुसलमानों के पश्चात योरुपवासियों ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया। उन के मुख्य प्रतिस्पर्धी भी ईसाई थे। अतः उपनिवेश की नीति को सफल बनाने के लिये उन्हों ने मानवी पहचान के लिये ऐक नई परिभाषा का निर्माण किया जिसे आजकल ‘राष्ट्रीयता’ कहा जाता है। इसाई अपनी अपनी पहचान देश के आधार पर करते थे। अंग्रेज़ अपने आप को ईसाई कहने के बजाय अपने आप को ‘ब्रिटिश साम्राज्य’ या ‘किंग आफ इंगलैण्ड का वफादार सेवक कहना अधिक पसंद करते थे। नस्ल के आधार पर वह अपने आप को ‘ऐंगलो सैख्सन’ भी नहीं कहते थे।

भारत पर अपने अतिक्रमण को ‘न्यायोचित’ करने के लिये उन्हों ने आर्य जाति के भारत पदार्पण की मनघडन्त कहानी को भी बढ चढ कर फैलाया ताकि वह स्थानीय भारत वासियों को बता सकें कि अगर आर्य जाति के लोग बाहर से आकर भारत पर अपना अधिकार जमा सकते थे तो फिर ब्रिटिश वैसा क्यों नहीं कर सकते। उन का कथन था कि सोने की चिडिया भारत किसी की मिलकीयत नहीं थी। हर कोई चिडिया के पंख नोच सकता था। सभी लुटेरों के अधिकार भी स्थानीय लोगों के समान ही थे। इसाई आक्रान्ता ऐसा ही कुछ अमेरिका आदि देशों में भी कर रहे थे। इसी मिथ्यात्मिक प्रचार का परिणाम भारत के बटवारे के रूप में निकला और 1947 के बाद अभी भी धर्म निरर्पेक्ष्ता की आड में प्रचार किया गया कि भारत कोई राष्ट्र नहीं था बल्कि जातियों और छोटी छोटी रियासतों में बटा हु्आ इलाका था जिसे केवल अंग्रेजों नें ‘इण्डिया’ की पहचान दे कर ऐक सूत्र में बाँधा और देश कहलाने लायक बनाया।

राष्ट्रीयता के माप दण्ड

पाश्चात्य जगत के आधुनिक राजनीति शास्त्री किसी देश के वासियों की राष्ट्रीयता को जिन तथ्यों के आधार से आँकते हैं अगर उन्हीं के मापदण्डों को हम भी आधार मान लें तो भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण स्पष्ट उजागर हो जाते है। उन के मापदण्डों के अनुसार मानवी राष्ट्रीयता का आंकलन इस आधार पर किया जाता है यदिः-

  1. उस देश की जन संख्या किसी स्पष्ट और निर्धारित भू खण्ड में निवास करती हो।
  2. जिन की भाषा तथा साहित्य में समानता हो।
  3. जिन के रीति रिवाजों में समानता हो । 
  4. जिन की ‘उचित–अनुचित’ के व्यवहारिक निर्णयों के बारे में समान विचारधारा हो।    

उपरोक्त मापदण्डों के आधार से भी भारत की राष्ट्रीयता के प्रमाण इस प्रकार स्पष्ट हैं-

प्रथम आधार – स्पष्ट और निर्धारित भूगोलिक आवास

आधुनिक भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश और म्यनमार को संयुक्त कर के देखें तो विश्व में केवल प्राचीन भारत ही ऐक मात्र क्षेत्र है जिस के ऐक तरफ दुर्गम पर्वत श्रंखला और तीन तरफ महासागर उसे ऐक विशाल दुर्ग की तरह सुरक्षा प्रदान कर रहै हैँ। भारत को प्रकृति ने स्पष्ट तौर से भूगौलिक सीमाओं से बाँधा है तथा इस तथ्य का कई प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख किया गया है। विष्णु पुराण में भारत की सीमाओं के साथ साथ वहाँ के निवासियों की पहचान के बारे में इस प्रकार उल्लेख किया गया हैः-  

            उतरं यत् समुद्रस्य हिमेद्रश्चैव दक्षिण्म , वर्ष तद् भारतं नाम भारती यत्र संतति

            (साधारण शब्दों में इस का अर्थ है कि उत्तर में हिमालय तथा दक्षिण में समुद्र से घिरा हुआ जो देश है वहाँ के निवासी भारतीय हैं।)

‘बृहस्पति आगम’ के अनुसार भारत की पहचान इस प्रकार हैः-

हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्। तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥
अर्थात – हिमालय से ले कर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक का देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।
मुस्लमानों ने ‘हिन्दुस्थान’ शब्द का अपभ्रंश ‘हिन्दुस्तान’ कर दिया था।

रामायण का कथानक समस्त पूर्वी भारत, पश्चिमी भारत, उत्तरी भारत, मध्य भारत, दक्षिणी पठार से होता हुआ रामेश्वरम और लंका तक फैला हुआ है। महाभारत का कथानक भी उसी प्रकार भारत के चारों कोनो तक फैला हुआ है। इस भू खण्ड में रहने वाले सभी हिन्दू थे यहाँ तक कि लंकाधिपति रावण भी ब्राह्मण था और त्रिमूर्ति शक्ति शिव का पुजारी था। वह वेदों का ज्ञाता था और यज्ञ भी करता था।

दिूतीय आधार – भाषा और साहित्य में समानता

भारत की सभी भाषायों की जननी संस्कृत हैं जो आदि काल से ग्यारहवीं शताब्दी तक लगातार भारत की साहित्यिक तथा सभी प्रान्तों को ऐक सूत्र में बाँधे रखने के माध्यम से भारत की राष्ट्रभाषा भी रही है। आज भी संस्कृत भाषा ऐक सजीव भाषा है। कई दर्जन पत्र पत्रिकायें आज भी संस्कृत में प्रकाशित होती हैं। अखिल भारतीय रेडियो माध्यम से समाचारों का प्रसारण भी संस्कृत में होता है। चलचित्रों तथा दूरदर्शन पर संस्कृत में फिल्में भी दिखायी जाती हैं। तीन हजार से अधिक जन संख्या वाला ऐक भारतीय गाँव आज भी केवल संस्कृत भाषा में ही दैनिक आदान प्रदान करता है। भारत के कई बुद्धिजीवी परिवारों की भाषा आज भी संस्कृत है। केवल उदाहरण स्वरूप संस्कृत भाषा का प्रसिद्ध गायत्री मंत्र आज भी प्रत्येक हिन्दू से सुना जाता है जोकि संस्कृत की चिरंजीवता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, धर्म शास्त्रों, रामायण तथा महाभारत का प्रभाव भारत के कोने कोने में है।   

तृतीय आधार – समान रीति रिवाज

निम्नलिखित तथ्य भारत की राष्ट्रीय ऐकता को दर्शाने के लिये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं –

  1. समस्त भारत के हिन्दू परिवारों में जब भी कोई रीति रिवाज किये जाते हैं तो उन में पढे जाने वाले संस्कृत के मन्त्रों में गंगा यमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी, गोदावरी, तथा सिन्धु नदियों का नाम लिया जाता है जो भारत की विशालता और ऐकता का प्रमाण हैं।
  2. यातायात के सीमित साधनों के बावजूद भी हिन्दू भारत के चारों कोनों में स्थित तीर्थ-स्थलों की यात्रा करते रहै हैं जिन में मथुरा, अयोध्या, पुरी, सोमनाथ, कामाक्षी, इन्दौर, उज्जैन, मीनाक्षीपुरम, और रामेश्वरम के मन्दिर मुख्य हैं।
  3. विपरीत परिस्थितियों और मौसम के बावजूद भी हिन्दू अमरनाथ, बद्रीनाथ, सोमनाथ, जगन्नाथ, कैलास-मानसरोवर, वैश्णो देवी तथा राम सेतु जैसे दुर्गम  तीर्थ स्थलों की यात्रा निष्ठा पूर्वक स्वेच्छा से कर के निजि जीवन की अभिलाषा की पूर्ति करते हैं।
  4. यातायात की असुविधाओं के बावजूद, स्वेच्छा से निश्चित समय पर भारत के चारों कोनों से हिन्दूओं का यात्रा कर के प्रयाग, हरिदूार, नाशिक तथा काशी में कुम्भ स्नान के लिये ऐकत्रित हो जाना कोई जनसंख्या का त्रास्ती पलायन नहीं होता अपितु आस्था और हिन्दूओं के समान वैचारिक, सामाजिक और रीतिरीवाजों का प्रदर्शन है।
  5. देश भर में 12 ज्योतिर्लिंग हिन्दू ऐकता का अनूठा प्रमाण हैं। यह भी भारत की ऐकता का प्रतीक है जब प्रत्येक वर्ष पैदल चल कर लाखों की संख्या में आज भी काँवडिये हरिदूार से गंगा जल ला कर काशी स्थित ज्योतिर्लिंग का शिवरात्री के पर्व पर अभिषेक कराते हैं।
  6. ब्रह्मा, विष्णु, महेश की त्रिमूर्ति के अतिरिक्त राम, कृष्ण, गणेश, हनुमान, दुर्गा तथा लक्ष्मी समस्त भारत के सर्वमान्य देवी-देवता हैं।

विश्व के किसी भी अन्य देश में भारत के जैसी समान रीति रिवाजों की परम्परा नहीं है। मकर संक्रान्ति, शिवरात्रि, रामनवमी, बुद्ध जयन्ती, वैशाखी, महीवीर जयन्ती जन्माष्टमी तथा दीपावली के अतिरिक्त कई पर्व हैं जो भारत के पर्यावरण, इतिहास, तथा जन नायकों के जीवन की घटनाओं से जुडे हैं और विचारधारा की ऐकता के सूचक हैं। इन पर्वों की तुलना में ईद, मुहर्रम, क्रिसमिस, ईस्टर आदि पर्वों से भारत के जन साधारण का कोई सम्बन्ध नहीं।

चतुर्थ आधार – समान नैतिकता

नैतिकता की समानतायें हिन्दूओं के सभी साम्प्रदाओं में ऐक जैसी ही हैं। पाप और पुण्य की धारणायें भी समान हैं। समस्त हिन्दू राम की रावण पर विजय को धर्म की अधर्म पर विजय के अनुरूप देखते हैं। विदेशी लोग इस घटना को आर्यों की अनार्यों (द्राविडों) पर विजय का दुष्प्रचार तो करते हैं परन्तु वह यह तथ्य नहीं जानते कि दक्षिण भारत में भी कोई रावण, कुम्भकरण, या मेधनाद की मूर्ति घर में स्थापित नहीं करता।

विविधता में ऐकता स्वरूप हिन्दुत्व

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में समानतायें पाई जाती हैं – 

  • सभी हिन्दू ऐकमत हैं कि ईश्वर ऐक है, निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है, ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भारत में भगवा रंग पवित्रता, वैराग्य, अध्यात्मिकता तथा ज्ञान का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक विचारधारा के आधार पर हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है। हिन्दू कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते। हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं। हिन्दूओं में विदूानो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं। हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है। हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है। हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है। हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रसमों का आदर करते हैं। धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता। संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

पर्यावर्ण के प्रति भी वैचारिक समानतायें हैं। समस्त नदीयाँ और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है। तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है। सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है। सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है। मुख्य तथ्य यह है कि सभी हिन्दूओं पर ऐक ही आचार विचार तथा संस्कार संहिता लागू है।

हिन्दू संस्कृति ही भारत वासियों की राष्ट्रीय पहचान है। मुसलिम और ईसाई धर्मों के तीर्थ स्थल, धर्म ग्रँथ, नैतिकता के नियम अकसर हिन्दूओं के विरोध में आते है क्यों कि इन धर्मों का जन्म भारत के वातावरण में ना हो कर अन्य देशों में हुआ था। इस के फलस्वरूप उन के प्रेरणा स्त्रोत्र भी भारत से बाहर ही हैं। उन के जीवन नायक भी विदेशी है तथा वह भारत के मौलिक आधार से स्दैव संघर्ष करते रहै हैं। यदि वह स्थानीय विचारधारा को ना अपनायें तो निराधार धर्म निर्पेक्षी बनावटी राष्ट्रीयता उन्हें ऐक राष्ट्र में नहीं बाँध सकती।

चाँद शर्मा

 

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