हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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37 – ज्योतिष विज्ञान


ज्योतिष विद्या को वेदाँग माना गया है। सौर मण्डल के ग्रहों का प्रभाव हमारे शरीर, और विचारों पर पडना ऐक ऐसा वैज्ञानिक सत्य है जिस से इनकार नहीं किया जा सकता। विचारों के अनुसार ही कर्म होते हैं जिन के फल जीवन में सुख दुःख का कारण बनते हैं। ऋषियों नें ग्रहों के प्रभाव को जीवन की घटनाओं के साथ जोडने और परखने के लिये ज्योतिष ज्ञान रचा था।

कालान्तर भविष्यवाणियाँ करने का कार्य मुख्यता ब्राह्मणों का व्यवसाय बन गया। समय के साथ जीवन में सुख वृद्धि और दुःख निवार्ण के उपचार के लिये इस विद्या में सत्यता और प्रमाणिक्ता के अतिरिक्त वहम, आडम्बर और अविशवास भी जुडते  गये। आज विश्व में कोई भी सभ्यता ज्योतिष, हस्त रेखा ज्ञान, अंक विशलेष्ण, ओकल्ट (भूत प्रेत) टोरोट कार्ड, और कई प्रकार के जन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, टोनें, टोटकों, तथा रत्नों के प्रयोग से अछूती नहीं है। आजकल प्रसार के सभी माध्यमों पर असला-नकली ज्योतिषियों की भरमार देखी जा सकती है।

ज्योतिष शास्त्र

भारतीय ज्योतिषियों के अनुसार सभी ग्रहों का प्रभाव जीवों पर सदा ऐक जैसा नहीं रहता बल्कि जन्म समय के ग्रहों की आपसी स्थिति के अनुसार घटता बढता रहता है। ग्रह अपना सकारात्मिक या नकारात्मिक प्रभाव डालते रहते हैं। प्रत्येक मानव का व्यक्तित्व सकारात्मिक तथा नकारात्मिक प्रभावों का सम्मिश्रण बन कर विकसित होता है। ग्रहों के हानिकारक प्रभावों को ज्योतिषी उपचारों से लाभकारी प्रभाव में बदला जा सकता है। यह तर्क ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी के शरीर में होमोग्लोबिन की मात्रा कम हो तो उसे विशेष पौष्टिक आहार या व्यायाम करवा कर उस का उपचार किया जा सकता है।

भारतीय ज्योतिष की प्रमाणिक्ता

भिन्न भिन्न देशों में भविष्यवाणियों सम्बन्धी अपने अपने आधार हैं। चीन के ज्योतिषी जन्म समय के बजाय जन्म वर्ष को आधार मानते हैं। उन के अनुसार वर्षों में कई भाग भिन्न भिन्न जानवरों की मनोस्थिती को व्यक्त करते हैं और उस भाग में पैदा हुये सभी मानवों में भाग की अभिव्यक्ति करने वाले जानवरों जैसे मनोभाव हों गे। पाश्चात्य ज्योतिषी सभी गणनाओं में सूर्य को केन्द्र मान कर अन्य ग्रहों की स्थिति का विशलेषण करते हैं, किन्तु भारतीय पद्धति में सूर्य के स्थान पर चन्द्र को अधिक महत्व दिया गया है क्यों कि पृथ्वी का निकटतम ग्रह होने के काऱण चन्द्र मनोदशा पर सर्वाधिक प्रभावशाली होता है।

भारत के खगोल शास्त्रियों को ईसा से शताब्दियों पूर्व 27 नक्षत्रों, सात ग्रहों तथा 12 राशियों की जानकारी प्राप्त थी। प्रत्येक राशि में जन्में लोगों में भिन्न रुचियाँ और क्षमताये होती हैं जो अन्य राशि के लोगों को अपने अपने प्रभावानुसार आकर्शित या निष्कासित करती हैं।

पृथ्वी धीरे धीरे अपनी धुरी पर झुकती रहती है जिस कारण पृथ्वी तथा सूर्य की दूरी प्रत्येक वर्ष लगभग 1/60 अंश से कम होती है। आज कल यह झुकाव 23 अँश है जो ऐक सम्पूर्ण नक्षत्र के बराबर है। इन नक्षत्रों की गणना चन्द्र दूारा पृथ्वी की परिकर्मा पर आधारित है जो चन्द्र अन्य तारों की अपेक्षा करता है। प्रत्येक व्यक्ति की गणना का आधार उस की जन्म तिथि, समय तथा स्थल पर निर्भर करता है। भारतीय ज्योतिष उन्हीं ग्रहों के प्रभाव का आँकलन मानव की प्रकृति, मानसिक्ता तथा शरीरिक क्षमताओं पर करता है। कर्म क्षमताओं के आधार पर होंते हैं और कर्मों पर भविष्य निर्भर करता है। अतः व्यक्ति के जन्म समय के नक्षत्रों की दशा जीवन के सभी अंगों को प्रभावित करती रहती है। ग्रहों के प्रभाव को अनुकूल करने में रत्न आदि उस के सहायक होते हैं।

भारत वासियों ने प्राचीन काल से ही सौर मण्डल के प्रभाव को जन जीवन की घटनाओं तथा रस्मों के साथ जोड लिया था। भारतीय ज्योतिष ज्ञान वास्तव में सृष्टि की प्राकृतिक ऊर्जाओं के प्रभावों का विज्ञान है। मानव कई ऊर्जाओं का मिश्रण ही है। परिस्थितियों पर ग्रहों के आकर्षण, भिन्न भिन्न कोणों तथा मात्राओं का प्रभाव भी पडता रहता हैं। उन्हीं असंख्य मिश्रणों के कारण ही ऐक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से शरीरिक, मानसिक तथा वैचारिक क्षमताओं में भिन्न होता है। भारत का ज्योतिष शास्त्र विश्व में सर्वाधिक प्रमाणित है जिस का आधार भारतीय खगौलिक गणनायें हैं। 

भृगु संहिता

जन्म कुण्डलियों की लगभग सभी सम्भावनाओं की गणना कर के भृगु ऋषि ने ‘भृगु-संहिता’ ग्रंथ की रचना करी थी। कालान्तर सम्पूर्ण मूल ग्रंथ लुप्त हो गया। उस ग्रंथ के कुछ पृष्ट आज भी कई भविष्यवक्ता परिवारों की पैत्रिक सम्पत्ति बन चुके हैं जो भारत में कई जगह बिखरे हुये हैं। सौभाग्यवश यदि किसी की जन्म कुण्डली के ग्रह भृगु-संहिता के अवशेष पृष्टों से मिल जायें तो ज्योतिषी उस व्यक्ति के ना केवल वर्तमान जीवन की घटनायें बता देते हैं बल्कि पूर्व और आने वाले जन्मों की भविष्यवाणी भी कर देते हैं। इस क्षेत्र में नकली पृष्टों और भविष्यवक्ताओं का होना भी स्वभाविक है।

इस सम्बन्ध में ऐक रोचक उल्लेख है। ऐक बार मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के पास काशी से ऐक ज्योतिषी आया जिसे शाहजहाँ ने परखने के लिये कुछ आदेश दिये। आदेशानुसार ज्योतिषी ने गणना करी और अपनी भविष्यवाणी ऐक कागज़ पर लिख दी। वह कागज़ बिना पढे ऐक संदूक में ताला लगा कर बन्द कर दिया गया तथा ताले की चाबी शाहजहाँ नें अपने पास रख ली। इस के उपरान्त रोज़ मर्रा की तरह शाहजहाँ अपनी राजधानी दिल्ली के चारों ओर बनी ऊँची दीवार के घेरे से बाहर निकल कर हाथी पर घूमता रहा। उस ने कई बार नगर के अन्दर वापिस लौटने का उपक्रम किया परन्तु दरवाजों के समीप पहुँच कर अपना इरादा बदला और घूमता रहा। अन्त में उस ने ऐक स्थान पर रुक कर वहाँ से शहरपनाह तुडवा दी और नगर में प्रवेश किया। किले में लौटने के पश्चात तालाबन्द संदूक शाहजहाँ के समक्ष खोला गया। जब भविष्यवाणी को खोल कर पढा गया तो शाहजहाँ के आश्चर्य कि ठिकाना नहीं रहा। लिखा था – आज शहनशाह ऐक नये रास्ते से नगर में प्रवेष करें गे।   

कर्म प्रधानता का महत्व

हिन्दू धर्म कभी भी केवल भाग्य पर भरोसा कर के व्यक्ति को निष्क्रय हो जाने का उपदेश नहीं देता बल्कि व्यक्ति को सदा पुरुषार्थ करने कि लिये ही प्रोत्साहित करता है। कर्म करने पर मानव का अधिकार है परन्तु फल देने का अधिकार केवल ईश्वर का है। अतः हताश और निराश होने के बजाय जो भी फल मिले उस को अपना भाग्य समझ कर स्वीकार करना चाहिये। परिश्रम करते रहना ही कर्म का मार्ग है।

हस्त रेखा विज्ञान

ज्योतिष से ही संलग्ति हस्त रेखा विज्ञान भी भारत में विकसित हुआ था। इस के जनक देवऋषि नारद थे। ऋषि गौतम, भृगु, कश्यप, अत्रि और गर्ग भी इस ज्ञान का अग्रज थे। महाऋषि वाल्मिकि ने इस ज्ञान पर 567 पद्यों की रचना भी की थी। वराहमिहिर ने भी अपने खगौलिक ग्रंथ में हस्त रेखा विज्ञान पर अपना योगदान दिया है।

हस्त रेखा विज्ञान के मुख्य प्राचीन ग्रंथ ‘सामुद्रिक-शास्त्र’, ‘रावण-संहिता’ तथा ‘हस्त-संजीवनी’ हैं जो आज भी उपलब्द्ध हैं। ईसा से 3000 वर्ष पूर्व, भारत से यह विद्या चीन, तिब्बत, मिस्र, मैसोपोटामियां (इराक) तथा इरान में गयी थी। उन्हीं देशों के माध्यम से फिर आगे वह यूनान और अन्य योरुपीय देशों में फैली। सभी देशों में हस्त रेखाओं की पहचान भारत के अनुरूप ही है परन्तु विशलेषण की मान्यताओं में  भिन्नता होनी स्वाभाविक है।

अरुण-संहिता

संस्कृत के इस मूल ग्रंथ को अकसर ‘लाल-किताब’ के नाम से जाना जाता है। इस का अनुवाद कई भाषाओं में हो चुका है। मान्यता है कि इस का ज्ञान सूर्य के सार्थी अरुण ने लंकाधिपति रावण को दिया था। यह ग्रंथ जन्म कुण्डली, हस्त रेखा तथा सामुद्रिक शास्त्र का मिश्रण है और जिन व्यक्तियों को अपनी जन्म कुण्डली की सत्यता पर भरोसा ना हो तो वह अरुण-संहिता के ज्ञान के आधार पर अपने जीवन की बाधाओं का समाधान कर सकते हैं। यह ग्रंथ उन देशों में अधिक लोकप्रिय हुआ जहाँ जन्म कुण्डली बनाने का रिवाज नहीं था।

हाथ की लकीरों का अध्यन कर के मानव के भूत, वर्तमान तथा भविष्य का सही आंकलन किया जा सकता है क्यों कि हस्त रेखाओं का उदय प्रत्येक व्यक्ति के जन्म समय नक्षत्रों के प्रभाव के अनुसार होता है। इस तथ्य को आज विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है कि विश्व में दो व्यक्तियों की हस्तरेखाओं में पूर्ण समानता नहीं होती। इसी लिये सुरक्षा के निमित पहचान पत्र बनाने के लिये आज बायोमैट्रिक पहचान प्रणाली को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। 

जन्म समय के ग्रहों की स्थिति और दशा हाथ पर जो प्राकृतिक मानचित्र बना देती हैं उसी के आधार पर शरीर में भावनाओं और क्षमताओं का विकास होता है। प्राकृति ने मानव के चेहरों, हाथों और शारीरिक अंगों में इतने प्रकार बना दिये हैं जिन के आधार पर ऐक मानव आचार विचार में दूसरे से भिन्न है।

स्त्री पुरुषों के शारीरिक अंगों का विशलेषण कर के ऋषि वात्सायन ने उन का वर्गीकरण किया था। मान्यता है कि ऊँची नाक वाले लोग घमण्डी होते है, छोटे मस्तक वाले मन्द बुद्धि होते हैं। तथा इस प्रकार के अंग विशलेष्ण नाटकों, चलचित्रों आदि के माध्यम मे पात्रों के चरित्र का बखान उस के बोलने या क्रियात्मिक होने से पहले ही कर देते हैं। इस विज्ञान को अंग्रेजी में फ्रैनोलाजी का नाम दिया गया है जिस के आधार पर नाटकों और चलचित्रों में पात्र का मेकअप निर्धारित किया जाता है। 

रत्न-विज्ञान

भारत में ज्योतिष विज्ञान तथारत्न-विज्ञान दोनों साथ साथ ही विकसित हुये। विश्व में सर्व प्रथम हीरों की खदानों का काम भारत में ही आरम्भ हुआ था। महऋषि शौणिक ने हीरों की विशेषताओं के आधार पर उन्हें चार श्रेणियों में बाँटा जिन के नाम खनिजः, कुलजः, शैलजः तथा कृतिकः रखे गये।

रत्न प्रदीपिका – रत्न प्रदीपिका ग्रंथ में हीरों, मोतियों तथा अन्य नगीनों की विस्तरित जानकारी दी गयी है। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में बोरेक्स, लवणों, फिटकरी तथा ओश्रा के माध्यम से कृत्रिम हीरे बनाने का भी वर्णन है।

अर्थशास्त्र – कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में हीरों की व्याख्या करते लिखा है कि हीरे आकार में बडे तथा बहुत कडे होते हैं जो समानाकार में खुरचने में सक्षम तथा आघात सहने में भी सक्षम होते हैं। वह अत्यन्त चमकदार होते हैं और धुरी (स्पिंडल) की भान्ति तेज़ी से घूम सकते

हीरों के अतिरिक्त भारतीयों को अन्य रत्नों की विशेषताओं के बारे में भी विस्तरित जानकारी थी जिन का प्रयोग आभूषण बनाने के अतिरिक्त चिकित्सा के क्षेत्र में भी किया जाता था। रत्नों के धारण करने से कई प्रकार की मानसिक तथा शरीरिक दुर्बलताओं का उपचार भी किया जाता था। शरीर के भिन्न भिन्न अंगों पर आभूषणों में जड कर रत्न पहनने से ग्रहों के दुष्प्रभाव को घटाया तथा अनुकूल प्रभाव को बढाया भी जा सकता था। आज भी विश्व भर में लोग कई तरह के रत्न इसी कारण पहनते हैं। महाभारत में पाँडवों ने अश्वथामा के माथे से जब नीलम मणि को दण्ड स्वरूप उखाडा था तो अश्वथामा का समस्त तेज नष्ट हो गया था। 

भिन्न भिन्न नगों को भिन्न भिन्न देवी देवताओं के प्रभाव के साथ जोडा जाता है तथा यह दुष्प्रभाव को घटा कर उचित प्रभाव को प्रदान करने में सहायक सिद्ध होते हैं। यह ज्ञान विज्ञान तथा आस्था के क्षेत्र का संगम है।

ज्योतिष ज्ञान व्यक्ति की प्रकृति की भविष्यवाणी करता है। व्यक्ति अपनी प्रकृति के संस्कार मातापिता से जन्म समय ग्रहण करता है किन्तु प्रकृति को शिक्षा, ज्ञान, तप, साधना वातावरण, कर्म तथा इच्छा शक्ति से परिवर्तित भी किया जा सकता है। कर्म सुधारने से फल भी संशोधित हो जाता है। भविष्यवाणियों को चेतावनी के तौर पर मानना चाहिये और समय रहते उचित कर्म कर के आने वाली विपत्ति के असर को कम किया जा सकता है। मानव को भविष्यवाणियों के आधार पर ना तो दुस्साहसी होना चाहिये और ना ही डर कर निराश हो जाना चाहिये।

चाँद शर्मा

17 – पाठ्यक्रम मुक्त हिन्दू धर्म


हिन्दू धर्म पूर्णत्या पाठ्यक्रम मुक्त है। हर कोई अपनी इच्छानुसार अपने लिये धार्मिक पुस्तकों का चैयन कर सकता है। गूढ वैज्ञानिक तथ्यों के लिये वेद और उपनिष्द, दार्शनिक्ता के लिये दर्शन शास्त्र, ऐतिहासिक गाथाओं के लिये महाकाव्य और पुराण, मनोरंजन और नैतिकता के लिये कथायें और केवल रटने के लिये कई तरह के गुटके भी उपलब्ध हैं। आप जो चाहें पढें, सुनें या सुनायें जैसी स्वतन्त्रता और किसी धर्म में नहीं है।

हिन्दू धर्म के विशाल पुस्तकालय को पढ पाना आसान नहीं। सभी व्यक्तियों में रुचि और क्षमता भी ऐक जैसी नहीं होती। अतः हर कोई अपने लिये पाठन सामिग्री का चुनाव करने के लिये स्वतन्त्र है। हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। यह प्रत्येक हिन्दू की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, अथवा सभी को पढे, और चाहे तो वह किसी को भी ना पढे़।

साहित्य चैयन की स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म की विचारधारा किसी एक गृंथ पर नही टिकी है। हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का विशाल पुस्तकालय उपलब्ध है। जिस में अध्यात्मवाद, आत्मवाद, ऐक ईश्वर, अनेक देवी देवताओं, पेडों, पर्वतों, नदियों, नगरों, पत्थरों तथा पशु पक्षियों तक में भगवान को साकार कर लेने का मार्ग दर्शाया गया है। जो ईश्वर को साकार ना मानना चाहें वह उसे निराकार भी मान सकते हैं। अपने भीतर भी ईश्वर को देखना चाहें तो इस विषय पर भी विशाल साहित्य भण्डार उप्लब्ध है। जिस प्रकार की चाह हो, हिन्दू धर्म के पास उसी प्रकार की राह दिखाने की क्षमता है। हिन्दू धर्म के साम्प्रदायों के पास भी अपने अपने विशाल साहित्य कोष उप्लब्ध हैं।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठने के लिये कोई हिन्दू बाध्य नहीं है। हिन्दू ग्रंथो का मूल्यांकन, परिवर्तन, तथा संशोधन भी किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों को पूर्ण स्वतन्त्रता से व्यक्त कर सकता है। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है।

भाषाओं की विविधता

हिन्दू धर्म के प्राचीन तथा मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। वह देव भाषा तथा सभी भारतीय भाषोओं की जननी कही जाती है। परन्तु इस के अतिरिक्त बंगला, मराठी, तामिल, मलयालम, पंजाबी, उर्दू, असमी, उडिया, तेलगू भाषाओं तथा उन्हीं के अनगिणित अपभ्रंश संस्करणों को भी मौलिक ग्रन्थों की तरह ही आदर से पढा जाता है। हिन्दू धर्म में इस प्रकार की धारणा कदापि नहीं कि भगवान केवल किसी ऐक ही भाषा अथवा किसी विशेष लिपि को पवित्र मान कर उस भाषा लिपि पर ही आश्रित हैं। हिन्दू मतानुसार ईश्वर को तो सभी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त है। वह संकेतो, चिन्हों, मुद्राओं और केवल मूक भावों को भी समझने में सक्षम हैं।

हिन्दू धर्म की परिवर्तनशीलता

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं। उन्हें अन्य धर्मों से कभी आयात नही किया गया। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय, आर्य समाज तथा अन्य कई गुरूजनों के मत, मठ इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार हिन्दू विचारधारा में वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं परन्तु सागर की लहरों की तरह कालान्तर वह भी हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते गये हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त तरीके से स्थापित किया गया है। यह हिन्दू धर्म की समयनुसार परिवर्तनशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलोती अदभुत मिसाल है।  

प्रशिक्षण सम्बन्धी मान्यतायें

यह सम्भव नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति धर्म सम्बन्धी सभी पुस्तकों को पढ ले और उन्हें समझने की क्षमता और सामर्थ भी रखता हो। इस लिये यदि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू माना जाता है जितने धर्म गृन्थों के लेखक थे। जिस प्रकार इस्लाम में कुछ लोग कुरान को मौखिक याद कर के हाफिज की उपाद्धि पा लेते हैं उसी प्रकार हिन्दूओं में भी ब्राहम्णों का शैक्षिक आधार पर वर्गी करण है। वेदपाठी ब्राह्मण, दूवेदी ( दो वेदों के ज्ञाता), त्रिवेदी (तीन वेदों के ज्ञाता), चतुर्वेदी ब्राह्मण (चार वेदों के ज्ञाता) भी इसी प्रकार बने किन्तु आजकल साधारणत्या यह संज्ञायें केवल जन्मजात पहचान स्वरूप हैं और इन का योग्यता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

सामूहिक ज्ञान

हिन्दू धर्म को अन्य धर्मों की भान्ति किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं सर्जा। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथ महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा उन की साधना के अनुभवों का विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग बिना किसी भेद भाव के समस्त मानवों के लिये आज भी किया जा सकता है। उन में संकलित अध्यात्मिक तथ्यों को आज भी विज्ञान तथा प्राकृतिक नियमों की कसौटी पर परखा जा सकता हैं। ऋषियों दूारा प्रमाणित अनुभवों की सामूहिक ज्ञान धारा ऐक से अनेकों पीढ़ियों तक निरन्तर इसी प्रकार बहती रही है।

आदि मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की चमक, गरज, छोटे बडे जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहा, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथाओं का सृजन तथा संचय भी करने लगा। कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्ष्कि चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया। हिन्दू धर्म के पौराणिक गृंथ और उन पर आधारित आकर्षक चित्रावली अपने में पूर्ण वैज्ञायानिक प्रमाणिक्ता समेटे हुए गूढ. दार्शनिक्ता को सरलता से समझाने में अति सक्ष्म है। वेद तथा उपनिष्द समस्त मानव जाति के लिये ज्ञान का भण्डार हैं। ऋषि ही प्राचीन काल के वैज्ञानिक थे।

प्रधीनता के प्रतिबन्ध

जब कोई देश प्राधीन होता है तो वहाँ का शासक विजेता के देश धर्म तथा संस्कृति को उच्च सिद्ध करने के लिये हर यत्न करता है। इस के लिये वह शासित लोगों में उन के स्थानीय धर्म एवं संस्कृति के प्रति घृणा भाव पैदा करने की कोशिश भी करता है। इस कोशिश में वह यह भी नहीं देखता कि जो विधि वह अपना रहा है वह नैतिक है या अनैतिक, उस का ध्यान तो सत्ता को ही अपने हाथ में करने पर केन्द्रित रहता है। हिन्दू धर्म के इतिहास में भी ऐसा कई बार हुआ है और आज भी कई राजनैतिक स्वार्थों के कारण से हो रहा है।

 विदेशी आक्रान्ताओं के भारत आगमन के पश्चात हिन्दू साहित्य नष्ट किया गया था जिस कारण उस का बहुत कुछ भाग आज उप्लब्द्ध नहीं है। कई मौलिक ग्रंथों में संशोधन भी हुये तथा कई ग्रन्थों में दुर्भावनाओं के कारण मिलावटी छेड छाड भी की गयी। उन की पहचान तथा उन में पुनः संशोधन करने की आवश्यक्ता भी है। किन्तु हिन्दू धर्म का सकारात्म्कि पक्ष इस प्रकार के संशोधनों का विरोध भी नहीं करता। किसी धार्मिक ग्रंथ का समयानुसार पुनः सम्पादन किया जा सके, इस प्रकार की मानसिक उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं है।

अंग्रेजी शासन की नींव भारत में पक्की करने के लिये उन्हें भारतीयों को निजि जीवन मूल्यों तथा मर्यादाओं से पथ भ्रष्ट कर के कुछ भारतीय सेवकों की आवश्यक्ता थी जो अंग्रेजी मान्यताओं का संरक्षण और प्रचार भारत में करें । उस लक्ष्य को पाने के लिये अंग्रेजी शासकों ने भारत में ऐक शिक्षा पद्धति अपनायी जिसे आम तौर पर लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के नाम से जाना जाता है। विद्यालयों के माध्यम से भारत के प्राचीन ज्ञान को धर्मान्धता, दकियानूसी, और पिछडापन कहा गया। उस की तुलना में अंग्रेजी शिक्षा को आधुनिक, वैज्ञिानिक तथा प्रगतिशील दिखाया गया। रोजी रोटी कमाने के लिये अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी वेष भूषा, अंग्रेजी शिष्टाचार को ही प्राथमिक्ता दी गई। इस कारण धीरे धीरे भारतीय ज्ञान और आदर्श या तो लुप्त होते गये या उन्हें पाश्चात्य जगत की उपलब्द्धियाँ ही समझा जाने लगा। उन पर विदेशी रंग चढ गया।

सरकारी क्षेत्रों में तथा शिक्षा के संस्थानों पर मैकाले पद्धति के नवनिर्मित बुद्धजीवियों का अधिकार होता गया। दुर्भाग्य इस सीमा तक बढा कि भारतीय ज्ञान विज्ञान को जवाहरलाल नेहरू जैसे अंग्रेजी छाप बुद्धिजीवियों ने तो गोबर युग कह कर नकार ही दिया तथा वह केवल उपहास का विषय बन कर दकियानूसी की पहचान बन कर रह गया। भारत के नवयुवक पीढी अपने पूर्वजों के ज्ञान से पूर्णत्या अपरिचित हो गयी।

यह उचित नहीं कि हम अपने विविध विषयों पर रचे गये इन ज्ञान कोषों को बिना पढ़े या देखे ही नकार दें। वैचारिक भिन्नतायें हो सकती हैं किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने पुरखों के पूर्णत्या मौलिक ज्ञान विज्ञान, साधना और अनुभूतियों की बिना परखे ही अवहेलना करें और उन का केवल उपहास ही उडायें।

जन्म और स्वेच्छा का आधार

अन्य धर्मों में परम्परायें जटिल हैं। बिना बाईबल पढे कोई ईसाई नहीं कहलाता। उन के लिये चर्च जाना भी अनिवार्य है। इसी प्रकार बिना कुरान के कोई मुस्लमान नहीं बनता उन के लिये मस्जिद में इकठ्ठे हो कर दिन में पाँच बार नमाज़ पढना भी अनिवार्य है। इन दोनो की तुलना में हिन्दू धर्म में हिन्दू रीति से जीवन व्यतीत करने के लिये कोई विशेष कर्म अनिवार्य नहीं हैं। स्वेच्छा ही प्रधान है। हिन्दू धर्म कर्म प्रधान है। सभी को पर्यावरण, अपने मातापिता, भाई बहन, पति पत्नि, संतान, पशुपक्षियों, पेड पौधों के प्रति अपने अपने कर्तव्यों का निर्वाह जियो और जीने दो के आधार पर करना चाहिये। कर्तव्यों को ठीक तरह से निभाने के लिये राति रिवाज दिशा निर्देशन करते हैं परन्तु बाध्य नहीं करते। यदि कोई कर्तव्यों को किसी अन्य प्रकार से अच्छी तरह से कर सकता है तो उस को भी पूरी स्वतन्त्रता है। हर प्रकार से हिन्दू धर्म ऐक प्रत्यक्ष मार्ग दर्शक धर्म है।

जो धर्म तर्क की कसौटी पर परखे जाने से हिचकचाते हैं वहाँ कट्टरवाद, अन्ध विशवास तथा अन्य धर्मों के प्रति संशय और घृणा की भावना उत्पन्न होती है। उन में भय तथा प्रलोभनों के माध्यम से स्वधर्मियों को बाँध कर रखा जाता है। उन्हीं धर्मों मे कट्टरवाद और अन्य धर्मों के प्रति आतंकवाद की भावनायें पैदा होने लगती हैं। स्वेच्छा तथा जन्म के आधार से हिन्दू धर्म को अपनाने का प्रावधान ही हिन्दू धर्म की विशिष्ट शक्ति है। जिस धर्म में इतनी वैचारिक स्वतन्त्रता हो उस में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं पनप सकती और जिस धर्म में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं होती उस धर्म के अनुयायी किसी अन्य व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये उसे प्रलोभनों से प्रोत्साहित भी नहीं करते। ना ही वह किसी का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये हिंसा का सहारा लेते हैं। उन में आतंकवादी विचारधारा भी नहीं होती।

सर्व संरक्षण का धर्म

स्थानीय परियावकण का संरक्षण करते हुये, स्थानीय परम्पराओं का पालन करते हुये प्राकृतिक जीवन जीना तथा दूसरों को जीने देना ही हिन्दू धर्म है। हिन्दू पुस्तकालय में सभी विषयों पर मौलिक ग्रंथ उप्लब्द्ध हैं किन्तु हिन्दू बने रहने के लिये किसी विशेष ग्रंथ या सभी ग्रंथों का ज्ञान होना अनिवार्य नहीं है। हिन्दू धर्म की वैचारिक व्याख्या इस अपभ्रंश दोहे में पूर्णत्या समायी पुई हैः-

             पोथी पढ के जग मुआ पंडित भयो ना कोय

             ढाई आखर प्रेम के पढे सो पंडित होय।।

स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म ने सृष्टि के सभी प्राणियों को अपने आंचल में स्थान दिया है। समस्त मानव जो स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं। जो भी प्राक्रतिक जीवन व्यतीत करते हों, स्थानीय प्राकृतिक साधनों का संरक्षण करते हों, जियो और जीने दो कि सिद्धान्त पर कृत संकल्प हों वह नाम से चाहे अपने आप को कुछ भी कहें, वह वास्तव में हिन्दू ही हैं। केवल ग्रंथों को पढने से कोई हिन्दू नहीं बनता।

चाँद शर्मा

 

11 – उपनिष्द – वेदों की व्याख्या


उपनिष्द आध्यात्मिक्ता और विज्ञान का मिश्रण हैं तथा उन की गणना फँडामेन्टल साईंस के ग्रंथों के साथ होनी चाहिये। वेद ईश्वरीय विज्ञान है। उपनिष्द का मुख्य अर्थ ब्रह्मविध्या है। इन में अधिकतर वेदों में बताये गये आध्यात्मिक विचारों को समझाया गया है। वेदों के संकलन के पश्चात कई ऋषियों ने अपनी अनुभूतियों से वैदिक ज्ञान कोष में वृद्धि की। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना, तथा उस में संशोधन भी किया। इस प्रकार का ज्ञान आज उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित है। इस प्रकार का ज्ञान भारत से बाहर अन्य किसी धर्म की पुस्तक में नहीं है।

प्रत्येक उपनिष्द किसी ना किसी वेद से जुडा हुआ है। उपनिष्दों के लेखन की शैली प्रश्नोत्तर की है। शिष्य अपने गुरुओं से प्रश्न पूछते हैं और ऋषि शिष्यों के प्रश्नों के उत्तर दे कर उन की जिज्ञासा का समाधान करते हैं। प्रश्नोत्तर की शैली का बड़ा लाभ यह है कि विषयों के सभी पक्षों पर पूर्ण विचार हो जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रश्नौत्तर इस प्रकार के विषयों से सम्बन्धित हैं–

         आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, दोनों का क्या सम्बन्ध है, जीवन का आधार क्या है,

         हम क्यों जीवित हैं, हमें प्राण कौन देता है, हमें कौन और क्यों जीवित रखता है,

         हमारी इन्द्रीयों को कर्म करने की प्ररेणा तथा शक्ति कौन देता है आदि।

गुरू प्रश्नो का उत्तर देते समय .यथोचित उदाहरण या प्रसंग भी बताते हैं। ऋषियों तथा शिष्यों की संख्या असीमित है। उपनिष्दों का ज्ञान ही हिन्दू धर्म का वास्तविक वैज्ञियानिक तथा दार्शनिक ज्ञान है जिसे पौराणिक चित्रों के और कथाओं तथा अन्य ग्रंथों के माध्यम से सरल कर के समझाया गया है। 

वेदों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें उपनिष्द भाग (ज्ञान खण्ड), मंत्र भाग, तथा ब्राह्मणः भाग कह सकते हैं। पुराणों के अनुसार वेदों में 1180 तरह के ज्ञान खण्ड (फेकल्टीज – विषय) थे तथा प्रत्येक खण्ड का ऐक या अधिक उपनिष्द भी थे। यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं को धर्मान्धता कि कारण नष्ट कर दिया गया और उन के कुछ खंडित अँश ही आज देखे जा सकते हैं। केवल 10 उपनिष्द ही पूर्णत्या उप्लबद्ध हैं जिन का संक्षिप्त ब्योरा इस प्रकार हैः –

  1. ईशवासोपनिष्द – यह सब से संक्षिप्त उपनिष्द शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में 18 मंत्र हैं। इस में ईश्वर का महत्व, तथा विद्या और अविद्या का विषलेशण किया गया है, जैसे कि सभी जीवों में आत्मा समान है तथा सभी प्राणियों में ईश्वर का ही आभास है। आत्म बोध ही ईश्वर का ज्ञान है। इस उपनिष्द के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति की आयु सौ वर्ष है। सार्थक्ता तथा असार्थक्ता के विषय में भी वार्तालाप है। इसी उपनिष्द के संलगित भाग सुभल उपनिष्द में मानव हृदय की 72 नाडियों तथा मृत्यु प्रक्रिया समय आत्मा किस प्रकार शरीर छोडती है, शरीर के तत्व किस प्रकार अपने मूल तत्वों में विलीन होते हैं आदि के बारे में भी विस्तार पूर्वक बताया गया है । इस उपनिष्द के अन्य भागों में योग के बारे में भी बताया गया है।
  2. केनोपनिष्द – केन शब्द का अर्थ है – कौन (करता है), अथवा किस ने (किया)। केनोपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है तथा इस के चार भाग हैं। इस उपनिष्द में 34 मंत्र हैं। सब से प्रथम मंत्र ऊँ का मंत्र है। कई प्रश्नों पर वार्तालाप किया गया है जैसे कि मन को कौन नियन्त्रित करता है। कौन प्ररेणा देता है। निष्कर्ष में उत्तर दिया गया है कि सभी कुछ सर्व शक्तिमान ईश्वर के आदेशानुसार होता है।
  3. कठोपनिष्द – कठोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस के लेखक कथ ऋषि वौशामप्यान के शिष्य थे। इस के दो भाग हैं। इस उपनिष्द में यमराज नचिकेता को कई विषयों पर गूढ़ ज्ञान देते हैं जैसे शरीर की सभी इन्द्रियाँ बाहर की ओर हैं अतः वह केवल बाहरी ज्ञान  ही प्राप्त कर सकती हैं और आंतरिक आत्मां को नहीं देख सकतीं। आत्मा का दर्शन करने के लिये उन्हें बाहर का सम्बन्ध तोड़ कर अपने अन्दर ही केन्द्रित करना हो गा। ईश्वर सर्व व्यापक है और सृष्टि के कण कण में विद्यमान है किन्तु सभी देह धारियों में वह देह-हीन की तरह है। ईश्वर ही सभी का प्राणाधार हैं। इस के अन्य भाग में शरीर के पाँच कोषों का वर्णन है जिन्हें अन्नमय ( भोजन से बना), प्राणमय ( चौदह प्रकार की वायु से बना) मनोमय (जो इन्द्रियों को संचालित करता है), विज्ञानमय (जो इन्द्रियों दूआरा एकत्रित ज्ञान का विशलेशण करता है), तथा आनन्दमय ( जो ब्रह्मलीन होता है) कोष कहते हैं। शरीर में आत्मा की स्थिति दूध में मक्खन के जैसी है जो अदृष्य हो कर भी विद्यमान है। इस उपनिष्द के अन्य भाग गर्भ उपनिष्द में ऋषि पिप्लाद ने गर्भधारण से ले कर भ्रूण विकास के जन्म लेने तक का विस्तरित विवरण दिया है। इसी के अन्य सम्बन्धित भाग – शरीरिक उपनिष्द में शरीर के सभी अंगों का, तथा कुण्डालिनी उपनिष्द में कुण्डालिनी शक्ति जाग्रण करने का सम्पूर्ण वर्णन है।
  4. प्रश्र्नोपनिष्द – प्रश्र्नोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस के छः भाग हैं तथा इस में 64 मंत्र हैं। इस उपनिष्द में ऋषि भारदूआज, सत्यकाम, गार्गी, अशवालयम, भार्गव, तथा कात्यान महृषि पिपलाद से कई विषयों पर प्रश्नवार्ता करते हैं तथा महृषि पिपलाद उन्हें ब्रह्मज्ञान देते हैं। इस उपनिष्द में सूर्य की दिशानुसार वर्ष के दो भागों उत्तरायण तथा दक्षिणायन  (नार्दन एण्ड स्दर्न हेमिस्फीयर्स) का भी वर्णन है। अश्वलायन पूछते हैं कि शरीर में प्राण (श्वास-वायु) किस प्रकार आते हैं तो उत्तर में ऋषि पिप्लाद कहते हैं कि पाँच प्रकार के प्राण शरीर में रहते हैं। हृदय में प्राण, गुदा में अपान, नाभि में समान, स्नायु तन्त्रों में ध्यान, तथा सुष्मणा नाडी में उडयान – यह पाँचों प्रकार के प्राण पुरुष के वीर्य में स्थिर रहते हैं जिसे कभी नष्ट नहीं करना चाहिये। अतः प्राण रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य पालन का महत्व सर्वाधिक है। 
  5. मुणडकोपनिष्द मुणडकोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस में ब्रह्मा जी अपने पुत्र अथर्वः को ब्रह्मज्ञान देते हैं। आगे चल कर वही ज्ञान अथर्वः ऋषि अंगिरा तथा शौणिक को प्रदान करते हैं। इस में दो भाग हैं। एक भाग में परःविद्या( संसारिक-ज्ञान) तथा दूसरे भाग में अपरः विद्या (ब्रह्म ज्ञान) का उल्लेख है।
  6. माण्डूक्योपनिष्द माण्डूक्योपनिष्द भी अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस की चार शाखायें  अगमा, वेदाध्या, अदूवैतः तथा अथलाशान्ति हैं। इस उपनिष्द में मन की जागृति एवमं सुशु्प्ति आदि दशाओं के बारे में  वार्तालाप है। ऊँ की व्याख्या भी इस उपनिष्द में की गयी है।
  7. तैत्तिरीयोपनिष्द –  तैत्तिरीयोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में आदिलोकः, आदिज्योतिषः, आदिप्रज्ञा, आदिविद्या तथा अध्यात्म के सिद्धान्तों के बारे में वर्णन किया गया है। 
  8. ऐतरेयोपनिष्द ऐतरेयोपनिष्द ऋगवेद से सम्बन्धित है तथा इस में तीन भाग हैं। इस मे सृष्टि की उत्पति तथा अन्न दूआरा शरीर में जीवन प्रवेश तथा मानव शरीर के विकास आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस उपनिष्द में अध्यात्मिक शक्तियों के विकास तथा अध्यात्मिक उत्थान के पश्चात इन्द्रियों की क्रिया, जन्म, मरण तथा पुनर्जन्म के बारे में भी विस्तार से समझाया गया है।
  9. छान्दोग्य उपनिष्द – छान्दोग्य उपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है। यह बडा़ ग्रन्थ है जिस में ओंकार की विस्तरित व्याख्या की गयी है। इस के अतिरिक्त कई जटिल प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं जैसे कि मृत्यु के पश्चात क्या होता है, पुनर्जन्म कैसे होता है, पित्रलोक भरता क्यों नहीं आदि। अन्य भाग में यम-नियम तथा शरीर के आंतरिक अंग और शरीर स्थित चक्र भी विस्तार से समझाये गये हैं।
  10. बृहदारण्यकोपनिष्द बृहदारण्यकोपनिष्द सब से बड़ा उपनिष्द है तथा शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है । इस में छः भाग हैं। इस में कई विषयों पर ज्ञान दिया गया है जैसे कि अश्वमेधयज्ञ, सन्ध्या, कर्म, विचार, ब्रह्मा, सगुण, निर्गुण, प्रजापति, दैव, असुर, जीव तथा ज्ञान आदि। इसी उपनिष्द में याज्ञवालाक्या तथा उन की पत्नी मैत्री के मध्य कई महत्व पूर्ण विषयों पर वार्तालाप है।

इन के अतिरिक्त  एक अन्य ग्यारहवाँ उपनिष्द श्र्वेताश्र्वतरोपनिष्द ईसा से लग-भग 250 या 200 वर्ष पूर्व किसी अनाम लेखक ने भी लिखा है। यह प्राचीन उपनिष्दों में अंतिम है। इस का विषय मानवीय संघर्ष, विरह, त्रास्तियां, विफलतायें तथा आत्मिक सफलतायें है।

उपनिष्दों ने भारतीय दार्शनिक्ता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हिन्दू विचारधारा तथा बाद में पनपे बौध तथा जैन मत उपनिष्दों के सूक्ष्म ज्ञान उपनिष्दों से अत्याधिक प्रभावित हुये हैं। स्नातन धर्म के वैज्ञियानिक तथ्यों को विकिसत करने का श्रेय उपनिष्दों को ही जाता है। इन्हीं को वेदान्त कहते हैं।

उपनिष्दों के ज्ञान से इस्लाम भी अछूता नहीं रहा। उपनिष्दों ने सूफी विचारधारा को प्रभावित किया। 17 वीं शताब्दी में शाहजहाँ के ज्येष्ट पुत्र दारा शिकोह ने उपनिष्दों के ज्ञान से प्रभावित हो कर उन का अनुवाद भी करवाया था किन्तु दारा शिकोह को ऐसी मानसिक स्वतन्त्रता की कीमत अपना सिर कटवा कर चुकानी पडी थी क्यों कि उसी के छोटे भाई औरंगज़ेब ने दारा को काफिर होने के अपराध में मृत्यु दण्ड दिया था।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह चाहे तो किसी भी धार्मिक ग्रंथ की ना केवल समीक्षा, आलोचना,  अथवा व्याख्या निजि मतानुसार करे अपितु उस का प्रचार भी कर सकता है। ऐसी धार्मिक स्वतन्त्रता के कारण हिन्दू धर्म में रूढि़वाद, कट्टर पंथी मानसिक्ता तथा फण्डामेंटलिस्ट विचारों का होना सम्भव नहीं। मानसिक स्वतन्त्रता के फलस्वरूप हिन्दू धर्म में समय समय पर नयी विचारधाराओं का सर्जन तथा विलय भी होता रहा है।

चाँद शर्मा

3 – सम्बन्ध तथा प्रतिबन्ध


सृष्टि में जीवन का प्रारम्भ तब होता है जब आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और अन्त जब आत्मा शरीर से बाहर निकल जाती है। आत्मा और शरीर अपने अपने मूल स्त्रोत्रों के साथ मिल जाते हैं। अंत्येष्टी क्रिया चाहे शरीर को जला कर की जाये चाहे दफ़ना के, इस से कोई फरक़ नहीं पड़ता। यदि कुछ भी ना किया जाये तो भी शरीर के सड़ गल जाने के बाद शरीर के भौतिक तत्व मूल स्त्रोत्रों के साथ ही मिल जाते हैं। 

जीवन मोह 

जैसे ही प्राणी जन्म लेता है उस में जीने की चाह अपने आप ही पैदा हो जाती है। मृत्यु से सभी अपने आप को बचाते हैं। वनस्पतियां हौं या कोई चैतन्य प्राणी, कोई भी मरना नहीं चाहता, यहाँ तक कि भूख से मरने के बजाय एक प्राणी दूसरे प्राणी को खा भी जाता है। मरने के भय से एक प्राणी दूसरे प्राणी को मार भी डालता है ताकि वह स्वयं ज़िन्दा रह सके। सब प्राणियों का एकमात्र प्राक्रतिक लक्ष्य है – स्वयं जियो।

जड़ प्राणियों की अपेक्षा चैतन्य प्राणी परिवर्तनशील होते हैं। जीवित रहने के लिये वह अपने आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानवों में यह क्षमता अतिअधिक होती है जिसे परिवर्तनशीलता कहा जाता है। मानवों के सुख दुख उन की निजि परिवर्तनशीलता पर निर्भर करते हैं। जब वातावरण मानवों के अनुकूल होता है तो वह प्रसन्न रहते हैं और यदि प्रतिकूल हो जाये तो दुखी हो जाते हैं। ज्ञानी मानव अपने आप को और वातावरण को एक दूसरे के अनुकूल बनाने में क्रियाशील रहते हैं। 

समुदायों की आवश्यक्ता 

सुख से जीने के लिये भोजन, रहवास तथा सुरक्षा का होना ज़रूरी है। वनस्पतियों को भी धूप से बचाना और भोजन के लिये खाद और जल देना पड़ता है। पशु-पक्षी भी अपने लिये भोजन तथा सुरक्षित रहवास ढूंडते हैं। यही दशा मानवों की भी है।

प्राणियों के लिये सहवास भी जरूरी है। कोई भी अकेला रह कर फल फूल नहीं सकता। सभी वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा मानव, स्त्री-पुरुष जोडों में ही होते हैं। कोई भी अकेले अपनी वंश वृद्धि नहीं कर सकता है। वंश वृद्धि की क्षमता जीवन का महत्वशाली प्रमाण है। निर्जीव का कोई वंश नहीं होता। 

आवशक्तायें और कर्म 

सहवास और भौतिक आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिये कर्म करने की जरूरत पडती है। उदाहरण के लिये जब किसी बिल्ली, कुत्ते या किसी अन्य जीव को भूख लगती है तो वह अपने विश्राम-स्थल से उठ कर भोजन की खोज में जाने के लिये स्वंय ही प्रेरित हो जाता है। वह जीव यह क्रिया शरीरिक भूख को शांत करने के लिये करता है। एक बार भोजन मिलने के पश्चात वह जीव पुनः उसी स्थान पर हर रोज़ जाने लगता है ताकि उस की ज़रूरत का भोजन सुरक्षित रहे तथा निरन्तर और निर्विघ्न उसे ही मिलता रहे। निरन्तरता बनाये रखने के लिये वह जीव भोजन मिलने के स्थान के आस-पास ही भोजन स्त्रोत्र की रखवाली के लिये बैठने लगे गा। वह यथा सम्भव भोजन देने वाले का प्रिय बनने की चेष्टा भी करे गा। उस स्थान पर वह किसी दूसरे जीव का अधिकार भी नही होने दे गा और इस प्रकार वह जीव स्थान-वासियों के साथ अपना निजि सम्बन्ध स्थापित कर ले गा। अतः ज़रूरत पूरी करने के लिये जीव के समुदाय की शुरूआत होती है।

भोजन – निरन्तरता, सुरक्षा, और समुदाय सदस्यता प्राप्त कर लेने के पश्चात अब जीव में मानसिक ज़रूरते भी जागने लगती हैं। वह अच्छा बन कर दूसरों का प्रेम पाने की चाहत भी करता है और इस भाव को व्यक्त भी करता है। अकसर वह जीव भोजन दाता को अपना मालिक बना कर उस के हाथ चाटने लगे गा। उस स्थान की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले कर अपनी ज़िम्मेदारी जताऐ गा और बदले में मालिक से भी प्रेम पाने की अपेक्षा करने लगे गा। मालिक की ओर से उपेक्षा होने पर नाराज़गी दिखाये गा। यदि मालिक बिछुड जाये या उसे दुतकार दे तो वह जीव भूखा होने पर भी खाना नहीं खाये गी। गुम-सुम पडा़ रहे गा। यह रिश्ते तथा समुदाय बनाने के ही संकेत हैं।

सुखी-सम्बन्ध जुड़ने के बाद ऐक और इच्छा सभी जीवों में अपने आप पैदा होती है – अपना पूर्ण विकास कर के निष्काम भावना से कुछ अच्छा कर दिखाना सभी को अच्छा लगता है। इसी इच्छा पूर्ति के लिये जानवर भी कई तरह के करतब सीखते हैं और दूसरों को दिखाते हैं। किन्तु ऐसी अवस्था शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति के पश्चात ही आती है। अधिकतर पशु और कुछ मानव भी अपने पूरे जीवन काल में इस अवस्था तक नहीं पहुंच पाते। इस श्रेणी के मानव शरीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता 

शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति का सिद्धान्त मानवों पर भी लागू होता है। नवजात शिशु को भोजन, देख-रेख, सुरक्षित विश्रामस्थल, मां-बाप और सम्बन्धियों का दुलार चाहिये। यह मिलने के पश्चात नवजात अपने आस-पास की वस्तुओं के बारे में जिज्ञासु होता है, मां-बाप से, गुरू जनो से ज्ञान गृहण करने लगता है ताकि वह अधिक अच्छा बन सके और अपनी सक्षमता को अधिक्तम से अधिक विकसित कर के सुखी होता रहे। सुख के पीछे भागते रहना शरीरिक आवशयक्ताओं की तथा किसी का प्रिय बन जाना मानसिक आवशयक्ताओं की चरम सीमा होती है। अपने लिये जानवर भी कर्म करते है कर्म के बिना जीवन नहीं चल सकता।

व्यवहारिक नैतिकता

आवशयक्ताओं के सम्बन्धों का संतुलन बनाये रखने के लिये उचित व्यव्हार की रस्में तथा नियम बनाने पडे हैं। आरम्भ में आदि मानव अपने अपने समुदायों के साथ गुफाओं में रहते थे और भोजन जुटाने के लिये आखेट की तालाश में इधर उधर फिरते थे। मृत जीवों की चमड़ी तन ढकने के काम आती थी तथा मौसम से सुरक्षित रखती थी। धीरे धीरे जब उन का ज्ञान बढ़ा तो आदि मानवों ने कृषि करना सीखा। भोजन प्राप्ति का ऐक और विकल्प मिल गया जो आखेट से बेहतर था। आदि मानवों ने धीरे धीरे वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बनाने आरम्भ कर दिये, घर बनने लगे और इस प्रकार आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा गया। एक दूसरे से सम्बन्ध जोड़ने के व्यवहारिक नियम बनने लगे।

सम्बन्ध और प्रतिबन्ध

समस्त विश्व में शरीरिक, मानसिक, और भावनात्मिक विभन्नताओ पर विचार कर के मानवों ने समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चयन किया है। आदि काल से ही सभी जगह घरों में स्त्रीयां आंतरिक और पुरुष बाह्य जिम्मेदारियां निभाते आ रहे हैं। आदि काल में नवजातों की जंगली जानवरों से, कठिन जल-वायु से, तथा शत्रुओं से सुरक्षा करनी पड़ती थी इस लिये स्त्रियों को  घर में रख कर उन को बच्चों, पालतु पशुओं तथा घर-सामान के देख-भाल की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। पुरुष की शरीरिक क्षमता स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक होती है और वह कठिन परिश्रम तथा खतरों का सामना करने मे भी स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक सक्षम होते हैं अतः उन्हें आखेट तथा कृषि दूआरा परिवार के लिये भोजन जुटाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। इस प्रकार ज़िम्मेदारियों का बटवारा होने के पश्चात समाज के हित में लिंग-भेद के आधार पर ही ऐक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों के नियम और रस्में बनने लगीं।

सामाजिक वर्गीकरण

हर समाज में एक तरफ ज़रूरत मन्द तथा दूसरी ओर ज़रूरतें पूर्ति करने वाले होते हैं। इसी  के आधार पर लेन-देन के आपसी सम्बन्धों का विकास हुआ। ज़रूरत की तीव्रता और ज़रूरत पूरी करने वाले की क्षमता ही सम्बन्धों की आधारशिला बन गयी। 

जव तक ज़रूरत रहती है, और उस की पूर्ति होती रहती है उतनी ही देर तक सम्बन्ध भी चलते रहते हैं। यदि ज़रूरत बदल जाये या पूर्ति का स्त्रोत्र बदल जाये तो सम्बन्ध भी बदल जाते हैं। एक नवजात, जो अपनी मां से क्षण भर दूर होने पर बिलखता है, परन्तु बड़ा हो कर वही नवजात अपनी मां को भूल भी जाता है क्योंकि दोनो की ज़रूरतें और क्षमतायें बदल चुकी होती हैं। उम्र के साथ मां-बाप की शरीरिक क्षमतायें घट चुकी होती है तथा व्यस्क अपनी सहवासी ज़रूरतों को अन्य व्यस्कों से पूरी कर लेते हैं । आदान प्रदान की कमी के साथ ही आपसी रिश्तों की निकटता भी बदल जाती हैं। 

लेन देन की क्षमता के आधार पर ही सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। देने की क्षमता रखने वाले समाज के अग्रज बन गये। इस के विपरीत सदैव मांगने वाले समाज मे पिछड़ते गये। इस नयी व्यवस्था में दोषी कोई भी नहीं था परिणाम केवल निजि क्षमताओं और ज़रूरतों के बढ़ने घटने का था।

अग्रज समाज में आखेट के समय आगे रहते थे। अग्रज होने के अधिकार से वह पीछे रहने वालों और अपने आश्रितों की सुरक्षा हित में निर्देश भी देते थे जो पीछे रहने वालों को मानने पड़ते थे। अग्रजों ने समाज के सभी सदस्यों के हितों को ध्यान में रख कर जन्म, मरण तथा विवाह आदि के लिये रस्में भी निर्धारित कीं जो कालान्तर रिवाजो में बदल गयीं ताकि हर कोई समान तरीके से उन का पालन अपने आप कर सके और समाज सुचारू ढंग से चल सके। 

अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इस प्रकार समाज में अग्रजों के आधिकार तथा कार्य क्षैत्र बढ़ते गये। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया।  जैसे जैसे आखेटी और कृषि समुदाय बढ़ने लगे, उन के रहवास और क्षैत्र का भूगौलिक विस्तार भी फैलने लगा। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ। आरम्भ में समुदाय और समाज नस्लों और जातियों के आधार पर बने थे। राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीयता जैसे परिभाष्कि शब्द तो उन्नीसवीं शताब्दी में उपनेषवाद की उपज बन कर पनपे हैं।

स्वतन्त्रता पर नैतिक प्रतिबन्ध  

समुदाय छोटा हो या बड़ा, जब लोग मिल जुल कर रहते हैं तो समाजिक व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने के लिये नियम ज़रूरी हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाने आवश्यक हैं। कालान्तर सभी मानव समाजों ने ऐसे प्रतिबन्धों को अपने अपने धर्म का नाम दे दिया और वही नियम संसार के धर्मों की आधार शिला बन चुके हैं। 

इस पूरी परिक्रिया की शुरुआत वनवासियों ने भारत में ही की थी। आदि धर्म, से स्नातन धर्म और फिर अधिक लोक-प्रिय नाम हिन्दू धर्म सभी ओर फैलने लगा। सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है।

प्राकृतिक जीवन के नियम समस्त विश्व में ऐक जैसे ही हैं जो भारत में ही पनपे थे। क्या यह हमारे लिये गर्व की बात नहीं कि विश्व में मानव सभ्यता की नींव सब से पहले भारत में ही पड़ी थी और विश्व धर्म के जन्मदाता भारतीय ही हैं। 

चाँद शर्मा

 

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