हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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दहल गया हैद्राबाद!


यह हमारे मीडिया का कमाल है कि अपने देश की छवि को इस तरह से पैश करना कि लोगों में नकारात्मिक भावनायें, भय और निराश जगाई जाये। सनसनी फैलाई जाये। फिर सारा दिन घिसे हुये ग्रोमोफोन रेकार्ड को दिन भर बार बार बजाया जाये।

रंग भेद का सरकारी नजरिया

अब कम से कम सरकारी रुख से तो ऐसा लगता है कि आतंकवाद से हमारा वास्ता पिछले छ दशकों में शायद पहली बार पडा है। इस लिये सब से पहले तो आतंकवाद का रंग पहचानना चाहिये। क्या आतंकवाद का रंग भगवा, सफेद, लाल या हरा था? हमारी धर्म निर्पेक्षता को सब से ज्यादा खतरा भगवा आतंकवाद से है, क्योंकि इस रंग के ट्रेनिंग केन्द्रों की जानकारी का दावा गृहमन्त्री और अन्य कई केन्द्रीय मन्त्री बार बार कर चुके हैं। भगवा आतंकियों के पास लाठियाँ होती हैं जो ‘आर डी ऐक्स’ से अधिक घातक होती हैं।

धर्म से वास्ता – हमारा देश तो धर्म निर्पेक्ष है – इस लिये सरकार का मानना है कि आतंकवाद भी धर्म निर्पेक्ष होता है। अगर किसी धार्मिक किताब में लिखा है कि ‘जो तुम्हारे धर्म का नहीं उसे कत्ल कर दो, उस के पूजा स्थल को तोड दो’ तो सरकारी धर्म-निर्पेक्ष लोग ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ की ऱाष्ट्रीय धुन ही सुनते सुनाते हैं। अगर आतंकवाद का वास्ता धर्म से नहीं तो फिर किस से है? देश का बटवारा किस आधार पर हुआ था? मरने वाले किस धर्म के लोग थे?

आतंकवाद के रास्ते – सरकारी विचार से हमारे देश के चारों तरफ हमारे ‘मित्र देश’ हैं जिन के साथ आवा जावी की औपचारिकायें जितनी सरल हो सकें उतनी कर देनी चाहियें। अच्छा तो यह होगा कि सीमायें केवल कागजी नक्शों पर ही रहैं बाकी सभी जगह ‘अमन-सेतु’ बनाने चाहियें या ‘समझोता-ऐक्सप्रेस’ चलानी चाहियें। क्रिकेटरो, गजल गायकों और नाच तमाशा करने वालों पर कोई रोक नहीं होनी चाहिये। बजुर्गों, महिलाओं और बच्चों को सीमा के अन्दर घुस आने के बाद वीजा प्रदान करना चाहिये। ऐसा करने से ‘अमन की आशा’ और आतंकवाद ऐक दूसरे का सहारा बन सकें गे।

रटा-रटाया – हमारे नेताओं के मुख से आज पहली बार सुनने को मिला –

  •  “हमें आतंकी गतिविधियों की जानकारी दो दिन पहले से थी।”
  •  प्रधान मन्त्री ने आतंकी हमले की निन्दा की (वैसे किसी की निन्दा-चुगली करना अच्छी बात नहीं)।
  •  प्रधान मन्त्री ने शान्ति बनाये रखने की अपील भी की।
  • “सुरक्षा बढा दी गयी है” ( पहले कम क्यों थी?) ताकि आतंकी उसी जगह दोबारा ना आयें।
  •  मृतकों को लाखों का मुआवजा और घायलों का उपचार मुफ्त (कितना बडा अहसान है)
  •  “घटना की जांच के आदेश दे दिये गये हैं।”
  •  “देश और आतंकवाद सहन नहीं करे गा।”
  • “दोषियों को बख्शा नहीं जाये गा” – (चोरी छिपे फाँसी भी दी जाये गी)
  •  कैण्डल मार्च निकाले जायें गे।
  •  “पाकिस्तान के साथ शान्ति परिक्रिया पर कोई असर नहीं पडे गा।”
  • शायद राहुल गाँधी अमेठी को दौरा करें गे।
  •  “पाकिस्तान हमारा छोटा भाई है”।(मुलायम सिहँ) और
  • बला बला बला….
  • पार्लियामेंन्ट को चलने दिया जाये – देश को पिटने दिया जाये।

गाँधीवादी सहनशीलता – हम ऐक गाल पर थप्पड खा कर दूसरा गाल आगे बढा देते हैं। दूसरे पर थप्पड खा कर भूल जाते हैं कि पहले किस पर थप्पड पडा था इस लिये मुस्किराते हुये दोनों गाल आगे कर देते हैं। यही परमपरा चलती आ रही है।

अब तक बीस धर्म निर्पेक्ष नागरिक मरे और 119 घायल हुये इस लिये आतंकवाद का धर्म से कोई वास्ता नहीं। राजनैता कोई नहीं मरा। अब हम खुशी से गा सकते हैं –

अपनी आजादी को हम अब तो बचा सकते नहीं

सर कटा सकते हैं लेकिन सर उठा सकते नहीं, सर उठा सकते नहीं ।

हम तो पाकिस्तान से रिश्ते निभाते जायें गे, रिश्ते निभाते जायें गे

वोह पीट कर चल दें तो फिर भी हम नहीं शर्मायें गे, हम नहीं शर्मायें गे

जो कोई घुसपैठिया सीमा के अन्दर आये गा, सीमा के अन्दर आये गा

वोह यहाँ का नागरिक ईक दिन में ही बन जाये गा, ईक दिन में ही बन जाये गा

बिरयानियाँ इस देश में उन को खिलाते जायें गे, उन को हँसाते जायें गे

जो सबक बापू ने सिखलाया वोह भुला सकते नहीं

सिर कटा सकते हैं, लेकिन सिर उठा सकते नहीं, सिर उठा सकते नहीं

अपनी आजादी को अब हम तो बचा सकते नहीं।

टा – टटाँ…..

चुनाव नजदीक आ रहै हैं – नेताओं पर फूल बरसने चाहियें या पत्थर – अब किसी ऐक को ही चुनिये।

चाँद शर्मा

असुरक्षित जन-जीवन


जनता और विशेषत्या युवाओं के जोश भरे संघर्ष के कारण  शायद दामिनी को ‘मरणोपरान्त’ न्याय मिल सके जिस के लिये  देश के युवा बधाई के पात्र हैं जिन्हों ने सरकार की बरबर्ता और मौसम की कठिनाई झेल कर सम्भावना पैदा करी। लेकिन अभी तो इस देश में बहुत सी दामनियां दूर दराज इलाकों में सिसक रही हैं जहाँ तक न्याय पहुँचाने के ‘साधन’ और ‘जागरुक्ता’ ही नहीं है। लोग अन्याय झेलने के आदी हो चुके हैं। दिल्ली की ऐक दामिनी के केस से ध्यान हटा कर नेता तो पुराने रास्तों पर जाने का इन्तिजार ही कर रहै हैं।

नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना सरकार का परम कर्तव्य है और सरकार से सुरक्षा पाना हर नागरिक का अधिकार है। जरा सोचिये कि ऐक दामिनी का केस कोर्ट में शुरू होजाने से क्या भारत के नागरिकों का जीवन सुरक्षित होजाये गा जहाँ इस प्रकार की घटनायें ऐक आम बात बन चुकी हैः –

  • वरिष्ठ नागरिकों की घरों बैठे बिठाये में हत्यायें।
  • महिलाओं से चेन और पर्स छीनना।
  • किसी वरिष्ठ नागरिक के जीवन की कमाई ही छीन लेना।
  • बच्चों का अपहरण कर के उन्हें जीवित ही उन के परिजनों के लिये मृतक बना देना।
  • फिरोती मांगना।
  • नशीली या नकली दवायें खिला कर किसी की जान ले लेना।
  • जहरीली शराब बेचना।
  • आतंकवाद के कारण असुरक्षित जन जीवन।
  • और इस प्रकार के कई अन्य अपराध।

क्या इन सब के लिये कोई हैल्प लाईन, फास्ट ट्रैक कोर्ट, और कानून में सख्त सजा नहीं बननी चाहिये? यह सब किस की जिम्मेदारी के अन्तर्गत आते है? नागरिक तो बराबर टैक्स देते आ रहै हैं लेकिन सरकार इन सब बातों के लिये “साधनों की कमी” का बहाना कर के पिछले सात दशकों से आज तक बचती आई है।

सच्चाई यह है कि “नेता” अधिकांश साधनों को अपनी और अपने परिवारों की निजि सुरक्षा में लगाये बैठे हैं। उन्हें बडे बडे सुरक्षित बंगले, पुलिस की बुलैटप्रूफ गाडियां, कमाणडो दस्ते और सड़कों पर उन की आवाजावी का बन्दोबस्त करने के लिये सैंकडों पुलिस कर्मी रोज चाहियें ताकि वह मन मरजी से जनता को हाथ हिला हिला कर दर्शन देते रहैं।

अगर साधनों की कमी है तो वह नेताओं को भी महसूस होनी जरूरी है। नेताओं से वापिस लेकर वही साधन नगरों की गलियों और चौराहों को सुरक्षित करने में लगाने चाहियें। हर नेता को अपने साथ इतनी सिक्यूरिटी रखते हुये शर्म आनी चाहिये परन्तु  इस के लिये उन्हें अपनी सोच को भी बदलना होगा।

नागरिक और युवा याचना छोड कर अपना अधिकार प्राप्त करें ताकि लोक तन्त्र में नागरिकों की “दशा भी बदले और दिशा भी बदले”।

चाँद शर्मा

72 – अभी नहीं तो कभी नहीं


यह विडम्बना थी कि ऐक महान सभ्यता के उत्तराधिकारी होने के बावजूद भी हम ऐक हज़ार वर्षों से भी अधिक मुठ्ठी भर आक्रान्ताओं के दास बने रहै जो स्वयं ज्ञान-विज्ञान में पिछडे हुये थे। किन्तु उस से अधिक दःखदाई बात अब है। आज भी हम पर ऐक मामूली पढी लिखी विदेशी मूल की स्त्री कुछ गिने चुने स्वार्थी, भ्रष्ट और चापलूसों के सहयोग से शासन कर रही है जिस के सामने भारत के हिन्दू नत मस्तक हो कर गिडगिडाते रहते हैं। उस का दुस्साहसी कथन है कि ‘भारत हिन्दू देश नहीं है और हिन्दू कोई धर्म नहीं है ’। किसी भी देश और संस्कृति का इस से अधिक अपमान नहीं हो सकता।

हमारा निर्जीव स्वाभिमान

हम इतने पलायनवादी हो चुके हैं कि प्रजातन्त्र शासन प्रणाली में भी अपने हितों की रक्षा अपने ही देश करने में असमर्थ हैं। हमारे युवा आज भी लाचार और कातर बने बैठे हैं जैसे ऐक हजार वर्ष पहले थे। हमारे अध्यात्मिक गुरु तथा विचारक भी इन तथ्यों पर चुप्पी साधे बैठे हैं। ‘भारतीय वीराँगनाओं की आधुनिक युवतियों ’ में साहस या महत्वकाँक्षा नहीं कि वह अपने बल बूते पर बिना आरक्षण के अपने ही देश में निर्वाचित हो सकें । हम ने अपने इतिहास से कुछ सीखने के बजाय उसे पढना ही छोड दिया है। इसी प्रकार के लोगों के बारे में ही कहा गया है कि –

जिस को नहीं निज देश गौरव का कोई सम्मान है

वह नर नहीं, है पशु निरा, और मृतक से समान है।

अति सभी कामों में विनाशकारी होती है। हम भटक चुके हैं। अहिंसा के खोखले आदर्शवाद में लिपटी धर्म-निर्पेक्ष्ता और कायरता ने हमारी शिराओं और धमनियों के रक्त को पानी बना दिया है। मैकाले शिक्षा पद्धति की जडता ने हमारे मस्तिष्क को हीन भावनाओं से भर दिया है। राजनैतिक क्षेत्र में हम कुछ परिवारों पर आश्रित हो कर प्रतीक्षा कर रहै हैं कि उन्हीं में से कोई अवतरित हो कर हमें बचा ले गा। हमें आभास ही नहीं रहा कि अपने परिवार, और देश को बचाने का विकल्प हमारी मुठ्ठी में ही मत-पत्र के रूप में बन्द पडा है और हमें केवल अपने मत पत्र का सही इस्तोमाल करना है। लेकिन जो कुछ हम अकेले बिना सहायता के अपने आप कर सकते हैं हम वह भी नहीं कर रहै।

दैविक विधान का निरादर

स्थानीय पर्यावरण का आदर करने वाले समस्त मानव, जो ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त में विशवास रखते हैं तथा उस का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं उन की नागरिकता तथा वर्तमान पहचान चाहे कुछ भी हो। धर्म के माध्यम से आदि काल से आज तक का इतिहास, अनुभव, विचार तथा विशवास हमें साहित्य के रूप में मिले हैं। हमारा कर्तव्य है कि उस धरोहर को सम्भाल कर रखें, उस में वृद्धि करें और आगे आने वाली पीढ़ीयों को सुरक्षित सौंप दें। हमारा धार्मिक साहित्य मानवता के इतिहास, सभ्यता और विकास का पूर्ण लेखा जोखा है जिस पर हर भारतवासी को गर्व करने का पूरा अधिकार है कि हिन्दू ही मानवता की इस स्वर्ण धरोहर के रचनाकार और संरक्षक थे और आज भी हैं। विज्ञान के युग में धर्म की यही महत्वशाली देन हमारे पास है।

हम भूले बैठे हैं कि जन्म से ही व्यक्तिगत पहचान के लिये सभी को माता-पिता, सम्बन्धी, देश और धर्म विरासत में प्रकृति से मिल जाते हैं। इस पहचान पत्र के मिश्रण में पूर्वजों के सोच-विचार, विशवास, रीति-रिवाज और उन के संचित किये हुये अनुभव शामिल होते हैं। हो सकता है जन्म के पश्चात मानव अपनी राष्ट्रीयता को त्याग कर दूसरे देश किसी देश की राष्ट्रीयता अपना ले किन्तु धर्म के माध्यम से उस व्यक्ति का अपने पूर्वजों से नाता स्दैव जुड़ा रहता है। विदेशों की नागरिक्ता पाये भारतीय भी अपने निजि जीवन के सभी रीति-रिवाज हिन्दू परम्परानुसार ही करते हैं। इस प्रकार दैविक धर्म-बन्धन भूत, वर्तमान, और भविष्य की एक ऐसी मज़बूत कड़ी है जो मृतक तथा आगामी पीढ़ियों को वर्तमान सम्बन्धों से जोड़ कर रखती है।

पलायनवाद – दास्ता को निमन्त्रण

हिन्दू युवा युवतियों को केवल मनोरंजन का चाह रह गयी हैं। आतंकवाद के सामने असहाय हो कर हिन्दू अपने देश में, नगरों में तथा घरों में दुहाई मचाना आरम्भ कर देते हैं और प्रतीक्षा करते हैं कि कोई पडोसी आ कर उन्हें बचा ले। हमने कर्म योग को ताक पर रख दिया है हिन्दूओं को केवल शान्ति पूर्वक जीने की चाह ही रह गयी है भले ही वह जीवन कायरता, नपुसंक्ता और अपमान से भरा हो। क्या हिन्दू केवल सुख और शान्ति से जीना चाहते हैं भले ही वह अपमान जनक जीवन ही हो?

यदि दूरगामी देशों में बैठे जिहादी हमारे देश में आकर हिंसा से हमें क्षतिग्रस्त कर सकते हैं तो हम अपने ही घर में प्रतिरोध करने में सक्ष्म क्यों नहीं हैं ? हिन्दू बाह्य हिंसा का मुकाबला क्यों नहीं कर सकते ? क्यों मुठ्ठी भर आतंकवादी हमें निर्जीव लक्ष्य समझ कर मनमाना नुकसान पहुँचा जाते हैं ? शरीरिक तौर पर आतंकवादियों और हिन्दूओं में कोई अन्तर या हीनता नहीं है। कमी है तो केवल संगठन, वीरता, दृढता और कृतसंकल्प होने की है जिस के कारण हमेशा की तरह आज फिर हिन्दू बाहरी शक्तियों को आमन्त्रित कर रहै हैं कि वह उन्हे पुनः दास बना कर रखें।

आज भ्रष्टाचार और विकास से भी बडा मुद्दा हमारी पहचान का है जो धर्म निर्पेक्षता की आड में भ्रष्टाचारियों, अलपसंख्यकों और मल्टीनेश्नल गुटों के निशाने पर है। हमें सब से पहले अपनी और अपने देश की हिन्दू पहचान को बचाना होगा। विकास और भ्रष्टाचार से बाद में भी निपटा जा सकता है। जब हमारा अस्तीत्व ही मिट जाये गा तो विकास किस के लिये करना है? इसलिये  जो कोई भी हिन्दू समाज और संस्कृति से जुडा है वही हमारा ‘अपना’ है। अगर कोई हिन्दू विचारधारा का भ्रष्ट नेता भी है तो भी हम ‘धर्म-निर्पेक्ष’ दुशमन की तुलना में उसे ही स्वीकारें गे। हिन्दूओं में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये प्रत्येक हिन्दू को अपने आप दूसरे हिन्दूओं से जुडना होगा।

सिवाय कानवेन्ट स्कूलों की ‘मोरल साईंस’ के अतिरिक्त हिन्दू छात्रों को घरों में या ‘धर्म- निर्पेक्ष’ सरकारी स्कूलों में नैतिकता के नाम पर कोई शिक्षा नहीं दी जाती। माता – पिता रोज मर्रा के साधन जुटाने या अपने मनोरंजन में व्यस्त-मस्त रहते हैं। उन्हें फुर्सत नहीं। बच्चों और युवाओं को अंग्रेजी के सिवा बाकी सब कुछ बकवास या दकियानूसी दिखता है। ऐसे में आज भारत की सवा अरब जनसंख्या में से केवल ऐक सौ इमानदार व्यक्ति भी मिलने मुशकिल हैं। यह वास्तव में ऐक शर्मनाक स्थिति है मगर भ्रष्टाचार की दीमक हमारे समस्त शासन तन्त्र को ग्रस्त कर चुकी है। पूरा सिस्टम ही ओवरहाल करना पडे गा।

दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता

इजराईल भारत की तुलना में बहुत छोटा देश है लेकिन अपने स्वाभिमान की रक्षा करनें में हम से कई गुना सक्षम है। वह अपने नागरिकों की रक्षा करने के लिये अमेरीका या अन्य किसी देश के आगे नहीं गिड़गिड़ाता। आतंकियों को उन्हीं के घर में जा कर पीटता है। भारत के नेता सबूतों की गठरी सिर पर लाद कर दुनियां भर के आगे अपनी दुर्दशा और स्वाभिमान-हीनता का रोना रोने निकल पड़ते हैं। कितनी शर्म की बात है जब देश की राजधानी में जहां आतंकियों से लड़ने वाले शहीद को सर्वोच्च सम्मान से अलंकृत किया जाता है वहीं उसी शहीद की कारगुज़ारी पर जांच की मांग भी उठाई जाती है क्यों कि कुछ स्वार्थी नेताओं का वोट बेंक खतरे में पड़ जाता है।

आज अपने ही देश में हिन्दु अपना कोई भी उत्सव सुरक्षा और शान्ति से नहीं मना पाते। क्या हम ने आज़ादी इस लिये ली थी कि मुसलमानों से प्रार्थना करते रहें कि वह हमें इस देश में चैन से जीने दें ? क्या कभी भी हम उन प्रश्नों का उत्तर ढूंङ पायें गे या फिर शतरंज के खिलाडियों की तरह बिना लडे़ ही मर जायें गे ?

अहिंसात्मिक कायरता

अगर हिन्दूओं को अपना आत्म सम्मान स्थापित करना है तो गाँधी-नेहरू की छवि से बाहर आना होगा। गाँधी की अहिंसा ने हिन्दूओं के खून में रही सही गर्मी भी खत्म कर दी है ।

गाँधी वादी हिन्दू नेताओं ने हमें अहिंसात्मिक कायरता तथा नपुंसक्ता के पाठ पढा पढा कर पथ भ्रष्ट कर दिया है और विनाश के मार्ग पर धकेल दिया है। हिन्दूओं को पुनः समर्ण करना होगा कि राष्ट्रीयता परिवर्तनशील होती है। यदि धर्म का ही नाश हो गया तो हिन्दूओं की पहचान ही विश्व से मिट जाये गी। भारत की वर्तमान सरकार भले ही अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष कहे परन्तु सभी हिन्दू धर्म-निर्पेक्ष नहीं हैं बल्कि धर्म-परायण हैं। उन्हें जयघोष करना होगा कि हमें गर्व है कि हम आरम्भ से आखिर तक हिन्दू थे और हिन्दू ही रहैं गे।

उमीद की किऱण

हिन्दूओं के पास सरकार चुनने का अधिकार हर पाँच वर्षों में आता है फिर भी यदि प्रजातन्त्र प्रणाली में भी हिन्दूओं की ऐसी दुर्दशा है तो जब किसी स्वेच्छाचारी कट्टरपंथी अहिन्दू का शासन होगा तो उन की महा दुर्दशा की परिकल्पना करना कठिन नहीं। यदि हिन्दू पुराने इतिहास को जानकर भी सचेत नही हुये तो अपनी पुनार्वृति कर के इतिहास उन्हें अत्याधिक क्रूर ढंग से समर्ण अवश्य कराये गा। तब उन के पास भाग कर किसी दूसरे स्थान पर आश्रय पाने का कोई विकल्प शेष नहीं होगा। आने वाले कल का नमूना वह आज भी कशमीर तथा असम में देख सकते हैं जहाँ हिन्दूओं ने अपना प्रभुत्व खो कर पलायनवाद की शरण ले ली है।

आतंकवाद के अन्धेरे में उमीद की किऱण अब स्वामी ऱामदेव ने दिखाई है। आज ज़रूरत है सभी राष्ट्रवादी, और धर्मगुरू अपनी परम्पराओं की रक्षा के लिये जनता के साथ स्वामी ऱामदेव के पीछे एक जुट हो जाय़ें और आतंकवाद से भी भयानक स्वार्थी राजनेताओं से भारत को मुक्ति दिलाने का आवाहन करें। इस समय हमारे पास स्वामी रामदेव, सुब्रामनियन स्वामी, नरेन्द्र मोदी, और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संगठित नेतृत्व से उत्तम और कोई विकल्प नहीं है। शंका निवार्ण के लिये यहाँ इस समर्थन के कारण को संक्षेप में लिखना प्रसंगिक होगाः-

  • स्वामी राम देव पूर्णत्या स्वदेशी और भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं। उन्हों ने भारतीयों में स्वास्थ, योग, आयुर्वौदिक उपचार तथा भ्रष्टाचार उनमूलन के प्रति जाग्रुक्ता पैदा करी है। उन का संगठन ग्राम इकाईयों तक फैला हुआ है।
  • सुब्रामनियन स्वामी अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के बुद्धिजीवी हैं और भ्रष्टाचार उनमूलन तथा हिन्दू संस्कृति के प्रति स्मर्पित हो कर कई वर्षों से अकेले ही देश व्यापी आन्दोलन चला रहै हैं।
  • नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के सर्व-सक्ष्म लोक प्रिय और अनुभवी विकास पुरुष हैं। वह भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित हैं।
  • राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश का ऐक मात्र राष्ट्रवादी संगठन है जिस के पास सक्ष्म और अनुशासित स्वयंसेवी कार्यकर्ताओं का संगठन है। यही ऐक मात्र संगठन है जो आन्तकवाद और धर्मान्तरण का सामना करने में सक्ष्म है तथा हिन्दू राष्ट्र के प्रति समर्पित है।

आज अगर कोई भी नेता या संगठन, चाहे किसी भी कारण से हिन्दूओं के इस अन्तिम विकल्प को समर्थन नहीं देता तो वह हिन्दू विरोधी और हिन्दू द्रोही ही है। अगर अभी हम चूक गये तो फिर अवसर हाथ नहीं आये गा। इस लिये अगर अभी नहीं तो कभी नहीं।

समापन

हिन्दू महा सागर की यह लेख श्रंखला अब समापन पर पहुँच गयी है। इस के लेखों में जानकारी केवल परिचयात्मिक स्तर की थी। सागर में अनेक लहरें दिखती हैं परन्तु गहराई अदृष्य होती है। अतिरिक्त जानकारी के लिये जिज्ञासु को स्वयं जल में उतरना पडता है।

यदि आप गर्व के साथ आज कह सकते हैं कि मुझे अपने हिन्दू होने पर गर्व है तो मैं श्रंखला लिखने के प्रयास को सफल समझूं गा। अगर आप को यह लेखमाला अच्छी लगी है तो अपने परिचितों को भी पढने के लिये आग्रह करें और हिन्दू ऐकता के साथ जोडें। आप के विचार, सुझाव तथा संशोधन स्दैव आमन्त्रित रहैं गे।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

 

 

 

17 – पाठ्यक्रम मुक्त हिन्दू धर्म


हिन्दू धर्म पूर्णत्या पाठ्यक्रम मुक्त है। हर कोई अपनी इच्छानुसार अपने लिये धार्मिक पुस्तकों का चैयन कर सकता है। गूढ वैज्ञानिक तथ्यों के लिये वेद और उपनिष्द, दार्शनिक्ता के लिये दर्शन शास्त्र, ऐतिहासिक गाथाओं के लिये महाकाव्य और पुराण, मनोरंजन और नैतिकता के लिये कथायें और केवल रटने के लिये कई तरह के गुटके भी उपलब्ध हैं। आप जो चाहें पढें, सुनें या सुनायें जैसी स्वतन्त्रता और किसी धर्म में नहीं है।

हिन्दू धर्म के विशाल पुस्तकालय को पढ पाना आसान नहीं। सभी व्यक्तियों में रुचि और क्षमता भी ऐक जैसी नहीं होती। अतः हर कोई अपने लिये पाठन सामिग्री का चुनाव करने के लिये स्वतन्त्र है। हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। यह प्रत्येक हिन्दू की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, अथवा सभी को पढे, और चाहे तो वह किसी को भी ना पढे़।

साहित्य चैयन की स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म की विचारधारा किसी एक गृंथ पर नही टिकी है। हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का विशाल पुस्तकालय उपलब्ध है। जिस में अध्यात्मवाद, आत्मवाद, ऐक ईश्वर, अनेक देवी देवताओं, पेडों, पर्वतों, नदियों, नगरों, पत्थरों तथा पशु पक्षियों तक में भगवान को साकार कर लेने का मार्ग दर्शाया गया है। जो ईश्वर को साकार ना मानना चाहें वह उसे निराकार भी मान सकते हैं। अपने भीतर भी ईश्वर को देखना चाहें तो इस विषय पर भी विशाल साहित्य भण्डार उप्लब्ध है। जिस प्रकार की चाह हो, हिन्दू धर्म के पास उसी प्रकार की राह दिखाने की क्षमता है। हिन्दू धर्म के साम्प्रदायों के पास भी अपने अपने विशाल साहित्य कोष उप्लब्ध हैं।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठने के लिये कोई हिन्दू बाध्य नहीं है। हिन्दू ग्रंथो का मूल्यांकन, परिवर्तन, तथा संशोधन भी किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों को पूर्ण स्वतन्त्रता से व्यक्त कर सकता है। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है।

भाषाओं की विविधता

हिन्दू धर्म के प्राचीन तथा मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। वह देव भाषा तथा सभी भारतीय भाषोओं की जननी कही जाती है। परन्तु इस के अतिरिक्त बंगला, मराठी, तामिल, मलयालम, पंजाबी, उर्दू, असमी, उडिया, तेलगू भाषाओं तथा उन्हीं के अनगिणित अपभ्रंश संस्करणों को भी मौलिक ग्रन्थों की तरह ही आदर से पढा जाता है। हिन्दू धर्म में इस प्रकार की धारणा कदापि नहीं कि भगवान केवल किसी ऐक ही भाषा अथवा किसी विशेष लिपि को पवित्र मान कर उस भाषा लिपि पर ही आश्रित हैं। हिन्दू मतानुसार ईश्वर को तो सभी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त है। वह संकेतो, चिन्हों, मुद्राओं और केवल मूक भावों को भी समझने में सक्षम हैं।

हिन्दू धर्म की परिवर्तनशीलता

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं। उन्हें अन्य धर्मों से कभी आयात नही किया गया। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय, आर्य समाज तथा अन्य कई गुरूजनों के मत, मठ इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार हिन्दू विचारधारा में वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं परन्तु सागर की लहरों की तरह कालान्तर वह भी हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते गये हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त तरीके से स्थापित किया गया है। यह हिन्दू धर्म की समयनुसार परिवर्तनशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलोती अदभुत मिसाल है।  

प्रशिक्षण सम्बन्धी मान्यतायें

यह सम्भव नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति धर्म सम्बन्धी सभी पुस्तकों को पढ ले और उन्हें समझने की क्षमता और सामर्थ भी रखता हो। इस लिये यदि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू माना जाता है जितने धर्म गृन्थों के लेखक थे। जिस प्रकार इस्लाम में कुछ लोग कुरान को मौखिक याद कर के हाफिज की उपाद्धि पा लेते हैं उसी प्रकार हिन्दूओं में भी ब्राहम्णों का शैक्षिक आधार पर वर्गी करण है। वेदपाठी ब्राह्मण, दूवेदी ( दो वेदों के ज्ञाता), त्रिवेदी (तीन वेदों के ज्ञाता), चतुर्वेदी ब्राह्मण (चार वेदों के ज्ञाता) भी इसी प्रकार बने किन्तु आजकल साधारणत्या यह संज्ञायें केवल जन्मजात पहचान स्वरूप हैं और इन का योग्यता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

सामूहिक ज्ञान

हिन्दू धर्म को अन्य धर्मों की भान्ति किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं सर्जा। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथ महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा उन की साधना के अनुभवों का विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग बिना किसी भेद भाव के समस्त मानवों के लिये आज भी किया जा सकता है। उन में संकलित अध्यात्मिक तथ्यों को आज भी विज्ञान तथा प्राकृतिक नियमों की कसौटी पर परखा जा सकता हैं। ऋषियों दूारा प्रमाणित अनुभवों की सामूहिक ज्ञान धारा ऐक से अनेकों पीढ़ियों तक निरन्तर इसी प्रकार बहती रही है।

आदि मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की चमक, गरज, छोटे बडे जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहा, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथाओं का सृजन तथा संचय भी करने लगा। कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्ष्कि चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया। हिन्दू धर्म के पौराणिक गृंथ और उन पर आधारित आकर्षक चित्रावली अपने में पूर्ण वैज्ञायानिक प्रमाणिक्ता समेटे हुए गूढ. दार्शनिक्ता को सरलता से समझाने में अति सक्ष्म है। वेद तथा उपनिष्द समस्त मानव जाति के लिये ज्ञान का भण्डार हैं। ऋषि ही प्राचीन काल के वैज्ञानिक थे।

प्रधीनता के प्रतिबन्ध

जब कोई देश प्राधीन होता है तो वहाँ का शासक विजेता के देश धर्म तथा संस्कृति को उच्च सिद्ध करने के लिये हर यत्न करता है। इस के लिये वह शासित लोगों में उन के स्थानीय धर्म एवं संस्कृति के प्रति घृणा भाव पैदा करने की कोशिश भी करता है। इस कोशिश में वह यह भी नहीं देखता कि जो विधि वह अपना रहा है वह नैतिक है या अनैतिक, उस का ध्यान तो सत्ता को ही अपने हाथ में करने पर केन्द्रित रहता है। हिन्दू धर्म के इतिहास में भी ऐसा कई बार हुआ है और आज भी कई राजनैतिक स्वार्थों के कारण से हो रहा है।

 विदेशी आक्रान्ताओं के भारत आगमन के पश्चात हिन्दू साहित्य नष्ट किया गया था जिस कारण उस का बहुत कुछ भाग आज उप्लब्द्ध नहीं है। कई मौलिक ग्रंथों में संशोधन भी हुये तथा कई ग्रन्थों में दुर्भावनाओं के कारण मिलावटी छेड छाड भी की गयी। उन की पहचान तथा उन में पुनः संशोधन करने की आवश्यक्ता भी है। किन्तु हिन्दू धर्म का सकारात्म्कि पक्ष इस प्रकार के संशोधनों का विरोध भी नहीं करता। किसी धार्मिक ग्रंथ का समयानुसार पुनः सम्पादन किया जा सके, इस प्रकार की मानसिक उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं है।

अंग्रेजी शासन की नींव भारत में पक्की करने के लिये उन्हें भारतीयों को निजि जीवन मूल्यों तथा मर्यादाओं से पथ भ्रष्ट कर के कुछ भारतीय सेवकों की आवश्यक्ता थी जो अंग्रेजी मान्यताओं का संरक्षण और प्रचार भारत में करें । उस लक्ष्य को पाने के लिये अंग्रेजी शासकों ने भारत में ऐक शिक्षा पद्धति अपनायी जिसे आम तौर पर लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के नाम से जाना जाता है। विद्यालयों के माध्यम से भारत के प्राचीन ज्ञान को धर्मान्धता, दकियानूसी, और पिछडापन कहा गया। उस की तुलना में अंग्रेजी शिक्षा को आधुनिक, वैज्ञिानिक तथा प्रगतिशील दिखाया गया। रोजी रोटी कमाने के लिये अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी वेष भूषा, अंग्रेजी शिष्टाचार को ही प्राथमिक्ता दी गई। इस कारण धीरे धीरे भारतीय ज्ञान और आदर्श या तो लुप्त होते गये या उन्हें पाश्चात्य जगत की उपलब्द्धियाँ ही समझा जाने लगा। उन पर विदेशी रंग चढ गया।

सरकारी क्षेत्रों में तथा शिक्षा के संस्थानों पर मैकाले पद्धति के नवनिर्मित बुद्धजीवियों का अधिकार होता गया। दुर्भाग्य इस सीमा तक बढा कि भारतीय ज्ञान विज्ञान को जवाहरलाल नेहरू जैसे अंग्रेजी छाप बुद्धिजीवियों ने तो गोबर युग कह कर नकार ही दिया तथा वह केवल उपहास का विषय बन कर दकियानूसी की पहचान बन कर रह गया। भारत के नवयुवक पीढी अपने पूर्वजों के ज्ञान से पूर्णत्या अपरिचित हो गयी।

यह उचित नहीं कि हम अपने विविध विषयों पर रचे गये इन ज्ञान कोषों को बिना पढ़े या देखे ही नकार दें। वैचारिक भिन्नतायें हो सकती हैं किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने पुरखों के पूर्णत्या मौलिक ज्ञान विज्ञान, साधना और अनुभूतियों की बिना परखे ही अवहेलना करें और उन का केवल उपहास ही उडायें।

जन्म और स्वेच्छा का आधार

अन्य धर्मों में परम्परायें जटिल हैं। बिना बाईबल पढे कोई ईसाई नहीं कहलाता। उन के लिये चर्च जाना भी अनिवार्य है। इसी प्रकार बिना कुरान के कोई मुस्लमान नहीं बनता उन के लिये मस्जिद में इकठ्ठे हो कर दिन में पाँच बार नमाज़ पढना भी अनिवार्य है। इन दोनो की तुलना में हिन्दू धर्म में हिन्दू रीति से जीवन व्यतीत करने के लिये कोई विशेष कर्म अनिवार्य नहीं हैं। स्वेच्छा ही प्रधान है। हिन्दू धर्म कर्म प्रधान है। सभी को पर्यावरण, अपने मातापिता, भाई बहन, पति पत्नि, संतान, पशुपक्षियों, पेड पौधों के प्रति अपने अपने कर्तव्यों का निर्वाह जियो और जीने दो के आधार पर करना चाहिये। कर्तव्यों को ठीक तरह से निभाने के लिये राति रिवाज दिशा निर्देशन करते हैं परन्तु बाध्य नहीं करते। यदि कोई कर्तव्यों को किसी अन्य प्रकार से अच्छी तरह से कर सकता है तो उस को भी पूरी स्वतन्त्रता है। हर प्रकार से हिन्दू धर्म ऐक प्रत्यक्ष मार्ग दर्शक धर्म है।

जो धर्म तर्क की कसौटी पर परखे जाने से हिचकचाते हैं वहाँ कट्टरवाद, अन्ध विशवास तथा अन्य धर्मों के प्रति संशय और घृणा की भावना उत्पन्न होती है। उन में भय तथा प्रलोभनों के माध्यम से स्वधर्मियों को बाँध कर रखा जाता है। उन्हीं धर्मों मे कट्टरवाद और अन्य धर्मों के प्रति आतंकवाद की भावनायें पैदा होने लगती हैं। स्वेच्छा तथा जन्म के आधार से हिन्दू धर्म को अपनाने का प्रावधान ही हिन्दू धर्म की विशिष्ट शक्ति है। जिस धर्म में इतनी वैचारिक स्वतन्त्रता हो उस में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं पनप सकती और जिस धर्म में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं होती उस धर्म के अनुयायी किसी अन्य व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये उसे प्रलोभनों से प्रोत्साहित भी नहीं करते। ना ही वह किसी का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये हिंसा का सहारा लेते हैं। उन में आतंकवादी विचारधारा भी नहीं होती।

सर्व संरक्षण का धर्म

स्थानीय परियावकण का संरक्षण करते हुये, स्थानीय परम्पराओं का पालन करते हुये प्राकृतिक जीवन जीना तथा दूसरों को जीने देना ही हिन्दू धर्म है। हिन्दू पुस्तकालय में सभी विषयों पर मौलिक ग्रंथ उप्लब्द्ध हैं किन्तु हिन्दू बने रहने के लिये किसी विशेष ग्रंथ या सभी ग्रंथों का ज्ञान होना अनिवार्य नहीं है। हिन्दू धर्म की वैचारिक व्याख्या इस अपभ्रंश दोहे में पूर्णत्या समायी पुई हैः-

             पोथी पढ के जग मुआ पंडित भयो ना कोय

             ढाई आखर प्रेम के पढे सो पंडित होय।।

स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म ने सृष्टि के सभी प्राणियों को अपने आंचल में स्थान दिया है। समस्त मानव जो स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं। जो भी प्राक्रतिक जीवन व्यतीत करते हों, स्थानीय प्राकृतिक साधनों का संरक्षण करते हों, जियो और जीने दो कि सिद्धान्त पर कृत संकल्प हों वह नाम से चाहे अपने आप को कुछ भी कहें, वह वास्तव में हिन्दू ही हैं। केवल ग्रंथों को पढने से कोई हिन्दू नहीं बनता।

चाँद शर्मा

 

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