हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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सुधारक, निन्दक या सहायक


 

सोशल मीडिया में प्रखर ज्ञानियों के कुछ कमेन्ट्स पढ कर केवल औपचारिकता के नाते केवल अपने विचार लिख रहा हूँ। यह किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं मेरे निजि विचार हैं अगर किसी को तर्क-संगत ना लगे, तो ना आगे पढें और ना मानें। मेरे पास केवल ऐक साधारण व्यक्ति का दिमाग़ है, पहिरावा और साधन हैं और मैं जो कुछ साधारण बुद्धि से समझता हूँ वही दूसरों के साथ कई बार बाँट लेता हूँ। किसी दूसरे को सुधारने या बिगाडने का मेरा कोई लक्ष्य नहीं है।

सामान्य भौतिक ज्ञान

भौतिक शास्त्र के सामान्य ज्ञान के अनुसार सृष्टि की रचना अणुओं से हुई है जो शक्ति से परिपूर्ण हैं और सदा ही स्वाचालति रहते हैं। वह निरन्तर एक दूसरे से संघर्ष करते रहते हैं। आपस में जुड़ते हैं, और फिर कई बार बिखरते-जुड़ते रहते हैं। जुड़ने–बिखरने की परिक्रिया से वही अणु-कण भिन्न भिन्न रूप धारण कर के प्रगट होते हैं तथा पुनः विलीन होते रहते हैं। जिस प्रकार प्रिज़म के भीतर रखे काँच के रंगीन टुकड़े प्रिज़म के घुमाने से नये नये आकार बनाते हैं, उसी प्रकार प्रत्येक बार अणुओं के बिखरने और जुड़ने से सृष्टि में भी सृजन–विसर्जन का क्रम चलता रहता है। पर्वत झीलें, महासागर, पशु-पक्षी, तथा मानव उन्हीं अणुकणों के भिन्न-भिन्न रूप हैं। सृष्टि में जीवन इसी प्रकार अनादि काल से चल रहा है।

जीवत प्राणी

हर जीवित प्राणी में भोजन पाने की, फलने फूलने की, गतिशील रहने की, अपने जैसे को जन्म देने की तथा संवेदनशील रहने की क्षमता होती है। सभी जीवत प्राणी जैसे कि पैड़-पौधे, पशु-पक्षी भोजन लेते हैं, उन के पत्ते झड़ते हैं, वह फल देते हैं, मरते हैं और पुनः जीवन भी पाते हैं। पशु-पक्षियों, जलचरों तथा मानवों का जीवन भी वातावरण पर आधारित है। यह प्रतिकूल वातावरण से अनुकूल वातावरण में अपने आप स्थानान्तरण कर सकते हैं। अपने–आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानव ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो ना केवल अपने आप को वातावरण के अनुरूप ढाल सकता है अपितु वातावरण को भी परिवर्तित करने की क्षमता प्राप्त कर चुका है। कई प्रकार के वैज्ञियानिक आविष्कारों दुआरा मानव वातावरण को नियन्त्रित कर चुका है।

जीवन-आत्मा

जीवन आत्मा के बल पर चलता है। आत्मा ही हर प्राणी की देह का संचालन करती है। जिस प्रकार बिजली कई प्रकार के उपकरणों को ऊरजा प्रदान कर के उपकरणों की बनावट के अनुसार विभिन्न प्रकार की क्रियायें करवाती है उसी प्रकार आत्मा हर प्राणी की शारीरिक क्षमता के अनुसार भिन्न भिन्न क्रियायें करवाती है। जिस प्रकार बिजली एयर कण्डिशनर में वातावरण को ठंडा करती है, माइक्रोवेव को गर्म करती है, कैमरे से चित्र खेंचती है, टेप-रिकार्डर से ध्वनि अंकलन करती है, बल्ब से रोशनी करती है तथा करंट से हत्या भी कर सकती है – उसी प्रकार आत्मा भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। बिजली काट देने के पशचात जैसे सभी उपकरण  अपनी-अपनी चमक-दमक रहने का बावजूद निष्क्रिय हो जाते हैं उसी प्रकार शरीर से आत्मा निकल जाने पर शरीर निष्प्राण हो जाता है।

ऐकता और भिन्नता

हम कई उपकरणों को एक साथ एक ही स्त्रोत से बिजली प्रदान कर सकते हैं और सभी उपकरण अलग अलग तरह की क्रियायें करते हैं। उसी प्रकार सभी प्राणियों में आत्मा का स्त्रोत्र भी ऐक है और सभी आत्मायें भी ऐक जैसी ही है, परन्तु वह भिन्न-भिन्न शरीरों से भिन्न-भिन्न क्रियायें करवाती है। आत्मा शेर के शरीर में हिंसा करवाती है और गाय के शरीर में दूध देती है, पक्षी के शरीर में उड़ती है तथा साँप के शरीर में रेंगती है। इसी प्रकार मानव शरीर में स्थित आत्मा केंचुऐ के शरीर की आत्मा से अधिक प्रभावशाली है। आत्मा के शरीर छोड़ जाने पर सभी प्रकार के शरीर मृत हो जाते हैं और सड़ने गलने लगते हैं। आत्मिक विचार से सभी प्राणी समान हैं किन्तु शरीरिक विचार से उन में भिन्नता है।

कण-कण में ईश्वर

इन समानताओं के आधार पर निस्सन्देह सभी प्राणियों का सृजनकर्ता कोई एक ही है क्योंकि सभी प्राणियों में ऐक ही सृजनकर्ता की छवि का प्रत्यक्ष आभास होता है। थोड़ी बहुत विभिन्नता तो केवल शरीरों में ही है। सभी प्राणियों में ऐक ही सर्जन कर्ता की छवि निहारना तथा सभी प्रणियों को समान समझना ऐक वैज्ञिानिक तथ्य है अन्धविशवास नहीं और यह सिद्धान्त वेदों के प्रकट होने से भी पूर्व आदि-वासियों को पता था जो प्राकृति के अंगों में भी, ईश्वर को कण-कण में अनुभव करते थे और इन में मानवों से लेकर चूहे तक सभी शामिल हैं। स्नातन धर्म की शुरुआत यहीं से हुयी है।

ईश्वर की मानवी परिभाषा

ईश्वरीय शक्तियों को मानवी परिभाषा में सीमित नहीं किया जा सकता। उन के बारे में अभी विज्ञान भी बहुत कुछ नहीं जानता। जिस दिन विज्ञान या कोई महाऋषि जिन में स्वामी दयानन्द भी शामिल हैं ईश्वर को अपनी परिभाषा में बान्ध सके गे उसी दिन ईश्वर सीमित हो कर ईश्वर नहीं रहै गा। ईश्वर की शक्तियों के कुछ अंशों को ही जाना जा सकता है जैसे अन्धे आदमियों ने हाथी को पहचाना था। ईशवर अनादी तथा अनन्त है और वैसे ही रहै गा। यही सब से बडा सत्य है।

समुद्र के जल में आथाह शक्ति होती है। बड़े से बड़े जहाज़ों को डुबो सकता है। लेकिन अगर उस जल को किसी लोटे में भर दिया जाये तो उस जल में भी समुद्री जल के सभी गुण विधमान होंते हैं लेकिन लोटे में रखा जल में जहाज़ को डुबोने की शक्ति नहीं हो गी । अगर उस जल को वापिस समुद्र में डाल दिया जाये तो फिर से जहाज़ों को डुबोने की शक्ति उस जल को भी प्राप्त हो जाये गी। यह बात भी पूर्णत्या वैज्ञानिक सत्य है।

मूर्ति की आवश्यक्ता

जैसे समुद्र के जल की सभी समुद्रिक विशेषतायें लोटे के जल में भी होती हैं उसी तरह चूहे में भी ईश्वरीय विशेषतायें होना स्वाभाविक है। लेकिन वह परिपूर्ण नहीं है और वह ईश्वर का रूप नहीं ले सकता। आप निराकार वायु और आकाश को देख नहीं सकते लेकिन अगर उन में पृथ्वी तत्व का अंश ‘रंग’ मिला दिया जाये तो वह साकार रूप से प्रगट हो सकते हैं । यह साधारण भौतिक ज्ञान है जिसे समझा और समझाया जा सकता है। आम की या ईश्वर की विशेषतायें बता का बच्चे और मुझ जैसे अज्ञानी को समझाया नहीं जा सकता लेकिन अगर उसे मिट्टी का खिलोना या माडल बना की दिखा दिया जाये तो किसी को भी मूल-पाठ सिखा कर महा-ज्ञानी बनाया जा सकता है। इस लिये मैं मूर्ति निहारने या उस की पूजा करने में भी कोई बुराई नहीं समझता। मूर्तियों का विरोध करना ही जिहादी मानसिक्ता है।

तर्क और आस्था

जहां तर्क समाप्त होता है वहीं से आस्था का जन्म होता है। जहां आस्था में तर्क आ जाये वहीं पर आस्था समाप्त हो जाती है और विज्ञान शुरु हो जाता है। दोनो गोलाकार के दो सिरे हैं। हम जीवन में 99 प्रतिशत काम आस्थाओं के आधार पर ही करते हैं और केवल 1 प्रतिशत तर्क पर करते हैं। माता-पिता की पहचान भी आस्था पर होती है। कोई भी व्यक्ति अपना DNA टेस्ट करवा कर माता पिता की पहचान सिद्ध नहीं करवाता। सूर्य की पेन्टिगं पर ‘ओइम’ लिख कर उसे अपना झण्डा बना लेना आर्य समाज की आस्था है, जो किसी वैज्ञानिक तर्क पर आधारित नहीं है, ऐक तरह का असत्य, और मूर्ति पूजा ही है।  लेकिन अपनी आस्था का आदर तर्कशास्त्री आर्य समाजी भी करते हैं।

हिन्दू-ऐकता

आर्य-समाजी संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का ऐक मुद्दा बना कर हिन्दू-ऐकता को कमजोर किया है। आज स्नातनी-मन्दिर और आर्य-समाजी मन्दिर अलग अलग बने दिखाई देते हैं। मेरा निजि मानना है कि वैदिक धर्म और सनातन धर्म ऐक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वैदिक धर्म वैज्ञानिक बातों को शुष्क तरीके से ज्ञानियों के लिये समझाता है तो सनातन धर्म उन्हीं बातों को आस्थाओं में बदल कर दैनिक जीवन की सरल दिनचर्या बना देता हैं। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं। आम के चित्र से बच्चे को आम की पहचान करवाना अधर्म या मूर्खता नहीं इसी तरह किसी चित्र से भगवान के स्वरूप को समझने में भी कोई बुराई नहीं वह केवल ट्रेनिंग ऐड है। बिना चित्रों के तो विज्ञान की पुस्तक भी बोरिंग होती है। आप अपने घर में अतिथियों को अपनेविवाह और जन्म दिन की ऐलबम दिखाते हो तो क्या वह सभी ‘असत्य ’ होता है?

भगवान राम ने भी रामेश्वरम पर शिवलिंग स्थापित कर के मूर्ति पूजा करी थी। तो क्या भगवान राम आर्य नहीं थे? कोई भी स्नातनी हिन्दू आर्य-समाजियों को मूर्ति पूजा के लिये बाध्य नहीं करता। लेकिन जिस तरह घरों में आर्य-समाजी अपने माता-पिता की तसवीरें लगाते हैं स्वामी दयानन्द सरसवती के चित्र लगाते हैं उसी तरह शिव, राम, और कृष्ण के चित्र भी लगा दें तो सारा हिन्दू समाज ऐक हो जाये गा। सभी स्नातनी हिन्दू आर्य हैं और वेदों, उपनिष्दों, रामायण, महाभारत, दर्शन शास्त्रों और पुराणों को लिखने वाले सभी ऋषि आर्य थे। आर्य-समाजी नहीं थे। आर्य-समाज तो ऐक संगठन का नाम है।

आर्य समाजी सुधारक

हर आर्य-समाजी अपने आप को स्नातन धर्म का ‘सुधारक’ समझता है चाहे उस ने वेदों की पुस्तक की शक्ल भी ना देखी हो। आधे से ज्यादा आर्य समाजियों ने तो ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ भी नहीं पढा होगा। जरूरत है आर्य समाजी अपनी तालिबानी मानसिक्ता पर दोबारा विचार करेँ। आर्य समाजी कहते हैं ‘जर्मन और अंग्रेज़ों ने हमारे वेद पढ कर सारी प्रगति करी है। वैज्ञानिक अविष्कार किये हैं।’ चलो – यह बात तो ठीक है। उन्हों ने हमारे ग्रंथ पढ कर और रिसर्च करी, मेहनत करी और अविष्कार किये। अब आर्य समाजी यह बताये कि उन्हों ने अपने ग्रंथ पढ कर कौन-कौन से अविष्कार किये हैं। स्वामी दयानन्द ने उन्हें वेदों का महत्व बता दिया फिर आर्य समाजी किसी ऐक अविष्कार का नाम तो बताये। अगर नहीं करे तो क्यों नहीं करे?  क्या उस के लिये भी जर्मन, अंग्रेज़ या स्नातनी हिन्दू कसूरवार हैं? दूसरों को कोसते रहने से क्या मिला? आर्य समाजी कभी स्नातनी हिन्दूओं को कभी जैनियों – बौधों और सिखों का विरोध कर के हिन्दू ऐकता को  खण्डित करने के इलावा और क्या करते रहै हैं? दूसरों की ग़लतियां निकालने के इलावा इन्हों ने और क्या किया है – वह बताने का प्रयास क्यों नहीं करते?

हम ने अकसर आर्य समाजियों को स्नातनी विदूवानों को पाखणडी या मिथ्याचारी कहते ही सुना है। आर्य समाजियों के लिये अब चुनौती है कि दूसरों की निन्दा करते रहने के बजाये अब वह अपने वैदिक ज्ञान का पूरा लाभ उठाये और ‘मेक इन इण्डिया’ की अग्रिम पंकित में अपना स्थान बनाये। आस्था का दूसरा नाम दृढ़ निश्चय होता है। आप किसी भी मूर्ति, वस्तु, स्थान, व्यक्ति, गुरु के साथ आस्था जोड कर मेहनत करने लग जाईये सफलता मिले गी। वैज्ञानिक की आस्था अपने आत्म विशवास और सिखाये गये तथ्यों पर होती है। वह प्रयत्न करता रहता है और अन्त में अविष्कार कर दिखाता है।

जिहादी मानसिक्ता

किसी हिन्दू को अपने आप को आर्य कहने के लिये आर्य समाज से प्रमाणपत्र की जरूरत नहीं। सभी हिन्दू आर्य हैं और सभी आर्य हिन्दू हैं। फिर आर्य समाज ने दोनो के बीच में अन्तर क्यों डाल रखा है।  स्नातन धर्म ने तो स्वामी दयानन्द को महर्षि कह कर ही सम्बोधित किया है। लेकिन यह समझ लेना कि स्वामी दयानन्द सर्वज्ञ थे और उन में कोई त्रुटि नहीं थी उसी इस्लामी मानसिक्ता की तरह है जैसे मुहम्मद के बाद कोई अन्य पैग़म्बर नहीं हो सकता।

अधाकांश आर्य समाजियों के मूहँ से वेदिक ज्ञान कम और दूसरों के प्रति आलोचनायें, निन्दा, गालियां ही अधिक निकलती हैं जैसे सत्य समझने – समझाने का लाईसेंस केवल उन्हीं के पास है। सत्य की खोज के बहाने सभी जगह वह यही खोजने में लगे रहते हैं हर धर्म घटक में गन्दगी कहाँ पर है। इसे सत्य की खोज तो बिलकुल ही नहीं कहा जा सकता।

चुनौती

कुछ करना है तो आर्य समाजियों को युवाओं में नैतिकता का पाठ पढाने की चुनौती स्वीकार करनी चाहिये। लव-जिहाद, लिव-इन-रिलेशस, वेलेन्टाईन-डे, न्यू-इयर-डे, आतंकवादियों आदि की विकृतियों को भारत में फैलने से रोकने के लिये क्या करना चाहिये, उस पर विचार कर के किसी नीति को सफलता से अपनाये और सक्षम कर के दिखायें।

बच्चों और युवाओं को वेद-ज्ञान, संस्कृत भाषा का आसान तरीके से ज्ञान का पाठ्य क्रम तैय्यार कर के ऐसा साहित्य तैय्यार करें ताकि वह ‘जेक ऐण्ड जिल’ को भूल कर भारतीयता अपनायें और साथ ही साथ ज्ञान भी हासिल करें। ज्ञान का अर्थ कुछ मंत्र रटा कर तोते की तरह बुलवाना नहीं होता, बल्कि ज्ञान को इस्तेमाल कर के वह अपनी जीविका इज्जत के साथ कमा सकें। युवाओं को व्यकतित्व विकास की शिक्षा आधुनिक तकनीक के साथ लेकिन भारतीय वैदिक संस्कृति के अनुरूप किस प्रकार दी जाये इस को क्रियात्मिक रूप देना चाहिये। व्यकतित्व ऐसा होना चाहिये जो दुनियां के किसी भी वातावरण में आत्म विश्वास और दक्षता के साथ आधुनिक उपकरणों के साथ काम कर सके। ऐसा व्यकतित्व नहीं बने कि वह केवल दूर-दराज गाँव में छिप कर, या दोचार भजन गा कर ही अपनी जीविका कमाने लायक ही बन पायें।

किसी प्रकार का साफ्टवेयर या हार्डवेयर अपनी वैदिक योग्यता से सम्पूर्ण स्वदेश बनायें ताकि हमें बाहर से यह सामान ना मंगवाना पडे। हमारे पास इंजीनियर, तकनीशियन, प्रयोग-शालायें, अर्थ-शास्त्री आदि सभी कुछ तो है। अब क्यों नहीं हम वह सब कुछ कर सकते जो अंग्रेज़ों और जर्मनी वालों ने आज से 200 वर्ष पूर्व  “हमारी नकल मार के” कर दिखाया था। इस प्रकार के कई सकारात्मिक काम आर्य समाजी अब कर के दिखा सकते हैं। उन्हें चाहिये कि आम लोगों को प्रत्यक्ष प्रमाण दिखायें कि हमारा यह हमारा ज्ञान विदेशियों ने चुराया था, अब हमारे पास है जिस का इस्तेमाल कर के हम विश्व में अपनी जगह बना रहै हैं। रोक सको तो रोक लो। केवल मूर्ति पूजा का विरोध कर के और अपने वेदों का खोखला ढिंढोरा पीट कर आप विश्व में अपनी बात नहीं मनवा सकते। कुछ कर के दिखाने की चुनौती आर्य बन्धुओं, वेदान्तियों और प्रचारकों को स्वीकार करनी पडे गी।

सत्यं वदः – प्रियं वदः

बहस और शास्त्रार्थ में ना कोई जीता है और ना ही कोई जीते गा। मैं भारत की प्राचीन उपलब्धियों का पूर्ण समर्थन करता हूँ लेकिन लेकिन आर्य समाजी मानसिक्ता का नहीं। सत्य को कलात्मिक तरीके से कहना ही वैज्ञानिक कला है। ऐक नेत्र हीन को सूरदास कहता है तो दूसरा अन्धा – बस यही फर्क है। “सत्यं वदः – प्रियं वदः ” का वेद-मंत्र  आर्यसमाजी भूल चुके हैं। इस लिये किसी की आस्था का अपमान कर के सत्यवादी या सुधारक नहीं बन बैठना चाहिये। यही भूल स्वामी दयानन्द ने भी कर दी थी। अब उसी काम का टेन्डर आमिर खान ने भर दिया है और प्रोफिट कमा रहा है। जो कुछ बातें आर्य समाजी करते रहै हैं वही आमिर खान ने भी करी हैं जिस का समर्थन फेसबुक पर आर्य समाजी कर के हिन्दूओं का मज़ाक उडा रहै हैं। सोच कर देखो – दोनों में कोई फर्क नहीं।

मेरा लक्ष्य केवल अपने विचार को दूसरों के साथ शेयर करना है किसी को मजबूर करना या उन का सुधारक बनना नहीं है। मुझे भी अब आगे बहस नहीं करनी है। जो सहमत हों वही अपनी इच्छा करे तो मानें। वेदिक विचार और सनातनधर्म की आस्था दोनों ऐक ही सिक्के के पहलू हैं और दोनों बराबर हैं। किसी को भी अपने मूहँ मियां मिठ्ठू बन कर दूसरे का सुधारक बनने की जरूरत नहीं।

चाँद शर्मा

निर्धारित स्थान कम होने के कारण श्री वेदानुरागी जी की टिप्पणियों का उत्तर यहां दिया जा रहा हैः –

 

आप की टिप्पणियों के बारे में मैं केवल अपने विचारों को स्पष्ट कर रहा हूँ उन को मानना या ना मानना आप की मरज़ी है। आर्य-समाजी अपने वेदिक ज्ञान की चोरीका दोष दूसरों के सिर मढ़ते रहने के बजाये खुद कोई चमत्कारी अविष्कार कर के दिखायें तभी देश और वेदों का गौरव वास्तव में बढे गा।

भगवान की सारी परिभाषायें मानवों ने ही बनाई हैं। भगवान उन परिभाषाओं से परे भी हो सकते हैं जो आजतक बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों और ऋषियों ने बनाई हैं। ईश्वर को देखने और दिखाने का दावा करने वाले सभी प्रवक्ता उन अन्धे आदमियों की तरह हैं जिन्हों ने हाथी को टटोल कर प्रमाणित कर दिया था। इस लिये यह कहना कि ईश्वर यह कर सकता है, वह नहीं कर सकता आदि बेकार की बातें हैं।

इस देश में हजारों ऋषि-मुनि हुये हैं जो स्वामी दयानन्द सरस्वती से भी अधिक विद्वान थे। उन सभी के ज्ञान को केवल सत्यार्थ-प्रकाश पढ कर पाखण्ड’, ‘असत्य, याअनर्गलबातें कहना, अपने आप को सभी का सुधारक बोल कर अपने मूहँ मियां मिठ्ठू बने रहना तालिबानी मानस्क्ता नहीं तो और क्या है? स्वामी दयानन्द ने अपने विचारों का ऐक थिसिस सत्यार्थ-प्रकाश लिखा है वह उन के व्यक्तिगत विचार थे। कोई भी स्नातक कुछ गिने-चुने विषयों में पारंगत हो सकता है, विश्वविधालय की सभी फैक्लटियों में पारंगत नहीं माना जाता। स्नातन धर्म के किसी भी प्राचीन ऋषि, या महऋषि ने सर्वज्ञ होने का दावा कभी नहीं किया।

आदि-मानव समस्त प्राकृतिक आपदाओं तथा उपलब्धियों का कारण अदृष्य शक्तियों को मानते थे। धीरे-धीरे आर्य समाज की स्थापना से सैंकडों वर्ष पूर्व स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपने बौधिक ज्ञान की शक्ति से अदृष्य शक्तियों  को पहचाना तथा उन्हें प्राकृति के साथ जोड़ कर उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दे दी। ऋषि मुनियों ने अपनी कलपना को विज्ञान की कसौटी पर परखा और परमाणित भी किया है। उन के संकलित परिणाम वेद, पुराण, उपनिष्द तथा दर्शनशास्त्रों के रुप में संकलित किये गये हैं जिन्हें वेदिक-धर्म कहा जाता रहा है।

आर्यशब्द का प्रयोग श्रेष्ठ तथा सभ्यव्यक्ति के लिये किया जाता है भारत में बाहर से आने वालों को उन की सभ्यता और रहन सहन के अनुसार यवन, मलेच्छ, विधर्मी, दस्यु या अनार्य कह कर पहचाना जाता था।आर्य-समाजऐक संस्था का नाम है इसी संस्था के लोगों को आजकल आर्य-समाजीकहा जाता है। वास्तव में सभी स्नातन धर्मी आर्यहैं और सभी आर्यहिन्दू हैं। इस ऐकता को समझना चाहिये। उसी तरह आर्य-समाजियों के अपने आप को हिन्दू कहने में शर्माना नहीं चाहिये।

आदि काल से ही हिन्दू धर्म ईश्वर को निराकार तथा सर्वव्यापी मानता आया है किन्तु हिन्दू ईश्वर का आभास सृष्टि की सभी कृतियों में भी निहारते हैं। हिन्दू धर्म ने कुछ सार्थक चिन्हों, मूर्तियों तथा चित्रों को भी महत्व दे कर अपनाया है। भले ही चित्र यथार्थ में वस्तु नहीं है लेकिन चित्र बालक को वस्तु का यथार्थ रूप पहचानने और उस के गुण-दोषों को समझने में पूर्णत्या सहायक होते हैं।

जब आप कोई फिल्म देखते हैं तो फिल्म की कहानी, पात्र, दृष्य और सम्वाद सभी कुछ ‘असत्य’ है लेकिन फिर भी फिल्म के वातावरण के साथ अपनी भावनाओं को जोड कर दर्शक हँसते, रोते और भावुक हो जाते हैं। उसी तरह मन्दिर या किसी धर्म-स्थल के वातावरण में भक्त अपनी भावनाओं को जोड कर भगवान के प्रति समर्पित हो जाते हैं।

आराधक की भावनायें जब मूर्ति के साथ जुड़ जाती हैं तभी उसी प्रतिमा के अन्दर आराधक आराध्य का आभास महसूस कर सकता है। किसी भी विषय से सम्बन्धित अगर कोई ट्रैनिंग-ऐड नौसिखियों के इलावा अगर किसी विकसित के लिये भी इस्तेमाल कर दी जाये तो वह कोई बहुत बडा अपराध नहीं हो सकता। अगर कोई व्यस्क भी अपनी इच्छा से मूर्ति पूजा कर लें तो उस में कोई बुराई नहीं है।

आप का कथन “ईश्वर चूहे में है लेकिन चूहा ईश्वर नहीं है”- लेकिन चूहा भी उसी ईश्वर का अंश तो हैअगर आप किसी रंग-बिरंगे शीशों-जडित कमरे में खडे होकर अपना प्रतिबिम्ब देखें गे तो वह हर शीशे में टुकडे के रंग के अनुसार ही दिखाई दे गा। इस का अर्थ यह नहीं कि आप को ‘बांट’ दिया गया है। उसी तरह सृष्टिकर्ता भगवान का प्रतिबिम्ब भी हर क़ृति में है, जिस में चूहा भी शामिल है। भगवान की छवि चूहे या किसी भी छोटे-बडे जीव में निहार लेना भगवान को टुकडों में बांटना नहीं होता। उस के लिये फतवा जारी कर देना कि मूर्ति को ईश्वर मान कर उसकी पूजा करना आध्यात्मिक अपराध है केवल तालिबानी मानसिक्ता के सिवा और कुछ नहीं।

जिस तरह वायु सभी जगह मौजूद है परन्तु अदृष्य है, रंग या धूयें के माध्यम से प्रगट हो कर दिखाई दे देती है, उसी तरह ईश्वर भी सभी जगह मौजूद है मगर दिखाई नहीं देते। वह किसी भी स्थान पर किसी अन्य माध्यम से प्रगट होने का आभास दे सकते हैं। मैं ने चूहे की मूर्ति पूजा करने को नहीं कहा था लेकिन चूहे के कारण सभी मूर्तियों में भगवान का ना होने का फतवा देना भी ज्ञानयुक्त नहीं था।

अगर भगवान की मूर्ति से थोडा प्रसाद चूहे ने उठा लिया था तो भगवान क्या बालक मूलशंकर की शंका को समाप्त करने के लिये वहां चूहे को प्रसाद चुराने के अपराध में भस्म कर देते? अगर आप ही का अबोध ग्रैंडसन आप के खाने की प्लेट में से बिना पूछे कुछ उठा कर खा ले तो क्या आप उसे दण्ड दें गे?

अगर कोई अपनी आस्था किसी वस्तु में रखता है तो आप का क्या जाता है। आप उस पर बेकार नुक्ताचीनी मत करो। मूर्ति पूजा विरोधी तालिबानी ऐजेण्डा मत अपनाओ। हिन्दू समाज में राजनैतिक ऐकता लाने के लिये सब घटकों के साथ चलो। इस प्रकार का कथन कि “हम तो सभी के सुधारक हैं ” उद्दण्ड मानसिक्ता का प्रतीक है ।

आप ने लिखा है कि “आर्य समाज के विद्वान शोध कर नए साधन बनायेंगे लेकिन पहले उनके समुचित वेतन की व्यवस्था कर…अरब रुपया खर्च कर के एक शोध केंद्र बना कर दीजिये…गुरुकुल आर्य समाज के सब से ज्यादा हैं। ” अगर आप योरुप के वैज्ञानकों की जीवनियां पढें तो आप को पता चले गा कि उन में से किसी के पास सरकारी साधन नहीं थे। उन्हों ने पहले अपने सीमित साधनों के बल पर ही अपने प्रयासों को शुरु किया था। आविष्कार करने के लिये पहले उद्देश की कल्पना करनी पडती है फिर उस का चित्र बनता है। चित्र के अनुसार अविष्कार की मूर्ति (माडल) तैय्यार की जाती है। फिर माडल को साकार करने के लिये सीमित साधन, लग्न, आस्था, सकारात्मिक सोच और हिम्मत की जरूरत पडती है। शुष्क विज्ञान की जरूरत इस के बाद पडती है।

राईट बन्धु उडने की कल्पना कर के अपने जिस्म पर पक्षियों की तरह पंख लगा कर छत से कूद पडे थे। हिम्मत के सहारे काम करते रहै और ऐक दिन हवाई जहाज बन गया। योरुप के वैज्ञानिक हमारा वेदिक ज्ञान चुरा कर अविष्कार के बाद अविष्कार करते चले गये और हमारे स्वदेशी आर्य समाजी केवल मूर्ति विरोध को अपना ऐजेंडा बना कर आज भी वहीं खडे हैं।

जार्ज स्टीफ्नसन ने जब देगची के उबलते पानी में जब भाप की शक्ति को देखा तो पहले उस को प्रयोग में लाने के लिये कल्पना के सहारे चित्र बनाये जो आर्य-समाजी सोच के अनुसारअसत्यथे। ऐक बालक ने देगची के उबलते पानी में जब भाप की शक्ति को देखा तो उस ने अपनी इमेजिनेश्न, आस्था, सकारात्मिक वैज्ञानिक सोच और लग्न के सहारे स्टीम इंजन बना कर दिखा दिया।

चित्र का बनाना इस्लाम में भी अपराध है इस लिये आज तक किसी मुस्लिम ने भी कोई अविष्कार नहीं किया। शुष्क वेदिक ज्ञान होते हुये भी हमारे पास कल्पना की उडान, सक्रात्मिक सोच और हिम्मत नहीं थी इसी लिये आर्य-समाजी भी कोई अविष्कार नहीं कर सकते और केवल मूर्तियों के माडलों के बहिष्कार पर ही फतवा जारी करते रहै हैं।

आप का तर्क है कि “आपके पुराणों में लिखा है की गणेश जी का सर शिव जी ने हाथी के बच्चे का सर काट कर लगा दिया था तो आप क्या ऐसा कर के दिखा सकते हैं ? यदि नहीं तो कम से कम इस झूठी कहानी को तो नकार दीजिये” पुराणों में भी शुष्क वेदिक ज्ञान को कलात्मिक ढंग से समझाया गया है।

‘कनसेपेप्ट’ हमेशा काल्पनिक, और कई बार फूहड तथा हास्यस्पद भी होती है लेकिन जब लग्न और ‘टैक्नोलोजी’ के सहारे वह साकार हो उठती है तो उसे ही अविष्कार कहा जाता है। ‘कनसेपेप्ट’ दीर्घायु होती है मगर ‘टैक्नोलोजी’ तेज़ी से बदलती रहती है। पुराणों की कल्पना को आज के विज्ञान ने साकार कर के दिखा दिया है। अगर स्वामी जी के नीरस दिमाग़ में थोडी कलात्मिक कल्पना शक्ति भी होती तो उन्हों ने पुराणिक ज्ञान की निन्दा नहीं करनी थी। स्नातन धर्म हिन्दू विचारधारा का कलात्मिक पक्ष है जब कि वेदिक धर्म वैज्ञानिक पक्ष है – दोनो ऐक दूसरे के पूरक हैं। ऐक दूसरे के बिना अधूरे हैं।

पुराण विश्व साहित्य के प्रचीनत्म ग्रँथ हैं। वेदों की भाषा तथा शैली कठिन है। पुराण उसी ज्ञान के सहज तथा रोचक संस्करण हैं। उन में जटिल तथ्यों को कथाओं के माध्यम से समझाया गया है। पुराणों का विषय नैतिकता, विचार, भूगोल, खगोल, राजनीति, संस्कृति, सामाजिक परम्परायें, विज्ञान तथा अन्य विषय हैं। प्राचीन काल में इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। इतिहास लिखने का कोई रिवाज नहीं था पौराणिक कथायें इतिहास, साहित्य तथा दंत कथाओं का मिश्रण हैं। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

जिन संत कवियों के अंशो का सहारा आप ने लिया है वह ना तो वेदिक साहित्य के ज्ञाता थे और ना ही संस्क़त भाषा के सनात्क थे। जो कुछ उन के निजि विचार थे वह उन्हों ने अपभ्रंश भाषाओं में लिख डाले हैं। सांस्कृतिक, वैज्ञानिक तथा कलात्मिक उन्नति के लिये उन्हें कीर्तिमान नहीं माना जा सकता। अगर में कहूँ कि ऐक कवि ने यह भी लिखा है “ तेरी सूरत में रब दिखता है यारा मैं क्या करूं? ” तो केवल इसी आधार पर आप मूर्ति पूजा करने लग जायें गे?

 

अय्याश मुस्लिम शाहजादों और शासकों के मनोरंजन के लिये श्री कृष्ण के बारें में कई मन घडन्त ‘छेड-छाड’ की अशलील कहानियाँ, चित्रों और गीतों का प्रसार भी हुआ था। लेकिन कृष्ण का महत्व कपडे और माखन चुराने या 16 हज़ार रानियां रखने के कारण नहीं है – गीता के ज्ञान के कारण है। दुर्भाग्य यह है कि आर्य-समाजी तो गीता और मनुस्मृति के भी विरोघी हैं।

 

रीति-रिवाज सामाजिक होते हैं, उन्हें समयानुसार बदला जा सकता है। शिक्षण संस्थानों के ध्वस्त हो जाने से हिन्दू अशिक्षित हो गये। कई कुरीतियों ने जन्म लिया था। हिन्दू दैनिक जीवन-यापन के लिये मुस्लमानों की तुलना में असमर्थ होने लगे थे। अपनी तथा परिवार की जीविका चलाने के लिये कई बुद्धि जीवियों ने साधारण पुरोहित बन कर कर्म-काँड का आश्रय लिया जिस के कारण हिन्दू समाज में दिखावटी रीति रिवाजों और पाखण्डों का चलन पड गया। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने विवाह नहीं किया था इस लिये वह गृहस्थाश्रम की जिम्मेवारियों को नहीं समझते थे वरना रीति रीवाजो के लिये ब्राहमणों को दोषी ना बोलते। निर्वाह के लिये उन्हें समर्थ हिन्दूओं से दक्षिणा के बजाय दान और दया पर आश्रित होना पडा और यजमानों को रीति रीवाजों की आवश्यक्ता जताने के लिये ग्रन्थों में बेतुकी और मन घडन्त कथाओं को भी जोड दिया।

 

भारत में सती प्रथा बाहर से आयी है। उस का समर्थन हिन्दूओं ने कभी नहीं किया। यदि आप इस तथ्य को प्रमाणों के साथ जानना चाहें तो इस लिंक पर पढ सकते हैं जो विषय को संक्षिप्त रखने के लिये मैं यहां पर दोबारा नहीं लिख रहा हूँ।

 

आर्य-समाजी संगठन ने मूर्ति पूजा को तालिबानी तरीके का ऐक मुद्दा बना कर हिन्दू-ऐकता को कमजोर किया है। आज स्नातनी-मन्दिर और आर्य-समाजी मन्दिर अलग अलग बने दिखाई देते हैं। वैदिक धर्म वैज्ञानिक बातों को शुष्क तरीके से ज्ञानियों के लिये समझाता है तो सनातन धर्म उन्हीं बातों को आस्थाओं में बदल कर दैनिक जीवन की सरल दिनचर्या बना देता हैं। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं।

हिन्दू समाज में महिलाओं के विशिष्ठ स्थान का अनुमान इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि प्रत्येक हिन्दू देवता के साथ उस की पत्नी का नाम, चित्र, तथा प्रतिमा का भी वही महत्व  होता है जो देवता के लिये नियुक्त है। पत्नियों को देवी कह कर सम्बोधित किया जाता है। हिन्दूओं का धर्मान्तरण कराने के लिये अकसर कहा जाता है कि सती प्रथा की आड में हिन्दू विधवाओं को जीवित जला दिया जाता था तथा हिन्दू जन्म के समय ही कन्याओं का वध कर देते थे। दुष्प्रचार के प्रभाव तथा निजि अज्ञानता के कारण हिन्दू अपने आप को हीन समझ कर आज भी उन की हाँ में हाँ मिलाने लगते हैं और अपने धर्म के प्रति शर्मिन्दा हो जाते हैं। वह नहीं जानते कि वास्तव में इन बातों का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं। तथ्य इस के विपरीत है। प्रमाण जानने के लिये कृप्या यह लिंक देख लें। http://wp.me/p2jmur-5J .

29 – राष्ट्रीय नायकों के पर्व


पाश्चात्य सभ्यता में रंगे लोग आजकल केक काट कर और तालियाँ बजवा कर अपना जन्मदिन स्वयं ही मना लेते हैं – लेकिन यह उस तरह है जैसे कोई अपना चुटकला सुना कर अपने आप ही हँस ले और दूसरे उस का मूहँ देखते रहैं। अपने जन्मदिन पर खुशी दूसरे दिखायें तो वह बात और होती है। वास्तव में जन्म दिन तथा विवाह की वर्षगाँठ मनाने की प्रथा भारतीयों ने योरूप वासियों से नहीं सीखी। भारत में ही महापुरुषों के जन्म मना कर अन्य लोगो को महा पुरुषों की तरह पुण्य कर्म करने के लिये प्रोत्साहित करने का प्रथा रही है। प्रेरणा नायकों की संख्या अधिक होने के कारण कुछ मुख्य महानायकों से जुडे पर्वों का संक्षिप्त वर्णन ही यहाँ दिया गया है जो समस्त भारत में मनाये जाते हैं और भारत की साँस्कृतिक विविधता में ऐकता के बोधक हैं। 

महाशिवरात्री – महा-शिवरात्री त्रिदेव भगवान शिव का पर्व है। यह पर्व फाल्गुन मास (फरवरी-मार्च) के कृष्ण पक्ष में आता है। इस दिन शिव-पार्वती का विवाह सम्पन्न हुआ था। आराधक पूरा दिन उपवास करते हैं और कुछ तो जल भी नहीं ग्रहण करते। समस्त रात्री लोग शिव मन्दिरों में पूजा करते हैं। शिव लिंग को दूध, दही, शहद और गुलाब जल अथवा गंगा जल से स्नान कराया जाता है। इसी दिन से शिव के प्रतीक विषधर सर्प भी निद्रा (हाईबरनेशन) से जाग कर खुले वातावरण में निकलने लगते हैं। 

महावीरजयन्ती – भगवान महावीर के जन्म के उपलक्ष में महावीर-जयन्ती विशेषतः गुजरात तथा राजस्थान में जैन समुदाय दूारा उल्लास के साथ मनायी जाती है। भगवान महावीर ने अहिंसा तथा सरल जीवन मार्ग से मोक्ष मार्ग का ज्ञान दिया था। इस दिन भगवान महावीर की प्रतिमाओं की शोभायात्रा निकाली जाती है।

रामनवमी राम-नवमी भगवान विष्णु के सप्तम अवतार भगवान राम का जन्म दिवस है और चैत्र मास (मार्च अप्रैल) के शुकल पक्ष की नवमी तिथि के दिन आता है। मन्दिरों को सजाया जाता है तथा लोक नायक मर्यादा पुरुषोत्तम राम की मूर्तियों को सजाया जाता है। रामायण महाकाव्य का निरन्तर उच्चारण होता रहता है। कथा वाचक रामायण की कथा को गा कर, नाटकीय ढंग से दिखा कर पर्दर्शन करते हैं। ऱाम तथा सीता की भव्य झाँकियाँ निकाली जाती हैं तथा मूर्तियों की भव्य तरीके से पूजा अर्चना की जाती है। समस्त भारत में यह त्यौहार विशेष उल्लास से मनाया जाता है। 

बैसाखीः बैसाखी विक्रमी सम्वत का प्रथम दिवस है। यही एकमात्र हिन्दू पर्व है जो रोमन केलेन्डर के साथ अकसर 13 अप्रैल को ही आता है परन्तु प्रत्येक 36 वर्ष के पश्चात 14 अप्रैल को आता है। इस दिन सूर्य मेष राशि (ऐरीस) में प्रवेश करता है जो ज़ोडिक अनुसार प्रथम राशि है। लोग बैसाखी के दिन प्रातः नदी स्नान से आरम्भ करते हैं। इसी दिन से कृषि की कटाई का काम भी आरम्भ होता है तथा किसानों को अपने परिश्रम का पुरस्कार मिलता है। इस के अतिरिक्त बैसाखी के साथ भारतीय जन जीवन की अन्य कई घटनायें जुडी हुई हैं जो संक्षिप्त में इस प्रकार हैं-

  • मुग़ल बादशाह जहाँगीर के हुक्म से सिख गुरु अर्जुन देव तथा उन के अनुयाईयों को अमानुषीय तरीके से उबलते तेल के कडाहे में फेंक कर उन पर कई तरह के असाहनीय अत्याचार किये गये थे जिस कारण बैसाखी के दिन गुरु अर्जुन देव ने लाहौर शहर के पास रावी नदी में जल स्माधि ले ली थी।
  • बैसाखी के दिन आनन्दपुर साहिब में गुरु गोबिन्द सिहं नें हिन्दू युवाओं को ‘संत-सिपाही’ की पहचान प्रदान करी थी। उन्हें मुस्लिम अत्याचार सहने के बजाय  अत्याचारों के विरुद्ध लडने के लिये भक्ति मार्ग के साथ साथ कर्मयोग का मार्ग भी अपनाने का आदेश दिया था। इसी पर्व से ‘खालसा-पंथ’ की नींव पड़ी थी।
  • इसी दिन स्वामी दया नन्द सरस्वती ने बम्बई शहर में आर्य समाज की औपचारिक स्थापना की थी। मध्य काल से हिन्दू समाज में बहुत सी कुरीतियाँ आ चुकीं थीं जिन के उनमूलन के लिये आर्य समाज संस्था ने हिन्दू समाज में सुधार कार्य किया और वैदिक संस्कृति को पुनर्स्थापित किया।

बुद्धपूर्णिमा – भगवान बुद्ध को विष्णु का नवम अवतार माना गया है। इस के उपलक्ष में वैशाख मास (अप्रैल- मई) की बुद्ध-पूर्णिमा का बहुत महत्व है क्यों कि इसी दिन भगवान बुद्ध के जीवन की तीन अति महत्वशाला घटनायें घटी थीं। बुद्ध का जन्म, उन को ज्ञान प्रकाश, तथा उन का निर्वाण (शरीर त्याग) बुद्ध-पूर्णिमा के दिन ही हुआ था। यह पर्व समस्त भारत में और विशेषतः बौध समुदाय में उल्लास के साथ मनाया जाता है। 

गुरुपूर्णिंमा – अषाढ मास की पूर्णमासी (जुलाई – अगस्त) के दिन गुरुपूर्णिमा का पर्व महाऋषि वेद व्यास की समृति में माया जाता है। उन्हों ने चारों वेदों और अठ्ठारह पुराणों का संकलन तथा महाकाव्य महाभारत की रचना की थी। हमें केवल भावनात्मिक अध्यापक दिवस (टीचर्स डे) मनाने के बजाय गुरु-पूर्णिमा को ही सरकारी तौर पर मनाना चाहिये।

रक्षाबन्धन रक्षा-बन्धन का त्यौहार मुख्यतः भाई बहन के पवित्र रिशतो का त्यौहार है। इस को समाज का संकलप-दिवस भी कह सकते हैं। यह पर्व श्रावण मास (अगस्त – सितम्बर) में मनाया जाता है। इस दिन भाई अपनी बहनों की सभी समस्याओं, आपदाओं, तथा परिस्थितियों में रक्षा करने का संकलप लेते हैं। प्रतीक स्वरुप बहने भाईयों की कलाई पर राखी बाँध कर उन्हे धर्म के बन्धन की सम़ृति दिलाती हैं कि वह अपने धर्म की भी रक्षा करें। भाई बहनों को रक्षा की प्रतिज्ञा के साथ कुछ उपहार भी देते हैं। इसी  प्रकार ब्राह्मण भी समाज के क्षत्रिय तथा वैश्य वर्णों की कलाई पर राखी बाँध कर उन से धर्म पालन तथा धर्म की रक्षा का संकलप कराते हैं। प्रति वर्ष यह त्यौहार प्रतिज्ञा दिवस के तौर पर सभी को ऐक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का पालन करने के लिये प्रोत्साहित करता है।

जन्माष्टमी जन्माष्टमी का त्यौहार भगवान कृष्ण के जन्म दिन के उपलक्ष में भाद्रपद मास (अगस्त – सितम्बर) में मनाया जाता है। मन्दिरों को सजाया जाता है। अध्यात्मिक प्रवचन होते हैं। दूर दूर से यात्री इन स्थलों पर पहुँचते हैं। आटे को गीला कर के लोग घरों में दूार से अन्दर तक फर्श पर बच्चे के पैरों के निशान छापते है जिस का अभिप्राय भगवान कृष्ण की बाल लीला की स्मृति कराना है। कृष्ण जन्म मध्य रात्रि को हुआ था अतः उस समय इस उत्सव की प्रकाष्ठा होता है।

गणेशचतुर्थी – गणेश-चतुर्थी भाद्रपद मास (अगस्त – सितम्बर) में गणेश जी के जन्मदिन के उपलक्ष में मनायी जाती है। गणपति की बडी बडी भव्य मूर्तियों को स्थापित किया जाता है। दस दिन तक नित्य उन को सजा कर पूजा अर्चना की जाता है। उस के पश्चात उन मूर्तियों की शोभा यात्रा निकली जाती है तथा उन्हें जल में विसर्जित कर दिया जाता है। पहले यह पर्व महाराष्ट्र तथा पडोसी प्रदेशो में विशेष तौर पर मानया जाता था परन्तु आज कल समस्त देश में गणेश-चतुर्थी का पर्व धूम धाम से मनाया जाता है। इस पर्व का नैतिक तथा भावनात्मिक महत्व भी है। ऐक पौराणिक कथानुसार ऐक बार चन्द्र ने चोरी छिपे गणेश जी के डील डौल का उपहास किया था तो गणेश जी ने चन्द्र को शापित कर दिया कि जो कोई तुम्हें गणेश-चतुर्थी के दिन निहारे गा वह चोरी के आरोप से लाँच्छित होगा। इस लिये इस दिन लोग चन्द्रमाँ की ओर नहीं देखते। इस का अभिप्राय है कि व्यक्ति को बुरी संगति से भी दूर रहना चाहिये।

दीपावली – इस पर्व को दीपमाला भी कहते हैं तथा इसे कार्तिक मास (अकतूबर – नवम्बर) के कृष्ण पक्ष के अन्तिम दो दिनों तक मनाया जाता है। इस पर्व के कई कारण हैं जिन में से धन सम्पति की देवी लक्ष्मी तथा भगवान विष्णु का विवाह, महाकाली दुर्गा दूारा महिषासुर का वध, तथा भगवान ऱाम की रावण पर विजय के पश्चात अयोध्या में वापसी की समृति मुख्य हैं। इसी दिन कृष्ण ने भी नरकासुर का वध किया था। युद्ध तथा युद्धाभ्यास पर प्रस्थान करने से पूर्व व्यापारी वर्ग भी सैना के साथ जाता था ताकि वह सैनिकों के लिये अवश्यक सामिग्री जुटाते रहैं। प्रत्येक वर्ष प्रस्थान करने से पूर्व व्यापारी नये लेखे खातों में खोलते थे और समृद्धि के लिये गणेष और लक्ष्मी का पूजन भी करते थे। इस अवसर पर घरों को सजाया जाता है, रत्रि को दीप माला की जाती है। पटाखे और मिठाईयों से जीवन उल्लास मय हो जाता है। दीपावली भारत में धन सम्पति की खुशियों की चरम सीमा का अवसर होता है।

गुरु नानक जयन्ती – गुरु नानक सिख समुदाय के प्रथम गुरु थे। उन की जयन्ती का समारोह कार्तिक मास (नवम्बर) की पूर्णिमा से  लगभग तीन दिन तक मनाया जाता है। निशान साहिब (ध्वज) तथा श्री गुरु ग्रंथ साहिब की पालकी में शोभा यात्रा निकाली जाती है। गुरुदूारों में श्री गुरु ग्रंथ साहिब का अखण्ड पाठ किया जाता है तथा स्मापन के समय गुरु के लंगर के माध्यम से सभी को प्रसाद के रूप में भोजन करवाया जाता है। गतका (तलवारबाजी) का प्रदर्शन किया जाता है। यह पर्व विशेषत्या पंजाब और हरियाणा में तो मनाया जाता है परन्तु विश्व भर में जहाँ जहाँ सिख साम्प्रदाय है, वहाँ भी पूरे उल्लास के साथ मनाया जाता है।

इन के अतिरिक्त जिन अन्य जन नायकों से जुडे पर्व उत्साह और उल्लास के साथ मनाये जाते हैं उन में संत रविदास, महाराज उग्रसेन, ऋषि वाल्मिकि, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी मुख्य हैं।

भारत में किसी नायक या घटना का शोक दिवस मना कर सार्वजनिक तौर पर रोने पीटने का कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता। मृतकों की बरसियाँ भी नहीं मनाई जातीं यह रिवाज कोई पिछले दो तीन सौ वर्षों से ही जुडे हैं और आजकल तो हर छोटे बडे नेता की बरसी मनाने का रिवाज सा चल पडा है। इस का धर्म या हिन्दू संस्कृति से कोई वास्ता नहीं।

त्यौहारों तथा पर्वों ने भारतीय समाज की साँस्कृतिक, आर्थिक, तथा अध्यात्मिक प्रगति में महत्वशाली योग दान दिया है। पर्व हमारी साँस्कृतिक आखण्डता के प्रतीक हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि समय और साधनों के आभाव तथा विदेशी दुष्प्रभाव के कारण कुछ पर्व अपनी मूल दिशा और दशा से विक़ृत हो गये हैं। कुछ असामाजिक तत्वों ने उन का रूप भी बिगाड दिया है। इस वजह से उन पर्वों से सम्बन्धित उल्लास और योगदान कुछ फीके पड गये हैं। हिन्दू समाज सुधारकों तथा सजग नागरिकों को चाहिये कि वह कुरीतियों को दूर करें और इन पर्वों का गौरव पुनर्स्थापित कर के उन्हे विदेशी गन्दगी के प्रभाव से स्वच्छ रखें।

देखा जाय तो ईद, मुहर्रम, ईस्टर, गुड फ्राईडे, क्रिसमिस आदि त्यौहारों का भारत की संस्कृति या घटनाओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। यह त्यौहार हमारे लिये आर्थिक उपनेषवाद का ऐक हिस्सा हैं। कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने उत्पादकों को बढावा देने के लिये कई विदेशी त्यौहारों की भारत के जन जीवन में घुस पैठ करवा रही हैं जिस से यह आभास होता है कि भारत की अपनी कोई संस्कृति ही नहीं थी। वर्ष में ऐक दिन फादर्स डे या मदर्स डे मना लेने से माता पिता की सेवा नही होती जिन्हें बाकी वर्ष वृद्धाश्रमों में छोड दिया जाता है। यही हाल टीचरों का है। वेलन्टाईन डे केवल नाचने और सार्वजनिक स्थानों पर चुम्बन-आलिंगन करने का बहाना मात्र है।  जब हमारी अपनी संस्कृति इतनी समृद्ध है तो हमें योरूप वासियों से पर्व उधार लेने की कोई आवश्यक्ता नहीं है। यह केवल हमारे मन में हीन भावना भरने तथा विदेशी कम्पनियों के सामान को बेचने का निमित मात्र है।  हमें अपनी साँस्कृतिक विरासत की रक्षा स्वयं करनी है और बाहर से त्यौहार आयात करने की जरूरत नहीं। 

भारत में क्रिसमिस पर्व के साथ साथ पहली जनवरी को नब वर्ष दिवस को भी व्यापारिक क्षेत्र की वजह से बहुत बढावा मिल रहा है क्यों कि इस के बहाने से ग्रीटिंग कार्ड, साँटा क्लाज के छोटे बडे पुतले, क्रिसमिस ट्री, क्रास आदि बेचे जाते हैं, तथा होटलों में खानपान के लिये लाखों की संख्या में टरकियाँ (ऐक विशेष प्रकार की मुर्ग़ी) खाने के लिये काटी जातीं है। शराब पीकर वाहन चालक दूर्घटनाओं के साथ इसाईयों के नव वर्ष की शुरूात करते हैं। इन सभी बातों का भारतीय परम्पराओं और भावनाओं के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है और विदेशी कम्पनियाँ तथा उन के भारतीय ऐजेन्ट केवल भारतीय मूल्यों के हानि के लिये कर रहै हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई रंगी पुती स्त्री को देख कर चकाचौंध हो जाये और अपनी सुशिक्षित ऐवम सभ्य माता को कोसने लगे। पर्व आयात वही देश करते हैं जिन की अपनी कोई सभ्यता या परम्परा ना हो किन्तु भारत के लोगों को इस प्रकार के त्यौहारों को मनाने के बदले भारतीय मूल के त्यौहारों के मनाने की शैली में और अधिक सुधार तथा उल्लास लाना चाहिये।  

चाँद शर्मा

 

5 – स्नातन धर्म – विविधता में ऐकता


स्नातन धर्म ऐक पूर्णत्या मानव धर्म है। समस्त मानव जो प्राकृतिक नियमों तथा स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह विश्व में जहाँ कहीं भी रहते हों, सभी हिन्दू हैं। 

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से भी स्वतन्त्र है। स्नातन धर्म का विस्तार पूरे बृह्माणड को अपने में समेटे हुये है। हिन्दू धर्म वैचारिक तौर पर बिना किसी भेद-भाव के सर्वत्र जन-हित के उत्थान का मार्ग दर्शाता है ताकि प्रत्येक व्यक्ति स्थानीय समाज में रहते हुये निजि क्षमता और रुचिअनुसार जियो और जीने दो के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दे सके। 

हिन्दू धर्म और वैचारिक स्वतन्त्रता 

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, चाहे साकार, चाहे तो मूर्तियो, चिन्हों, या तन्त्रों के माध्यम से ईश्वर को पहचाने – या मानव रूप में ईश्वर का दर्शन करे। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं। 

हिन्दू धर्म ने किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है, अपितु प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार एक या ऐक से अधिक कई ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बलकि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। अतिरिक्त नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर या ईश्वर का पुत्र, प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन वह अन्य प्राणियों को अपना ईश्वरीयत्व स्वीकार करने के लिये बाधित नहीं कर सकता। 

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, अपितु केवल धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। मौलिक गृंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। हिन्दू धर्म में संस्कृत गृंथों के अनुवाद भी मान्य हैं। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथों में महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा ऋषियों की साधना के दूआरा प्राप्त किये गये अनुभवों का एक विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग समस्त मानवों के उत्थान के लिये है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार जैसे चाहे वस्त्र पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन जिये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या किसी प्रकार की स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है और ना ही किसी अहिन्दू की धार्मिक कारणों से हत्या की है या किसी को उस की इच्छा के विरुद्ध हिन्दू धर्म में परिवर्तित किया है। हिन्दू धर्म मुख्यता जन्म के आधार पर ही अपनाया जाता है। हिन्दू धर्म अहिन्दूओं को भी अनादि काल से विश्व परिवार का ही अंग समझता चला आ रहा है जबकि विश्व के अन्य भागों में रहने वाले मानव समुदाय एक दूसरे के अस्तित्व से ही अनिभिज्ञ्य थे। यह पू्र्णत्या साम्प्रदाय निर्पेक्ष धर्म है। 

वैचारिक दृष्टि से हिन्दुत्व प्रत्येक व्यक्ति को आत्म-निरीक्ष्ण, आत्म-चिन्तन, आत्म-आलोचन तथा आत्म-आँकलन के लिये पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान करता है। धर्म गृंथों के ही माध्यम से ऋषि मुनी समय समय पर ज्ञान और साधना के बल से  तत्कालीन धार्मिक आस्थाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं, तथा नयी आस्थाओं का निर्माण भी करते रहे हैं। हर नयी विचारघारा को हिन्दू मत में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है तथा नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान भी दिया जाता रहा है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है। हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी अन्य धर्म में नहीं है।

साम्प्रदायक समानतायें

यह हर मानव का कर्तव्य है कि वह दूसरों के जीवन का आदर करे , स्थानीय संसाधनो का दुर्पयोग ना करे, उन में वृद्धि करे तथा आने वाली पीढि़यों के लिये उन का संरक्षण करे। आधुनिक विज्ञानिकों की भी यही माँग है। यह तथ्य विज्ञान तथा धर्म को ऐक दूसरे का विरोधी नहीं अपितु अभिन्न अंग बनाता है। 

व्यक्तिगत स्वतन्त्रताओं के बावजूद भी भारत में पनपे सभी धार्मिक साम्प्रदायों में निम्नलिखित समानतायें पाई जाती हैं –

   आस्था की समानतायें

  • ईश्वर ऐक है।
  • ईश्वर निराकार है किन्तु ईश्वर को साकारत्मक चिन्हों से दर्शाया भी जा सकता है।
  • ईश्वर कई रूपों में प्रगट होता है तथा हर कृति में ईश्वर की ही छवि है।
  • सभी हिन्दू शिव, राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर, गुरू नानक, साईं बाबा, स्वामीमारायण तथा अन्य किसी महापुरुष में से किसी को अपना जीवन नायक मानते हैं।
  • भगवा रंग पवित्रता, अध्यात्मिकता, वैराग्य तथा ज्ञाम का प्रतीक है।
  • हिन्दू पुर्नजीवन में विशवास रखते हैं।
  • सभी वर्गों के तीर्थस्थल अखणडित भारत, नेपाल और तिब्बत में ही स्थित हैं।क्यों कि धर्म और सभ्यता का जन्म सर्व प्रथम यहीं हुआ था।

सामाजिक आधार

  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म स्थल को ध्वस्त नहीं किया है।
  • हिन्दूओं ने कभी किसी अहिन्दू के धर्म के विरुध धर्म-युद्ध या हिंसा नहीं करते।
  • हिन्दू समस्त विश्व को ही एक विशाल परिवार मानते हैं।
  • हिन्दूओं में विदूआनो तथा सज्जन प्राणियों को ऋषि, संत या महात्मा कहा जाता है तथा वह सर्वत्र आदरनीय माने जाते हैं।
  • हिन्दू गौ मांस खाने को वर्जित मानते है।
  • हिन्दूओं का विवाहित जीवन एक पति-पत्नी प्रथा पर आधारित है तथा इस सम्बन्ध को जीवन पर्यन्त निभाया जाता है।
  • हिन्दूओं के सभी वर्गों पर एक ही सामाजिक आचार संहिता लागू है।
  • हिन्दूओं के सभी समुदाय एक दूसरे के प्रति सौहार्द भाव रखते हैं और एक दूसरे की रस्मों का आदर करते हैं।
  • धार्मिक समुदायों में स्वेच्छा से आवाजावी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।
  • कोई किसी को समुदाय परिवर्तन करने के लिये नहीं उकसाता।
  • संस्कृत सभी भारतीय मूल की भाषाओं की जनक भाषा है।

परियावर्ण के प्रति समानतायें

  • समस्त नदीयां और उन में से विशेष कर गंगा नदी अति पवित्र मानी जाती है।
  • तुलसी के पौधे का उस की पवित्रता के कारण विशेष रुप से आदर किया जाता है।
  • सभी वर्गों में मृतकों का दाह संस्कार किया जाता है और अस्थियों का बहते हुये जल में विसर्जन किया जाता है।
  • सभी वर्गों के पर्व और त्यौहार मौसमी बदलाव, भारतीय महापुरुषों के जीवन की या जन-जीवन सम्बन्धी घटनाओं से जुड़े हुये हैं तथा किसी भी पर्व-त्यौहार के अवसर पर सार्वजनिक या सामूहिक ढंग से रोने धोने और छाती पीटने की कोई प्रथा नहीं है।

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं, तथा अन्य धर्मों से कभी आयात नही किये गये। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय तथा आर्य समाज इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं और कालान्तर वह भी लहरों की तरह हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते रहै हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त स्थान प्राप्त है।। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलौती अदभुत मिसाल है।  

विदेशी धर्म

वैसे तो मुसलिम तथा इसाई धर्म में भी हिन्दू धर्म के साथ कई समानतायें हैं किन्तु मुसलिम तथा इसाई धर्म भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे हैं। उन का विशवास जियो और जीने दो में बिलकुल नहीं था। वह खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। आज भी विश्व में यह दोनो परस्पर एक दूसरे का हनन करने में लगे हुये हैं। स्थानीय हिन्दू धर्म के साथ प्रत्येक मुद्दे पर कलह कलेश और विपरीत सोच के कारण विदेशी धर्म भारत में घुल मिल नही सके।

हिन्दू विचारों के विपरीत विदेशी धर्म गृंथ पुनर्जन्म को भी नहीं मानते। उन के मतानुसार अक़ाबत या डूम्स डे (प्रलय) के दिन ही ईश्वर के सामने सभी मृतक अपनी क़बरों से निकल कर पेश किये जायें गे और पैग़म्बर या ईसा के कहने पर जिन के गुनाह माफ कर दिये जायें गे वह स्वर्ग में सुख भोगने के लिये चले जायें गे और शेष सज़ा पाने के लिये नरक में भेज दिये जायें गे। इस प्रकथन को यदि हम सत्य मान लें तो निश्चय ही ईश्वर भी हिन्दूओं के प्रति ही अधिक दयालु है क्योंकि मरणोपरान्त केवल हिन्दूओं का ही पुनर्जन्म होता है। केवल हिन्दूओं को ही अपने पहले जन्म के पाप कर्मों का प्रायश्चित करने और सुधरने का एक अतिरिक्त अवसर दिया जाता है। अतः अगर कोई हिन्दू पुनर्जन्म के बाद पशु-पक्षी बन के भी पैदा हुआ हों तो उसे भी कम से कम एक अवसर तो मिलता है कि वह पुनः शुभ कर्म कर के फिर से मानव बन कर हिन्दू धर्म में जन्म ले सके। अहिन्दूओं के लिये तो पुनर्जन्म का जोखिम ईश्वर भी नहीं उठाता।

विविधता में ऐकता का सिद्धान्त केवल भारत में पनपे धर्म साम्प्रदायों पर ही लागू होता है क्योंकि हिन्दू अन्य धर्म के सदस्यों को उन के घरों में जा कर ना तो मारते हैं ना ही उन का धर्म परिवर्तन करवाते हैं। वह तो उन को भी उन के धर्मानुसार जीने देते हैं।

इसी आदि धर्म को आर्य धर्म, स्नातन धर्म तथा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है। इस लेख श्रंखला में यह सभी नांम एक दूसरे के प्रायवाची के तौर पर इस्तेमाल किये गये हैं। अधिक लोकप्रिय होने के कारण हिन्दू धर्म और स्नातन धर्म नामों का अधिक प्रयोग किया गया हैं। हाथी के अंगों के आकार में विभन्नता है किन्तु वह सभी हाथी की ही अनुभूति कराते हैं। यही हिन्दू धर्म की विवधता में ऐकता है। 

चाँद शर्मा

 

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