हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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36 – तकनीकी उपलब्द्धियाँ


हिन्दू शास्त्रों में विश्वकर्मा को समस्त सर्जन कलाओं का अग्रज माना जाता है। भारत के इंजिनियर तथा कारीगर आज भी प्रत्येक शुभ कार्य को आरम्भ करने से पूर्व सर्व प्रथम विश्वकर्मा की पूजा करते हैं। देवी देवताओं के अस्त्र शस्त्रों के निर्माण का श्रेय भी विश्वकर्मा को ही प्राप्त है। विश्व के अन्य देशों में तकनीक और आविष्कार का उदय आकस्माक हुआ। उस के विपरीत भारत में तकनीक और अविष्कार लगातार कोशिशों और अनुभवों के आधार पर हुये हैं।

विश्वकर्मा ने विष्णु का सुदर्शन चक्र, रामायण का शिव-धनुष, तथा अर्जुन का गाँडीव धनुष बनाया था। विश्वकर्मा ने ही इन्द्रप्रस्थ के आश्चर्य जनक भवन, इन्द्र की राजधानी अमरावती, तथा कुबेर का पुष्पक-विमान बनाया था, जिसे रावण ने कुबेर से छीन लिया था। पुष्पक विमान सात मंजिला पाँच सितारा होटल जैसा था और मन की गति से चलता था। वह अमेरिका के ऐयर फोर्स वन विमान से कहीं अधिक आधुनिक था। आज कल टच-स्क्रीन तकनीक की सहायता से हम मन वाँच्छित आँकडे प्राप्त कर सकते हैं, सटैल्थ बम-वर्षक विमान भी बन चुके हैं तीन मंजिला जुम्बो जेट भी उडान भरते हैं, परन्तु पुष्पक विमान जैसी तकनीक अभी तक विकसित नहीं हुई है। यह हमारी इच्छा पर निर्भर है कि हम चाहें तो इन्हें आस्था माने या खोया हुआ इतिहास, लेकिन इस में कोई शक नहीं कि उन सम्भव होने वाले सभी आविष्कारों की कल्पना तो हम भारत वासियों ने ही करी थी।

पहिये का अविष्कार

पहिये का अविष्कार मानव विज्ञान के इतिहास में अभूतपूर्व उपलब्द्धी थी जिस के बल पर मानव ने गति को दिशा परिवर्तन और तीव्रता प्रदान की है। पता नहीं क्यों पहिये के अविष्कार का श्रेय इराक को दिया जाता है जहाँ रेतीले मैदान हैं, जबकि सर्वप्रथम हम पौराणिक चित्रों में सुदर्शन चक्र के माध्यम से ही पहिये का साक्षाताकार करते हैं। रामायण महाभारत काल से पहले ही पहिये का चमत्कारी आविष्कार भारत में हो चुका था और रथों में पहियों का प्रयोग किया जाता था। जब कि इराक के लोग उन्नीसवीं सदी तक रेगिस्तान में ऊँटों की सवारी करते हैं और योरूपीय साँटाकलाज़ को भी बिना पहिये की गाडी सलैज पर ही आता जाता दिखाया जाता है।

पहिये की तकनीक के सहारे याँत्रिक मशीनों और उपकरणों में शक्ति को निरन्तरता, गति तथा दिशा प्रदान करी जाती है। आधुनिक विज्ञान की प्रगति में  पहिये का महत्व सर्वाधिक है। विश्व की सब से प्राचीन सभ्यता सिन्धु घाटी के अवशेषों से प्राप्त (ईसा से 3000-1500 वर्ष पूर्व की बनी) खिलोना हाथ गाडी भारत के राष्ट्रीय संग्रहालय में प्रमाणित करती है कि विश्व में पहिये का निर्माण इराक में नहीं बल्कि भारत में ही हुआ था।  

चरखा चक्र

चरखा चक्र निस्संदेह भारत की अन्य देन है। इस के आविष्कार से वस्त्रों के उत्पादन का खर्चा कम हुआ तथा कालान्तर चरखा चक्र के साथ पेटी जोड कर शक्ति वितरण की तकनीक भी आई। यह अविष्कार अत्यन्त महत्वशाली था क्यों कि इस प्रयोग से भारत ने योरूप को निरन्तर चाल का विचार दिया जिस के कारण आज के युग में याँत्रिक (मेकेनिकल) प्रगति सम्भव हुयी है। इस खोज का श्रेय भास्कराचार्य को जाता है। भारत से यह तकनीक अरबों के माध्यम से योरूप पहुँची थी और आज समस्त विश्व में वैज्ञिानिक प्रगति का माध्यम बनी है।

राजाभोज के समय की ‘समरांगणा सूत्रधारा’ (1100 ईस्वी) में कई याँत्रिक खोजो का वर्णन है जैसे कि चक्री (पुल्ली), लिवर, ब्रिज, छज्जे (केन्टीलिवर) आदि। कालान्तर अरब वासियों ने उन्हें सीखा और अरबी फारसी भाषाओं के माध्यम से डा विंसी के मैकेनिक आलेखों दूारा योरुपवासियों में उन्हीं तकनीकों को प्रचारित किया। कदाचित योरुप वासियों ने यह अनुमान भी लगा लिया कि यह सभी अविष्कार अरबों ने किये।

धातु तथा खनिज

धातुओं तथा खनिजों के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुयी थी। ईसा से तीन हज़ार वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी क्षेत्र में स्वर्ण, चाँदी, तथा ताँबे की खदाने थीं। वैदिक काल में ताँबे, काँसे, तथा पीतल का प्रयोग घरेलू बर्तन बनाने, अस्त्र – शस्त्र तथा मूर्तियों के निर्माण में होता था। जहाँ अन्य देशों के माईथोलोजिकल देवी देवता पशुओं के सींगों वाले मुकट पहने चित्रित किये जाते हैं वहीं भारत के देवी देवता स्दैव सुवर्ण-रत्न जटित मुकट पहने होते हैं। 

पातञ्जली ऋषि ने लोहशास्त्र ग्रन्थ में धातुओं के प्रयोग से कई प्रकार के रसायन, लवण, और लेप बनाने के निर्देश दिये हैं। धातुओं के निरीक्षण, सफाई तथा निकालने के बारे में भी निर्देश हैं। स्वर्ण तथा पलेटिनिम को पिघलाने के लिये अकुआ रेगिना तरह का घोल नाइटरिक एसिड तथा हाइड्रोक्लोरिक एसिड के मिश्रण से तैय्यार किया जाता था। तथा इस का श्रेय भी पातञ्जली ऋषि को जाता है।

मनु समृति में भी धातुओं को शुद्ध करने के बारे में उल्लेख मिलता हैः-

       अपामग्नेश्च संयोगाद्धेमं रौप्यं च निर्वभो।

                 तत्मात्तयोः स्वयोन्यैव निर्णेको गुणवत्तरः ।।

                         ताम्रायः कांस्यरैत्यानां त्रपुणः सीसकस्य च।

                                 शौचं यथार्हं कर्तव्यं क्षारोम्लोदकवारिभिः ।। (मनु स्मृति5- 113-114)

अग्नि और जल के संयोग से सोना और चाँदी उत्पन्न होते हैं, इसलिये दोनो की शुद्धि अपने उत्पादक जल और अग्नि से ही श्रेष्ठ होती है। ताँबा, लोहा, काँसा, पीतल, राँगा और शीशा, इन की यथायोग्य क्षार, खटाई और जल से शुद्धि करनी चाहिए।

रसायन शास्त्र तथा धातु शास्त्र

भारत में रसायन शास्त्र की उपलब्द्धियाँ चिकित्सा, धातुविज्ञान तथा निर्माण के क्षेत्र से प्राप्त हुयीं। कौटिल्लय रचित अर्थशास्त्र में बाँधों तथा पुलों का वर्णन है जिन में झूलापुल (सस्पैन्शन ब्रिज) का भी वर्णन है। कृषि का विकास भी ईसा से 4500 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी में हुआ था। सिंचाई तथा जल संग्रह की उत्तम व्यवस्था के अवशेष गिरनार (ईसा से 3000 वर्ष पूर्व) में देखे जा सकते हैं। भूतल पर बने स्नानागार, जिन में भट्टियों में सेंके गये पक्की मिट्टी के पाईप नलियों के तौर पर प्रयोग किये गये थे तथा 7-10 फुट चौडी और धरती से दो फुट अन्दर नालियाँ बनी थीं। हडप्पा के लोग तांम्बे, पीतल, काँसे की धातुओं का प्रयोग करना जानते थे। वहाँ से प्राप्त तलवारें ताँम्बे की बनी हुयी थीं। 

गुप्त काल से ही रोम वासी भारत को उद्यौगिक तथा सैनिक महाशक्ति के रूप में देखते थे। रसायनों का प्रयोग रंगाई, टेनिंग, साबुन निर्माण, सीमेन्ट निर्माण, तथा दर्पण निर्माण आदि के क्षेत्रों में अधिक होता था। दूसरी शताब्दी में नागार्जुन नें पारा धातु के बारे में मौलिक ग्रन्थ लिखा था। छटी शताब्दी से ही भारतीय रसायन प्रयाग से केलसीनेशन, डिस्टिलेशन, स्बलीमेशन, स्टीमिंग, फिक्सेशन, तथा बिना गर्मी के हल्के इस्पात निर्माण के क्षेत्र में भारतीयों की उपलब्धी योरूपवासियों से कहीं अधिक थी। भारत में कई प्रकार के खनिज लवण, चूर्ण और रसायन तैय्यार किये जाते थे।  

ईसा से लगभग 150 वर्ष पूर्व भारतीयों को लोहा तथा मिश्र धातुओं के प्रयोग से इस्पात बनाने में सर्वाधिक निपुणता प्राप्त की थी जिस के प्रमाण ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई के उपरान्त मिले हैं। इस के अतिरिक्त भारतियों को जिस्त मिश्रण तथा पीतल आदि धातुओं का भी ज्ञान था।जिस्त की तकनीक भारत से चीन तथा योरूप गयी। 1735 ईस्वी तक योरूप के रसायन शास्त्री यही समझते थे कि जिस्त को धातु के रूप में ताँबे के बिना नहीं बदला जा सकता।

धातु उत्पादन

धातुओं का प्रयोग चिकित्सा क्षेत्र में भी होता था। कई तरह के रसायन, सोने चाँदी की भस्म, तथा वर्क प्रयोग किये जाते थे। दक्षिण भारत धातु उद्योग के लिये प्रसिद्ध था तथा वहाँ के उत्पादन विश्व विख्यात थे, विशेष तौर परः-

  • कर्नाटक –कर्नाटक पतले और महीन तारों के उत्पादन में प्रसिद्ध था जो संगीत वाद्यों में इस्तेमाल किये जाते थे। उस समय पाश्चात्य तथा अन्य देशों के वाद्य यन्त्रों में तारों के स्थान पर जानवरों की अन्तडियों का प्रयोग किया जाता था।
  • केरल केरल लोहे को भट्टियों में ढालने के लिये प्रसिद्ध था। इस के अतिरिक्त केरल के धातु विशेषज्ञ्य धातु को विशेष प्रकार की तकनीक से दर्पण बनाने में भी प्रयोग करते थे जैसा कि अरनमला में किया गया है।
  • तामिल नाडु – तामिल नाडु से उत्तम प्रकार का इस्पात रोम के अतिरिक्त समस्त विश्व को निर्यात किया जाता था।
  • आन्ध्र आन्ध्र प्रदेश का कोनास्मुद्रम विश्व प्रसिद्ध वूटस – स्टील उत्पादन के लिये जाना जाता था। यह इस्पात अस्त्र-शस्त्र बनाने में प्रयोग होता था। सुलतान सलाहुद्दीन की दमस्कस तलवार इसी धातु से निर्मित हुई थी। भारत में लोहे से इस्पात बनाने की कला का प्रति स्पर्धी अन्य कोई देश नहीं था।
  • राजस्थान – ईसा से  400 वर्ष पूर्व उदयपुर के समीप झावर में जिंक की खाने थीं 

झेलम के राजा पोरस ने विश्व-विजेता सिकंदर को उपहार स्वरूप स्वर्ण या रजत नहीं भेजे थे अपितु उसे 30 पाऊड उच्च कोटि का भारत निर्मित इस्पात उपहार में दिया था। कालान्तर मुसलिम कारीगर भारत के धातु ज्ञान को पूर्व ऐशिया, मध्य ऐशिया तथा योरूप में ले गये और उसी प्रणाली से दमस्कस तलवारों का निर्माण किया। यह तकनीक भारत से ईरान तथा ईरान से अन्य मुसलिम देशों के माध्यम से योरूप गयी।

नटराज की प्रतिमा पाँच धातुओं के मिश्रण से बनी है। यूनानी इतिहासकार फिलोत्रस ने भी अपने उल्लेखों में दो से अधिक धातुओं के मिश्रण की भारतीय तकनीक का वर्णन किया है। हिन्दू मन्दिरों के कलश स्दैव स्वर्ण, पीतल तथा अन्य धातुओं के मिश्रण से तैय्यार होते थे। 

तकनीकी मापदण्डों का निर्माण

  • छटी शताब्दी में यतिव्रासाभा ने अपनी कृति तिलोयापन्नति में समय तथा दूरी मापने के लिये तालिकायें बनाईं तथा अनिश्चित समय के मापने के परिमाणों का निर्माण किया।
  • यकास्पति मिश्र ने डेस्कारटेस (AD 1644). से आठ सौ वर्ष पूर्व (840 ईस्वी) में अपनी कृति न्यायसुचिनिबन्ध में सोलिड कोर्डिनेट ज्योमैट्री का उल्लेख किया।  उस ने यह भी बताया कि किसी भी अंतरीक्ष में ऐक कण की स्थिति अन्य स्थित चिन्ह से तीन काल्पलिक रेखाओं के मिलान और माप से आँकलन की जा सकती है।
  • न्याय विशेषिका के खगोल शास्त्रियों ने सूर्य दिवस की अवधि 1,944,000 क्षण मापी। ऐक क्षण आधुनिक सैकिण्ड के दशमलव 044 भाग के बराबर होता है। ऐक ‘त्रुटि’ को समय के लिये सब से छोटा मापदण्ड माना गया है।
  • शिल्पशास्त्र में लम्बाई मापने कि लिये सब से छोटा मापदण्ड ‘पारामणु’ था जो आधुनिक इंच के 1/349525 भाग के बराबर है। यह मापदण्ड न्याय विशेषिका के ‘त्रास्रेणु’ (अन्धेरे कमरे में आने वाली सूर्य किरण की रौशनी में दिखने वाला अति सूक्षम कण) के बराबर था।  वराहमिहिर के अनुसार 86 त्रास्रेणु ऐक उंगली के बराबर (ऐक इंच का तीन चौथाई भाग) होते हैं। 64 त्रास्रेणु ऐक बाल के बराबर मोटे होते हैं।

दिल्ली का लोह स्तम्भ

भारत के लोहे तथा इस्पात की कई विशेषतायें थी। वह पू्र्णतया ज़ंग मुक्त थे। इस का प्रत्यक्ष प्रमाण पच्चीस फुट ऊंचा कुतुब मीनार के स्मीप दिल्ली स्थित लोह स्तम्भ है जो लग भग 1600 वर्ष पूर्व गुप्त वँश के सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल का है और धातु ज्ञान का आश्चर्य जनक कीर्तिमान है। इस लोह स्तम्भ का व्यास 16.4 इन्च है तथा वज़न साढे छः टन है। 16 शताब्दियों तक मौसम के उतार चढाव झेलने के पश्चात भी इसे आज तक ज़ंग नहीं लगा। कुछ प्रमाणों के अनुसार यह स्तम्भ  पहले विष्णु मन्दिर का गरूड़ स्तम्भ था। मुस्लिम शासकों ने मन्दिर को लूट कर ध्वस्त कर दिया था और स्तम्भ को उखाड कर उसे विजय चिन्ह स्वरूप ‘कुव्वतुल-इसलाम मसजिद’ के समीप दिल्ली में गाड़ दिया था।

हाल ही में ईन्डियन इन्टीच्यूट आफ टेकनोलोजी कानपुर के विशेषज्ञ्यों नें स्तम्भ का निरीक्षण कर के अपना मत प्रगट किया है कि स्तम्भ को जंग से सुरक्षित रखने के लिये उस पर मिसाविट नाम के रसायन की  ऐक पतली सी परत चढाई गयी थी जो लोह, आक्सीजन तथा हाईड्रोजन के मिश्रण से तैय्यार की गयी थी। यही परिक्रिया आजकल अणुशक्ति के प्रयाग में लाये जाने वाले पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिये डिब्बे बनाने में प्रयोग की जाती है। सुरक्षा परत को बनाने में उच्च कोटि का पदार्थ प्रयोग किया गया था जिस में फासफोरस की मात्रा लोहे की तुलना में एक प्रतिशत के लगभग थी। आज कल यह अनुपात आधे प्रतिशत तक भी नहीं होता। फासफोरस का अधिक प्रयोग प्राचीन भारतीय धातु ज्ञान तथा तकनीक का प्रमाण है जो धातु वैज्ञ्यिानिकों को आश्चर्य चकित कर रही है।

आजकल विकसित देश टेक्नोलोजी ट्राँसफर को हथियार बना कर अविकसित देशों पर आर्थिक दबाव बढाते हैं। जो लोग पाश्चात्य तकनीक की नकल करने की वकालत करते हैं उन्हें स्वदेशी तकनीक पर शोध करना चाहिये ताकि हम आत्म निर्भर हो सकें।

चाँद शर्मा

 

 

 

28 – पर्यावरण सम्बन्धित पर्व


मानव जीवन परिश्रम तथा दैनिक संघर्षों से भरा रहता है। उत्साह तथा प्रसन्नता के लिये मानव परिवर्तन चाहता है। पर्व नीरस जीवन में परिवर्तन तथा खुशी का रंग भरने के निमित हैं। हिन्दू पर्वों में अहिन्दू भी भाग ले सकते हैं। व्यक्ति चाहें तो त्यौहार को अपने परिवार के साथ या समाज में सामूहिक ढंग से मनायें और चाहे तो ना भी मनायें। हिन्दू पर्व राष्ट्र भावना तथा ऐकता के प्रतीक हैं और भारत की ऋतुओं, पर्यावरण, स्थलों, देश के महा पुरुषों तथा देश में ही घटित घटनाओं के साथ जुड़े हैं। 

स्वच्छता का महत्व

हिन्दू पर्व अध्यात्मिकता, स्वच्छता, तथा सामाजिक संवेदनशीलता का संगम हैं और समाज के सभी वर्गों को मिलन का अवसर प्रदान करते हैं। सभी पर्व सर्व-प्रथम स्वच्छता के महत्व को दर्शाते हैं। सभी पर्वों में पहले घरों, कार्य स्थलों की सफाई, रंगाई, और पुताई की जाती है तथा सजावट की जाती है। निजि शरीर की सफाई के लिये पर्व के दिन स्नान का विशेष महत्व होता है जो पर्व के दिन सर्वप्रथम क्रिया होती है। इस के पश्चात किसी ना किसी रूप में भजन कीर्तन तथा साधना और संगीत का कार्यक्रम होता है। अन्य धर्मों के विपरीत हिन्दू पर्वों में रोने या शोक प्रगट करने का कोई प्रावधान नहीं है।

साँस्कृतिकविविधता में ऐकता

  • कुछ पर्व स्थानीय ऋतुओं तथा जलवायु के साथ जुडे हुये हैं। वह पर्यावऱण तथा सभी प्राणियों के जीवन के महत्व को दर्शाते हैं।
  • कुछ पर्व हमारी सभ्यता तथा जन जीवन के विकास की घटनाओं से जुडे हैं और उन की समृति कराते हैं।
  • कुछ पर्व हिन्दू राष्ट्र नायकों के जीवन की घटनाओं से जुडे हैं।
  • कुछ पर्व प्रान्तीय और प्रदेशों की विभिन्नता को दूसरे प्रदेशों से जोडते तथा स्थानीय जीवन को दर्शाते हैं।
  • कुछ पर्व हिन्दू धर्म के साम्प्रदायों के जनकों तथा महापुरुषों से जुडे हैं और साम्प्रदाय विशेष दूारा मनाये जाते हैं किन्तु अन्य लोग भी उन सें भाग ले सकते हैं।

त्यौहारों की संख्या इतनी अधिक है कि लगभग प्रत्येक मास में चार से पाँच पर्व मनाये जाते हैं। अतः कुछ मुख्य पर्वों का ही संक्षेप में यहाँ वर्णन किया गया है जो अधिक लोकप्रिय होने के कारण पूरे देश में मनाये जाते हैं।  

जलवायु के साथ जुडे पर्व

लोहड़ी लोहडी का त्यौहार पौष मास (जनवरी) में मनाया जाता है जब कि जाडा अपने उरूज पर होता है। यह पर्व मुख्यता पंजाब और उत्तर भारत में मनाया जाता है क्यों कि वहाँ अति अधिक सर्दी पडती है। पर्व से कुछ दिन पहले  बच्चे आस-पास के घरों में जा कर लोक गीत गाते हैं और उपहार स्वरूप लोग उन्हें मूंगफली, रेवडी अथवा पर्व मनाने के लिये धन का अनुदान देते हैं ताकि वह अग्नि जलाने के लिये लकडी आदि खरीद सकें। लोहडी के दिन किसी निर्धारित स्थल पर आग जलायी जाती है और लोग उस के चारों ओर बैठ कर गाते नाचते हैं और ऐक दूसरे को तिल आदि की मिठाई बाँटते हैं जो सर्दी के प्रभाव को कम करने में सहायक होती हैं। इस पर्व में लोग अपने घरों के पुराने वस्त्र तथा सामान को भी अग्नि में जला कर घरों की सफाई भी कर लेते हैं। लोहडी के पश्चात सूर्य दक्षिण कटिबन्ध से उत्तरी कटिबन्ध में प्रवेश करता है और उस के अगले दिन से नव वर्ष की शुरुआत हो जाती है। जितना संयोग प्राकृतिक है उतना ही उल्लेखनीय तथ्य यह है कि महाभारत काल से भी पूर्व भारत वासियों को सूर्य के दक्षिण कटिबन्ध से उत्तर कटिबन्ध में प्रवेश का ज्ञान था जब कि अन्य विश्व वासियों यह समझते थे कि पऋथ्वी स्थिर है और सूर्य उस के चक्कर काटता है। भीष्म पितामह ने बाणों की शौय्या पर से ही कौरवों तथा पाँण्डवों को विदित करा दिया था कि वह अपने प्राण तभी त्यागें गे जब सूर्य उत्तरायण कटिवन्ध में प्रवेश कर जाये गा।

मकर संक्रांन्ति – लोहडी के अगले दिन से नव वर्ष का आरम्भ हो जाता है। यह केवल मानव समाज का पर्व ही नहीं अपितु भारतीय समाज का पर्यावरण के प्रति औपचारिक अनुष्ठान है। दक्षिण भारत में इस पर्व को पोंगल कहा जाता है। इस का सम्बन्ध कृषि क्षेत्र से है। हम इसे ‘भारतीय किसान दिवस ’ भी कह सकते हैं। इसी दिन किसान अपनी मेहनत का फल घर ले कर आते हैं तथा नये उत्पादन का प्रसाद ईश्वर को अर्पण किया जाता है। प्रथम फसल पर पशु पक्षिओं का अधिकार मानते हुये गाय- बैलों को सजाया जाता है। किसान श्रमिकों को भेंट देते हैं । पूजा स्थलों में विशेष पूजा अर्चना की जाती है। घरो तथा गलियों को रंगोली से सजाया जाता है। सभी जगह परिवार के लोग एकत्रित होते हैं। भाई अपनी बहनों को कृषि उत्पादन का भाग भेंट स्वरूप देते हैं। उल्लास के साथ सामूहिक ढंग से पतंग उडायी जाती हैं। युवतियाँ भी चावल या अन्य पदार्थों से मिठाईयां आदि बना कर किसी रमणीक स्थान पर पिकनिक के लिये जाती हैं और मिठाईयों को पक्षियों तथा पशुओं के लिये पत्तों पर ही विछा देती हैं। यह ‘ जियो तथा जीने दो ’ के सिद्धान्त का क्रियात्मिक स्वरूप है।

वसन्त पंचमी यह पर्व भी जलवायु तथा ऋतु के अनुकूल है। वसन्त पंचमी जाडा समाप्त होने तथा वसन्त ऋतु (फरवरी) के आने का घोषणा है। चारों ओर रंग बिरंगे फूल खिल जाते हैं। यह मौसम सर्जनात्मिक वातावरण पैदा करता है। प्रसन्न्ता तथा उल्लास के वातावरण में लोग कला की देवी सरस्वती की आराधना करते हैं। कई स्थानों पर लोग पीले वसन्ती रंग के वस्त्र पहनते है। कुछ तो भोजन में भी पीले रंग को प्राथमिकता देते हैं जो कि पवित्रता तथा अध्यात्मिकता का प्रतीक है। सामूहिक तौर पर स्त्री पुरुष ऐकत्रित हो कर खुशी के लोक गीत गाते हैं। सम्पूर्ण ऋतु आनन्दमयी क्रियाओं, भावनाओं तथा कामदेव को स्मर्पित है। भारतीय  युवा वर्ग तथा व्यवसायिक वर्ग को विदेशी ‘वेलेन्टाईन डे’ ’ मनाने के बजाय ‘वसन्तोत्सव ’ मनाने की प्रथा को प्रोत्साहन देना चाहिये।

होली होली भी ऐक ऋतु पर्व है। ग्रीष्म ऋतु का आरम्भ है। दक्षिणभारत में इसे ‘कामदहन’ कहा जाता है। इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को अपना तीसरा नेत्र खोल कर भस्म कर दिया था। अन्य कथा प्रह्लाद के बारे में है जो होलिका दूारा जलाये जाने के प्रयत्न से ईश्वरीय  कृपा के कारण बच गया था। यह पर्व सामाजिक स्वास्थ तथा सदभावना के साथ भी जुडा है। लोग घरों तथा रहवासों को साफ करते है और सभी बेकार वस्तुओ को अग्नि में डाल कर उन की होली जलाते हैं। इस प्रकार कई रोगों के कीटाणुओं का नाश भी हो जाता है। स्वेच्छा से लोग ऐकत्रित हो कर ऐक दूसरे पर खुशबुदार रंग फैंकते है, ऐक दूसरे के गले मिलते हैं, मिठाईयां भेन्ट करते हैं तथा हँसी मज़ाक कर के छोटे मोटे आपसी मत भेदों और गिले शिकवों को भुला देते हैं। सामूहिक वातावरण में विशेष तौर पर होली के गीत गाये जाते हैं। यह पर्व योरूप वासियों के अप्रैल फ़ूल डे या स्पेन के टोमेटो फेस्टीवल से अधिक सकारात्मिक पर्व है। 

महालय अमावस्या – अश्विन (सितम्बर-अकतूबर) मास में पडने वाली अमावस को काली अमावस कहते हैं तथा यह पखवाडा विशेष तौर पर मृतकों की आत्मा की शान्ति के लिये अनाज दान करने के लिये महत्व पूर्ण माना गया है। लोग निजि और अन्य मृतकों के लिये भी ब्राह्मणों को भोजन दान करते हैं। अन्न दान को विशेष महत्व है क्यों कि विश्व में सभी प्राणियों के जीवन का आधार अन्न ही है। भोजन से शरीर, शरीर से कर्म, तथा कर्मों से ही फल बनते हैँ। प्रत्येक जड और चैतन्य प्राणी को भोजन तो अवश्य चाहिये इस लिये अन्न जैसी जीवन दायनी वस्तु का दान करना सर्वोपरि माना जाता है। 

नवरात्री दुर्गा पूजा यह पर्व नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है तथा वर्ष में दो बार आता है। यह जलवायु, कृषि, तथा स्वास्थ प्रधान पर्व है। भारत में दो बार वार्षिक कृषि होती है। अतः ऐक बार यह पर्व ग्रीष्म काल आगमन में राम नवरात्रि चैत्र (अप्रैल मई) के नाम से जाना जाता है। दूसरी बार इसे दुर्गा नवरात्रि अश्विन(सितम्बर-अकतूबर) मास में मनाया जाता है। यह समय शीतकाल के आरम्भ का होता है। यह दोनो समय ऋतु परिवर्तन के है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव प्राणियों की मनोदशा तथा शरीर पर भी पडता है जिस के कारण हमारी दैनिक जीवन की क्रियाओं में बदलाव आना भी प्राकृतिक है। अतः इस पर्व के समय दैनिक भोजन में भी बदलाव करने का प्रावधान है जो भारतीय संस्कृति की स्वास्थ के प्रति जागरुक्ता का ज्वलन्त उदाहरण है। कई लोग पूर्णत्या उपवास करते हैं तथा कई सामान्य भोजन में से खाने पीने की वस्तुओं में ही बदलाव करते हैं। हिन्दूओं की इस रस्म ने अन्य सभ्यताओं को भी प्रभावित किया है क्यों कि लगभग इसी समय मध्य ऐशिया के निवासी भी रोज़े रखते हैं। मध्य ऐशिया निवासी मुस्लिम धर्म फैलने के पश्चात भी इस प्रथा को जारी रखे हुये है जिस का हवाला अब कुरान आधारित हो चुका है। दुर्गापूजा समस्त भारत में मनायी जाती है। गुजरात प्रदेश में विशेष उल्लास होता है जहाँ सामूहिक तौर पर सार्वजनिक स्थानो पर स्त्री पुरुष सजावट के साथ नृत्य करते हैं। यह पर्व विदेशी सैलानियों को आकर्षित करने के साथ साथ विदेशों में भी फैल रहा है। बंगाल में भी दुर्गा पूजा विशेष उल्लास के साथ मनायी जाती है।

विजय दशमी – दुर्गा पूजा के दसवें दिन विजय दशमी का पर्व मनाया जाता है जिसे दशहरा भी कहते हैं। भारत में जलवायु के कारण प्राचीन काल से ही यह समय सैनिक अभियानों के लिये उपयुक्त समय रहा है। वर्षा ऋतु की समाप्ति के पश्चात इस समय नदियों में जल स्तर नीचे आ जाता है। अतः युद्ध अभियान अथवा युद्ध अभ्यास के लिये नदियों को पार करने के लिये नौकाओं और सेतुओं की अधिक आवश्यक्ता नहीं पडती। सैनिकों को प्रस्थान करने से पूर्व शास्त्रों की सफाई, देख भाल भी करनी होती है अतः दशहरा के दिन ‘शस्त्र पूजा ’ का विशेष महत्व है। जो क्षत्रिय युद्ध के लिये नहीं जाते वह शस्त्र पूजा के उपरान्त आखेट पर जा कर भी अपने अपने शस्त्रों का और अपनी क्षमता का परीक्षण कर लेते थे। इस समय आखेट पर जाना भी हिन्दू संस्कृति का वन्य जीवों के प्रति जागरूक्ता का प्रमाण है। प्रजन्न काल में पशुओं का आखेट करना वर्जित है। वर्षा ऋतु के पश्चात पशुओं को भोजन के लिये पर्याप्त चारा उपलब्ध होता है और उन के नवजात अपनी देख भाल करने में समर्थ हो चुके होते हैं अतः वर्षा ऋतु से पहले आखेट वर्जित होता है। अन्य बातों के अतिरिक्त दशहरा को ऱाम की रावण के विरुध विजय के उपलक्ष में भी मनाया जाता है। विजय दशमी पर्व बुराई पर मर्यादाओं की विजय का प्रतीक हैं।

नाग पंचमी नाग पँचमी का पर्व तो केवल साँपों को समर्पित है। हिन्दू मतानुसार साँपों को ना तो मानव समाज का शत्रु समझा जाता है ना ही उन्हें शैतान का प्रतीक माना जाता है। वह पर्यावरण का ऐक मुख्य अंग हैं और चिकत्सा के क्षेत्र में उन के विष का महत्वपूर्ण योग दान है। नाग पँचमी के दिन साँपों की पूजा की जाती है और उन्हें दूध पिलाया जाता है। यह पर्व श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचम तिथि को मनाया जाता है। लोग घर के दूार के दोनो ओर गोबर से दो पाँच फन वाले नागों की प्रतिमायें बनाते हैं। प्रतिमायें स्वर्ण, चाँदी, मिट्टी, अथवा हल्दी और स्याही से भी बनाई जा सकती हैं। चतुर्थी के दिन केवल ऐक समय ही भोजन किया जाता है तथा पंचमी के दिन उपवास कर के केवल सायं काल को ही भोजन किया जाता है। प्रसाद स्वरूप कमल के फूल, पँचामृत (दूध, दही, घी, शहद तथा गंगाजल) से तैय्यार किया जाता है और अनन्त, वासुकि, शेष, पद्म, काम्बल, कारक्लोक, अशवतार, धिफराश्ता, शंखपल, कालिया, तक्षक, तथा पिंगल आदि बारह महा सर्पों को अर्पित किया जाता है। जो नाग पूजा करते हैं वह इस दिन पृथ्वी को नहीं खोदते।

देश की जलवायु, पर्यावरण तथा जनजीवन के साथ जुडे इतने पर्व हैं कि प्रत्येक मास सें ऐक से अधिक पर्व मनाये जाते हैं। नाग पंचमी की तरह हनुमान जयन्ती के दिन विशेष तौर पर वानरों को फल और भोजन दिया जाता है। इस प्रकार के रीति रिवाज हिन्दूओं की अन्य जीवों के प्रति संवेदनशीलता को दर्शाते हैं।

पाश्चात्य देशों में भी लोग बडे नगरों के व्यस्त जीवन से तनाव मुक्त-होने के लिये प्राकृति की तरफ भागने लगे हैं, लेकिन वहाँ पर्यावरण और स्थानीय जलवायु को भी ऐक व्यापार बना दिया गया है। उस में भावनाओं का कोई स्थान नहीं रहा। लोग अलास्का के बर्फीले समुद्र तट पर या पर्वतों की चोटियों पर, ज्वालामुखियों को देखने जाते हैं। योरुप और अमेरिका में कई तरह के फेस्टिवल आयोजित करते हैं परन्तु वह भावना रहित व्यापारिक आयोजन होते हैं जहाँ सभी तरफ से आये हुये पर्यटक केवल निजि मौज मस्ती में लिप्त होते हैं या जानवरों का शिकार कर के पर्यावरण को ही नष्ट करते हैं।

इस की तुलना में हिन्दू जन जीवन पूर्णत्या स्थानीय प्रकृति में ही समाया हुआ है। जीवों के अतिरिक्त वन, पवर्त, नदियाँ और जल स्त्रोत्र भी हमारी आस्थाओं के साथ जुडे हुये हैं। कई भव्य मन्दिरों का निर्माण दुर्गम पर्वत शिखरों पर किया गया है। सभी पर्व नदियों तथा सागर के तटों पर मनाये जाते हैं। मेले और त्यौहार मनाने के लिये आसपास के तालाबों, झरनों, टीलों को भी पर्व का स्थल का बना कर महत्व दिया गया है। यह देश के प्रति प्रेम है क्यों कि हम ने देश के पर्यावरण का व्यापार कभी नहीं किया।

चाँद शर्मा

 

3 – सम्बन्ध तथा प्रतिबन्ध


सृष्टि में जीवन का प्रारम्भ तब होता है जब आत्मा शरीर में प्रवेश करती है और अन्त जब आत्मा शरीर से बाहर निकल जाती है। आत्मा और शरीर अपने अपने मूल स्त्रोत्रों के साथ मिल जाते हैं। अंत्येष्टी क्रिया चाहे शरीर को जला कर की जाये चाहे दफ़ना के, इस से कोई फरक़ नहीं पड़ता। यदि कुछ भी ना किया जाये तो भी शरीर के सड़ गल जाने के बाद शरीर के भौतिक तत्व मूल स्त्रोत्रों के साथ ही मिल जाते हैं। 

जीवन मोह 

जैसे ही प्राणी जन्म लेता है उस में जीने की चाह अपने आप ही पैदा हो जाती है। मृत्यु से सभी अपने आप को बचाते हैं। वनस्पतियां हौं या कोई चैतन्य प्राणी, कोई भी मरना नहीं चाहता, यहाँ तक कि भूख से मरने के बजाय एक प्राणी दूसरे प्राणी को खा भी जाता है। मरने के भय से एक प्राणी दूसरे प्राणी को मार भी डालता है ताकि वह स्वयं ज़िन्दा रह सके। सब प्राणियों का एकमात्र प्राक्रतिक लक्ष्य है – स्वयं जियो।

जड़ प्राणियों की अपेक्षा चैतन्य प्राणी परिवर्तनशील होते हैं। जीवित रहने के लिये वह अपने आप को वातावरण के अनुसार थोड़ा बहुत ढाल सकते हैं। मानवों में यह क्षमता अतिअधिक होती है जिसे परिवर्तनशीलता कहा जाता है। मानवों के सुख दुख उन की निजि परिवर्तनशीलता पर निर्भर करते हैं। जब वातावरण मानवों के अनुकूल होता है तो वह प्रसन्न रहते हैं और यदि प्रतिकूल हो जाये तो दुखी हो जाते हैं। ज्ञानी मानव अपने आप को और वातावरण को एक दूसरे के अनुकूल बनाने में क्रियाशील रहते हैं। 

समुदायों की आवश्यक्ता 

सुख से जीने के लिये भोजन, रहवास तथा सुरक्षा का होना ज़रूरी है। वनस्पतियों को भी धूप से बचाना और भोजन के लिये खाद और जल देना पड़ता है। पशु-पक्षी भी अपने लिये भोजन तथा सुरक्षित रहवास ढूंडते हैं। यही दशा मानवों की भी है।

प्राणियों के लिये सहवास भी जरूरी है। कोई भी अकेला रह कर फल फूल नहीं सकता। सभी वनस्पतियां, पशु-पक्षी तथा मानव, स्त्री-पुरुष जोडों में ही होते हैं। कोई भी अकेले अपनी वंश वृद्धि नहीं कर सकता है। वंश वृद्धि की क्षमता जीवन का महत्वशाली प्रमाण है। निर्जीव का कोई वंश नहीं होता। 

आवशक्तायें और कर्म 

सहवास और भौतिक आवश्यक्ताओं को पूरा करने के लिये कर्म करने की जरूरत पडती है। उदाहरण के लिये जब किसी बिल्ली, कुत्ते या किसी अन्य जीव को भूख लगती है तो वह अपने विश्राम-स्थल से उठ कर भोजन की खोज में जाने के लिये स्वंय ही प्रेरित हो जाता है। वह जीव यह क्रिया शरीरिक भूख को शांत करने के लिये करता है। एक बार भोजन मिलने के पश्चात वह जीव पुनः उसी स्थान पर हर रोज़ जाने लगता है ताकि उस की ज़रूरत का भोजन सुरक्षित रहे तथा निरन्तर और निर्विघ्न उसे ही मिलता रहे। निरन्तरता बनाये रखने के लिये वह जीव भोजन मिलने के स्थान के आस-पास ही भोजन स्त्रोत्र की रखवाली के लिये बैठने लगे गा। वह यथा सम्भव भोजन देने वाले का प्रिय बनने की चेष्टा भी करे गा। उस स्थान पर वह किसी दूसरे जीव का अधिकार भी नही होने दे गा और इस प्रकार वह जीव स्थान-वासियों के साथ अपना निजि सम्बन्ध स्थापित कर ले गा। अतः ज़रूरत पूरी करने के लिये जीव के समुदाय की शुरूआत होती है।

भोजन – निरन्तरता, सुरक्षा, और समुदाय सदस्यता प्राप्त कर लेने के पश्चात अब जीव में मानसिक ज़रूरते भी जागने लगती हैं। वह अच्छा बन कर दूसरों का प्रेम पाने की चाहत भी करता है और इस भाव को व्यक्त भी करता है। अकसर वह जीव भोजन दाता को अपना मालिक बना कर उस के हाथ चाटने लगे गा। उस स्थान की सुरक्षा का ज़िम्मा अपने ऊपर ले कर अपनी ज़िम्मेदारी जताऐ गा और बदले में मालिक से भी प्रेम पाने की अपेक्षा करने लगे गा। मालिक की ओर से उपेक्षा होने पर नाराज़गी दिखाये गा। यदि मालिक बिछुड जाये या उसे दुतकार दे तो वह जीव भूखा होने पर भी खाना नहीं खाये गी। गुम-सुम पडा़ रहे गा। यह रिश्ते तथा समुदाय बनाने के ही संकेत हैं।

सुखी-सम्बन्ध जुड़ने के बाद ऐक और इच्छा सभी जीवों में अपने आप पैदा होती है – अपना पूर्ण विकास कर के निष्काम भावना से कुछ अच्छा कर दिखाना सभी को अच्छा लगता है। इसी इच्छा पूर्ति के लिये जानवर भी कई तरह के करतब सीखते हैं और दूसरों को दिखाते हैं। किन्तु ऐसी अवस्था शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति के पश्चात ही आती है। अधिकतर पशु और कुछ मानव भी अपने पूरे जीवन काल में इस अवस्था तक नहीं पहुंच पाते। इस श्रेणी के मानव शरीरिक आवशयक्ताओं की पूर्ति में ही अपना जीवन गंवा देते हैं। उन के और पशुओं के जीवन में कोई विशेष अन्तर नहीं रहता 

शरीरिक तथा मानसिक आवशयक्ताओं की पूर्ति का सिद्धान्त मानवों पर भी लागू होता है। नवजात शिशु को भोजन, देख-रेख, सुरक्षित विश्रामस्थल, मां-बाप और सम्बन्धियों का दुलार चाहिये। यह मिलने के पश्चात नवजात अपने आस-पास की वस्तुओं के बारे में जिज्ञासु होता है, मां-बाप से, गुरू जनो से ज्ञान गृहण करने लगता है ताकि वह अधिक अच्छा बन सके और अपनी सक्षमता को अधिक्तम से अधिक विकसित कर के सुखी होता रहे। सुख के पीछे भागते रहना शरीरिक आवशयक्ताओं की तथा किसी का प्रिय बन जाना मानसिक आवशयक्ताओं की चरम सीमा होती है। अपने लिये जानवर भी कर्म करते है कर्म के बिना जीवन नहीं चल सकता।

व्यवहारिक नैतिकता

आवशयक्ताओं के सम्बन्धों का संतुलन बनाये रखने के लिये उचित व्यव्हार की रस्में तथा नियम बनाने पडे हैं। आरम्भ में आदि मानव अपने अपने समुदायों के साथ गुफाओं में रहते थे और भोजन जुटाने के लिये आखेट की तालाश में इधर उधर फिरते थे। मृत जीवों की चमड़ी तन ढकने के काम आती थी तथा मौसम से सुरक्षित रखती थी। धीरे धीरे जब उन का ज्ञान बढ़ा तो आदि मानवों ने कृषि करना सीखा। भोजन प्राप्ति का ऐक और विकल्प मिल गया जो आखेट से बेहतर था। आदि मानवों ने धीरे धीरे वनजारा जीवन त्याग कर जल स्त्रोत्रों के समीप रहवास बनाने आरम्भ कर दिये, घर बनने लगे और इस प्रकार आधुनिक सभ्यता की ओर पहला कदम रखा गया। एक दूसरे से सम्बन्ध जोड़ने के व्यवहारिक नियम बनने लगे।

सम्बन्ध और प्रतिबन्ध

समस्त विश्व में शरीरिक, मानसिक, और भावनात्मिक विभन्नताओ पर विचार कर के मानवों ने समाज में एक दूसरे के प्रति कर्तव्यों का चयन किया है। आदि काल से ही सभी जगह घरों में स्त्रीयां आंतरिक और पुरुष बाह्य जिम्मेदारियां निभाते आ रहे हैं। आदि काल में नवजातों की जंगली जानवरों से, कठिन जल-वायु से, तथा शत्रुओं से सुरक्षा करनी पड़ती थी इस लिये स्त्रियों को  घर में रख कर उन को बच्चों, पालतु पशुओं तथा घर-सामान के देख-भाल की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। पुरुष की शरीरिक क्षमता स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक होती है और वह कठिन परिश्रम तथा खतरों का सामना करने मे भी स्त्रीयों की अपेक्षा अधिक सक्षम होते हैं अतः उन्हें आखेट तथा कृषि दूआरा परिवार के लिये भोजन जुटाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी। इस प्रकार ज़िम्मेदारियों का बटवारा होने के पश्चात समाज के हित में लिंग-भेद के आधार पर ही ऐक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों और अधिकारों के नियम और रस्में बनने लगीं।

सामाजिक वर्गीकरण

हर समाज में एक तरफ ज़रूरत मन्द तथा दूसरी ओर ज़रूरतें पूर्ति करने वाले होते हैं। इसी  के आधार पर लेन-देन के आपसी सम्बन्धों का विकास हुआ। ज़रूरत की तीव्रता और ज़रूरत पूरी करने वाले की क्षमता ही सम्बन्धों की आधारशिला बन गयी। 

जव तक ज़रूरत रहती है, और उस की पूर्ति होती रहती है उतनी ही देर तक सम्बन्ध भी चलते रहते हैं। यदि ज़रूरत बदल जाये या पूर्ति का स्त्रोत्र बदल जाये तो सम्बन्ध भी बदल जाते हैं। एक नवजात, जो अपनी मां से क्षण भर दूर होने पर बिलखता है, परन्तु बड़ा हो कर वही नवजात अपनी मां को भूल भी जाता है क्योंकि दोनो की ज़रूरतें और क्षमतायें बदल चुकी होती हैं। उम्र के साथ मां-बाप की शरीरिक क्षमतायें घट चुकी होती है तथा व्यस्क अपनी सहवासी ज़रूरतों को अन्य व्यस्कों से पूरी कर लेते हैं । आदान प्रदान की कमी के साथ ही आपसी रिश्तों की निकटता भी बदल जाती हैं। 

लेन देन की क्षमता के आधार पर ही सामाजिक वर्गीकरण का विकास भी हुआ। देने की क्षमता रखने वाले समाज के अग्रज बन गये। इस के विपरीत सदैव मांगने वाले समाज मे पिछड़ते गये। इस नयी व्यवस्था में दोषी कोई भी नहीं था परिणाम केवल निजि क्षमताओं और ज़रूरतों के बढ़ने घटने का था।

अग्रज समाज में आखेट के समय आगे रहते थे। अग्रज होने के अधिकार से वह पीछे रहने वालों और अपने आश्रितों की सुरक्षा हित में निर्देश भी देते थे जो पीछे रहने वालों को मानने पड़ते थे। अग्रजों ने समाज के सभी सदस्यों के हितों को ध्यान में रख कर जन्म, मरण तथा विवाह आदि के लिये रस्में भी निर्धारित कीं जो कालान्तर रिवाजो में बदल गयीं ताकि हर कोई समान तरीके से उन का पालन अपने आप कर सके और समाज सुचारू ढंग से चल सके। 

अग्रजों की ज़िम्मेदारी थी कि वह समाज में एक दूसरे के मत-भेदों और झगड़ों का निपटारा कर के सभी को न्याय और सुरक्षा प्रदान करें। इस प्रकार समाज में अग्रजों के आधिकार तथा कार्य क्षैत्र बढ़ते गये। इसी व्यवस्था ने आगे चल कर राजा, प्रजा, राज्य, शासन तथा राजनीति को जन्म दिया।  जैसे जैसे आखेटी और कृषि समुदाय बढ़ने लगे, उन के रहवास और क्षैत्र का भूगौलिक विस्तार भी फैलने लगा। क्रमशः देशों और बहुत समय पश्चात राष्ट्रों का निर्माण हुआ। आरम्भ में समुदाय और समाज नस्लों और जातियों के आधार पर बने थे। राष्ट्रवाद तथा राष्ट्रीयता जैसे परिभाष्कि शब्द तो उन्नीसवीं शताब्दी में उपनेषवाद की उपज बन कर पनपे हैं।

स्वतन्त्रता पर नैतिक प्रतिबन्ध  

समुदाय छोटा हो या बड़ा, जब लोग मिल जुल कर रहते हैं तो समाजिक व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने के लिये नियम ज़रूरी हैं। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता पर कुछ प्रतिबन्ध भी लगाने आवश्यक हैं। कालान्तर सभी मानव समाजों ने ऐसे प्रतिबन्धों को अपने अपने धर्म का नाम दे दिया और वही नियम संसार के धर्मों की आधार शिला बन चुके हैं। 

इस पूरी परिक्रिया की शुरुआत वनवासियों ने भारत में ही की थी। आदि धर्म, से स्नातन धर्म और फिर अधिक लोक-प्रिय नाम हिन्दू धर्म सभी ओर फैलने लगा। सभ्यता के इन नियमों को संकलन करने वाले मनु महाराज थे तथा उन के संकलन को मनुस्मृति कहा जाता है।

प्राकृतिक जीवन के नियम समस्त विश्व में ऐक जैसे ही हैं जो भारत में ही पनपे थे। क्या यह हमारे लिये गर्व की बात नहीं कि विश्व में मानव सभ्यता की नींव सब से पहले भारत में ही पड़ी थी और विश्व धर्म के जन्मदाता भारतीय ही हैं। 

चाँद शर्मा

 

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