हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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28 – पर्यावरण सम्बन्धित पर्व


मानव जीवन परिश्रम तथा दैनिक संघर्षों से भरा रहता है। उत्साह तथा प्रसन्नता के लिये मानव परिवर्तन चाहता है। पर्व नीरस जीवन में परिवर्तन तथा खुशी का रंग भरने के निमित हैं। हिन्दू पर्वों में अहिन्दू भी भाग ले सकते हैं। व्यक्ति चाहें तो त्यौहार को अपने परिवार के साथ या समाज में सामूहिक ढंग से मनायें और चाहे तो ना भी मनायें। हिन्दू पर्व राष्ट्र भावना तथा ऐकता के प्रतीक हैं और भारत की ऋतुओं, पर्यावरण, स्थलों, देश के महा पुरुषों तथा देश में ही घटित घटनाओं के साथ जुड़े हैं। 

स्वच्छता का महत्व

हिन्दू पर्व अध्यात्मिकता, स्वच्छता, तथा सामाजिक संवेदनशीलता का संगम हैं और समाज के सभी वर्गों को मिलन का अवसर प्रदान करते हैं। सभी पर्व सर्व-प्रथम स्वच्छता के महत्व को दर्शाते हैं। सभी पर्वों में पहले घरों, कार्य स्थलों की सफाई, रंगाई, और पुताई की जाती है तथा सजावट की जाती है। निजि शरीर की सफाई के लिये पर्व के दिन स्नान का विशेष महत्व होता है जो पर्व के दिन सर्वप्रथम क्रिया होती है। इस के पश्चात किसी ना किसी रूप में भजन कीर्तन तथा साधना और संगीत का कार्यक्रम होता है। अन्य धर्मों के विपरीत हिन्दू पर्वों में रोने या शोक प्रगट करने का कोई प्रावधान नहीं है।

साँस्कृतिकविविधता में ऐकता

  • कुछ पर्व स्थानीय ऋतुओं तथा जलवायु के साथ जुडे हुये हैं। वह पर्यावऱण तथा सभी प्राणियों के जीवन के महत्व को दर्शाते हैं।
  • कुछ पर्व हमारी सभ्यता तथा जन जीवन के विकास की घटनाओं से जुडे हैं और उन की समृति कराते हैं।
  • कुछ पर्व हिन्दू राष्ट्र नायकों के जीवन की घटनाओं से जुडे हैं।
  • कुछ पर्व प्रान्तीय और प्रदेशों की विभिन्नता को दूसरे प्रदेशों से जोडते तथा स्थानीय जीवन को दर्शाते हैं।
  • कुछ पर्व हिन्दू धर्म के साम्प्रदायों के जनकों तथा महापुरुषों से जुडे हैं और साम्प्रदाय विशेष दूारा मनाये जाते हैं किन्तु अन्य लोग भी उन सें भाग ले सकते हैं।

त्यौहारों की संख्या इतनी अधिक है कि लगभग प्रत्येक मास में चार से पाँच पर्व मनाये जाते हैं। अतः कुछ मुख्य पर्वों का ही संक्षेप में यहाँ वर्णन किया गया है जो अधिक लोकप्रिय होने के कारण पूरे देश में मनाये जाते हैं।  

जलवायु के साथ जुडे पर्व

लोहड़ी लोहडी का त्यौहार पौष मास (जनवरी) में मनाया जाता है जब कि जाडा अपने उरूज पर होता है। यह पर्व मुख्यता पंजाब और उत्तर भारत में मनाया जाता है क्यों कि वहाँ अति अधिक सर्दी पडती है। पर्व से कुछ दिन पहले  बच्चे आस-पास के घरों में जा कर लोक गीत गाते हैं और उपहार स्वरूप लोग उन्हें मूंगफली, रेवडी अथवा पर्व मनाने के लिये धन का अनुदान देते हैं ताकि वह अग्नि जलाने के लिये लकडी आदि खरीद सकें। लोहडी के दिन किसी निर्धारित स्थल पर आग जलायी जाती है और लोग उस के चारों ओर बैठ कर गाते नाचते हैं और ऐक दूसरे को तिल आदि की मिठाई बाँटते हैं जो सर्दी के प्रभाव को कम करने में सहायक होती हैं। इस पर्व में लोग अपने घरों के पुराने वस्त्र तथा सामान को भी अग्नि में जला कर घरों की सफाई भी कर लेते हैं। लोहडी के पश्चात सूर्य दक्षिण कटिबन्ध से उत्तरी कटिबन्ध में प्रवेश करता है और उस के अगले दिन से नव वर्ष की शुरुआत हो जाती है। जितना संयोग प्राकृतिक है उतना ही उल्लेखनीय तथ्य यह है कि महाभारत काल से भी पूर्व भारत वासियों को सूर्य के दक्षिण कटिबन्ध से उत्तर कटिबन्ध में प्रवेश का ज्ञान था जब कि अन्य विश्व वासियों यह समझते थे कि पऋथ्वी स्थिर है और सूर्य उस के चक्कर काटता है। भीष्म पितामह ने बाणों की शौय्या पर से ही कौरवों तथा पाँण्डवों को विदित करा दिया था कि वह अपने प्राण तभी त्यागें गे जब सूर्य उत्तरायण कटिवन्ध में प्रवेश कर जाये गा।

मकर संक्रांन्ति – लोहडी के अगले दिन से नव वर्ष का आरम्भ हो जाता है। यह केवल मानव समाज का पर्व ही नहीं अपितु भारतीय समाज का पर्यावरण के प्रति औपचारिक अनुष्ठान है। दक्षिण भारत में इस पर्व को पोंगल कहा जाता है। इस का सम्बन्ध कृषि क्षेत्र से है। हम इसे ‘भारतीय किसान दिवस ’ भी कह सकते हैं। इसी दिन किसान अपनी मेहनत का फल घर ले कर आते हैं तथा नये उत्पादन का प्रसाद ईश्वर को अर्पण किया जाता है। प्रथम फसल पर पशु पक्षिओं का अधिकार मानते हुये गाय- बैलों को सजाया जाता है। किसान श्रमिकों को भेंट देते हैं । पूजा स्थलों में विशेष पूजा अर्चना की जाती है। घरो तथा गलियों को रंगोली से सजाया जाता है। सभी जगह परिवार के लोग एकत्रित होते हैं। भाई अपनी बहनों को कृषि उत्पादन का भाग भेंट स्वरूप देते हैं। उल्लास के साथ सामूहिक ढंग से पतंग उडायी जाती हैं। युवतियाँ भी चावल या अन्य पदार्थों से मिठाईयां आदि बना कर किसी रमणीक स्थान पर पिकनिक के लिये जाती हैं और मिठाईयों को पक्षियों तथा पशुओं के लिये पत्तों पर ही विछा देती हैं। यह ‘ जियो तथा जीने दो ’ के सिद्धान्त का क्रियात्मिक स्वरूप है।

वसन्त पंचमी यह पर्व भी जलवायु तथा ऋतु के अनुकूल है। वसन्त पंचमी जाडा समाप्त होने तथा वसन्त ऋतु (फरवरी) के आने का घोषणा है। चारों ओर रंग बिरंगे फूल खिल जाते हैं। यह मौसम सर्जनात्मिक वातावरण पैदा करता है। प्रसन्न्ता तथा उल्लास के वातावरण में लोग कला की देवी सरस्वती की आराधना करते हैं। कई स्थानों पर लोग पीले वसन्ती रंग के वस्त्र पहनते है। कुछ तो भोजन में भी पीले रंग को प्राथमिकता देते हैं जो कि पवित्रता तथा अध्यात्मिकता का प्रतीक है। सामूहिक तौर पर स्त्री पुरुष ऐकत्रित हो कर खुशी के लोक गीत गाते हैं। सम्पूर्ण ऋतु आनन्दमयी क्रियाओं, भावनाओं तथा कामदेव को स्मर्पित है। भारतीय  युवा वर्ग तथा व्यवसायिक वर्ग को विदेशी ‘वेलेन्टाईन डे’ ’ मनाने के बजाय ‘वसन्तोत्सव ’ मनाने की प्रथा को प्रोत्साहन देना चाहिये।

होली होली भी ऐक ऋतु पर्व है। ग्रीष्म ऋतु का आरम्भ है। दक्षिणभारत में इसे ‘कामदहन’ कहा जाता है। इसी दिन भगवान शिव ने कामदेव को अपना तीसरा नेत्र खोल कर भस्म कर दिया था। अन्य कथा प्रह्लाद के बारे में है जो होलिका दूारा जलाये जाने के प्रयत्न से ईश्वरीय  कृपा के कारण बच गया था। यह पर्व सामाजिक स्वास्थ तथा सदभावना के साथ भी जुडा है। लोग घरों तथा रहवासों को साफ करते है और सभी बेकार वस्तुओ को अग्नि में डाल कर उन की होली जलाते हैं। इस प्रकार कई रोगों के कीटाणुओं का नाश भी हो जाता है। स्वेच्छा से लोग ऐकत्रित हो कर ऐक दूसरे पर खुशबुदार रंग फैंकते है, ऐक दूसरे के गले मिलते हैं, मिठाईयां भेन्ट करते हैं तथा हँसी मज़ाक कर के छोटे मोटे आपसी मत भेदों और गिले शिकवों को भुला देते हैं। सामूहिक वातावरण में विशेष तौर पर होली के गीत गाये जाते हैं। यह पर्व योरूप वासियों के अप्रैल फ़ूल डे या स्पेन के टोमेटो फेस्टीवल से अधिक सकारात्मिक पर्व है। 

महालय अमावस्या – अश्विन (सितम्बर-अकतूबर) मास में पडने वाली अमावस को काली अमावस कहते हैं तथा यह पखवाडा विशेष तौर पर मृतकों की आत्मा की शान्ति के लिये अनाज दान करने के लिये महत्व पूर्ण माना गया है। लोग निजि और अन्य मृतकों के लिये भी ब्राह्मणों को भोजन दान करते हैं। अन्न दान को विशेष महत्व है क्यों कि विश्व में सभी प्राणियों के जीवन का आधार अन्न ही है। भोजन से शरीर, शरीर से कर्म, तथा कर्मों से ही फल बनते हैँ। प्रत्येक जड और चैतन्य प्राणी को भोजन तो अवश्य चाहिये इस लिये अन्न जैसी जीवन दायनी वस्तु का दान करना सर्वोपरि माना जाता है। 

नवरात्री दुर्गा पूजा यह पर्व नवरात्रि के नाम से भी जाना जाता है तथा वर्ष में दो बार आता है। यह जलवायु, कृषि, तथा स्वास्थ प्रधान पर्व है। भारत में दो बार वार्षिक कृषि होती है। अतः ऐक बार यह पर्व ग्रीष्म काल आगमन में राम नवरात्रि चैत्र (अप्रैल मई) के नाम से जाना जाता है। दूसरी बार इसे दुर्गा नवरात्रि अश्विन(सितम्बर-अकतूबर) मास में मनाया जाता है। यह समय शीतकाल के आरम्भ का होता है। यह दोनो समय ऋतु परिवर्तन के है। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव प्राणियों की मनोदशा तथा शरीर पर भी पडता है जिस के कारण हमारी दैनिक जीवन की क्रियाओं में बदलाव आना भी प्राकृतिक है। अतः इस पर्व के समय दैनिक भोजन में भी बदलाव करने का प्रावधान है जो भारतीय संस्कृति की स्वास्थ के प्रति जागरुक्ता का ज्वलन्त उदाहरण है। कई लोग पूर्णत्या उपवास करते हैं तथा कई सामान्य भोजन में से खाने पीने की वस्तुओं में ही बदलाव करते हैं। हिन्दूओं की इस रस्म ने अन्य सभ्यताओं को भी प्रभावित किया है क्यों कि लगभग इसी समय मध्य ऐशिया के निवासी भी रोज़े रखते हैं। मध्य ऐशिया निवासी मुस्लिम धर्म फैलने के पश्चात भी इस प्रथा को जारी रखे हुये है जिस का हवाला अब कुरान आधारित हो चुका है। दुर्गापूजा समस्त भारत में मनायी जाती है। गुजरात प्रदेश में विशेष उल्लास होता है जहाँ सामूहिक तौर पर सार्वजनिक स्थानो पर स्त्री पुरुष सजावट के साथ नृत्य करते हैं। यह पर्व विदेशी सैलानियों को आकर्षित करने के साथ साथ विदेशों में भी फैल रहा है। बंगाल में भी दुर्गा पूजा विशेष उल्लास के साथ मनायी जाती है।

विजय दशमी – दुर्गा पूजा के दसवें दिन विजय दशमी का पर्व मनाया जाता है जिसे दशहरा भी कहते हैं। भारत में जलवायु के कारण प्राचीन काल से ही यह समय सैनिक अभियानों के लिये उपयुक्त समय रहा है। वर्षा ऋतु की समाप्ति के पश्चात इस समय नदियों में जल स्तर नीचे आ जाता है। अतः युद्ध अभियान अथवा युद्ध अभ्यास के लिये नदियों को पार करने के लिये नौकाओं और सेतुओं की अधिक आवश्यक्ता नहीं पडती। सैनिकों को प्रस्थान करने से पूर्व शास्त्रों की सफाई, देख भाल भी करनी होती है अतः दशहरा के दिन ‘शस्त्र पूजा ’ का विशेष महत्व है। जो क्षत्रिय युद्ध के लिये नहीं जाते वह शस्त्र पूजा के उपरान्त आखेट पर जा कर भी अपने अपने शस्त्रों का और अपनी क्षमता का परीक्षण कर लेते थे। इस समय आखेट पर जाना भी हिन्दू संस्कृति का वन्य जीवों के प्रति जागरूक्ता का प्रमाण है। प्रजन्न काल में पशुओं का आखेट करना वर्जित है। वर्षा ऋतु के पश्चात पशुओं को भोजन के लिये पर्याप्त चारा उपलब्ध होता है और उन के नवजात अपनी देख भाल करने में समर्थ हो चुके होते हैं अतः वर्षा ऋतु से पहले आखेट वर्जित होता है। अन्य बातों के अतिरिक्त दशहरा को ऱाम की रावण के विरुध विजय के उपलक्ष में भी मनाया जाता है। विजय दशमी पर्व बुराई पर मर्यादाओं की विजय का प्रतीक हैं।

नाग पंचमी नाग पँचमी का पर्व तो केवल साँपों को समर्पित है। हिन्दू मतानुसार साँपों को ना तो मानव समाज का शत्रु समझा जाता है ना ही उन्हें शैतान का प्रतीक माना जाता है। वह पर्यावरण का ऐक मुख्य अंग हैं और चिकत्सा के क्षेत्र में उन के विष का महत्वपूर्ण योग दान है। नाग पँचमी के दिन साँपों की पूजा की जाती है और उन्हें दूध पिलाया जाता है। यह पर्व श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचम तिथि को मनाया जाता है। लोग घर के दूार के दोनो ओर गोबर से दो पाँच फन वाले नागों की प्रतिमायें बनाते हैं। प्रतिमायें स्वर्ण, चाँदी, मिट्टी, अथवा हल्दी और स्याही से भी बनाई जा सकती हैं। चतुर्थी के दिन केवल ऐक समय ही भोजन किया जाता है तथा पंचमी के दिन उपवास कर के केवल सायं काल को ही भोजन किया जाता है। प्रसाद स्वरूप कमल के फूल, पँचामृत (दूध, दही, घी, शहद तथा गंगाजल) से तैय्यार किया जाता है और अनन्त, वासुकि, शेष, पद्म, काम्बल, कारक्लोक, अशवतार, धिफराश्ता, शंखपल, कालिया, तक्षक, तथा पिंगल आदि बारह महा सर्पों को अर्पित किया जाता है। जो नाग पूजा करते हैं वह इस दिन पृथ्वी को नहीं खोदते।

देश की जलवायु, पर्यावरण तथा जनजीवन के साथ जुडे इतने पर्व हैं कि प्रत्येक मास सें ऐक से अधिक पर्व मनाये जाते हैं। नाग पंचमी की तरह हनुमान जयन्ती के दिन विशेष तौर पर वानरों को फल और भोजन दिया जाता है। इस प्रकार के रीति रिवाज हिन्दूओं की अन्य जीवों के प्रति संवेदनशीलता को दर्शाते हैं।

पाश्चात्य देशों में भी लोग बडे नगरों के व्यस्त जीवन से तनाव मुक्त-होने के लिये प्राकृति की तरफ भागने लगे हैं, लेकिन वहाँ पर्यावरण और स्थानीय जलवायु को भी ऐक व्यापार बना दिया गया है। उस में भावनाओं का कोई स्थान नहीं रहा। लोग अलास्का के बर्फीले समुद्र तट पर या पर्वतों की चोटियों पर, ज्वालामुखियों को देखने जाते हैं। योरुप और अमेरिका में कई तरह के फेस्टिवल आयोजित करते हैं परन्तु वह भावना रहित व्यापारिक आयोजन होते हैं जहाँ सभी तरफ से आये हुये पर्यटक केवल निजि मौज मस्ती में लिप्त होते हैं या जानवरों का शिकार कर के पर्यावरण को ही नष्ट करते हैं।

इस की तुलना में हिन्दू जन जीवन पूर्णत्या स्थानीय प्रकृति में ही समाया हुआ है। जीवों के अतिरिक्त वन, पवर्त, नदियाँ और जल स्त्रोत्र भी हमारी आस्थाओं के साथ जुडे हुये हैं। कई भव्य मन्दिरों का निर्माण दुर्गम पर्वत शिखरों पर किया गया है। सभी पर्व नदियों तथा सागर के तटों पर मनाये जाते हैं। मेले और त्यौहार मनाने के लिये आसपास के तालाबों, झरनों, टीलों को भी पर्व का स्थल का बना कर महत्व दिया गया है। यह देश के प्रति प्रेम है क्यों कि हम ने देश के पर्यावरण का व्यापार कभी नहीं किया।

चाँद शर्मा

 

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