हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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49 – वीरता की प्रतियोग्यतायें


 स्नातन धर्म के सभी देवी देवता शस्त्र धारण करते हैं। युद्धाभ्यास केवल क्षत्रियों तक ही सीमित नहीं थे, अन्य वर्ग भी इस का प्रशिक्षण ले सकते थे। शस्त्र ज्ञान के क्षेत्र में महिलायें भी पुरुषों के समान ही निपुण थीं। ऋषि वात्सायन कृत काम-सूत्र में महिलाओं के लिये तलवार, छडी, धनुषबाण के साथ युद्धकलाभ्यास के लिये भी प्रोत्साहन दिया गया है।

युद्ध कला साहित्य

विज्ञान तथा कलाओं की भान्ति युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास का उद्गम भी वेद ही हैं। वेदों में अठारह ज्ञान तथा कलाओं के विषयों पर मौलिक ज्ञान अर्जित है। अग्नि पुराण का उपवेद ‘धनुर्वेद’ पूर्णत्या धनुर्विद्या को समर्पित है। अग्नि पुराण में धनुर्वेद के विषय में उल्लेख किया गया है कि उस में पाँच भाग इस प्रकार थेः-

  • यन्त्र-मुक्ता – अस्त्र-शस्त्र के उपकरण जैसे घनुष और बाण।
  • पाणि-मुक्ता – हाथ से फैंके जाने वाले अस्त्र जैसे कि भाला।
  • मुक्ता-मुक्ता – हाथ में पकड कर किन्तु अस्त्र की तरह प्रहार करने वाले शस्त्र जैसे कि  बर्छी, त्रिशूल आदि।
  • हस्त-शस्त्र – हाथ में पकड कर आघात करने वाले हथियार जैसे तलवार, गदा अदि।
  • बाहू-युद्ध – निशस्त्र हो कर युद्ध करना।

युद्ध कला परिशिक्षण

प्रथम शताब्दि में भी में युद्ध कला तथा शस्त्राभ्यास के विषयों पर संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे गये थे। आठवीं शताब्दी के उद्योत्ना कृत ग्रंथ ‘कुव्वालय-माला’ में कई कई युद्ध क्रीडाँओं का उल्लेख किया गया है जिन में धनुर्विद्या, तलवार, खंजर, छडियों, भालों तथा मुक्कों के प्रयोग से परिशिक्षण दिया जाता था।

शिक्षार्थियों की दक्षता आँकने के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित करी जाती थीं। रामायण में राम दूारा शिव धनुष उठा कर अपनी शारीरिक क्षमता का प्रमाण देने का वृतान्त सर्व विदित है। महाभारत मे भी उल्लेख मिलते हैं जब गुरु द्रौणाचार्य ने  कौरव पाँडव राजकुमारों के लिये प्रतिस्पर्धायें आयोजित कीं थीं। सभी राजकुमारों को ऐक मिट्टी के बने पक्षी की आँख पर लक्ष्य साधना था जिस में केवल अर्जुन ही सफल हुआ था। इसी प्रकार उर्जुन नें द्रौप्दी के स्वयंबर के समय नीचे रखे तेल के कढाहे में देख कर ऊपर घूमती हुई मछली की आँख को बींध दिया था। ऐक अन्य महाभारत कालीन उल्लेख में निशस्त्र युद्ध कला का वर्णन है जिस में दो प्रतिदून्दी मुक्कों, लातों, उंगलियों तथा अपने शीश के आघातों से परस्पर युद्ध करते हैं।

निशस्त्र युद्धाभ्यास  – बाहु-युद्ध 

सुश्रुत लिखित सुश्रुत संहिता में मानव शरीर के 107 स्थलों का उल्लेख है जिन में से 49 अंग अति संवेदनशील बताये गये हैं। यदि उन पर घूंसे से या किसी अन्य वस्तु से आघात किया जाये तो मृत्यु हो सकती है। भारतीय शस्त्राभ्यास के समय उन स्थलों पर आघात करना तथा अपने आप को आघात से कैसे बचाना चाहिये सिखाया जाता था।  

लगभग 630 ईस्वी में पल्लवराज नरसिंह्म वर्मन ने कई पत्थर की प्रतिमायें लगवायीं थी जिन को निश्स्त्र अभ्यास करते समय अपने प्रतिदून्दी को निष्क्रय करते दर्शाया गया था।

युद्ध क्रीडा

कुश्ती को मल-युद्ध कहा जाता था। हनुमान, भीम, और कृष्ण के बडे भाई बलराम इस कला में निपुण थे। आज भी भारतीय खिलाडी उन्हीं में से किसी ऐक को अपना आराघ्य मान कर अभ्यास करते हैं।

प्रथम शताब्दी की बुद्ध धर्म की कृति ‘लोटस-सूत्र’ में भी मुक्केबाज़ी, मुष्टिका प्रहार, अंगों को जकडना तथा उठा कर फैंकने आदि के अभ्यासों का उल्लेख मिलता है।   

तीसरी शताब्दी में पतंजली योग सूत्र के कुछ अंश, तथा नट नृत्य कला की मुद्रायें भी युद्ध क्रीडाओं सें शामिल करी गयीं थीं।

प्राचीन काल से कलारिप्पयात, वज्र-मुष्ठि तथा गतका आदि कलायें युद्ध परिशिक्षण का अंग रही हैं।

कलारिप्पयात  

कलारिप्पयात विश्व का सर्व प्रथम युद्ध अभ्यास है। इस की शुरुआत केरल के चौला राजाओं के काल से हुयी। यह अति उग्र और भयानक कलाभ्यास है जिस में लात, घूंसों के आघातों से क्रमशः निरन्तर कठिन और उग्र शस्त्रों का प्रयोग भी किया जाता है। इस में खंजर, तलवार, भाले सभी कुछ प्रयोग किये जाते हैं तथा उन के अतिरिक्त ऐक अन्य भयानक शस्त्र धातु मे बना हुआ चाबुक भी प्रयोग में आता है। खंजर तीन धार वाले तथा अत्यन्त तीखे होते हैं। आघात मर्म स्थलों पर और वध करने की धारणा से किये जाते हैं।कलारिप्पयात  का मुख्य हथियार ऐक लचीली दो घारी तलवार होती है जिसे प्रतिस्पर्धी अपनी कमर पर लपेट कर रखते हैं। युद्ध के समय इसे हाथ में गोलाकार स्थिति में पकड कर रखा जाता है और फिर अचानक प्रतिदून्दी पर अघात किया जाता है। सावधान ना रहने की अवस्था में प्रतिस्पर्धी की मृत्यु निशचित है। यह विश्व भर में ऐक अनूठा शस्त्र है। इस कला का अभ्यास कडे नियमों तथा कुशल गुरू के सन्निध्य में किया जाता है। 

इस कला के शिक्षार्थी शिव और शक्ति को अपना आराध्य मानते हैं। बुद्ध धर्म के साथ साथकलारिप्पयात का प्रसार दूरगामी पूर्वी देशों में भी हुआ। बुद्ध प्रचारक दूरगामी देशों की यात्रा करते थे इस लिये दूसरे धर्म के हिंसक विरोधियों से अपनी सुरक्षा के लिये वह इस कला का प्रयोग भी सीखते थे।इस का प्रयोग केवल प्रतिरक्षा के लिये ही होता था अतः कलारिप्पयात कला बुद्ध धर्म की  अहिंसा की नीति के अनुकूल थी।

वज्र मुष्टि  

वज्रमुष्टि का अर्थ है इन्द्र के वज्र का समान मुष्टिका से प्रहार करना। क्षत्रियों को युद्ध में कई बार अपने वाहन और शस्त्रों के खो जाने के कारण निशस्त्र हो कर पैदल भी युद्ध करना पडता था। यद्धपि युद्ध के नियमानुसार निशस्त्र पर प्रहार करना नियम विरुद्ध था तथापि नियम का उल्लंघन करने वाले भी सभी जगह होते हैं। अतः कुटिल शत्रुओं से युद्ध की स्थिति में क्षत्रिय मल युद्ध तथा मुष्टिका प्रहारों से अपना बचाव करते थे। आघात तथा बचाव के विधान परम्परा गत पीढी दर पीढी सिखाये जाते थे।

वज्र मुष्टि का अभ्यास शान्ति काल में सीखा जाता था और सभी प्रकार के आक्रमण तथा बचाव के गुर सिखाये जाते थे। संस्कृत में उन्हें संस्कृत नट कहा जाता है। नट को जाग्रित करने की अध्यात्मिक  कला  कठिन परिश्रम, अनुशासन नियमों के पालन तथा ऐकाग्रता की साधना के पश्चात ही सम्भव थी। मुसलिमों के आगमन और अधिकरण के पश्चात इस कला के विशेषज्ञ मार दिये गये और यह समाप्त हो गयी। 1804 ईसवी में अँग्रेज़ों ने इस पर पूर्णत्या प्रतिबन्ध लगा दिया। 

गतका

गतका पंजाब का युद्ध कौशल है। यह दो अथवा चार टोलियों में खेला जाता है। प्रतिस्पर्धियों के पास बेंत, तलवार या खडग (खाँडा) आदि हथियार होते हैं तथा गोलाकार ढाल भी होता है। इस को योरुपीय तलवारबाज़ी की तरह ही खेला जाता है और इस कला में पँजाब के निहँग समुदाय की गतका बाजी अति लोकप्रिय प्रदर्शन है।

भारतीय युद्ध कलाओं का निर्यात

भारत के युद्ध कौशल क्रीडायें जैसे कि जूडो, सुम्मो मलयुद्ध बुद्ध प्रचारकों के साथ साथ चीन, जापान तथा अन्य पू्रवी देशों में प्रचिल्लत हुयीं। 

जापान की युद्ध कला सुमराई में भी कई विशेषतायें भारतीय संस्कृति से परिवर्तित हुईं जैसे कि तलवारों की पवित्रता, वीरगति की लालसा तथा अपने स्वामी के लिये प्राणों का बलिदान करने की भावना, मानव का प्राणायाम के माध्यम से पांच महाभूतों के साथ ऐकाकार करना आदि मानसिक्तायें भारत की उपज हैं। यदि मन और शरीर में ऐकाग्रता है तो शरार की क्षमतायें असीमित हो जाती हैं। इस सिद्धान्त को आधार मान कर बुद्ध धर्म के ऐक प्रचारक बौधिधर्म ने शाओलिन मन्दिर का निर्माण चीन में किया था जहां से युद्ध कलाओं की इस परम्परा की शुरुआत हुयी।

  • जूडो तथा कराटे खेल में ऐक शिक्षार्था तथा गुरु के सम्बन्ध भारत की गुरु शिष्य परम्परा के अनुकूल और प्रभावित हैं।
  • इसी प्रकार प्राणायाम के माध्यम से श्वास नियन्त्रण भी ताये क्वान दो कराते का प्रमुख अंश बन गया।

बोधि धर्मः

बोधिधर्म का जन्म कच्छीपुरम, तामिलनाडु के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। 522 ईसवी में वह चीन के महाराज लियांग-नुति के दरबार में आया। उस ने चीन के मोंक्स को कलारिप्पयातकी कला का प्रशिक्षण दिया ताकि वह अपनी रक्षा स्वयं कर सकें।  शीघ्र ही वह शिक्षार्थी इस कला के पारांगत हो गये जिसे कालान्तर शाओलिन मुष्टिका प्रतियोग्यता के नाम से पहचाना गया। बोधिधर्म ने जिस कला के साथ प्राणा पद्धति (चीं) को भी संलगित किया और उसी से आक्यूपंक्चर का समावेश भी हुआ। ईसा से 500 वर्ष पूर्व जब बुद्ध मत का प्रभाव भारत में फैला तो नटराज को  बुद्ध धर्म संरक्षक के रूप में पहचाना जाने लगा। उन का नया नामकरण नरायनादेव ( चीनी भाषा में  ना लो यन तिंय) पडा तथा उन्हें पूर्वी दिशा मण्डल के संरक्षक के तौर पर जाना जाता है।

वल्लमकली नाव स्पर्धा

केरल में वल्लमकली नाव स्पर्धा ऐक आकर्षक क्रीडा है जिस में सौ से अधिक नाविक ऐक साथ सागर में नौका दौड की प्रतियोग्यता में भाग लेते हैँ। इस के सम्बन्ध में ऐक रोचक कथा हैः 

चार सौ वर्ष पूर्व चन्दनवल्लम मुख्यता युद्ध में प्रयोग किये जाते थे। चन्दनवल्लम बनाने के लिये 20 से 30 लाख सिक्कों तक की लागत आती था और निर्माण में दो वर्ष से अधिक समय लगता था।  

चम्पाकेसरी प्रदेश के राजा ने अपने मुख्य नाव निर्माता को आदेश दिया कि वह ऐक ऐसी नाव का निर्माण करे जिस में ऐक सौ सिपाही  ऐक साथ नाव खेने का काम कर सकें। इस प्रकार की क्षमता प्राप्त कर के उस ने अपने प्रतिदून्दी कायामुखम के राजा को प्राजित किया।

प्राजित राजा ने गुप्तचर भेज कर चन्दनवल्लम के बारे में जानकारी प्राप्त करनी चाही। ऐक गुप्तचर नें नाविक की पुत्री को प्रेम जाल में फाँस कर उस की माता का स्नेह भी प्राप्त कर लिया। फलस्वरूप माँ-बेटी दोनो ने नाविक पर प्रभाव डाल कर उसे भेजे गये गुप्तचर को नाव निर्माण की कला सिखाने के लिये विवश कर दिया।

नाव निर्माण की कला सीखने के पश्चात अगले ही दिन गुप्तचर चुपचाप अपने प्रदेश चम्पाकेसरी चला गया। कायामुखम के राजा ने नाविक निर्माता को बन्दी बना कर कारागार में डाल दिया। परन्तु उसे शीघ्र ही रिहाई मिल गयी क्यों कि अगली लडाई में कायामुखम को पुनः प्राजय का मुहँ देखना पडा। पता चला कि नाविक ने केवल नाव बनाने की कला ही सिखाई थी परन्तु चन्दनवल्लम का वास्तविक ज्ञान नहीं दिया था।

वल्लमकली क्रीडा भिन्न भिन्न जातियों, धर्मों तथा प्रदेशों के लोगों को ऐक सूत्र में बाँधती है। नौका पर बैठे सभी शरीर ऐक साथ विजय लक्ष्य के सूत्र में बँध जाते हैं। आजकल भी यह नौका दौड पर्यटकों को आकर्षित करती है।

चाँद शर्मा

40 – देव-वाणी संस्कृत भाषा


संस्कृत विश्व की सब से प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है परिपूर्ण भाषा। संस्कृत पू्र्णतया वैज्ञायानिक तथा सक्षम भाषा है। संस्कृत भाषा के व्याकरण नें विश्व भर के भाषा विशेषज्ञ्यों का ध्यानाकर्षण किया है तथा उन के मतानुसार भी यह भाषा कम्पयूटर के उपयोग के लिये सर्वोत्तम भाषा है। 

मूल ग्रंथ

संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी लिपि है। इस भाषा को ऋषि मुनियों ने मन्त्रों की रचना कि लिये चुना क्योंकि इस भाषा के शब्दों का उच्चारण मस्तिष्क में उचित स्पन्दन उत्पन्न करने के लिये अति प्रभावशाली था। इसी भाषा में वेद प्रगट हुये, तथा उपनिष्दों, रामायण, महाभारत और पुराणों की रचना की गयी। मानव इतिहास में संस्कृत का साहित्य सब से अधिक समृद्ध और सम्पन्न है। संस्कृत भाषा में दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, विज्ञान, ललित कलायें, कामशास्त्र, संगीतशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, हस्त रेखा ज्ञान, खगोलशास्त्र, रसायनशास्त्र, गणित, युद्ध कला, कूटनिति तथा महाकाव्य, नाट्य शास्त्र आदि सभी विषयों पर मौलिक तथा विस्तरित गृन्थ रचे गये हैं। कोई भी विषय अनछुआ नहीं बचा।

पाणनि रचित अष्याध्यायी

किसी भी भाषा के शब्दों का शुद्ध ज्ञान व्याकरण शास्त्र कराता है। पाणनि कृत अष्याध्यायी संस्कृत की व्याकरण ईसा से 300 वर्ष पूर्व रची गयी थी। स्वयं पाणनि के कथनानुसार अष्टाध्यायी से पूर्व लग भग साठ व्याकरण और भी उपलब्द्ध थे।अष्याध्यायी विश्व की सब से संक्षिप्त किन्तु पूर्ण व्याकरण है। इस में भाषा का विशलेषण कर के शब्द निर्माण के मूल सिद्धान्त दर्शाये गये हैं। अंक गणित की पद्धति का प्रयोग कर के सभी शब्दों की रचना के सिद्धान्त संक्षिप्त में ही सीखे जा सकते हैं। संस्कृत में शब्द निर्माण पूर्णत्या वैज्ञानिक और तर्क संगत है। उदाहरण के लिये सिंहः शब्द हिंसा का प्रतीक है इस लिये हिंसक पशु को सिहं की संज्ञा दी गयी है। इसी प्रकार सम्पूर्ण विवरण स्पष्ट, संक्षिप्त तथा सरल हैं।

भाषा विज्ञान के क्षेत्र में पाणनि रचित अष्याध्यायी निस्संदेह ऐक अमूल्य देन है। अष्टाध्यायी के आठ अध्याय और चार हजार सूत्र हैं जिन में विस्तरित ज्ञान किसी कम्प्रेस्सड  कमप्यूटर फाईल की तरह भरा गया है। उन में स्वरों (एलफाबेट्स) का विस्तृत विशलेषण किया गया है। इस का ऐक अन्य आश्चर्यजनक पक्ष यह भी है कि अष्टाध्यायी का मूल रूप लिखित नही था अपितु मौखिक था। उसे समर्ण रखना होता था तथा श्रुति के तौर पर पीढी दर पीढी हस्तांत्रित करना होता था। अभी अष्टाध्यायी के लिखित संस्करण उपलब्द्ध हैं, और व्याख्यायें भी उपलब्द्ध हैं। किन्तु फिर भी शब्दों की मूल उत्पत्ति को स्मर्ण रखना आवश्यक है। संस्कृत व्याकरण के ज्ञान के लिये अष्टाध्याय़ी मुख्य है।

पाणनि के पश्चात कात्यायन तथा पतंजलि जैसे व्याकरण शास्त्रियों ने भी इस ज्ञान को आगे विकसित किया था। उन के अतिरिक्त योगदान से संस्कृत और सुदृढ तथा विकसित हुयी और प्राकाष्ठा तक पहुँच कर बुद्धिजीवियों की सशक्त भाषा रही है 

संस्कृत भाषा की वैज्ञ्यानिक्ता

प्राचीन काल से ही भारत का भाषा ज्ञान ग्रीक तथा इटली से कहीं अधिक श्रेष्ठ तथा वैज्ञिानिक था। भारत के व्याकरण शास्त्रियों ने योरूपियन भाषा विशेषज्ञ्यों को शब्द ज्ञान का विशलेषण करने की कला सिखायी। यह तब की बात है जब अपने आप को आज के युग में सभी से सभ्य कहने वाले अंग्रेज़ों को तो बोलना भी नहीं आता था। आज से ऐक हजार वर्ष पूर्व वह उधार में पायी स्थानीय अपभ्रंश भाषाओं में ‘योडलिंग कर के ऐक दूसरे से सम्पर्क स्थापित किया करते थे। अंग्रेजी साहित्य का इतिहास 1350 से चासर रचित ‘केन्टरबरी टेल्स के साथ आरम्भ होता है जिसे फादर आफ इंग्लिश पोयट्री कहा जाता है। विश्व की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेज़ी के साथ संस्कृत की सीमित तुलना ही कुछ इस प्रकार करें तो संस्कृत की वैज्ञ्यानिक प्रमाणिक्ता के लिये हमें विदेशियों के आगे गिडगिडाने की कोई आवश्क्ता नहीं हैः-

  • वर्ण-माला – व्याकरण में किसी भी छोटी से छोटी ध्वनि को वर्ण या अक्षर कहते हैं और वर्णों के समूह  वर्णमाला। अंग्रेजी में कुल 26 वर्ण (एलफाबेट्स) हैं जिस का अर्थ है कि 26 शुद्ध ध्वनियों को ही लिपिबद्ध किया जा सकता है। यह 26 ध्वनियां भी प्राकृतिक नहीं है जैसे कि ऐफ़, क्यू, डब्लयू, ऐक्स आदि एलफाबेट्स को छोटे बच्चे आसानी से नहीं बोल सकते हैं। इस की तुलना में संस्कृत वर्णमाला में 46 अक्षर हैं जो संख्या में अंग्रेज़ी से लगभग दुगने हैं और प्राकृतिक ध्वनियों पर आधारित हैं।
  • स्वर और व्यञ्जनों की संख्या – अंग्रेजी और संस्कृत दोनों भाषाओं में अक्षरों को स्वर (कान्सोनेन्ट्स) और व्यञ्जन (वोवल्स) की श्रेणी में बाँटा गया है। स्वर प्राकृतिक ध्वनियाँ होती हैं। व्यञ्जनों का प्रयोग प्राकृतिक ध्वनियों को लम्बा या किसी वाँछित दिशा में घुमाने के लिये किया जाता है जैसे का, की कू चा ची चू आदि। अंग्रेजी भाषा में केवल पाँच वोवल्स हैं जबकि संस्कृत में उन की संख्या 13 है। विश्व की अन्य भाषाओं की तुलना में संस्कृत के स्वर और व्यंजनो की संख्या इतनी है कि सभी प्रकार की आवाजों को वैज्ञानिक तरीके से बोला तथा लिपिबद्ध किया जा सकता है।
  • सरलता – अंग्रेज़ी भाषा में बहुत सी ध्वनियों को जैसे कि ख, ठ. ढ, क्ष, त्र, ण आदि को वैज्ञ्यानिक तरीके से लिखा ही नहीं जा सकता। अंग्रेज़ी में के ऐ टी – कैट लिखना कुछ हद तक तो माना जा सकता है क्यों कि वोवल ‘ऐ’ का उच्चारण भी स्थाई नहीं है और रिवाज के आधार पर ही बदलता रहता है। लेकिन सी ऐ टी – केट लिखने का तो कोई वैज्ञ्यानिक औचित्य ही नहीं है। इस के विपरीत देवनागरी लिपि का प्रत्येक अक्षर जिस प्रकार बोला जाता है उसी प्रकार ही लिखा जाता है। अंग्रेज़ी का ‘डब्लयू किसी प्राकृतिक आवाज को नहीं दर्शाता, ना ही अन्य अक्षर ‘व्ही से कोई प्रयोगात्मिक अन्तर को दर्शाता है। दोनो अक्षरों के प्रयोग और उच्चारण का आधार केवल परम्परायें हैं, वैज्ञ्यानिक नहीं। अतः सीखने में संस्कृत अंग्रेज़ी से कहीं अधिक सरल भाषा है।
  • उच्चारण – कहा जाता है अरबी भाषा को कंठ से और अंग्रेजी को केवल होंठों से ही बोला जाता है किन्तु संस्कृत में वर्णमाला को स्वरों की आवाज के आधार पर कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अन्तःस्थ और ऊष्म वर्गों में बाँटा गया है। फिर शरीर के उच्चारण अंगों के हिसाब से भी दन्तर (ऊपर नीचे के दाँतों से बोला जाने वाला), तलबर (जिव्हा से), मुखोपोत्दर (ओष्ट गोल कर के), कंठर ( गले से) बोले जाने वाले वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। अंग्रेजी में इस प्रकार का कोई विशलेशण नहीं है सब कुछ रिवाजानुसार है।

यह संस्कृत भाषा की अंग्रेज़ी भाषा की तुलना में सक्ष्मता का केवल संक्षिप्त उदाहरण है। 1100 ईसवी तक संस्कृत समस्त भारत की राजभाषा के रूप सें जोडने की प्रमुख कडी थी।

भारत की सांस्कृतिक पहचान

प्रत्येक व्यक्ति, जाति तथा राष्ट्र की पहचान उस की वाणी से होती है। आज संसार में इंग्लैण्ड जैसे छोटे से देश की पहचान ऐक साम्राज्य वादी शक्ति की तरह है तो वह अंग्रेज़ी भाषा की बदौलत है जिसे उधार ली भाषा होने के बावजूद अंग्रेज़ जाति ने राजनैतिक शक्ति का प्रयोग कर के विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के तौर पर स्थापित कर रखा है। इस की तुलना में इच्छा शक्ति और आत्म सम्मान की कमी के कारण संसार की ऐक तिहाई जनसंख्या होने के बावजूद भी भारतवासी अपनी तथाकथित ‘राष्ट्रभाषा’ हिन्दी को विश्व में तो दूर अपने ही देश में ही स्थापित नहीं कर सके हैं। हमारे पूर्वजों ने तो हमें बहुत कुछ सम्मानजनक विरासत में दिया था परन्तु यह ऐक शर्मनाक सच्चाई है कि हमारी वर्तमान पीढियाँ पूर्वजों दूारा अर्जित  गौरव के बोझ को सम्भाल पाने में असमर्थ रही हैं। उसी गौरव की ऐक उपलब्द्धी संस्कृत भाषा है जिस की आज भारत में ही उपेक्षा की जा रही है। 

हम मुफ्त में अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि संस्कृत की गूंज कुछ साल बाद अंतरिक्ष में सुनाई दे सकती है। अमेरिका संस्कृत को ‘नासा’ की भाषा बनाने की कसरत में जुटा है क्योंकि संस्कृत ऐसी प्राकृतिक भाषा है, जिसमें सूत्र के रूप में कंप्यूटर के जरिए कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में भेजा जा सकता है।

रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों पर शोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं। दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालय संस्कृत के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्तकरने के लिए जुटे हैं, लेकिन संस्कृत को समर्पित उसके वास्तविक अध्ययन के लिए एक भी संस्कृत विश्वविद्यालय भारत में नहीं है। हमारे देश में तो इंग्लिश बोलना शान की बात मानी जाती है। इंग्लिश नहीं आने पर लोग आत्मग्लानि अनुभव करते है जिस कारण जगह जगह इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स चल रहें है।

भारत की सरकार और लोगों को भी अब जागना चाहिए और अँग्रेजी की गुलामी से बाहर निकाल कर अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करना चाहिए। भारत सरकार को भी ‘संस्कृत’ को नर्सरी से ही पाठ्यक्रम में शामिल करके देववाणी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना चाहिए। केवल संस्कृत ही भारत के प्राचीन इतिहास तथा विज्ञान को वर्तमान से जोडने में सक्षम है। यदि हम भारत में संस्कृत की अवहेलना करते रहे तो हम अपने समूल को स्वयं ही नष्ट कर दें गे जो सृष्टि के निर्माण काल से वर्तमान तक की अटूट कडी है। नहीं तो फिर हमें संस्कृत सीखने के लिये विदेशों में जाना पडे गा। 

चाँद शर्मा

 

17 – पाठ्यक्रम मुक्त हिन्दू धर्म


हिन्दू धर्म पूर्णत्या पाठ्यक्रम मुक्त है। हर कोई अपनी इच्छानुसार अपने लिये धार्मिक पुस्तकों का चैयन कर सकता है। गूढ वैज्ञानिक तथ्यों के लिये वेद और उपनिष्द, दार्शनिक्ता के लिये दर्शन शास्त्र, ऐतिहासिक गाथाओं के लिये महाकाव्य और पुराण, मनोरंजन और नैतिकता के लिये कथायें और केवल रटने के लिये कई तरह के गुटके भी उपलब्ध हैं। आप जो चाहें पढें, सुनें या सुनायें जैसी स्वतन्त्रता और किसी धर्म में नहीं है।

हिन्दू धर्म के विशाल पुस्तकालय को पढ पाना आसान नहीं। सभी व्यक्तियों में रुचि और क्षमता भी ऐक जैसी नहीं होती। अतः हर कोई अपने लिये पाठन सामिग्री का चुनाव करने के लिये स्वतन्त्र है। हिन्दू धर्म में बाईबल या कुरान की तरह कोई एक पुस्तक नहीं जिस का निर्धारित पाठ करना हिन्दूओं के लिये अनिवार्य हो। यह प्रत्येक हिन्दू की अपनी इच्छा पर निर्भर करता है कि वह किसी एक पुस्तक को, अथवा सभी को पढे, और चाहे तो वह किसी को भी ना पढे़।

साहित्य चैयन की स्वतन्त्रता

हिन्दू धर्म की विचारधारा किसी एक गृंथ पर नही टिकी है। हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का विशाल पुस्तकालय उपलब्ध है। जिस में अध्यात्मवाद, आत्मवाद, ऐक ईश्वर, अनेक देवी देवताओं, पेडों, पर्वतों, नदियों, नगरों, पत्थरों तथा पशु पक्षियों तक में भगवान को साकार कर लेने का मार्ग दर्शाया गया है। जो ईश्वर को साकार ना मानना चाहें वह उसे निराकार भी मान सकते हैं। अपने भीतर भी ईश्वर को देखना चाहें तो इस विषय पर भी विशाल साहित्य भण्डार उप्लब्ध है। जिस प्रकार की चाह हो, हिन्दू धर्म के पास उसी प्रकार की राह दिखाने की क्षमता है। हिन्दू धर्म के साम्प्रदायों के पास भी अपने अपने विशाल साहित्य कोष उप्लब्ध हैं।

हिन्दू धर्म में ज्ञान अर्जित करना सभी प्राणियों का निजि लक्ष्य है। किसी इकलौती पुस्तक पुस्तिका पर इमान कर बैठने के लिये कोई हिन्दू बाध्य नहीं है। हिन्दू ग्रंथो का मूल्यांकन, परिवर्तन, तथा संशोधन भी किया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों को पूर्ण स्वतन्त्रता से व्यक्त कर सकता है। वह चाहे तो उन का मनन करे, व्याख्या करे, उन की आलोचना करे या उन पर अविशवास करे। हिन्दू व्यक्ति यदि चाहे तो स्वयं भी कोई ग्रंथ लिख कर ग्रंथों की सूची में बढ़ौतरी भी कर सकता है।

भाषाओं की विविधता

हिन्दू धर्म के प्राचीन तथा मौलिक ग्रंथ संस्कृत भाषा में हैं जो कि विश्व की प्रथम भाषा है। वह देव भाषा तथा सभी भारतीय भाषोओं की जननी कही जाती है। परन्तु इस के अतिरिक्त बंगला, मराठी, तामिल, मलयालम, पंजाबी, उर्दू, असमी, उडिया, तेलगू भाषाओं तथा उन्हीं के अनगिणित अपभ्रंश संस्करणों को भी मौलिक ग्रन्थों की तरह ही आदर से पढा जाता है। हिन्दू धर्म में इस प्रकार की धारणा कदापि नहीं कि भगवान केवल किसी ऐक ही भाषा अथवा किसी विशेष लिपि को पवित्र मान कर उस भाषा लिपि पर ही आश्रित हैं। हिन्दू मतानुसार ईश्वर को तो सभी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त है। वह संकेतो, चिन्हों, मुद्राओं और केवल मूक भावों को भी समझने में सक्षम हैं।

हिन्दू धर्म की परिवर्तनशीलता

हिन्दू धर्म ने स्दैव ही अपनी विचारधारा को समयनुसार परिवर्तनशील रखा है। धर्म संशोधक हिन्दू धर्म के ही उपासकों में से अग्रगणी हुये हैं। उन्हें अन्य धर्मों से कभी आयात नही किया गया। बौध मत, जैन मत, सिख सम्प्रदाय, आर्य समाज तथा अन्य कई गुरूजनों के मत, मठ इस परिक्रिया के ज्वलन्त उदाहरण हैं। फलस्वरूप कई बार हिन्दू विचारधारा में वैचारिक मतभेद भी पैदा होते रहे हैं परन्तु सागर की लहरों की तरह कालान्तर वह भी हिन्दू महा सागर में ही विलीन होते गये हैं। सुधारकों तथा नये विचारकों को भी हिन्दू धर्म के पूजास्थलों में आदरयुक्त तरीके से स्थापित किया गया है। यह हिन्दू धर्म की समयनुसार परिवर्तनशीलता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। स्नातन हिन्दू धर्म विश्व भर में विभिन्नता में एकता की इकलोती अदभुत मिसाल है।  

प्रशिक्षण सम्बन्धी मान्यतायें

यह सम्भव नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति धर्म सम्बन्धी सभी पुस्तकों को पढ ले और उन्हें समझने की क्षमता और सामर्थ भी रखता हो। इस लिये यदि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू माना जाता है जितने धर्म गृन्थों के लेखक थे। जिस प्रकार इस्लाम में कुछ लोग कुरान को मौखिक याद कर के हाफिज की उपाद्धि पा लेते हैं उसी प्रकार हिन्दूओं में भी ब्राहम्णों का शैक्षिक आधार पर वर्गी करण है। वेदपाठी ब्राह्मण, दूवेदी ( दो वेदों के ज्ञाता), त्रिवेदी (तीन वेदों के ज्ञाता), चतुर्वेदी ब्राह्मण (चार वेदों के ज्ञाता) भी इसी प्रकार बने किन्तु आजकल साधारणत्या यह संज्ञायें केवल जन्मजात पहचान स्वरूप हैं और इन का योग्यता के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।

सामूहिक ज्ञान

हिन्दू धर्म को अन्य धर्मों की भान्ति किसी व्यक्ति विशेष ने नहीं सर्जा। हिन्दू साहित्य के मौलिक गृंथ महान ऋषियों के ज्ञान विज्ञान तथा उन की साधना के अनुभवों का विशाल भण्डार हैं जिस का उपयोग बिना किसी भेद भाव के समस्त मानवों के लिये आज भी किया जा सकता है। उन में संकलित अध्यात्मिक तथ्यों को आज भी विज्ञान तथा प्राकृतिक नियमों की कसौटी पर परखा जा सकता हैं। ऋषियों दूारा प्रमाणित अनुभवों की सामूहिक ज्ञान धारा ऐक से अनेकों पीढ़ियों तक निरन्तर इसी प्रकार बहती रही है।

आदि मानव सूर्योदय, चन्द्रोदय, तारागण, बिजली की चमक, गरज, छोटे बडे जानवरों के झुण्ड, नदियां, सागर, विशाल पर्वत , महामारी तथा मृत्यु के रहस्यों को जानने में प्रयत्नशील रहा, अपने साथियों से विचार-विमर्श कर के अपनी शोध-कथाओं का सृजन तथा संचय भी करने लगा। कलाकारों ने उन तथ्यों को आकर्ष्कि चित्रों के माध्यम से अन्य मानवों को भी दर्शाया। महाशक्तियों को महामानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया। साधानण मानवों का अपेक्षा वह अधिक शक्तिशाली थे अतः उन के अधिक हाथ और सिर बना दिये और उनकी मानसिक तथा शरीरिक बल को चमत्कार की भाँति दर्शाया गया। हिन्दू धर्म के पौराणिक गृंथ और उन पर आधारित आकर्षक चित्रावली अपने में पूर्ण वैज्ञायानिक प्रमाणिक्ता समेटे हुए गूढ. दार्शनिक्ता को सरलता से समझाने में अति सक्ष्म है। वेद तथा उपनिष्द समस्त मानव जाति के लिये ज्ञान का भण्डार हैं। ऋषि ही प्राचीन काल के वैज्ञानिक थे।

प्रधीनता के प्रतिबन्ध

जब कोई देश प्राधीन होता है तो वहाँ का शासक विजेता के देश धर्म तथा संस्कृति को उच्च सिद्ध करने के लिये हर यत्न करता है। इस के लिये वह शासित लोगों में उन के स्थानीय धर्म एवं संस्कृति के प्रति घृणा भाव पैदा करने की कोशिश भी करता है। इस कोशिश में वह यह भी नहीं देखता कि जो विधि वह अपना रहा है वह नैतिक है या अनैतिक, उस का ध्यान तो सत्ता को ही अपने हाथ में करने पर केन्द्रित रहता है। हिन्दू धर्म के इतिहास में भी ऐसा कई बार हुआ है और आज भी कई राजनैतिक स्वार्थों के कारण से हो रहा है।

 विदेशी आक्रान्ताओं के भारत आगमन के पश्चात हिन्दू साहित्य नष्ट किया गया था जिस कारण उस का बहुत कुछ भाग आज उप्लब्द्ध नहीं है। कई मौलिक ग्रंथों में संशोधन भी हुये तथा कई ग्रन्थों में दुर्भावनाओं के कारण मिलावटी छेड छाड भी की गयी। उन की पहचान तथा उन में पुनः संशोधन करने की आवश्यक्ता भी है। किन्तु हिन्दू धर्म का सकारात्म्कि पक्ष इस प्रकार के संशोधनों का विरोध भी नहीं करता। किसी धार्मिक ग्रंथ का समयानुसार पुनः सम्पादन किया जा सके, इस प्रकार की मानसिक उदारता अन्य किसी धर्म में नहीं है।

अंग्रेजी शासन की नींव भारत में पक्की करने के लिये उन्हें भारतीयों को निजि जीवन मूल्यों तथा मर्यादाओं से पथ भ्रष्ट कर के कुछ भारतीय सेवकों की आवश्यक्ता थी जो अंग्रेजी मान्यताओं का संरक्षण और प्रचार भारत में करें । उस लक्ष्य को पाने के लिये अंग्रेजी शासकों ने भारत में ऐक शिक्षा पद्धति अपनायी जिसे आम तौर पर लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति के नाम से जाना जाता है। विद्यालयों के माध्यम से भारत के प्राचीन ज्ञान को धर्मान्धता, दकियानूसी, और पिछडापन कहा गया। उस की तुलना में अंग्रेजी शिक्षा को आधुनिक, वैज्ञिानिक तथा प्रगतिशील दिखाया गया। रोजी रोटी कमाने के लिये अंग्रेजी शिक्षा, अंग्रेजी वेष भूषा, अंग्रेजी शिष्टाचार को ही प्राथमिक्ता दी गई। इस कारण धीरे धीरे भारतीय ज्ञान और आदर्श या तो लुप्त होते गये या उन्हें पाश्चात्य जगत की उपलब्द्धियाँ ही समझा जाने लगा। उन पर विदेशी रंग चढ गया।

सरकारी क्षेत्रों में तथा शिक्षा के संस्थानों पर मैकाले पद्धति के नवनिर्मित बुद्धजीवियों का अधिकार होता गया। दुर्भाग्य इस सीमा तक बढा कि भारतीय ज्ञान विज्ञान को जवाहरलाल नेहरू जैसे अंग्रेजी छाप बुद्धिजीवियों ने तो गोबर युग कह कर नकार ही दिया तथा वह केवल उपहास का विषय बन कर दकियानूसी की पहचान बन कर रह गया। भारत के नवयुवक पीढी अपने पूर्वजों के ज्ञान से पूर्णत्या अपरिचित हो गयी।

यह उचित नहीं कि हम अपने विविध विषयों पर रचे गये इन ज्ञान कोषों को बिना पढ़े या देखे ही नकार दें। वैचारिक भिन्नतायें हो सकती हैं किन्तु इस का यह अर्थ भी नहीं कि हम अपने पुरखों के पूर्णत्या मौलिक ज्ञान विज्ञान, साधना और अनुभूतियों की बिना परखे ही अवहेलना करें और उन का केवल उपहास ही उडायें।

जन्म और स्वेच्छा का आधार

अन्य धर्मों में परम्परायें जटिल हैं। बिना बाईबल पढे कोई ईसाई नहीं कहलाता। उन के लिये चर्च जाना भी अनिवार्य है। इसी प्रकार बिना कुरान के कोई मुस्लमान नहीं बनता उन के लिये मस्जिद में इकठ्ठे हो कर दिन में पाँच बार नमाज़ पढना भी अनिवार्य है। इन दोनो की तुलना में हिन्दू धर्म में हिन्दू रीति से जीवन व्यतीत करने के लिये कोई विशेष कर्म अनिवार्य नहीं हैं। स्वेच्छा ही प्रधान है। हिन्दू धर्म कर्म प्रधान है। सभी को पर्यावरण, अपने मातापिता, भाई बहन, पति पत्नि, संतान, पशुपक्षियों, पेड पौधों के प्रति अपने अपने कर्तव्यों का निर्वाह जियो और जीने दो के आधार पर करना चाहिये। कर्तव्यों को ठीक तरह से निभाने के लिये राति रिवाज दिशा निर्देशन करते हैं परन्तु बाध्य नहीं करते। यदि कोई कर्तव्यों को किसी अन्य प्रकार से अच्छी तरह से कर सकता है तो उस को भी पूरी स्वतन्त्रता है। हर प्रकार से हिन्दू धर्म ऐक प्रत्यक्ष मार्ग दर्शक धर्म है।

जो धर्म तर्क की कसौटी पर परखे जाने से हिचकचाते हैं वहाँ कट्टरवाद, अन्ध विशवास तथा अन्य धर्मों के प्रति संशय और घृणा की भावना उत्पन्न होती है। उन में भय तथा प्रलोभनों के माध्यम से स्वधर्मियों को बाँध कर रखा जाता है। उन्हीं धर्मों मे कट्टरवाद और अन्य धर्मों के प्रति आतंकवाद की भावनायें पैदा होने लगती हैं। स्वेच्छा तथा जन्म के आधार से हिन्दू धर्म को अपनाने का प्रावधान ही हिन्दू धर्म की विशिष्ट शक्ति है। जिस धर्म में इतनी वैचारिक स्वतन्त्रता हो उस में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं पनप सकती और जिस धर्म में कट्टरपंथी मानसिक्ता नहीं होती उस धर्म के अनुयायी किसी अन्य व्यक्ति का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये उसे प्रलोभनों से प्रोत्साहित भी नहीं करते। ना ही वह किसी का धर्म परिवर्तन करवाने के लिये हिंसा का सहारा लेते हैं। उन में आतंकवादी विचारधारा भी नहीं होती।

सर्व संरक्षण का धर्म

स्थानीय परियावकण का संरक्षण करते हुये, स्थानीय परम्पराओं का पालन करते हुये प्राकृतिक जीवन जीना तथा दूसरों को जीने देना ही हिन्दू धर्म है। हिन्दू पुस्तकालय में सभी विषयों पर मौलिक ग्रंथ उप्लब्द्ध हैं किन्तु हिन्दू बने रहने के लिये किसी विशेष ग्रंथ या सभी ग्रंथों का ज्ञान होना अनिवार्य नहीं है। हिन्दू धर्म की वैचारिक व्याख्या इस अपभ्रंश दोहे में पूर्णत्या समायी पुई हैः-

             पोथी पढ के जग मुआ पंडित भयो ना कोय

             ढाई आखर प्रेम के पढे सो पंडित होय।।

स्पष्ट है कि हिन्दू धर्म ने सृष्टि के सभी प्राणियों को अपने आंचल में स्थान दिया है। समस्त मानव जो स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह निस्संदेह हिन्दू हैं। जो भी प्राक्रतिक जीवन व्यतीत करते हों, स्थानीय प्राकृतिक साधनों का संरक्षण करते हों, जियो और जीने दो कि सिद्धान्त पर कृत संकल्प हों वह नाम से चाहे अपने आप को कुछ भी कहें, वह वास्तव में हिन्दू ही हैं। केवल ग्रंथों को पढने से कोई हिन्दू नहीं बनता।

चाँद शर्मा

 

15 – विशाल महाभारत


महाभारत को पहले भारत संहिता कहा जाता था। ज्ञान तथा जीवन दर्शन का ग्रँथ होने के कारण इसे पंचम वेद भी कहते हैं। कालान्तर इस का नाम महाभारत पडा। विश्व साहित्य में महाभारत सब से विशाल महाकाव्य है जिस के रचनाकार मह़ृर्षि वेद व्यास थे। रामायण की तरह इस महाकाव्य को भी विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है तथा भारत के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के लेखक भी इस ग्रंथ से प्ररेरित हुये हैं। महाभारत का रूपान्तर काव्य के अतिरिक्त कथा, नाटक, और कथा-चित्रावलियों में भी हो चुका है। भारत की समस्त नृत्य शैलियों तथा संगीत नाटिकाओं में भी इस महाकाव्य के कथांशों को दर्शाया जाता है। महाभारत कथाओं पर कितने ही श्रंखला चल-चित्रों का निर्माण भी हो चुका है तथा अभी भी इस महाकाव्य का कथानक इतना सशक्त है कि आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर के बेनहूर, हैरी पाटर, अवतार और लार्ड आफ दि रिंग्स से भी अधिक भव्य चल-चित्रों का निर्माण सफलता पूर्वक किया जा सकता है।

भारतीय जीवन का चित्रण

यह महाकाव्य भारतीय जीवन के सभी अंगों का विस्तरित चित्रण करता है। प्राचीन काल में सेंसर शिप नहीं होती थी। शेक्सपियर आदि के नाटकों के मूल संस्करणों में भद्दी गालियों से भरे सम्वाद भी मिलते हैं जो आजकल विश्व विद्यालयों के संस्करणों में पुनः सम्पादित कर के निकाल दिये जाते हैं। यथार्थवाद के नाम पर भी कई चल चित्रों में गाली गलौच वाली भाषा के संवाद होते हैं किन्तु महाभारत के रचना कार ने अपनी लेखनी पर स्वेच्छिक नियंत्रण रखा है। कौरवों तथा पाँडवों के जन्म से जुडे़ कथानक को अलंकार के रूप से लिखा गया है  ताकि उस में कोई अशलीलता ना आये। पाठक चाहें तो उसे यथार्थ से जोड कर देखें, चाहे तो ग्रंथकार की कल्पना को सराहें। किन्तु जो कुछ और जैसे भी लिखा है वह वैज्ञियानिक दृष्टि से भी सम्भव है।

युगों की ऐतिहासिक कडी

महाकाव्य रामायण की गाथा त्रैता युग की घटना है तो महाभारत की कथा दूआपर युग से आरम्भ हो कर कलियुग के आगमन तक का इतिहास है। कुछ पात्र तो रामायण और महाभारत में संयुक्त पात्र हैं जैसे कि देवऋर्षि नारद, भगवान परशुराम तथा हनुमान जो कि सतयुग, त्रेता, दूआपर और कलियुग को जोडने की कड़ी बन चुके हैं। यह पात्र स्नातन धर्म की निरन्तर श्रंखला को आदि काल से आधुनिक युग तक जोडते हैं।

कौरवों तथा पाँडवों को मिला कर महाभारत के युद्ध में 18 अक्षौहिणी सैनाओं ने भाग लिया था। ऐक अक्षौहिणी सेना में 21870 रथ, 21870 हाथी, 109350 पैदल ऐर 65610 घुड सवार होते हैं। युद्ध के उल्लेख महाकाव्यों के अनुरूप भव्य होते हुये भी सैनिक दृष्टि से तर्क संगत हैं तथा ऐक विश्व युद्ध का आभास देते हैं।

महाभारत मुख्यता कौरव-पाँडव वंशो, उन के वंशजों तथा तत्कालीन भारत के अन्य वंशों के परस्पर सम्बन्धों, संघर्षों, रीति रिवाजों की गाथा है जो अंततः निर्णायक महाभारत युद्ध की ओर बढ़ती है। महाभारत युद्ध अठारह दिन चलता है और उस में दोनों पक्षों की अठारह अक्षोहणी सेना के साथ भारत के लग-भग सभी क्षत्रिय वीरों का अंत हो जाता है। महाभारत कथानक में सभी पात्र निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ते हैं तथा मानव जीवन के उच्चतम एवं निम्नतम व्यव्हारिक स्तरों को दर्शाते हैं। लग भग एक लाख श्र्लोकों  में से छहत्तर हजार श्र्लोकों में तो पात्रों के आख्यानों का उल्लेख है जो महाकाव्य को महायुद्ध के कलाईमेक्स की ओर ले जाते हैं।

महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ स्वरूप लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। एक उल्लेखनीत तथ्य और भी उजागर होता है कि रामायण का अपेक्षा महाभारत में राक्षस पात्र बहुत कम हैं जिस से सामाजिक विकास का आभास मिलता है। 

नैतिक महत्व 

रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। महाभारत में लग भग बीस हजार से अधिक श्र्लोक धर्म ऐवं नीति के बारे में हैं।

श्रीमद् भागवद गीता

श्रीमद् भागवद गीता महाभारत महाकाव्य का ही विशिष्ठ भाग है। यह संसार की सब से लम्बी दार्शनिक कविता है। गीता महाभारत युद्ध आरम्भ होने से पहले भगवान कृष्ण और कुन्ती पुत्र अर्जुन के बीच वार्तालाप की शैली में लिखी गयी है। गीता की दार्शनिक्ता  संक्षिप्त में उपनिष्दों तथा हिन्दू विचारधारा का पूर्ण सारांश है। गीता का संदेश महान, प्रेरणादायक, तर्क संगत तथा प्रत्येक स्थिति में यथेष्ठ है। संक्षिप्त में गीता सार इस प्रकार हैः-

  • जब भी संसार में धर्म की हानि होती है ईश्वर धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये किसी ना किसी रूप में अवतरित होते हैं।
  • ईश्वर सभी प्रकार के ज्ञान का स्त्रोत्र हैं। वह सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ्य तथा सर्व व्यापक हैं। 
  • म़त्यु केवल शरीर की होती है। आत्मा अजर और अमर है। वह पहले शरीर के अंत के पश्चात दूसरे शरीर में पुनः प्रवेश कर के नये शरीर के अनुकूल क्रियायें करती है।
  • जन्म-मरण का यह क्रम आत्मा की मुक्ति तक निरन्तर चलता रहता है।
  • सत्य और धर्म स्दैव अधर्म पर विजयी होते हैं।
  • सभी एक ही ईश्वर की अपनी अपनी आस्थानुसार आराधना करते हैं किन्तु ईश्वर के जिस रूप में आराधक आस्था व्यक्त करता है ईश्वर उसी रूप को सार्थक कर के उपासक की आराधना को स्वीकार कर लेते हैं। इसी वाक्य में हिन्दू धर्म की धर्म निर्पैक्षता समायी हुयी है।
  • हर प्राणी को अपनी निजि रुचि के अनुकूल धर्मानुसार कर्म करना चाहिये तथा अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देना चाहिये।
  • हर प्राणी को बिना किसी पुरस्कार के लोभ या त्रिरस्कार के भय के अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये तथा अपने मनोभावों को कर्तव्य पालन करते समय विरक्त रखना चाहिये।
  • प्राणी का अधिकार केवल कर्म पर है, कर्म के फल पर नहीं। कर्म फल ईश्वर के आधीन है।
  • अहिंसा परम धर्म है उसी प्रकार धर्म रक्षा हेतु हिंसा भी उचित है।
  • अति सर्वत्र वर्जित है।

आत्म विकास

महाभारत की कथा में श्रीकृष्ण की भूमिका अत्यन्त महत्वशाली है। युद्ध को टालने की सभी कोशिशें असफल होने के पश्चात श्रीकृष्ण ने उस महायुद्ध के संचालन में ऐक विशिष्ट भूमिका निभाई तथा आसुरी और अधर्म प्रवृति की शक्तियों पर विजय पाने का मार्ग भी दर्शाया। किसी आदर्श की सफलता के लिये युक्ति प्रयोग करने का अनुमोदन किया। कौरव सैना के अजय महारथियों का वध युक्ति से ही किया गया था जिस के प्रमुख सलाहकार श्रीकृष्ण स्वयं थे। कोरे आदर्श, अहिंसा तथा निष्क्रियता से अधर्म पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। उस के लिये कर्मयोग तथा युक्ति का प्रयोग नितान्त आवश्यक है।  

श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं –

  • कर्म योगः – कर्म योग साधना कर्मठ व्यक्तियों के लिये है। इस का अर्थ है कि प्रत्येक परिस्थिति में अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म के साथ किसी पुरस्कार की चाह अथवा त्रिरस्कार का भय त्याग दो। 
  • भक्ति योगः- भक्ति योगः साधना निष्क्रयता का आभास देता है। ईश्वर में श्रद्धा रखो तथा जब परिस्थिति आ जाये तो अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म को ईश्वर की आज्ञा समझ कर करो जिस में निजि स्वार्थ कुछ नहीं होना चाहिये। अच्छा – बुरा जो कुछ भी फल निकले वह ईश्वरीय इच्छा समझ कर हताश होने की ज़रूरत नहीं। कर्ता ईश्वर है और जैसा ईश्वर रखे उसी में संतुष्ट रहो।
  • राज योगः – राज योगः का सिद्धान्त अष्टांग योग भी कहलाता है। य़म, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि इस योग के आठ अंग हैं जिन का निरन्तर अभ्यास मानव को स्वस्थ शरीर तथा पूर्णत्या विकसित दिमागं की क्षमता प्रदान करता है जिस से मानव प्रत्येक परिस्थिति में धैर्य तथा स्थित प्रज्ञ्य रह कर अपने कर्तव्य तथा कर्म का चयन कर सके। इस प्रकार मानव अपनी इन्द्रियों तथा भावनाओं को वश में रखते हुये संतुलित निर्णय तथा कर्म कर सकता है। 
  • ज्ञान योगः – ज्ञान योगः की साधना उन व्यक्तियों के लिये है जो सूक्षम विचारों के साथ अपने कर्तव्य पालन के सभी तथ्यों पर विचार कर के उचित निर्णय करने में कुशल हों। कुछ भी तथ्य छूटना नहीं चाहिये। ज्ञान योगः साधना कठिन होने के कारण बहुत कम व्यक्ति ही इस मार्ग पर चलते हैं।

मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग को अपनाये गा किन्तु भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुने गा। तर्कवादी राज योग से निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संन्यासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे। पशु पक्षी अपने कर्म निजि परिवृति के अनुसार करते हैं जिस लिये उन्हें कर्ता का अभिमान या क्षोभ नहीं होता। सारांश सभी का ऐक है कि अपना कर्म निस्वार्थ हो कर करो और फल की चाह ना करो।

गीता की दार्शनिक्ता विश्व में सब से प्राचीन है और वह सभी जातियों देशों के लिये प्रत्येक स्थिति में मान्य है। हिन्दू विचार धारा सब से सरल तथा सभी विचारधाराओं का संक्षिप्त विकलप है।

ऐतिहासिक महत्व

मानव सृष्टि के इतिहास में भारत का इतिहास सर्वप्राचीन माना जाता है। भारत के सूर्यवंश और चन्दवंश का इतिहास जितना पुराना है उतना पुराना इतिहास विश्व के अन्य किसी भी वंश का नहीं है। यदि रामायण सूर्यवंशी राजाओं का इतिहास है तो महाभारत चन्द्रवंशी राजाओं का इतिहास है। चीन सीरिया और मिश्र में जिन राजवंशों का वृतान्त पाया जाता है वह चन्द्रवंश की ही शाखायें हैं।

उन दिनों इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। महाभारत काल के पश्चात से मौर्य वंश तक का इतिहास नष्ट अथवा लुप्त हो चुका है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

चाँद शर्मा

 

11 – उपनिष्द – वेदों की व्याख्या


उपनिष्द आध्यात्मिक्ता और विज्ञान का मिश्रण हैं तथा उन की गणना फँडामेन्टल साईंस के ग्रंथों के साथ होनी चाहिये। वेद ईश्वरीय विज्ञान है। उपनिष्द का मुख्य अर्थ ब्रह्मविध्या है। इन में अधिकतर वेदों में बताये गये आध्यात्मिक विचारों को समझाया गया है। वेदों के संकलन के पश्चात कई ऋषियों ने अपनी अनुभूतियों से वैदिक ज्ञान कोष में वृद्धि की। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना, तथा उस में संशोधन भी किया। इस प्रकार का ज्ञान आज उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित है। इस प्रकार का ज्ञान भारत से बाहर अन्य किसी धर्म की पुस्तक में नहीं है।

प्रत्येक उपनिष्द किसी ना किसी वेद से जुडा हुआ है। उपनिष्दों के लेखन की शैली प्रश्नोत्तर की है। शिष्य अपने गुरुओं से प्रश्न पूछते हैं और ऋषि शिष्यों के प्रश्नों के उत्तर दे कर उन की जिज्ञासा का समाधान करते हैं। प्रश्नोत्तर की शैली का बड़ा लाभ यह है कि विषयों के सभी पक्षों पर पूर्ण विचार हो जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रश्नौत्तर इस प्रकार के विषयों से सम्बन्धित हैं–

         आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, दोनों का क्या सम्बन्ध है, जीवन का आधार क्या है,

         हम क्यों जीवित हैं, हमें प्राण कौन देता है, हमें कौन और क्यों जीवित रखता है,

         हमारी इन्द्रीयों को कर्म करने की प्ररेणा तथा शक्ति कौन देता है आदि।

गुरू प्रश्नो का उत्तर देते समय .यथोचित उदाहरण या प्रसंग भी बताते हैं। ऋषियों तथा शिष्यों की संख्या असीमित है। उपनिष्दों का ज्ञान ही हिन्दू धर्म का वास्तविक वैज्ञियानिक तथा दार्शनिक ज्ञान है जिसे पौराणिक चित्रों के और कथाओं तथा अन्य ग्रंथों के माध्यम से सरल कर के समझाया गया है। 

वेदों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें उपनिष्द भाग (ज्ञान खण्ड), मंत्र भाग, तथा ब्राह्मणः भाग कह सकते हैं। पुराणों के अनुसार वेदों में 1180 तरह के ज्ञान खण्ड (फेकल्टीज – विषय) थे तथा प्रत्येक खण्ड का ऐक या अधिक उपनिष्द भी थे। यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं को धर्मान्धता कि कारण नष्ट कर दिया गया और उन के कुछ खंडित अँश ही आज देखे जा सकते हैं। केवल 10 उपनिष्द ही पूर्णत्या उप्लबद्ध हैं जिन का संक्षिप्त ब्योरा इस प्रकार हैः –

  1. ईशवासोपनिष्द – यह सब से संक्षिप्त उपनिष्द शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में 18 मंत्र हैं। इस में ईश्वर का महत्व, तथा विद्या और अविद्या का विषलेशण किया गया है, जैसे कि सभी जीवों में आत्मा समान है तथा सभी प्राणियों में ईश्वर का ही आभास है। आत्म बोध ही ईश्वर का ज्ञान है। इस उपनिष्द के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति की आयु सौ वर्ष है। सार्थक्ता तथा असार्थक्ता के विषय में भी वार्तालाप है। इसी उपनिष्द के संलगित भाग सुभल उपनिष्द में मानव हृदय की 72 नाडियों तथा मृत्यु प्रक्रिया समय आत्मा किस प्रकार शरीर छोडती है, शरीर के तत्व किस प्रकार अपने मूल तत्वों में विलीन होते हैं आदि के बारे में भी विस्तार पूर्वक बताया गया है । इस उपनिष्द के अन्य भागों में योग के बारे में भी बताया गया है।
  2. केनोपनिष्द – केन शब्द का अर्थ है – कौन (करता है), अथवा किस ने (किया)। केनोपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है तथा इस के चार भाग हैं। इस उपनिष्द में 34 मंत्र हैं। सब से प्रथम मंत्र ऊँ का मंत्र है। कई प्रश्नों पर वार्तालाप किया गया है जैसे कि मन को कौन नियन्त्रित करता है। कौन प्ररेणा देता है। निष्कर्ष में उत्तर दिया गया है कि सभी कुछ सर्व शक्तिमान ईश्वर के आदेशानुसार होता है।
  3. कठोपनिष्द – कठोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस के लेखक कथ ऋषि वौशामप्यान के शिष्य थे। इस के दो भाग हैं। इस उपनिष्द में यमराज नचिकेता को कई विषयों पर गूढ़ ज्ञान देते हैं जैसे शरीर की सभी इन्द्रियाँ बाहर की ओर हैं अतः वह केवल बाहरी ज्ञान  ही प्राप्त कर सकती हैं और आंतरिक आत्मां को नहीं देख सकतीं। आत्मा का दर्शन करने के लिये उन्हें बाहर का सम्बन्ध तोड़ कर अपने अन्दर ही केन्द्रित करना हो गा। ईश्वर सर्व व्यापक है और सृष्टि के कण कण में विद्यमान है किन्तु सभी देह धारियों में वह देह-हीन की तरह है। ईश्वर ही सभी का प्राणाधार हैं। इस के अन्य भाग में शरीर के पाँच कोषों का वर्णन है जिन्हें अन्नमय ( भोजन से बना), प्राणमय ( चौदह प्रकार की वायु से बना) मनोमय (जो इन्द्रियों को संचालित करता है), विज्ञानमय (जो इन्द्रियों दूआरा एकत्रित ज्ञान का विशलेशण करता है), तथा आनन्दमय ( जो ब्रह्मलीन होता है) कोष कहते हैं। शरीर में आत्मा की स्थिति दूध में मक्खन के जैसी है जो अदृष्य हो कर भी विद्यमान है। इस उपनिष्द के अन्य भाग गर्भ उपनिष्द में ऋषि पिप्लाद ने गर्भधारण से ले कर भ्रूण विकास के जन्म लेने तक का विस्तरित विवरण दिया है। इसी के अन्य सम्बन्धित भाग – शरीरिक उपनिष्द में शरीर के सभी अंगों का, तथा कुण्डालिनी उपनिष्द में कुण्डालिनी शक्ति जाग्रण करने का सम्पूर्ण वर्णन है।
  4. प्रश्र्नोपनिष्द – प्रश्र्नोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस के छः भाग हैं तथा इस में 64 मंत्र हैं। इस उपनिष्द में ऋषि भारदूआज, सत्यकाम, गार्गी, अशवालयम, भार्गव, तथा कात्यान महृषि पिपलाद से कई विषयों पर प्रश्नवार्ता करते हैं तथा महृषि पिपलाद उन्हें ब्रह्मज्ञान देते हैं। इस उपनिष्द में सूर्य की दिशानुसार वर्ष के दो भागों उत्तरायण तथा दक्षिणायन  (नार्दन एण्ड स्दर्न हेमिस्फीयर्स) का भी वर्णन है। अश्वलायन पूछते हैं कि शरीर में प्राण (श्वास-वायु) किस प्रकार आते हैं तो उत्तर में ऋषि पिप्लाद कहते हैं कि पाँच प्रकार के प्राण शरीर में रहते हैं। हृदय में प्राण, गुदा में अपान, नाभि में समान, स्नायु तन्त्रों में ध्यान, तथा सुष्मणा नाडी में उडयान – यह पाँचों प्रकार के प्राण पुरुष के वीर्य में स्थिर रहते हैं जिसे कभी नष्ट नहीं करना चाहिये। अतः प्राण रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य पालन का महत्व सर्वाधिक है। 
  5. मुणडकोपनिष्द मुणडकोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस में ब्रह्मा जी अपने पुत्र अथर्वः को ब्रह्मज्ञान देते हैं। आगे चल कर वही ज्ञान अथर्वः ऋषि अंगिरा तथा शौणिक को प्रदान करते हैं। इस में दो भाग हैं। एक भाग में परःविद्या( संसारिक-ज्ञान) तथा दूसरे भाग में अपरः विद्या (ब्रह्म ज्ञान) का उल्लेख है।
  6. माण्डूक्योपनिष्द माण्डूक्योपनिष्द भी अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस की चार शाखायें  अगमा, वेदाध्या, अदूवैतः तथा अथलाशान्ति हैं। इस उपनिष्द में मन की जागृति एवमं सुशु्प्ति आदि दशाओं के बारे में  वार्तालाप है। ऊँ की व्याख्या भी इस उपनिष्द में की गयी है।
  7. तैत्तिरीयोपनिष्द –  तैत्तिरीयोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में आदिलोकः, आदिज्योतिषः, आदिप्रज्ञा, आदिविद्या तथा अध्यात्म के सिद्धान्तों के बारे में वर्णन किया गया है। 
  8. ऐतरेयोपनिष्द ऐतरेयोपनिष्द ऋगवेद से सम्बन्धित है तथा इस में तीन भाग हैं। इस मे सृष्टि की उत्पति तथा अन्न दूआरा शरीर में जीवन प्रवेश तथा मानव शरीर के विकास आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस उपनिष्द में अध्यात्मिक शक्तियों के विकास तथा अध्यात्मिक उत्थान के पश्चात इन्द्रियों की क्रिया, जन्म, मरण तथा पुनर्जन्म के बारे में भी विस्तार से समझाया गया है।
  9. छान्दोग्य उपनिष्द – छान्दोग्य उपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है। यह बडा़ ग्रन्थ है जिस में ओंकार की विस्तरित व्याख्या की गयी है। इस के अतिरिक्त कई जटिल प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं जैसे कि मृत्यु के पश्चात क्या होता है, पुनर्जन्म कैसे होता है, पित्रलोक भरता क्यों नहीं आदि। अन्य भाग में यम-नियम तथा शरीर के आंतरिक अंग और शरीर स्थित चक्र भी विस्तार से समझाये गये हैं।
  10. बृहदारण्यकोपनिष्द बृहदारण्यकोपनिष्द सब से बड़ा उपनिष्द है तथा शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है । इस में छः भाग हैं। इस में कई विषयों पर ज्ञान दिया गया है जैसे कि अश्वमेधयज्ञ, सन्ध्या, कर्म, विचार, ब्रह्मा, सगुण, निर्गुण, प्रजापति, दैव, असुर, जीव तथा ज्ञान आदि। इसी उपनिष्द में याज्ञवालाक्या तथा उन की पत्नी मैत्री के मध्य कई महत्व पूर्ण विषयों पर वार्तालाप है।

इन के अतिरिक्त  एक अन्य ग्यारहवाँ उपनिष्द श्र्वेताश्र्वतरोपनिष्द ईसा से लग-भग 250 या 200 वर्ष पूर्व किसी अनाम लेखक ने भी लिखा है। यह प्राचीन उपनिष्दों में अंतिम है। इस का विषय मानवीय संघर्ष, विरह, त्रास्तियां, विफलतायें तथा आत्मिक सफलतायें है।

उपनिष्दों ने भारतीय दार्शनिक्ता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हिन्दू विचारधारा तथा बाद में पनपे बौध तथा जैन मत उपनिष्दों के सूक्ष्म ज्ञान उपनिष्दों से अत्याधिक प्रभावित हुये हैं। स्नातन धर्म के वैज्ञियानिक तथ्यों को विकिसत करने का श्रेय उपनिष्दों को ही जाता है। इन्हीं को वेदान्त कहते हैं।

उपनिष्दों के ज्ञान से इस्लाम भी अछूता नहीं रहा। उपनिष्दों ने सूफी विचारधारा को प्रभावित किया। 17 वीं शताब्दी में शाहजहाँ के ज्येष्ट पुत्र दारा शिकोह ने उपनिष्दों के ज्ञान से प्रभावित हो कर उन का अनुवाद भी करवाया था किन्तु दारा शिकोह को ऐसी मानसिक स्वतन्त्रता की कीमत अपना सिर कटवा कर चुकानी पडी थी क्यों कि उसी के छोटे भाई औरंगज़ेब ने दारा को काफिर होने के अपराध में मृत्यु दण्ड दिया था।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह चाहे तो किसी भी धार्मिक ग्रंथ की ना केवल समीक्षा, आलोचना,  अथवा व्याख्या निजि मतानुसार करे अपितु उस का प्रचार भी कर सकता है। ऐसी धार्मिक स्वतन्त्रता के कारण हिन्दू धर्म में रूढि़वाद, कट्टर पंथी मानसिक्ता तथा फण्डामेंटलिस्ट विचारों का होना सम्भव नहीं। मानसिक स्वतन्त्रता के फलस्वरूप हिन्दू धर्म में समय समय पर नयी विचारधाराओं का सर्जन तथा विलय भी होता रहा है।

चाँद शर्मा

6 – निराकार की साकार प्रस्तुति


आदि-मानव वर्षा, बाढ़, बिजली, बिमारियों, मृत्यु तथा समस्त प्राकृतिक आपदाओं का कारण अदृष्य शक्तियों को मानते थे। धीरे धीरे स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपने बौधिक ज्ञान की शक्ति से अदृष्य शक्तियों  को पहचाना तथा उन्हें प्राकृति के साथ जोड़ कर उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दे दी। ऋषि मुनियों ने अपनी कलपना को विज्ञान की कसौटी पर परखा और परमाणित भी किया। उन के संकलित परिणाम वेद, पुराण, उपनिष्द तथा दर्शनशास्त्रों के रुप में संकलित किये गये हैं। ऋषि मुनियों ने पहले जुटाये गये तथ्यों को विस्तारा, संवारा तथा आवश्यक्तानुसार समय समय पर नकारा भी था। क्योंकि हिन्दू धर्म में धर्म सम्बन्धी विषयों की आलोचना करने की पूर्ण स्वतन्त्रता रही है।

यही परिक्रिया दंत-कथाओं के माध्यम से अन्य मानव समुदायों में भी फैलती गयी जहाँ मानव सभ्यता क्रमशः भारत से पिछड़ी अवस्था में थी। रिक्त तथ्यों को सुनाने वालों ने या सुनने वालों ने अपनी समझ-बूझ से भर कर और आगे फैला दिया। आदि-धर्म के सभी संस्करणों में प्रकृति के सभी साधनों और क्रियायों पर किसी ना किसी देवी या देवता का अधिकार था और उन का अनुगृह पाने के लिये देवी देवताओं को बलि, कुर्बानियों तथा आराधना के माध्यम से प्रसन्न करने का विधान कई स्थानों पर चल पड़ा। एक समुदाय के देवी- देवताओं के नामों, विभागों तथा परस्परिक सम्बन्धों में दूसरे समुदायों के साथ विभिन्नता होना स्वाभाविक ही था। धर्म के उन परिवर्तित संस्करणों को कालानतर इसाईयों ने पैगनज़िम कहा और मुसलमानों ने जहालत का नाम दिया ताकि वह अपने नव निर्मित धर्मों का विस्तार आसानी से कर सकें।

विज्ञान तथा कला का संगम

हर घटना प्रमाणित होने के पश्चात इतिहास मान ली जाती है। जैसे जैसे ज्ञान और वैज्ञियानिक विचारधारा का विस्तार हुआ अन्धविश्वास पर आधारित दन्तकथाओं पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे। जो तर्क की कसौटी पर स्थिर नहीं रह सकीं वह अविशवासनीय होती गयीं। स्वार्थ वश कई धर्मों ने अपने अनुयाईयों को वश में रखने के लिये धर्म सम्बन्धी विषयों पर प्रश्न चिन्ह लगाने पर केवल  पाबन्दी ही नहीं लगाई अपितु पश्न पूछने वालों को मृत्यु दण्ड तक भी दे डाले ताकि उन की दंत-कथाओं की पोल ना खुल सके।

जब अन्य स्थानों पर मानव समुदाय जंगलों में वनजारा जीवन व्यतीत कर रहे थे या अपने अपने समुदायों में दंतकथाओं या अंधविशवास के तले जी रहे थे उस समय भारत में पूर्णतया विकसित आदि-धर्म वैज्ञानिक जिज्ञ्यासा की चुनौतियों का सामना करने के लिये तैय्यार हो चुका था। भारत का स्नातन धर्म कल्पनाशक्ति से परिपूर्ण, दार्शिनिक प्रौढ़ता समेटे अपनी आकर्षक चित्रावली के साथ समृध हो चुका था जो आज भी यथार्थ जीवन के एकदम समीप है। परम ज्ञ्यानी वैदिक ऋषियों ने उस विचारधारा को अपने निजि अनुभवों तथा अनुभूतियों से प्रमाणिक्ता प्रदान की थी और उन की सोच आज के वैज्ञ्यानिक अविष्कारों की अग्रज है।  

ऐक बालक का दिमाग़ दार्शनिक अथवा काल्पनिक विचारों को गृहण नहीं कर सकता। अतः बालक को वस्तुओं का बोध कराने के लिये उसे वस्तुओं के चित्र भी दिखाने पड़ते हैं। शाब्दों  के बजाय बालक को चित्रों से आम, बाघ, मानचित्रों से अज्ञात् स्थानों, तथा फोटोग्राफ के माघ्यम से दूरगामी रिश्तेदारों का परिचय करवाना पडता है। अतः वस्तुओं के चित्र ऐसे होने चाहियें कि बालक उन वस्तुओं की आकृति, रंग, गुण दोषों की जानकारी यथासम्भव अनुभूत कर सकें। भले ही चित्र यथार्थ में वस्तु नहीं है लेकिन चित्र बालक को वस्तु का यथार्थ रूप पहचानने और उस के गुण-दोषों को समझने में पूर्णत्या सहायक होते हैं।

हिन्दू धर्म ईश्वर को निराकार तथा सर्वव्यापी मानता है किन्तु हिन्दू ईश्वर का आभास सृष्टि की सभी कृतियों में भी निहारते हैं। अतः हिन्दू धर्म ने धार्मिक चिन्हों, मूर्तियों तथा चित्रों को भी विशेष महत्व दिया है। यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि जब किसी चिन्ह का शब्दों से उच्चारण किया जाता है तो उस चिन्ह और शब्द में पूर्व-स्थापित सम्बन्ध दृष्य हो जाता है। शब्द और चित्र अभिन्न हो जाते हैं। इस प्रकार चिन्ह मन तथा मस्तिष्क को केन्द्रित कर के वस्तु का साक्षातकार करवाने का एक सक्ष्म साधन बन जाते हैं।

भले ही इसाई तथा मुसलिम धर्म चिन्हों के बहिष्कार का दावा करते हों परन्तु हिन्दूओं की देखा देखी उन के धर्म भी कई चिन्हों का सम्मान करते हैं। इसाई अपने घरों को क्रिसमिस ट्री से सजाते हैं, बच्चों को बहलाने के लिये सांटाक्लाज़ बनाते हैं तथा नकली सांटाक्लाज़ से अपने बच्चों को उपहार भी बटवाते हैं। इसाई मूर्तियों के आगे और मृतकों की कबरों पर मोम-बत्ती भी जलाते हैं। इसी प्रकार मुस्लिम भी काबा की दिशा की ओर सिजदा करते हैं, काबा की तसवीर घरों में लगाते है, 786 को शुभ अंक मान कर उसे तावीज़ बना कर पहनते हैं तथा अरबी भाषा में मुहम्मद या अल्लाह लिख कर घरों में रखना शुभ समझते हैं। सारांश यह है कि हर धर्म में किसी ना किसी रूप में चिन्ह प्रयोग किये जाते हैं। अन्तर केवल उन्नीस बीस का ही है। सभी आराधक पहले तो मन के अन्दर कलपित लक्ष्य की धारणा करते हैं फिर उस पर ध्यान लगाते हैं। अतः चिन्ह या मूर्ति पूजा आराधना का आरम्भ मात्र है, अंत नहीं। स्नातन धर्म ने मूर्ति पूजन को अपनाया किन्तु शून्य में ध्यान लगा कर अनन्त पर मन को केन्द्रित करना भी सिखाया है। यह सब आराधना के भिन्न भिन्न स्तर हैं।

मूर्तियाँ केवल शिल्पकारियों की कला की प्रदर्शन ही नहीं करातीं अपितु ईश्वर से सम्पर्क का सक्ष्म साधन भी हैं। बाहरी तौर पर तो मूर्ति का पूजन होता है किन्तु आराधक की भावनायें जब मूर्ति के साथ जुड़ जाती हैं तभी उसी प्रतिमा के अन्दर आराधक आराध्य का आभास महसूस कर सकता है। दुकान में रखे हुये बुत को शिल्प कारी और सजावट की वस्तु कहा जा सकता है लेकिन जब उसी बुत को श्रद्धा और पूजा भाव के साथ स्थापित कर दिया जाता है तो उसी बुत में देव दर्शन कराने की क्षमता आराधक को अपने आप ही दिखायी पड़ने लगती है।

जब हम दूरदर्शन के माध्यम से दूर गामी स्थानों की आवाज़ तथी छवि को निहार सकते हैं तो मूर्ति के माध्यम से सर्व-व्यापी ईश्वर के साथ भी सम्पर्क बना सकते हैं क्यों कि ईश्वर तो सर्ष्टि के हर कण में विध्यमान है। किसी भी राष्ट्र का झण्डा रंग बिरंगे कपड़ों का टुकड़ा होता है लेकिन जब उसी झण्डे के साथ भावनायें जुड़ जाती हैं तो सिपाही उसी कपडे के टुकडे को  बचाने के लिये अपनी जान पर भी खेल जाते हैं। जिस प्रकार झण्डा रूपी कपडे का टुकडा ऐक सिपाही के अन्दर अद्भुत वीरता का संचार कर देता है उसी प्रकार ऐक मूर्ति ईश्वरीय शक्ति का प्रकाश आराधक पर डाल देती है।   

पूजा की विधि

किसी भी कार्य को सम्पन्न करने को एक निशचित तरीके से करने के लिये कार्य विधि निर्धारित कर दी जाती है ताकि वह कार्य बिना किसी त्रुटि के सुचारु ढंग से सम्पन्न हो सके। इस प्रकार आरम्भिक क्रिया से ले कर समाप्ति की क्रिया तक का सभी ब्योरा क्रिया में भाग लेने वालों को निश्चित तौर पर मालूम हो जाता है। किसी से कोई भूल होने की सम्भावनायें समाप्त हो जाती हैं। जिस प्रकार जलती हुयी मोमबत्ती को बुझाना और केक काटना जन्मदिन उत्सव के अभिन्न अंग बन गये हैं उसी प्रकार ईश्वर की अर्चना पद्धति की रूप-रेखा विशिष्ठ व्यक्तियों के सत्कार की विधि जैसी ही निश्चित हो गयी है।

मुख्यता आराधक मन ही मन में प्रतिष्ठापित मूर्ति के माध्यम से अपने आराध्य देवी-देवता की छवि को निहारता हुआ स्तुति करता है। मूर्ति की उपासना की निम्नलिखित परम्परागत क्रियायें हैं –

सर्व प्रथम मन से आराध्य देवी – देवता का आवाहन किया जाता है। आराध्य को आसन पर आसीन कराया जाता है तथा सत्कार स्वरूप आराध्य के पग धोये जाते हैं। पेय जल तथा जलपान परस्तुत किया जाता है। आराध्य को स्नान कराया जाता है, वस्त्र पहनाये जाते हैं। नया यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता है। चन्दन आदि का सुगन्धित तिलक लगाया जाता हैं। पुष्प अर्पण किये जाते हैं। धूप आदि की सुगन्ध ज्वलन्त की जाती है। दीप प्रज्वलन किया जाता है तथा दीप से आराध्य की आरती उतारी जाती है। प्रसाद अर्जित किया जाता है और स्वर्ण आदि की भेंट दी जाती है। अन्त में आराध्य की विदाई भी की जाती है।

अनुमान लगाया जा सकता है कि आराधना की यह विधि किसी भी विशिष्ठ व्यक्ति के सामाजिक सत्कार का ही एक प्रतीक मात्र है, क्यों कि ईश्वर जैसी महाशक्ति जो स्वयं सागरों को ऐक ही क्षण में भर सकती है तथा समूची सृष्टि को प्रकाशित कर सकने में सक्ष्म है वही महाशक्ति आराधक के स्नान और भोजन पर निर्भर नहीं हो सकती।

हिन्दूओं के किसी भी आराधक के लिये अर्चना पद्धति के सभी अंगों का पालन करना अनिवार्य नहीं है। आराधक निजि रुचि ऐवम् सुविधानुसार पूजा अर्चना कर सकता है। चिन्ह में आस्था रखने वाला आराधक प्रत्येक मूर्ति में ईश्वर को निहार सकता है भले ही मूर्ति  पत्थर, मिट्टी, पीतल, या स्वर्ण की बनी हो या केवल कोई चित्र हो। मूर्ति पूजा के माध्यम से आत्म ज्ञान का मार्ग सरल हो जाता है तथा इस का आधार जनसाधारण को पूर्ण संतुष्टि प्रदान करता है।  

आस्था के धार्मिक चिन्ह

मूर्तियों के अतिरिक्त सभी धर्म कई प्रकार के चिन्हों को धार्मिक आस्था का केन्द्र मानते हैं। इसाई क्रास को पवित्र मानते हैं और मुस्लिम काबा का दिशा में सजदा करते हैं तथा कलात्मिक ढंग से अल्लाह या मुहम्मद इतियादि लिखवाते हैं।  हिन्दूओं के पास बहुत से विकल्प हैं जैसे किः-

  • ऊँ का चिन्ह सृष्टि के उस अनाहत नाद का प्रतीक है जो गृहों के परिकर्मा के कारण निरन्तर गूंजती रहती है। समस्त कृतरम नाद कम से कम दो निमितों से पैदा होते हैं जैसे वाध्य यंत्रों में लगे गज और तार का घर्षण, ढोल तथा पीटने के लिये छड़ी की चोट, या वायु का किसी संकरे मार्ग से बाँसुरी की आवाज़ की तरह सुनायी देना। जो नाद इस प्रकार दो वस्तुओं के संघर्ष से उत्पन्न होते है वह भी इसी दैविक नाद से ही जन्म लेते है। किन्तु ऐसे नाद के चार अंग होते हैं। पहले तीन अंग अ ओ तथा म और चौथा अंग खामोशी से बनता है जो सुनाय़ी नहीं देता। यही खामोशी सुनाय़ी पड़ने वाली आवाज़ के आरम्भ और अंत को उजागर करती है।
  • स्वास्तिक का चिन्ह स्थिरता का प्रतीक है जो चारों दिशाओं में घूमाव के मध्य में विद्धमान रहती है। पूरी सृष्टि तेज़ी से  घूम रही है फिर भी स्थिर दिखती है। हिन्दूओं के अतिरिक्त कई योरूप के देशों में भी इसे पवित्र माना जाता रहा हैं।
  • शिव-लिंग सृष्टि में सभी प्रकार के जीवन के प्रजनन का वैज्ञानिक प्रतीक है। सभी प्राणियों की उत्पति लिंग-योनि के योग से ही हुयी है अतः यह चिन्ह दैविक शक्ति का भी प्रतीक है और दर्शाता है कि हम सभी का जीवन किसी पाप से नहीं अपितु दैविक इच्छा का फलस्वरूप है। यह ईश्वर की ओर से दिया गया दण्ड नहीं बल्कि पुरस्कार है।
  • ताँत्रिक चिन्ह – स्नातन धर्म में कई रेखागणित चिन्ह शक्ति का प्रतीक माने जाते हैं तथा ताँत्रिक यन्त्रों में प्रयोग किये जाते हैं।

वास्तव में चिन्ह पहचान के निमित मात्र होते हैं। आज भी सभी देशों की राजकीय मुद्रा सरकार की सार्वभौमिक्ता दर्शाने का प्रतीक मानी जाती है। व्यवसायी कम्पनियां भी अपने लागो की छाप अपने उत्पादकों पर अंकित करती हैं। 

यदि ईसा को क्रास पर ना चढ़ाया गया होता तो क्रास का भी इसाई धर्म में कोई महत्व ना होता। कभी कभी किसी धर्म स्थल के किसी नगर में होने के कारण ही वह नगर धार्मिक दृष्टि से महत्वशाली बन जाता है। हिन्दूओं के धार्मिक चिन्ह वैज्ञानिक्ता का प्रतीक हैं और शाशवत हैं। 

यदि किसी व्यक्ति की निजि आस्था किसी चिन्ह में नहीं तो हिन्दू धर्म में उस पर किसी भी चिन्ह को अपनाना या उस की पूजा-अर्चना करना भी बाध्य नहीं है। यही हिन्दू धर्म में पूर्ण स्वतन्त्रता का मूल-मंत्र है। मूर्तियां तथा चिन्ह हिन्दूओं के दार्शिनिक विचारों का कलात्मिक व्याखिकरण हैं।

चाँद शर्मा

 

 

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