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दिल्ली की रावण लीला


राजधानी के रामलीला मैदान में 4 जून 2011 को ऐक रावण लीला हुयी थी जिस के कारण ऐक निहत्थी महिला राजबाला का देहान्त हो गया था। स्वामी रामदेव के योग-शिविर में उस रात निद्रित अवस्था में निहत्थे स्त्री-पुरुषों, बच्चों और वरिष्ठ नागरिकों पर कमिश्नर दिल्ली पुलिस की देख रेख में लाठी चार्ज किया गया था। वह घटना इतनी अमानवीय थी कि देश के सर्वोच्च न्यायालय की आत्मा भी उन रावणों के अत्याचार से अपने-आप सजग हो गयी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने तब तत्कालीन सरकार को बरबर्ता के दोषियों के खिलाफ कारवाई करने के आदेश दिये थे। उस के बाद थाने में ‘अज्ञात’ दोषियों के नाम पर ऐफ़ आई आर दाखिल की गयी थी मगर उस के बाद से आज तक क्या हुआ?…सभी को सांप सूंघ गया? और सभी गहरी नीन्द में आज तक क्यों सो रहै हैं?

न्यायपालिका

आम तौर पर हमारे न्यायाधीश अपनी अवमानना के प्रति सजग रहते हैं और किसी को भी फटकार लगाने से नहीं चूकते। परन्तु हैरानी की बात यह है कि जब स्वयं उच्चतम न्यायालय ने इस घटना का कोग्निजेंस लेकर सरकार को निर्देश दिये थे और उन आदेशों की आज तक अनदेखी करी जा रही है तो इस मामले को गम्भीरता से क्यों नहीं लिया गया? यदि न्यायालय के आदेश की अनदेखी इस तरह होने दी जाये गी तो जनता का विशवास न्यायपालिका में कैसे रहै गा? जनता में तो यही संदेश जाये गा कि शायद न्ययपालिका को भी राजनेताओं से और उच्च अधिकारियों से अपमानित होने की आदत हो चुकी है।

विविध आयोग

हमारे देश में कई तरह के आयोग हैं जिन के अध्यक्ष राजनेता या उन के रिश्तेदार होते हैं। यह आयोग बच्चों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिये बने हैं। कभी-कभार यह आयोग पहुंच वाले आरोपियों के हितों का संरक्षण करने कि लिये सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ हस्तक्षेप करने के लिये मैदान में भी उतरते हैं। इशरतजहां, सौहराबूद्दीन, जाकिया जाफरी को इनसाफ दिलाने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं परन्तु बेचारी राजबाला जैसी महिलाओं के साथ जुल्म या किसी मासूम के साथ बलात्कार भी हो जाये तो इन आयोगों को नीन्द से जगाना क्यों पडता है? साधारण जनता के मामलों से उन्हें कोई सरोकार क्यों नहीं होता? अगर होता, तो राजबाला के केस में भी अब तक कई पुलिसकर्मी जेलों मे जाकर वहीं से रिटायर भी हो चुके होते। आयोगों से कोई उम्मीद लगाना भैंसे का दूध दोहने जैसी बात है।

मीडिया

अगर किसी मीडिया – कर्मी को पुलिस या किसी राबर्ट वाड्रा जैसे व्यक्ति के कारण छोटी-मोटी चोट लग जाये तो हमारा मीडिया दिन-रात उसी मुद्दे पर विधवा–विलाप करता रहता है, लेकिन इस घटना पर मीडिया पिछले तीन वर्षों से क्यों चुप्पी साधे बैठा रहा है? कुछ गिने-चुने मिडियाई पेशेवर बहस करने वाले प्रवक्ता संजय-दत्त की पैरोल, सचिन को भारत-रत्न बनाने की सिफारिश, तरुण तेजपाल की बेगुनाही आदि के बारे में विशेष बहस करते हैं उन्हों ने दिल्ली की जनता के खिलाफ़ इस अन्याय पर क्यों बहस नहीं करी ? अनदेखी का यह मुद्दा क्या इनवेस्टीगेटिव जनर्लिज्म के कार्य क्षेत्र में नहीं आता? मीडिया स्टिंग-आप्रेशन या जांच पडताल से क्या पता नहीं करवा सका कि इस ऐफ़ आई आर पर क्या तफ्तीश करी गयी है? क्या इस केस में अब कोई सनसनी या आर्थिक लाभ नहीं?

राजनेता

हमारे राजनेता अकसर भडकाऊ भाषणों से जनता को हिंसा और तोडफोड के लिये उकसाते हैं, निषेध आज्ञाओं का उलंघन करवाते हैं, और अपनी गिरफ्तारी के फोटो निकलवाने के तुरन्त बाद जमानत पर रिहा हो कर अपने घरों को भी लौट जाते हैं। बस, इस से आगे वह अदृष्य हो जाते हैं। अगले चुनावों तक उन का कुछ पता नहीं चलता। इस घटना-स्थल में रहने वाली जनता की सेवा का जिम्मा आजकल जिन नेताओं के पास है वह दिल्ली में सरकार बनाने के चक्कर में व्यस्त हैं। चुनाव के समय ही जनता में दिखाई पडें गे। वैसे नयी दिल्ली विधान सभा क्षेत्र के विधायक केजरीवाल हैं। उन से अपेक्षा करनी चाहिये कि वह इस घटना की स्टेटस रिपोर्ट जनता के सामने रखें।

अपराधी कौन – ?

उस घटना को बीते आज तीन वर्ष पांच महीने बीत चुके हैं। लेकिन राजबाला की आत्मा को आज भी इन्तिजार है कि सर्वोच्च न्यायालय की फटकार के बाद भी इस देश में चेतना आये गी। क्या दिल्ली पुलिस को आज तक भी यह पता नहीं चला कि वह ‘अज्ञात’ लोग कौन थे जिन के विरुद्ध रिपोर्ट लिखी गयी थी? उस थाने के प्रभारी, उस इलाके में जनता के प्रतिनिधि – पार्षद, विधायक, सासंद ने क्या यह जानने की कोशिश करी कि ऐफ़ आई आर पर अभी तक क्या कारवाई करी गयी है? वह ‘अज्ञात’ अपराधी अब तक क्यों नहीं पकडे या पहचाने गये? कौन किस से पूछ-ताछ करने गया था?

राजबाला का परिवार, स्वामी रामदेव, तत्कालीन मुख्य मन्त्री शीला दिक्षित, उस काल की सर्वे-सर्वा सोनियां गांधी, प्रधान मंत्री मनमोहन सिहं, गृह मंत्री शिन्दे, सलाहकार कपिल सिब्बल, चिदाम्बरम और कई अन्य छोटे-बडे लोग, सभी दिल्ली में तो रहते रहै हैं। क्या किसी को भी नहीं पता कि देश की राजधानी में इतना बडा कांड, जिस ने देश को विदेशों में भी शर्म-सार किया था, जिस काण्ड ने उच्चतम न्यायालय की आत्मा को भी झिंझोड दिया था, वह किन ‘अज्ञात’ अपराधियों ने करा था? वह आज तक पकडे क्यों नहीं गये? क्या वह ऐफ़ आई आर अभी तक फाईलों में जिन्दा दफ़न है या मर चुकी है?

सरकार की गुड-गवर्नेंस

इस रावण लीला के समय केन्द्र और दिल्ली, दोनो जगह काँग्रेस की सरकारें थीं। इसलिये उस समय के प्रधान मंत्री और मुख्यमंत्री को जबाब देना चाहिये कि पिछले तीन वर्षों में ‘अज्ञात’ अपराधियों की पहचान अब तक क्यों नहीं करी गयी? उन्हें पता था कि दिल्ली में स्वामी रामदेव योग शिविर करने वाले थे जिस में काले धन का मुद्दा भी उठाया जाये गा। जब स्वामी रामदेव दिल्ली आये थे तो उन का स्वागत केन्द्र सरकार के वित्त मन्त्री प्रणव मुखर्जी, कानून तथा मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल तथा अन्य मन्त्रियों ने किया था। उन के बीच में बातचीत के कई दौर भी चले थे। फिर क्या कारण थे कि अचानक रात को सोते हुये निहत्थे लोगों पर ‘अज्ञात’ लोगों ने लाठिया बरसानी शुरु कर दीं थीं?

देश की राजधानी में इतने मन्त्रियों के रहते कोई साधारण पुलिस अधिकारी इस तरह का निर्णय नहीं ले सकता था। केन्द्र और दिल्ली सरकार दोनो का यह भी पता था कि उस रात स्वामी रामदेव को गिरफ्तार कर के किसी अज्ञात स्थान पर भेजा जाये गा जिस के लिये ऐक हेलिकापटर पहले से ही सफदरजंग हवाई अड्डे पर तैनात था। अतः अगर वरिष्ठ केन्द्रीय मन्त्रियों से पूछा गया होता तो अब तक ‘अज्ञात’ अपराधियों का पता देश वासियों को लग जाना था। क्या हम यह मान लें कि हमारी पुलिस इतनी गयी गुज़री है कि वह इतनी देर तक यह पता नहीं लगा सकी? क्या हमारे देश में गुड-गवर्नेंस के यही मापदण्ड हैं? नरेन्द्र मोदी की सरकार को आये अभी पांच महीने ही हुये हैं इस लिये इन्तिजार करना पडेगा कि वह इस विषय में क्या करती है।

स्वामी रामदेव ने तो चाण्क्य की तरह अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने का अनथक प्रयास किया है और काँग्रेसी सत्ता को मिटाने में नरेन्द्र मोदी की भरपूर कोशिश करी है। अब प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी का उत्तरदाईत्व है कि 2011 की रावण-लीला के दोषियों के साथ क्या कानूनी कारवाई करी जाये ताकि भारत स्वाभिमान के योगऋषि रामदेव को न्याय दिलाया जा सके। आज कल दिल्ली की सातों सीटों पर भारतीय जनता पार्टी के सांसद हैं जो इस केस को निष्कर्ष तक लेजाने के लिये प्रयत्नशील होने चाहियें।

अपनी मृत-आत्मा को पुनर्जीवन दो

सहनशीलता, अहिंसा, सदभावना, धर्म निर्पेक्षता आदि शब्दों के पीछे भारत के नागरिक अपनी लाचारी, अकर्मण्यता और कायरपने को छुपाते रहते हैं। उन के राष्ट्र नायक-नायिकाओं की श्रेणी में आजकल खान-त्रिमूर्ति, तेन्दूलकर, धोनी, और सनी लियोन जैसे नाम हैं जिन के मापदण्डों पर राजबाला जैसी घरेलू महिलाओं का कोई महत्व नहीं। इसलिये भारत में अगले दो सौ वर्षों तक अब कोई युवा-युवती भगत सिहं या लक्ष्मी बाई नहीं बने सकते क्योंकि हमारे पास अब उस तरह का डी ऐन ऐ ही नहीं बचा।

वैसे तो सभी राजनेताओं, मीडिया वालों को, और तो और काँग्रेसियों को भी काला धन की स्वदेश वापिसी में देरी के कारण नीन्द नहीं आ रही और वह नरेन्द्र मोदी को लापरवाही के ताने देते रहते हैं, लेकिन जिस महिला ने कालेधन की खोज के लिये अपनी जान की बलि दी थी उस को न्याय दिलवाने के लिये कोई सामने नहीं आया।

इस वक्त यह सब बातें मामूली दिखाई पडती हैं लेकिन सोचा जाये तो मामूली नहीं। जब हम व्यवस्था परिवर्तन की बात करते हैं तो सोचना होगा कि वह कौन ‘अज्ञात’ लोग हैं जो पूरे तन्त्र पर हमैशा हावी रहते हैं। जिन के कारण राजबाला को सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के बावजूद भी इनसाफ नहीं मिलता और सुप्रीम कोर्ट भी अवमानना को इस तरह क्यों सह लेती है। राजबाला तो हमैशा के लिये इस भ्रष्ट तंत्र के मूहं पर कालिख पोत कर जा चुकी हैं लेकिन अगली बार आप में से किसी के घर की सदस्या भी राजबाला हो सकती है – यह समझने की जरूरत हम सभी को है।

अगर आप की आत्मा जाग रही है तो इस लेख को इतना शेयर करें कि मृत राजबाला की चीखें बहरे लोगों को भी चुनाव के समय तो सुनाई दे जायें। हम यह गीत देश भक्ति से ज्यादा नेहरू भक्ति के कारण गाते रहते हैं जिसे कभी दिल से भी गाना चाहिये – इस गीत को चुनाव का मुद्दा बना दो –

जो शहीद हुये हैं उन की ज़रा याद करो कुरबानी।

चाँद शर्मा

 

प्रेत योनि का सच


(केवल व्यस्कों के लिये)

काँग्रेस डायन मर चुकी है। लेकिन चुनाव के समय से पहले मरने को अकाल-मृत्यु कहते हैं और मृतक की गति नहीं होती। सत्ता प्राप्ति की अंतिम इच्छा अधूरी रह जाने के कारण काँग्रेसियों की आत्मा प्रेत-योनियों में भटकती रहै गी। उन की संतप्त आत्मायें या तो वर्तमान प्रेत योनि में या जो कोई भी सड़ा गला शरीर हाथ लगे गा उसी में प्रवेश कर जायेंगी और उसी शरीर के माध्यम से अपनी अतृप्त इच्छाओं को संदेश भी देती रहैं गी। वह शरीर किसी का भी हो सकता है चाहे मुलायम सिहं की समाजवादी पार्टी, या मायावती की बहुजन समाज पार्टी, या ममता की तृणमुल काँग्रेस या कोई और पार्टी हो सकती है।

काँग्रेसी अपनी लाश को पुनर्जीवित करने के प्रयास अभी भी लगातार कर रहै हैं लेकिन उम्मीद टूट चुकी है। भ्रष्टाचार के पापों की वजह से काँग्रेस को पहले से ही अपनी अकाल मृत्यु का आभास था। इस लिये सत्ता प्राप्ति के लिये काँग्रेसियों ने अन्ना हजारे नाम के मदारी से सम्पर्क कर के केजरीवाल नाम का ऐक जिन्न पैदा किया था। बोतल से बाहर आने के बाद वह जिन्न इतना बडा हो गया कि उस ने दिल्ली में काँग्रेस को ही खा लिया और वह डायन अकाल मृत्यु को सिधार गयी। जिन्न की अपनी सत्ता लालसा भी अधूरी ही रही इस लिये वह भी प्रेत योनि में पडी काँग्रेस के सम्पर्क में है। दोनों वेम्पायर बन चुके हैं। अब काँग्रेसी अपना मूल-शरीर त्याग कर आम-आदमी के शरीर में निवास तलाशने की भरसक कोशिश करें गे ताकि सत्ता की अतृप्त लालसा को पूरा कर सकें।

डायन ने पिछले साठ वर्षों में देश का इतना खून पिया कि सारा वातावरण ही दुर्गन्ध से भर चुका है। उस के सम्पर्क के कारण कई छोटे मोटे प्रेत विभिन्न क्षेत्रों में पैदा हो चुके हैं और जनमानस को त्रास्दी दे रहै हैं।

क्षेत्रीय तथा परिवारिक राज नेता

जिस तरह साँप केंचुली बदल कर भी जहरीले रहते हैं उसी तरह क्षेत्रीय तथा परिवारिक राज नेता भी पार्टियों के नाम बदल कर भी कूयें के मैँडक बने रहते हैं। उन की संकुचित विचारधारा और स्वार्थिक कार्य शैली हर नये दिन के साथ देश को पीछे ही धकेल रही है। जब चुनाव नहीं होते तो यह लोग भ्रष्ट तरीकों से धन कमाने में लगे रहते हैं, विदेशों में घूमने चले जाते हैं, अपने आप को बेच कर पार्टी बदलने की कीमत वसूलते हैं, परिवारिक बिजनेस देखते हैं, अपने ऊपर चलने वाले मुकदमों की पैरवी करते रहते हैं। और कुछ नहीं तो बस आराम करते हैं। आम जनता को भी उन की कोई परवाह नहीं होती कि वह जिन्दा हैं या मर चुके। चुनावी बादलों की गर्जना सुनते ही गटर के काकरोचों की तरह वह बाहर निकल आते हैं, नये गठ जोड तलाशते हैं। अपने जिन्दा होने के सबूत के तौर पर नये लोक-लुभावन नारे सुना देते हैं। कई तो सडकों पर त्योहारों का बहाना ले कर जनता के लिये ‘ शुभकामनायें ’ चिपका देते हैं। वास्तव में यही नेता हमारे राज तन्त्र का अभिशाप हैं और देश की समस्याओं की ऐसी जड हैं जहाँ से समस्याओं के अंकुर फूटते ही रहते हैं। यह नेता अंग्रेजी शब्द सैकूलर की परिभाषा पर खरे उतरते हैं क्योंकि वह किसी भी आस्था, धर्म, परम्परा में विशवास नहीं रखते और आत्म सन्तुष्टि ही इन का चिरन्तर निरन्तर लक्ष्य होता है।

घिसे-पिटे नेता

इस श्रेणी में दो तरह के नेता हैं। पहली श्रेणी के नेता छोटे चूहों की तरह हैं। जैसे छोटे चूहे अनाज के भण्डारों से छोटी मात्रा में चोरी करते हैं लेकिन जब उस का हिसाब लगाया जाये तो बरबादी हजारों टन की हो जाती है। संसद या विधान सभाओं में इन के पास तीन चार सीटें ही होती हैं। लेकिन देश में सभी को मिला कर यह 90 -100 सीटें खराब कर देते हैं।

दूसरे मोटे चूहे हैं जिन के पास 15 -20 तक की सीटें होती हैं जिस के आधार पर वह मोल भाव करते हैं। वह अपने आप को ‘ किंग-मेकर ’ समझते हैं। यह लोग चुनाव से पहले या उस के बाद की तरह के गठ बंधन बना लेते हैं और फिर सत्ता में अपना भविष्य सूधारते रहते हैं।

उन का योग्दान

लगभग इन घिसे पिटे नेताओं में ना तो कोई शैक्षिक योग्यता है ना ही उन की कोई सोच समझ या कार्य शैली है। यह सिर्फ देश को प्रदेशों, जातियों, वर्गों या  परिवारों के आधार पर बाँटे रखते हैं और कोई भी महत्व पूर्ण काम इन के नाम से नहीं जुडा हुआ इस देश में है।  अगर चुनाव के वक्त वह सत्ता में हैं तो अपने घर के आसपास तक रेलवे लाईन बिछवा दें गे, हवाई अड्डा बनवा दें गे, अपनी जाति के लोगों को आरक्षण दिलवा दें गे, दूसरी जाति के सरकारी कर्मचारियों के मनमाने तरीके से तबादले करवा दें गे, सरकार खजाने से लेपटाप और इसी तरह की दूसरी वस्तुयें बटवायें गे और भ्रष्टाचारी गोलमाल भी करें गे। कुछ ऐक बडे बडे वादे जनता से करें गे कि अगर वह सत्ता में आ गये तो बिजली, पानी, अनाज, प्लाट आदि मुफ्त में दे दें गे। बदले में इन नेताओं को भारी भरकम वेतन, भत्ते, बंगले, सुरक्षा कर्मियों के दस्ते, लाल बत्ती की गाडियां और आजीवन पेनशन मिल जाती हैं।

आम आदमी पार्टी

काँग्रेस की अवैध संतान होने के कारण आम आदमी पार्टी में भी पैशाचिक लक्षण ही हैं। वह माओवाद, नकसलवाद, राष्ट्रद्रोह तथा बाहरी पैशाचिक शक्तियों से ही प्रेरित हैं। लेकिन भारतीय युवाओं को बरगला कर उन का रक्त पी लेने के कारण कुछ समय बाद उन में कुछ सद्गुण प्रगट होने की आशा करी जा सकती है। अभी बहुत से बुद्धिजीवी और परिस्थितियों से असंतुष्ट बुद्धिजीवी उन्हें आश्रय देने को तत्पर हैं जिस कारण अगर उन्हों ने केजरीवाल के तिलसिम से छुटकारा पा लिया तो आनेवाले समय में वह कुछ सत्कर्म भी कर सकें गे। इस की सम्भावनायें निकट भविष्य में बिलकुल ही नहीं हैं क्यों कि उन का शद्धिकरण नहीं हुआ।

जरा सोचिये

जो नेता या पार्टीयां लोक सभा या विधान सभा के लिये 60 प्रतिशत से कम प्रत्याशी खडे करती हैं वह कभी भी सरकार नहीं बना सकतीं और उन का चुनाव में आना सिर्फ मोल भाव कर के अपना जुगाड बैठाना मात्र है। उन पर अपना वोट और देश के संसाधन क्यों बरबाद करने चाहियें? बटवारे के बाद आज तक हम इसी तरह के लोगों का शिकार होते रहै हैं। क्या हमारा आर्थिक ढांचा इन लोगों की अनाप शनाप बातों को सहन करते रहै गा। अब वक्त आ गया है कि 2014 के चुनाव में इन नेताओं को हमेशा के लिये देश की राजनीति से बाहर कर दिया जाये। यह सभी चेहरे जाने पहचाने हैं।

चाँद शर्मा

गिरगटी बदलाव


चुनावों में दिल्ली की जनता का जनमत स्पष्ट था –

  • 70 में से 62 विधायक काँग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के लिये चुने गये – लेकिन सत्ता की चाबी आज भी काँग्रेस के पास है।
  • 32 विधायक बी जे पी के और 28 विधायक आप के चुने गये – मतलब यह कि दोनो काँग्रेस विरोधी दिल्ली के शासन को पाँचसाल तक निर्विघन मिल कर चलायें।

लेकिन चुनावों के बाद गिरगिटों ने अपने अपने बहाने बना कर रंग बदलने शूरू कर दिये जो दिल्ली की जनता के साथ धोखा धडी है।

केजरीवाल का स्वांग

केजरीवाल अपने आप को आम, बेनाम और गरीब आदमी दिखाने की नौटंकी में जुट गये हैं। पंचायती तरीकों से गली मौहल्लों की सभायें, मैट्रो रेल में सफर, जमीन पर बैठ कर शपथ गृहण समारोह, सुरक्षा से इनकार, फलैटों मे रहना और ना जाने आगे और क्या कुछ देखने को मिले गा उन्हें आम आदमी का स्थाई मेक-अप नहीं दे पायें गी।

जोश में हो सकता है अब शायद वह अपने घर की बिजली भी कटवा दें और आम आदमी की तरह लालटैन से काम चलायें, पी सी ओ पर जा कर टेलीफोन करें, बाल्टी में पानी भर कर सडक पर लगे सरकारी हैंड पम्प पर खुले में नहायें, और सरकारी जमीनों पर दिल्ली में रोज हजारों की तादाद में आने वालों को पहले झुग्गियां बनाने दें और फिर उन्हें पक्के मालिकाना हक दे कर अपना वोट बैंक कायम करें लें।

लेकिन इन सब नाटकों से दिल्ली की समस्यायें हल नहीं हों गी – और बढती जायें गी। सुशासन के लिये आम आदमी को समय के साथ साथ व्यवहारिक भी होना जरूरी है। दिल्ली की जनता ने उन्हें आम आदमी से विशिष्ट आदमी – मुख्यमंत्री – बनाया है। उन के लिये उचित यही होगा कि वह मुख्य मत्री के दाईत्व को सक्षमता से निभायें। ऐक मुख्य मंत्री की जिम्मेदारी निभाने के लिये जिन उपकरणों और सुविधाओं की जरूरत अनिवार्य है उन्हे जरूर इस्तेमाल करे ताकि आम आदमी को वास्तविक फायदा हो और उन की समस्यायें सुलझ जायें। सभी को हर समय खुश रखने के प्रयत्न मत करें और जरूरत अनुसार कडे फैसले भी लें। दिल्ली राज्य की सरकार को ग्राम पंचायत की तरह से चलाने का नाटक बन्द करें।

मीडिया

हमारा मीडिया जब तक कारोबारी दृष्टीकोण छोड कर इण्डिया फर्स्ट की भावना को नहीं अपनाता तो उस के सुधरने की कोई उम्मीद नहीं करी जा सकती। मीडिया अब कोई समाज सेवा का काम नही रहा – पूर्णत्या ऐक व्यापारिक क्षेत्र है जो सिर्फ समाचारो को बेचने के लिये उन्हें सनसनी युक्त करता रहता है।  आजकल मीडिया नयी तरह की राजनीति की मार्किटिंग में जुट गया है। टी वी पर अति संवेदनशील या ससनीखेज़ भाषा में लिखे आख्यान प्रसारित करने मे व्यस्त है। आम आदमी पार्टी के नेताओं की अव्यवहारिक कर्म शैली के आधार पर उन का चरित्र चित्रण, व्यवहारिकता से कोसों दूर यूटोपिया में ले जाने वाले, बासी बुद्धिजीवियों की अनाप शनाप बहस अब रोज मर्रा के प्रोग्रामों की बात बन गयी है। मीडिया पर हंटर चलाना अति आवश्यक हो चुका है।

काँग्रेस

राहुल गाँधी भी भ्रष्ट काँग्रेसियों से दूर अपनी अलग पहचान बनाने जुट गये हैं। उनकी मां के इशारो पर आज तक जो यू पी ऐ सरकार करती रही है वह उसी सरकार के मंत्रियों की कथनियों और करणियों को नकारने मे जुट गये है। आदर्श घोटाले की रिपोर्ट पर दोबारा विचार होगा। लालू को राजनीति मे फिर से बसा लिया जाये गा। संजय दत्त की पैरोल की जाँच भी होगी और… आने वाले दिनों में  भारत मुक्त होने से पहले काँग्रेस को भ्रष्टाचार मुक्त कर दिया जाये गा। काँग्रेस अब ऐक पुराना चुटकला है जिसे सुनना या सुनाना बेकार का काम है।

बी जे पी

खिसियानी बिल्ली की तरह बी जे पी केजरीवाल को अब हाथ में जादुई चिराग़ के साथ आलादीन की भूमिका में देखना चाहती है ताकि या तो दिल्ली वासियों की सभी नयी पुरानी समस्याऐं शपथ ग्रहण के पाँच मिन्ट बाद ही सुलझ जायें या फिर आप पार्टी की सरकार गिर जाये और दिल्ली के लोग बी जे पी की सरकार चुन लें।

बी जे पी यह भूल चुकी है कि दिल्ली में उन की हार का मुख्य कारण भाई भतीजावाद, नेताओं की आपसी लडाई, जनता की अनदेखी और नरेन्द्र मोदी पर ओवर रिलायंस था। बी जे पी के नेता काँग्रेसी तौर तरीके अपनाने में जुट चुके हैं। यही कारण था कि कछुऐ ने खरगोश को चुनावी दौड में पछाड दिया।

अब बी जे पी को केजरीवाल की सरकार गिराने की उतावली के बजाये मध्यप्रदेश, गोवा, राजस्थान, छत्तीस गढ़ और गुजरात में विशिष्ट बहुमत के साथ विशिष्ट सुशासन दिखाना चाहिये। केजरीवाल की अच्छी बातों को अपनानें में शर्म नहीं करनी चाहिये। कम से कम आम आदमी पार्टी के सामने साकारात्मिक विपक्ष ही बन कर रहैं और सरकार गिराने की उतावली छोड दें। उसे अपने आप गिरना होगा तो गिर जाये गी।

स्वार्थवश जब भी काँग्रेस केजरीवाल की सरकार को गिराना चाहै तो ताली बजाने के बजाये बी जे पी को केजरीवाल को गिरने से बचाना चाहिये ताकि केजरीवाल अपने आप को शहीद घोषित ना कर सके और कुछ कर के दिखाये। आलोचना करने के अतिरिक्त सकारात्मिक विपक्ष होने के नाते बी जे पी का यह दाईत्व भी है कि वह केजरीवाल की सरकार को कुछ कर दिखाने के लिये पर्याप्त समय भी दे और उसे काँग्रेस के शोषण से बचाये रखे।

आम आदमी

नेतागण – अब गिरगिट नौटंकी छोड कर साधारण आदमी बने, व्यवहारिक और सकारात्मिक काम करें तभी वह आम आदमियों के नेता बन सकते हैं। नहीं तो आम आदमी की आँधी और आराजिक्ता के रेगिस्तान में पानी ढूंडते ढूंडते प्यासे ही मर जायें गे। बदलाव की लहर को रोकना मूर्खता होगी लेकिन गिरगटी बदलाव से बचें।

 

चाँद शर्मा

 

त्रिशंकु चुनावी नतीजे


बिना परिश्रम अगर कुछ प्राप्त हो जाये तो उस की कीमत नहीं आंकी जाती। यह बात हमारे लोकतन्त्र और मत देने के अधिकार के साथ भी सार्थक है। कहने को दिल्ली में 68 प्रतिशत मत दान हुआ जो पिछले चुनावों से ज्यादा है लेकिन इस से कहीं ज्यादा मत दान दूसरे राज्यों में हुआ है। देश की राजधानी से 32 प्रतिशत पढे लिखे और जागरूक मत दाता वोट डालने नहीं गये क्यों कि उन्हें लोकतंत्र के बजाये आराम करना ज्यादा पसंद था। अगर दिल्ली में आज त्रिशंकु विधान सभा है तो उस के लिये दिल्ली के मतदाता जिम्मेदार हैं जो अपने वोट का महत्व नहीं समझे और भ्रामित रहै हैं। प्रजातंत्र को सफल बनाने के लिये वोटरों में जागरुक्ता होनी चाहिये । जो मतदाता दो मुठ्ठी अनाज और ऐक बोतल शराब पर बिक जायें उन्हें तो मत दान का अधिकार ही नहीं होना चाहिये। हमारे देश की दुर्दशा का ऐक मुख्य कारण अधिक और अनाधकृत मतदाता हैं। ऐसे नेता चुन कर आते हैं जिन्हें बाहर से ताला लगा कर रखना पडता है कि वह दूसरे राजनैतिक दल के पास बिक ना जायें – ऐसे प्रजातंत्र पर शर्म आनी चाहिये।

लोकतन्त्र के मापदण्ड

अगर कोई भी राजनैतिक दल विधानसभा या संसद के चुनाव में 51 प्रतिशत से कम प्रत्याशी खडे करता है तो ऩिशचित है कि वह सरकार नहीं चलायें गे। वह केवल विजयी उमीदवारों के बलबूते पर सिर्फ जोड-तोड ही करें गे। यही बात स्वतन्त्र प्रत्याशियों पर भी लागू होती है। उन की निजि योग्यता और लोकप्रियता चाहे कुछ भी हो लेकिन सफल हो कर वह अपने आप को बेच कर पैसा कमाने या कोई पद प्राप्त करने के इलावा जनता के लिये कुछ नहीं कर सकते। उन्हें वोट देना ही बेकार है। लोकतंत्र में राजनैतिक दलों का महत्व है क्यों कि उन के पास संगठन, सोच, अनुशासन और जवाबदारी होती है।

केवल विरोध के नकारात्मिक मुद्दे पर संगठन खडा कर के देश का शासन नहीं चलाया जा सकता। ऐमरजैंसी के बाद जनता पार्टी सिर्फ इन्दिरा गाँधी के विरोध के आधार पर ही गठित करी गयी थी जिस में मुलायम, नितिश, लालू, राजनारायण, चरण सिहं, बहुगुणा, वाजपायी, जगजीवनराम से ले कर हाजी मस्तान आदि तक सभी शामिल थे। तीन वर्ष के समय में ही जनता पार्टी अपने अन्तर-विरोधों के कारण बिखर गयी थी और आज उसी पार्टी के बिखरे हुये टुकडे कई तरह के जनता दलों के नाम से परिवारवाद और व्यक्तिवाद को बढावा दे रहै हैं। आम आदमी पार्टी भी कोई संगठित पार्टी नहीं बल्कि सिर्फ भ्रष्टाचार के विरुध जनता के रोष का प्रतीक है जिस के पास सिर्फ ऐक मात्र मुद्दा है जनलोकपाल बिल पास करवाना और सत्ता में बैठना। इस से आगे देश की दूसरी समस्याओं और उन के समाधान के बारे में नीतियों के बारे में उन के पास कोई सकारात्मिक सोच, संगठन, आदर्श, अनुभव या टेलेन्ट नहीं है। जैसे गलियों से आकर हताश लोगों की भीड चौराहों पर भ्रष्टाचार के विरूध नारे लगाने लग जाती है तो अगले चौराहे पर जाते जाते भीड का स्वरूप भी घटता बढता रहता है। उन को संगठित रखने का कोई भी ऐक मात्र मुद्दा भारत जैसे देश का शासन नहीं चला सकता। शासक के लिये कुछ गुण भी चाहियें। शालीनता, गम्भीरता, योग्यता और अनुभव आदि आम आदमी पार्टी के सदस्यों में बिलकुल ही नहीं दिख रहै। यह केवल उग्रवादी युवाओं का अनुभवहीन नकारात्मिक जमावडा है जो सत्ता मिलने पर ऐक माफिया गुट का रूप ले ले गा।

आम आदमी पार्टी की परीक्षा

दिल्ली के 68 प्रतिशत मतदाताओं ने बी जे पी को ही स्पष्ट मत से सब से बडी पार्टी माना है। केजरीवाल ने दिल्ली का चुनाव काँग्रेस के भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ा था इसलिये त्रिशंकु विधान सभा बनने की सूरत में वह काँग्रेस को समर्थन नहीं दे सकते लेकिन उन से बिना शर्त समर्थन ले तो सकते हैं। सकारात्मिक राजनीति करने के लिये उन्हें बी जे पी को समर्थन देना चाहिये था – और सरकार के अन्दर रह कर या बाहर से सरकार के भ्रष्टाचार पर नजर रखनी चाहिये थी। लेकिन केजरीवाल ने तो नकारात्मिक राजनीति करनी है इसलिये वह दोबारा चुनाव के लिये तैय्यार है जिस का खर्च दिल्ली के लोगों पर पडे गा।

अगर केजरीवाल स्वयं सरकार नहीं बना सकता तो चाहे तो काँग्रेस से समर्थन ले ले या बी जे पी से – सरकार बना कर अपना कुछ ऐजेण्डा तो पूरा कर के दिखायें। दिल्ली से भ्रष्टाचार खत्म करना, नागरिक सुरक्षा, महंगाई, बिजली – पानी के रेट कम करना आदि पर तो कुछ यथार्थ में कर के दिखलायें। वह जिम्मेदारी से भाग क्यों रहै हैं।

लोकतन्त्र के लिये खतरा

पिछले साठ वर्षों में काँग्रेस ने देश का ताना बाना ऐसा भ्रष्ट किया है कि आज सवा अरब की आबादी में 500 इमानदार भारतीय ढूंडने मुशकिल हैं जो संसद में बैठाये जा सकें। काँग्रेस के भ्रष्टाचार से तंग आ कर भारत के लोग आजतक इमानदार लोगों को ही तलाशते रहै हैं – चाहे कहीं से भी मिल जायें। अब कुछ विदेशी और कुछ देसी तत्व नरेन्द्र मोदी की राष्ट्रवादी बातों से इतना परेशान हैं कि वह भारत की राजसत्ता नरेन्द्र मोदी के बजाये किसी दूसरे के हाथ में देने का षटयंत्र कर रहै थे जो अपनी ‘इमानदारी’  का ढोल पीट कर काँग्रेस का विकल्प बन सकें और उसी खोज में उन्हें केजरीवाल की प्राप्ति हो गयी। उन की आम आदमी पार्टी जिसे अब आराजिक्ता आवाहन पार्टी कहना सही होगा अब देश को भूल-भूलियां में धकेलने के लिये विदेशियों की पैदायश के तौर पर उभर चुकी है। यह तसवीर आने वाले लोकसभा चुनाव में और स्पष्ट हो जाये गी। यह पार्टी नरेन्द्र मोदी की लोक प्रियता में सेंध लगाये गी और मीडिया इसे बढ चढ कर इस्तेमाल करे गा।

क्या आम आदमी पार्टी पूरे हिन्दुस्तान में भ्रष्ट काँग्रेस का विकल्प बन सकती है ? क्या उन के पास इतना संगठन, योग्यता, अनुभव और ‘इमानदार’ प्रशासक हैं कि वह देश को चला सकें ? भ्रष्टाचार से जूझने के जोश में हमारे युवा बिना सोचे समझे केजरीवाल के मकड़ जाल में फंसते चले जा रहै हैं । वह नहीं जानते कि इस पार्टी के पीछे कौन लोग खडे हैं। युवाओं ने शायद इस पार्टी के नेताओं के ये बयान शायद याद नहीं रखे…

  • आप कांग्रेस से गठबंधन कर सकती है – शाजिया इल्मी
  • तरुण तेजपाल निर्दोष है – शाजिया इल्मी
  • नरेन्द्र मोदी मानवता का हत्यारा है – संजय सिंह
  • (भगवान शिव को) ठंड में हिमालय पर बैठा दिया और कपडे भी नही दिए बिचारे को और सर के ऊपर से गंगा निकाल दी तो वो शंकर तांडव नही तो क्या डिस्को करेगा – कुमार विशवास
  • पदम् श्री मेरे पाँव की जूती है – कुमार विशवास
  • इशरत जहाँ मासूम थी – योगेन्द्र यादव
  • 42%भारतीय चाहते हैं की राहुल गाँधी जी प्रधानमन्त्री बने – योगेन्द्र यादव
  • बटला हाउस फर्जी है – अरविन्द केजरीवाल
  • राजीव गाँधी इकलौते ऐसे नेता थे, जिन्होंने आम आदमी की भलाई के लिए काम किया – अरविन्द केजरीवाल
  • राहुल गाँधी जी को देश की समस्याओं की समझ है – अरविन्द केजरीवाल
  • भारत के लिए हिन्दू शक्तियां खतरा है – प्रशांत भूषण
  • कश्मीर को पकिस्तान को दे देना चाहिए – प्रशांत भूषण

AAP वाले सिर्फ दिल्ली में आराजिक्ता फैलाने के इलावा और कुछ नहीं कर सकें गे। सात आठ यार दोस्त अगर कहीं इकट्ठे बैठ जायें जो ऐक दूसरे को ज्यादा जानते भी नहीं, चुनाव से कुछ वक्त पहले ही मिले हैं, तो उन को सरकार नहीं कहा जा सकता वह केवल ऐक चौकडी ही होती है जिसे अंग्रेड़ी में कैकस कहते हैं।

आम आदमी पार्टी पूरी तरह से हिन्दू विरोधी और मुस्लिम समर्थक पार्टी है। उन के चुनावी उमीदवार आम तौर पर वह लोग हैं जो वर्षों तक काँग्रेस या बी जे पी के टिक्ट पाने के लिये झक मारते रहै हैं और अब इमानदारी का नकाब लगा कर आम आदमी बन बैठे हैं। यह सिर्फ भ्रष्टाचार विरोधी वोटों का बटवारा करवा कर काँग्रेस का फायदा करवायें गे। वह नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रवादी सरकार बनने के रास्ते में रोड़े अटकायें गे।

चुनौती स्वीकार करो

अगर केजरीवाल और उन के साथियों में हिम्मत है तो अभी काँग्रेस या बी जे पी से बिना शर्त समर्थन के आधार पर कुछ तो कर के दिखायें। देश के शासन की बागडोर के साथ जुआ नहीं खेला जा सकता। आम आदमी पार्टी की ऐकमात्र सोच है कि सिर्फ वही अकेले इमानदार हैं और बाकी सभी बेईमान हैं। केजरीवाल का कहना था कि जब वह दिल्ली में अपनी सरकार बनायें गे तो राम लीला ग्राउंड में विधान सभा का सत्र करें गे और उस में जनलोक पाल बिल पास करें गे। उतना कर देने से भ्रष्टाचार खत्म हो जाये गा। इमानदार बनने के लिये नारे लगाने के बजाये इमानदार बन कर दिखाओ। कम से कम अपना स्टेंड तो साफ करो। पहली चुनौती को स्वीकार करो, सरकार बनाओ और कुछ कर के दिखाओ।

केजरीवाल तो अब फिर से चुनाव के लिये भी तैय्यार हैं जैसे कोई जादू उन के पक्ष में हो जाये गा। अगर दोबारा चुनाव करवाये जायें और फिर भी त्रिशंकु परिणाम आये तो कितनी बार दिल्ली में केजरीवाल नया मतदान करवाते रहैं गे ? अगर यह हाल लोकसभा के चुनाव में हुआ तो बार बार चुनाव करवाने और देश में राजनैतिक अस्थिरता पैदा करने के लिये कौन जिम्मेदार होगा ? अगर हम चाहैं तो इस के विकल्प तलाशे जा सकते हैं जैसे किः-

  1. त्रिशंकु परिणाम के कारण या तो अगले पाँच वर्षों तक दिल्ली के नागरिकों को लोकतंत्र से वंचित किया जाये और उप राज्यपाल का शासन लागू रहै।
  2. दिल्ली में चुने गये विधायकों को इकठ्ठा कर के उन्हीं में से ऐक वैकल्पिक सरकार बनाई जाये जो सदन में पार्टी रहित साधारण बहुमत के अनुसार पाँच वर्ष तक काम करे और चाहे तो अपना मुख्यमंत्री आवश्क्तानुसार बदलती रहै।
  3. दोबारा या जितनी भी बार चुनाव कराये जायें उन का खर्च मत दाताओं से अतिरिक्त कर के तौर पर वसूला जाये।

केजरीवाल जी – हरियाणा और लोकसभा का लालच करने से पहले जो कुछ दिल्ली में प्लेट पर प्राप्त हुआ है उस की चुनौती में सफल हो कर दिखाओ यदि ऐसा नहीं करते तो आम आदमी पार्टी जनता के साथ ऐक धोखा है उसे राजनैतिक पार्टी कहलाने का कोई अधिकार नहीं।

चाँद शर्मा

केजरीवाल से सवाल


भारत में जहाँ हवा और सूर्य की रौशनी जा सकती है वहाँ पर भ्रष्टाचार भी जा चुका है। पिछले सात दशकों में हमारे समाज की मान्यताओं में जो बदलाव आये हैं उन में प्रमुख स्थान भ्रष्टाचार को मिला है। किसी भी काम को शार्टकट से करने लेना या करवाने वाले को ‘हैल्पफुल एटिच्यूड’, ‘टैक्ट फुल’, ‘अडजस्टेबल’, या ‘ओपन-माईडिड’ कह कर दरकिनार कर दिया जाता है। जो नियमों के अनुसार चले उसे ‘रिजिड’, ‘दकियानूस’ या ‘रेडटेपिस्ट’ की उपाधि मिल जाती है। यही वजह है कि भ्रष्टाचार अब हमारी रगों में समा गया है।

लेकिन कहीं भी अन्धेरा ज्यादा देर तक नहीं रहता। सुबह जरूर होती है। अब फिर से लोग भ्रष्टाचार से तंग आ चुके हैं। पिछले दो दश्कों से तो हम बेसबरी से इमानदार व्यक्ति की तलाश कर रहै हैं। जिस ने भी अपने आप को ‘इमानदार’ बताया हम ने उसे ही प्रधानमन्त्री की कुरसी आफ़र कर दी। राजीव गान्धी, वी पी सिहँ, आई के गुजराल और मनमोहन सिहं आदि जैसे कई ‘इमानदार’ आये और भ्रष्टाचार के साथ साथ कई अन्य रोग भी हमारी राजनीति में लगा गये।

अन्ना और स्वामी रामदेव

इसी वातावरण में ऐक नाम अन्ना हजारे का भी उभरा जो महाराष्ट्र की राजनीति में अनशन कर के मशहूर होते गये। अन्ना अपने आप को गाँधी वादी कहते रहै हैं। सत्य तो यह है कि जब गाँधी जी ने बिडला हाऊस के प्रांगण में ‘हेराम’ कह कर अन्तिम सांस लिया था तो अन्ना नौ दस वर्ष की आयु के रहै होंगे। फिर भी वह गाँधी की तरह अपनी जिद मनवाने के लिये आमरण-अनशन का सहारा लेते रहै हैं। वह बात अलग है कि अपने आप को ‘री-यूज़’ करने के लिये अन्ना खुद ही कोई ना कोई बहाना ले कर अनशन खोलते भी रहै हैं।

अन्ना को राष्ट्रीय मंच पर स्वामी रामदेव लाये जो भ्रष्टाचार के खिलाफ सिर्फ आवाज ही नहीं उठा रहै थे बल्कि व्यवस्था परिवर्तन का सक्षम विकल्प भी दे रहै थे। उस विकल्प को ठोस रूप दिया जा चुका था। उनकी योजना में स्वदेशी वस्तुओं का दैनिक जीवन में इस्तेमाल, भ्रष्ट व्यकतियों का राजनीति से निष्कासन, हिन्दी तथा प्रान्तीय भाषाओं के माध्यम से उच्च शिक्षा, योगाभ्यास के दूआरा चरित्र निर्माण और भारत स्वाभिमान की पुनर्स्थापना आदि शामिल थे। स्वामी राम देव अपने विकल्प को प्रत्यक्ष रूप देने के लिये ऐक सक्ष्म संगठन भारत स्वाभिमान भी स्थापित कर चुके थे। भारत स्वाभिमान की बहती गंगा में हाथ धोने के लिये अन्ना भी ऐक जनलोक पाल का घिसापिटा विषय लेकर कूद पडे।

थोडे ही समय पश्चात अन्ना ने अपने समर्थकों के साथ, जिन में केजरीवाल, किरण बेदी और स्वामी अग्निवेश आदि अग्रेसर थे दिल्ली में अनशन पर बैठ गये। स्वामी रामदेव और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समर्थन से देश भर में इमानदारी की चिंगारी शोलों में परिवर्तित हो चुकी थी। युवा वर्ग उत्साहित हो कर स्वामी रामदेव के साथ उन के नये समर्थक अन्ना के गीत भी गाने लगा। भाण्ड मीडिया ने शंख नाद किया की “सरकार पाँच दिन में हिल गयी… ! ”

सत्ता में बैठी काँग्रेस ने नबज को पकडा और अन्ना से तोलमोल शुरु हो गया जिस में केजरीवाल और स्वामी अग्निवेश और कपिल सिब्बल थे। आननफानन में समझोता होगया – केजरीवाल और अग्निवेश ने जोश में अपनी पीठ थपथपाई और यह कह कर सरकार का भी धन्यवाद कर दिया कि समझोता कर के “सरकार ने उन्हें अपेक्षा से अधिक दे दिया है.. !”

सफलता के जोश में अन्ना और उन के साथियों ने पहले स्वामी रामदेव का साथ छोडा। फिर केजरीवाल ने अन्ना को भी किनारे कर दिया और अपनी राजनैतिक पार्टी खडी कर दी। अन्ना का प्रभाव टिमटिमाने लगा तो वह मायूस और बीमार पड गये, मगर केजरीवाल को चेतावनी दे गये कि “ राजनीति में ना तो मेरा फोटो इस्तेमाल करना और ना ही मेरा नाम इस्तेमाल करना।”  किरण बेदी भी केजरीवाल से अलग हो गयीं। केजरीवाल नें राजनीति में अपने कदम जमाने शुरु किये। थोडे ही दिनों में जग जाहिर होगया कि सरकार का समझोता केवल छलावा था जिस का मकसद भारत स्वाभिमान आन्दोलन को कमजोर करना था। उस के बाद की कहानी सभी जानते हैं।

जोश में दिशीहीनता

केजरीवाल को काँग्रेस ने इस्तेमाल करना शुरू किया। अपनी निष्पक्षता दिखाने के लिये केजरीवाल नें भी बीजेपी नेताओं के साथ काँग्रेस के नेताओं पर भी  भ्रष्टाचार के आक्षेप लगाये। भारत में प्रगट हुये ऐकमात्र इमानदार केजरीवाल के साथ वह महत्वकाँक्षी नेता जुडने लग गये जिन के मन में चुनाव जीतने की ललक थी लेकिन न्हें कोई बडी पार्टी टिकट नहीं देती थी। मोमबत्तियों के सहारे भ्रष्टाचार के अन्धेरे को मिटाने का प्रयास करते करते युवा तो दिशा हीन हो कर थकते जा रहै थे। यह सब कुछ काँग्रेस की इच्छा के अनुकूल हो रहा था। रामदेव के संस्थानों के खिलाफ सी बी आई और सरकारी तंत्र कारवाई तेज होती गयी लेकिन केजरीवाल ने स्वामी रामदेव के समर्थन में ऐक शब्द भी नहीं कहा।

आदि काल से भारत की पहचान केवल हिन्दू देश की ही रही है। स्वामी रामदेव भारत की संस्कृति की पुनर्स्थापना की बात कर रहै थे। केजरीवाल इन विषयों से अलग हो कर जामा मसजिद के इमाम अब्दुल्ला  बुखारी को संतुष्ट करने में जुटे रहै और राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से दूरी बनाने या कोसने में तत्पर रहै। काँग्रेस के साथ कदम मिलाने के लिये केजरीवाल ने अपने आप को धर्म निर्पेक्ष बताने का मार्ग चुना और इमानदारी का बुर्का ओढ लिया।

भ्रष्टाचार विरोध में सेंध

यह सर्व-विदित सत्य है कि भ्रष्टाचार करने और भ्रष्टाचारी कामों को छुपाने के साधन उसी के पास होते हैं जो सत्ता में रहता है। इस देश में पिछले छः दशकों से काँग्रेस ही सत्ता में रही है। अतः भ्रष्टाचार के लिये सर्वाधिक जिम्मेदारी काँग्रेस की है।  भ्रष्टाचार के पनपने में बी जे पी या अन्य दलों का योग्दान अगर कुछ है तो वह आटे में नमक के बराबर है।

मुख्यता सभी इमानदार लोगों को काँग्रेस के विरुद्ध ऐक जुट होना चाहिये था ताकि भ्रष्टाचार विरोधी वोटों का बिखराव ना हो। छोटे दलों से तो बाद में भी निपटा जा सकता है। लेकिन अब केजरीवाल ने भ्रष्टाचार विरोधी वोटों का बिखराव करने के लिये अपनी पार्टी को खडा किया है। इस का फायदा सिर्फ काँग्रेस को होगा और वह सत्ता में बनी रहै गी। अगर कुछ थोडे से केजरीवाल के समर्थक चुनाव जीत गये तो वह अपनी सरकार कभी नहीं बना सकें गे। वह केवल पिछलग्गू बने रहैं गे।

सरकार का काम केवल भ्रष्टाचार बन्द करना ही नहीं होता। सरकार पर देश का प्रशासन, सुरक्षा, विकास और विदेश नीति की जिम्मेदारी होती है। ऐक जनलोकपाल को कुर्सी पर तैनात कर देने से ही देश की दूसरी समस्यायें अपने आप हल नहीं करी जा सकतीं। केजरीवाल के पास कोई इस तरह की प्रतिभा या संगठन नहीं जो सरकार की जिम्मेदारियों को निभा सके। देश को इमानदारी के जोश मे इकठ्टी करी गयी भीड के सपुर्द नहीं किया जा सकता। दूर की बातें अगर दरकिनार भी करें तो भी आजतक स्थानीय बातों पर ही केजरीवाल ने अपनी राय कभी व्यक्त नहीं करी। अगर उन की नियत साफ है तो सार्वजनिक तौर पर बताये कि निम्नलिखित मुद्दों पर उन की राय क्या हैः-

  1. इनकम टैक्स कमिश्नर रहते हुए उन्हों ने कितने भ्रष्ट नेताओं को बेनकाब किया।
  2. उन की पत्नी पिछले दो दशकों से दिल्ली में ही असिस्टेन्ट इंकमटेक्स कमिश्नर के पद पर किन कारणों से तैनात रही हैं।
  3. काशमीर समस्या के समाधान के लिये उन की तथा उन की पार्टी की सोच क्या है।
  4. अयोध्या में राम जन्म भूमी विवाद के बारे में उन की पार्टी की सोच क्या है।
  5. बटला हाउस इनकाउंटर में शहीद मोहनचंद्र शर्मा के बारे क्या सोचते है।
  6. माओवादी नेता बिनायक सेन को AAP की कोर कमेटी में क्या काम दिया गया है।
  7. इमाम बुखारी के खिलाफ दर्जनों अरेस्ट वारंट है, उसके साथ अपने सम्बन्ध के बारे में क्या कहना है।
  8. कृषि घोटाला में शरद पवार के नाम पर चुप्पी क्यों साध रखी है।
  9. अनशन के दौरान, भारत माता की तस्वीर क्यों हटाई गयी थी।
  10. लोकपाल जैसी संस्था में योग्यता के बजाये आरक्षण क्यों होना चाहिये।

य़ह केवल वही प्रश्न हैं जिन का सम्बन्ध दिल्ली चुनावों से है। केजरीवाल के लिये यह केवल लिट्मस टेस्ट है कि पार्टी अध्यक्ष के नाते इन का उत्तर दें। इन बातों को केवल कुछ सदस्यों की निजि राय कह कर दर किनार नहीं किया जा सकता। कोई भी भीड चाहे कितनी भी जोश से भरी हो वह होश का स्थान नहीं ले सकती। अगर वास्तव में केजरीवाल भ्रष्टाचार को खत्म करना चाहते हैं तो पहले सभी भ्रष्टाचारी विरोधियों के साथ ऐक जुट हो कर भारत को काँघ्रेस मुक्त करें क्यों की काँग्रेस ही भ्रष्टाचार का वट वृक्ष है। काँग्रेस की तुलना में बी जे पी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भारतीय संस्कृति का वट वृक्ष है। अगर उन में कुछ भ्रष्टाचार है तो उस से बाद में निपटा जा सकता है।

चाँद शर्मा

इशरतजहाँ या भारतवासी


इशरत जहाँ का ऐनकाऊंटर ‘असली’ था या ‘नकली’, यह तो अदालतें स्पष्ट करें गी। लेकिन अभी ऐक बात पूर्णत्या स्पष्ट है कि काँग्रेस और उस के धर्म निर्पेक्ष सहयोगियों को भारत के नागरिकों के जीवन की सुरक्षा की कोई चिन्ता नहीं। उन्हें पुलिस कर्मियों की निजि सुरक्षा और अधिकारों की तुलना में आतंकवादियों के ‘मानवाधिकारों’ की चिन्ता ज्यादा है। वह आतंकवादियों को पूरा ‘मौका’ देना चाहते हैं कि पहले आतंकवादी अपना ‘लक्ष्य पूरा करें’ ताकि पुलिस कर्मियों के हाथ ‘सबूत’ आ जाये कि भारतीय नागरिकों पर गोली चलाने वाले या बम फैंकने वाले वास्तव में ‘अपराधी थे’, ताकि हम उन पर बरसों मुकदमें चला सकें, कई तरह के कमिशन बैठा सकें, अपीलें सुन सकें और उन्हें रहम की फरियाद करने की बार बार छूट भी दें – और अगर उन आतंकियों की किसी तरह से ‘सहायता’ ना करी जा सके तो चोरी छिपे उन्हें मजबूर हो कर फाँसी पर लटका देँ। इस सारी परिक्रिया में अगर हमारे पुलिस कर्मी अगर जरा सी भी चूक करें तो पहले उन्हें जेलों में बन्द करें ताकि फिर कोई पुलिस कर्मी ‘हिम्मत दिखाने से पहले’ सरकार को दिखाने के लिये ‘सबूत दिखाये’।

तीसरा बडा स्पष्ट और सर्व-विदित तथ्य यह है कि काँग्रेस और उस के सहयोगियों को किसी के मानव अधिकारों की भी कोई चिन्ता नहीं जैसे कि साध्वी प्रज्ञा और उस के साथी बरसों से जेलों में पडे हैं। उन्हें चिन्ता है तो सिर्फ अपने वोट बैंक की जिस के सहारे वह वोटों का ध्रुवीकरण कर के चुनाव जीतें गे और फिर अगले पाँच साल तक ‘ऐशो-ईशरत’ करें। अदालती फैसले तो पहले भी होते रहै हैं और आगे भी होते रहैं गे। कितने आतंकियो और नक्सलियों को फाँसी दी गयी और उन की तुलना में कितने ड्यूटी पर तैनात पुलिस कर्मी मरे?

चौथा फैसला अब जनता को करना है। जनता निर्णय ले कि उन्हें इस तरह के ‘विधान’ और इस तरह की ‘कानूनी कारवाई’ के सहारे अपनी जान और आत्मसम्मान की रक्षा करनी है, अपने देश को आतंकियों से बचाना है या सिर्फ खोखले मानवाधिकारों के लिये देश और जनता को कुर्बान कर देना है। जहाँ देश और जनता का जनजीवन सुरक्षित नहीं वहाँ आतंकियों के मानवाधिकार, अदालतों के घिसे पिटे तरीके और नेता भी सुरक्षित नहीं। उन व्यवस्थाओं को भी बदलना होगा क्यों कि हर स्थिति में जनता के फैसले के खिलाफ विधान और वैधानिक सदन कोई अस्तीत्व नहीं रखते।

इशरत जहाँ का केस जरूर चुनावी मुद्दा बने गा और जनता का फैसला ही अन्तिम फैसला होगा।

इशरत जहाँ और उस के साथियों जैसे लोगों के आतंकवाद की वजह से जो भारतीय अपने शरीर के अंग, मां बाप, भाई बहन खो बैठते हैं उन के मानव अधिकारों की रक्षा कौन करे गा? हमारा संविधान? हमारी यू पी ऐ सरकार? हमारा दोगला मीडिया?हमारे भ्रष्टाचारी नेता?नाचनेवाले फिल्म स्टार? सबूतों के अभाव में जाने पहचाने अलगाव वादियों को बरी करने वाली न्यायपालिका? मानव अधिकारों की दुहाई देने वाले कुछ छिपे गद्दार? या फिर टीवी चैनलों पर आँसू दिखाने वाले मृत आतंकियों के रिश्ते दार?

इन सब में से कोई भी नहीं।

इशरत जहाँ और उन के साथियों के मारे जाने से करोडों भारतियों के दिल को स्कून मिला है, उन के शहीद हुये रिशतेदारों की आत्मा को शान्ति मिली है और वह सभी वनजारा आदि पुलिस कर्मियों के आभारी हैं।

अब वोटों की राजनीति करने वाली काँग्रेस उन के खिलाफ जो करना चाहे कर ले लेकिन यह पुलिस अधिकारी तो देश की जनता के हीरो बन चुके हैं।

अब सब से पहले तो आतंकवाद समर्थक काँग्रेसीयों और धर्म निर्पेक्षों को चुनावी मैदान में हरा कर व्यवस्थाओं को बदलने की कसम उठा लो।  हमारा लक्ष्य ऐक है – काँग्रेस मुक्त भारत निर्माण हिन्दुस्तान की पहचान और पुनरोत्थान।

चाँद शर्मा

दुहाई आदर्शवाद की


कल तक आडवाणी जी बीमार थे इस लिये वह गोवा नहीं जा सके थे। उन की अनुपस्थिति में बी जे पी की संसदीय कार्यकारिणी ने विधिवत नरेन्द्र मोदी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बना दिया। अधिवेशन से गैरहाजिर रहै अधिकांश नेताओं ने अपनी गैरहाजिरी के कारण भी सार्वजनिक कर दिये जिस से सभी का मन-मुटाव भी शान्त हो गया। राजनाथ सिहँ तथा नरेन्द्र मोदी ने आडवाणी जी से आशीर्वाद भी प्राप्त कर लिया और शुभ संकेतों के साथ बी जे पी का सम्मेलन सम्पूर्ण होगया – देश में जोश, आत्म विशवास और आशा की नयी किरण चमक उठी।

आज आडवाणी जी के स्वास्थ में अचानक सुधार होगया तो उन्हों ने अपना त्यागपत्र भी दे दिया। हैरानी इस बात की है कि कल तक बी जे पी के सभी अध्यक्ष निरन्तर आडवाणी जी के परामर्ष और आशीर्वाद से ही पार्टी को चला रहै थे तो फिर ऐक ही रात में भारतीय जनता पार्टी अपने ‘आदर्शों’ से कैसे गिर गयी और ‘पार्टी के नेता’ देश की चिन्ता छोड कर ‘स्वार्थी’ कैसे बन गये? ऐसी विकट स्थिति अचानक कैसे पैदा हो गयी जब कि आडवाणी जी अध्यक्ष से भी ऊपर पार्टी के सर्वे-सर्वा की तरह सम्मानित थे। उन का नेतृत्व ऐकदम विफल क्यों हो गया?

फेलैशबेक में देखें तो कुछ समय पहले आडवाणी जी ने अपने ब्लाग लेख में ऐक भविष्यवाणी की थी कि ‘2014 में ना तो काँग्रेस का और ना ही बी जे पी का नेता प्रधान मंत्री बने गा बल्कि कोई गैर NDA और काँग्रेस का नेता प्रधान मंत्री बन कर सरकार बनाये गा’। आडवाणी जी के त्यागपत्र के तुरन्त बाद आज ममता बैनर्जी ने भी न्योता दिया है कि गैर NDA और काँग्रेसी दल ऐक जुट हो कर 2014 में चुनाव के लिये फ्रंट बनायें। आडवाणी जी ने कहीं वह भविष्यवाणी अपने लिये ही तो नहीं करी थी? BJP से त्यागपत्र के बाद आडवाणी जी अपने आप को पूर्णत्या ‘ग़ैर बी जे पी’ और ‘गैर काँग्रेसी’ साबित कर सकते हैं। आडवाणी जी सीधी बात करने के बजाये इशारों में बातें करना ज्यादा पसंद करते हैं जिस की रिहर्सल उन्हों ने अपने महाभारत लेख में अभी अभी करी है।

साफ और स्पष्ट बात तो यह लग रही है कि चाहै संघ ने बी जे पी के अध्यक्षों को मनोनीत किया था लेकिन आडवाणी जी बी जे पी को अपने स्वार्थ के लिये परोक्ष रूप से स्वयं चलाना चाहते हैं ताकि वह NDA का मनवाँछित विस्तार कर के प्रधान मंत्री बन सकें, या फिर गैर NDA और गैर काँग्रेसी बन के अपनी ही भविष्यवाणी को सार्थक कर सकें। इस मानवी इच्छा में आदर्शवाद का कोई स्थान नहीं है। कल तक आडवाणी समर्थक भाजपाई नेता चुप हो कर नरेन्द्र मोदी के पीछे खडे हो गये थे परन्तु आडवाणी जी से शह पा कर वही NDA ब्रांड ‘सैक्यूलर पंथी’ ऐक बार फिर मोदी के रास्ते में कांटे बिछा सकते हैं। उन के नाम और कारनामें सर्व विदित हैं। आजतक वह आडवाणी की मेहरबानी से वह संसद में पिछले दरवाजे से बैठे आराम कर रहै थे लेकिन नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व से उन्हें कुछ जलन होना भी स्वाभाविक है।

आडवाणी जी अपने अहं और निजि आकांक्षाओं को पूरा करने के लिये बी जे पी के सांवैधानिक निर्णय को बदलने के लिये गाँधी जी की तरह का भावात्मिक दबाव बना रहै हैं और देश के युवाओं के मनोबल को तबाह करने में जुटे हैं। लेकिन आज देश में प्रत्येक हिन्दू युवा अपनी पहचान पाने के लिये नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व की ओर आशापूर्वक देख रहा है। आडवाणी जी और उन के समर्थकों का युग हिन्दू युवाओं को अन्धकार में छोड कर समाप्त हो चुका है और नयी सुबह की किरणें फूट रही हैं। अगर आडवाणी आज बी जे पी छोड भी दें गे तो उन की हालत उस सूखे पत्ते की तरह हो गी जो पेड से गिर जाता है और केवल खाद बन जाता है।

देश को अब बीमार नेतृत्व नहीं चाहिये। गुजरात में हुए लोकसभा तथा विधानसभा के चुनाव में ‘विकास’ कोई मुद्दा नहीं था। काँग्रेस नरेन्द्र मोदी के सामने ‘विकास’ पर तो मूहँ ही नहीं खोल सकती। इस बार मुद्दा था गुजरात की असमिता, भारत की संस्कृति की पहचान और सुरक्षा का। काँग्रेस और मीडिया ने ‘गुजरात-दंगों’ का ढोल तो पीटा मगर मतदाताओं ने अपना फैसला स्पष्ट दे दिया है। वहाँ कोई ‘दंगे’ नहीं थे वह ‘जुल्म’ के खिलाफ ‘हिन्दू प्रतिकार’ था। 2014 के चुनाव में अगर बी जे पी विकास, घोटाले, तुष्टिकरण, आतंकवाद, गठबन्धन राजनीती की दल दल से अब बाहर निकल कर पहले भारत की हिन्दू पहचान को मुद्दा रख कर अकेली ही आगे बढे गी तो निश्चय ही जीत मिलेगी। देश के लोग विशेष कर युवा अब यही चाहते हैं।

आडवाणी जी जिस ऐन डी ऐ के कीचड में दोबारा बी जे पी को धकेलना चाहते हैं उस से बचने के लिये नरेन्द्र मोदी को दो तिहाई मत के साथ अपने दम पर ही सरकार बनाने दो। NDA में घटक दलों के स्वार्थी नेता किस तरह से अटल जी की सरकार को शिथल बनाते रहै थे यह किसी से छुपा नहीं है। वह अब फिर नये प्रधान मंत्री के साथ भी वही करें गे इस लिये बी जे पी को अपने दम पर ही आगे बढना होगा जिस के लिये कार्य कर्ताओं में जोश और आत्म विशवास है। इस आत्म विशवास के साथ आडवाणी जी अपनी निजि आकाक्षाओं की पूर्ति के लिये खिलवाड मत करें।

आडवाणी जी ने त्याग पत्र दे कर अन्य वृद्ध नेताओं के लिये ऐक अच्छी मिसाल तो कायम की है लेकिन अपनी और पार्टी को ऐक मजाक भी बना दिया है। उन से यह उमीद नहीं थी। अब भले ही आडवाणी जी अपनी बातें मनवा कर त्यागपत्र वापिस भी ले लें तो भी जो हुआ वह वापिस नहीं लाया जा सकता। देश हित में अच्छा यही होगा कि उन की आयु के सभी नेताओं को अब राजनीति से सन्यास ले लेना चाहिये। यही भारतीय संस्कृति की मर्यादा है।

चाँद शर्मा

नरेन्द्र मोदी की पहचान


काँग्रेस और बिकाऊ मीडिया नरेन्द्र मोदी को ‘साम्प्रदायक’ कह रहै हैं तो मुस्लिम वोट हासिल करने के लिये बी जे पी उन्हें ‘धर्म निर्पेक्ष’ बनने के लिये मजबूर कर रही है। ‘साम्प्रदायक’ और ‘धर्म निर्पेक्ष’ की परिभाषा और पहचान क्या है यह नरेन्द्र मोदी ने स्वयं स्पष्ट कर दी है – ‘इण्डिया फर्स्ट’ ! नरेन्द्र मोदी की लोक प्रियता का कारण उन की भ्रष्टाचार मुक्त ‘मुस्लिम तुष्टिकरण रहित’ छवि है। अगर नरेन्द्र मोदी को काँग्रेसी ब्राँड का धर्म निर्पेक्ष बना कर चुनाव में उतारा जाये तो फिर नितिश कुमार और नरेन्द्र मोदी में कोई फर्क नहीं रहै गा। इस लिये नरेन्द्र मोदी को नरेन्द्र मोदी ही बने रहना चाहिये।

बी जे पी के  जिन स्वार्थी नेताओं को ‘हिन्दू समर्थक’ कहलाने में ‘साम्प्रदायकता’ लगती है तो फिर वह बी जे पी छोड कर काँग्रेसी बन जायें। अगर सिख समुदाय के लिये शिरोमणि अकाली दल, मुस्लमानो के लिये मुस्लिम लीग को ‘सैक्यूलर’ मान कर उन के साथ चुनावी गठ जोड करे जा सकते हैं तो हिन्दू समर्थक पार्टी को साम्प्रदायक क्यों कहा जाता है? इस लिये अब बी जे पी केवल उन्हीं पार्टियों के साथ चुनावी गठ जोड करे जिन्हें हिन्दूत्व ऐजेंडा मंजूर हो नहीं तो ऐकला चलो…

काँग्रेस की हिन्दू विरोधी नीति

1947 के बटवारे के बाद हिन्दूओं ने सोचा था कि देश का ऐक भाग आक्रानताओं को  दे कर हिन्दू और मुस्लमान अपने-अपने भाग में अपने धर्मानुसार शान्ति से रहैं गे लेकिन गाँधी और नेहरू जैसे नेताओं के कारण हिन्दू बचे खुचे भारत में भी चैन से नहीं रह सके। उन का जीवन और हिन्दू पहचान ही मिटनी शुरु हो चुकी है। अब इटली मूल की सोनियाँ दुस्साहस कर के कहती है ‘भारत हिन्दू देश नहीं है’। उसी सोनियाँ का कठपुतला बोलता है ‘मुस्लिमों का इस देश पर प्रथम हक है’।

जयचन्दी नेता मुस्लमानों के अधिक से अधिक सुविधायें देने के लिये ऐक दूसरे से प्रति स्पर्धा में जुटे रहते हैं। मुस्लिम अपना वोट बैंक कायम कर के ‘किंग-मेकर’ के रूप में पनप रहै हैं। आज वह ‘किंग-मेकर’ हैं तो कल वह ‘इस्लामी – सलतनत’ भी फिर से कायम कर दें गे और भारत की हिन्दू पहचान हमेशा के लिये इतिहास के पन्नों में ग़र्क हो जाये गी।

देश विभाजन की पुनः तैय्यारियाँ

सिर्फ मुस्लिम धर्मान्धता को संतुष्ट करने के लिये आज फिर से हिन्दी के बदले उर्दू भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया जा रहा है, सरकारी खर्च पर इस्लामी तालीम देने के लिये मदरस्सों का जाल बिछाया जा रहा है। शैरियत कानून, इस्लामी अदालतें, इस्लामी बैंक और मुस्लिम आरक्षण के जरिये समानान्तर इस्लामी शासन तन्त्र स्थापित किया जा रहा है। क्या धर्म निर्पेक्षता के नाम पर यह सब कुछ  राष्ट्रीय ऐकता को बढावा देगा या फिर से विभाजन के बीज बोये गा?

पुनर्विभाजन के फूटते अंकुर

आज जिन राज्यों में मुसलमानों ने राजनैतिक सत्ता में अपनी पकड बना ली है वहाँ पडोसी देशों से इस्लामी आबादी की घुस पैठ हो रही है, आतंकवादियों को पनाह मिल रही है, अलगाव-वाद को भड़काया जा रहा है और हिन्दूओं का अपने ही देश में शर्णार्थियों की हैसियत में पलायन हो रहा है। काशमीर, असम, केरल, आन्ध्राप्रदेश, पश्चिमी बंगाल आदि इस का  प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। यासिन मलिक, अबदुल्ला बुखारी, आजम खां, सलमान खुर्शीद, औबेसी, और अनसारी जैसे लोग खुले आम धार्मिक उन्माद भडकाते हैं मगर काँग्रेसी सरकार चुप्पी साधे रहती है। अगर कोई हिन्दू प्रतिक्रिया में सच भी बोलता है तो मीडिया, अल्प संख्यक आयोग और सरकारी तंत्र सभी ऐक सुर में हिन्दू को साम्प्रदायकता का प्रमाणपत्र थमा देते हैं। बी जे पी के कायर और स्वार्थी  नेता अपने आप को अपराधी मान कर अपनी धर्म निर्पेक्षता की सफाई देने लग जाते हैं।

भारत में इस्लाम 

यह ऐक ऐतिहासिक सच्चाई है कि इस्लाम का जन्म भारत की धरती पर नहीं हुआ था। इस्लाम दोस्ती और प्रेम भावना से नहीं बल्कि हिन्दू धर्म की सभी पहचाने मिटाने के लिये ऐक आक्रान्ता की तरह भारत आया था। भारत में मुस्लमान हैं उन्ही आक्रान्ताओं के वंशज हैं या फिर उन हिन्दूओं के वंशज हैं जो मृत्यु, भय, और अत्याचार से बचने के लिये या किसी लालच से इस्लाम में परिवर्तित किये गये थे। पाकिस्तान बनने के बाद अगर मुस्लमानों ने भारत में रहना स्वीकारा था तो वह उन का हिन्दूओं पर कोई अहसान नहीं था। उन्हों ने अपना घर बार त्यागने  के बजाये भारत में हिन्दूओं के साथ रहना स्वीकार किया था। लेकिन आज भी मुस्लमानों की आस्थायें और प्ररेणा स्त्रोत्र भारत से बाहर अरब देशों में है। भारत का नागरिक होने के बावजूद वह वन्दे मात्रम, समान आचार संहिता, योगिक व्यायाम तथा स्थानीय हिन्दू परम्पराओं से नफरत करते हैं। उन का उन्माद इस हद तक है कि संवैधानिक पदों पर रहते हुये भी उन की सोच में कोई बदलाव नहीं। और क्या प्रमाण चाहिये?

 गोधरा की चिंगारी

गोधरा स्टेशन पर हिन्दू कर-सेवकों को जिन्दा ट्रेन में जला डालना अमानवी अत्याचारों की चरम सीमा थी जो गुजरात में ऊँट की पीठ पर आखिरी तिनका साबित हुयी थी। अत्याचार करने वालों पर हिन्दूओं ने तत्काल प्रतिकार लिया और जब तक सरकारी तंत्र अचानक भडकी हिंसा को रोकने के लिये सक्ष्म होता बहुत कुछ हो चुका था। उस समय देश की सैनायें सीमा की सुरक्षा पर तैनात थीं। फिर भी गुजरात की नरेन्द्र मोदी सरकार ने धर्म निर्पेक्षता के साथ प्रतिकार की आग को काबू पाया और पीडितों की सहायता करी। लेकिन क्या आज तक किसी धर्म निर्पेक्ष, मानवअधिकारी ने मुस्लिम समाज को फटकारा है? क्या किसी ने कशमीर असम, और दिल्ली सरकार को हिन्दू-सिख कत्लेआम और पलायन पर फटकारा है?

अत्याचार करना पाप है तो अत्याचार को सहना महापाप है। सदियों से भारत में हिन्दू मुस्लमानों के संदर्भ में यही महापाप ही करते आ रहै थे। क्या आज तक किसी मानव अधिकार प्रवक्ता, प्रजातंत्री, और धर्म निर्पेक्षता का राग आलापने वालों ने मुस्लमानों की ‘जिहादी मुहिम’ को नकारा है? भारत में धर्म निर्पेक्षता की दुहाई देने वाले बेशर्म मीडिया या किसी मुस्लिम बुद्धिजीवी ने इस्लामी अत्याचारों के ऐतिहासिक तथ्यों की निंदा करी है?

 हिन्दूओं की आदर्शवादी राजनैतिक मूर्खता

मूर्ख हिन्दू जिस डाली पर बैठते हैं उसी को काटना शुरु कर देते हैं। खतरों को देख कर कबूतर की तरह आँखें बन्द कर लेते हैं और कायरता, आदर्शवाद और धर्म निर्पेक्षता की दलदल में शुतर्मुर्ग की तरह अपना मूँह छिपाये रहते हैँ। आज देश आतंकवाद, भ्रष्टाचार, अल्प-संख्यक तुष्टीकरण, बेरोजगारी और महंगाई से पूरा देश त्रस्त है। अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर देश की अनदेखी हो रही है लेकिन हिन्दू पाकिस्तान क्रिकेट देखने में व्यस्त रहते हैं या पाकिस्तानी ग़ज़लें सुनने में मस्त रहते हैं। अगर निष्पक्ष हो कर विचार करें तो भारत की दुर्दशा के केवल दो ही कारण है – अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और नेताओं का स्वार्थ जिस में सब कुछ समा रहा है।

अंधेरी गुफा में ऐक किरण आज के युवा अंग्रेजी माध्यम से फैलाई गयी इकतरफा धर्म निर्पेक्षता के भ्रमजाल से छुटकारा पाना चाहते हैं। वह अपनी पहचान को ढूंडना चाहते हैं लेकिन उन्हें मार्ग नहीं मिल रहा क्योंकि हमारे अधिकांश राजनेता और   बुद्धिजीवी नागरिक  मैकाले तथा जवाहरलाल नेहरू के बहकावे के वातारवर्ण में ही रंगे हुये हैं।

केवल ऐक ही विकल्प – नरेन्द्र मोदी

युवाओं के समक्ष केवल नरेन्द्र मोदी ही ऐक उमीद की किरण बनकर ऐक अति लोकप्रिय नेता की तरह उभरे हैं। आज भ्रष्टाचार और मुस्लिम तुष्टिकरण के खिलाफ सुब्रामनियन स्वामी का ऐकाकी संघर्ष युवाओं को प्रेरणा दे रहा है। आज युवाओं को अतीत के साथ जोडने में स्वामी रामदेव की योग-क्रान्ति, स्वदेशी आयुर्वेदिक विकल्प तथा भारत स्वाभिमान आन्दोलन सफल हो रहै हैं लेकिन धर्म निर्पेक्षता की आड में काँग्रेस, पारिवारिक नेता, बिकाऊ पत्रकार, स्वार्थी नेता, बी जे पी के कुछ नेता, इस्लामिक संगठन तथा बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ तरह तरह से भ्रान्तियाँ फैलाने में जुटे हैं ताकि भारत अमरीका जैसी महा शक्तियों का पिछलग्गु ही बना रहै।

बी जे पी अब तो  साहस करे

अगर बी जे पी को भारत माता या राम से कोई लगाव है तो बे खटके यह घोषणा करनी चाहिये कि दो तिहाई मतों से सत्ता में आने पर पार्टी निम्नलिखित काम करे गीः-

  •  धर्म के नाम पर मिलने वाली सभी तरह की सबसिडियों को बन्द किया जाये गा।
  • परिवारों या नेताओं के नाम पर चलने वाली सरकारी योजनाओं का राष्ट्रीय नामंकरण दोबारा किया जाये गा।
  •  भ्रष्ट लोगों के खिलाफ समय सीमा के अन्तर्गत फास्ट ट्रैक कोर्टों में मुकदमें चलाये जायें गे और मुकदमें का फैसला आने तक उन की सम्पत्ति जब्त रहै गी।
  • पूरे देश में शिक्षा का माध्यम राष्ट्रभाषा या राज्य भाषा में होगा। अंग्रजी शिक्षा ऐच्छिक हो गी।
  •  जिन चापलूस सरकारी कर्मचारियों ने कानून के विरुद्ध कोई काम किया है तो उन के खिलाफ भी प्रशासनिक कारवाई की जाये गी।
  • धारा 370 को संविधान से खारिज किया जाये गा।
  • पूरे देश में सरकारी काम हिन्दी और राज्य भाषा में होगा।
  • समान आचार संहिता लागू करी जाये गी।

तुष्टीकरण की जरूरत नहीं

अकेले नरेन्द्र मोदी ने ही प्रमाणित किया है कि ‘तुष्टिकरण’ के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। दिल्ली में बैठे बी जे पी के नेताओं को कोई संशय नहीं रहना चाहिये कि आज भारत के राष्ट्रवादी केवल मोदी की अगुवाई को ही चाहते हैं। देश के युवा अपनी हिन्दू पहचान को ढूंड रहै हैं जो धर्म निर्पेक्षता के झूठे आवरणों में छुपा दी गयी है। जो नेता इस समय मोदी के साथ नहीं होंगे हिन्दूओं के लिये उन का कोई राजनैतिक अस्तीत्व ही नहीं रहै गा।

चाँद शर्मा

क्या बी जे पी करेगी आत्म-हत्या?


(मैं ने आज तक बी जे पी को ही समर्थन दिया है और आगे भी देता रहूँ गा ताकि हिन्दूओं में राजनैतिक जागृति और ऐकता आये और हिन्दू अपने देश में सम्मान से अपनी वोट संख्या के बल पर सुरक्षित रह सकें। उन का घर उन से कोई छीन ना ले। बी जे पी को समर्थन देना हिन्दूओं की मजबूरी है क्यों कि इस समय अन्य कोई संगठन सक्ष्म नहीं है जो भारतीय संस्कृति के प्रति समर्पित होने का ‘दावा’ करता हो। यह दावे कितने सच्चे हैं उन पर से पर्दा उठाते समय मुझे अफसोस भी हो रहा है। फिर भी देश, बी जे पी, और हिन्दूओं के हित में इन बातों का विशलेशण करना जरूरी है।)

बी जे पी का हिन्दू भ्रम

काँग्रेस और मुस्लिम लीग ने कट्टर पंथी मुसलमानों के लिये देश को विभाजित करवा कर पाकिस्तान बनवाया। विभाजन के पश्चात खण्डित भारत में अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये काँग्रेस के नेताओं ने बहुसंख्यक हिन्दूओं को राजनैतिक तौर पर कमजोर किया, अल्प संख्यकों को हिन्दूओं के विरुद्ध कट्टर पंथी बने रहने के लिये संगठित किया और उसे ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का नाम दे दिया। हिन्दूओं में फूट डाल कर नेहरू गाँधी परिवार का पीढ़ी दर पीढ़ी राज्य स्थापित किया। इन काँग्रेसी कारनामों से सभी परिचित हैं इस लिये उस का अब ज्यादा उल्लेख करने की जरूरत नहीं।

बी जे पी के स्वार्थी नेता भी काँग्रेसियों से कम नहीं निकले। वह हिन्दू-राष्ट्र, हिन्दू संस्कृति और भारत माता का जयघोष तो रात-दिन करते रहते हैं मगर निर्वाचन से ठीक पहले अपने ऊपर धर्म-निर्पेक्ष्ता की चादर ओढ़ लेते हैं, उन क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी समझोते करते हैं जिन का हिन्दू-राष्ट्र, हिन्दू संस्कृति और भारत माता के साथ कुछ वास्ता नहीं है क्यों कि क्षेत्रीय दल कुछ परिवारों या सामाजिक घटकों की पार्टियां हैं। सत्ता प्राप्ति के बाद बी जे पी के स्वार्थी नेता (जिन में अटल बिहारी वाजपाई और लाल कृष्ण आडवाणी अग्रेसर रहै हैं) अपनी सत्ता को बचाने के लिये ऐन डी ऐ के घटक नेताओं और अल्प संख्यकों की चापलूसी करते हैं जिस के लिये कुर्बानी केवल हिन्दूओं के हितों की ही दी जाती है। किसी बी जे पी के नेता में दम हो तो इन बातों का सार्वजनिक तौर पर खण्डन इस ब्लाग पर कर के हिन्दूओं की संतुष्टि करे।

क्या यह सच नहीं कि बी जे पी के स्वार्थी नेता राम मन्दिर बनाने का झाँसा तो इलेकशन से पहले देते हैं, धारा 370 हटा कर काशमीर को भारत का अटूट अंग बनाने की प्रतिज्ञा करते हैं, सभी भारतीयों में समानता लाने के लिये समान आचार संहिता लागू करने के लिये वचन बद्ध होते हैं लेकिन सत्ता के समीप आते ही इन्हीं बातों को ठंडे बस्ते में डाल देते हैं। सत्ता-सुख के लिये ‘गठ-बन्धन-धर्म’ की आड में देश-धर्म और हिन्दू संस्कृति के प्रति निष्ठा को दर किनार कर ‘ईण्डिया शाईनिंग’ और विकास के लुभावने वादे करने लग जाते हैं। सत्ता हाथ से निकलते ही इन में फिर से राम-भक्ती, भारत माता के प्रति निष्ठा और भारतीय संस्कृति के लिये प्रेम की उमंगें हिलोरें खाने लगती हैं। यही चक्र विभाजन के समय से ही आज तक चलता रहा है और अब भी चल रहा है। काँग्रेसी तो जाने पहचाने हिन्दू विरोधी हैं मगर भगवे रंग में लिपटे छद्म-वेशी हिन्दू हितेषी भाजपाई कहीं ज्यादा घातक और स्वार्थी साबित हो रहै हैं।

आडवाणी की राम भक्ति

बाबरी मस्जिद का ढांचा राम जन्म भूमि की छाती पर ऐक रिसता हुआ नासूर था। जब आडवाणी जी राम-रथ-यात्रा ले कर आये तो राम भक्तों ने इस राम भक्त नेता की अगुवाई में उस ढांचे को राम जन्म भूमि से हटाने की कोशिश की। ढांचा गिरा तो आडवाणी अपने ऊपर खतरा भांप कर राम भक्तों से दूर जा बैठे। क्या आडवाणी जी अयोध्या केवल तमाशा देखने के लिये गये थे?

जब निहत्थे हिन्दूओं को (जिन में बच्चे और महिलायें भी थीं) गोधरा के समीप ट्रेन में जिन्दा जलाने का दुसाहस मुस्लिम कट्टर पंथियों ने किया और हिन्दूओं ने प्रतिकार लिया तो प्रधान मन्त्री की कुर्सी पर बैठे अटल जी की आंखों से हिन्दूओं के लिये दो आँसू भी नहीं टपके मगर उन का “सिर शर्म से झुक गया” था क्यों कि उन की कुर्सी की टांगे डाँवाडोल होने लग गयी थी। उस के बाद तो वाजपाई जी ने मुस्लिम तुष्टीकरण करने के लिये योजनाओं की झडी लगा दी थी।  सब से पहले नरेन्द्र मोदी को एक ‘राजनैतिक-अछूत’ बना दिया, पाकिस्तानियों के लिये भारतीय अस्पतालों में मुफ्त इलाज की सुविधायें पैदा कर दीं, समझौता ऐक्सप्रेस गाडियां चलवा दीं – लेकिन आज तक ऐक भी पाकिस्तानी आतंकी भारत के हाथ नहीं लगा। पाकिस्तानी सरकार तो अपने आतंकियों को बचाने में लगी थी – लेकिन बी जे पी के शासन में आज तक हिन्दू पुलिस कर्मी आतंकियों का ‘संहार करने के जुर्म’ में जेलों में बन्द हैं या सजायें काट रहै हैं। सत्ता के लिये राम भक्त वाजपाई राम विरोधी करुणानिधि के साथ गठ बन्धन धर्म ही तो निभाने लग गये। अलगाव वादी फारुख  अबदुल्ला और औमर अबदुल्ला को ‘धारा 370 विरोधी वाजपाई’ के मन्त्री मण्डल में शामिल करना कौन से काशमीरी हिन्दूओं के हित में था जो आज भी शर्णार्थी बन कर अपने ही देश में भटक रहै हैं? उन सब प्रयत्नों का नतीजा क्या निकला?

तुष्टीकरण का नतीजा

अटल जी उस समय की ‘नौसिख्यिा’ सोनियाँ के आगे चुनाव हार गये। सत्ता हाथ से जाते ही ‘ सत्ता सुख भोगने वाले साथी’ ऐन डी ऐ का साथ छोड गये। निर्जीव काँग्रेस पुनः जीवित हो उठी। बी जे पी ने हिन्दूओं का विशवास ही खो दिया। मुस्लिम वोट तो उन्हें पहले भी नहीं मिलते थे और ना ही अब मिलें गे। आज हिन्दू भी पूछते हैं “जब बी जे पी सत्ता में थी तो उस ने हमारे लिये क्या किया?” – कुछ भी तो नहीं! हिन्दू सिर्फ धर्म निर्पेक्षता का बोझ अपने सिर पर ढोते रहै और आतंकवादियों से पिटते रहै! ‘इण्डिया शाईनिंग’ के प्रचार के बावजूद आडवाणी ‘प्राईम मिन्स्टर इन वेटिंग’ ही रहै। – और आगे उम्र भर भी यही रहैं गे! उन के सिर पर तो भागवान राम का ही श्राप है। वह प्रधान मन्त्री नहीं बन सकते और उन अगुवाई के कारण बी जे पी की सरकार भी नहीं बने गी।

धर्म-निर्पेक्ष्ता का नया नाम ‘गठ बन्धन धर्म’ 

अब 2014 से पहले ऐक बार फिर बी जे पी हिन्दुत्व को दर किनार कर के ‘विकास’ के नाम पर हिन्दूओं के साथ खिलवाड करने जा रही है। ऐन डी ऐ का रंग मंच सजाया जा रहा है – रंग मंच के अभिनेता वही जाने पहचाने पुराने लोग हों गे जिन की अगुवाई अब नितीश कुमार करें गे। सत्ता मिल गयी तो फिर अगले पाँच वर्ष तक बी जे पी अपना गठ बन्धन धर्म निभाये गी। हिन्दू जहाँ अब हैं वहीं पडे रहैं गे। आज जब इस देश से हिन्दूओं की पहचान ही मिटाई जा रही है तो हिन्दू ‘विकास’ किस के लिये कर रहै हैं?

जब अटल जी को पहली बार प्रधान मन्त्री पद मिला तो वह बी जे पी सरकार के लिये पर्याप्त वोट नहीं जुटा पाये थे और उन्हें 13 दिन के अन्दर ही इस्तीफा देना पडा था। बी जे पी को साम्प्रदायकता के कारण ‘राजनैतिक-अछूत’ माना जाता था। वही साम्प्रदायकता का टीका बी जे पी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के माथे से आज तक नहीं उतरा और  अब अपने हिन्दू प्रेम पर बी जे पी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता ‘शर्मसार’ हो कर अपने ‘सैक्यूलर’ होने की दोहाई ही देते रहते हैं।

हिन्दूओं की आत्म ग्लानि

बी जे पी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेता क्यों नहीं डंके की चोट पर कहते कि वह हिन्दू हैं, उन्हें हिन्दू होने का गर्व है, भारत हिन्दूओं का जन्म स्थान है और हम अपना देश धर्म निर्पेक्षता की आड में दूसरों का हथियाने नहीं दें गे , उसे विश्व में ‘सार्वजनिक स्थल’ नहीं बनने दें गे? क्यों छोटे मोटे परिवार वादी, घटकवादी नेता बी जे पी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेताओं को हिन्दू प्रेम के कारण लताड कर चले जाते हैं? केजरीवाल जैसे लोग देश से बहुसंख्यक हिन्दूओं की अनदेखी कर के अल्पसंख्यकों को आँखों पर बैठाते हैं और हिन्दू साम्प्रदायक्ता का गुनाह सिर झुका कर कबूल कर लेते हैं।

बटवारे के पश्चात अगर कोई मुस्लिम कट्टर पंथियों का हर बात में खुले आम समर्थन करे तो वह प्रगतिशील और सच्चा सैक्यूलर माना जाता है लेकिन अगर कोई हिन्दूओं को हिन्दू आस्थाओं के साथ जीने को कहै तो बी जे पी और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ‘साम्प्रदायक’ और ‘दकियानूस’ माने जाते हैं और आज तक भारत माता की जय पुकारने वाले यह ‘स्पूत’ भी अपने हिन्दू प्रेम को साम्प्रदायकता ही मान बैठे हैं। कितनी शर्म की बात है कि जब मुलायम सिहं, लालू प्रसाद और दिग्विजय सिहं जैसे टुच्चे विरोधी उन्हें भगवा आतंकी होने की गालियां सुनाते हैं तो बी जे पी और आर एस एस के नेता शर्म से अपना सिर झुका लेते हैं। गर्व के साथ अपना हिन्दू प्रेम स्वीकारने के बजाये गाली देने वालों को नेहरू, पटेल और जयप्रकाश नारायण के सर्टिफिकेटों का हवाला दे कर कहते हैं कि उन ‘राष्ट्रीय’ नेताओं की नजर में तो वह ‘साम्प्रदायक’ नहीं हैं। नितिश जैसे मुस्लिम प्रस्त को फटकारने के बजाये यही नेता जे डी यू को मनाने के लिये नरेन्द्र मोदी को नकारने के बहाने खोजने में लग जाते हैं। अगर इन्हें अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण ही करते रहना है तो फिर अलग पाकिस्तान बनाने की क्या जरूरत थी? देश की अखण्डता को क्यों नष्ट होने दिया? 

हिन्दू जन्म भूमि का अपमान

हमें अपना सेकूलरज्मि विदेशियों से प्रमाणित करवाने की कोई आवश्यक्ता नहीं। हमें अपने संविधान की समीक्षा करने और बदलने का पूरा अधिकार है। इस में हिन्दूओं के लिये ग्लानि की कोई बात नहीं कि हम गर्व से कहें कि हम हिन्दू हैं। हमें अपनी धर्म हीन धर्म-निर्पेक्षता को त्याग  कर अपने देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना होगा ताकि भारत अपने स्वाभिमान के साथ ऐक स्वतन्त्र देश की तरह विकसित हो सके। हमारी जन्म भूमि अन्य लोगों के लिये कोई सार्वजनिक सराय नहीं है कि जो भी आये वह अपना बिस्तर बिछा कर कहै कि अब देश वासी सैलानियों के आदेशानुसार चलें।  

स्नातन धर्म ही ऐक पूर्णत्या मानव धर्म है। समस्त मानव जो प्राकृतिक नियमों तथा स्थानीय परियावरण का आदर करते हुये जियो और जीने दो के सिद्धान्त का इमानदारी से पालन करते हैं वह विश्व में जहाँ कहीं भी रहते हों, सभी हिन्दू हैं। 

तुष्टीकरण की जरूरत नहीं  

अकेले नरेन्द्र मोदी ने ही प्रमाणित किया है कि ‘तुष्टिकरण’ के बिना भी चुनाव जीते जा सकते हैं। दिल्ली में बैठे बी जे पी के नेताओं को कोई संशय नहीं रहना चाहिये कि आज भारत के राष्ट्रवादी केवल मोदी की अगुवाई को ही चाहते हैं। देश के युवा अपनी हिन्दू पहचान को ढूंड रहै हैं जो धर्म निर्पेक्षता के झूठे आवरणों में छुपा दी गयी है। जो नेता इस समय मोदी के साथ नहीं होंगे  वह चाहे बी जे पी के अन्दर हों या बाहर, हिन्दूओं के लिये उन का कोई राजनैतिक अस्तीत्व ही नहीं रहै गा। मनमोहन सोनिया जैसा समीकरण बी जे पी में आडवाणी और सुषमा स्वराज का है। फर्क सिर्फ इतना है कि मनमोहन-सोनिया कामयाब रहै हैं और सुषमा-आडवाणी कामयाब नहीं हों गे। वह अपने साथ बी जे पी को भी ले डूबें गे। जनता सिर्फ नरेन्द्र मोदी को ही चाहती है।

 अभी फिर से बी जे पी में ही सत्ता पाने के लिये हिन्दुत्व को दर किनार करने की आवाजें उठने लगी हैं ताकि सैक्यूलर जिन्ना ब्राण्ड आडवाणी को सत्ता पर बैठाया जा सके। इस से साफ जाहिर है कि बी जे पी के इन गिने चुने नेताओं को केवल सत्ता चाहिये। उन्हें भारतीय संस्कृति, धारा 370 या समान आचार संहिता या देश को ऐक सूत्र में बान्धने आदि से कोई सरोकार नहीं। भारत माता की जय, वन्दे मात्रम आदि सब ढकोसले हिन्दूओं को बातों से ही संतुष्ट करने को चोचले हैं। मर चुके ‘जय चन्द’ को कोसने से कोई फायदा नहीं, उन्हें समझने और पहचानने की ज़रूरत है।

गर्व से कहो हम हिन्दू हैं

बी जे पी की नाव में जो छेद आडवाणी एण्ड कम्पनी ने किये हैं उन में से पानी भरना शुरु हो चुका है। अभी भी वक्त है । फैसला करो “भारत सर्वोपरि के साथ नरेन्द्र मोदी” चाहिये या ‘टोपी-तिलक ब्राण्ड सत्ता के’ लालच में नितिश।

भारत के राष्ट्रवादी युवाओं को चाहिये कि नेताओं की जय जयकार करने और उन्हें फूल मालायें पहनाने से पहले अब इन नेताओं की सक्ष्मता का प्रमाण खुद देखें, परखें, और पहचान करें। जिन घोडों पर बैठ कर रेस में उतरना है कहीं वह लंगडे तो नही! 

बी जे पी  के केवल उन्हीं उमीदवारों पर चुनाव में मतदान कीजिये –

  • जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, स्वामी राम देव के भारत स्वाभिमान, या विश्व हिन्दू परिषद  में से किसी ऐक के एक्टिव सदस्य हों।
  • जो समान आचार संहिता लाने के पक्ष में हों।
  • गर्व के साथ हिन्दी भाषा का प्रयोग करते हों।
  • जिन के परिवार भी पिछले पांच वर्षों से हिन्दू संस्कृति से जुडे दिखाई देते हों।

अगर बी जे पी नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में अपने आत्म-विशवास के साथ अपना ऐजेन्डा ले कर 2014 के चुनाव में उतरे गी तो निश्चय ही विजय हासिल होगी। ऐन डी ऐ के नखरे उठाने की जरूरत नहीं।  अगर बी जे पी ने अब हिन्दुत्व को दर किनार किया तो यह पार्टी की आत्म हत्या होगी और कोई ना कोई हिन्दू संगठन बी जे पी का राजनैतिक स्थान ले ले गा।

चाँद शर्मा

 

नेता मण्डी


हमारे देश में नेताओं का ऐक वर्ग ऐसा है जिन के माथे पर on sale का स्टिकर सदा लगा रहता है। जिस पार्टी को सरकार बनाने के लिये इन की जरूरत पडे वह इन्हें मोल-भाव कर के खरीद सकता है। यह लोग अपनी पार्टी के Supremo कहलाते हैं। उन के सामने किसी अन्य वर्कर की कोई औकात नहीं होती। लालू यादव, रामविलास पासवान, अजीत सिहँ और शिबूसौरेन आदि इस वर्ग के जाने पहचाने नाम हैं।

दूसरा वर्ग उन लोगों का है जो Toggle switch की तरह जोडियों में काम करते हैं। अगर ऐक वर्ग पक्ष में होगा तो दूसरा विपक्ष में। मायावती – मुलायम, जयललिता – करुणानिधि, ऊधव ठाकरे – राज ठाकरे, फारुख अबदुल्ला – मुफ्ती मुहम्मद सैय्यद आदि इसी ‘प्रतिक्रियावादी’ श्रेणी के हैं।

तीसरा वर्ग उन Hard Bargainer स्वार्थियोंका है जो काफी मोल भाव कर के बिकते हैं, मगर उन के समर्थन वचनों के बाद भी उन पर विशवास नहीं किया जा सकत। चन्द्रबाबू नायडू, ओम प्रकाश चौटाला, ममता बनर्जी, शरदपवार और नवीन पटनायक आदि इन में प्रमुख हैं। उन का निजी स्वार्थ ही सर्वोपरि रहता है।

अब जरा सोचिये – जो पार्टियां या नेता 100 से भी कम प्रत्याशियों के साथ चुनाव लडते हैं उन की देश के लिये क्षमता क्या हो सकती है? इस तरह के ‘खुदरा नेता’ और पार्टियां जितना तोल मोल करें गे उस से किसी का क्या भला करें गे? किसी जाति, धर्म, व्यवसाय, या छोटे मोटे गुट के नाम पर चुनाव लडने वाले, निर्दलीय, पुराने वक्त के 75-80 वर्ष के थके हारे नेता केवल अपना और अपने परिवारों का भला करने के लिये ही चुनाव लडते हैं क्योंकि सिर्फ चुनाव जीतने पर ही 75 – 80 वर्ष की आयु में ऐक लाख रुपये की मासिक आय, मुफ्त इलाज, देश भर का हवाई-जहाज में भ्रमण और अनेक तरह की ढेर सारी अन्य सुविधायें उन्हें अगले पाँच वर्षों लिये सहज में ही प्राप्त हो जाती हैं।

क्या ऐसे लोगों को वोट देने से देश का या आप का कुछ भला होगा? – बिलकुल नहीं !फिर ऐसी पार्टियों और निर्दलीय लोगों के लिये अपना वोट खराब करना मूर्खता नहीं तो और क्या है? आप को चकमा दे कर नेता फायदा उठा जाता है और फिर पाँच वर्ष तक वही नेता आप को दिखाई भी नहीं पडता। आ बैल मुझे मार इसी को कहते हैं!

2014 में ही अपना बोझ थोडा तो कम कीजिये – लालू यादव, मुलायम सिहं, मायावती, अजीत सिहं, केजरीवाल, देवेगोडा, अमर सिहँ, आडवाणी और ढेर सारी दक्षिण भारत की पार्टियों के नेताओं को राजनीति से रिटायर कीजिये और भारत को साफ रखने में अपनी मदद स्वयं कीजिये। इन लोगों ने भारतीय लोकतन्त्र को ऐक मजाक बना कर रख दिया है और यही नेता देश की प्रगति के मार्ग में सब से बडी रुकावट हैं। इस ‘नेतावी दीमक’ को को अगले चुनाव में सत्ता से बाहर करना ऐक महान देश सेवा होगी।

चाँद शर्मा

 

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