15 – विशाल महाभारत
महाभारत को पहले भारत संहिता कहा जाता था। ज्ञान तथा जीवन दर्शन का ग्रँथ होने के कारण इसे पंचम वेद भी कहते हैं। कालान्तर इस का नाम महाभारत पडा। विश्व साहित्य में महाभारत सब से विशाल महाकाव्य है जिस के रचनाकार मह़ृर्षि वेद व्यास थे। रामायण की तरह इस महाकाव्य को भी विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है तथा भारत के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के लेखक भी इस ग्रंथ से प्ररेरित हुये हैं। महाभारत का रूपान्तर काव्य के अतिरिक्त कथा, नाटक, और कथा-चित्रावलियों में भी हो चुका है। भारत की समस्त नृत्य शैलियों तथा संगीत नाटिकाओं में भी इस महाकाव्य के कथांशों को दर्शाया जाता है। महाभारत कथाओं पर कितने ही श्रंखला चल-चित्रों का निर्माण भी हो चुका है तथा अभी भी इस महाकाव्य का कथानक इतना सशक्त है कि आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर के बेनहूर, हैरी पाटर, अवतार और लार्ड आफ दि रिंग्स से भी अधिक भव्य चल-चित्रों का निर्माण सफलता पूर्वक किया जा सकता है।
भारतीय जीवन का चित्रण
यह महाकाव्य भारतीय जीवन के सभी अंगों का विस्तरित चित्रण करता है। प्राचीन काल में सेंसर शिप नहीं होती थी। शेक्सपियर आदि के नाटकों के मूल संस्करणों में भद्दी गालियों से भरे सम्वाद भी मिलते हैं जो आजकल विश्व विद्यालयों के संस्करणों में पुनः सम्पादित कर के निकाल दिये जाते हैं। यथार्थवाद के नाम पर भी कई चल चित्रों में गाली गलौच वाली भाषा के संवाद होते हैं किन्तु महाभारत के रचना कार ने अपनी लेखनी पर स्वेच्छिक नियंत्रण रखा है। कौरवों तथा पाँडवों के जन्म से जुडे़ कथानक को अलंकार के रूप से लिखा गया है ताकि उस में कोई अशलीलता ना आये। पाठक चाहें तो उसे यथार्थ से जोड कर देखें, चाहे तो ग्रंथकार की कल्पना को सराहें। किन्तु जो कुछ और जैसे भी लिखा है वह वैज्ञियानिक दृष्टि से भी सम्भव है।
युगों की ऐतिहासिक कडी
महाकाव्य रामायण की गाथा त्रैता युग की घटना है तो महाभारत की कथा दूआपर युग से आरम्भ हो कर कलियुग के आगमन तक का इतिहास है। कुछ पात्र तो रामायण और महाभारत में संयुक्त पात्र हैं जैसे कि देवऋर्षि नारद, भगवान परशुराम तथा हनुमान जो कि सतयुग, त्रेता, दूआपर और कलियुग को जोडने की कड़ी बन चुके हैं। यह पात्र स्नातन धर्म की निरन्तर श्रंखला को आदि काल से आधुनिक युग तक जोडते हैं।
कौरवों तथा पाँडवों को मिला कर महाभारत के युद्ध में 18 अक्षौहिणी सैनाओं ने भाग लिया था। ऐक अक्षौहिणी सेना में 21870 रथ, 21870 हाथी, 109350 पैदल ऐर 65610 घुड सवार होते हैं। युद्ध के उल्लेख महाकाव्यों के अनुरूप भव्य होते हुये भी सैनिक दृष्टि से तर्क संगत हैं तथा ऐक विश्व युद्ध का आभास देते हैं।
महाभारत मुख्यता कौरव-पाँडव वंशो, उन के वंशजों तथा तत्कालीन भारत के अन्य वंशों के परस्पर सम्बन्धों, संघर्षों, रीति रिवाजों की गाथा है जो अंततः निर्णायक महाभारत युद्ध की ओर बढ़ती है। महाभारत युद्ध अठारह दिन चलता है और उस में दोनों पक्षों की अठारह अक्षोहणी सेना के साथ भारत के लग-भग सभी क्षत्रिय वीरों का अंत हो जाता है। महाभारत कथानक में सभी पात्र निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ते हैं तथा मानव जीवन के उच्चतम एवं निम्नतम व्यव्हारिक स्तरों को दर्शाते हैं। लग भग एक लाख श्र्लोकों में से छहत्तर हजार श्र्लोकों में तो पात्रों के आख्यानों का उल्लेख है जो महाकाव्य को महायुद्ध के कलाईमेक्स की ओर ले जाते हैं।
महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ स्वरूप लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। एक उल्लेखनीत तथ्य और भी उजागर होता है कि रामायण का अपेक्षा महाभारत में राक्षस पात्र बहुत कम हैं जिस से सामाजिक विकास का आभास मिलता है।
नैतिक महत्व
रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। महाभारत में लग भग बीस हजार से अधिक श्र्लोक धर्म ऐवं नीति के बारे में हैं।
श्रीमद् भागवद गीता
श्रीमद् भागवद गीता महाभारत महाकाव्य का ही विशिष्ठ भाग है। यह संसार की सब से लम्बी दार्शनिक कविता है। गीता महाभारत युद्ध आरम्भ होने से पहले भगवान कृष्ण और कुन्ती पुत्र अर्जुन के बीच वार्तालाप की शैली में लिखी गयी है। गीता की दार्शनिक्ता संक्षिप्त में उपनिष्दों तथा हिन्दू विचारधारा का पूर्ण सारांश है। गीता का संदेश महान, प्रेरणादायक, तर्क संगत तथा प्रत्येक स्थिति में यथेष्ठ है। संक्षिप्त में गीता सार इस प्रकार हैः-
- जब भी संसार में धर्म की हानि होती है ईश्वर धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये किसी ना किसी रूप में अवतरित होते हैं।
- ईश्वर सभी प्रकार के ज्ञान का स्त्रोत्र हैं। वह सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ्य तथा सर्व व्यापक हैं।
- म़त्यु केवल शरीर की होती है। आत्मा अजर और अमर है। वह पहले शरीर के अंत के पश्चात दूसरे शरीर में पुनः प्रवेश कर के नये शरीर के अनुकूल क्रियायें करती है।
- जन्म-मरण का यह क्रम आत्मा की मुक्ति तक निरन्तर चलता रहता है।
- सत्य और धर्म स्दैव अधर्म पर विजयी होते हैं।
- सभी एक ही ईश्वर की अपनी अपनी आस्थानुसार आराधना करते हैं किन्तु ईश्वर के जिस रूप में आराधक आस्था व्यक्त करता है ईश्वर उसी रूप को सार्थक कर के उपासक की आराधना को स्वीकार कर लेते हैं। इसी वाक्य में हिन्दू धर्म की धर्म निर्पैक्षता समायी हुयी है।
- हर प्राणी को अपनी निजि रुचि के अनुकूल धर्मानुसार कर्म करना चाहिये तथा अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देना चाहिये।
- हर प्राणी को बिना किसी पुरस्कार के लोभ या त्रिरस्कार के भय के अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये तथा अपने मनोभावों को कर्तव्य पालन करते समय विरक्त रखना चाहिये।
- प्राणी का अधिकार केवल कर्म पर है, कर्म के फल पर नहीं। कर्म फल ईश्वर के आधीन है।
- अहिंसा परम धर्म है उसी प्रकार धर्म रक्षा हेतु हिंसा भी उचित है।
- अति सर्वत्र वर्जित है।
आत्म विकास
महाभारत की कथा में श्रीकृष्ण की भूमिका अत्यन्त महत्वशाली है। युद्ध को टालने की सभी कोशिशें असफल होने के पश्चात श्रीकृष्ण ने उस महायुद्ध के संचालन में ऐक विशिष्ट भूमिका निभाई तथा आसुरी और अधर्म प्रवृति की शक्तियों पर विजय पाने का मार्ग भी दर्शाया। किसी आदर्श की सफलता के लिये युक्ति प्रयोग करने का अनुमोदन किया। कौरव सैना के अजय महारथियों का वध युक्ति से ही किया गया था जिस के प्रमुख सलाहकार श्रीकृष्ण स्वयं थे। कोरे आदर्श, अहिंसा तथा निष्क्रियता से अधर्म पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। उस के लिये कर्मयोग तथा युक्ति का प्रयोग नितान्त आवश्यक है।
श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं –
- कर्म योगः – कर्म योग साधना कर्मठ व्यक्तियों के लिये है। इस का अर्थ है कि प्रत्येक परिस्थिति में अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म के साथ किसी पुरस्कार की चाह अथवा त्रिरस्कार का भय त्याग दो।
- भक्ति योगः- भक्ति योगः साधना निष्क्रयता का आभास देता है। ईश्वर में श्रद्धा रखो तथा जब परिस्थिति आ जाये तो अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म को ईश्वर की आज्ञा समझ कर करो जिस में निजि स्वार्थ कुछ नहीं होना चाहिये। अच्छा – बुरा जो कुछ भी फल निकले वह ईश्वरीय इच्छा समझ कर हताश होने की ज़रूरत नहीं। कर्ता ईश्वर है और जैसा ईश्वर रखे उसी में संतुष्ट रहो।
- राज योगः – राज योगः का सिद्धान्त अष्टांग योग भी कहलाता है। य़म, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि इस योग के आठ अंग हैं जिन का निरन्तर अभ्यास मानव को स्वस्थ शरीर तथा पूर्णत्या विकसित दिमागं की क्षमता प्रदान करता है जिस से मानव प्रत्येक परिस्थिति में धैर्य तथा स्थित प्रज्ञ्य रह कर अपने कर्तव्य तथा कर्म का चयन कर सके। इस प्रकार मानव अपनी इन्द्रियों तथा भावनाओं को वश में रखते हुये संतुलित निर्णय तथा कर्म कर सकता है।
- ज्ञान योगः – ज्ञान योगः की साधना उन व्यक्तियों के लिये है जो सूक्षम विचारों के साथ अपने कर्तव्य पालन के सभी तथ्यों पर विचार कर के उचित निर्णय करने में कुशल हों। कुछ भी तथ्य छूटना नहीं चाहिये। ज्ञान योगः साधना कठिन होने के कारण बहुत कम व्यक्ति ही इस मार्ग पर चलते हैं।
मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग को अपनाये गा किन्तु भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुने गा। तर्कवादी राज योग से निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संन्यासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे। पशु पक्षी अपने कर्म निजि परिवृति के अनुसार करते हैं जिस लिये उन्हें कर्ता का अभिमान या क्षोभ नहीं होता। सारांश सभी का ऐक है कि अपना कर्म निस्वार्थ हो कर करो और फल की चाह ना करो।
गीता की दार्शनिक्ता विश्व में सब से प्राचीन है और वह सभी जातियों देशों के लिये प्रत्येक स्थिति में मान्य है। हिन्दू विचार धारा सब से सरल तथा सभी विचारधाराओं का संक्षिप्त विकलप है।
ऐतिहासिक महत्व
मानव सृष्टि के इतिहास में भारत का इतिहास सर्वप्राचीन माना जाता है। भारत के सूर्यवंश और चन्दवंश का इतिहास जितना पुराना है उतना पुराना इतिहास विश्व के अन्य किसी भी वंश का नहीं है। यदि रामायण सूर्यवंशी राजाओं का इतिहास है तो महाभारत चन्द्रवंशी राजाओं का इतिहास है। चीन सीरिया और मिश्र में जिन राजवंशों का वृतान्त पाया जाता है वह चन्द्रवंश की ही शाखायें हैं।
उन दिनों इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। महाभारत काल के पश्चात से मौर्य वंश तक का इतिहास नष्ट अथवा लुप्त हो चुका है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।
चाँद शर्मा