हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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15 – विशाल महाभारत


महाभारत को पहले भारत संहिता कहा जाता था। ज्ञान तथा जीवन दर्शन का ग्रँथ होने के कारण इसे पंचम वेद भी कहते हैं। कालान्तर इस का नाम महाभारत पडा। विश्व साहित्य में महाभारत सब से विशाल महाकाव्य है जिस के रचनाकार मह़ृर्षि वेद व्यास थे। रामायण की तरह इस महाकाव्य को भी विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है तथा भारत के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के लेखक भी इस ग्रंथ से प्ररेरित हुये हैं। महाभारत का रूपान्तर काव्य के अतिरिक्त कथा, नाटक, और कथा-चित्रावलियों में भी हो चुका है। भारत की समस्त नृत्य शैलियों तथा संगीत नाटिकाओं में भी इस महाकाव्य के कथांशों को दर्शाया जाता है। महाभारत कथाओं पर कितने ही श्रंखला चल-चित्रों का निर्माण भी हो चुका है तथा अभी भी इस महाकाव्य का कथानक इतना सशक्त है कि आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर के बेनहूर, हैरी पाटर, अवतार और लार्ड आफ दि रिंग्स से भी अधिक भव्य चल-चित्रों का निर्माण सफलता पूर्वक किया जा सकता है।

भारतीय जीवन का चित्रण

यह महाकाव्य भारतीय जीवन के सभी अंगों का विस्तरित चित्रण करता है। प्राचीन काल में सेंसर शिप नहीं होती थी। शेक्सपियर आदि के नाटकों के मूल संस्करणों में भद्दी गालियों से भरे सम्वाद भी मिलते हैं जो आजकल विश्व विद्यालयों के संस्करणों में पुनः सम्पादित कर के निकाल दिये जाते हैं। यथार्थवाद के नाम पर भी कई चल चित्रों में गाली गलौच वाली भाषा के संवाद होते हैं किन्तु महाभारत के रचना कार ने अपनी लेखनी पर स्वेच्छिक नियंत्रण रखा है। कौरवों तथा पाँडवों के जन्म से जुडे़ कथानक को अलंकार के रूप से लिखा गया है  ताकि उस में कोई अशलीलता ना आये। पाठक चाहें तो उसे यथार्थ से जोड कर देखें, चाहे तो ग्रंथकार की कल्पना को सराहें। किन्तु जो कुछ और जैसे भी लिखा है वह वैज्ञियानिक दृष्टि से भी सम्भव है।

युगों की ऐतिहासिक कडी

महाकाव्य रामायण की गाथा त्रैता युग की घटना है तो महाभारत की कथा दूआपर युग से आरम्भ हो कर कलियुग के आगमन तक का इतिहास है। कुछ पात्र तो रामायण और महाभारत में संयुक्त पात्र हैं जैसे कि देवऋर्षि नारद, भगवान परशुराम तथा हनुमान जो कि सतयुग, त्रेता, दूआपर और कलियुग को जोडने की कड़ी बन चुके हैं। यह पात्र स्नातन धर्म की निरन्तर श्रंखला को आदि काल से आधुनिक युग तक जोडते हैं।

कौरवों तथा पाँडवों को मिला कर महाभारत के युद्ध में 18 अक्षौहिणी सैनाओं ने भाग लिया था। ऐक अक्षौहिणी सेना में 21870 रथ, 21870 हाथी, 109350 पैदल ऐर 65610 घुड सवार होते हैं। युद्ध के उल्लेख महाकाव्यों के अनुरूप भव्य होते हुये भी सैनिक दृष्टि से तर्क संगत हैं तथा ऐक विश्व युद्ध का आभास देते हैं।

महाभारत मुख्यता कौरव-पाँडव वंशो, उन के वंशजों तथा तत्कालीन भारत के अन्य वंशों के परस्पर सम्बन्धों, संघर्षों, रीति रिवाजों की गाथा है जो अंततः निर्णायक महाभारत युद्ध की ओर बढ़ती है। महाभारत युद्ध अठारह दिन चलता है और उस में दोनों पक्षों की अठारह अक्षोहणी सेना के साथ भारत के लग-भग सभी क्षत्रिय वीरों का अंत हो जाता है। महाभारत कथानक में सभी पात्र निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ते हैं तथा मानव जीवन के उच्चतम एवं निम्नतम व्यव्हारिक स्तरों को दर्शाते हैं। लग भग एक लाख श्र्लोकों  में से छहत्तर हजार श्र्लोकों में तो पात्रों के आख्यानों का उल्लेख है जो महाकाव्य को महायुद्ध के कलाईमेक्स की ओर ले जाते हैं।

महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ स्वरूप लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। एक उल्लेखनीत तथ्य और भी उजागर होता है कि रामायण का अपेक्षा महाभारत में राक्षस पात्र बहुत कम हैं जिस से सामाजिक विकास का आभास मिलता है। 

नैतिक महत्व 

रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। महाभारत में लग भग बीस हजार से अधिक श्र्लोक धर्म ऐवं नीति के बारे में हैं।

श्रीमद् भागवद गीता

श्रीमद् भागवद गीता महाभारत महाकाव्य का ही विशिष्ठ भाग है। यह संसार की सब से लम्बी दार्शनिक कविता है। गीता महाभारत युद्ध आरम्भ होने से पहले भगवान कृष्ण और कुन्ती पुत्र अर्जुन के बीच वार्तालाप की शैली में लिखी गयी है। गीता की दार्शनिक्ता  संक्षिप्त में उपनिष्दों तथा हिन्दू विचारधारा का पूर्ण सारांश है। गीता का संदेश महान, प्रेरणादायक, तर्क संगत तथा प्रत्येक स्थिति में यथेष्ठ है। संक्षिप्त में गीता सार इस प्रकार हैः-

  • जब भी संसार में धर्म की हानि होती है ईश्वर धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये किसी ना किसी रूप में अवतरित होते हैं।
  • ईश्वर सभी प्रकार के ज्ञान का स्त्रोत्र हैं। वह सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ्य तथा सर्व व्यापक हैं। 
  • म़त्यु केवल शरीर की होती है। आत्मा अजर और अमर है। वह पहले शरीर के अंत के पश्चात दूसरे शरीर में पुनः प्रवेश कर के नये शरीर के अनुकूल क्रियायें करती है।
  • जन्म-मरण का यह क्रम आत्मा की मुक्ति तक निरन्तर चलता रहता है।
  • सत्य और धर्म स्दैव अधर्म पर विजयी होते हैं।
  • सभी एक ही ईश्वर की अपनी अपनी आस्थानुसार आराधना करते हैं किन्तु ईश्वर के जिस रूप में आराधक आस्था व्यक्त करता है ईश्वर उसी रूप को सार्थक कर के उपासक की आराधना को स्वीकार कर लेते हैं। इसी वाक्य में हिन्दू धर्म की धर्म निर्पैक्षता समायी हुयी है।
  • हर प्राणी को अपनी निजि रुचि के अनुकूल धर्मानुसार कर्म करना चाहिये तथा अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देना चाहिये।
  • हर प्राणी को बिना किसी पुरस्कार के लोभ या त्रिरस्कार के भय के अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये तथा अपने मनोभावों को कर्तव्य पालन करते समय विरक्त रखना चाहिये।
  • प्राणी का अधिकार केवल कर्म पर है, कर्म के फल पर नहीं। कर्म फल ईश्वर के आधीन है।
  • अहिंसा परम धर्म है उसी प्रकार धर्म रक्षा हेतु हिंसा भी उचित है।
  • अति सर्वत्र वर्जित है।

आत्म विकास

महाभारत की कथा में श्रीकृष्ण की भूमिका अत्यन्त महत्वशाली है। युद्ध को टालने की सभी कोशिशें असफल होने के पश्चात श्रीकृष्ण ने उस महायुद्ध के संचालन में ऐक विशिष्ट भूमिका निभाई तथा आसुरी और अधर्म प्रवृति की शक्तियों पर विजय पाने का मार्ग भी दर्शाया। किसी आदर्श की सफलता के लिये युक्ति प्रयोग करने का अनुमोदन किया। कौरव सैना के अजय महारथियों का वध युक्ति से ही किया गया था जिस के प्रमुख सलाहकार श्रीकृष्ण स्वयं थे। कोरे आदर्श, अहिंसा तथा निष्क्रियता से अधर्म पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। उस के लिये कर्मयोग तथा युक्ति का प्रयोग नितान्त आवश्यक है।  

श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं –

  • कर्म योगः – कर्म योग साधना कर्मठ व्यक्तियों के लिये है। इस का अर्थ है कि प्रत्येक परिस्थिति में अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म के साथ किसी पुरस्कार की चाह अथवा त्रिरस्कार का भय त्याग दो। 
  • भक्ति योगः- भक्ति योगः साधना निष्क्रयता का आभास देता है। ईश्वर में श्रद्धा रखो तथा जब परिस्थिति आ जाये तो अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म को ईश्वर की आज्ञा समझ कर करो जिस में निजि स्वार्थ कुछ नहीं होना चाहिये। अच्छा – बुरा जो कुछ भी फल निकले वह ईश्वरीय इच्छा समझ कर हताश होने की ज़रूरत नहीं। कर्ता ईश्वर है और जैसा ईश्वर रखे उसी में संतुष्ट रहो।
  • राज योगः – राज योगः का सिद्धान्त अष्टांग योग भी कहलाता है। य़म, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि इस योग के आठ अंग हैं जिन का निरन्तर अभ्यास मानव को स्वस्थ शरीर तथा पूर्णत्या विकसित दिमागं की क्षमता प्रदान करता है जिस से मानव प्रत्येक परिस्थिति में धैर्य तथा स्थित प्रज्ञ्य रह कर अपने कर्तव्य तथा कर्म का चयन कर सके। इस प्रकार मानव अपनी इन्द्रियों तथा भावनाओं को वश में रखते हुये संतुलित निर्णय तथा कर्म कर सकता है। 
  • ज्ञान योगः – ज्ञान योगः की साधना उन व्यक्तियों के लिये है जो सूक्षम विचारों के साथ अपने कर्तव्य पालन के सभी तथ्यों पर विचार कर के उचित निर्णय करने में कुशल हों। कुछ भी तथ्य छूटना नहीं चाहिये। ज्ञान योगः साधना कठिन होने के कारण बहुत कम व्यक्ति ही इस मार्ग पर चलते हैं।

मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग को अपनाये गा किन्तु भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुने गा। तर्कवादी राज योग से निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संन्यासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे। पशु पक्षी अपने कर्म निजि परिवृति के अनुसार करते हैं जिस लिये उन्हें कर्ता का अभिमान या क्षोभ नहीं होता। सारांश सभी का ऐक है कि अपना कर्म निस्वार्थ हो कर करो और फल की चाह ना करो।

गीता की दार्शनिक्ता विश्व में सब से प्राचीन है और वह सभी जातियों देशों के लिये प्रत्येक स्थिति में मान्य है। हिन्दू विचार धारा सब से सरल तथा सभी विचारधाराओं का संक्षिप्त विकलप है।

ऐतिहासिक महत्व

मानव सृष्टि के इतिहास में भारत का इतिहास सर्वप्राचीन माना जाता है। भारत के सूर्यवंश और चन्दवंश का इतिहास जितना पुराना है उतना पुराना इतिहास विश्व के अन्य किसी भी वंश का नहीं है। यदि रामायण सूर्यवंशी राजाओं का इतिहास है तो महाभारत चन्द्रवंशी राजाओं का इतिहास है। चीन सीरिया और मिश्र में जिन राजवंशों का वृतान्त पाया जाता है वह चन्द्रवंश की ही शाखायें हैं।

उन दिनों इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। महाभारत काल के पश्चात से मौर्य वंश तक का इतिहास नष्ट अथवा लुप्त हो चुका है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

चाँद शर्मा

 

8 – संसार का प्रशासनिक विधान


यूनानी दार्शनिक अरस्तु तथा योरूप के अन्य राजनीति शास्त्रियों और प्रशासनाचार्यों के जन्म से हज़ारों वर्ष पूर्व भारतीय पौराणिक गृंथों में प्रशासन का जो स्वरूप दर्शाया गया था वह आज भी प्रशासनाचार्यों के लिये ऐक कीर्तिमान है। संसार के प्रशासन का विभागी-करण, उत्तरदाईत्व वितरण, कार्य क्षेत्रों का वर्णन तथा कार्य करने के साधन आज की सरकारों से अधिक सक्ष्म हैं। आधुनिक सरकारों में केवल साधनों और कर्मचारियों के नामों में ही थोड़ा बहुत बदलाव आया है, किन्तु सिद्धाँतों में कोई बदलाव नहीं आया।

भारत के ऋषि-मुनियों ने संसार के प्रशासन की जो व्याख्या की है वही विश्व के अन्य धर्म समुदायों ने भी थोड़ा बहुत स्थानीय फेरबदल कर के अपना है। उन्हों ने केवल देवी देवताओं को स्थानीय भाषा में नाम और परिधान ही बदले कर सभी कुछ भारतीय ही अपनाया है। मानस रुप में सौर मण्डल के सभी ग्रह तथा तत्व प्रशासन कार्यालय में शामिल हैं।

आधुनिक शब्दावली में संसार का प्रशासन मुख्यता इस प्रकार चलता हैः –

देवराज इन्द्र – इन्द्र देवताओं तथा स्वर्ग के अधिपति हैं। संसार में सभी कुछ शक्ति से चलता है अतः वर्षा तथा विद्युत आदि शक्ति के सभी साधन उन के आधीन हैं जो इस सत्य को दर्शाता है कि शक्ति के बिना कोई भी प्रशासन नहीं चल सकता। देवराज इन्द्र का रहन-सहन तथा कार्य शैली उद्योग जगत के किसी भी मुख्य निदेशक के समान ही है। इन्द्र सर्वोच्च सृष्टि कर्ता के प्रधान प्रतिनिधि हैं तथा वह अपनी कार्य सिद्धी के लिये उन सभी साधनों का प्रयोग करते हैं जो आज के युग में अमेरिका, रूस या अन्य किसी भी देश के खुफिया तंत्र इस्तेमाल करते हैं।

साम दाम दण्ड और भेद के सभी हथियारों का आवश्यक्तानुसार प्रयोग करने से इन्द्र कभी भी नहीं हिचकिचाते। यदि उन की सत्ता के विरुद्ध कोई भी खतरा पनपने लगता है तो इन्द्र उस से निपटने के लिये शक्ति के साथ सुरा और सुन्दरी का सहारा भी लेते रहते हैं। उन का वाहन ऐश्वर्य का प्रतीक चिन्ह सफेद हाथी ऐरावत है तथा मुख्य शस्त्र वज्र। सारांश यह कि इन्द्र सभी प्रकार के सुख साधनों से सम्पन्न हैं क्योंकि वह स्वर्ग के स्वामी हैं।

प्रशासक में कलात्मिक रुचि भी होनी चाहिये अतः इन्द्र के चारों ओर अप्सराओं तथा गँधर्वों का जमावडा भी रहता है जो देवताओं के निजि मनोरंजन के अतिरिक्त विश्व में कहीं भी ज़रूरत पड़ने पर कर्तव्य पालन के लिये कृत संकल्प हैं। इन्द्र के अमरावती मुख्यालय से अधिक समर्थवान तथा सुखदायक अन्य कोई सचिवालय संसार में नहीं है।

अग्नि – अग्नि का दर्जा इन्द्र से दूसरे स्थान पर है। देवताओं को दी जाने वाली सभी आहूतियाँ अग्नि के दूआरा ही देवताओं को प्राप्त होती हैं। अग्नि सभी प्राणियों में पाचन शक्ति का प्रतीक है। अर्थात सभी पदार्थ अग्नि में भस्म हो कर ही एक से दूसरे रूप में परिवर्तित होते हैं। चित्रों में अग्नि के दो चेहरे दर्शाये जाते हैं जो स्दैव विपरीत दिशाओं में निहारते रहते हैं। इस का अर्थ अग्नि की सार्थक तथा विनाशक शक्तियों को दर्शाना है। अग्नि पवित्र भी करती हैं तथा भस्म भी करती है।

सूर्य – सूर्य प्रत्यक्ष देवता है जो हमारे सौर मण्डल का केन्द्र है। सौर मण्डल में होने वाली सभी क्रियायें सूर्य की ऊर्जा से ही सम्पन्न होती हैं तथा जीवन के प्रत्येक अंग पर सूर्य का प्रभाव क्षेत्र है। दिन-रात पर सूर्य का ही अधिकार है अतः वह विश्व में समय निदेशक भी है। उस का कार्य-भार सरकार के मुख्य सचिव जैसा है।

वायु – वायु को पवन देव भी कहा जाता है तथा उन के आधीन वह प्राणदायनी शक्ति है जिस के बिना एक पत्ता तक नहीं हिल सकता और बिना वायु के सृष्टि का समस्त जीवन क्षण भर में नष्ट हो सकता है। वायु को सर्व व्यापक रहना पडता है। वनस्पतियों की प्रजनन क्रिया (फल-फूल लगना) में वायु का ही मुख्य योगदान है जो स्त्री-पुरुष पौधों को सम्पर्क में लाती है।

वरुण – वरुण जल स्त्रोत्रों का स्वामी है तथा वायु की तरह विश्व की एक अन्य जीवनदायनी शक्ति का संचालन करता है। वरुण को बर्फ के रूप में रिझ़र्व स्टाक रखना पडता है और बादल के रूप में सभी जगहों पर आपूर्ति भी करना पडती है। अगर यही काम आजकल के किसी भ्रष्ट ठेकेदार के हाथ में होता तो सोचिये क्या स्थिति बन गयी होती।

यमराज – यमराज सृष्टि में मृत्यु के विभागाध्यक्ष हैं। सृष्टि के समस्त प्राणियों के भौतिक शरीरों को नष्ट कर के उन के तत्वों को पुनः रीसाईकिलिंग करना ही उन का मुख्य उत्तरदाईत्व है। य़मराज के बिना पृथ्वी पर ही जीवन नरक समान हो जाये गा क्योंकि मृत्यु के अभाव में चंगेज़खाँ, बाबर, औरंगज़ेब तथा नादिरशाह जैसे दुष्ट पात्र आज भी हमारे जीवन को त्रासित कर रहे होते। यमराज विश्व में बदलाव के निमित हैं। विश्व की सब से बडी म्युनिस्पेलिटी के महापौर यमराज ही हैं।

कुबेर – कुबेर धन के अधिपति है तथा उन की छवि की तुलना किसी भी अर्थ शास्त्री या किसी भी वित्त मंत्री से कर सकते हैं। कुबेर देते ही है लेकिन बदले में वह कोई कर वसूल नहीं करते। ऐसी व्यव्स्था और किसी आदर्श सरकार में नहीं है।

मित्रः – मित्रः इमानदारी, मित्रता तथा व्यव्हारिक सम्बन्धों के प्रतीक देवता हैं। तुलनात्मक तौर पर उन्हें आधुनिक युग के किसी वरिष्ठ जन-सम्पर्क ऐवं स्तर्कता विभागाध्यक्ष का अग्रज कहा जा सकता है।

कामदेव – कामदेव स़ृष्टि में समस्त प्रजन्न क्रिया के निदेशक हैं। उन की पत्नी रति की तुलना विश्व-सुन्दरी से की जा सकती है तथा रति-कामदेव दम्पति आधुनिक युग में भी प्रेम प्रसंगों की सभी कल्पनाओं के प्रेरणादायक हैं । उन के बिना सृष्टि की कलपना ही नहीं की जा सकती। पौराणिक कथानुसार कामदेव का शरीर भगवान शिव ने भस्म कर दिया था अतः उन्हें अनंग ( बिना शरीर ) भी कहा जाता है। इस का अर्थ यह है कि काम एक भाव मात्र है जिस का भौतिक वजूद नहीं होता। युवा रति-कामदेव दम्पति का तो प्रसंगिक औचित्य है लेकिन उन के समक्ष हाथ में पुष्प बाण लिये अधनंगे बाल रूपी रोमन क्यूपिड में चुलबुले पन के अतिरिक्त कोई औचित्य नहीं।

आदिति – आदिति को भूत, भविष्य, चेतना, तथा उपजाऊपन की देवी माना जाता है।

धर्मराज और चित्रगुप्त – संसार के लेखा जोखा कार्यालय को सम्भालते हैं और यमराज, स्वर्ग, तथा नरक के मुख्यालयों में ताल-मेल भी कराते रहते हैं।

सृष्टि के प्रशासन से सम्बन्धित देवी तथा देवताओं की सूची बहुत लम्बी है। यहाँ संक्षिप्त में केवल मुख्य देवों का ही चित्रण तथा उल्लेख किया गया है जो इस तथ्य को उजागर करता है कि प्राचीन काल में भी स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों की विचार धारा प्रशासन के क्षेत्र में कितनी सशक्त और यथार्थयुक्त थी। भारत केवल सपेरों का ही देश नहीं था अपितु आधुनिक प्रशासकों का मार्ग दर्शक भी था। प्रशासन के सभी कार्यक्षेत्रों का सुन्दर और सरल तरीके से व्यक्तिकरण कर दिया गया है।

अन्य धर्मों में तो अल्लाह और गाड सभी कार्य अपने पैगम्बर या पुत्र के माध्यम से ही करते है लेकिन हिन्दू विचार धारा में सभी प्राणी जिन में पशु पक्षी भी शामिल हैं सृष्टि के विधान में अपना अपना योग्दान देते रहते हैं। इसी लिये हिन्दूओं के पास 33 करोड देवी देवता हैं जो सृष्टि के विशाल प्रजातन्त्र को चलाते हैं और इसी तालमेल को हम आज इकोलोजिकल बैलेंस कहते हैं।

नारी प्रतिनिधित्व

विश्व में अपने प्रजातन्त्र का ढोल पीटने वाले ग्रेट ब्रिटेन में स्त्रियों को मतदान करने का अधिकार 1932 में दिया गया था। इस्लामी देशों में स्त्रियों की दशा और निजि स्वतन्त्रता किसी से छुपी नहीं। इन की तुलना में हिन्दू समाज ने स्त्रियों की अनदेखी कभी नहीं की। सम्स्त प्राणियों के वैवाहिक सम्बन्धों को भी महत्व दिया गया है। उत्तरदाईत्व का वितरण स्त्री-पुरूषों के परस्परिक सम्बन्धों के अनुकूल ही किया गया है। वरदान देने तथा श्राप देने की क्षमता ईश्वरीय दम्पतियों में भी समान है। देवी देवता अकेले नहीं है और अपने वैवाहिक जोड़े का सम्मान करते हैं।

त्रिमूर्ति –  भगवान ब्रह्मा – सरस्वती (सर्जन तथा ज्ञान), विष्णु -लक्ष्मी (पालन तथा साधन), और शिव – पार्वती (विसर्जन तथा शक्ति) का परस्पर सम्बन्ध प्रसंगिक है। कार्य विभाजन अनुसार पत्नीयां ही पतियों की शक्तियाँ हैं। सृजन के लिये विद्या की, पौषण के लिये धन की तथा विध्वंस और रक्षा के लिये शक्ति की आवशयक्ता पड़ती है। त्रिमूर्ति की स्त्री शक्तियाँ भी अपने हाथों में पुष्प एवं शस्त्र धारण करती हैं जो विद्या, धन तथा शक्ति की सृजनता और ध्वंस करने की क्षमता का प्रतीक है।

अन्य देवी देवताओं का दाम्पत्य चित्रण भी इसी प्रकार प्रसंगिक है। कुछ अन्य पौराणिक देवगण यह हिन्दू धर्म की विचारधारा की विशालता है कि स्नातन धर्म में तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की गणना करी जाती है क्यों कि वसुदैव कुटुम्बकम की भावना को सार्थक करने कि लिये हर प्राणी के जीवन को महत्व दिया गया है।

छोटा बडा कोई नहीं सभी अपनी अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं किन्तु सभी का वर्णन करना सम्भव नहीं। कुछ जाने पहचाने देवों की व्याख्या ही यहाँ की गयी हैः –

गणेष – गणेष बुद्धिमता के देव हैं तथा विघ्न नाशक माने जाते हैं। ऋद्धि और सिद्धी उन की पत्नियाँ हैं। पूजा–अर्चना में सर्व प्रथम गणेष जी की पूजा का विधान है क्यों कि बुद्धिमता के दुआरा ही सभी बाधाओं को दूर किया जा सकता है। गणेष का शरीर मानव जैसा है किन्तु उन का शीश हाथी का है। उन का वाहन चूहा होता है। प्रकृति के एक छोटे से जीव का वाहन होना तथा प्रकृति के एक बड़े जीव का शीश धारण करना प्राणियों की उत्पति तथा विकास की परिक्रिया को भी दर्शाता है कि चूहा क्रमशः हाथी और फिर मानव में विकसित होता है। छोटे बडें सभी जीव परियावरण में ऐक दूसरे पर आश्रित हैं।

कार्तिकेय – कार्तिकेय वीरता के देव हैं तथा वह देवताओं के सेनापति हैं। उन का वाहन मोर है तथा वह भगवान शिव के पुत्र हैं।

देवऋर्षि नारद – नारद देवताओं के ऋषि हैं तथा चिरंजीवी हैं। वह तीनों लोकों में विचरने में समर्थ हैं। उन को आधुनिक संदेशवाहकों का अग्रज कहना उचित होगा। सृष्टि में घटित होने वाली सभी घटनाओं की जानकारी देवऋषि नारद के पास होती है तथा ऐक निजि सचिव की भान्ति स्दैव ईश्वर के सम्पर्क में रहते हैं। एक परम कुशल संदेशवाहक की तरह वह किसी भी स्थान पर किसी भी समय पहुँच सकते हैं। देवऋषि नारद उपने ऊपर कटाक्ष करने में अपनी ऐक ही मिसाल हैं। यह अत्यन्त शर्मनाक बात है कि देवऋर्षि नारद को चल-चित्रों तथा नाटकों में एक विदूषक की छवि में परस्तुत किया जाता है य़ा व्यंगात्मक ढंग से किसी भी चुगलखोर की तुलना उन से की जाती है। देवऋर्षि नारद सर्वोच्च ऋषि हैं।

हनुमान – हनुमान जी भी चिरंजीवी हैं। उन को एक आदर्श, निस्वार्थ, एवं कर्मठ योगी के रूप में दर्शाया जाता है। उन्हों ने अपने आप को प्रभु राम की सेवा के लिये पूर्णतया समर्पित कर दिया था। सेवा भाव के अतिरिक्त हनुमान जी विनम्र, बलशाली, बुद्धिमान आठ सिद्धियों के स्वामी हैं। यह सिद्धियाँ अणिमा (अदृष्य होना), लघिमा (अपना रूप सूक्ष्म कर के गुप्त होना) गरिमा (अपना रूप विशाल कर लेना) प्राप्ति (किसी भी अभिलाषित वस्तु की प्राप्ति होना) प्राकाम्यं (मन चाहा कार्य हो जाना), महिमा (अपना स्वरूप विशाल कर लेना), ईशित्वं (इश्वर की तरह शक्ति पा लेना), और वशित्वं (किसी को भी वश में कर लेना) हैं।

विचार करें तो इन में से कई सिद्धियाँ आज कम्प्यूटर की एनीमेशन तकनीक से कोई भी साधारण मानव यथार्थ कर सकता हैं। जो भ्रम आज कम्प्यूटर टच स्क्रीन के माध्यम से पैदा किया जा सकता है वही यदि योग साधना से अगर हनुमान जी ने प्राप्त किया हो तो कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। हनुमान जी ने कभी अपने बल अथवा बुद्धी पर गर्व नहीं किया।

हिन्दू धर्माचार्यों ने दार्शनिक्ता की सूक्ष्म विचारधारा के विकास को चित्रों एवं पौराणिक कथाओं के माध्यम से जन-साधारण तक पहुंचाने की कोशिश लगातार की है। एक ओर ऋषि मुनियों की जटिल दार्शनिक्ता का सूक्ष्म ज्ञान वैज्ञियानिक तर्क की हर कसौटी पर खरा उतरता रहा है ता दूसरी ओर सूक्ष्म ज्ञान का मानवीकरण कर के उसे कथाओं तथा चित्रों के माध्यम से जन-साधारण तक भी पहुँचाया गया है।

सूक्ष्म ज्ञान तथा पौराणिक संग्रहों में समयानुसार यथोचित संशोधन भी होते रहे हैं। इस ज्ञान का भण्डार हमारे पास वेदों, उपनिष्दों, दर्शन शास्त्रों, पुराणों तथा महा-काव्यों के साहित्य में आज भी संकलित तथा सुरक्षित है।

हिन्दू धर्म कोरा पैग्निज़िम या अन्ध-विशवास नहीं अपितु यथार्थवाद तथा कल्पना का सृजनात्मक मिश्रण है।

चाँद शर्मा

7 – प्राकृति का व्यक्तिकरण


स्नातन धर्म के ऋषि मुनियों ने अपनी अनुभूतियों से प्राकृति की शक्तियों को पहचान कर साधारण मानवों के बोध के लिये उन्हें देवी देवताओं की संज्ञा दी है। शक्तियों के परस्पर प्रभाव तथा क्षमताओं को समझाने के लिये देवी देवताओं की कथाओं के साथ साथ उन के चित्र भी बनाये गये जो लोक प्रिय हो गये। उस समय ज्ञान लिखित नहीं था – केवल सुन कर ही श्रुति के आधार पर ही याद रखा जाता था। श्रुति से स्मृति ही ज्ञान का प्रवाह था। कालान्तर जन साधारण मे स्मर्ण रखने के लिये देवी – देवताओं के चिन्हों तथा बुतों के पूजन की स्थानीय विधियां भी प्रचिलित हो गयीं। गुण दोषों का व्यक्तिकरण कर के उन पर साहित्य का सृजन होने लगा। गुण-वाचक संज्ञाओं को सांकेतिक ढंग से वर्णित तथा चित्रित कर दिया गया।

हवा तो अदृष्य होती है किन्तु यदि तेज़ हवा को सांकेतिक ढंग से दिखाना हो तो झूलते हुये पेड़, हल्के पदार्थों का हवा में उड़ना तथा  धूल से आकाश का ढक जाना चित्रित कर दिया जाता है। इसी प्रकार से महा मानवों, राक्षसों तथा देवी देवताओं का भी सांकेतिक चित्रण किया गया। उन की शक्तियां दर्शाने के लिये उन के चार या और अधिक हाथ, एक से अधिक सिर तथा अन्य तरीकों से चित्रकारों की कलपना ने उन्हे अलंकृत कर दिया। इन सब प्रथाओं की पहल भी भारत से ही हुई। सृष्टि के आरम्भ से ही सभ्यता तथा ज्ञान के विकास में भारत ही विश्व के अन्य मानव समुदायों का मार्ग दर्शक था।

सैंकडों वर्ष पश्चात धीरे धीरे विश्व में जहाँ जहाँ भी पैगनज़िम फैला तो उस के साथ ही दंत-कथाओं के माध्यम से ऐसी ही प्रतिक्रिया अन्य स्थानों पर भी फैलती गयी। अंग्रेज़ी साहित्य में केंटरबरी टेल्स तथा अरबी साहित्य में अरेबियन नाईटस जैसे मनोरंजक और काल्पनिक कथा संग्रह भी लिखे गये किन्तु उन का कोई वैज्ञ्यानिक आधार नहीं था।

हिन्दू चित्रावली की विशेषतायें

कुछ बातों में हिन्दू व्याख्यायें अन्य धर्मों से अलग हैं जैसे किः-

भूगोलिक तथा समय सीमाओं से स्वतन्त्र  – हिन्दू चित्रावली अन्य सभी समुदायों से अधिक सुन्दर, यथार्थवादी, व्याख्या सम्पन्न तथा पूर्णत्या मौलिक और वैज्ञ्यानिक थी। वह हर प्रकार के भूगौलिक तथा समय सीमाओं से भी मुक्त थी। हिन्दूओं के पौराणिक साहित्य के पात्र ना केवल धरती पर बल्कि समस्त ब्रह्माण्ड में अपने पग-चिन्ह छोड़ चुके हैं। ना केवल दैविक शक्तियां बल्कि कई ऋषि-मुनि और साधारण मानव भी  एक गृह से अन्य लोकों में विचरते रहे हैं। यह तथ्य उजागर करता है कि पौराणिक युग से ही हिन्दूओं का भूगौलिक तथा अंतरीक्ष ज्ञान अन्य मानव समाजों से बहुताधिक सम्पन्न था। देवी देवताओं के अतिरिक्त कई ऋषि-मुनि और तपस्वी जन्म मरण के बन्धन से मुक्त थे और चिरंजीवी की पदवी पा चुके थे जिन मे हनुमान, परशुराम, नारद, वेदव्यास, दुर्वासा, जामावन्त तथा अशवथामा के नाम प्रमुख हैं। वह किसी भी स्थान पर प्रगट अथवा किसी भी स्थान से अदृष्य होने में भी सक्ष्म माने जाते हैं। हिन्दू धर्म का कोई भी देवी देवता दारिद्रता में लिप्त नहीं है। सभी सुन्दर तथा रत्नजडित वस्त्राभूष्णों से सुसज्जित रहते हैं और किसी भी प्राणी को वरदान दे कर उस के आभाव को दूर करने में सक्ष्म है। हर देवी देवता के पास अपराधी को दण्ड देने के लिये अस्त्र-शस्त्र तथा पुन्यकर्मी को पुरस्कृत करने के लिये पुष्प भी रहते हैं। कोई भी देवी देवता लाचार नहीं कि लोग उसे सूली पर टाँग दें और वह कुछ भी ना कर सके। जो देवता स्वयं ही लाचार और दरिद्र हो वह दूसरे का भला नहीं कर सकता। किसी को कोई साँवन्तना भी नहीं दे सकता। अतः हिन्दू देवी –देवता समृद्ध, शक्तिशाली, परम ज्ञानी होने के साथ साथ मानवी भावनायें रखते हैं।

परियावरण का प्रतिनिधित्व – हिन्दूओं ने परियावरण संरक्षण को भी अपनी दिनचर्या में क्रियात्मिक ढंग से शामिल किया है। दैनिक यज्ञों दुआरा वायुमण्डल को प्रदूष्ण-मुक्त रखना, जीव जन्तुओं को नित्य भोजन देना, बेल, पीपल, तुलसी, नीम और वट वृक्ष आदि को प्रतीक स्वरूप पूजित करना, जल स्त्रोत्रों तथा पर्वतों आदि को भी देवी देवता के समान पूज्य मान कर प्रकृति के सभी संसाधनो का संरक्ष्ण करना हर प्राणी का निजि दिनचर्या में प्रथम कर्तव्य है। पशु पक्षियों को देवी देवताओं की श्रेणी में शामिल कर के हिन्दूओं ने प्रमाणित किया है कि हर प्राणी को मानवों की ही तरह जीने का पूर्ण अधिकार है। सर्प और वराह को कई दूसरे धर्मों ने अपवित्र और घृणित माना हुआ है लेकिन स्नातन धर्म ने उन्हें भी देव-तुल्य और पूज्य मान कर उन में भी ईश्वरीय छवि का अवलोकन कर ईश्वरीय शक्ति को सर्व-व्यापक प्रमाणित किया है। ईश्वर को सभी प्राणी प्रिय हैं इस तथ्य को दर्शाने के लिये छोटे बड़े कई प्रकार के पशु-पक्षियों को देवी देवताओं का वाहन बना कर उन्हें चित्रों और वास्तु कला के माध्यम से राज-चिन्ह और राज मुद्राओं पर भी अंकित किया है।

स्वर्ग और नरक – प्रत्येक धर्म ने अपने स्थानीय वातावरण अनुसार स्वर्ग और नरक की कल्पना की है। जो कुछ भी उन के स्थानीय वातावरण में सुखदायक है वह स्वर्ग के समान है और जो कुछ उन के स्थानीय वातावरण में दुखदायक है वैसा ही उन का नरक भी है। अतः तपते हुये रेगिस्तान में पनपे मुसलमानों का स्वर्ग (बहशित, जन्नत) छायादार तथा ठंडा रहता है और बहुत सारे जल स्त्रोत्रों से परिपूर्ण है क्यों कि अरब में इन्हीं वस्तुओं की कमी है। बहिशत फल-फूलों से लदा हुआ है तथा वहाँ परियों जैसी सुन्दरियाँ अल्लाह के विशवासनीयों की सेवा करने के लिये हरदम तैनात रहती हैं।  इसलामी नरक (दोज़ख, जहन्नुम) हमेशा आग की तरह तपता रहता है जैसा कि अरब का वास्तविक वातावरण है। दोज़ख में काफिरों (विधर्मियों) को यात्ना देने का सामान हर समय तैय्यार रहता है ताकि काफिरों और हिन्दूओं  को बुतपरस्ती करने के अपराध में जलाया जा सके। कदाचित उन्हें यह विदित नहीं कि हिन्दूओं का शरीर तो दाह संस्कार के समय से ही जल चुका होता है और आत्मा कभी नहीं जलती।

इस के विपरीत योरूप में बसे इसाईयों के स्वर्ग में सूर्योदय तो सदा सुख प्रदान करता है किन्तु उन का नरक बर्फ से हमेशा ढके रहने के कारण एकदम ठंडा है। सभी धर्मों का काल्पनिक स्वर्ग आकाश में है और नरक धरती के नीचे है। स्वर्ग का प्रशासन देवताओं, हूरों, परियों अथवा अप्सराओं के अधीन है और वह श्रंगार, गायन तथा नृत्य के माध्यम से स्वर्गवासियों का मनोरंजन करनें में पारंगत हैं। नरक क्रूर प्रशासकों के आधीन है जो देखने में क्रूर, भद्दे और बेडौल शरीर वाले हैं। स्वर्ग में जाने के लिये ईश्वर के पुत्र या प्रतिनिधि की सिफारिश होनी ज़रूरी है।

हिन्दू धर्मानुसार स्वर्ग में केवल पुन्यकर्मी ही अपने पुरषार्थ से ही रहवास पाते हैं तथा पाप करने वाले नरक में य़मराज के अधीन रह कर यातना पाते हैं। अन्य धर्मों और हिन्दू धर्म के स्वर्ग- नरक की परिकल्पना में मुख्य अन्तर यह है कि  अन्य धर्म पुनर्जन्म में विशवास नहीं रखते। इस कारण से अन्य धर्मियों के पास वर्तमान जन्म के पश्चात पुन्य कर्म करने का कोई विकल्प ही नहीं बचता है। केवल हिन्दू ही अगले जन्म में पुन्य कर्म कर के प्रायश्चित कर सकते हैं और नारकीय जीवन से मुक्ति पा कर स्वर्ग में प्रवेश कर सकते हैं।वह उन्हें निराश होने की ज़रूरत नहीं, उन के पास आशा की किरण है।

त्रिमूर्ति – हिन्दू ऐक ईश्वर में विशवास रखते हैं लेकिन उसी सर्व-व्यापि, सर्व शक्तिमान एवं सर्वज्ञ्य ईश्वर को तीन प्रथक रूपों में, तीन मुख्य क्रियाओं के कर्ता के तौर पर भी निहारते है। इन तीनों रूपों को त्रिमूर्ति का संज्ञा दी गयी है। उन के चित्रों में वैज्ञिय़ानिक तथ्यों की कलात्मिक ढंग से व्याख्या दर्शायी गयी है। 

  • ब्रह्मा- ब्रह्मा के रूप में ईश्वर सृष्टि के सर्जन करता हैं। उन के चित्र में चार मुख तथा चार हाथ दर्शाये जाते हैं। प्रत्येक मुख एक एक वेद के का उच्चारण प्रतीक है. उन के हाथ में जल से भरा कमण्डल सृष्टि की सर्जन शक्ति का प्रतीक है। उन के दूसरे हाथ में माला के मनकों की गणना करते रहना सृष्टि के कालचक्र का स्वरूप है। तीसरे हाथ में वेद का ज्ञान तथा चौथे हाथ में कमल का फूल ब्रह्मशक्ति का प्रतीक है। भगवान ब्रह्मा विद्या एवं कला की देवी सरस्वती के पति हैं। विद्या एवं कला ब्रह्मा की सर्जन शक्ति का आधार हैं अतः उन का संयोग ब्रह्मा के साथ यथेष्ट है। ब्रह्मा का वाहन विवेकशील, सुन्दर तथा स्वछ पक्षी हँस होता है। ब्रह्मा का मुख्य दाईत्व सर्जन करना हैं अतः सर्वशक्तिमान होते हुये भी वह सृष्टि के अन्य कामों में कोई दखल नहीं देते। ब्रह्मा को सर्जन कर्ता होने की वजह से परम पिता भी कहा जाता है तथा उन्हें अकसर वृद्ध ही दर्शाया जाता है। ऐसा करने का एक उद्देष्य यह भी है कि साधनहीन बुद्धिमान व्यक्ति भी  कोई कार्य सम्पन्न नहीं कर सकता और एक वृद्ध की तरह आशक्त होता है। संसार भर में ब्रह्मा की उपासना का केवल एक ही मन्दिर पुष्कर, राजस्थान में है। बुद्धि-जीवियों को चापलूसों की ज़रूरत नहीं पडती।
  • विष्णु- विष्णु के रूप में ईश्वर सृष्टि के पालक हैं। चित्रण में उन के भी चार हाथ दर्शाये जाते हैं तथा उन का शरीर नील-वरण का होता है। उन के हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म रहते हैं जो संसाधनों की शक्ति तथा पुरस्कार के प्रतीक हैं। वह शेषनाग की शैय्या पर विश्राम करते हैं तथा धन-वैभव की देवी लक्ष्मी उन की पत्नी के रूप में स्दैव उन के चरणों के समीप रहती है। सर्व-व्यापि होते हुये भी उन का निवास क्षीर सागर में होता है क्योंकि संसार का समस्त धन वैभव सागर से ही निकला है। उन का चित्रण पूर्णत्या ऐशवर्य तथा सुख वैभव का प्रतीक है तभी तो वह सृष्टि के पालन करने में समर्थ हैं। भगवान विष्णु का वाहन महातेजस्वी पक्षी गरुड़ है। सृष्टि के भरण-पोषण तथा प्रशासन भगवान विष्णु के दाईत्व में होने के कारण जब भी सृष्टि में कोई विकट समस्या उत्पन होती है अथवा धर्म की हानि होती है और लोग अपने  कर्तव्य भूल कर मनमानी करने लगते हैं तो उस समस्या के समाधान के लिये भगवान विष्णु स्वयं अवतार ले कर धर्म की पुनः स्थापना करते हैं। स्पष्ट है धन – वैभव वालों के भक्त भी अधिक होते हैं।
  • महेशवर- महेशवर अथवा भगवान शिव की छवि में ईश्वर को सृष्टि के संहारक के रूप में दर्शाया जाता है। भगवान शिव स्दैव ध्यान मुद्रा में कैलास पर्वत पर विराजते हैं। उन के कंठ में विषैले सर्पों की माला, माथे पर चन्द्र तथा हाथ में त्रिशूल रहता है तथा एक हाथ आशीर्वाद प्रदान करने की मुद्रा में रहता है। सृष्टि के संहारक होते हुये भी भगवान शिव करुणामय तथा सकारात्मक शक्ति के प्रतीक हैं और वह पाप नाशक हैं। उन का वाहन नन्दी बैल है तथा उन की पत्नी शक्ति की देवी दुर्गा है जिन को कई नामों  तथा रूपों में दर्शाया जाता है। भगवान शिव को समस्त कलाओं का स्त्रोत्र भी माना जाता है तथा उन के ताँडव नृत्य को उन की संहारक क्रिया के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। स्पष्ट है शक्तिशाली का सभी आदर करते हैं, डरते हैं तथा उस का संरक्षण प्राप्त करते हैं। 

वास्तव में ईश्वर के तीनों स्वरूप एक ही सर्व-शक्तिमान ईश्वर की तीन अलग अलग क्रियाओं के प्रतीक हैं। भगवान की तीनों क्रियायें – सृष्टि का सर्जन, पोषण तथा हनन उसी प्रकार हैं जैसे एक ही व्यक्ति माता-पिता के लिये पुत्र, पत्नी के लिये पति, तथा अपने बच्चों के लिये पिता होता है। जिस प्रकार एक ही व्यक्ति तीन प्रथक प्रथक क्रियायें करता हुआ ही एक ही व्यक्ति है उसी तरह एक ही परमात्मा के तीन रूप त्रिमूर्ति में प्रगट होते हैं।

त्रिमूर्ति का विधान शक्ति के विभाजन के सिद्धान्त का प्रेरणा स्त्रोत्र हो सकता है जो उन्नीसवीं शताब्दि में फ्रांस के राजनीतिज्ञ्य मांटैस्क्यू ने योरूप वासियों को सिखाया था। मांटैस्क्यू का ज्ञान अधूरा था। उस ने विधि सर्जन, प्रशासन तथा न्याय पालिका को तो अलग कर दिया किन्तु उन में ताल मेल की व्यवस्था नहीं रखी जो आज सभी कुशासनों की जड है। भारतीय विधान में ऐसा दोष नहीं था। सर्व शक्तिमान ईश्वर को त्रिमूर्ति में तीन शक्तियों के तौर पर दर्शाया गया है जो सर्जन, पोष्ण तथा हनन का अलग अलग कार्य  करती हैं किन्तु जब भी आवशयक्ता होती है तो तीनो शक्तियाँ ऐक हो जाती हैं। अलग हो कर भी आपस में विचार विमर्श करती हैं। इस का सारांश यह है कि सृष्टि की सरकार शक्ति विभाजन के सिद्धान्त के साथ साथ आपसी ताल-मेल को भी बनाये रखती है जिस की मानवी सरकारें अकसर अनदेखी करती हैं। प्रशासन के विभिन्न अंगों में तालमेल रखना एक अनिवार्यता है।

हिन्दू धर्मानुसार ईश्वर किसी विशेष स्थान या किसी भी समय सीमा के बन्धन से मुक्त है। ईश्वर अनादि है। उस का ना कोई आरम्भ और ना ही कोई अंत है। वह परम शाशवत है। उस की शक्तियों पर कोई प्रतिबन्ध भी नहीं हो सकता।

चाँद शर्मा

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