हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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68 – अपमानित मगर निर्लेप हिन्दू


बटवारे से पहले रियासतों में हिन्दू धर्म को जो संरक्षण प्राप्त था वह बटवारे के पश्चात धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण पूर्णत्या समाप्त हो गया। आज के भारत में हिन्दू धर्म सरकारी तौर पर बिलकुल ही उपेक्षित और अनाथ हो चुका है और अब काँग्रेसियों दूआरा अपमानित भी होने लगा है। अंग्रेज़ों ने जिन राजनेताओं को सत्ता सौंपी थी उन्हों ने अंग्रेजों की हिन्दू विरोधी नीतियों को ना केवल ज्यों का त्यों चलाये रखा बल्कि अल्प-संख्यकों को अपनी धर्म निर्पेक्षता दिखाने के लिये हिन्दूओं पर ही प्रतिबन्ध भी कडे कर दिये।

बटवारे के फलस्वरूप जो मुसलमान भारत में अपनी स्थायी सम्पत्तियाँ छोड कर पाकिस्तान चले गये थे उन में विक्षिप्त अवस्था में पाकिस्तान से निकाले गये हिन्दू शर्णार्थियों ने शरण ले ली थी। उन सम्पत्तियों को काँग्रेसी नेताओं ने शर्णार्थियों से खाली करवा कर उन्हें पाकिस्तान से मुस्लमानों को वापस बुला कर सौंप दिया। गाँधी-नेहरू की दिशाहीन धर्म निर्पेक्षता की सरकारी नीति तथा स्वार्थ के कारण हिन्दू भारत में भी त्रस्त रहे और मुस्लिमों के तुष्टिकरण का बोझ अपने सिर लादे बैठे हैं।

प्राचीन विज्ञान के प्रति संकीर्णता

शिक्षा के क्षेत्र में इसाई संस्थाओं का अत्याधिक स्वार्थ छुपा हुआ है। भारतीय मूल की शिक्षा को आधार बना कर उन्हों ने योरूप में जो प्रगति करी थी उसी के कारण वह आज विश्व में शिक्षा के अग्रज माने जाते रहै हैं। यदि उस शिक्षा की मौलिकता का श्रेय अब भारत के पास लौट आये तो शिक्षा और विज्ञान के क्षेत्र में इसाईयों की ख्याति बच नहीं सके गी। यदि भारत अपनी शिक्षा पद्धति को मैकाले पद्धति से बदल कर पुनः भारतीयता की ओर जाये तो भारत की वेदवाणी और भव्य संस्कृति इसाईयों को मंज़ूर नहीं।

दुर्भाग्य से भारत में उच्च परिशिक्षण के संस्थान, पब्लिक स्कूल तो पहले ही मिशनरियों के संरक्षण में थे और उन्ही के स्नातक भारत सरकार के तन्त्र में उच्च पदों पर आसीन थे। अतः बटवारे पश्चात भी शिक्षा के संस्थान उन्ही की नीतियों के अनुसार चलते रहै हैं। उन्हों ने अपना स्वार्थ सुदृढ रखने कि लिये अंग्रेजी भाषा, अंग्रेज़ी मानसिक्ता, तथा अंग्रेज़ी सोच का प्रभुत्व बनाये रखा है और भारतीय शिक्षा, भाषा तथा बुद्धिजीवियों को पिछली पंक्ति में ही रख छोडा है। उन्हीं कारणों से भारत की राजभाषा हिन्दी आज भी तीसरी पंक्ति में खडी है। शर्म की बात है कि मानव जाति के लिये न्याय विधान बनाने वाले देश की न्यायपालिका आज भी अंग्रेजी की दास्ता में जकडी पडी है। भारत के तथाकथित देशद्रोही बुद्धिजीवियों की सोच इस प्रकार हैः-

  • अंग्रेजी शिक्षा प्रगतिशील है। वैदिक विचार दकियानूसी हैं। वैदिक विचारों को नकारना ही बुद्धिमता और प्रगतिशीलता की पहचान है।
  • हिन्दू आर्यों की तरह उग्रवादी और महत्वकाँक्षी हैं और देश को भगवाकरण के मार्ग पर ले जा रहै हैं। देश को सब से बडा खतरा अब भगवा आतंकवाद से है।
  • भारत में बसने वाले सभी मुस्लिम तथा इसाई अल्पसंख्यक ‘शान्तिप्रिय’ और ‘उदारवादी’ हैं और साम्प्रदायक हिन्दूओं के कारण ‘त्रास्तियों’ का शिकार हो रहै हैं।

युवा वर्ग की उदासीनता

इस प्रकार फैलाई गयी मानसिक्ता से ग्रस्त युवा वर्ग हिन्दू धर्म को उन रीति रिवाजों के साथ जोड कर देखता है जो विवाह या मरणोपरान्त आदि के समय करवाये जाते हैं। विदेशा पर्यटक अधनंगे भिखारियों तथा बिन्दास नशाग्रस्त साधुओं की तसवीरें अंग्रेजी पत्र पत्रिकाओं में छाप कर विराट हिन्दू धर्म की छवि को धूमिल कर रहै हैं ताकि वह युवाओं को अपनी संस्कृति से विमुख कर के उन का धर्म परिवर्तन कर सकें। युवा वर्ग अपनी निजि आकाँक्षाओं की पूर्ति में व्यस्त है तथा धर्म-निर्पेक्षता की आड में धर्महीन पलायनवाद की ओर बढ रहा है।

लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति से सर्जित किये गये अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं के लेखक दिन रात हिन्दू धर्म की छवि पर कालिख पोतने में लगे रहते हैं। इस श्रंखला में अब न्यायपालिका का दखल ऐक नया तथ्य है। ऐक न्यायिक आदेश में टिप्पणी कर के कहना कि जाति पद्धति को स्क्रैप कर दो हिन्दूओं के लिये खतरे की नयी चेतावनी है। अंग्रेजी ना जानने वाले हिन्दुस्तानी भारत के उच्चतम न्यायालय के समक्ष आज भी उपेक्षित और अपमानित होते हैं।

आत्म सम्मान हीनतता 

इस मानसिक्ता के कारण से हमारा आत्म सम्मान और स्वाभिमान दोनो ही नष्ट हो चुके हैं। जब तक पाश्चात्य देश स्वीकार करने की अनुमति नहीं देते तब तक हम अपने पूर्वजों की उपलब्द्धियों पर विशवास ही नहीं करते। उदाहरणत्या जब पाश्चातय देशों ने योग के गुण स्वीकारे, हमारे संगीत को सराहा, आयुर्वेद की जडी बूटियों को अपनाया, और हमारे सौंदर्य प्रसाधनों की तीरीफ की, तभी कुछ भारतवासियों की देश भक्ति जागी और उन्हों ने भी इन वस्तुओं को ‘कुलीनता’ की पहचान मान कर अपनाना शुरु किया।

जब जान सार्शल ने विश्व को बताया कि सिन्धु घाटी सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है तो हम भी गर्व से पुलकित हो उठे थे। आज हम ‘विदेशी पर्यटकों के दृष्टाँत’ दे कर अपने विद्यार्थियों को विशवास दिलाने का प्रयत्न करते हैं कि भारत में नालन्दा और तक्षशिला नाम की विश्व स्तर से ऊँची यूनिवर्स्टियाँ थीं जहाँ विदेशों से लोग पढने के लिये आते थे। यदि हमें विदेशियों का ‘अनुमोदन’ नहीं मिला होता तो हमारी युवा पीढियों को यह विशवास ही नहीं होना था कि कभी हम भी विदूान और सभ्य थे।

आज हमें अपनी प्राचीन सभ्यता और अतीत की खोज करने के लिये आक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज जाना पडता है परन्तु यदि इस प्रकार की सुविधाओं का निर्माण भारत के अन्दर करने को कहा जाये तो वह सत्ता में बैठे स्वार्थी नेताओं को मंज़ूर नहीं क्योंकि उस से भारत के अल्प संख्यक नाराज हो जायें गे। हमारे भारतीय मूल के धर्म-निर्पेक्षी मैकाले पुत्र ही विरोध करने पर उतारू हो जाते हैं।

हिन्दू ग्रन्थो का विरोध

जब गुजरात सरकार ने विश्वविद्यालयों में ज्योतिष शास्त्र के अध्ययन का विचार रखा था तो तथाकथित बुद्धिजीवियों का ऐक बेहूदा तर्क था कि इस से वैज्ञानिक सोच विचार की प्रवृति को ठेस पहुँचे गी। उन के विचार में ज्योतिष में बहुत कुछ आँकडे परिवर्तनशील होते हैं जिस के कारण ज्योतिष को ‘विज्ञान’ नहीं कहा जा सकता और विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में शामिल नहीं किया जा सकता।

इस तर्कहीन विरोध के उत्तर में यदि कहा जाय कि ज्योतिष विध्या को ‘विज्ञान’ नहीं माना जा सकता तो ‘कला’ के तौर पर उध्ययन करने में क्या आपत्ति हो सकती है? संसार भर में मानव समुदाय किसी ना किसी रूप में भविष्य के बारे में जिज्ञासु रहा हैं। मानव किसी ना किसी प्रकार से अनुमान लगाते चले आ रहै हैं। झोडिक साईन पद्धति, ताश के पत्ते, सितारों की स्थिति, शुभ अशुभ अपशगुण, तथा स्वप्न विशलेशण से भी मानव भावी घटनाओं का आँकलन करते रहते हैं। इन सब की तुलना में भारतीय ज्योतिष विध्या के पास तो उच्च कोटि का साहित्य और आँकडे हैं जिन को आधार बना कर और भी विकसित किया जा सकता है। 

व्यापारिक विशलेशण (फोरकास्टिंग) भी आँकडों पर आधारित होता है जिन से वर्तमान मार्किट के रुहझान को परख कर भविष्य के अनुमान लगाये जाते हैं। अति आधुनिक उपक्रम होने के बावजूद भी कई बार मौसम सम्बन्धी जानकारी भी गलत हो जाती है तो क्या बिज्नेस और मौसम की फोरकास्टों को बन्द कर देना चाहिये ? इन बुद्धजीवियों का तर्क माने तो किसी देश में योजनायें ही नहीं बननी चाहिये क्यों कि “भविष्य का आंकलन तो किया ही नहीं जा सकता”।

ज्योतिष के क्षेत्र में विधिवत अनुसंधान और परिशिक्षण से कितने ही युवाओं को आज काम मिला सकता है इस का अनुमान टी वी पर ज्योतिषियों की बढती हुय़ी संख्या से लगाया जा सकता है। इस प्रकार की मार्किट भारत में ही नहीं, विदेशों में भी है जिस का लाभ हमारे युवा उठा सकते हैं। यदि ज्योतिष शास्त्रियों को आधुनिक उपक्रम प्रदान किये जायें तो कई गलत धारणाओं का निदान हो सकता है। डेटा-बैंक बनाया जा सकता है। वैदिक परिशिक्षण को विश्वविद्यालयों के पाठयक्रम में जोडने से हम कई धारणाओं का वैज्ञानिक विशलेशण कर सकते हैं जिस से भारतीय मूल के सोचविचार और तकनीक का विकास और प्रयोग बढे गा। हमें विकसित देशों की तकनीक पर निर्भर नहीं रहना पडे गा।

अधुनिक उपक्रमों की सहायता से हमारी प्राचीन धारणाओं पर शोध होना चाहिये। उन पर केस स्टडीज करनी चाहियें। हमारे पास दार्शनिक तथा फिलोसोफिकल विचार धारा के अमूल्य भण्डार हैं यदि वेदों तथा उपनिष्दों पर खोज और उन को आधार बना कर विकास किया जाये तो हमें विचारों के लिये अमरीका या यूनान के बुद्धिजीवियों का आश्रय नहीं लेना पडे गा। परन्तु इस के लिये शिक्षा का माध्यम उपयुक्त स्वदेशी भाषा को बनाना होगा।

संस्कृत भाषा के प्रति उदासीनता 

प्राचीन भाषाओं में केवल संस्कृत ही इकलौती भाषा है जिस में प्रत्येक मानवी विषय पर मौलिक और विस्तरित जानकारी उपलब्द्ध है। किन्तु ‘धर्म-निर्पेक्ष भारत’ में हमें संस्कृत भाषा की शिक्षा अनिवार्य करने में आपत्ति है क्यों कि अल्पसंख्यकों की दृष्टि में संस्कृत तो ‘हिन्दू काफिरों’ की भाषा है। भारत सरकार अल्पसंख्यक तुष्टिकरण नीति के कारण उर्दू भाषा के विकास पर संस्कृत से अधिक धन खर्च करने मे तत्पर है जिस की लिपि और साहित्य में में वैज्ञानिक्ता कुछ भी नहीं। लेकिन भारत के बुद्धिजीवी सरकारी उदासीनता के कारण संस्कृत को प्रयोग में लाने की हिम्म्त नहीं जुटा पाये। उर्दू का प्रचार कट्टरपंथी मानसिकत्ता को बढावा देने के अतिरिक्त राष्ट्रभाषा हिन्दी का विरोधी ही सिद्ध हो रहा है। हिन्दू विरोधी सरकारी मानसिक्ता, धर्म निर्पेक्षता, और मैकाले शिक्षा पद्धति के कारण आज अपनेी संस्कृति के प्रति घृणा की भावना ही दिखायी पडती है।

इतिहास का विकृतिकरण

अल्पसंख्यकों को रिझाने के लक्ष्य से हमारे इतिहास में से मुस्लिम अत्याचारों और विध्वंस के कृत्यों को निकाला जा रहा है ताकि आने वाली पीढियों को तथ्यों का पता ही ना चले। अत्याचारी आक्रान्ताओं के कुकर्मों की अनदेखी कर दी जाय ताकि बनावटी साम्प्रदायक सदभाव का क्षितिज बनाया जा सके।

धर्म निर्पेक्षकों की नजर में भारत ऐक ‘सामूहिक-स्थल’ है या नो मेन्स लैण्ड है, जिस का कोई मूलवासी नहीं था। नेहरू वादियों के मतानुसार गाँधी से पहले भारतीयों का कोई राष्ट्र, भाषा या परम्परा भी नहीं थी। जो भी बाहर से आया वह हमें ‘सभ्यता सिखाता रहा’ और हम सीखते रहै। हमारे पास ऐतिहासिक गौरव करने के लिये अपना कुछ नहीं था। सभी कुछ विदेशियों ने हमें दिया। हमारी वर्तमान पीढी को यह पाठ पढाने की कोशिश हो रही है कि महमूद गज़नवी और मुहमम्द गौरी आदि ने किसी को तलवार के जोर पर मुस्लिम नहीं बनाया था और धर्मान्धता से उन का कोई लेना देना नहीं था। “हिन्दवी-साम्राज्य” स्थापित करने वाले शिवाजी महाराज केवल मराठवाडा के ‘छोटे से’ प्रान्तीय सरदार थे। अब पानी सिर से ऊपर होने जा रहा है क्यों कि काँग्रेसी सरकार के मतानुसार ‘हिन्दू कोई धर्म ही नहीं’।

हमारे कितने ही धार्मिक स्थल ध्वस्त किये गये और आज भी कितने ही स्थल मुस्लिम कबजे में हैं जिन के ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्द्ध है किन्तु सरकार में हिम्मत नहीं कि वह उन की जाँच करवा कर उन स्थलों की मूल पहचान पुनर्स्थापित कर सके।

हिन्दू आस्तीत्व की पुनर्स्थापना अनिवार्य 

पाश्चात्य देशों ने हमारी संचित ज्ञान सम्पदा को हस्तान्तरित कर के अपना बना लिया किन्तु हम अपना अधिकार जताने में विफल रहै हैं। किसी भी अविष्कार से पहले विचार का जन्म होता है। उस के बाद ही तकनीक विचार को साकार करती है। तकनिक समयानुसार बदलती रहती है किन्तु विचार स्थायी होते हैं। तकनीकी विकास के कारण बिजली के बल्ब के कई रूप आज हमारे सामने आ चुके हैं किन्तु जिस ने प्रथम बार बल्ब बनाने का विचार किया था उस का अविष्कार महानतम था। इसी प्रकार आज के युग के कई महत्वपूर्ण वैज्ञानिक अविष्कारों के जन्मदाता भारतीय ही हैं। कितने ही अदभुत विचार आज भी हमारे वेदों, पुराणों, महाकाव्यों तथा अन्य ग्रँथों में दबे पडे हैं और साकार होने के लिये तकनीक की प्रतीक्षा कर रहै हैं। उन को जानने के लिये हमें संस्कृत को ही अपनाना होगा।

उद्यौगिक घराने विचारों की खोज करने के लिये धन खर्च करते हैं, गोष्ठियाँ करवाते हैं, तथा ब्रेन स्टारमिंग सेशन आयोजित करते हैं ताकि वह नये उत्पादकों का अविष्कार कर सकें। यदि भारत में कोई विचार पंजीकृत कराने की पद्धति पहले होती तो आज भारत विचारों के जनक के रूप में इकलौता देश होता। किन्तु हमारा दुर्भाग्य है कि संसार में दूसरा अन्य कोई देश नहीं जहाँ स्वदेशी विचारों का उपहास उडाया जाता हो। हम विदेशी वस्तुओं की प्रशंसा तोते की तरह करते हैं। भारत में आज विदेशी लोग किसी भी तर्कहीन अशलील, असंगत बात या उत्पादन का प्रचार, प्रसार खुले आम कर सकते हैं किन्तु यदि हम अपने पुरखों की परम्परा को भारत में ही लागू करवाने का विचार करें तो उस का भरपूर विरोध होता है।

हमें बाहरी लोग त्रिस्करित करें या ना करें, धर्म निर्पेक्षता का नाम पर हम अपने आप ही अपनी ग्लानि करने में तत्पर रहते हैं। विदेशी धन तथा सरकारी संरक्षण से सम्पन्न इसाई तथा मुस्लिम कटुटरपंथियों का मुकाबला भारत के संरक्षण वंचित, उपेक्षित हिन्दू कैसे कर सकते हैं इस पर हिन्दूओं को स्वयं विचार करना होगा। लेकिन इस ओर भी हिन्दू उदासीन और निर्लेप जीवन व्यतीत कर रहै हैं जो उन की मानसिक दास्ता ही दर्शाती है।

चाँद शर्मा

40 – देव-वाणी संस्कृत भाषा


संस्कृत विश्व की सब से प्राचीन भाषा है तथा समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है। संस्कृत का शाब्दिक अर्थ है परिपूर्ण भाषा। संस्कृत पू्र्णतया वैज्ञायानिक तथा सक्षम भाषा है। संस्कृत भाषा के व्याकरण नें विश्व भर के भाषा विशेषज्ञ्यों का ध्यानाकर्षण किया है तथा उन के मतानुसार भी यह भाषा कम्पयूटर के उपयोग के लिये सर्वोत्तम भाषा है। 

मूल ग्रंथ

संस्कृत भाषा की लिपि देवनागरी लिपि है। इस भाषा को ऋषि मुनियों ने मन्त्रों की रचना कि लिये चुना क्योंकि इस भाषा के शब्दों का उच्चारण मस्तिष्क में उचित स्पन्दन उत्पन्न करने के लिये अति प्रभावशाली था। इसी भाषा में वेद प्रगट हुये, तथा उपनिष्दों, रामायण, महाभारत और पुराणों की रचना की गयी। मानव इतिहास में संस्कृत का साहित्य सब से अधिक समृद्ध और सम्पन्न है। संस्कृत भाषा में दर्शनशास्त्र, धर्मशास्त्र, विज्ञान, ललित कलायें, कामशास्त्र, संगीतशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, हस्त रेखा ज्ञान, खगोलशास्त्र, रसायनशास्त्र, गणित, युद्ध कला, कूटनिति तथा महाकाव्य, नाट्य शास्त्र आदि सभी विषयों पर मौलिक तथा विस्तरित गृन्थ रचे गये हैं। कोई भी विषय अनछुआ नहीं बचा।

पाणनि रचित अष्याध्यायी

किसी भी भाषा के शब्दों का शुद्ध ज्ञान व्याकरण शास्त्र कराता है। पाणनि कृत अष्याध्यायी संस्कृत की व्याकरण ईसा से 300 वर्ष पूर्व रची गयी थी। स्वयं पाणनि के कथनानुसार अष्टाध्यायी से पूर्व लग भग साठ व्याकरण और भी उपलब्द्ध थे।अष्याध्यायी विश्व की सब से संक्षिप्त किन्तु पूर्ण व्याकरण है। इस में भाषा का विशलेषण कर के शब्द निर्माण के मूल सिद्धान्त दर्शाये गये हैं। अंक गणित की पद्धति का प्रयोग कर के सभी शब्दों की रचना के सिद्धान्त संक्षिप्त में ही सीखे जा सकते हैं। संस्कृत में शब्द निर्माण पूर्णत्या वैज्ञानिक और तर्क संगत है। उदाहरण के लिये सिंहः शब्द हिंसा का प्रतीक है इस लिये हिंसक पशु को सिहं की संज्ञा दी गयी है। इसी प्रकार सम्पूर्ण विवरण स्पष्ट, संक्षिप्त तथा सरल हैं।

भाषा विज्ञान के क्षेत्र में पाणनि रचित अष्याध्यायी निस्संदेह ऐक अमूल्य देन है। अष्टाध्यायी के आठ अध्याय और चार हजार सूत्र हैं जिन में विस्तरित ज्ञान किसी कम्प्रेस्सड  कमप्यूटर फाईल की तरह भरा गया है। उन में स्वरों (एलफाबेट्स) का विस्तृत विशलेषण किया गया है। इस का ऐक अन्य आश्चर्यजनक पक्ष यह भी है कि अष्टाध्यायी का मूल रूप लिखित नही था अपितु मौखिक था। उसे समर्ण रखना होता था तथा श्रुति के तौर पर पीढी दर पीढी हस्तांत्रित करना होता था। अभी अष्टाध्यायी के लिखित संस्करण उपलब्द्ध हैं, और व्याख्यायें भी उपलब्द्ध हैं। किन्तु फिर भी शब्दों की मूल उत्पत्ति को स्मर्ण रखना आवश्यक है। संस्कृत व्याकरण के ज्ञान के लिये अष्टाध्याय़ी मुख्य है।

पाणनि के पश्चात कात्यायन तथा पतंजलि जैसे व्याकरण शास्त्रियों ने भी इस ज्ञान को आगे विकसित किया था। उन के अतिरिक्त योगदान से संस्कृत और सुदृढ तथा विकसित हुयी और प्राकाष्ठा तक पहुँच कर बुद्धिजीवियों की सशक्त भाषा रही है 

संस्कृत भाषा की वैज्ञ्यानिक्ता

प्राचीन काल से ही भारत का भाषा ज्ञान ग्रीक तथा इटली से कहीं अधिक श्रेष्ठ तथा वैज्ञिानिक था। भारत के व्याकरण शास्त्रियों ने योरूपियन भाषा विशेषज्ञ्यों को शब्द ज्ञान का विशलेषण करने की कला सिखायी। यह तब की बात है जब अपने आप को आज के युग में सभी से सभ्य कहने वाले अंग्रेज़ों को तो बोलना भी नहीं आता था। आज से ऐक हजार वर्ष पूर्व वह उधार में पायी स्थानीय अपभ्रंश भाषाओं में ‘योडलिंग कर के ऐक दूसरे से सम्पर्क स्थापित किया करते थे। अंग्रेजी साहित्य का इतिहास 1350 से चासर रचित ‘केन्टरबरी टेल्स के साथ आरम्भ होता है जिसे फादर आफ इंग्लिश पोयट्री कहा जाता है। विश्व की अन्तर्राष्ट्रीय भाषा अंग्रेज़ी के साथ संस्कृत की सीमित तुलना ही कुछ इस प्रकार करें तो संस्कृत की वैज्ञ्यानिक प्रमाणिक्ता के लिये हमें विदेशियों के आगे गिडगिडाने की कोई आवश्क्ता नहीं हैः-

  • वर्ण-माला – व्याकरण में किसी भी छोटी से छोटी ध्वनि को वर्ण या अक्षर कहते हैं और वर्णों के समूह  वर्णमाला। अंग्रेजी में कुल 26 वर्ण (एलफाबेट्स) हैं जिस का अर्थ है कि 26 शुद्ध ध्वनियों को ही लिपिबद्ध किया जा सकता है। यह 26 ध्वनियां भी प्राकृतिक नहीं है जैसे कि ऐफ़, क्यू, डब्लयू, ऐक्स आदि एलफाबेट्स को छोटे बच्चे आसानी से नहीं बोल सकते हैं। इस की तुलना में संस्कृत वर्णमाला में 46 अक्षर हैं जो संख्या में अंग्रेज़ी से लगभग दुगने हैं और प्राकृतिक ध्वनियों पर आधारित हैं।
  • स्वर और व्यञ्जनों की संख्या – अंग्रेजी और संस्कृत दोनों भाषाओं में अक्षरों को स्वर (कान्सोनेन्ट्स) और व्यञ्जन (वोवल्स) की श्रेणी में बाँटा गया है। स्वर प्राकृतिक ध्वनियाँ होती हैं। व्यञ्जनों का प्रयोग प्राकृतिक ध्वनियों को लम्बा या किसी वाँछित दिशा में घुमाने के लिये किया जाता है जैसे का, की कू चा ची चू आदि। अंग्रेजी भाषा में केवल पाँच वोवल्स हैं जबकि संस्कृत में उन की संख्या 13 है। विश्व की अन्य भाषाओं की तुलना में संस्कृत के स्वर और व्यंजनो की संख्या इतनी है कि सभी प्रकार की आवाजों को वैज्ञानिक तरीके से बोला तथा लिपिबद्ध किया जा सकता है।
  • सरलता – अंग्रेज़ी भाषा में बहुत सी ध्वनियों को जैसे कि ख, ठ. ढ, क्ष, त्र, ण आदि को वैज्ञ्यानिक तरीके से लिखा ही नहीं जा सकता। अंग्रेज़ी में के ऐ टी – कैट लिखना कुछ हद तक तो माना जा सकता है क्यों कि वोवल ‘ऐ’ का उच्चारण भी स्थाई नहीं है और रिवाज के आधार पर ही बदलता रहता है। लेकिन सी ऐ टी – केट लिखने का तो कोई वैज्ञ्यानिक औचित्य ही नहीं है। इस के विपरीत देवनागरी लिपि का प्रत्येक अक्षर जिस प्रकार बोला जाता है उसी प्रकार ही लिखा जाता है। अंग्रेज़ी का ‘डब्लयू किसी प्राकृतिक आवाज को नहीं दर्शाता, ना ही अन्य अक्षर ‘व्ही से कोई प्रयोगात्मिक अन्तर को दर्शाता है। दोनो अक्षरों के प्रयोग और उच्चारण का आधार केवल परम्परायें हैं, वैज्ञ्यानिक नहीं। अतः सीखने में संस्कृत अंग्रेज़ी से कहीं अधिक सरल भाषा है।
  • उच्चारण – कहा जाता है अरबी भाषा को कंठ से और अंग्रेजी को केवल होंठों से ही बोला जाता है किन्तु संस्कृत में वर्णमाला को स्वरों की आवाज के आधार पर कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, अन्तःस्थ और ऊष्म वर्गों में बाँटा गया है। फिर शरीर के उच्चारण अंगों के हिसाब से भी दन्तर (ऊपर नीचे के दाँतों से बोला जाने वाला), तलबर (जिव्हा से), मुखोपोत्दर (ओष्ट गोल कर के), कंठर ( गले से) बोले जाने वाले वर्गों में वर्गीकृत किया गया है। अंग्रेजी में इस प्रकार का कोई विशलेशण नहीं है सब कुछ रिवाजानुसार है।

यह संस्कृत भाषा की अंग्रेज़ी भाषा की तुलना में सक्ष्मता का केवल संक्षिप्त उदाहरण है। 1100 ईसवी तक संस्कृत समस्त भारत की राजभाषा के रूप सें जोडने की प्रमुख कडी थी।

भारत की सांस्कृतिक पहचान

प्रत्येक व्यक्ति, जाति तथा राष्ट्र की पहचान उस की वाणी से होती है। आज संसार में इंग्लैण्ड जैसे छोटे से देश की पहचान ऐक साम्राज्य वादी शक्ति की तरह है तो वह अंग्रेज़ी भाषा की बदौलत है जिसे उधार ली भाषा होने के बावजूद अंग्रेज़ जाति ने राजनैतिक शक्ति का प्रयोग कर के विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय भाषा के तौर पर स्थापित कर रखा है। इस की तुलना में इच्छा शक्ति और आत्म सम्मान की कमी के कारण संसार की ऐक तिहाई जनसंख्या होने के बावजूद भी भारतवासी अपनी तथाकथित ‘राष्ट्रभाषा’ हिन्दी को विश्व में तो दूर अपने ही देश में ही स्थापित नहीं कर सके हैं। हमारे पूर्वजों ने तो हमें बहुत कुछ सम्मानजनक विरासत में दिया था परन्तु यह ऐक शर्मनाक सच्चाई है कि हमारी वर्तमान पीढियाँ पूर्वजों दूारा अर्जित  गौरव के बोझ को सम्भाल पाने में असमर्थ रही हैं। उसी गौरव की ऐक उपलब्द्धी संस्कृत भाषा है जिस की आज भारत में ही उपेक्षा की जा रही है। 

हम मुफ्त में अपनी पीठ थपथपा सकते हैं कि संस्कृत की गूंज कुछ साल बाद अंतरिक्ष में सुनाई दे सकती है। अमेरिका संस्कृत को ‘नासा’ की भाषा बनाने की कसरत में जुटा है क्योंकि संस्कृत ऐसी प्राकृतिक भाषा है, जिसमें सूत्र के रूप में कंप्यूटर के जरिए कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में भेजा जा सकता है।

रूसी, जर्मन, जापानी, अमेरिकी सक्रिय रूप से हमारी पवित्र पुस्तकों से नई चीजों पर शोध कर रहे हैं और उन्हें वापस दुनिया के सामने अपने नाम से रख रहे हैं। दुनिया के 17 देशों में एक या अधिक संस्कृत विश्वविद्यालय संस्कृत के बारे में अध्ययन और नई प्रौद्योगिकी प्राप्तकरने के लिए जुटे हैं, लेकिन संस्कृत को समर्पित उसके वास्तविक अध्ययन के लिए एक भी संस्कृत विश्वविद्यालय भारत में नहीं है। हमारे देश में तो इंग्लिश बोलना शान की बात मानी जाती है। इंग्लिश नहीं आने पर लोग आत्मग्लानि अनुभव करते है जिस कारण जगह जगह इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स चल रहें है।

भारत की सरकार और लोगों को भी अब जागना चाहिए और अँग्रेजी की गुलामी से बाहर निकाल कर अपनी भाषा और संस्कृति पर गर्व करना चाहिए। भारत सरकार को भी ‘संस्कृत’ को नर्सरी से ही पाठ्यक्रम में शामिल करके देववाणी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना चाहिए। केवल संस्कृत ही भारत के प्राचीन इतिहास तथा विज्ञान को वर्तमान से जोडने में सक्षम है। यदि हम भारत में संस्कृत की अवहेलना करते रहे तो हम अपने समूल को स्वयं ही नष्ट कर दें गे जो सृष्टि के निर्माण काल से वर्तमान तक की अटूट कडी है। नहीं तो फिर हमें संस्कृत सीखने के लिये विदेशों में जाना पडे गा। 

चाँद शर्मा

 

37 – ज्योतिष विज्ञान


ज्योतिष विद्या को वेदाँग माना गया है। सौर मण्डल के ग्रहों का प्रभाव हमारे शरीर, और विचारों पर पडना ऐक ऐसा वैज्ञानिक सत्य है जिस से इनकार नहीं किया जा सकता। विचारों के अनुसार ही कर्म होते हैं जिन के फल जीवन में सुख दुःख का कारण बनते हैं। ऋषियों नें ग्रहों के प्रभाव को जीवन की घटनाओं के साथ जोडने और परखने के लिये ज्योतिष ज्ञान रचा था।

कालान्तर भविष्यवाणियाँ करने का कार्य मुख्यता ब्राह्मणों का व्यवसाय बन गया। समय के साथ जीवन में सुख वृद्धि और दुःख निवार्ण के उपचार के लिये इस विद्या में सत्यता और प्रमाणिक्ता के अतिरिक्त वहम, आडम्बर और अविशवास भी जुडते  गये। आज विश्व में कोई भी सभ्यता ज्योतिष, हस्त रेखा ज्ञान, अंक विशलेष्ण, ओकल्ट (भूत प्रेत) टोरोट कार्ड, और कई प्रकार के जन्त्र, मन्त्र, तन्त्र, टोनें, टोटकों, तथा रत्नों के प्रयोग से अछूती नहीं है। आजकल प्रसार के सभी माध्यमों पर असला-नकली ज्योतिषियों की भरमार देखी जा सकती है।

ज्योतिष शास्त्र

भारतीय ज्योतिषियों के अनुसार सभी ग्रहों का प्रभाव जीवों पर सदा ऐक जैसा नहीं रहता बल्कि जन्म समय के ग्रहों की आपसी स्थिति के अनुसार घटता बढता रहता है। ग्रह अपना सकारात्मिक या नकारात्मिक प्रभाव डालते रहते हैं। प्रत्येक मानव का व्यक्तित्व सकारात्मिक तथा नकारात्मिक प्रभावों का सम्मिश्रण बन कर विकसित होता है। ग्रहों के हानिकारक प्रभावों को ज्योतिषी उपचारों से लाभकारी प्रभाव में बदला जा सकता है। यह तर्क ठीक उसी प्रकार है जैसे किसी के शरीर में होमोग्लोबिन की मात्रा कम हो तो उसे विशेष पौष्टिक आहार या व्यायाम करवा कर उस का उपचार किया जा सकता है।

भारतीय ज्योतिष की प्रमाणिक्ता

भिन्न भिन्न देशों में भविष्यवाणियों सम्बन्धी अपने अपने आधार हैं। चीन के ज्योतिषी जन्म समय के बजाय जन्म वर्ष को आधार मानते हैं। उन के अनुसार वर्षों में कई भाग भिन्न भिन्न जानवरों की मनोस्थिती को व्यक्त करते हैं और उस भाग में पैदा हुये सभी मानवों में भाग की अभिव्यक्ति करने वाले जानवरों जैसे मनोभाव हों गे। पाश्चात्य ज्योतिषी सभी गणनाओं में सूर्य को केन्द्र मान कर अन्य ग्रहों की स्थिति का विशलेषण करते हैं, किन्तु भारतीय पद्धति में सूर्य के स्थान पर चन्द्र को अधिक महत्व दिया गया है क्यों कि पृथ्वी का निकटतम ग्रह होने के काऱण चन्द्र मनोदशा पर सर्वाधिक प्रभावशाली होता है।

भारत के खगोल शास्त्रियों को ईसा से शताब्दियों पूर्व 27 नक्षत्रों, सात ग्रहों तथा 12 राशियों की जानकारी प्राप्त थी। प्रत्येक राशि में जन्में लोगों में भिन्न रुचियाँ और क्षमताये होती हैं जो अन्य राशि के लोगों को अपने अपने प्रभावानुसार आकर्शित या निष्कासित करती हैं।

पृथ्वी धीरे धीरे अपनी धुरी पर झुकती रहती है जिस कारण पृथ्वी तथा सूर्य की दूरी प्रत्येक वर्ष लगभग 1/60 अंश से कम होती है। आज कल यह झुकाव 23 अँश है जो ऐक सम्पूर्ण नक्षत्र के बराबर है। इन नक्षत्रों की गणना चन्द्र दूारा पृथ्वी की परिकर्मा पर आधारित है जो चन्द्र अन्य तारों की अपेक्षा करता है। प्रत्येक व्यक्ति की गणना का आधार उस की जन्म तिथि, समय तथा स्थल पर निर्भर करता है। भारतीय ज्योतिष उन्हीं ग्रहों के प्रभाव का आँकलन मानव की प्रकृति, मानसिक्ता तथा शरीरिक क्षमताओं पर करता है। कर्म क्षमताओं के आधार पर होंते हैं और कर्मों पर भविष्य निर्भर करता है। अतः व्यक्ति के जन्म समय के नक्षत्रों की दशा जीवन के सभी अंगों को प्रभावित करती रहती है। ग्रहों के प्रभाव को अनुकूल करने में रत्न आदि उस के सहायक होते हैं।

भारत वासियों ने प्राचीन काल से ही सौर मण्डल के प्रभाव को जन जीवन की घटनाओं तथा रस्मों के साथ जोड लिया था। भारतीय ज्योतिष ज्ञान वास्तव में सृष्टि की प्राकृतिक ऊर्जाओं के प्रभावों का विज्ञान है। मानव कई ऊर्जाओं का मिश्रण ही है। परिस्थितियों पर ग्रहों के आकर्षण, भिन्न भिन्न कोणों तथा मात्राओं का प्रभाव भी पडता रहता हैं। उन्हीं असंख्य मिश्रणों के कारण ही ऐक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति से शरीरिक, मानसिक तथा वैचारिक क्षमताओं में भिन्न होता है। भारत का ज्योतिष शास्त्र विश्व में सर्वाधिक प्रमाणित है जिस का आधार भारतीय खगौलिक गणनायें हैं। 

भृगु संहिता

जन्म कुण्डलियों की लगभग सभी सम्भावनाओं की गणना कर के भृगु ऋषि ने ‘भृगु-संहिता’ ग्रंथ की रचना करी थी। कालान्तर सम्पूर्ण मूल ग्रंथ लुप्त हो गया। उस ग्रंथ के कुछ पृष्ट आज भी कई भविष्यवक्ता परिवारों की पैत्रिक सम्पत्ति बन चुके हैं जो भारत में कई जगह बिखरे हुये हैं। सौभाग्यवश यदि किसी की जन्म कुण्डली के ग्रह भृगु-संहिता के अवशेष पृष्टों से मिल जायें तो ज्योतिषी उस व्यक्ति के ना केवल वर्तमान जीवन की घटनायें बता देते हैं बल्कि पूर्व और आने वाले जन्मों की भविष्यवाणी भी कर देते हैं। इस क्षेत्र में नकली पृष्टों और भविष्यवक्ताओं का होना भी स्वभाविक है।

इस सम्बन्ध में ऐक रोचक उल्लेख है। ऐक बार मुग़ल बादशाह शाहजहाँ के पास काशी से ऐक ज्योतिषी आया जिसे शाहजहाँ ने परखने के लिये कुछ आदेश दिये। आदेशानुसार ज्योतिषी ने गणना करी और अपनी भविष्यवाणी ऐक कागज़ पर लिख दी। वह कागज़ बिना पढे ऐक संदूक में ताला लगा कर बन्द कर दिया गया तथा ताले की चाबी शाहजहाँ नें अपने पास रख ली। इस के उपरान्त रोज़ मर्रा की तरह शाहजहाँ अपनी राजधानी दिल्ली के चारों ओर बनी ऊँची दीवार के घेरे से बाहर निकल कर हाथी पर घूमता रहा। उस ने कई बार नगर के अन्दर वापिस लौटने का उपक्रम किया परन्तु दरवाजों के समीप पहुँच कर अपना इरादा बदला और घूमता रहा। अन्त में उस ने ऐक स्थान पर रुक कर वहाँ से शहरपनाह तुडवा दी और नगर में प्रवेश किया। किले में लौटने के पश्चात तालाबन्द संदूक शाहजहाँ के समक्ष खोला गया। जब भविष्यवाणी को खोल कर पढा गया तो शाहजहाँ के आश्चर्य कि ठिकाना नहीं रहा। लिखा था – आज शहनशाह ऐक नये रास्ते से नगर में प्रवेष करें गे।   

कर्म प्रधानता का महत्व

हिन्दू धर्म कभी भी केवल भाग्य पर भरोसा कर के व्यक्ति को निष्क्रय हो जाने का उपदेश नहीं देता बल्कि व्यक्ति को सदा पुरुषार्थ करने कि लिये ही प्रोत्साहित करता है। कर्म करने पर मानव का अधिकार है परन्तु फल देने का अधिकार केवल ईश्वर का है। अतः हताश और निराश होने के बजाय जो भी फल मिले उस को अपना भाग्य समझ कर स्वीकार करना चाहिये। परिश्रम करते रहना ही कर्म का मार्ग है।

हस्त रेखा विज्ञान

ज्योतिष से ही संलग्ति हस्त रेखा विज्ञान भी भारत में विकसित हुआ था। इस के जनक देवऋषि नारद थे। ऋषि गौतम, भृगु, कश्यप, अत्रि और गर्ग भी इस ज्ञान का अग्रज थे। महाऋषि वाल्मिकि ने इस ज्ञान पर 567 पद्यों की रचना भी की थी। वराहमिहिर ने भी अपने खगौलिक ग्रंथ में हस्त रेखा विज्ञान पर अपना योगदान दिया है।

हस्त रेखा विज्ञान के मुख्य प्राचीन ग्रंथ ‘सामुद्रिक-शास्त्र’, ‘रावण-संहिता’ तथा ‘हस्त-संजीवनी’ हैं जो आज भी उपलब्द्ध हैं। ईसा से 3000 वर्ष पूर्व, भारत से यह विद्या चीन, तिब्बत, मिस्र, मैसोपोटामियां (इराक) तथा इरान में गयी थी। उन्हीं देशों के माध्यम से फिर आगे वह यूनान और अन्य योरुपीय देशों में फैली। सभी देशों में हस्त रेखाओं की पहचान भारत के अनुरूप ही है परन्तु विशलेषण की मान्यताओं में  भिन्नता होनी स्वाभाविक है।

अरुण-संहिता

संस्कृत के इस मूल ग्रंथ को अकसर ‘लाल-किताब’ के नाम से जाना जाता है। इस का अनुवाद कई भाषाओं में हो चुका है। मान्यता है कि इस का ज्ञान सूर्य के सार्थी अरुण ने लंकाधिपति रावण को दिया था। यह ग्रंथ जन्म कुण्डली, हस्त रेखा तथा सामुद्रिक शास्त्र का मिश्रण है और जिन व्यक्तियों को अपनी जन्म कुण्डली की सत्यता पर भरोसा ना हो तो वह अरुण-संहिता के ज्ञान के आधार पर अपने जीवन की बाधाओं का समाधान कर सकते हैं। यह ग्रंथ उन देशों में अधिक लोकप्रिय हुआ जहाँ जन्म कुण्डली बनाने का रिवाज नहीं था।

हाथ की लकीरों का अध्यन कर के मानव के भूत, वर्तमान तथा भविष्य का सही आंकलन किया जा सकता है क्यों कि हस्त रेखाओं का उदय प्रत्येक व्यक्ति के जन्म समय नक्षत्रों के प्रभाव के अनुसार होता है। इस तथ्य को आज विज्ञान भी स्वीकार कर चुका है कि विश्व में दो व्यक्तियों की हस्तरेखाओं में पूर्ण समानता नहीं होती। इसी लिये सुरक्षा के निमित पहचान पत्र बनाने के लिये आज बायोमैट्रिक पहचान प्रणाली को सर्वाधिक मान्यता प्राप्त है। 

जन्म समय के ग्रहों की स्थिति और दशा हाथ पर जो प्राकृतिक मानचित्र बना देती हैं उसी के आधार पर शरीर में भावनाओं और क्षमताओं का विकास होता है। प्राकृति ने मानव के चेहरों, हाथों और शारीरिक अंगों में इतने प्रकार बना दिये हैं जिन के आधार पर ऐक मानव आचार विचार में दूसरे से भिन्न है।

स्त्री पुरुषों के शारीरिक अंगों का विशलेषण कर के ऋषि वात्सायन ने उन का वर्गीकरण किया था। मान्यता है कि ऊँची नाक वाले लोग घमण्डी होते है, छोटे मस्तक वाले मन्द बुद्धि होते हैं। तथा इस प्रकार के अंग विशलेष्ण नाटकों, चलचित्रों आदि के माध्यम मे पात्रों के चरित्र का बखान उस के बोलने या क्रियात्मिक होने से पहले ही कर देते हैं। इस विज्ञान को अंग्रेजी में फ्रैनोलाजी का नाम दिया गया है जिस के आधार पर नाटकों और चलचित्रों में पात्र का मेकअप निर्धारित किया जाता है। 

रत्न-विज्ञान

भारत में ज्योतिष विज्ञान तथारत्न-विज्ञान दोनों साथ साथ ही विकसित हुये। विश्व में सर्व प्रथम हीरों की खदानों का काम भारत में ही आरम्भ हुआ था। महऋषि शौणिक ने हीरों की विशेषताओं के आधार पर उन्हें चार श्रेणियों में बाँटा जिन के नाम खनिजः, कुलजः, शैलजः तथा कृतिकः रखे गये।

रत्न प्रदीपिका – रत्न प्रदीपिका ग्रंथ में हीरों, मोतियों तथा अन्य नगीनों की विस्तरित जानकारी दी गयी है। इस के अतिरिक्त इस ग्रंथ में बोरेक्स, लवणों, फिटकरी तथा ओश्रा के माध्यम से कृत्रिम हीरे बनाने का भी वर्णन है।

अर्थशास्त्र – कौटिल्लय ने अर्थशास्त्र में हीरों की व्याख्या करते लिखा है कि हीरे आकार में बडे तथा बहुत कडे होते हैं जो समानाकार में खुरचने में सक्षम तथा आघात सहने में भी सक्षम होते हैं। वह अत्यन्त चमकदार होते हैं और धुरी (स्पिंडल) की भान्ति तेज़ी से घूम सकते

हीरों के अतिरिक्त भारतीयों को अन्य रत्नों की विशेषताओं के बारे में भी विस्तरित जानकारी थी जिन का प्रयोग आभूषण बनाने के अतिरिक्त चिकित्सा के क्षेत्र में भी किया जाता था। रत्नों के धारण करने से कई प्रकार की मानसिक तथा शरीरिक दुर्बलताओं का उपचार भी किया जाता था। शरीर के भिन्न भिन्न अंगों पर आभूषणों में जड कर रत्न पहनने से ग्रहों के दुष्प्रभाव को घटाया तथा अनुकूल प्रभाव को बढाया भी जा सकता था। आज भी विश्व भर में लोग कई तरह के रत्न इसी कारण पहनते हैं। महाभारत में पाँडवों ने अश्वथामा के माथे से जब नीलम मणि को दण्ड स्वरूप उखाडा था तो अश्वथामा का समस्त तेज नष्ट हो गया था। 

भिन्न भिन्न नगों को भिन्न भिन्न देवी देवताओं के प्रभाव के साथ जोडा जाता है तथा यह दुष्प्रभाव को घटा कर उचित प्रभाव को प्रदान करने में सहायक सिद्ध होते हैं। यह ज्ञान विज्ञान तथा आस्था के क्षेत्र का संगम है।

ज्योतिष ज्ञान व्यक्ति की प्रकृति की भविष्यवाणी करता है। व्यक्ति अपनी प्रकृति के संस्कार मातापिता से जन्म समय ग्रहण करता है किन्तु प्रकृति को शिक्षा, ज्ञान, तप, साधना वातावरण, कर्म तथा इच्छा शक्ति से परिवर्तित भी किया जा सकता है। कर्म सुधारने से फल भी संशोधित हो जाता है। भविष्यवाणियों को चेतावनी के तौर पर मानना चाहिये और समय रहते उचित कर्म कर के आने वाली विपत्ति के असर को कम किया जा सकता है। मानव को भविष्यवाणियों के आधार पर ना तो दुस्साहसी होना चाहिये और ना ही डर कर निराश हो जाना चाहिये।

चाँद शर्मा

14 – रामायण – प्रथम महाकाव्य


रामायण के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं। इस विचार से वह विश्व के समस्त कवियों के गुरु हैं। उन का आदिकाव्य श्रीमदूाल्मीकीय रामायण मानव साहित्य का प्रथम महाकाव्य है। श्री वेदव्यास ने इसी का अध्ययन कर के महाभारत, पुराण आदि की रचना की थी। युधिष्ठिर के अनुरोध पर व्यास जी ने वाल्मीकि रामायण की व्याख्या भी लिखी थी जिस की ऐक हस्तलिखित प्रति रामायण तात्पर्यदीपिका के नाम से अब भी प्राप्त है।  

रामायण का साहित्यक महत्व

संसार के अन्य महान लेखकों के महाकाव्य जैसे कि महाभारत (वेदव्यास-संस्कृत), ईलियड (दाँते-लेटिन), ओडेसी (होमर-ग्रीक), पृथ्वीराज रासो (चन्द्रबर्दायी-हिन्दी) तथा पैराडाईज़ लोस्ट (मिल्टन-अंग्रेजी) रामायण से कई सदियों पश्चात लिखे गये थे।

रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है। इस कारण से कई अनुवादित संस्करणों में महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य से विषमतायें भी पाई जाती हैं। रामायण की रचना ने कई कवियों को मौलिक महाकाव्य लिखने के लिये भी प्रेरित किया है जिन में से हिन्दी भाषा में लिखा गया गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस सब से अधिक लोकप्रिय है। रामचरित मानस वास्तव में हिन्दी के अपभ्रँश अवधी संस्करण में रचा गया है। इस में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही ऐक मात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में केवल मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है।

रामायण की लोकप्रियता

महाकाव्यों के अतिरिक्त रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। साहित्य और कला का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो रामायण से प्रभावित ना हुआ हो। रामायण के पात्रों के संवाद सर्वाधिक सुन्दर हैं। 

भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो। रामायण में स्थापित मर्यादाओं ने भारत के समस्त जन जीवन को सभ्यता के आरम्भ से ही प्रभावित किया है और आज भी भारतीय सामाजिक सम्बन्धों की आधार शिला रामायण के पात्र ही हैं। आदर्श पिता पुत्र, भाई, मित्र, सेवक, गुरू-शिष्य तथा पति पत्नी के कीर्तिमान यदि ढूंडने हों तो उन का एकमात्र स्त्रोत्र रामायण ही है। मर्यादापुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र यथार्थ तथा विभिन्न परिस्थितियों में एक आदर्श पुत्र, पति, भाई, पिता, मित्र, स्वामी तथा राजा के कर्तव्य निभाने के लिये सभी जातियों के लिये विश्व में ऐक मिसाल बन चुका है। रामायण में केवल राम का चरित्र ही ऐक आदर्शवादी चरित्र है और शेष पात्र यथार्थ जीवन के भिन्न भिन्न रंगों को दर्शाते हैं तथा विश्व में सभी जगह देखे जा सकते हैं।

रामायण काल की सभ्यता

रामायण काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है जिस का आधार मनु समृति है। दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्रों में विचरता है। किन्तु रामायण के पटाक्षेप में समस्त संसार का भूगौलिक चित्रण है। सीता का खोज के लिये सुग्रीव वानर दलों को चारों दिशाओं में भेजते समय जाने तथा लौटने के मार्ग का विस्तरित ब्योरा देते हैं। विश्व के चारों महासागरों के बारे में समझाते हैं जिस से प्रमाणित होता है कि रामायण काल से ही भारत वासियों को पृथ्वी के चारों महासागरों का भूगौलिक ज्ञान था जब कि पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त तक भारत की खोज में निकले स्पेन और पुर्तगाल के नाविक बुलबोवा को प्रशान्त महासागर के अस्तित्व का ज्ञान मैक्सिको पहुँच कर ही हुआ था। रामायण के भूगोल पर बहुत अनुसंधान करने की आवशयक्ता है।

वाल्मीकि रामायण में भूगौलिक चित्रण के अतिरिक्त भारत के की राजवँषों की वंषावलियों, सामाजिक रीति रिवाजों, यज्ञयों, अनुष्ठानों, राजदूतों, कूटनीतिज्ञयों, तथा राजकीय मर्यादाओं के विस्तरित उल्लेख दिये गये हैं। श्री राम से 32 पूर्वजों का वर्णन है। महर्षि वाल्मीकि नें सैनिक गतिविधियों, अस्त्र-शस्त्रों तथा युद्ध क्षेत्र के जो विवरण दिये हैं वह आधुनिक युग के किसी भी सैनिक पत्रकार के लिये कीर्तिमान के समान हैं। इस संदर्भ में महर्षि वाल्मीकि को यूनान के महान दार्शनिक अरस्तु, चीन के महान सैनिक शास्त्री सुन्तज़ु, तथा भारत के महान कूटनीतिज्ञ कौटल्य का अग्रज कहना उचित हो गा।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने प्रत्येक स्थिति में उच्च कोटि का दृष्य चित्रण किया है। भरत के चित्रकूट जाते समय मार्ग में ऋषि भारदूआज नें राजकुमार भरत को सैना सहित अपने आश्रम में आमन्त्रित कर के जो अतिथि सत्कार की व्यव्स्था की थी वह हर प्रकार से ऐशवर्य प्रसाधन सम्पन्न थी और किसी भी पाँचतारा होटल के प्रबन्ध को मात दे सकती है। सीता की खोज पर जाते समय हनुमान सागर लाँधने के लिये जो उछाल भरते हैं तो उस का विवर्ण किसी कोनकार्ड हवाई जहाज़ की उड़ान की तरह है तथा सभी प्रकार के वायु दबाव पूरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उल्लेख किये गये हैं।

ऐतिहासिक महत्व

अरबों वर्ष पूर्व का इतिहास आज के विकास के चशमें से नहीं पढा जा सकता। यह ज़रूरी नहीं कि हम प्रत्येक घटना का योरुप के इतिहासकारों दूआरा निर्धारित मापदण्डों से ही आंकलन करें।

प्राचीन काल में आधुनिक युग की तरह इतिहास नहीं लिखे जाते थे। उस समय कवि राजाओं तथा वीर सामन्तों की गाथायें महाकाव्यों के रूप में लिखा करते थे। निस्संदेह कवि अपने अपने नायकों का बखान बढ़ा चढ़ा कर करते थे। पश्चात मुसलिम सुलतानों ने भी शायरों से अपनी जीवनियाँ लिखवायीं। महमूद ग़ज़नवी की जीवनी फिरदोसी ने लोभवश लिखी थी। जब महमूद ने फिरदोसी की आकांक्षायें पूरी नही करीं तो कवि फिरदोसी ने महमूद का दुशचरित्र भी उसी जीवनी में जोड़ दिया था। अब इस प्रकार की रचना का क्या औचित्य रह जाता है। इस संदर्भ में विचारनीय तथ्य यह है कि जहाँ दरबारी कवि एक तरफा इतिहास लिखते थे ऋषियों को राजकीय पुरस्कारों का कोई लोभ नहीं होता था। अतः उन की रचनायें विशवस्नीय हैं। उन कृतियों का तत्कालीन क़ृतियों के तथ्यों से तुलनात्मिक विशलेष्ण भी किया जा सकता है। प्राचीन भारत में इतिहास के स्त्रोत्र महाकाव्य तथा पुराण ही थे। विदेशी राजदूतों एवम पर्यटकों के लेख तो मौर्य काल के पश्चात ही इतिहास में जोड़े गये।     

रामायण से जुडी आस्थायें

जब किसी प्राचीन गाथा के प्रति बहुमत की सहमति बन जाती है तथा आस्था जुड जाती है तो वही गाथा इतिहास बन जाती है। भारत के प्राचीन ऐतिहासिक लेखान नष्ट किये जा चुके हैं, स्मारक ध्वस्त कर दिये गये हैं, साजो सामान लूट कर विदेशों में भेजा जा चुका है अतः हमें अपने इतिहास का पुनर्सर्जन करने के लिये पुराणों तथा महाकाव्यों पर भी निर्भर होना पडे गा अन्यअथ्वा हमें अपना अतीत खो देना पडे गा। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें बीसवीं सदी तक हड़प्पा और मोयन जोदाडो में जान मार्शल का इन्तिज़ार करना पडा कि हम ही सब से पराचीन सभ्यता थे।

भारत विभाजन के पश्चात हमें कोशिश करनी चाहिये थी कि हम अपने प्राचीन काल की ऐतिहासिक कडियां जोडें किन्तु वोट बेंक राजनीति के कारण हम पूर्णत्या असफल रहे हैं। उल्टे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के चक्कर में हम ने अपनी प्राचीन विरासत को स्वयं ही ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। भारत के आधुनिक शासकों के लिये श्री राम कथित निम्मलिखित वाक्य अति प्रसांगिक है –     

दण्ड अव वरो लोके पुरुषस्येति मे मतिः।

       धि्क क्षमामकृतज्ञेषु सान्त्वं दानमथापि वा।। (49, युद्धकाण्डे  22 सर्ग)

अर्थः – संसार में पुरुष के लिये अकृतज्ञों के प्रति दण्डनीति का प्रयोग ही सब से बडा अर्थ साधक है। वैसे अकृतज्ञ लोगों के प्रति क्षमा, सान्त्वना और दान नीति के प्रयोग को धिक्कार है।

दूषित प्रचार

अंग्रेज़ी शासन काल में उपनेष्वादी शक्तियों के इशारे पर एक मिथ्या प्रचार किया गया कि रामायण की कथा भारत में आर्यों तथा द्राविड़ जातियों के संघर्ष की गाथा है जिस में अन्ततः द्राविड़ों को आर्यों ने परास्त कर दिया था। यह प्रचार सर्वथा निर्रथक था क्यों कि लंकापति रावण भी ब्राह्णण था और ऋषि विशवैशर्वा का पुत्र था। वह चारों वेदों का ज्ञाता तथा भगवान शिव का परम भक्त था। उस ने यज्ञों तथा कठिन साधनाओं से तप कर के देवताओं से शक्तियाँ प्राप्त की हुयी थीं, अतः वह अनार्य तो हो ही नहीं सकता। रावण भारी तान्त्रिक भी था. उस की ध्वजा पर (तान्त्रिक चिन्ह – नरशिर कपाल) मनुष्य की खोपडी का चिन्ह था, जो लगभग सभी देशों में खतरे का चिन्ह माना जाता है। रावण हिन्दू त्रिमूर्ति में से ही भगवान शिव का परम भक्त था। वह भारतीय संस्कृति से अलग नहीं था।

इसी प्रकार अब कुछ भ्रष्ट ऐवं देश द्रोही राजनेताओं ने राम सेतु के संदर्भ में विवाद खडा कर के उसे तोड़ने की परिक्रिया आरम्भ की है ताकि भारत की बची खुची पहचान और गौरव को  मिटाया जा सके। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हिन्दूओं को अपने ही देश में भगवाम राम से जुडी इस ऐतिहासिक यादगार को ध्वस्त होने से बचाने के लिये अपनी निर्वाचित सरकार के आगे गिडगिडाना पड रहा है। आदि काल से ही समुद्री पुल राम सेतु को मानव निर्मित जाना जाता है और विश्व भर की ऐटलसों में उस की पहचान एडम्स ब्रिज के नाम से है। राम से पहले विश्व में अन्य कोई मानव महानायक ही नहीं हुआ। अयोध्या की यात्र3 करते समय श्री राम सीता जी को विमान से राम सेतु दिखा कर कहते हैः-

ऐष सेतुमर्या बद्धः सागरे लवणाणर्वे।

       तव हेतोविर्शालाक्षि नल सेतुः सुदुष्करः।।  (16, युद्धकाण्डे  123 सर्ग) 

अर्थः – विशाललोचने ( सीता), खारे पानी के समुद्र में यह मेरा बन्धवाया हुआ पुल है, जो नल सेतु के नाम से विख्यात है । देवि, तुम्हारे लिये ही .यह अत्यन्त दुष्कर सेतु बाँधा गया था।

कोई भी व्यक्ति अपने दादा परदादा तथा अन्य पूर्वजों के जीवन असतीत्व से इनकार नहीं कर सकता। परन्तु यदि योरूप के ऐतिहासिक माप दण्डों को हम आधार मान कर उन्हीं इतिहासकारों से यह प्रश्न करें कि क्या उन पास अपने दादा परदादा के जीवन के कोई शिलालेख, मुद्रायें या अन्य किसी प्रकार के अवशेष हैं तो निस्संदेह उन के पास ऐसा कुछ नहीं होगा। जब वह दो सौ वर्ष पूर्व के पूर्वजों के प्रमाण नहीं दे सकते तो हम कह सकते हैं  कि उन के दादा परदादा तथा इसी कडी में आगे माता पिता भी नहीं थे। अन्यथ्वा उन्हें यह तर्क मानना ही पडे गा कि हर जीवत प्राणी अपने माता पिता तथा अन्य पूर्वजों के जीवन का स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। यदि उस के पिता, दादा और परदादा नहीं थे तो वह स्वयं भी पैदा ही नहीं हुआ होता। इसी प्रकार भगवान राम तथा उन के नाम से जुडा राम सेतु किसी योरुपीय प्रमाण पर आश्रित नहीं है।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने आयुर्वेद तन्त्रशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, संगीत, सृष्टि में जीवों की उत्पत्ति, इतिहास, भूगोल, राजनीति, मनोविज्ञान, अर्थ शास्त्र, कूट नीति, सैन्य संचालन, अस्त्र शस्त्र, व्यव्हार तथा आचार की बातों का उल्लेख वैज्ञियानिक ढंग से किया है। रामायण में उल्लेख की गयी राजनीति बहुत उच्च कोटि की है जो ऐक अति समृद्ध सभ्यता का परमाण प्रस्तुत करती है। 

रामायण मानव जाति का इतिहास  

रामायण समस्त मानव जगत का इतिहास है तथा हिन्दूओं का आस्था इस में सर्वाधिक है क्योंकि हम इस के साथ अधिक घनिष्टता से जुडे हुये हैं। इस ऐतिहासिक महाकाव्य के सभी गुणों को उदाहरण सहित ऐक लेख में प्रस्तुत करना असम्भव है। उस की विशालता को केवल स्वयं कई बार पढ कर ही जाना जा सकता है।

चाँद शर्मा

 

 

 

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