हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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66 – आरक्षण की राजनीति


बटवारे के पश्चात हिन्दू समाज की सब से अधिक हानि काँग्रेसी सरकार की आरक्षण नीति से हुई है। वैसे तो संविधान में सभी नागरिकों को ‘बराबरी’ का दर्जा दिया गया था किन्तु कुछ वर्गों ने आरक्षण की मांग इस लिये उठाई थी कि जब तक वह ‘अपने यत्न से’ अन्य वर्गों के साथ कम्पीटीशन करने में सक्षम ना हो जायें उन्हें कुछ समय के लिये सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्रदान किया जाये। हिन्दू विरोधी गुटों के दुष्प्रचार के कारण वह अपने आप को हिन्दू समाज में वर्ण व्यवस्था के कारण ‘शोषित’ या ‘दलित’ समझ बैठे थे। अब हिन्दू समाज का विघटन करने के लिये आरक्षण को ऐक राजनैतिक अस्त्र की तरह प्रयोग किया जा रहा है।  

विशिष्ट वर्ग

वैधानिक तौर पर अब कोई भी वर्ग भारत में ‘शोषित’, ‘दलित,’ या ‘उपेक्षित’ नहीं है। पहले भी नहीं था। सभी को अपनी प्रगति के लिये परिश्रम तो स्वयं करना ही होगा किन्तु जाति के आधार पर अब आरक्षित वर्ग दूसरे वर्गों की अपेक्षा ‘विशिष्ट वर्ग’ बनते चले जा रहै हैं। अधिक से अधिक वर्ग अपने आप को शोषित तथा उपेक्षित साबित करने में जुट रहै हैं और आरक्षित बन कर विशिष्ट व्यवहार की मांग करने लग पडे हैं।

आरम्भ में शिक्षालयों तथा निम्न श्रेणी के पदों में जन्म जाति के आधार पर कुछ प्रतिशत स्थान आरक्षित किये गये थे। उस के लिये समय सीमा 1950 से आगे दस वर्ष (1960) तक थी। राजनेताओं ने अपने लिये ‘वोट बैंक’ बनाने के लिये समय सीमा समाप्त होने के पश्चात ना केवल समय सीमा आगे बढा दी बल्कि संख्या तथा आरक्षण पाने वाले वर्गों में वृद्धि की मांग भी निरन्तर करनी आरम्भ कर दी।

इस के अतिरिक्त पदोन्नति के क्षेत्र में भी जिन पदों के लिये निशचित कार्य क्षमता के आधार पर पदोन्नति की व्यव्स्था होनी चाहिये, उन्हें भी आरक्षण के आधार से भरा जाने लगा। इस का सीधा तात्पर्य योग्यता के माप दण्डों को गिरा कर कुछ विशेष लोगों को जाति के आधार पर पुरस्किरत करना मात्र रह गया है। समय के के साथ साथ भारत में ऐक ऐसा वर्ग पैर पसारने लगा है जो अपने आप को शोषित, उपेक्षित तथा पिछडा हुआ बता कर योग्यता के बिना ही विश्ष्टता की श्रेणी में घुसने लगा है। 

अब तो मुस्लिम तथा इसाई भी अपने लिये आरक्षण की मांग करने लगे हैं। वह भूल गये हैं कि बीते कल तक वह हिन्दू धर्म को जातिवादी वर्गीकरण के कारण बदनाम कर रहै थे तथा हिन्दूओं को अपने धर्म परिवर्तन का प्रलोभन इसी आधार पर दे रहे थे कि उन के धर्म में सभी बराबर हैं। यह दोगली चाल आरक्षण नीति की उपज है जिस के कारण हिन्दू समाज को अकसर बलैकमेल किया जाता रहा है। 

आधार हीन दुष्प्रचार    

अहिन्दू धर्म धडल्ले से प्रचार करते रहै हैं कि उन के धर्म में जाति के आधार पर कोई भेद भाव नहीं किया जाता। यदि उन के इसी प्रचार को ‘सत्य’ माने तो जो कोई भी अहिन्दू धर्म को मानता है या जो हिन्दू अपना धर्म छोड कर इसाई या मुस्लिम परिवर्तित हों जाते हैं उन को आरक्षण का लाभ बन्द हो जाना चाहिये क्यों कि उन्हें तथाकथित ‘हिन्दू शोषण’ से मुक्ति मिल जाती है और नये धर्म में जाने के पश्चात उन की प्रगति ‘अपने आप ही बिना परिश्रम किये’ होती जाये गी। इस से दुष्प्रचार की वास्तविक्ता अपने आप उजागर हो जाये गी।

इसाई तथा इस्लामी देशों के पास जमीन तथा संसाधन बहुत हैं। यदि वास्तव में वह हिन्दू शोषितों के लिये ‘चिन्तित’ हैं तो उन्हें शोषितों का धर्म परिवर्तन करवाने के बाद अपने देशों में बसा लेना चाहिये। इस प्रकार के धर्म परिवर्तन से किसी हिन्दू को कोई आपत्ति नहीं हो गी। अमेरिका, योरुप, आस्ट्रेलिया, मध्य ऐशिया आदि देशों में उन लोगों को बसाने की व्यव्स्था करी जा सकती है जहाँ पर इसाई तथा इस्लाम धर्मों ने जन्म लिया था। परन्तु धर्मान्तरण करने वाले वैसा नहीं करते। वह तो भारत से हिन्दू वर्ग को कम करके यहां इसाई और इस्लामी संख्या बढा कर भारत की धरती पर अपना अधिकार करना चाहते हैं।

भेद-भाव रहित वातावरण

 वैधानिक दृष्टि से भारत में सभी नागरिक अपनी योग्यता तथा क्षमता के आधार पर किसी भी शैक्षिक संस्थान में प्रवेश पा सकते हैं। यदि आरक्षण पूर्णत्या समाप्त कर दिये जायें तो सभी शिक्षार्थी समान शुल्क दे कर समान परिक्रिया से उच्च शिक्षा पा सकें गे। यदि संस्थानों की संख्या बढा दी जाये तो कोई भी वर्ग उच्च शिक्षा से वंचित नहीं रहे गा। अगर पिछडे इलाकों में संस्थानों की संख्या में वृद्धि करी जाये तो प्रत्येक नागरिक बिना भेदभाव के अपनी योग्यता के आधार पर प्रगति कर सकता है। आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं है।

प्राकृतिक असमान्तायें

विकसित सभ्यताओं में ज्ञान, शिक्षा, सामाजिक योग्दान, समर्थ तथा क्षमता के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण का होना प्रगतिशीलता की निशानी है। सामाजिक प्रधानतायें प्रत्येक समाज में उत्तराधिकार स्वरुप अगली पीढियों को हस्तान्तरित भी करी जाती है। सामाजिक वर्गीकरण प्रत्येक व्यक्ति को प्रगति करने के लिये उत्साहित करता है ताकि वह मेहनत कर के अपने स्तर से और ऊपर उठने का प्रयत्न करें। य़दि मेहनती के बराबर ही अयोग्य, आलसी तथा नकारे व्यक्ति को भी योग्य के जैसा ही सम्मान दे दिया जाय गा तो मेहनत कोई भी नहीं करेगा। प्रतिस्पर्धा के वातावरण में सक्षम ही आगे निकल सकता है। केवल पशु जगत में ही कुछ सीमा तक समानताये होती हैं क्योंकि देखने में सभी पशु ऐक जैसे ही दिखते हैं परन्तु विषमताये भी प्राकृतिक हैं। ऐक ही माता पिता की संतानों में भी समानता नहीं होती।

स्वास्थ्य समबन्धी व्यक्तिगत कारण

यदि कुछ वर्ग स्वास्थ की दृष्टि से ‘दूषित’ वातावरण में काम करते हैं तो उन के साथ सम्पर्क के लिये स्वास्थ की दृष्टि से प्रतिबन्ध लगाना भी उचित है। इस प्रतिबन्ध का आधार उन की जाति नहीं बल्कि कर्म क्षेत्र का वातावरण है। इस प्रकार का प्रावधान भी सभी विकसित देशों और जातियों में है। आत्मिक दृष्टि से सभी मानव और पशु ऐक जैसे हैं परन्तु शारीरिक दृष्टि से वह ऐक जैसे नहीं हैं। स्त्री-पुरुष, भाई-भाई में भी शारीरिक, तथा भावात्मिक भेद प्रकृति ने बनाये हैं। ऐक ही माता-पिता की संतान होते हुये भी उन का रक्तवर्ग समान नहीं होता। ऐक का रक्त दूसरे को नहीं चढाया जा सकता। यह मानवी विषमताओं का वैज्ञानिक कारण है जिस के कारण उन के सोचविचार और व्यवहार में भी परिवर्तन स्वाभाविक हैं। विषमताओं का धर्म अथवा जाति से कोई सम्बन्ध नहीं। 

निजि पहचान का महत्व

परिचय तथा व्यव्हार के लिये व्यक्ति का चेहरा, उस का चरित्र, निजि स्वच्छता, सरलता, सभ्यता और व्यवहार आदि ही प्रयाप्त होते हैं। जाति प्रत्येक व्यक्ति की पहचान को ‘विस्तरित’ करने के लिये आवश्यक हैं। जाति प्रत्येक व्यक्ति के माता पिता से पिछली पीढी के सम्बन्धों को जोडती है। लेकिन अगर किसी व्यक्ति के लिये अपनी जाति को नाम के साथ जोडना अनिवार्य नहीं है। यदि किसी को अपनी जाति बताने में कोई मानसिक असुविधा लगती है तो वह किसी भी अन्य जाति नाम को अपने साथ जोड सकता है या छोड सकता है।

उच्च शिक्षा की सुविधायें

उच्च शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिबन्ध केवल भारत में ही नहीं बल्कि सभी देशों में किसी ना किसी ढंग से आज भी लगे हुये हैं। ‘रुचि-परीक्षण’(ऐप्टीच्यूड टेस्ट) भी ऐक प्रतिबन्ध है जिस के आधार पर सम्बन्धित विषय की शिक्षा से प्रत्याशी को वंचित होना पडता है या स्वीकृति मिल जाती है। उच्च शिक्षा के साधनों के सीमित होने के कारण इस प्रकार के प्रतिबन्ध आवश्यक हो जाते हैं। जिन के पास उच्च शिक्षा को समझ सकने के बेसिक माप दण्ड नही होते उन पर साधन और समय बरबाद करने का समाज को कोई लाभ नहीं। सभी देशों में उन को उस विशेष शिक्षा से वंचित रहना पडता है। आज कितने ही मेधावी छात्रों को आरक्षण की वजह से निराश हो कर अन्य देशों की तरफ पलायन करना पड रहा है या उच्च शिक्षा से वंचित रहना पडता है क्यों कि स्थान अयोग्य प्रत्याशियों से भरे रहते हैं जो केवल आरक्षण का आर्थिक लाभ उठाते रहते हैं। 

भारत में कोई भी व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को उस का जाति बताने के लिये बाध्य नहीं करता। यदि कोई किसी विशिष्ट विषय के बारे में ज्ञान पाना चाहे तो वह निजि साधनो से उस विषय के ग्रंथ खरीद कर पढ सकता है। इसी प्रकार हर कोई किसी भी देवी-देवता की आराधना भी कर सकता है, मनोरंजन स्थल पर सामान्य शुल्क दे कर जा सकता है उस के मार्ग में कोई भी सरकारी, धार्मिक अथवा सामाजिक बाधा कोई नहीं है। वास्तव में कुछ व्यक्ति आरक्षण लाभ पाने कि लिये अपना जाति का प्रमाण पत्र स्वयं ही दूसरों को दिखाते हैं।

वोट बेंक की राजनीति

कुछ नेता पिछडे वर्गों की नुमायन्दगी करने के लिये अपने आप को दलित, शोषित और पता नहीं क्या क्या कहने लगे हैं। स्वार्थी नेताओं को अपनी प्रगति और समृद्धि के लिये वोट बेंक बनाने के लिये दलित अथवा उसी श्रेणी के अनुयायी भी चाहियें । इसलिये वह उकसा कर हिन्दू समाज को बलैकमेल करने में स्दैव जुटे रहते हैं। वही उन को धर्म परिवर्तन के लिये भी भडकाते रहते हैं। किसी भी नेता ने पिछडे वर्गों को शिक्षशित करने में, या परिश्रम कर के आगे बढने के बारे में कोई योग्दान नहीं दिया है। ऐसे नेता देश, धर्म और पिछडे लोगों के साथ अपने स्वार्थों के लिये सरासर गद्दारी कर रहै हैं।

आरक्षण निति के दुष्परिणाम

आरक्षण नीति पूर्णत्या असफल तथा हानिकारक सिद्ध हुई है। आरक्षण के लाभों ने उत्तराधिकार का रूप ले लिया है। आरक्षण के आरम्भ से आज तक ऐक भी उदाहरण सामने नहीं आया जब किसी आरक्षित ने यह कहा हो कि आरक्षण के कारण उस की सामाजिक ऐवं मानसिक प्रगति हो चुकी है जिस के फलस्वरूप उसे और उस की संतान को अब आगे आरक्षण के माध्यम से कोई लाभ नहीं चाहिये। किसी ऐक ने भी नहीं कहा कि उस का परिवार आरक्षण की बैसाखियों के बिना प्रगति के मार्ग पर चलने के लिये अब सक्षम हो चुका है अतः उस के वापिस किये आरक्षण लाभांश अब किसी अन्य जरूरतमन्द को दे दिये जायें।

आरक्षण पाने वालों की सूची में कई केन्द्रीय मन्त्री, भूतपूर्व राष्ट्रपति, उच्च अधिकारी तथा उद्योगपति भी शामिल हैं किन्तु उन में से भी किसी के परिवार ने उन्नति कर के आरक्षण के लाभांश को किसी दूसरे के लिये नही छोडा है। इसी से प्रमाणित होता है कि आरक्षण नीति असफल रही है। इस के विपरीत कई उच्च जाति के लोग भी अब आरक्षण की कतार में खडे हो कर लाभांश की मांग करने लगे हैं। वह तो यहाँ तक धमकी देते हैं कि उन्हें आरक्षण नहीं दिया गया तो वह हिन्दू धर्म छोड कर कुछ और बन जायें गे। इसी से पता चलता है कि आरक्षण नीति कितनी बेकार और घातक सिद्ध हुई है।

और तो और अब भारत की पढी लिखी और अशिक्षशित स्त्रियों ने अपने लिये संसद तथा प्रान्तीय विधान सभाओं में आरक्षण की मांग करने लगीं हैं। उन्हें यह भी दिखाई नहीं देता कि अगर इटली से ऐक साधरण अंग्रेजी जानने वाली महिला भारत के शासन तन्त्र में सर्वोच्च पद पर आसीन हो सकती है तो भारत की महिलाओं को अपने ही देश में निर्वाचित होने के लिये क्यों आरक्षण चाहिये? निस्संदेह आरक्षणवादी मानसिक्ता ने उन का स्वाभिमान और गौरव ध्वस्त कर दिया हैं।

आरक्षण का आर्थिक आधार

आज कल कुछ धर्म-निर्पेक्ष लोग आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की भी वकालत करने लगे हैं। किन्तु उस के परिणाम भी हिन्दूओं के लिये घातक ही हों गेः-

  • योग्यता, सक्ष्मता तथा कार्य कुशलता की पहचान मिट जाये गी।
  • आर्थिक आधार से आरक्षण के सभी लाभ अल्पसंख्यकों की झोली में जा पडें गे जिस से सारा सरकारी तन्त्र केवल अल्संख्यकों से ही भर जाये गा। शासन तन्त्र में अयोग्यता के अतिरिक्त निष्ठा को भी हानि होगी।
  • दारिद्रता को कसौटी मान कर उसे लाभप्रद नहीं बनाया जा सकता। केवल दारिद्र होने के कारण किसी को परिश्रम के बिना उन्नत नहीं किया जा सकता। यदि वैसा किया गया तो कोई परिश्रम कर के धन नहीं कमाये गा।

सर्वत्र आत्म विशवास का विनाश

आरक्षण के कारण परिश्रम करने वालों और योग्य व्यक्तियों का मनोबल क्षीण हुआ है। शैक्षशिक संस्थानों में रिक्त स्थान उपयुक्त शिक्षार्थी ना मिलने के कारण या तो रिक्त पडे रहते हैं या अयोग्य लोगों से भरे जाते हैं। उन पर किया गया खर्च बेकार हो जाता है। इस प्रकार के स्वार्थवादी ढाँचे को तोडना मुशकिल हो चला है किन्तु इस का लाभ इसाई और मुस्लिम समुदाय उठा रहै हैं और हानि हिन्दू कर दाता।

आरक्षण नीति के विकल्प

यदि हम चाहते तो बटवारे के तुरन्त पश्चात ही आरक्षण के विकल्प ढूंड सकते थे। हमें शिक्षा को पूर्णत्या निशुल्क बनाना चाहिये था। शिक्षा सम्बन्धी खर्चों को भी सस्ता करना चाहिये था जिस में पुस्तकें, होस्टल का किराया और शिक्षार्थियों के लिये भोजन आदि शामिल था। शिक्षा के साथ साथ उन्हें व्यवसायक पर्शिक्षशण देना चाहिये था जिस से विद्यार्थियों में आरक्षण की हीनता के स्थान पर स्वालम्बन की भावना उत्पन्न होती। उच्च शिक्षा के लिये विद्यार्थियों को आसान शर्तों पर कर्ज दिये जा सकते थे जो लम्बे काल में लौटाये जा सकें। इस प्रकार के विकल्प विकसित देशों में सफलता पूर्वक अपनाये गये हैं।

पिछडे वर्गों के लिये सस्ते दरों पर भोजन, पुस्तकों, आदि का प्रावधान कर देना उचित है। उन को अपने परिश्रम से आगे बढने के अवसर देने चाहियें शिक्षण तथा व्यवसायिक परिशिक्षण के संस्थान अधिकतर अविकसित क्षेत्रों में खोलने चाहियें परन्तु वह केवल बेकवर्ड लोगों के लिये ही नहीं होने चाहियें।

धर्म निर्पोक्षता की डींग मारने वाली सरकार के लिये निशुल्क या सस्ती हज यात्रा के प्रावधान के बदले छात्रों को निशुल्क पुस्तकें, वस्त्र, भोजन, तथा होस्टल आदि प्रदान करवाना देश हित में होता। सरकार इसाईयों तथा मुस्लमानों को आरक्षण दे कर हिन्दूओं को धर्म परिवर्तन के लिये उकसा रही है और हिन्दूओं में विघटन करवा रही है। 

चाँद शर्मा

51 – अवशेषों से प्रत्यक्ष प्रमाण


आधुनिक भारत में अंग्रेजों के समय से जो इतिहास पढाया जाता है वह चन्द्रगुप्त मौर्य के वंश से आरम्भ होता है। उस से पूर्व के इतिहास को ‘ प्रमाण-रहित’ कह कर नकार दिया जाता है। हमारे ‘देसी अंग्रेजों’ को यदि सर जान मार्शल प्रमाणित नहीं करते तो हमारे  ‘बुद्धिजीवियों’ को विशवास ही नहीं होना था कि हडप्पा और मोइन जोदडो स्थल ईसा से लग भग 5000 वर्ष पूर्व के समय के हैं और वहाँ पर ही विश्व की प्रथम सभ्यता ने जन्म लिया था।

विदेशी इतिहासकारों के उल्लेख 

विश्व की प्राचीनतम् सिन्धु घाटी सभ्यता मोइन जोदडो के बारे में पाये गये उल्लेखों को सुलझाने के प्रयत्न अभी भी चल रहे हैं। जब पुरातत्व शास्त्रियों ने पिछली शताब्दी में मोइन जोदडो स्थल की खुदाई के अवशेषों का निरीक्षण किया था तो उन्हों ने देखा कि वहाँ की गलियों में नर-कंकाल पडे थे। कई अस्थि पिंजर चित अवस्था में लेटे थे और कई अस्थि पिंजरों ने एक दूसरे के हाथ इस तरह पकड रखे थे मानों किसी विपत्ति नें उन्हें अचानक उस अवस्था में पहुँचा दिया था।

उन नर कंकालों पर उसी प्रकार की रेडियो -ऐक्टीविटी  के चिन्ह थे जैसे कि जापानी नगर हिरोशिमा और नागासाकी के कंकालों पर एटम बम विस्फोट के पश्चात देखे गये थे। मोइन जोदडो स्थल के अवशेषों पर नाईट्रिफिकेशन  के जो चिन्ह पाये गये थे उस का कोई स्पष्ट कारण नहीं था क्यों कि ऐसी अवस्था केवल अणु बम के विस्फोट के पश्चात ही हो सकती है। 

मोइनजोदडो की भूगोलिक स्थिति

मोइन जोदडो सिन्धु नदी के दो टापुओं पर स्थित है। उस के चारों ओर दो किलोमीटर के क्षेत्र में तीन प्रकार की तबाही देखी जा सकती है जो मध्य केन्द्र से आरम्भ हो कर बाहर की तरफ गोलाकार फैल गयी थी। पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने पाया कि मिट्टी चूने के बर्तनों के अवशेष किसी ऊष्णता के कारण पिघल कर ऐक दूसरे के साथ जुड गये थे। हजारों की संख्या में वहां पर पाये गये ढेरों को पुरात्तव विशेषज्ञ्यों ने काले पत्थरों ‘बलैक –स्टोन्सकी संज्ञा दी। वैसी दशा किसी ज्वालामुखी से निकलने वाले लावे की राख के सूख जाने के कारण होती है। किन्तु मोइन जोदडो स्थल के आस पास कहीं भी कोई ज्वालामुखी की राख जमी हुयी नहीं पाई गयी। 

निशकर्ष यही हो सकता है कि किसी कारण अचानक ऊष्णता 2000 डिग्री तक पहुँची जिस में चीनी मिट्टी के पके हुये बर्तन भी पिघल गये । अगर ज्वालामुखी नहीं था तो इस प्रकार की घटना अणु बम के विस्फोट पश्चात ही घटती है। 

महाभारत के आलेख

इतिहास मौन है परन्तु महाभारत युद्ध में महा संहारक क्षमता वाले अस्त्र शस्त्रों और विमान रथों के साथ ऐक एटामिक प्रकार के युद्ध का उल्लेख भी मिलता है। महाभारत में उल्लेख है कि मय दानव के विमान रथ का परिवृत 12 क्यूबिट  था और उस में चार पहिये लगे थे। देव दानवों के इस युद्ध का वर्णन स्वरूप इतना विशाल है जैसे कि हम आधुनिक अस्त्र शस्त्रों से लैस सैनाओं के मध्य परिकल्पना कर सकते हैं। इस युद्ध के वृतान्त से बहुत महत्व शाली जानकारी प्राप्त होती है। केवल संहारक शस्त्रों का ही प्रयोग नहीं अपितु इन्द्र के वज्र अपने चक्रदार रफलेक्टर  के माध्यम से संहारक रूप में प्रगट होता है। उस अस्त्र को जब दाग़ा गया तो ऐक विशालकाय अग्नि पुंज की तरह उस ने अपने लक्ष्य को निगल लिया था। वह विनाश कितना भयावह था इसका अनुमान महाभारत के निम्न स्पष्ट वर्णन से लगाया जा सकता हैः-

“अत्यन्त शक्तिशाली विमान से ऐक शक्ति – युक्त अस्त्र प्रक्षेपित किया गया…धुएँ के साथ अत्यन्त चमकदार ज्वाला, जिस की चमक दस हजार सूर्यों के चमक के बराबर थी, का अत्यन्त भव्य स्तम्भ उठा…वह वज्र के समान अज्ञात अस्त्र साक्षात् मृत्यु का भीमकाय दूत था जिसने वृष्ण और अंधक के समस्त वंश को भस्म करके राख बना दिया…उनके शव इस प्रकार से जल गए थे कि पहचानने योग्य नहीं थे. उनके बाल और नाखून अलग होकर गिर गए थे…बिना किसी प्रत्यक्ष कारण के बर्तन टूट गए थे और पक्षी सफेद पड़ चुके थे…कुछ ही घण्टों में समस्त खाद्य पदार्थ संक्रमित होकर विषैले हो गए…उस अग्नि से बचने के लिए योद्धाओं ने स्वयं को अपने अस्त्र-शस्त्रों सहित जलधाराओं में डुबा लिया…” 

उपरोक्त वर्णन दृश्य रूप में हिरोशिमा और नागासाकी के परमाणु विस्फोट के दृश्य जैसा दृष्टिगत होता है।

ऐक अन्य वृतान्त में श्री कृष्ण अपने प्रतिदून्दी शल्व का आकाश में पीछा करते हैं। उसी समय आकाश में शल्व का विमान ‘शुभः’ अदृष्य हो जाता है। उस को नष्ट करने के विचार से श्री कृष्ण नें ऐक ऐसा अस्त्र छोडा जो आवाज के माध्यम से शत्रु को खोज कर उसे लक्ष्य कर सकता था। आजकल ऐसे मिस्साईल्स  को हीटसीकिंग और साऊडसीकरस  कहते हैं और आधुनिक सैनाओं दूारा प्रयोग किये जाते हैं।

रामायण से भी

प्राचीन ग्रन्थों में चन्द्र यात्रा का उल्लेख भी किया गया है। रामायण में भी विमान से चन्द्र यात्रा का विस्तरित उल्लेख है। इसी प्रकार ऐक अन्य उल्लेख चन्द्र तल पर अशविन वैज्ञानिक के साथ युद्ध का वर्णन है जिस से भारत के तत्कालित अन्तरीक्ष ज्ञान तथा एन्टी  –ग्रेविटी  तकनीक के बारे में जागृति का आभास मिलता है जो आज के वैज्ञानिक तथ्यों के अनुरूप है जब कि अन्य मानव सभ्यताओं ने तो इस ओर कभी सोचा भी नहीं था। रामायण में हनुमान की उडान का वर्णन किसी कोनकार्ड हवाई जहाज के सदृष्य है

       “समुत्पतित वेगात् तु वेगात् ते नगरोहिणः। संहृत्य विटपान् सर्वान् समुत्पेतुः समन्ततः।।    (45)…उदूहन्नुरुवेगन जगाम विमलsम्बरे…सारवन्तोsथ ये वृक्षा न्यमज्जँल्लवणाम्भसि…  तस्य वानरसिहंहस्य प्लवमानस्य सागरम्। कक्षान्तरगतो वायुजीर्मूत इव गर्जति।।(64)… यं यं देशं समुद्रस्य जगाम स महा कपि। स तु तस्यांड्गवेगेन सोन्माद इव लक्ष्यते।। (68)…  तिमिनक्रझषाः कूर्मा दृश्यन्ते विवृतास्तदा…प्रविशन्नभ्रजालीनि निष्पंतश्र्च पुनःपुनः…” (82)

       “जिस समय वह कूदे, उस समय उन के वेग से आकृष्ट हो कर पर्वत पर उगे हुये सब वृक्ष  उखड गये और अपनी सारी डालियों को समेट कर उन के साथ ही सब ओर से वेग पूर्वक उड चले…हनुमान जी वृक्षों को अपने महान वेग से उपर की ओर खींचते हुए निर्मल आकाश  में अग्रसर होने लगे…उन वृक्षों में जो भारी थे, वह थोडी ही देर में गिर कर क्षार समुद्र में डूब  गये…ऊपर ऊपर से समुद्र को पार करते हुए वानर सिहं हनुमान की काँख से होकर निकली हुयी वायु बादल के समान गरजती थी… वह समुद्र के जिस जिस भाग में जाते थे वहाँ वहाँ उन के अंग के वेग से उत्ताल तरंगें उठने लगतीं थीं उतः वह भाग उन्मत से दिखाई देता था…जल के हट जाने के कारण समुद्र के भीतर रहने वाले मगर, नाकें, मछलियाँ और कछुए  साफ साफ दिखाई देते थे… वे बारम्बार बादलों के समूह में घुस जाते और बाहर निकल आते थे…”  

क्या कोई ऐरियोनाटिक विशेष्ज्ञ इनकार कर सकता है कि उपरोक्त वृतान्त किसी वेग गति से उडान भरने वाले विमान पर वायु के भिन्न भिन्न दबावों का कलात्मिक और वैज्ञानिक चित्रण नहीं है? हम अंग्रेजी समाचार पत्रों में इस प्रकार के शीर्षक अकसर पढते हैं  कि ‘ओबामा फलाईज टू इण्डिया– अब यदि दो हजार वर्ष पश्चात इस का पाठक यह अर्थ निकालें कि ओबामा  वानर जाति के थे और हनुमान की तरह उड कर भारत गये थे तो वह उन के  अज्ञान को आप क्या कहैं गे ?

राजस्थान से भी

प्राचीन भारत में परमाणु विस्फोट के अन्य और भी अनेक साक्ष्य मिलते हैं। राजस्थान में जोधपुर से पश्चिम दिशा में लगभग दस मील की दूरी पर तीन वर्गमील का एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ पर रेडियोएक्टिव  राख की मोटी सतह पाई जाती है, वैज्ञानिकों ने उसके पास एक प्राचीन नगर को खोद निकाला है जिसके समस्त भवन और लगभग पाँच लाख निवासी आज से लगभग 8,000 से 12,000 साल पूर्व किसी विस्फोट के कारण नष्ट हो गए थे।

हमें गर्वित कौन करे?

भारतीय स्त्रोत्र के ग्रन्थ प्रचुर संख्या में प्राप्त हो चुके है। उन में से कितने ही संस्कृत से अन्य भाषाओं में अनुवाद नहीं किये गये और ना ही पढे गये हैं। आवश्यक्ता है कि उन का आंकलन करने के लिये उन पर शोध किया जाये। ‘यू एफ ओ (अन आईडेन्टीफाईड औबजेक्ट ) तथा ‘उडन तशतरियों ‘के आधुनिक शोध कर्ताओं का विचार रहा है कि सभी यू एफ ओ तथा उडन तशतरियाँ या तो बाह्य जगत से आती हैं या किसी देश के भेजे गये छद्म विमान हैं जो सैन्य समाचार एकत्रित करते हैं लेकिन वह आज तक उन के स्त्रोत्र को पहचान नहीं पाये। ‘लक्ष्मण-रेखा’ प्रकार की अदृष्य ‘इलेक्ट्रानिक फैंस’ तो कोठियों में आज कल पालतु जानवरों को सीमित रखने के लिये प्रयोग की जातीं हैं, अपने आप खुलने और बन्द होजाने वाले दरवाजे किसी भी माल में जा कर देखे जा सकते हैं। यह सभी चीजे पहले आशचर्य जनक थीं परन्तु आज ऐक आम बात बन चुकी हैं। ‘मन की गति से चलने वाले’ रावण के पुष्पक-विमान का ‘प्रोटोटाईप’ भी उडान भरने के लिये चीन ने बना लिया है।

निस्संदेह रामायण तथा महाभारत के ग्रंथकार दो प्रथक-प्रथक ऋषि थे और आजकल की सैनाओं के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं था। वह दोनो महाऋषि थे और किसी साईंटिफिक – फिक्शन  के थ्रिल्लर – राईटर  नहीं थे। उन के उल्लेखों में समानता इस बात की साक्षी है कि तथ्य क्या है और साहित्यक कल्पना क्या होती है। कल्पना को भी विकसित होने के लिये किसी ठोस धरातल की आवश्यक्ता होती है।

भारत के असुरक्षित भण्डार 

भारतीय मौसम-ज्ञान का इतिहास भी ऋगवेद काल का है। उडन खटोलों के प्रयोग के लिये मौसमी प्रभाव का ज्ञान होना अनिवार्य है। प्राचीन ग्रन्थों में विमानों के बारे में विस्तरित जानकारीके साथ साथ मौसम की जानकारी भी संकलित है। विस्तरित अन्तरीक्ष और समय चक्रों की गणना इत्यादी के सहायक विषय भारतीय ग्रन्थों में स्पष्ट रूप से उल्लेखित हैं। भारत के ऋषि-मुनी बादल तथा वेपर, मौसम और ऋतु का सूक्षम फर्क, वायु के प्रकार, आकाश का विस्तार तथा खगौलिक समय सारिणी बनाने के बारे में में विस्तरित जानकारी रखते थे। वैदिक ज्ञान कोई धार्मिक कवितायें नहीं अपितु पूर्णत्या वैज्ञानिक उल्लेख है और भारत की विकसित सभ्यता की पुष्टि करते है। 

कंसेप्ट का जन्म पहले होता है और वह दीर्घ जीवी होती है। कंसेप्ट  को तकनीक के माध्यम से साकार किया जाता है किन्तु तकनीक अल्प जीवी होती है और बदलती रहती है। अतः कम से कम यह तो प्रमाणित है कि आधुनिक विज्ञान की उन सभी महत्वपूर्ण कंसेप्ट्स  का जन्म भारत में हुआ जिन्हें साकार करने का दावा आज पाश्चात्य वैज्ञानिक कर रहै हैं। प्राचीन भारतियों नें उडान के निर्देश ग्रन्थ स्वयं लिखे थे। विमानों की देख रेख के विधान बनाये थे। यदि यथार्थ में ऐसा कुछ नहीं था तो इस प्रकार के ग्रन्थ आज क्यों उपलब्द्ध होते? इस प्रकार के ग्रन्थों का होना किसी लेखक का तिलसमी साहित्य नहीं है अपितु ठोस यथार्थ है। 

बज़बम

पाणिनि से लेकर राजा भोज के काल तक हमें कई उल्लेख मिलते हैं कि तक्षशिला वल्लभी, धार, उज्जैन, तथा वैशाली में विश्व विद्यालय थे। इतिहास यह भी बताता है कि दूसरी शताब्दी से ही नर संहार और शैक्षिक संस्थानों का हनन भी आरम्भ हो गया था। इस के दो सौ वर्ष पश्चात तो भारत में विदेशियों के आक्रमणों की बाढ प्रति वर्ष आनी शुरु हो गयी थी। अरबों के आगमन के पश्चात तो सभी विद्यालय तथा पुस्तकालय अग्नि की भेंट चढ गये थे और मानव विज्ञान की बहुत कुछ सम्पदा नष्ट हो गयी या शेष लुप्त हो गयी। बचे खुचे उप्लब्द्ध अवशेष धर्म-निर्पेक्ष नीति के कारण ज्ञान केन्द्रों से बहिष्कृत कर दिये गये।

जर्मनी के नाझ़ियों ने सर्व प्रथम बज़ बमों के लिये पल्स –जेट ईंजनों का अविष्कार किया था। यह ऐक रोचक तथ्य है कि सन 1930 से ही हिटलर तथा उस के नाझी सलाहकार भारत तथा तिब्बत के इलाके में इसी ज्ञान सम्बन्धी तथ्यों की जानकारी इकठ्ठी करने के लिये खोजी मिशन भेजते रहै हैं। समय के उलट फेरों के साथ साथ कदाचित वह मशीनें और उन से सम्बन्धित रहिस्यमयी जानकारी भी नष्ट हो गयी थी। 

तिलिसम नहीं यथार्थ

ऐक वर्ष पूर्व 2009 तक पाश्चात्य वैज्ञानिक विश्व के सामने अपने सत्य का ढोल पीटते रहे कि “चन्द्र की धरती पर जल नहीं है”। फिर ऐक दिन भारतीय ‘चन्द्रयान मिशन’ नें चन्द्र पर जल होने के प्रमाण दिये। अमेरिका ने पहले तो इस तथ्य को नकारा और अपने पुराने सत्य की पुष्टि करने के लिये ऐक मिशन चन्द्र की धरती पर उतारा। उस मिशन ने भी भारतीय सत्यता को स्वीकारा जिस के परिणाम स्वरूप अमेरिका आदि विकसित देशों ने दबे शब्दों में भारतीय सत्यता को मान लिया।

इस के कुछ समय पश्चात ऐक अन्य पौराणिक तथ्य की पुष्टि भी अमेरिका के नासा वैज्ञानिकों ने करी। भारत के ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व कहा था कि “कोटि कोटि ब्रह्माण्ड हैं”। अब पाश्चात्य वैज्ञानिक भी इसी बात को दोहरा रहे हैं कि उन्हों नें बिलियन  से अधिक गेलेख्सियों का पता लगाया है। अतः अधुनिक विज्ञान और भारतीय प्राचीन ग्रन्थों के ज्ञान में कोई फर्क नहीं रहा जो स्वीकारा नहीं जा सकता।

सत्य तो क्षितिज की तरह होता है। जितना उस के समीप जाते हैं उतना ही वह और परे दिखाई देने लगता है। इसी तथ्य को ऋषियों ने ‘माया’ कहा है। हिन्दू विचार धारा में ईश्वर के सिवा कोई अन्य सत्य नहीं है। जो भी दिखता है वह केवल माया के भिन्न भिन्न रूप हैं जो नश्वर हैं। कल आने वाले सत्य पहिले ज्ञात सत्यों को परिवर्तित कर सकते हैं और पू्र्णत्या नकार भी सकते हैं। यह क्रम निरन्तर चलता रहता है। विज्ञान का यह सब से महत्व पूर्ण तथ्य हिन्दू दार्शिनकों नें बहुत पहले ही खोज दिया था।

हमारी दूषित शिक्षा का परिणाम

आधुनिक विमानों के आविष्कार सम्बन्धी आलेख बताते हैं कि बीसवीं शताब्दी में दो पाश्चात्य जिज्ञासु उडने के विचार से पक्षियों की तरह के पंख बाँध कर छत से कूद पडे थे और परिणाम स्वरूप अपनी हड्डियाँ तुडवा बैठे थे, किन्तु भारतीय उल्लेखों में इस प्रकार के फूहड वृतान्त नहीं हैं अपितु विमानों की उडान को क्रियावन्त करने के साधन (इनफ्रास्टर्क्चर) भी दिखते हैं जिसे आधुनिक विज्ञान की खोजों के साथ मिला कर परखा जा सकता है। सभी कुछ सम्भव हो चुका है और शेष जो रह गया है वह भी हो सकता है।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित ब्रह्मास्त्र, आग्नेयास्त्र जैसे अस्त्र अवश्य ही परमाणु शक्ति से सम्पन्न थे, किन्तु हम स्वयं ही अपने प्राचीन ग्रंथों में वर्णित विवरणों को मिथक मानते हैं और उनके आख्यान तथा उपाख्यानों को कपोल कल्पना, हमारा ऐसा मानना केवल हमें मिली दूषित शिक्षा का परिणाम है जो कि, अपने धर्मग्रंथों के प्रति आस्था रखने वाले पूर्वाग्रह से युक्त, पाश्चात्य विद्वानों की देन है, पता नहीं हम कभी इस दूषित शिक्षा से मुक्त होकर अपनी शिक्षानीति के अनुरूप शिक्षा प्राप्त कर भी पाएँगे या नहीं।

जो विदेशी पर्यटक भारत आ कर चरस गाँजा पीने वाले अध नंगे फकीरों के चित्र पश्चिमी पत्रिकाओं में छपवाने के आदि हो चुके हैं वह भारत को सपेरों लुटेरों का ही देश मान कर अपने विकास का बखान करते रहते हैं। वह भारत के प्राचीन इतिहास को कभी नहीं माने गे। उन्हीं के सिखाये पढाये तोतों की तरह के कुछ भारतीय बुद्धिजीवी भी पौराणिक तथ्यों को नकारते रहते हैं किन्तु सत्यता तो यह है कि उन्हों ने भारतीय ज्ञान कोषों को अभी तक देखा ही नहीं है। जो कुछ विदेशी यहाँ से ले गये और उसी को समझ कर जो कुछ विदेशी अपना सके वही आज के पाश्चात्य विज्ञान की उपलब्द्धियाँ हैं जिन्हें हम योरूप के विकासशील देशों की देन मान रहे हैं। 

य़ह आधुनिक हिन्दू बुद्धिजीवियों पर निर्भर करता है कि वह अपने पूर्वजों के अर्जित ज्ञान को पहचाने, उस की टूटी हुई कडियों को जोडें और उस पर अपना अधिकार पुनः स्थापित करें या उस का उपहास उडा कर अपनी मूर्खता और अज्ञानता का प्रदर्शन करते रहैं। 

चाँद शर्मा

44 – भारत की वास्तु कला


भाषा, भोजन, भेष और भवन देश की संस्कृति के प्रतीक माने जाते हैं। हमारे हिन्दू पूर्वजों ने त्रेता युग में समुद्र पर पुल बाँधा था, महाभारत काल में लाक्षा ग्रह का निर्माण किया था, पाटली पुत्र से ले कर तक्षशिला तक भव्य राज मार्ग का निर्माण कर दिखाया और विश्व के प्राचीनत्म व्यवस्थित नगरों को बसाया था, लेकिन आज उन्हीं के देश में विश्व की अन्दर अपनी पहचान के लिये प्राचीन इमारत केवल ताजमहल है जिस में मुमताज़ महल और शाहजहाँ की हड्डियाँ दफन हैं। हमारे सभी प्राचीन हिन्दू स्मार्क या तो ध्वस्त कर दिये गये हैं या उन की मौलिक पहचान नष्ट हो चुकी है। अधिकाँश इमारतों के साथ जुडे गौरवमय इतिहास की गाथायें भी विवादस्पद बनी हुई हैं। हमारा अतीत उपेक्षित हो रहा हैं परन्तु हम धर्म-निर्पेक्ष बनने के साथ साथ अब शर्म-निर्पेक्ष भी हो चुके हैं।

वास्तु शास्त्र

वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन आरोग्यदायक, आर्थिक दृष्टी से सम्पन्नयुक्त, आध्यात्मिक विकास के लिये  प्राकृति के अनुकूल, और सामाजिक दृष्टी से बाधा रहित होने चाहियें। तकनीक, कलाकृति तथा वैज्ञानिक दृष्टि से भारत की निर्माण कला का आदि ग्रन्थ ‘वास्तु-शास्त्र’ है जिसे मय दानव ने रचा था। रावण की स्वर्णमयी लंकापुरी का निर्माण मय दानव ने किया था। नगर स्थापित्य, विस्तार, रूपरेखा तथा भवन निर्माण के बारे में वास्तु शास्त्र में चर्चित जानकारी आज भी वैज्ञानिक दृष्टि से प्रासंगिक है। इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आज के ‘वैज्ञानिक-युग’ में भी भारत के बाहर रहने वाले हिन्दू आज भी अपने घरों, कर्म-शालाओं, दफतरों आदि को वास्तु शास्त्र के अनुकूल बनवाते हैं और भारी खर्चा कर के उन में परिवर्तित करवाते हैं।

सिन्धु घाटी सभ्यता

जब विश्व में अन्य स्थानों पर मानव गुफाओं में सिर छिपाते थे तब विश्व में आधुनिक रहवास और नगर प्रबन्ध का प्रमाण  सिन्धु घाटी सभ्यता स्थल से मिलता है। वहाँ के अवशेषों से प्रमाणित होता है कि भारतीय नगर व्यवस्था पूर्णत्या विकसित थी। नगरों के भीतर शौचालयों की व्यव्स्था थी और निकास के बन्दोबस्त भी थे। भूतल पर बने स्नानागारों में भट्टियों में सेंकी गयी पक्की मिट्टी के पाईप नलियों के तौर पर प्रयोग किये जाते थे। नालियाँ 7-10 फुट चौडी और धरती से दो फुट अन्दर बनी थीं। चौडी गलियाँ और समकोण पर चौराहे नगर की विशेषता थे। घरों के मुख्य भवन नगर की चार दिवारी के अन्दर सुरक्षित थे। इन के अतिरिक्त नगर में पानी की बावडी और नहाने के लिये सामूहिक स्नान स्थल भी था। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवशेष हडप्पा और अन्य स्थानों पर मिले हैं परन्तु संसार के प्राचीनतम् नगर काशी, प्रयाग, अयोध्या, मथुरा, कशयपपुर (मुलतान), पाटलीपुत्र, कालिंग आदि पूर्णत्या विकसित महा नगर थे।

कृषि का विकास ईसा से 4500 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी में हुआ था। ईसा से 3000 वर्ष पूर्व सिंचाई तथा जल संग्रह की उत्तम व्यवस्था के अवशेष गिरनार में देखे जा सकते हैं। कृषि के लिये सर्वप्रथम जल संग्रह बाँध सौराष्ट्र में बना था जिसे शक महाराज रुद्रामणि प्रथम ने ईसा से 150 वर्ष पूर्व बनवाया था। पश्चात चन्द्रगुप्त मौर्य ने इस के साथ रैवाटिका पहाडी पर सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। 

मोइनजोदाडो नगर में ऐक विस्तरित स्नान स्थल था जिस में जल रिसाव रोकने के पर्याप्त बन्दोबस्त थे। स्थल ऐक कूऐं से जुडा था जहाँ से जल का भराव होता था। निकास के लिये पक्की ईंटों की नाली था। नीचे उतरने कि लिये सीढियाँ थीं, परकोटे के चारों ओर वस्त्र बदलने के लिये कमरे बने थे और ऊपरी तल पर जाने कि लिये सीढियाँ बनाई गयीं थीं। लगभल सात सौ कूऐँ मोइनजोदाडो नगर की जल आपूर्ति करते थे और प्रत्येक घर जल निकास व्यव्स्था से जुडा हुआ था। नगर में ऐक आनाज भण्डार भी था। समस्त प्रबन्ध प्रभावशाली तथा नगर के केन्द्रीय संस्थान के आधीन क्रियात्मक था। मनुस्मृति में स्थानिय सार्वजनिक स्थलों की देख रेख के बारे में पर्याप्त उल्लेख हैं। यहाँ कहना भी प्रसंगिक होगा कि जिस प्रकार बन्दी मजदूरों पर कोडे बरसा कर भव्य इमारतों का निर्माण विदेशों में किया गया था वैसा कुकर्म भारत के किसी भवन-निर्माण के साथ जुडा हुआ नहीं है।

मौर्य काल

मौर्य कालीन वास्तु कला काष्ट के माध्यम पर रची गयी है। लकडी को पालिश करने की कला इतनी विकसित थी कि उस की चमक में अपना चेहरा देखा जा सकता था। चन्द्रगुप्त मौर्य ने काष्ट के कई भवन, महल और भव्य स्थल बनवाये थे। उस ने बिहार में गंगा के किनारे ऐक दुर्ग 14.48 किलोमीटर लम्बा, और 2.41 किलोमीटर चौडा था। किन्तु आज किले के केवल कुछ शहतीर ही अवशेष स्वरूप बचे हैं। 

ईसा से 3 शताब्दी पूर्व सम्राट अशोक ने प्रस्तर के माध्यम से अपनी कलात्मिक पसन्द को प्रगट किया था। उन के काल की पत्थर में तराशे स्तम्भ, जालियाँ, स्तूप, सिंहासन तथा अन्य प्रतिमायें उन के काल की विस्तरित वास्तुकला के प्रमाण स्वरूप भारत में कई स्थलों पर खडे हैं।  छोटी से छोटी कला कृतियों पर सुन्दरता से पालिश करी गयी है और वह दर्पण की तरह चमकती हैं।

सारनाथ स्तम्भ अशोक काल की उत्कर्श उपलब्द्धि है। अशोक ने कई महलों का निर्माण भी करवाया किन्तु उन में अधिकतर ध्वस्त हो चुके हैं। अशोक का पाटलीपुत्र स्थित महल विशिष्ट था। उस के चारों ओर ऊची ईँट की दीवार थी तथा सब से अधिक भव्य 76.2 मीटर ऊंचा तिमंजिला महल था। इस महल से प्रभावित चीनी यात्री फाह्यान ने कहा था कि इसे तो देवताओं ने ही बनाया होगा क्यों कि ऐसी पच्चीकारी कोई मानव हाथ नहीं कर सकता। अशोक के समय से ही बुद्ध-शैली की वास्तु कला का प्रचार आरम्भ हुआ।  

गुप्त काल

गुप्त काल को भारत का सु्वर्ण युग कहा जाता है। इस काल में एलोरा तथा अजन्ता गुफाओं का भव्य चित्रों का निर्माण हुआ। एलोरा की विस्तरित गुफाओं के मध्य में स्थित कैलास मन्दिर एक ही चट्टान पर आधारित है। एलिफेन्टा की गुफाओं में ‘त्रिमूर्ति’ की भव्य प्रतिमा तथा विशाल खम्भों के सहारे खडी गुफा की छत के नीचे ब्रह्मा, विष्णु और महेश की विशाल मूर्ति प्राचीन भव्यता का परिचय देती है। इस मन्दिर का मार्ग ऐक ऊचे दूार से है। अतः कितनी मेहनत के साथ चट्टान और मिट्टी के संयोग से कारीगरों ने इस का निर्माण किया हो गा वह स्वयं में आश्चर्यजनक है और आस्था तथा दृढनिश्चय का ज्वलन्त उदाहरण है।

पश्चिमी तट पर काली चट्टान पर बना बुद्ध-मन्दिर प्रथम शताब्दी काल का है। यह मन्दिर दुर्गम चोटी पर निर्मित है तथा इस का मुख दूार अरब सागर की ओर है और दक्षिणी पठार और तटीय घाटी से पृथक है। 

यद्यपि दक्षिण पठार पर निर्मित अधिक्तर मन्दिर मुस्लिम आक्रमणकारियों ने ध्वस्त या कुरूप कर दिये थे परन्तु सौभाग्य से भारत की प्राचीन वास्तु कला की भव्यता और उस के विनाश की कहानी सुनाने के लिये दक्षिण भारत में कुछ मन्दिरों के अवशेष बचे हुये हैं।

मीनाक्षी मन्दिर मदुराई –शिव पार्वती को समर्पित सातवी शताब्दी में निर्मितमीनाक्षी मन्दिरहै जिस का विस्तार 45 ऐकड में फैला हुआ था। इस मन्दिर का वर्गाकारी निर्माण रेखागणित की दृष्टी से अपने आप में ही ऐक अचम्भा है। मन्दिर स्वर्ण तथा रत्नों से सम्पन्न था। इसी मन्दिर में शिव की नटराज मूर्ति स्थित है। दीवारों तथा स्तम्भों पर मूर्तिकला के उत्कर्श नमूने हैं। इसी मन्दिर से जुडा हुआ ऐक सहस्त्र स्तम्भों (वास्तव में 985) का प्रांगण है और प्रत्येक स्तम्भ केवल हाथ से आघात करने पर ही संगीत मयी ध्वनि देकर इस मन्दिर की भव्यता के विनाश की करुणामयी गाथा कहता है। इस को 1310 में सुलतान अल्लाउद्दीन खिलजी के हुक्म से मलिक काफूर ने तुडवा डाला था।

भारत के सूर्य मन्दिर 

भारत में सूर्य को आनादि काल से ही प्रत्यक्ष देवता माना गया है जो विश्व में उर्जा, जीवन, प्रकाश का स्त्रोत्र और जीवन का आधार है। अतः भारत में कई स्थलों पर सूर्य के  भव्य मन्दिर बने हुये थे जिन में मुलतान (पाकिस्तान), मार्तण्ड मन्दिर (कशमीर), कटरामाल (अलमोडा), ओशिया (राजस्थान) मोढेरा (गुजरात), तथा कोणार्क (उडीसा) मुख्य हैं। सभी मन्दिरों में उच्च कोटि की शिल्पकारी तथा सुवर्ण की भव्य मूर्तियाँ थीं और सभी मन्दिर मुस्लिम आक्राँताओं ने लूट कर ध्वस्त कर डाले थे।

  • कोणार्क के भव्य मन्दिर का निर्माण 1278 ईस्वी में हुआ था। मन्दिर सूर्य के 24 पहियों वाले रथ को दर्शाता है जिस में सात घोडे जुते हैं। रथ के पहियों का व्यास 10 फुट का है और प्रत्येक पहिये में 12 कडियाँ हैं जो समय गणना की वैज्ञानिक्ता समेटे हुये हैं। मन्दिर के प्रवेश दूार पर दो सिहं ऐक हाथी का दलन करते दिखाये गये हैं।  ऊपर जाने के लिये सीढियाँ बनायी गयी हैं। मन्दिर के चारं ओर पशु पक्षियों, देवी देवताओं तथा स्त्री पुरुषों की भव्य आकृतियाँ खजुरोहो की भान्ति नक्काशी गयी हैं। मूर्ति स्थापना की विशेषता है कि बाहर से ही सूर्य की किरणेसूर्य देवता की प्रतिमा कोप्रातः, सायं और दोपहर को पूर्णत्या प्रकाशित करती हैं। इस भव्य मन्दिर के अवशेष आज भी अपनी लाचारी बयान कर रहै हैं।
  • मोढेरा सूर्य मन्दिर गुजरात में पशुपवती नदी के तट पर स्थित है जिस की पवित्रता और भव्यता का वर्णन सकन्द पुराण और ब्रह्म पुराण में भी मिलता है। इस स्थान का नाम धर्मारण्य था। रावण वध के पश्चात भगवान राम ने यहाँ पर यज्ञ किया था और कालान्तर 1026 ईस्वी में सोलंकी नरेश भीमदेव प्रथम नें मोढेरा सूर्य मन्दिर का निर्माण करवाया था। मन्दिर में कमल के फूल रूपी विशाल चबूतरे पर सूर्य की ऱथ पर आरूढ सुवर्ण की प्रतिमा थी। मन्दिर परिसर में ऐक विशाल सरोवर तथा 52 स्तम्भों पर टिका ऐक मण्डप था। 52 स्तम्भ वर्ष के सप्ताहों के प्रतीक हैं। स्तम्भों तथा दीवारों पर खुजुरोहो की तरह की आकर्षक शिल्पकला थी। शिल्पकला की सुन्दरता का आँकलन देख कर ही किया जा सकता है। आज यह स्थल भी हिन्दूओं की उपेक्षा का प्रतीक चिन्ह बन कर रह गया है।
  • मुलतान (पाकिस्तान) में भी कभी भव्य सूर्य मन्दिर था। मुलतान विश्व के प्राचीनतम् दस नगरों में से ऐक था जिस का नाम कश्यप ऋषि के नाम से कश्यपपुर था। इस नगर को प्रह्लाद के पिता दैत्य हरिण्यकशिपु ने स्थापित किया था। इसी नगर में हरिण्यकशिपु की बहन होलिका ने प्रह्लाद गोद में बिठा कर उसे जलाने का यत्न किया था परन्तु वह अपनी मृत्यु को प्राप्त हो गयी थी। कश्यपपुर महाभारत काल में त्रिग्रतराज की राजधानी थी जिसे अर्जुन ने परास्त किया था। पश्चात इस नगर का नाम मूल-स्थान पडा और फिर अपभ्रंश हो कर वह मुलतान बन गया। सूर्य के भव्य मन्दिर को महमूद गज़नवी ने ध्वस्त कर दिया था।

भारत से बाहर भी कुछ अवशेष भारतीय वास्तु कला की समृद्धि की दास्तान सुनाने के लिये प्रमाण स्वरूप बच गये थे। अंगकोर (थाईलैण्ड) मन्दिर ऐक विश्व स्तर का आश्चर्य स्वरूप है। भारतीय सभ्यता ने छः शताब्दियों तक ईरान से चीन सागर, साईबेरिया की बर्फानी घाटियों से जावा बोरनियो, और सुमात्रा तक फैलाव किया था और अपनी भव्य वास्तुकला, परम्पराओं, और आस्थाओ से धरती की ऐक चौथाई जनसंख्या को विकसित कर के प्रभावित किया था। 

राजपूत काल

झाँसी तथा ग्वालियार के मध्य स्थित दतिया और ओरछा के राजमहल राजपूत काल के उत्कर्ष नमूने हैं। यह भवन सिंगल यूनिट की तरह हैं जो तत्कालिक मुग़ल परम्परा के प्रतिकूल है। दतिया के नगर में यह भव्य महल प्राचीन काल की भव्यता के साक्षी हैं। महल की प्रत्येक दीवार 100 गज लम्बी चट्टान से सीधी खडी की गयी है। यह निर्णय करना कठिन है कि मानवी कला और प्राकृति के बीच की सीमा कहाँ से आरम्भ और समाप्त होती है। सभी ओर महानता तथा सुदृढता का आभास होता है। क्षतिज पर गुम्बजों की कतार उभर कर इस स्थान के छिपे खजानों के रहिस्यों का प्रमाण देती है। 

ओरछा के समीप खजुरोहो के मन्दिर विश्व से पर्यटकों को आकर्षित करने के लिये प्रसिद्ध हैं। यह भारत की अध्यात्मिक्ता, भव्यता, तथा विलास्ता के इतिहास के मूक साक्षी हैं। हाल ही में ऐक देश भक्त ने निजि हेलीकोप्टर किराये पर ले कर महरोली स्थित कुतुब मीनार के ऊपर से फोटो लिये थे और उन चित्रों को कई वेबसाईट्स पर प्रसारित किया था। ऊपर से कुतुब मीनार ऐक विकसित तथा खिले हुये कमल की तरह दिखता है जिसे पत्थर में तराशा गया है। उस की वास्तविक परिकल्पना पूर्णत्या हिन्दू चिन्ह की है।

समुद्र पर पुल बाँधने का विचार भारत के लोगों ने उस समय किया जब अन्य देश वासियों को विश्व के मभी महा सागरों का कोई ज्ञान नहीं था।  इस सेतु को अमेरिका ने चित्रों को माध्यम से प्रत्यक्ष भी कर दिखाया है और इस को ऐडमेस-ब्रिज (आदि मानव का पुल) कहा जाता है किन्तु विश्व की प्राचीनत्म धरोहर रामसेतु को भारत के ही कुछ कलंकित नेता घ्वस्त करने के जुगाड कर रहै थे। भारत सरकार में इतनी क्षमता भी नहीं कि जाँच करवा कर कह सके कि राम सेतु मानव निर्मित है य़ा प्रकृतिक। हमारी धर्म-निर्पेक्ष सरकार मुगलकालीन मसजिदों के सौंदर्यकरण पर खर्च कर सकती है लेकिन हिन्दू मन्दिरों पर खर्च करते समय ‘धर्मनिर्पेक्षी-विवशता’ की आड ले लेती है।

चाँद शर्मा

 

14 – रामायण – प्रथम महाकाव्य


रामायण के रचनाकार महर्षि वाल्मीकि आदिकवि हैं। इस विचार से वह विश्व के समस्त कवियों के गुरु हैं। उन का आदिकाव्य श्रीमदूाल्मीकीय रामायण मानव साहित्य का प्रथम महाकाव्य है। श्री वेदव्यास ने इसी का अध्ययन कर के महाभारत, पुराण आदि की रचना की थी। युधिष्ठिर के अनुरोध पर व्यास जी ने वाल्मीकि रामायण की व्याख्या भी लिखी थी जिस की ऐक हस्तलिखित प्रति रामायण तात्पर्यदीपिका के नाम से अब भी प्राप्त है।  

रामायण का साहित्यक महत्व

संसार के अन्य महान लेखकों के महाकाव्य जैसे कि महाभारत (वेदव्यास-संस्कृत), ईलियड (दाँते-लेटिन), ओडेसी (होमर-ग्रीक), पृथ्वीराज रासो (चन्द्रबर्दायी-हिन्दी) तथा पैराडाईज़ लोस्ट (मिल्टन-अंग्रेजी) रामायण से कई सदियों पश्चात लिखे गये थे।

रामायण का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में हो चुका है। इस कारण से कई अनुवादित संस्करणों में महर्षि वाल्मीकि के महाकाव्य से विषमतायें भी पाई जाती हैं। रामायण की रचना ने कई कवियों को मौलिक महाकाव्य लिखने के लिये भी प्रेरित किया है जिन में से हिन्दी भाषा में लिखा गया गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस सब से अधिक लोकप्रिय है। रामचरित मानस वास्तव में हिन्दी के अपभ्रँश अवधी संस्करण में रचा गया है। इस में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि विश्व साहित्य में रामायण ही ऐक मात्र महाकाव्य है जिस की नायिका सीता अति सुन्दर राजकुमारी वर्णित है परन्तु उस के सौन्दर्य का वर्णन करते समय कवि उस में केवल मातृ छवि ही देखता है तथा निजि माता की तरह ही सीता को सम्बोधन करता है।

रामायण की लोकप्रियता

महाकाव्यों के अतिरिक्त रामायण पर अनेक कवितायें, नाटक, निबन्ध आदि भी लिखे गये हैं तथा रामायण के कथानक पर बहुत से चल-चित्रों का भी निर्माण हुआ है। साहित्य और कला का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं है जो रामायण से प्रभावित ना हुआ हो। रामायण के पात्रों के संवाद सर्वाधिक सुन्दर हैं। 

भारतीय संस्कृति का कोई भी पहलू ऐसा नहीं जिसे इस महा काव्य ने छुआ ना हो। रामायण में स्थापित मर्यादाओं ने भारत के समस्त जन जीवन को सभ्यता के आरम्भ से ही प्रभावित किया है और आज भी भारतीय सामाजिक सम्बन्धों की आधार शिला रामायण के पात्र ही हैं। आदर्श पिता पुत्र, भाई, मित्र, सेवक, गुरू-शिष्य तथा पति पत्नी के कीर्तिमान यदि ढूंडने हों तो उन का एकमात्र स्त्रोत्र रामायण ही है। मर्यादापुरुषोत्तम राम का जीवन चरित्र यथार्थ तथा विभिन्न परिस्थितियों में एक आदर्श पुत्र, पति, भाई, पिता, मित्र, स्वामी तथा राजा के कर्तव्य निभाने के लिये सभी जातियों के लिये विश्व में ऐक मिसाल बन चुका है। रामायण में केवल राम का चरित्र ही ऐक आदर्शवादी चरित्र है और शेष पात्र यथार्थ जीवन के भिन्न भिन्न रंगों को दर्शाते हैं तथा विश्व में सभी जगह देखे जा सकते हैं।

रामायण काल की सभ्यता

रामायण काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है जिस का आधार मनु समृति है। दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। रामायण का कथाक्षेप भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा श्री-लंका के भूगौलिक क्षेत्रों में विचरता है। किन्तु रामायण के पटाक्षेप में समस्त संसार का भूगौलिक चित्रण है। सीता का खोज के लिये सुग्रीव वानर दलों को चारों दिशाओं में भेजते समय जाने तथा लौटने के मार्ग का विस्तरित ब्योरा देते हैं। विश्व के चारों महासागरों के बारे में समझाते हैं जिस से प्रमाणित होता है कि रामायण काल से ही भारत वासियों को पृथ्वी के चारों महासागरों का भूगौलिक ज्ञान था जब कि पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त तक भारत की खोज में निकले स्पेन और पुर्तगाल के नाविक बुलबोवा को प्रशान्त महासागर के अस्तित्व का ज्ञान मैक्सिको पहुँच कर ही हुआ था। रामायण के भूगोल पर बहुत अनुसंधान करने की आवशयक्ता है।

वाल्मीकि रामायण में भूगौलिक चित्रण के अतिरिक्त भारत के की राजवँषों की वंषावलियों, सामाजिक रीति रिवाजों, यज्ञयों, अनुष्ठानों, राजदूतों, कूटनीतिज्ञयों, तथा राजकीय मर्यादाओं के विस्तरित उल्लेख दिये गये हैं। श्री राम से 32 पूर्वजों का वर्णन है। महर्षि वाल्मीकि नें सैनिक गतिविधियों, अस्त्र-शस्त्रों तथा युद्ध क्षेत्र के जो विवरण दिये हैं वह आधुनिक युग के किसी भी सैनिक पत्रकार के लिये कीर्तिमान के समान हैं। इस संदर्भ में महर्षि वाल्मीकि को यूनान के महान दार्शनिक अरस्तु, चीन के महान सैनिक शास्त्री सुन्तज़ु, तथा भारत के महान कूटनीतिज्ञ कौटल्य का अग्रज कहना उचित हो गा।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने प्रत्येक स्थिति में उच्च कोटि का दृष्य चित्रण किया है। भरत के चित्रकूट जाते समय मार्ग में ऋषि भारदूआज नें राजकुमार भरत को सैना सहित अपने आश्रम में आमन्त्रित कर के जो अतिथि सत्कार की व्यव्स्था की थी वह हर प्रकार से ऐशवर्य प्रसाधन सम्पन्न थी और किसी भी पाँचतारा होटल के प्रबन्ध को मात दे सकती है। सीता की खोज पर जाते समय हनुमान सागर लाँधने के लिये जो उछाल भरते हैं तो उस का विवर्ण किसी कोनकार्ड हवाई जहाज़ की उड़ान की तरह है तथा सभी प्रकार के वायु दबाव पूरे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उल्लेख किये गये हैं।

ऐतिहासिक महत्व

अरबों वर्ष पूर्व का इतिहास आज के विकास के चशमें से नहीं पढा जा सकता। यह ज़रूरी नहीं कि हम प्रत्येक घटना का योरुप के इतिहासकारों दूआरा निर्धारित मापदण्डों से ही आंकलन करें।

प्राचीन काल में आधुनिक युग की तरह इतिहास नहीं लिखे जाते थे। उस समय कवि राजाओं तथा वीर सामन्तों की गाथायें महाकाव्यों के रूप में लिखा करते थे। निस्संदेह कवि अपने अपने नायकों का बखान बढ़ा चढ़ा कर करते थे। पश्चात मुसलिम सुलतानों ने भी शायरों से अपनी जीवनियाँ लिखवायीं। महमूद ग़ज़नवी की जीवनी फिरदोसी ने लोभवश लिखी थी। जब महमूद ने फिरदोसी की आकांक्षायें पूरी नही करीं तो कवि फिरदोसी ने महमूद का दुशचरित्र भी उसी जीवनी में जोड़ दिया था। अब इस प्रकार की रचना का क्या औचित्य रह जाता है। इस संदर्भ में विचारनीय तथ्य यह है कि जहाँ दरबारी कवि एक तरफा इतिहास लिखते थे ऋषियों को राजकीय पुरस्कारों का कोई लोभ नहीं होता था। अतः उन की रचनायें विशवस्नीय हैं। उन कृतियों का तत्कालीन क़ृतियों के तथ्यों से तुलनात्मिक विशलेष्ण भी किया जा सकता है। प्राचीन भारत में इतिहास के स्त्रोत्र महाकाव्य तथा पुराण ही थे। विदेशी राजदूतों एवम पर्यटकों के लेख तो मौर्य काल के पश्चात ही इतिहास में जोड़े गये।     

रामायण से जुडी आस्थायें

जब किसी प्राचीन गाथा के प्रति बहुमत की सहमति बन जाती है तथा आस्था जुड जाती है तो वही गाथा इतिहास बन जाती है। भारत के प्राचीन ऐतिहासिक लेखान नष्ट किये जा चुके हैं, स्मारक ध्वस्त कर दिये गये हैं, साजो सामान लूट कर विदेशों में भेजा जा चुका है अतः हमें अपने इतिहास का पुनर्सर्जन करने के लिये पुराणों तथा महाकाव्यों पर भी निर्भर होना पडे गा अन्यअथ्वा हमें अपना अतीत खो देना पडे गा। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमें बीसवीं सदी तक हड़प्पा और मोयन जोदाडो में जान मार्शल का इन्तिज़ार करना पडा कि हम ही सब से पराचीन सभ्यता थे।

भारत विभाजन के पश्चात हमें कोशिश करनी चाहिये थी कि हम अपने प्राचीन काल की ऐतिहासिक कडियां जोडें किन्तु वोट बेंक राजनीति के कारण हम पूर्णत्या असफल रहे हैं। उल्टे अल्पसंख्यक तुष्टीकरण के चक्कर में हम ने अपनी प्राचीन विरासत को स्वयं ही ध्वस्त करना शुरू कर दिया है। भारत के आधुनिक शासकों के लिये श्री राम कथित निम्मलिखित वाक्य अति प्रसांगिक है –     

दण्ड अव वरो लोके पुरुषस्येति मे मतिः।

       धि्क क्षमामकृतज्ञेषु सान्त्वं दानमथापि वा।। (49, युद्धकाण्डे  22 सर्ग)

अर्थः – संसार में पुरुष के लिये अकृतज्ञों के प्रति दण्डनीति का प्रयोग ही सब से बडा अर्थ साधक है। वैसे अकृतज्ञ लोगों के प्रति क्षमा, सान्त्वना और दान नीति के प्रयोग को धिक्कार है।

दूषित प्रचार

अंग्रेज़ी शासन काल में उपनेष्वादी शक्तियों के इशारे पर एक मिथ्या प्रचार किया गया कि रामायण की कथा भारत में आर्यों तथा द्राविड़ जातियों के संघर्ष की गाथा है जिस में अन्ततः द्राविड़ों को आर्यों ने परास्त कर दिया था। यह प्रचार सर्वथा निर्रथक था क्यों कि लंकापति रावण भी ब्राह्णण था और ऋषि विशवैशर्वा का पुत्र था। वह चारों वेदों का ज्ञाता तथा भगवान शिव का परम भक्त था। उस ने यज्ञों तथा कठिन साधनाओं से तप कर के देवताओं से शक्तियाँ प्राप्त की हुयी थीं, अतः वह अनार्य तो हो ही नहीं सकता। रावण भारी तान्त्रिक भी था. उस की ध्वजा पर (तान्त्रिक चिन्ह – नरशिर कपाल) मनुष्य की खोपडी का चिन्ह था, जो लगभग सभी देशों में खतरे का चिन्ह माना जाता है। रावण हिन्दू त्रिमूर्ति में से ही भगवान शिव का परम भक्त था। वह भारतीय संस्कृति से अलग नहीं था।

इसी प्रकार अब कुछ भ्रष्ट ऐवं देश द्रोही राजनेताओं ने राम सेतु के संदर्भ में विवाद खडा कर के उसे तोड़ने की परिक्रिया आरम्भ की है ताकि भारत की बची खुची पहचान और गौरव को  मिटाया जा सके। यह अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज हिन्दूओं को अपने ही देश में भगवाम राम से जुडी इस ऐतिहासिक यादगार को ध्वस्त होने से बचाने के लिये अपनी निर्वाचित सरकार के आगे गिडगिडाना पड रहा है। आदि काल से ही समुद्री पुल राम सेतु को मानव निर्मित जाना जाता है और विश्व भर की ऐटलसों में उस की पहचान एडम्स ब्रिज के नाम से है। राम से पहले विश्व में अन्य कोई मानव महानायक ही नहीं हुआ। अयोध्या की यात्र3 करते समय श्री राम सीता जी को विमान से राम सेतु दिखा कर कहते हैः-

ऐष सेतुमर्या बद्धः सागरे लवणाणर्वे।

       तव हेतोविर्शालाक्षि नल सेतुः सुदुष्करः।।  (16, युद्धकाण्डे  123 सर्ग) 

अर्थः – विशाललोचने ( सीता), खारे पानी के समुद्र में यह मेरा बन्धवाया हुआ पुल है, जो नल सेतु के नाम से विख्यात है । देवि, तुम्हारे लिये ही .यह अत्यन्त दुष्कर सेतु बाँधा गया था।

कोई भी व्यक्ति अपने दादा परदादा तथा अन्य पूर्वजों के जीवन असतीत्व से इनकार नहीं कर सकता। परन्तु यदि योरूप के ऐतिहासिक माप दण्डों को हम आधार मान कर उन्हीं इतिहासकारों से यह प्रश्न करें कि क्या उन पास अपने दादा परदादा के जीवन के कोई शिलालेख, मुद्रायें या अन्य किसी प्रकार के अवशेष हैं तो निस्संदेह उन के पास ऐसा कुछ नहीं होगा। जब वह दो सौ वर्ष पूर्व के पूर्वजों के प्रमाण नहीं दे सकते तो हम कह सकते हैं  कि उन के दादा परदादा तथा इसी कडी में आगे माता पिता भी नहीं थे। अन्यथ्वा उन्हें यह तर्क मानना ही पडे गा कि हर जीवत प्राणी अपने माता पिता तथा अन्य पूर्वजों के जीवन का स्वयं प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। यदि उस के पिता, दादा और परदादा नहीं थे तो वह स्वयं भी पैदा ही नहीं हुआ होता। इसी प्रकार भगवान राम तथा उन के नाम से जुडा राम सेतु किसी योरुपीय प्रमाण पर आश्रित नहीं है।

रामायण महाकाव्य में महर्षि वाल्मीकि ने आयुर्वेद तन्त्रशास्त्र, ज्योतिष शास्त्र, संगीत, सृष्टि में जीवों की उत्पत्ति, इतिहास, भूगोल, राजनीति, मनोविज्ञान, अर्थ शास्त्र, कूट नीति, सैन्य संचालन, अस्त्र शस्त्र, व्यव्हार तथा आचार की बातों का उल्लेख वैज्ञियानिक ढंग से किया है। रामायण में उल्लेख की गयी राजनीति बहुत उच्च कोटि की है जो ऐक अति समृद्ध सभ्यता का परमाण प्रस्तुत करती है। 

रामायण मानव जाति का इतिहास  

रामायण समस्त मानव जगत का इतिहास है तथा हिन्दूओं का आस्था इस में सर्वाधिक है क्योंकि हम इस के साथ अधिक घनिष्टता से जुडे हुये हैं। इस ऐतिहासिक महाकाव्य के सभी गुणों को उदाहरण सहित ऐक लेख में प्रस्तुत करना असम्भव है। उस की विशालता को केवल स्वयं कई बार पढ कर ही जाना जा सकता है।

चाँद शर्मा

 

 

 

13 – सामाजिक ग्रंथ मनु-स्मृति


मनु स्मृति विश्व में मानवी कानून का प्रथम ग्रंथ है जहाँ से सभ्यता का विकास आरम्भ हुआ। मौलिक ग्रंथ में लगभग ऐक लाख श्लोक थे किन्तु कालान्तर इस ग्रंथ में कई बदलाव भी हुये। उपलब्द्ध संस्करण लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व के हैं। उन में 12 अध्याय हैं तथा विविध विषयों पर संस्कृत भाषा में रचित श्लोक हैं जो मानव सभ्यता के सभी अंगों से जुडे हुये हैं। ग्रंथ की विषय सूची में सृष्टि की उत्पति, काल चक्र, भौतिक ज्ञान, रसायन ज्ञान, वनस्पति विज्ञान, राजनीति, देश की सुरक्षा, शासन व्यव्स्था, व्यापार, सार्वजनिक स्वास्थ, सार्वजनिक सेवायें, सार्वजनिक स्थलों की देख रेख, यातायात, अपराध नियन्त्रण, दण्ड विधान, सामाजिक सम्बन्ध, महिलाओं, बच्चों तथा कमजोर वर्गों की सुरक्षा, व्यक्तिगत दिन-चर्या, उत्तराधिकार आदि सम्बन्धी नियम उल्लेख किये गये हैं

ग्रंथ की भाषा की विशेषता है कि केवल कर्तव्यों का ही उल्लेख किया गया है जिन में से अधिकार परोक्ष रूप से अपने आप उजागर होते हैं। आधुनिक कानूनी पुस्तकों की तरह जो विषय उल्लेखित नहीं, उन के बारे में विश्ष्टि समति बना कर या सामान्य ज्ञान से निर्णय करने का प्रावधान भी है।

समाज शास्त्र के जो सिद्धान्त मनु स्मृति में दर्शाये गये हैं वह तर्क की कसौटी पर आज भी खरे उतरते हैं। उन्हें संसार की सभी सभ्य जातियों ने समय के साथ साथ थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ अपनाया हुआ हैं। आज के युग में भी सभी देशों ने उन्हीं संस्कारों को कानूनी ढंग से लागू किया हुआ है भले ही वह किसी भी धर्म के मानने वाले हों।

रीति-रिवाज सम्बन्धित व्यक्तियों को किसी विशेष घटना के घटित होने की औपचारिक सूचना देने के लिये किये जाते हैं। मानव जीवन की घटनाओं से सम्बन्धित मनु दूआरा सुझाये गये सोलह वैज्ञानिक संस्कारों का विवरण इस प्रकार है जो सभी सभ्य देशों में किसी ना किसी रुप में मनाये जाते हैं-

  1. गर्भाधानः इस प्राकृतिक संस्कार से ही जीव जन्म लेता है और यह क्रिया सभी देशों, धर्मों और सभी प्राणियों में सर्वमान्य है। निजी जीवन से पहले यह संस्कार माता-पिता भावी संतान के लिये सम्पन्न करते हैं, पशचात सृष्टी के क्रम को चलंत रखने के लिये यह सभी प्राणियों का मौलिक कर्तव्य है कि वह स्वयं अपना अंश भविष्य के लिये प्रदान करें। सभी देशों में गृहस्थ जीवन की सार्थकि्ता इसी में है।
  2. पंस्वानाः पुंसवन संस्कार गर्भाधान के तीसरे या चौथे महीने में किया जाता है। गर्भस्त शिशु पर माता-पिता, परिवार एवं वातावरण का प्रभाव पड़ता है। अतः शिशु के कल्याण के लिये गर्भवती मां को पुष्ट एवं सात्विक आहार देने के साथ ही अच्छा साहित्य तथा महा पुरूषों की प्रेरक कथायें आदि भी सुनानी चाहियें और उस के शयन कक्ष में महा पुरूषों के चित्र लगाने चाहियें। भ्रूण तथा मां के स्वास्थ के लिये पिता के लिये उचित है कि वह शिशु के जन्म के कम से कम दो मास पशचात तक सहवास ना करे। यह और बात है कि आधुनिक काल में विकृति वश इस नियम का पूर्णतया पालन नहीं होता परन्तु नियम की सत्यता से इनकार तो नहीं किया जा सकता। यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी इस नियम का उल्लंघन नहीं करते।
  3. सीमान्थोनानाः इस काल में गर्भ में पल रहे बच्चे में मुख्य शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होते हैं। गर्भवती स्त्री को घर में ही रहना चाहिये ताकि गर्भपात ना हो और गर्भस्थ शिशु का कोई अंग विकृत ना हो क्यों कि इस अवधि में शिशु के अंगों का विकास होता है। इस वैज्ञियानिक तथ्य को भारतीय समाज ने पाश्चात्य वैज्ञियानकों से हजारों वर्ष पूर्व जान लिया था। आज कल इसी संस्कार को गोद भराना और पशचिमी देशों में ‘बेबी शावर के नाम से मनाया जाता है।
  4. जातकर्मः शिशु के जन्म लेने के पश्चात यह प्रथम संस्कार है। देश काल के रिवाज अनुसार पवित्र वस्तुओं से, जैसे सोने की सलाई के साथ गाय के घी-शहद मिश्रण से, नवजात शिशु की जीभ पर अपने धर्म का कोई शुभ अक्षर जैसे कि ‘ऊँ’ या ‘राम’ आदि, परिवार के विशिष्ट सदस्य दुआरा लिखवाया जाता है। इस भावात्मक संस्कार का लक्ष्य है कि जीवन में शिशु बड़ा हो कर अपनी वाणी से सभी के लिये शुभ वचन बोले जिस की शुरूआत जातकर्मः संस्कार से परिवार के अग्रजों से करवाई जाती है। पाश्चात्य देशों में आज भी डिलवरी रूम में डाक्टर नाल काटने की क्रिया पिता को बुला कर उसी के हाथों से सम्पन्न करवाते हैं।
  5. नामकरणः जन्म के गयारवें दिन, या देश काल की प्रथानुसार किसी और दिन अपने सम्बन्धियों और परिचितों की उपस्थिती में नवजात शिशु का नामकर्ण किया जाता है ताकि सभी को शिशु का परिचय मिल जाये। हिन्दू प्रथानुसार नामकरण पिता दुआरा कुल के अनुरूप किया जाता है। अशुभ, भयवाचक या घृणासूचक नाम नहीं रखे जाते। संसार में कोई भी सभ्यता ऐसी नहीं जहाँ कोई बिना नाम के ही जीवन जीता हो।
  6. निष्क्रमणः जन्म के तीन या चार मास बाद शिशु की आँखें तेज़ रौशनी देख सकती हैं। अतः उस समय बच्चे को कक्ष से बाहर ला कर प्रथम बार सूर्य-दर्शन कराया जाता है। दिन में केवल सूर्य ही ऐक ऐसा नक्षत्र है जो हमारे समस्त कार्य क्षेत्र को प्रभावित करता है अतः यह संस्कार बाह्य जगत से शिशु का प्रथम साक्षात्कार करवाता है। अन्य देशों में प्रकृति से प्रथम साक्षात्कार स्थानीय स्थितियों के अनुकूल करवाया जाता है।
  7. अन्नप्राशनः जन्म के पाँच मास बाद स्वास्थ की दृष्टि से नवजात को प्रथम बार कुछ ठोस आहार दिया जाता है। इस समय तक उस के दाँत भी निकलने शुरू होते हैं और पाचन शक्ति का विकास होने लगता है। यह बात सर्वमान्य है कि आहार व्यक्ति के कर्मानुसार होना ही स्वास्थकारी है। अतः परिवार के लोग अपने सम्बन्धियों और परिचितों की उपस्थिती में बच्चे को अपनी शैली का भोजन खिला कर यह विदित करते हैं कि नवजात से परिवार की क्या अपेक्षायें हैं। सभी देशों और सभ्यताओं में स्थानीय परिस्थतियों के अनुकूल भोजन से जुड़े अपने अपने नियम हैं, किन्तु संस्कार का मौलिक लक्ष्य ऐक समान है।
  8. चूड़ाकर्मः केवल यही संस्कार लिंग भेद पर आधारित है। लेकिन यह लिंगभेद भी विश्व में सर्वमान्य है। जन्म के ऐक से तीन वर्ष बाद लड़कों के बाल पूर्णत्या काटे जाते हैं लड़कियों के नहीं। ज्ञानतंतुओ के केन्द्र पर शिखा (चोटी) रखी जाती है। स्वच्छता रखने के कारण कटे हुये बालों को किसी ना किसी प्रकार से विसर्जित कर दिया जाता है। सभी देशों में लिंग भेद को आधार मान कर स्त्री-पुर्षों के लिये प्रथक प्रथक वेश-भूषा का रिवाज प्राचीन समय से ही चलता रहा है। आजकल लड़के-लड़कियों की वेश-भूषा में देखी जाने वाली समानता के विकृत कारण भी सभी देशों मे ऐक जैसे ही हैं।
  9. कर्णवेधाः यह संस्कार छठे, सातवें आठवें या ग्यारवें वर्ष मे किया जाता है। इस का वैज्ञानिक महत्व है। जहां कर्ण छेदन किया जाता है वहां स्मरण शक्ति की सूक्ष्म शिरायें होती हैं एक्यूप्रेशर की इस क्रिया से स्मरण शक्ति बढती है तथा काम भावना का शमन होता है। प्राचीन समय से ही स्त्री-पुरूष अपने अंगों को समान रूप से अलंकृत करते आये हैं। कानों में कुण्डल, गले में माला और उंगलियों में अंगूठियाँ तो अवश्य ही पहनी जातीं थीं। आज भी यह पहनने का रिवाज है जिस के लिये कानों में छेद करने की प्रथा विश्व के सभी देशों में चली आ रही है।
  10. उपनयनः छः से आठ वर्ष की आयु होने पर बालक-बालिकाओं को विद्या ग्रहण करने के लिये पाठशाला भेजने का प्राविधान है। आज कल भारत में तथा अन्य देशों में स्थानीय या ‘रेज़िडेंशियल स्कूलों में पढ़ने के लिये बालक-बालिकाओं को भेजा जाता है। कोई भी विकसित देश ऐसा नहीं है जहाँ शिक्षा की ऐसी व्यवस्था ना हो।
  11. वेदारम्भः वैदिक शिक्षा को भारत में उच्च शिक्षा के समान माना गया है। मौलिक शिक्षा के बाद उच्च स्तर के शिक्षा क्रम का विधान आज भी सभी देशों की शिक्षा प्रणाली का मुख्य अंग है। भारत की ही तरह विदेशों में भी उच्च शिक्षा क्षमता और रुचि (एप्टीट्यूड टेस्ट) के आधार पर ही दी जाती है।
  12. समवर्तनाः भारत में शिक्षा पूर्ण होने पर दीक्षान्त समारोह का आयोजन गुरू जनो के समक्ष आयोजित होता था। विद्यार्थी गुरू दक्षिणा दे कर शिक्षा का सद्उपयोग करने की गुरू जनों के समक्ष प्रतिज्ञा करते हैं। स्नातकों को परमाण स्वरूप यज्ञोपवीत धारण करवाया जाता था जो देव ऋण, पित्र ऋण और ऋषि ऋण का प्रतीक है। आज भी सभी यूनिवर्स्टियों में इसी तरह का आयोजन किया जाता है। विश्वविधालयों में स्नातक गाउन पहन कर डिग्री प्राप्त करते हैं तथा निर्धारित शप्थ भी लेते हें। पशचिमी देशों में तो ग्रेज्युएशन समारोह विशेष उल्लास के साथ मनाया जाता है।
  13. विवाहः शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात मानव को विवाह दुआरा गृहस्थ जीवन अपनाना होता है क्योंकि सृष्ठी का आधार गृहस्थियों पर ही टिका हुआ है। धर्मपूर्वक अपने कर्तव्यों का पालन करना, संसाधनों का प्रयोग एवम् उपार्जन करना तथा संतान उत्पति कर के सृष्ठी के क्रम को आगे चलाये रखना मानव जीवन का ऐक मुख्य कर्तव्य है। संसार के सभी सभ्य देशों में आज भी विवाहित जीवन को ही समाज की आधारशिला माना गया है। विश्व भर में वैवाहिक सम्बन्धों की वैध्यता को आधार मान कर ही किसी को जन्म से जायज़ अथवा नाजायज़ संतान कहा जाता है।
  14. वानप्रस्थः विश्व में सत्ता परिवर्तन का शुरूआत वानप्रस्थ से ही हुई थी। स्वेच्छा से अपनी अर्जित सम्पदाओं और अधिकारों को त्याग कर अपने उत्तराधिकारी को अपना सर्वस्य सौंप देना ही वानप्रस्थ है। इस को हम आज की भाषा में रिटायरमेंट भी कह सकते हैं। घरेलू जीवन से ले कर सार्वजनिक संस्थानों तक सभी जगहों पर यह क्रिया आज भी मान्य है।
  15. सन्यासः सभी इच्छाओं की पूर्ति, ऩिजी कर्तव्यों का पालन, और सभी प्रकार के प्रलोभनो से मुक्ति पाने के बाद ही यह अवस्था प्राप्त होती है परन्तु इस की चाह सभी को रहती है चाहे कोई मुख से स्वीकार करे या नहीं। इस अवस्था को पाने के बाद ही मोक्ष रूपी पूर्ण सन्तुष्टी (टोटल सेटिस्फेक्शन) का मार्ग खुलता
  16. अन्तेयेष्ठीः मृत्यु पश्चात शरीर को सभी देशों में सम्मान पूर्वक विदाई देने की प्रथा किसी ना किसी रूप में प्रचिलित है। कहीं चिता जलायी जाती है तो कहीं मैयत दफनायी जाती है। मानव जीवन का यह सोलहवाँ और अंतिम संस्कार है।

विश्व में सभी जगह शरीरिक जीवन के वजूद में आने से पूर्व का प्रथम संस्कार (गर्भाधानः) पिछली पीढी (माता पिता) करती है और शरीरिक जीवन का अन्त हो जाने पश्चात अन्तिम संस्कार अगली पीढी (संतान) करती है और इसी क्रम में सभी जगह मानव जीवन इन्ही घटनाओं के साथ चलता आया है और चलता रहे गा। सभी देशों और धर्मों में गर्भाधान, सीमान्थोनाना, जातकर्म, नामकरण, उपनयन, वेदारम्भ, समवर्तना, विवाह, वानप्रस्थ, अन्तेयेष्ठी जैसे दस संस्कारों का स्थानीय रीतिरिवाजों और नामों के अनुसार  पंजीकरण भी होता है। मनु रचित विधान ही मानव सभ्यता की आधार शिला और मार्ग दर्शन का स्त्रोत्र है जिस के कारण भारत को विश्व की प्राचीनत्म सभ्यता कहलाने का गौरव प्राप्त हुआ।

अंग्रेज़ी भाषा की परिभाषिक शब्दावली पर गर्व करने वाले आधुनिक कानून विशेषज्ञों और मैनेजमेंट गुरूओं को मनु स्मृति से अतिरिक्त प्रेरणा लेने की आज भी ज़रूरत है। मनु महाराज के बनाये नियम श्रम विभाजन, श्रम सम्मान तथा समाज के सभी वर्गों के परस्पर आधारित सम्बन्धों पर विचार कर के बनाये गये हैं। इन संस्कारों के बिना जीवन नीरस और पशु समान हो जाये गा। संस्कारों को समय और साधनों के अनुसार करने का प्रावधान भी मनुस्मृति में है। 

यह हिन्दूओं का दुर्भाग्य है कि कुछ राजनेता स्वार्थवश मनुस्मृति पर जातिवाद का दोष मढते है किन्तु सत्यता यह है कि उन्हों ने इस ग्रंथ को पढना तो दूर देखा तक भी नहीं होगा। धर्म निर्पेक्षता की आड में आजकल हमारे विद्यालयों में प्रत्येक विषय की परिभाषिक शब्दावली का मूल स्त्रोत्र यूनानी अथवा पाश्चात्य लेखक ही माने जाते है और हमारी आधुनिक युवा पीढी अपने पूर्वजों को अशिक्षित मान कर शर्म महसूस करती है। हम ने स्वयं ही अपने दुर्भाग्य से समझोता कर लिया है और अपने पूर्वजों के ज्ञान विज्ञान को नकार दिया है। जो लोग मनुसमृति जैसे ग्रंथ को कोसते हैं वह अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन करते हुये अपने उन पूर्वजों की बुद्धिमत्ता के प्रति कृतघ्नता व्यक्त करते हैं जिन्हों ने मानव समाज को ऐक परिवार का स्वरूप दिया और पशुता के जीवन से मुक्त कर के सभ्यता का पाठ पढाया।  

चाँद शर्मा

9 -विष्णु के दस अवतार


यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानमं सृजाम्यहम्।।

परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। (श्रीमद्भाग्वद् गीता 4/7-8)

हिन्दूओं का विशवास है कि सृष्टि में सभी प्राणी पूर्वनिश्चित धर्मानुसार अपने अपने कार्य करते  रहते हैं और जब कभी धर्म की हानि की होती है तो सृष्टिकर्ता धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये धरती पर अवतार लेते हैं। मुख्यतः आज तक सृष्टि पालक भगवान विष्णु नौ बार धरती पर अवतरित हो चुके हैं और दसवीं बार अभी हों गे। सभी अवतारों की कथायें पुराणों में विस्तार पूर्वक संकलित हैं। उन का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैः –

  1. मत्स्य अवतार – एक बार राजा सत्यव्रत कृतमाला नदी के तट पर तर्पण कर रहे थे तो एक छोटी मछली उन की अंजली में आकर विनती करने लगी कि वह उसे बचा लें। राजा सत्यव्रत ने एक पात्र में जल भर कर उस मछली को सुरक्षित कर दिया किन्तु शीघ्र ही वह मछली पात्र से भी बड़ी हो गयी। राजा ने मछली को क्रमशः तालाब, नदी और अंत में सागर के अन्दर रखा पर हर बार वह पहले से भी बड़े शरीर में परिवर्तित होती गयी। अंत में मछली रूपी विष्णु ने राजा सत्यव्रत को एक महाभयानक बाढ़ के आने से समस्त सृष्टि पर जीवन नष्ट हो जाने की चेतावनी दी।  तदन्तर राजा सत्यव्रत ने एक बड़ी नाव बनवायी और उस में सभी धान्य, प्राणियों के मूल बीज भर दिये और सप्तऋषियों के साथ नाव में सवार हो गये। मछली ने नाव को खींच कर पर्वत शिखर के पास सुरक्षित पहँचा दिया। इस प्रकार मूल बीजों और सप्तऋषियों के ज्ञान से महाप्रलय के पश्चात सृष्टि पर पुनः जीवन का प्रत्यारोपन हो गया। इस कथा का विशलेशन हज़रत नोहा की आर्क के साथ किया जा सकता है जो बाईबल में संकलित है। यह कथा डी एन ऐ सुरक्षित रखने की वैज्ञानिक क्षमता की ओर संकेत भी करती है जिस की सहायता से सृष्टि के विनाश के बाद पुनः उत्पत्ति करी जा सके।
  2. कुर्मा अवतार – महाप्रलय के कारण पृथ्वी की सम्पदा जलाशाय़ी हो गयी थी। अतः भगवान विष्णु ने कछुऐ का अवतार ले कर सागर मंथन के समय पृथ्वी की जलाशाय़ी सम्पदा को निकलवाया था। वैज्ञानिक भी कहते हैं कि आईस ऐज के बाद सृष्टि का पुनरर्निमाण हुआ था। पौराणिक सागर मंथन की कथानुसार सुमेरु पर्वत को सागर मंथन के लिये इस्तेमाल किया गया था। माऊंट ऐवरेस्ट का ही भारतीय नाम सुमेरू पर्वत है तथा नेपाल में उसे सागर मत्था कहा जाता है। जलमग्न पृथ्वी से सर्व प्रथम सब से ऊँची चोटी ही बाहर प्रगट हुयी होगी। यह तो वैज्ञानिक तथ्य है कि सभी जीव जन्तु और पदार्थ सागर से ही निकले हैं। अतः उसी घटना के साथ इस कथा का विशलेशन करना चाहिये।
  3. वराह अवतार भगवान विष्णु ने दैत्य हिरणाक्ष का वध करने के लिये वराह रूप धारण किया था तथा उस के चुंगल से धरती को छुड़वाया था। पौराणिक चित्रों में वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर संतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर ला रहे होते हैं। वराह को पूर्णतया वराह (जंगली सूअर) के अतिरिक्त कई अन्य चित्रों में अर्ध-मानव तथा अर्ध-वराह के रूप में भी दर्शाया जाता है। वराह अवतार के मानव शरीर पर वराह का सिर और चार हाथ हैं जो कि भगवान विष्णु की तरह शंख, चक्र, गदा और पद्म लिये हुये दैत्य हिरणाक्ष से युद्ध कर रहे हैं। विचारनीय वैज्ञानिक तथ्य यह है कि सभी प्राचीन चित्रों में धरती गोलाकार ही दर्शायी जाती है जो प्रमाण है कि आदि काल से ही हिन्दूओं को धरती के गोलाकार होने का पता था। इस अवतार की कथा का सम्बन्ध महाप्रलय के पश्चात सागर के जलस्तर से पृथ्वी का पुनः प्रगट होना भी है।
  4. नर-सिहं अवतार भगवान विष्णु ने नर-सिंह (मानव शरीर पर शेर का सिर) के रूप में अवतरित  हो कर दैत्यराज हिरण्यकशिपु का वध किया था जिस के अहंकार और क्रूरता ने सृष्टि का समस्त विधान तहस नहस कर दिया था। नर-सिंह एक स्तम्भ से प्रगट हुये थे जिस पर हिरण्यकशिपु ने गदा से प्रहार कर के भगवान विष्णु की सर्व-व्यापिक्ता और शक्ति को चुनौती दी थी। यह अवतार इस धारणा का प्रतिपादन करता है कि ईश्वरीय शक्ति के लिये विश्व में कुछ भी करना असम्भव नहीं भले ही वैज्ञानिक तर्क से ऐसा असम्भव लगे।
  5. वामन अवतार वामन अवतार के रूप नें भगवान विष्णु मे दैत्यराज बलि से तीन पग पृथ्वी दान में मांगी थी।  राजा बलि ने दैत्यगुरू शुक्राचार्य के विरोध के बावजूद जब वामन को तीन पग पृथ्वी देना स्वीकार कर लिया तो वामन ने अपना आकार बढ़ा लिया और दो पगों में आकाश और पाताल को माप लिया। जब तीसरा पग रखने के लिये कोई स्थान ही नहीं बचा तो प्रतिज्ञा पालक बलि ने अपना शीश तीसरा पग रखने के लिये समर्पित कर दिया। विष्णु ने तीसरे पग से बलि को सुतल-लोक में धंसा दिया परन्तु उस की दान वीरता से प्रसन्न हो कर राजा बलि को अमर-पद भी प्रदान कर दिया। आज भी बलि सुतुल-लोक के स्वामी हैं। दक्षिण भारत में इस कथा को पोंगल त्योहार के साथ जोडा जाता है।
  6. परशुराम अवतार परशुराम का विवरण रामायण तथा महाभारत दोनो महाकाव्यों में आता है। वह ऋषि जमदग्नि के पुत्र थे और उन्हों ने भगवान शिव की उपासना कर के एक दिव्य परशु (कुलहाड़ा) वरदान में प्राप्त किया था। एक बार राजा कृतवीर्य अर्जुन सहस्त्रबाहु अपनी सैना का साथ जमदग्नि के आश्रम में आये तो ऋषि ने उन का आदर सत्कार किया। ऋषि ने सभी पदार्थ कामधेनु दिव्य गाय की कृपा से जुटाये थे। इस से आश्चर्य चकित हो कर कृतवीर्य ने अपने सैनिकों को ज़बरदस्ती ऋषि की गाय को ले जाने का आदेश दे दिया। अंततः परशुराम ने कृतवीर्य तथा उस की समस्त सैना का अपने परशु से संहार किया। तदन्तर कृतवीर्य के पुत्रों ने ऋषि जमदग्नि का वध कर दिया तो परशुराम ने कृतवीर्य और समस्त क्षत्रिय जाति का विनाश कर दिया और पूरी पृथ्वी उन से छीन कर ऋषि कश्यप को दान कर दी। सम्भवतः बाद में कश्यप ऋषि के नाम से ही उन के आश्रम के समीप का सागर कश्यप सागर (केस्पीयन सी) के नाम से आज तक जाना जाता है। पूरा कथानांक  प्रचीन इतिहास अपने में छुपाये हुये है। परशुराम अवतार राजाओं के अत्याचार तथा निरंकुश्ता के विरुध शोषित वर्ग का प्रथम शक्ति पलट अन्दोलन था। परशुराम अवतार ने शासकों को अधिकारों के दुरुप्योग के विरुध चेताया और आज के संदर्भ में भी इसी प्रकार के अवतार की पुनः ज़रूरत है।
  7. राम अवतार – परशुराम अवतार राजसत्ता के दुरुप्योग के विरुध शोषित वर्ग का आन्दोलन था तो भगवान विष्णु ने ऐक आदर्श राजा तथा आदर्श मानव की मर्यादा स्थापित करने के लिये राम अवतार लिया। राम का चरित्र हिन्दू संस्कृति में एक आदर्श मानव, भाई, पति, पुत्र के अतिरिक्त राजा के व्यवहार का भी कीर्तिमान है। अंग्रेजी साहित्य के लेखक टोमस मूर ने पन्द्रवीं शताब्दी में आदर्श राज्य के तौर पर एक यूटोपिया राज्य की केवल कल्पना ही करी थी किन्तु राम राज्य टोमस मूर के काल्पनिक राज्य से कहीं अधिक वास्तविक आदर्श राज्य स्थापित हो चुका था। राम का इतिहास समेटे रामायण विश्व साहित्य का प्रथम महाकाव्य है।
  8. कृष्ण अवतार कृष्ण अवतार का समय आज से लगभग 5100 वर्ष या ईसा से 3102 वर्ष पूर्व का माना जाता है। कृष्ण ने महाभारत युद्ध में एक निर्णायक भूमिका निभाय़ी और उन के दुआरा गीता का ज्ञान अर्जुन को दिया जो कि संसार का सब से सक्ष्म दार्शनिक वार्तालाप है। कृष्ण के इतिहास का वर्णन महाभारत के अतिरिक्त कई पुराणों तथा हिन्दू साहित्य की पुस्तकों में भी है। उन के बारे में कई सच्ची तथा काल्पनिक कथायें भी लिखी गयी हैं। कृष्ण दार्शनिक होने के साथ साथ एक राजनीतिज्ञ्, कुशल रथवान, योद्धा, तथा संगीतिज्ञ् भी थे। उन को 64 कलाओं का ज्ञाता कहा जाता है और सोलह कला सम्पूर्ण अवतार कहा जाता है। कृष्ण को आज के संदर्भ में पूर्णत्या दि कम्पलीट मैन कहा जा सकता है।
  9. बुद्ध अवतार विष्णु ने सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के रूप में जन-साधारण को पशु बलि के विरुध अहिंसा का संदेश देने के लिये अवतार लिया। भारतीय शिल्प कला में सब से अधिक मूर्तियां भगवान बुद्ध की ही हैं। आम तौर पर बौध मत के अनुयायी गौतम बुद्ध के अतिरिक्त बुद्ध के और भी बोधिसत्व अवतारों को मानते हैं।
  10. कलकी अवतार विष्णु पुराण में सैंकड़ों वर्ष पूर्व ही भविष्यवाणी की गयी है कि कलियुग के अन्त में कलकी महा-अवतार होगा जो इस युग के अन्धकारमय और निराशा जनक वातावरण का अन्त करे गा। कलकी शब्द सदैव तथा समय का पर्यायवाची है। कलकी अवतार की भविष्यवाणी के कई अन्य स्त्रोत्र भी हैं।

 अवतार-वाद

 हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने आप में ईश्वरीय छवि का आभास कर सकता है तथा ईश्वर से बराबरी भी कर सकता है। इतने पर भी संतोष ना हो तो अपने आप को ही ईश्वर घोषित कर के अपने भक्तों का जमावड़ा भी इकठ्ठा कर सकता है। हिन्दू् धर्म में ईश्वर से सम्पर्क करने के लिये किसी दलाल, प्रतिनिधि या ईश्वर के किसी बेटे-बेटी की मार्फत से नहीं जाना पड़ता। ईश्वरीय-अपमान (ब्लासफेमी) का तो प्रश्न ही नहीं उठता क्यों कि हिन्दू धर्म में पूर्ण स्वतन्त्रता है।

हिन्दू् धर्म में हर कोई अपने विचारों से अवतार-वाद की व्याख्या कर सकता है। कोई किसी को अवतार माने या ना माने इस से किसी को भी कोई अन्तर नहीं पड़ता। सभी हिन्दू धर्म के मत की छत्र छाया तले समा जाते हैं। हिन्दू धर्माचार्यों ने  अवतार वाद की कई व्याख्यायें प्रस्तुत की हैं। उन में समानतायें, विषमतायें तथा विरोधाभास भी है।

  • सृष्टि की जन्म प्रक्रिया – एक मत के अनुसार भगवान विष्णु के दस अवतार सृष्टि की जन्म प्रक्रिया को दर्शाते हैं। इस मतानुसार जल से सभी जीवों की उत्पति हुई अतः भगवान विष्णु सर्व प्रथम जल के अन्दर मत्स्य रूप में प्रगट हुये। फिर कुर्मा बने। इस के पश्चात वराह, जो कि जल तथा पृथ्वी दोनो का जीव है। नरसिंह, आधा पशु – आधा मानव, पशु योनि से मानव योनि में परिवर्तन का जीव है। वामन अवतार बौना शरीर है तो परशुराम एक बलिष्ठ ब्रह्मचारी का स्वरूप है जो राम अवतार से गृहस्थ जीवन में स्थानांतरित हो जाता है। कृष्ण अवतार एक वानप्रस्थ योगी, और बुद्ध परियावरण का रक्षक हैं। परियावरण के मानवी हनन की दशा सृष्टि को विनाश की ओर धकेल देगी। अतः विनाश निवारण के लिये कलकी अवतार की भविष्यवाणी पौराणिक साहित्य में पहले से ही करी गयी है।
  • मानव जीवन के विभन्न पड़ाव – एक अन्य मतानुसार दस अवतार मानव जीवन के विभन्न पड़ावों को दर्शाते हैं। मत्स्य अवतार शुक्राणु है, कुर्मा भ्रूण, वराह गर्भ स्थति में बच्चे का वातावरण, तथा नर-सिंह नवजात शिशु है। आरम्भ में मानव भी पशु जैसा ही होता है। वामन बचपन की अवस्था है, परशुराम ब्रह्मचारी, राम युवा गृहस्थी, कृष्ण वानप्रस्थ योगी तथा बुद्ध वृद्धावस्था का प्रतीक है। कलकी मृत्यु पश्चात पुनर्जन्म की अवस्था है।
  • राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त – कुछ विचारकों के मतानुसार राजशक्ति के दैविक सिद्धान्त को बल देने के लिये कुछ राजाओं ने अपने कृत्यों के आश्रचर्य चकित करने वाले वृतान्त लिखवाये और कुछ ने अपनी वंशावली को दैविक अवतारी चरित्रों के साथ जोड़ लिया ताकि वह प्रजा उन के दैविक अधिकारों को मानती रहे। अवतारों की कथाओं से एक और तथ्य भी उजागर होता है कि खलनायक भी भक्ति तथा साधना के मार्ग से दैविक शक्तियां प्राप्त कर सकते थे। किन्तु जब भी वह दैविक शक्ति का दुर्पयोग करते थे तो भगवान उन का दुर्पयोग रोकने के लिये अवतार ले कर शक्ति तथा खलनायक का विनाश भी करते थे।
  • भूगोलिक घटनायें – एक प्राचीन यव (जावा) कथानुसार एक समय केवल आत्मायें ही यव दूइप पर निवास करती थीं। जावा निवासी विशवास करते हैं कि उन की सृष्टि स्थानांतरण से आरम्भ हुयी थी। वराह अवतार कथा में दैत्य हिरण्याक्ष धरती को चुरा कर समुद्र में छुप गया था तथा वराह भगवान धरती को अपने दाँतों के ऊपर समतुलित कर के सागर से बाहर निकाल कर लाये थे। कथा और यथार्थ में कितनी समानता और विषमता होती है इस का अंदाज़ा इस बात मे लगा सकते हैं कि जावा से ले कर आस्ट्रेलिया तक सागर के नीचे पठारी दूइप जल से उभरते और पुनः जलग्रस्त भी होते रहते हैं। आस्ट्रेलिया नाम आन्ध्रालय (आस्त्रालय) से परिवर्तित जान पडता है। यव दूइप पर ही संसार के सब से प्राचीन मानव अस्थि अवशेष मिले थे। पौराणिक कथाओं में भी कई बार दैत्यों ने देवों को स्वर्ग से निष्कासित किया था। इस प्रकार के कई रहस्य पौराणिक कथाओं में छिपे पड़े हैं।

मानना, ना मानना – निजि निर्णय

अवतारवाद का मानना या ना मानना प्रत्येक हिन्दू का निजि निर्णय है। कथाओं का सम्बन्ध किसी भूगौलिक, ऐतिहासिक घटना, अथवा किसी आदर्श के व्याखीकरण हेतु भी हो सकता है। हिन्दू धर्म किसी को भी किसी विशेष मत के प्रति बाध्य नहीं करता। जितने हिन्दू ईश्वर को साकार तथा अवतारवादी मानते हैं उतने ही हिन्दू ईश्वर को निराकार भी मानते हैं। कई हिन्दू अवतारवाद में आस्था नहीं रखते और अवतारी चरित्रों को महापुरुष ही मानते हैं। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि अवतारी कथाओं में मानवता का इतिहास छुपा है।

कारण कुछ भी हो, निश्चित ही अवतारों की कथाओं में बहुत कुछ तथ्य छिपे हैं। अवश्य ही प्राचीन हिन्दू संस्कृति अति विकसित थी तथा पौराणिक कथायें इस का प्रमाण हैं। पौराणिक कथाओं का लेखान अतिश्योक्ति पूर्ण है अतः साहित्यक भाषा तथा यथार्थ का अन्तर विचारनीय अवश्य है। साधारण मानवी कृत्यों को महामानवी बनाना और ईश्वरीय शक्तियों को जनहित में मानवी रूप में प्रस्तुत करना हिन्दू धर्म की विशेषता रही है। 

चाँद शर्मा

 

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