हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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भगवान, शैतान या इनसान संत आसाराम


आसाराम के भक्तों के लिये संत आसाराम भगवान की तरह हैं जैसे कांग्रेसियों, कम्यूनिस्टों और धर्मान्तरण करने वालों के लिये वह ऐक शैतान हैं। दोनों विचारधारायें बहस का विषय हो सकती हैं मगर इस में कोई शक नहीं रहना चाहिये कि आसाराम ऐक हिन्दू इनसान हैं और उन में ऐक इनसान की अच्छाईयां और बुराईयां शामिल हैं। वह हिन्दूओं को भारत में विदेशी पम्परायें त्याग कर हिन्दू आस्थाओं के साथ जीने को कहते हैं तो इस में बुरा क्या है? जो आरोप उन पर लगे हैं वह अब कानून का विषय हैं और उन का उत्तर कानूनी तरीके से ही दिया जा सकता है मगर जिस तरह से मीडिया उन पर कीचड उछाल रहा है इस के अधिकार मीडिया को किस ने दिया है? मीडिया के आलेख खबर नहीं सुना रहै वह सोचे समझे तरीकों से दुषप्रचार कर के हिन्दू आस्थाओं के प्रति भ्रान्ति फैला रहै हैं।

प्रश्न इस समय व्यक्तिगत नैतिकताओं और आस्थाओं का नहीं बल्कि भारत में हिन्दूओं की राजनैतिक पहचान का है जिस को ‘सैकूलर और स्वार्थी किस्म के राजनेताओं’, बिकाऊ मीडिया चैनलों, जिहादियों, धर्मान्त्रण कराने वालों और विदेशी कम्पनियों ने खतरें में डाल दिया है। इस लिये हिन्दूओं को यह कहने में तनिक भी झिझक नहीं होनी चाहिये कि उन विदेशी हिन्दू विरोधियों की तुलना में हमारा अपना हिन्दू संत ‘जो और जैसा भी है’ आदरणीय है। उस ने अगर कोई अपराध किया है तो उस की सजा उसे कानून देगा। क्या यह लोग अब जागे हैं कि आसाराम ने कई जगहों पर अतिकर्मण कर रखे हैं। पहले क्यों सो रहै थे? अपने आस पास देखें गे तो आप को हर नगर में राजनेताओं, मन्दिरों, मस्जिदों, गिरजा घरों, मजारों, और भूमाफियाओं के अतिकर्मण दिखाई दे जायें गे। आसाराम का केस अकेला नहीं है।

साधू संतों पर लांछन लगना भी कोई नई बात नहीं है। यौन उत्पीडन के आरोप इन्द्र देवता और ऋषि विश्वमित्र पर भी लगे थे, हिलण्यकशिपु और कंस आदि ने साधू संतों का परिताडण भी किया था और बर्बाद भी हो गये थे। कुछ समय पहले यही हिन्दू विरोधी गुट निर्मल बाबा पर भी आरोप लगा कर उन्हें गिरफ्तार करने का प्रचार कर रहै थे और अब झक मार कर बैठ गये हैं। स्वामी रामदेव को भी बदनाम करने के कांग्रेसी – कम्यूनिस्ट  मनसूबे बनते रहते हैं। भले ही कुछ बिकाऊ और सरकारी किस्म के संत मौके का लाभ उठाने की फिराक में भी रहते हैं परन्तु संतसमाज को ऐकजुट रहना चाहिये। आसाराम के Followers को भी निराश होने या अपना संयम खो बैठने की जरूरत नहीं। अगर उन की आस्था अपने गुरू में है तो अब अपने मन में यह दृढ़ निश्चय कर नें कि  आने वाले चुनाव में वह उस सरकार को सत्ता से उखाड फैंकें गे जिस ने उन के गुरू को अपमानित किया है।

जिन  राजनेताओं, पत्रकारों, और व्यक्तियों को संत आसाराम पर आस्था नहीं उन के लिये भी यह जरूरी है कि कम से कम वह देश के कानून में ही आस्था रखें और  अपना गैर कानूनी बकवासी किस्म का प्रचार बन्द करें जब तक कोर्ट संत आसाराम को आरोपी नहीं घोषित कर दे।

चाँद शर्मा

70 – धर्म हीनता या हिन्दू राष्ट्र ?


हिन्दुस्तान में अंग्रेजों का शासन पूर्णत्या ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शासन था। उन्हों ने देश में ‘विकास’ भी किया। दैनिक जीवन के प्रशासन कार्यों में अंग्रेज़ हमारे भ्रष्ट नेताओं की तुलना में अधिक अनुशासित, सक्ष्म तथा ईमानदार भी थे। फिर भी हम ने स्वतन्त्रता के लिये कई बलिदान दिये क्योंकि हम अपने देश को अपने पूर्वजों की आस्थाओं और नैतिक मूल्यों के अनुसार चलाना चाहते थे। परन्तु स्वतन्त्रता संघर्ष के बाद भी हम अपने लक्ष्य में असफल रहै। 

भारत विभाजन के पश्चात तो हिन्दू संस्कृति और हिन्दुस्तान की पहचान ही मिटती जा रही है। शहीदों के बलिदान के ऐवज में इटली मूल की मामूली हिन्दी-अंग्रजी जानने वाली महिला हिन्दुस्तान के शासन तन्त्र की ‘सर्वे-सर्वा’ बनी बैठी है। हिन्दू संस्कृति और इतिहास का मूहँ चिडा कर यह कहने का दुसाहस करती है कि “भारत हिन्दू देश नहीं है”। उसी महिला का मनोनीत किया हुआ प्रधान मन्त्री कहता है कि ‘देश के संसाधनों पर प्रथम हक तो अल्पसंख्यकों का है’। हमारे देश का शासन तन्त्र लगभग अल्प संख्यकों के हाथ में जा चुका है और अब स्वदेशी को त्याग भारत विदेशियों की आर्थिक गुलामी की तरफ तेजी से लुढक रहा है। हम बेशर्मी से अपनी लाचारी दिखा कर प्रलाप कर रहै हैं “अब हम ‘अकेले (सौ करोड हिन्दू)’ कर ही क्या सकते हैं? ”

धर्म-निर्पेक्षता का असंगत विचार

शासन में ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का विचार ‘कालोनाईजेशन काल’ की उपज है। योरूप के उपनेषवादी देशों ने जब दूसरे देशों में जा कर वहाँ के स्थानीय लोगों को जबरदस्ती इसाई बनाना आरम्भ किया था तो उन्हें स्थानीय लोगों का हिंसात्मक विरोध झेलना पडा था। फलस्वरुप उन्हों ने दिखावे के लिये अपने प्रशासन को इसाई मिशनरियों से प्रथक कर के अपने सरकारी तन्त्र को ‘धर्म-निर्पेक्ष’ बताना शुरु कर दिया था ताकि आधीन देशों के लोग विद्रोह नहीं करें। इसी कारण सभी आधीन देशों में ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारों की स्थापना करी गई थी।

शब्दकोष के अनुसार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ शब्द का अर्थ है – जो किसी भी ‘नैतिक’ तथा ‘धार्मिक आस्था’ से जुडा हुआ ना हो। हिन्दू विचारधारा में जो व्यक्ति या शासन तन्त्र नैतिकता अथवा धर्म में विश्वास नहीं रखता उसे ‘अधर्मी’ या ‘धर्म-हीन’ कहते हैं। ऐसा तन्त्र केवल अनैतिक, स्वार्थी, व्यभिचारिक तथा क्रूर राजनैतिक शक्ति है, जिसे अंग्रेजी में ‘माफिया’ कहते हैं। अनैतिकता के कारण वह उखाड फैंकने लायक है। 

आज पाश्चात्य जगत में भी जिन  देशों में तथा-कथित ‘धर्म-निर्पेक्ष’ सरकारें हैं उन का नैतिक झुकाव स्थानीय आस्थाओं और नैतिक मूल्यों पर ही टिका हुआ है। पन्द्रहवीं शाताब्दी में जब इसाई धर्म का दबदबा अपने उफान पर था तब इंग्लैण्ड के ट्यूडर वँशी शासक हेनरी अष्टम नें ईंग्लैण्ड के शासन क्षेत्र में पोप तथा रोमन चर्च के हस्तक्षेप पर रोक लगा दी थी और ईंग्लैण्ड में कैथोलिक चर्च के बदले स्थानीय प्रोटेस्टैंट चर्च की स्थापना कर दी थी। प्रोटेस्टैंट चर्च को ‘चर्च आफ ईंग्लैण्ड भी कहा जाता है। यद्यपि ईंग्लैण्ड की सरकार ‘धर्म-निर्पेक्ष’ होने का दावा करती है किन्तु वहाँ के बादशाहों के नाम के साथ डिफेन्डर आफ फैथ (धर्म-रक्षक) की उपाधि भी लिखी जाती है। ईंग्लैण्ड के औपचारिक प्रशासनिक रीति रिवाज भी इसाई और स्थानीय प्रथाओं और मान्यताओं के अनुसार ही हैं। 

भारत सरकार को पाश्चात्य ढंग से अपने आप को धर्म-निर्पेक्ष घोषित करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है क्यों कि भारत में उपजित हिन्दू धर्म यथार्थ रुप में ऐक प्राकृतिक मानव धर्म है जो पर्यावरण के सभी अंगों को अपने में समेटे हुये है। आदिकाल से हिन्दू धर्म और हिन्दू देश ही भारत की पहचान रहै हैं।

पूर्णत्या मानव धर्म

स्नातन धर्म समय सीमा तथा भूगौलिक सीमाओं से स्वतन्त्र है। प्रत्येक व्यक्ति निजि क्षमता और रुचि अनुसार अपने लिये मोक्ष का मार्ग स्वयं ढूंडने के लिये स्वतन्त्र है। ईश्वर से साक्षाताकार करने के लिये हिन्दू ईश्वर के पुत्र, ईश्वरीय के पैग़म्बर या किसी अन्य ‘विचौलिये’ की मार्फत नहीं जाते। चाहे तो कोई प्राणी अपने आप को भी ईश्वर, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर का प्रतिनिधि, या कोई अन्य सम्बन्धी घोषित कर सकता है और इस का प्रचार भी कर सकता है। लेकिन कोई व्यक्ति अन्य प्राणियों को अपना ‘ईश्वरीयत्व’ स्वीकार करने के लिये बाधित और दण्डित नहीं कर सकता। 

हम बन्दरों की संतान नहीं हैं। हमारी वँशावलियाँ ऋषि परिवारों से ही आरम्भ होती हैं जिन का ज्ञान और आचार-विचार विश्व में मानव कल्याण के लिये कीर्तिमान रहै हैं। अतः 1869 में जन्में मोहनदास कर्मचन्द गाँधी को भारत का ‘राष्ट्रपिता’ घोषित करवा देना ऐक राजनैतिक भूल नहीं, बल्कि देश और संस्कृति के विरुद्ध काँग्रेसी नेताओं और विदेशियों का ऐक कुचक्र था जिस से अब पर्दा उठ चुका है।

हिन्दू धर्म वास्तव में ऐक मानव धर्म है जोकि विज्ञान तथा आस्थाओं के मिश्रण की अदभुत मिसाल है। हिन्दूओं की अपनी पूर्णत्या विकसित सभ्यता है जिस ने विश्व के मानवी विकास के हर क्षेत्र में अमूल्य योग्दान दिया है। स्नातन हिन्दू धर्म ने स्थानीय पर्यावरण का संरक्षण करते हुये हर प्रकार से ‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त को क्रियात्मक रूप दिया है। केवल हिन्दू धर्म ने ही विश्व में ‘वसुदैव कुटम्बकुम’ की धारणा करके समस्त विश्व के प्राणियों को ऐक विस्तरित परिवार मान कर सभी प्राणियों में ऐक ही ईश्वरीय छवि का आभास किया है। 

भारत का पुजारी वर्ग कोई प्रशासनिक फतवे नहीं देता। हिन्दूओं ने कभी अहिन्दूओं के धर्मस्थलों को ध्वस्त नहीं किया। किसी अहिन्दू का प्रलोभनों या भय से धर्म परिवर्तन नहीं करवाया। हिन्दू धर्म में प्रवेष ‘जन्म के आधार’ पर होता है परन्तु यदि कोई स्वेच्छा से हिन्दू बनना चाहे तो अहिन्दूओं के लिये भी प्रवेष दूार खुले हैं।

हिन्दू धर्म की वैचारिक स्वतन्त्रता

हिन्दू अपने विचारों में स्वतन्त्र हैं। वह चाहे तो ईश्वर को निराकार माने, या साकार। नास्तिक व्यक्ति को भी आस्तिक के जितना ही हिन्दू माना जाता है। हिन्दू को सृष्टि की हर कृति में ईश्वर का ही आभास दिखता है। कोई भी जीव अपवित्र नहीं। साँप और सूअर भी ईश्वर के निकट माने जाते हैं जो अन्य धर्मों में घृणा के पात्र समझे जाते हैं।

हिन्दूओं ने कभी किसी ऐक ईश्वर को मान कर दूसरों के ईश को नकारा नहीं है। प्रत्येक हिन्दू को निजि इच्छानुसार ऐक या अनेक ईश्वरों को मान लेने की स्वतन्त्रता भी दी है। ईश्वर का कोई ऐक विशेष नाम नहीं, बल्कि उसे सहस्त्रों नामों से सम्बोधित किया जा सकता है। नये नाम भी जोड़े जा सकते हैं।

हिन्दू धर्म का साहित्य किसी एक गृंथ पर नहीं टिका हुआ है, हिन्दूओं के पास धर्म गृंथों का ही एक विशाल पुस्तकालय है। फिर भी य़दि किसी हिन्दू ने धर्म साहित्य की कोई भी पुस्तक ना पढी हो तो भी वह उतना ही हिन्दू है जितने उन गृन्थों के लेखक थे।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छानुसार किसी भी स्थान में, किसी भी दिशा में बैठ कर, किसी भी समय, तथा किसी भी प्रकार से अपनी पूजा-अर्चना कर सकता है। और चाहे तो ना भी करे। प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह अपनी इच्छानुसार वस्त्र पहने या कुछ भी ना पहने, जो चाहे खाये तथा अपनी रुचि अनुसार अपना जीवन बिताये। हिन्दू धर्म में किसी भी बात के लिये किसी पुजारी-मदारी या पादरी से फतवा या स्वीकृति लेने की कोई ज़रूरत नहीं है।

हर नयी विचारघारा को हिन्दू धर्म में यथेष्ट सम्मान दिया जाता रहा है। नये विचारकों और सुधारकों को भी ऋषि-मुनि जैसा आदर सम्मान दिया गया है। हिन्दू धर्म हर व्यक्ति को सत्य की खोज के लिये प्रोत्साहित करता है तथा हिन्दू धर्म जैसी विभिन्नता में एकता और किसी धर्म में नहीं है।

राष्ट्र भावना का अभाव 

पूवर्जों का धर्म, संस्कृति, नैतिक मूल्यों में विशवास, परम्पराओ का स्वेच्छिक पालन और अपने ऐतिहासिक नायकों के प्रति श्रध्दा, देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भ हैं। आज भी हमारी देश भक्ति की भावना के आधार स्तम्भों पर कुठाराघात हो रहा है। ईसाई मिशनरी और जिहादी मुसलिम संगठन भारत को दीमक की तरह खा रहे हैं। धर्मान्तरण रोकने के विरोध में स्वार्थी नेता धर्म-निर्पेक्ष्ता की दीवार खडी कर देते हैं। इन लोगों ने भारत को एक धर्महीन देश समझ रखा है जहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर सकता है। अगर कोई हिन्दुओं को ईसाई या मुसलमान बनाये तो वह ‘उदार’,‘प्रगतिशील’ और धर्म-निर्पेक्ष है – परन्तु अगर कोई इस देश के हिन्दू को हिन्दू बने रहने को कहे तो वह ‘उग्रवादी’ ‘कट्टर पंथी’ और ‘साम्प्रदायक’ कहा जाता है। इन कारणों से भारत की नयी पी़ढी ‘लिविंग-इन‘ तथा समलैंगिक सम्बन्धों जैसी विकृतियों की ओर आकर्षित होती दिख रही है।

इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता

कत्लेाम और भारत विभाजन के बावजूद अपने हिस्से के खण्डित भारत में हिन्दू क्लीन स्लेट ले कर मुस्लमानों और इसाईयों के साथ नया खाता खोलने कि लिये तैय्यार थे। उन्हों नें पाकिस्तान गये मुस्लमान परिवारों को वहाँ से वापिस बुला कर उन की सम्पत्ति भी उन्हें लौटा दी थी और उन्हें विशिष्ट सम्मान दिया परन्तु बदले में हिन्दूओं को क्या मिला ? ‘धर्म-निर्पेक्षता’ का प्रमाण पत्र पाने के लिये हिन्दू और क्या करे ? 

व्यक्तियों से समाज बनता है। कोई व्यक्ति समाज के बिना अकेला नहीं रह सकता। लेकिन व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता की सीमा समाज के बन्धन तक ही होती है। एक देश के समाजिक नियम दूसरे देश के समाज पर थोपे नही जा सकते। यदि कट्टरपंथी मुसलमानों या इसाईयों को हिन्दू समाज के बन्धन पसन्द नही तो उन्हें हिन्दुओं से टकराने के बजाये अपने धर्म के जनक देशों में जा कर बसना चाहिये।

मुस्लिम देशों तथा कई इसाई देशों में स्थानीय र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में धर्म-निर्पेक्ष्ता के साये में उन्हें ‘खुली छूट’ क्यों है ? महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर भीड़ नमाज़ पढ सकती है, दिन हो या रात किसी भी समय लाउडस्पीकर लगा कर आजा़न दी जा सकती है। किसी भी हिन्दू देवी-देवता के अशलील चित्र, फि़ल्में बनाये जा सकते हैं। हिन्दु मन्दिर, पूजा-स्थल, और सार्वजनिक मण्डप स्दैव आतंकियों के बम धमाकों से भयग्रस्त रहते हैं। इस प्रकार की इकतरफ़ा धर्म-निर्पेक्ष्ता से हिन्दू युवा अपने धर्म, विचारों, परम्पराओं, त्यौहारों, और नैतिक बन्धनो से विमुख हो उदासीनता या पलायनवाद की और जा रहे हैं।

हिन्दू सैंकडों वर्षों तक मुसलसान शासकों को ‘जज़िया टैक्स’ देते रहै और आज ‘हज-सब्सिडी‘ के नाम पर टैक्स दे रहै हैं जिसे सर्वोच्च न्यायालय भी अवैध घौषित कर चुका है। भारत की नाम मात्र धर्म-निर्पेक्ष केन्द्रीय सरकार ने ‘हज-सब्सिडी‘ पर तो रोक नहीं लगायी, उल्टे इसाई वोट बैंक बनाये रखने के लिये ‘बैथलहेम-सब्सिडी` देने की घोषणा भी कर दी है। भले ही देश के नागरिक भूखे पेट रहैं, अशिक्षित रहैं, मगर अल्पसंख्यकों को विदेशों में तीर्थ यात्रा के लिये धर्म-निर्पेक्षता के प्रसाद स्वरूप सब्सिडी देने की भारत जैसी मूर्खता संसार में कोई भी देश नही करता।

यह कहना ग़लत है कि धर्म हर व्यक्ति का ‘निजी’ मामला है, और उस में सरकार को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिये। जब धर्म के साथ ‘जेहादी मानसिक्ता’ जुड़ जाती है जो दूसरे धर्म वाले का कत्ल कर देने के लिये उकसाये तो वह धर्म व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। ऐसे धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था भी दूषित होती है और सरकार को इस पर लगाम लगानी आवशयक है।

धर्म-निर्पेक्षता का छलावा

हमारे कटु अनुभवों ने ऐक बार फिर हमें जताया है कि जो धर्म विदेशी धरती पर उपजे हैं, जिन की आस्थाओं की जडें विदेशों में हैं, जिन के जननायक, और तीर्थ स्थल विदेशों में हैं वह भारत के विधान में नहीं समा सकते। भारत में रहने वाले मुस्लमानों और इसाईयों ने किस हद तक धर्म निर्पेक्षता के सिद्धान्त को स्वीकारा है और वह किस प्रकार से हिन्दू समाज के साथ रहना चाहते हैं यह कोई छिपी बात नहीं रही।        

धार्मिक आस्थायें राष्ट्रीय सीमाओं के पार अवश्य जाती हैं। भारत की सुरक्षा के हित में नहीं कि भारत में विदेशियों को राजनैतिक अधिकारों के साथ बसाया जाये। मुस्लिमों के बारे में तो इस विषय पर जितना कहा जाय वह कम है। अब तो उन्हों ने हिन्दूओं के निजि जीवन में भी घुसपैठ शुरु कर दी है। आज भारत में हिन्दू अपना कोई त्यौहार शान्त पूर्ण ढंग से सुरक्षित रह कर नहीं मना सकते। पूजा पाठ नहीं कर सकते, उन के मन्दिर सुरक्षित नहीं हैं, अपने बच्चों को अपने धर्म की शिक्षा नहीं दे सकते, तथा उन्हें सुरक्षित स्कूल भी नहीं भेज सकते क्यों कि हर समय आतंकी हमलों का खतरा बना रहता है जो स्थानीय मुस्लमानों के साथ घुल मिल कर सुरक्षित घूमते हैं।

अत्मघाती धर्म-निर्पेक्षता

धर्म-निर्पेक्षता की आड ले कर साम्यवादी, आतंकवादी, और कट्टरपँथी शक्तियों ने संगठित हो कर  भारत में हिन्दूओं के विरुद्ध राजसत्ता के गलियारों में अपनी पैठ जमा ली है। स्वार्थी तथा राष्ट्रविरोधी हिन्दू राजनेताओं में होड लगी हुई है कि वह किस प्रकार ऐक दूसरे से बढ चढ कर हिन्दू हित बलिदान कर के अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करें और निर्वाचन में उन के मत हासिल कर सकें। आज सेकूलरज्मि का दुर्प्योग अलगाववादी तथा राष्ट्रविरोधी तत्वों दूारा धडल्ले से हो रहा है। विश्व में दुसरा कोई धर्म निर्पेक्ष देश नहीं जो हमारी तरह अपने विनाश का सामान स्वयं जुटा रहा हो।

ऐक सार्वभौम देश होने के नातेहमें अपना सेकूलरज्मि विदेशियों से प्रमाणित करवाने की कोई आवश्यक्ता नहीं। हमें अपने संविधान की समीक्षा करने और बदलने का पूरा अधिकार है। इस में हिन्दूओं के लिये ग्लानि की कोई बात नहीं कि हम गर्व से कहें कि हम हिन्दू हैं। हमें अपनी धर्म हीन धर्म-निर्पेक्षता को त्याग कर अपने देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना होगा ताकि भारत अपने स्वाभिमान के साथ स्वतन्त्र देश की तरह विकसित हो सके।

धर्म-हीनता और लाचारी भारत को फिर से ग़ुलामी का ओर धकेल रही हैं। फैसला अब भी राष्ट्रवादियों को ही करना है कि वह अपने देश को स्वतन्त्र रखने के लिये हिन्दू विरोधी सरकार हटाना चाहते हैं या नहीं। यदि उन का फैसला हाँ में है तो अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे होकर कर उस सरकार को बदल दें जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – धर्म हीनता की है़।

चाँद शर्मा

 

67 – अलगावादियों का संरक्षण


बटवारे पश्चात का ऐक कडुआ सच यह है कि भारत को फिर से हडपने की ताक में अल्पसंख्यक अपने वोट बैंक की संख्या दिन रात बढा रहै हैं। मुस्लिम भारत में ऐक विशिष्ट समुदाय बन कर शैरियत कानून के अन्दर ही रहना चाहते हैं। इसाई भारत को इसाई देश बनाना चाहते हैं, कम्यूनिस्ट नक्सली तरीकों से माओवाद फैलाना चाहते हैं और पाश्चात्य देश बहुसंख्यक हिन्दूओं को छोटे छोटे साम्प्रदायों में बाँट कर उन की ऐकता को नष्ट करना चाहते हैं ताकि उन के षटयन्त्रों का कोई सक्षम विरोध ना कर सके। महाशक्तियाँ भारत को खण्डित कर के छोटे छोटे कमजोर राज्यों में विभाजित कर देना चाहती हैं। 

स्दैव की तरह अस्हाय हिन्दू

भारत सरकार ‘संगठित अल्पसंख्यकों’ की सरकार है जो ‘असंगठित हिन्दू जनता’ पर शासन करती है। सरकार केवल अल्पसंख्यकों के हित के लिये है जिस की कीमत बहुसंख्यक चुकाते रहै हैं। 

विभाजन के पश्चात ही काँग्रेस ने परिवारिक सत्ता कायम करने की कोशिश शुरू कर दी थी जिस के निरन्तर प्रयासों के बाद आज इटली मूल की ऐक साधारण महिला शताब्दियों पुरानी सभ्यता की सर्वे-सर्वा बना कर परोक्ष रूप से लूट-तन्त्री शासन चला रही है। यह सभी कुछ अल्पसंख्यकों को तुष्टिकरण दूारा संगठित कर के किया जा रहा है। राजनैतिक मूर्खता के कारण अपने ही देश में असंगठित हिन्दू फिर से और असहाय बने बैठे हैं।

‘फूट डालो और राज करो’ के सिद्धान्त अनुसार ईस्ट ईण्डिया कम्पनी ने स्वार्थी राजे-रजवाडों को ऐक दूसरे से लडवा कर राजनैतिक सत्ता उन से छीन ली थी। आज अधिकाँश जनता को ‘गाँधी-गिरी’ के आदर्शवाद, नेहरू परिवार की ‘कुर्बानियों’ और योजनाओं के कागजी सब्ज बागों, तथा अल्पसंख्यकों को तुष्टिकरण से बहला फुसला कर उन्हे हिन्दू विरोधी बनाया जा रहा है ताकि देश का इस्लामीकरण, इसाईकरण, या धर्म-खण्डन किया जा सके। हमेशा की तरह हिन्दू आज भी आँखें मूंद कर ‘आदर्श पलायनवादी’ बने बैठे हैं जब कि देश की घरती उन्हीं के पाँवों के नीचे से खिसकती जा रही है। देश के संसाधन और शासन तन्त्र की बागडोर अल्प संख्यकों के हाथ में तेजी से ट्रांसफर होती जा रही है।

भारत के विघटम का षटयन्त्र

खण्डित भारत, मुस्लिमों, इसाईयों, कम्यूनिस्टों तथा पाशचात्य देशों का संजोया हुआ सपना है। हिन्दू विरोधी प्रसार माध्यम अल्पसंख्यकों को विश्व पटल पर ‘हिन्दू हिंसा’ के कारण ‘त्रासित’ दिखाने में देर नहीं करते। अल्पसंख्यकों को विदेशी सरकारों से आर्थिक, राजनैतिक और कई बार आतंकवादी हथियारों की सहायता भी मिलती है किन्तु काँग्रेसी राजनेता घोटालों से अपना भविष्य सुदृढ करने के लिये देश का धन लूटने में व्यस्त रहते हैं। 

विदेशी आतंकवादी और मिशनरी अब अपने पाँव सरकारी तन्त्र में पसारने का काम कर रहै हैं। विदेशी सहायता से आज कितने ही नये हिन्दू साम्प्रदाय भारत में ही संगठित हो चुके हैं। कहीं जातियों के आधार पर, कहीं आर्थिक विषमताओं के आधार पर, कहीं प्राँतीय भाषाओं के नाम पर, तो कहीं परिवारों, व्यक्तियों, आस्थाओं, साधू-संतों और ‘सुधारों’ के नाम पर हिन्दूओं को उन की मुख्य धारा से अलग करने के यत्न चल रहै हैं। इस कार्य के लिये कई ‘हिन्दू धर्म प्रचारकों’ को भी नेतागिरी दी गयी है जो लोगों में घुलमिल कर काम कर रहै हैं। हिन्दू नामों के पीछे अपनी पहचान छुपा कर कितने ही मुस्लिम और इसाई मन्त्री तथा वरिष्ठ अधिकारी आज शासन तन्त्र में कार्य कर रहै हैं जो भोले भाले हिन्दूओं को हिन्दू परम्पराओं में ‘सुधार’ के नाम पर तोडने की सलाह देते हैं।

देशों के इतिहास में पचास से सौ वर्ष का समय थोडा समय ही माना जाता है। भारत तथा हिन्दू विघटन के बीज आज बोये जा रहै हैं जिन पर अगले तीस या पचास वर्षों में फल निकल पडें गे। इन विघटन कारी श्रंखलाओं के आँकडे चौंकाने वाले हैं। रात रात में किसी अज्ञात ‘गुरू’ के नाम पर मन्दिर या आश्रम खडे हो जाते हैं। वहाँ गुरू की ‘महिमा’ का गुण गान करने वाले ‘भक्त’ इकठ्टे होने शुरू हो जाते हैं। विदेशों से बहुमूल्य ‘उपहार’  आने लगते हैं। इस प्रकार पनपे अधिकाँश गुरू हिन्दू संगठन के विघटन का काम करने लगते हैं जिस के फलस्वरूप उन गुरूओं के अनुयायी हिन्दूओं की मुख्य धारा से नाता तोड कर केवल गुरू के बनाय हुये रीति-रिवाज ही मानने लगते हैं और विघटन की सीढियाँ तैय्यार हो जाती हैं। 

मताधिकार से शासन हडपने का षटयन्त्र

अधिकाँश हिन्दू मत समुदायों में बट जाते है, परन्तु अल्पसंख्यक अपने धर्म स्थलों पर ऐकत्रित होते हैं जहाँ उन के धर्म गुरू ‘फतवा’ या ‘सरमन’ दे कर हिन्दू विरोधी उमीदवार के पक्ष में मतदान करने की सलाह देते हैं और हिन्दूओं को सत्ता से बाहर रखने में सफल हो जाते हैं। शर्म की बात है ‘प्रजातन्त्र’ होते हुये भी आज हिन्दू अपने ही देश में, अपने हितों की रक्षा के लिये सरकार नहीं चुन सकते। अल्पसंख्यक जिसे चाहें आज भारत में राज सत्ता पर बैठा सकते हैं।

स्वार्थी हिन्दू राजनैता सत्ता पाने के पश्चात अल्पसंख्यकों के लिये तुष्टिकरण की योजनायें और बढा देते हैं और यह क्रम लगातार चलता रहता है। वह दिन दूर नहीं जब अल्पसंख्यक बहुसंख्यक बन कर सत्ता पर अपना पूर्ण अधिकार बना ले गे। हिन्दू गद्दारों को तो ऐक दिन अपने किये का फल अवश्य भोगना पडे गा किन्तु तब तक हिन्दूओं के लिये भी स्थिति सुधारने की दिशा में बहुत देर हो चुकी होगी।

अल्पसंख्यक कानूनों का माया जाल

विश्व के सभी धर्म-निर्पेक्ष देशों में समान सामाजिक आचार संहिता है। मुस्लिम देशों तथा इसाई देशों में धार्मिक र्मयादाओं का उल्लंघन करने पर कठोर दण्ड का प्राविधान है लेकिन भारत में वैसा कुछ भी नहीं है। ‘धर्म के आधार पर’ जब भारत का विभाजन हुआ तो यह साफ था कि जो लोग हिन्दुस्तान में रहें गे उन्हें हिन्दु धर्म और संस्कृति के साथ मिल कर र्निवाह करना होगा। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का भेद मिटाने के लिये भारत की समान आचार संहिता का आधार भारत की प्राचीन संस्कृति पर ही होना चाहिये था।

मुस्लिम भारत में स्वेच्छा से रहने के बावजूद भी इस प्रकार की समान आचार संहिता के विरुद्ध हैं। उन्हें कुछ देश द्रोही हिन्दू राजनेताओं का सहयोग भी प्राप्त है। अतः विभाजन के साठ-सत्तर वर्षों के बाद भी भारत में सभी धर्मों के लिये अलग अलग आचार संहितायें हैं जो उन्हे अल्पसंख्यक और बहुसंख्यकों में बाँट कर रखती हैं। भारतीय ‘ऐकता’ है ही नहीं।

सोचने की बात यह है कि भारत में वैसे तो मुस्लिम अरब देशों वाले शैरियत कानून के मुताबिक शादी तलाक आदि करना चाहते हैं किन्तु उन पर शैरियत की दण्ड संहिता भी लागू करने का सुझाव दिया जाये तो वह उस का विरोध करनें में देरी नहीं करते, क्योंकि शैरियत कानून लागू करने जहाँ ‘हिन्दू चोर’ को भारतीय दण्ड संहितानुसार कारावास की सजा दी जाये गी वहीं ‘मुस्लिम चोर’ के हाथ काट देने का प्रावधान भी होगा। इस प्रकार जो कानून मुस्लमानों को आर्थिक या राजनैतिक लाभ पहुँचाते हैं वहाँ वह सामान्य भारतीय कानूनों को स्वीकार कर लेते हैं मगर भारत में अपनी अलग पहचान बनाये रखने के लिये शैरियत कानून की दुहाई भी देते रहते हैं। 

धर्म-निर्पेक्ष्ता की आड में जहाँ महानगरों की सड़कों पर यातायात रोक कर मुस्लमानों का भीड़ नमाज़ पढ सकती है, लाऊ-डस्पीकरों पर ‘अजा़न’ दे सकती है, किसी भी हिन्दू देवी-देवता का अशलील चित्र, फि़ल्में और उन के बारे में कुछ भी बखान कर सकती है – वहीं हिन्दू मन्दिर, पूजा स्थल, और त्योहारों के मण्डप बम धमाकों से स्दैव भयग्रस्त रहते हैं। हमारी धर्म-निर्पेक्ष कानून व्यवस्था तभी जागती है जब अल्प-संख्यक वर्ग को कोई आपत्ति हो।

धर्म की आड़ ले कर मुस्लमान परिवार नियोजन का भी विरोध करते हैं। आज भारत के किस प्रदेश में किस राजनैतिक गठबन्धन की सरकार बने वह मुस्लमान मतदाता ‘निर्धारित’ करते हैं लेकिन कल जब उन की संख्या 30 प्रतिशत हो जायें गी तो फिर वह अपनी ही सरकार बना कर दूसरा पाकिस्तान भी बना दें गे और शैरियत कानून भी लागू कर दें गे।

निस्संदेह, मुस्लिम और इसाई हिन्दू मत के बिलकुल विपरीत हैं। अल्पसंख्यकों ने भारत में रह कर धर्म-निर्पेक्ष्ता के लाभ तो उठाये हैं किन्तु उसे अपनाया बिलकुल नहीं है। केवल हिन्दु ही गांधी कथित ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ के सुर आलापते रहै हैं। मुस्लमानों और इसाईयों ने ‘रघुपति राघव राजा राम’ कभी नहीं गाया। वह तो राष्ट्रगान वन्दे मात्रम् का भी विरोध करते हैं। उन्हें भारत की मुख्य धारा में मिलना स्वीकार नहीं।

धर्मान्तरण पर अंकुश ज़रूरी

धर्म परिवर्तन करवाने के लिये प्रलोभन के तरीके सेवा, उपहार, दान दया के लिबादे में छिपे होते हैं। अशिक्षता, गरीबी, और धर्म-निर्पेक्ष सरकारी तन्त्र विदेशियों के लिये धर्म परिवर्तन करवाने के लिये अनुकूल वातावरण प्रदान करते है। कान्वेन्ट स्कूलों से पढे विद्यार्थियों को आज हिन्दू धर्म से कोई प्रेरणा नहीं मिलती। भारत में यदि कोई किसी का धर्म परिवर्तन करवाये तो वह ‘प्रगतिशील’ और ‘उदारवादी’ कहलाता है किन्तु यदि वह हिन्दू को हिन्दू ही बने रहने के लिये कहै तो वह ‘कट्टरपँथी, रूढिवादी और साम्प्रदायक’ माना जाता है। 

इन हालात में धर्म व्यक्ति की ‘निजी स्वतन्त्रता’ का मामला नहीं है। जब धर्म के साथ जेहादी मानसिक्ता जुड़ जाती है जो ऐक व्यक्ति को दूसरे धर्म वाले का वध कर देने के लिये प्रेरित है तो फिर वह धर्म किसी व्यक्ति का निजी मामला नहीं रहता। इस प्रकार के धर्म को मानने वाले अपने धर्म के दुष्प्रभाव से राजनीति, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्थाओं को भी दूषित करते है। अतः सरकार को उन पर रोक लगानी आवशयक है और भारत में धर्मान्तरण की अनुमति नहीं होनी चाहिये। जन्मजात विदेशी धर्म पालन की छूट को विदेशी धर्म के विस्तार करने में तबदील नहीं किया जा सकता। धर्म-निर्पेक्षता की आड में ध्रमान्तरण दूारा देश को विभाजित करने या हडपने का षटयंत्र नहीं चलाया जा सकता।

घुसपैठ का संरक्षण

धर्मान्तरण और अवैध घुसपैठ के कारण आज असम, नागलैण्ड, मणिपुर, मेघालय, केरल, तथा कशमीर आदि में हिन्दू अल्पसंख्यक बन चुके हैं और शर्णार्थी बन कर दूसरे प्रदेशों में पलायन कर रहै हैं। वह दिन दूर  नहीं जब यह घुस पैठिये अपने लिये पाकिस्तान की तरह का ऐक और प्रथक देश भी माँगें गे।

भारत में चारों ओर से अवैध घुस पैठ हो रही है। अल्पसंख्यक ही घुसपैठियों को आश्रय देते हैं। घुसपैठ के माध्यम से नशीले पदार्थों तथा विसफोटक सामान की तस्करी भी होती है। देश की अर्थ व्यवस्था को नष्ट करने के लिये देश में नकली करंसी भी लाई जा रही है। किन्तु धर्म-निर्पेक्षता और मानव अधिकार हनन का बहाना कर के घुस पैठियों को निष्कासित करने का कुछ स्वार्थी और देशद्रोही नेता विरोघ करने लगते है। इस प्रकार इसाई मिशनरी, जिहादी मुस्लिम तथा धर्म-निर्पेक्ष स्वार्थी नेता इस देश को दीमक की तरह नष्ट करते जा रहे हैं।

तुष्टिकरण के प्रसार माध्यम

विभाजन पश्चात गाँधी वादियों ने बट चुके हिन्दुस्तान में मुसलमानों को बराबर का ना केवल हिस्सेदार बनाया था, बल्कि उन्हें कट्टर पंथी बने रह कर मुख्य धारा से अलग रहने का प्रोत्साहन भी दिया। उन्हें जताया गया कि मुख्य धारा में जुडने के बजाये अलग वोट बेंक बन कर रहने में ही उन्हें अधिक लाभ है ताकि सरकार को दबाव में ला कर प्रभावित किया जा सके । दुर्भाग्यवश हिन्दू गाँधीवादी बन कर वास्तविक्ता की अनदेखी करते रहै हैं।

उसी कडी में अल्संखयकों को ऊँचे पदों पर नियुक्त कर के हम अपनी धर्म निर्पेक्षता का बखान विश्व में करते रहै हैं। अब अल्पसंख्यक सरकारी पदों में अपने लिये आरक्षण की मांग भी करने लगे हैं। काँग्रेस के प्रधान मंत्री तो अल्पसंख्यकों को देश के सभी साधनों में प्राथमिक अधिकार देने की घोषणा भी कर चुके हैं। देशद्रोही मीडिया ने भारत को एक धर्म-हीन देश समझ रखा है कि यहाँ कोई भी आ कर राजनैतिक स्वार्थ के लिये अपने मतदाता इकठे कर देश को खण्डित करने का कुचक्र रच सकता है।

अल्पसंख्यक जनगणना में वृद्धि

विभाजन से पहिले भारत में मुसलमानों की संख्या लगभग चार करोड. थी। आज भारत में मुसलमानों की संख्या फिर से 15 प्रतिशत से भी उपर बढ चुकी है। वह अपना मत संख्या बढाने में संलगित हैं ताकि देश पर अधिकार ना सही तो एक और विभाजन की करवाया जाय। विभाजन के पश्चात हिन्दूओं का अब केवल यही राष्ट्रधर्म रह गया है कि वह अल्पसंख्यकों की तन मन और धन से सेवा कर के उन का तुष्टिकरण ही करते रहैं नहीं तो वह हमारी राष्ट्रीय ऐकता को खण्डित कर डालें गे।

हिन्दूओं में आज अपने भविष्य के लिये केवल निराशा है। अपनी संस्कृति की रक्षा के लिये उन्हें संकल्प ले कर कर्म करना होगा और अपने घर को प्रदूषणमुक्त करना होगा। अभी आशा की ऐक किरण बाकी है। अपने इतिहास को याद कर के वैचारिक मतभेद भुला कर उन्हें एक राजनैतिक मंच पर इकठ्ठे हो कर उस सरकार को बदलना होगा जिस की नीति धर्म-निर्पेक्ष्ता की नही – बल्कि धर्म हीनता की है़।

चाँद शर्मा

55 – योरुप में भारतीय रोशनी


योरूपीय देशों के लोग तुर्कों तथा पश्चिम ऐशिया के सम्पर्क में तो थे ही। योरूप के बुद्धिजीवियों ने ‘प्रथम-जागृति’ के समय लैटिन और ग्रीक पुस्तकों को अपनाया। उस के पश्चात उन्हों ने अरबी तथा फारसी के ग्रंथों को अनुवादित किया जो संस्कृत ग्रंथों से पहले ही प्रभावित हो चुके थे। प्रारम्भ में योरूप वासियों की गति विधियाँ ग्रंथों को अनुवादित करने और उन की प्रतिलिपियाँ बनाने तक ही सीमित रहीं। धीरे धीरे उन्हें अरबी-फारसी के ग्रन्थों में उन्हें भारतीय मौलिकता का ज्ञान हुआ। उस के पश्चात ही कई अरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत गर्न्थों का अनुवाद योरुपियन भाषाओं में किया गया और योरूप में ज्ञान की नयी रौशनी फैलने लगी जिसे ‘रिनेसाँ’ का युग कहा जाता है।

विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय ज्ञान

गणित –  1100 ईस्वी में रोबर्ट चेस्टर नामक अंग्रेज़ ने स्पेन की यात्रा की। उस ने वहाँ अलख्वारिस्मी की पुस्तक का लेटिन में अनुवाद किया। जिस के फलस्वरुप नये गणित के रुप में दशमलव पद्धति और अंकों के ‘स्थान’ (पोजीश्नल नोटेशन) से योरुपीय वासी परिचित हुये जो प्रारम्भ में योरुप वासियों को समझ नही पडे थे। नयी भारतीय पद्धति तथा अंकों को समझने में उन्हें देर लगी थी। वह दशमलव को क्रियात्मक ढंग से प्रयोग नहीं कर सके थे। बाद में जब डच गणितिज्ञ्य साईमन स्टेवन (1548-1620) ने दशामलव पद्धति को विस्तार से अपना पुस्तक लाथिन्डे में सझाया तो योरुपवासी भी दशमलव का प्रयोग करने लगे। साईमन स्टेवन के पश्चात मागिनी और क्रिस्टोफर क्लाडिस ने दशमलव पद्धति को अपनी कृतियों में प्रयोग किया। तत्पश्चात 1621 ईस्वी में बैकेट ने अरबी भाषा से अर्थमैटिका का अनुवाद लेटिन भाषा में किया।   

अंक गणित – अल मामोन ने 820 ईस्वी में अबू जफर मुहम्मद मूसा अलख्वारिस्मी (780-850) को बग़दाद में निमन्त्रित किया था। वह बग़दादी प्रतिनिधि मण्डलों की अगुवायी कर के दो बार भारत गया तथा वहाँ के विदूानों को मिल कर उन से कई ग्रन्थों की हस्तलिपियाँ ले कर वापिस आया। उन्हीं के आधार पर उस नें अरबी भाषा में ‘किताब अलजबर वा मुकाबला’ लिखी जिस का सारांशिक अर्थ जमा और घटाने की परिक्रिया से गिनती करना था। अलजबरा इसी परिक्रिया का संक्षिप्त लेटिन नाम है। कालान्तर इसी ग्रन्थ का लेटिन अनुवाद योरुप के विश्व विद्यालयों में गणित शिक्षा के क्षेत्र में पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया गया।   

लोगरिद्म तथा पोज़ीश्नल नोटेशन पद्धति – 825 ईस्वी में अबू जफर अलख्वारिस्मी ने लोगरिद्म शून्य पद्धति तथा पोज़ीश्नल नोटेशन पद्धतिपर ऐक पुस्तक लिखी जो ब्रह्मगुप्त के ग्रन्थ पर आधारित थी। इस का लेटिन अनुवाद ‘अलगोरिदमी डि न्यूमरो इन्डोरम के नाम से छपा था। जिस समय स्पेन पर अरबों का अधिकार था उस समय इस पुस्तक का अरबी संस्करण स्पेन भी ले जाया गया था।

खगोल विज्ञान

अल बत्तानी (850-929) को योरुप में अलबत्तगिनस कहा जाता है। उस ने भारतीय खगोल शास्त्र, दर्शन शास्त्र, पतंजली योग सूत्रों तथा गणित का अध्यन किया था। उस ने श्रीमद् भागवद् गीता, सांख्य करिका, सृष्टि की उत्पत्ति तथा विनाश, हिन्दू पुनर्जन्म चक्र आदि का आलोचनात्मिक विशलेशण भी किया था। उस ने ट्रिग्नोमैट्री पद्धति का विस्तार कर के भारतीय विचारों की पुष्टि की तथा स्वीकारा कि पृथ्वी और सूर्य का अन्तर वर्ष में घटता बढता रहता है। किन्तु इस्लामी कट्टर पंथियों के डर से उस ने अपने स्वीकृत तथ्यों को परिभाषित कर दिया था कि “वैसा हिन्दू सोचते हैं ”। उदाहरणत्या उस ने कहा कि “हिन्दू मानते हैं कि सृष्टि की आयु 5 खरब वर्ष है जो कि उस के निजी ईस्लामी विचारों में ग़लत है”। अमेरिका के विषय में हिन्दूओं की भूगौलिक जानकारी के संदर्भ में भी उस ने कहा कि हिन्दू मानते हैं कि ऐक महादूीप रोम शहर से डायगनली विपरीत दिशा में है। यही विचार बाद में लेटिन में अनुवाद किये गये जिन से प्रभावित हो कर कोलम्बस आदि भारत की खोज के लिये पश्चिम जाने के लिये प्ररेरित हो गये थे और उस ने अमेरिका को ढूंड निकाला।

असेट्रोलेब्स 

आर्य भट्ट का जीवनकाल 475-550 ईस्वी का है। सर्वप्रथम उन्हों ने ही खोज निकाला था कि चन्द्र तथा अन्य ग्रह सूर्य की रौशनी से ही चमकते हैं, पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के फलस्वरुप दिन और रात बनते हैं तथा पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है जिस से वर्ष का अन्तरकाल बनता है। उन्हों ने ही गृहण के कारणों का विशलेशण किया और यह निष्कर्ष भी निकाला कि ग्रहों की सूर्य परिक्रमा गोल ना हो कर अण्डाकार होती है। आर्य भट्ट की गणना अनुसार पृथ्वी का व्यास 8316 मील बताया और इसी गणना से पाश्चात्य खगोल शास्त्री भी उत्साहित हुये। उस के पश्चातः-

  • 1050 ईस्वी में असेट्रोलेब्स ऐशिया से योरुप में प्रविष्ट हुये जहाँ उन का प्रयोग अक्षाँश तथा देशान्तर रेखाओं के निर्माण में किया गया। बाद में उन का प्रयोग समुद्र पर अपनी स्थिति और समय जानने कि लिये भी किया जाने लगा जिस से नाविकों के कार्य में गति आ गयी।   
  • बाथ निवासी अदिलार्ड (1075-1160) ने समुद्री जहाज़ के दूारा नये पूर्वी मार्ग से इसाई अधिकृत सीरिया तट तक की यात्रा की। उस ने अरबी भाषा में अनुवादित मूल यूक्लिड का लेटिन भाषा में अनुवाद भी किया।
  • ईटली वासी गेरार्ड ग्रीमोना ग्रीक तथा अरबी दोनो भाषायें जानता था। 1175 ईस्वी में उस ने पटोल्मी की खगौलिक कृति ‘दि अलमागेस्ट का लेटिन में अनुवाद किया। इस उनुवाद के फलस्वरूप पटोल्मी की भ्रमात्मिक जानकारी का प्रसार भी हुआ। इस के अतिरिक्त गेरार्ड ग्रीमोना ने गालेन, अरस्तु, यूक्लिड तथा अलख्वारिस्मी की कृतियों को भी अरबी भाषा से लेटिन में अनुवाद किया।
  • 1190 ईस्वी में यहूदी दार्शनिक मोज़ेज माइमोनिडस ने अरस्तु की दार्शनिक विचारों से प्रेरित हो कर दि गाईड फार दि परपलेक्सड.’ की रचना की।

नक्षत्रों के मान चित्र तथा तालिकायें

भारतीय ज्ञान पर आधिरित खगोल शास्त्र सम्बन्धी प्राचीनत् आँकडे तथा मानचित्र बग़दाद में कनक नामक भारतीय के दूारा लाये गये थे। बग़दाद से वह स्पेन के रास्ते से योरुप पहुँचे। 1126 ईस्वी में स्पेन में उन का लेटिन  अनुवाद किया गया था। उन आँकडों तथा मानचित्रों को योरुपीय देशों में खगोल जानकारी के क्षेत्र की अमूल्य प्राप्ति  माना गया। उन के फलस्वरुपः

  • 1272 ईस्वी में अलफोंसाईन टेबल्स (नक्षत्रों की तालिकायें) टोलेडो स्पेन में बनाये गये जिन से ग्रहों की चाल तथा स्थिति की जानकारी मिलती थी।
  • उन्हीं मानचित्रों को प्रकाशित करने में 200 वर्ष का समय लगा तथा 1483 में प्रकाशित होने के पश्चात उन की जानकारी का विस्तरित प्रयोग होने लगा। प्रकाशन की क्रिया को समपन्न करने के लिये उस समय के चोटी के खगोलशास्त्रियों को सहायतार्थ केस्टाईल के अलफैंन्सो दशम ने ऐकत्रित किया था। 

पृथ्वी की गति 

आर्य भट्ट की पृथ्वी सम्बन्धी खोज से सभी सहमत थे कि पृथ्वी के अपनी धुरी पर घूमने के फलस्वरुप दिन और रात बनते हैं तथा पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है जिस से वर्ष का अन्तरकाल बनता है तथा पृथ्वी का व्यास 8316 मील है। 1224 ईस्वी में अबदुल्लाउर रऊमी ने ‘मुजामुल बुलदान’ नामक भूगौलिक बृहदकोष (ज्योग्राफिकल ऐनसाइक्लोपीडिया) तैयार किया। उस क् पश्चात 1440 में कासानस ने पृथ्वी के निरन्तर गतिमान रहने के सिद्धान्त की व्याख्या की और कहा कि अंतरीक्ष अति विस्तरित है। इन्हीं विचारों को ऐडविन हब्बल नें बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में दोहराया और कहा कि ग्रह पृथ्वी से बाहर की ओर फैल कर सृष्टि को विस्तरित करते जा रहे हैं । यह वही बात थी जो भारत के प्राचीनतम ग्रन्थ शताब्दियों पूर्व से ही कहते चले आ रहे थे।

न्यूटन का अग्रज

सर्वप्रथम गति के विभिन्न आँकलन विशेषका दर्शन शास्त्र में किये गये थे परन्तु प्रस्थापदा ने इस विज्ञान का छटी शताब्दी में विस्तार से विशलेषण किया। उस के अनुसंघानों का आधार ग्रहों की गति, ध्रुवीकरण और आकर्षण था। उस की व्याख्या का आधार गति की तीव्रता तथा लचीलापन भी था जिस का प्रभाव विपरीत दिशा में पडता था। यह सिद्धान्त न्यूटन के ‘ला आफ मोशन का अग्रज था।

चिकित्सा विज्ञान

औषधि तथा शल्य चिकित्सा के क्षेत्र में सुश्रुत तथा चरक के समय से ही महत्वशील प्रगति हो चुकी थी। ईसा से छटी शताब्दी पूर्व भारतीय चिकित्सकों ने स्नायु तन्त्र, हृदय की धमनियों तथा अन्य शरीरिक द्रव्यों के बारे में विस्तरित उल्लेख कर दिये थे। उन्हें पाचन क्रिया, तथा उस में सहायक द्रव्यों और भोजन को रक्त में परिवर्तित होने की पूर्ण जानकारी थी। पाशचात्य जानकारी तो इन विषयों पर उजागर ही नहीं हुयी थी। उन को इस विषय पर बहुत समय पश्चात ज्ञान हुआ।

  • औषधि शास्त्र ईटली केऔषध शास्त्री पीयट्रो डी अबानो (1200-1300) ने कोंसिलेटर डिफरेंशिया रम् नामक पुस्तक लिखी जो यूनानी और अरब वासियों की चिकित्सा जानकारी का मिश्रण मात्र थी। उस ने मस्तिष्क को स्नायु तन्त्र का केन्द्र तथा हृदय को रक्त शिराओं का स्त्रोत्र बताया। ईसाई कट्टरपंथियों ने उसे ‘जादूगर’ घोषित कर दिया तथा उसे चर्च विचारधारा के विरुद्ध जानकारी प्रसारित करने के अपराध में स्पेनिश कोर्ट ने मृत्यु दण्ड दे दिया।
  • मानव शरीर ऐन्ड्रियाज विसालिया ने 1543 में मानव शरीर के सम्बन्ध में ऐक पुस्तक लिखी जिसका नाम – औन दि स्टरक्चर आफ ह्यूमन बाडीथा। उस ने समस्त जानकारी चोरी छिपे मृत शीरीरों को काट काट कर प्राप्त की थी जो उस समय अपराध मानी जाती थी। परन्तु कालान्तर उस की कृति ने मानव शरीर सम्बन्धी कई योरुपीय भ्रानतियों को दूर करने में सहायता की।
  • रक्त प्रवाह विलियम हार्वे ने1628 ईस्वी में मानव शरीर में रक्त संचालन क्रिया की जानकारी दी जिस से य़ोरूप के आधुनिक ज्ञान का जन्म हुआ। हार्वे से पूर्व रक्त संचलन क्रिया के बारे में पाश्चात्य देशों में कई भ्रानतियाँ थीं। उदाहरणत्या अरस्तु के मतानुसार “रक्त लिवर में उत्पन्न होता था ”। अन्य लोगों के मतानुसार शरीर में रक्त हल्के झटकों के साथ गतिमान होता है। हार्वे ने पहली बार रक्त तथा हृदय का यथार्थ उल्लेख किया। उस ने यह जानकारी भी दि कि स्तनधारी जीव अण्डों से पैदा होते हैं। परन्तु उस के सिद्धान्त को स्वीकारने में लोगों को 150 वर्ष लगे।

ललित कलायें

ओपेरा का जन्म कालीदास के समय में भारत मे ही हुआ था। फ्रैड्रिक दूतीय ने भारतीय तथा अरबी भाषा के ग्रन्थों के अनुवाद को प्रोत्साहन दिया। फ्रैड्रिक को 1220 में पवित्र रोमन शासक बनाया गया था । उस के समीप दार्शनिकों, विदूानों तथा बगदाद और सीरिया से आये साधू संतों का जमावडा लगा रहता था। इस के अतिरिक्त भारत और ईरान से नर्तकियों का भी जमावडा रहता था। इस कारण कई भारतीय नृत्यों का समावेश पाश्चात्य नृत्य कला में भी हुआ। भारतीय परमपराओं ने ईटली के ओपेरा को भी प्रभावित किया।

जब हमारे पूर्वज उन्नति के शिखर पर रह चुके थे तो उस की तुलना में उन्नीसवीं शताब्दी तक अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन रात को ‘भालू की खाल’ ओढ कर सोते थे और उन के सम्बन्धी मृग चर्म से अपने शरीर ढकते थे। य़ोरुपीय देश अपनी कालोनियों के स्थानीय निवासियों को लूटने, उन का धर्मान्तरण करवाने और उन्हें गुलाम बना कर बेचने के कारोबार में ही लगे हुये थे।   

चाँद शर्मा

 

25 – सती तथा भ्रूण हत्या


हिन्दू समाज में प्रत्येक जीवित पतिवृता स्त्री जो अपने सतीत्व की रक्षा करती है वह ‘सती ’ कहलाती है। पौराणिक कथा नायिका सावित्री ने अपने पति सत्यवान के जीवन को यमराज से छुडवा कर अपने स्तीत्व की रक्षा की थी, जिस कारण सावित्री को उस के जीवन काल में ही सती की गौरवशाली उपाद्धि प्राप्त हो गयी थी। आदर स्वरूप हिन्दू समाज में प्रत्येक चरित्रवान पत्नि को पति के जीवन काल में ही ‘सती सावित्री ’ अथवा ‘सती-साध्वी’ कहा जाता है।

सती प्रथा

भगवान शिव की पत्नी का भी तथा-कथित सती प्रथा के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। संक्षिप्त में, शिवपुराण अनुसार दक्ष प्रजापति की ऐक सौ कन्यायें थीं। उन में से सब से छोटी कन्या का नाम ही ‘सती ’ था। सती ने राजा दक्ष की स्वीकृति के बिना भगवान शिव से विवाह कर लिया था जिस के कारण दक्ष ने शिव का अपमान करने के लिये एक यज्ञ का अनुष्ठान किया था। उस यज्ञ में शिव को आमन्त्रित नहीं किया गया था। सती शिव की स्वीकृति के बिना ही, उस यज्ञ को देखने के लिये अपने पिता राजा दक्ष की यज्ञशाला में चली गयी थी। राजा दक्ष नें यज्ञशाला में सती की पूर्णत्या अनदेखी की। यह अपमान सती से सहा नहीं गया और उस ने क्षुब्ध हो कर यज्ञ की अग्नि में कूद कर अपने प्राणों की आहूति दे डाली। वह पति की चिता पर जलायी नहीं गयी थी।

इस वृतान्त से प्रथम तथ्य तो यह उजागर होता है कि यदि कन्या हत्या का चलन हिन्दू धर्म में होता तो दक्ष प्रजापति की कन्याओं की संख्या ऐक सौ तक कभी ना पहुँचती। दूसरा, सती ने अपने प्राणों का अन्त अपने पति के जीवन काल में ही किया था और इसे विधवा को जलाने वाली कुप्रथा के साथ नहीं जोडा जा सकता। इस कथा का उद्देष्य केवल विवाहित स्त्रियों का मार्ग दर्शन करना है कि विवाह के पश्चात उन्हें अपने पिता के घर भी बिन बुलाये और अपने पति के बिना अकेले नहीं जाना चाहिये। यह केवल सामान्य शिष्टाचार की परम्परा निभाने की बात है।  

ऐतिहासिक ग्रंथों के प्रमाण

चारों वेदों, उपनिष्दों, पुराणों, महाकाव्यों तथा मनुसमृति – किसी भी धर्म ग्रंथ में सती प्रथा की आड में विधवाओं को चिता में झोंकने का कोई प्रावधान नहीं है। रामायण तथा महाभारत दोनो महा काव्यों में भी सती कुप्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। निम्नलिखित तथ्य इस सत्य को प्रमाणित करते हैं –

  • राजा दशरथ की मृत्यु पश्चात उन की तीन रानियों में से कोई भी सती नहीं हुयी थी।
  • किष्कन्धा नरेश बाली की मृत्यु के पश्चात उस की पत्नि – रानी तारा का विवाह बाली के छोटे भाई सुग्रीव से कर दिया गया था। अतः यह तथ्य विधवा को जला कर मारने के बजाय पुनर्विवाह कर के पत्नि को व्यवस्थापित रह कर जीने का प्रावधान दर्शाता है।
  • रावण के वध पश्चात उस की रानी मन्दोदरी या अन्य कोई भी रानी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी। 
  • हस्तिनापुर के राजा शान्तनु की मृत्यु के पश्चात उस की नव-विवाहिता पत्नी सत्यवती भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।
  • जब शान्तनु के पुत्र विचित्रवीर्य और चित्रांगद की मृत्यु हुयी तो उन की पत्नीयां भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।
  • महाभारत में केवल ऐक उल्लेख है – जब वनवास में राजा पान्डु की मृत्यु हुयी तो उस की छोटी रानी माद्री ने अपने आप को पान्डु की मृत्यु का कारण समझा और इसी आत्म ग्लानि के कारण ही उस ने भी पान्डु की चिता में बैठ कर अपने जीवन का अन्त कर लिया था। इस घटना को सती कहने के बजाय ‘आत्महत्या ’ कहना उचित हो गा। यदि इसे सती प्रथा का नाम दिया जाय तो बड़ी रानी कुन्ती को भी अग्नि में जल कर सती होना चाहिये था। इस उल्लेख के अतिरिक्त महाभारत में जहाँ लाखों पुरुषों ने वीरगति पायी, परन्तु पति की चिता के साथ किसी भी पत्नि के सती होने का कोई वर्णन नहीं है। एक सौ कौरव राजकुमारों में से किसी ऐक की पत्नी भी अग्नि में जल कर सती नहीं हुयी थी।  

ऊपरलिखित तथ्यों के प्रमाण के विपरीत सती का दुष्प्रचार केवल हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये ही किया जाता है। अगर कोई अपने निजि परिवारों को ही देखे तो पता चले गा कि वहाँ भी किसी विधवा स्त्री को जीवित नहीं जलाया गया होगा।

स्त्री जलन का चलन 

कोलम्बिया इनसायक्लोपीडिया के अनुसार मृत पति के साथ उस की चहेता पत्नी को जलाने की कुप्रथा का उल्लेख भारत से बाहर के देशों में पाया जाता है। उन उल्लेखों के अनुसार थ्रेशियन, स्किथियन, सकेनडनेवियन, प्राचीन मिस्र, चीन, ओशियाना तथा अफ्रीका में ऐसे रिवाज थे।

भारत में मौर्य तथा गुप्त वंश के काल में भी सती प्रथा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह कुप्रथा कुशान वंश के समय भारत में विदेशों से आयी तथा मध्य काल में राजपूत वँशो तक सीमित रही। ऱाजपूत अकसर लम्बे समय तक युद्धों में व्यस्त रहते थे। विदेशी अक्रान्ता विजयी होने के पश्चात स्त्रियों के साथ जीवन पर्यन्त बलात्कार करते थे। इस दुर्दशा के विकल्प स्वरूप ‘जौहर’ की प्रथा राजपूत परिवारों में अपनायी गयी जो कि उस समय की सामाजिक और राजनैतिक आवश्यक्ता थी। पति के वीरगति पाने की सम्भावना के केवल विचार मात्र से ही वीरांग्ना राजपूत पत्नियों ने स्वेच्छा से अग्नि प्रवेश कर के अपने सतीत्व की रक्षा करने में अपना गौरव समझतीं थीं। जब महलों के प्राँगण में स्त्रियाँ जौहर की रस्म करतीं थी, तो उस के साथ ही रण भूमि पर शत्रुओं की विशाल सैना के सामने राजपूत केसरिया वस्त्र पहन कर ‘साका’ की रस्म अदा करते थे और धर्म तथा स्वाभिमान की खातिर युद्ध कर के शत्रु के सामने झुकने के बजाय अपनी आत्म बलि देते थे।

रानी पद्मनी का ‘जौहर’ भी सती होना नहीं था। वह जौहर था। रानी पद्मनी किसी धार्मिक कारण से अपनी सखियों के साथ चिता में नही बैठी थीं अपितु अपने स्तीत्व और आदर्शों की रक्षा के कारण ऐसे साहसी कदम को उठाने के लिये उद्यत हुयी थीं। जौहर प्रथा को राजपूतों ने इस लिये सम्मानित करना आरम्भ किया था ताकि नव-विवाहित युवतियाँ प्रोत्साहित हो कर अग्नि में स्वेच्छा से प्रवेश कर सके और पति की मृत्यु पश्चात अपमान जनक जीवन जीने के बजाय स्वाभिमान से अपने आप अपने स्तीत्व की रक्षा कर सकें। वास्तव में यह उन शूरवीर पत्नियों के लिये ऐसी गौरवमयी मिसाल है जिस की तुलना विश्व इतिहास में और कहीं नहीं मिलती।

सती कुप्रथा का ढोल केवल भारत और हिन्दू धर्म को बदनाम करने के लिये पी़टा जाता है। भारत के कुछ प्राँतों में जहाँ ब्रिटिश शासन था वहाँ मृत व्यक्ति की पत्नी को पति के साथ जला कर सम्पति हडपने के लिये विधवा स्त्री को सती के नाम से जलाने की कुप्रथा चल पड़ी थी जिस का हिन्दू धर्म से कुछ सम्बन्ध नही था। लेकिन फिर भी यह हिन्दू समाज सुधारकों के लिये सांत्वना की बात है कि उस कुप्रथा को बन्द करने के लिये राजा राम मोहन राय जैसे हिन्दू समाज सुधारक ही आगे आये थे। बाहर के लोगों के कारण इस प्रथा का उनमूलन नहीं हुआ था। आज इस कुप्रथा का उल्लेख हि्न्दू विधवाओं के लिये केवल ऐक दुःखद स्मृति चिन्ह है।

कन्या शिशु हत्या

कन्या शिशु हत्या के दुष्प्रचार को ले कर भी हिन्दू समाज को इस प्रकार की निराधार आलोचना के कारण शर्मिन्दा होने या बचाव मुद्रा में जाने की जरूरत नहीं है क्यों कि वास्तविक तथ्य इस आरोप के विपरीत हैं।

  • हमारे महाकाव्यों, पुराणों, साहित्य, जातक कथाओं, पँचतंत्र, हितोपदेश, बेताल पच्चीसी या किसी भी अन्य पुस्तक में ऐक भी वृतान्त उल्लेखित नही जो कन्या भ्रूण हत्या या कन्या शिशु हत्या की घटना का साक्षी हो।
  • यदि कन्या भ्रूण हत्या जैसी कुप्रथा हिन्दू समाज में प्रचिल्लत होती तो सीता, द्रौपदी, कुन्ती, देवकी, शकुन्तला, जीजाबाई जैसी महिलायें हमारे इतिहास में ना आतीं। यह सभी कन्यायें अपने अपने माता पिता के घरों में प्यार दुलार से पाली गयीं थीं।
  • हिन्दू समाज में माता-पिता विवाह के समय कन्यादान करना ऐक पवित्र और पुन्य कर्म मानते हैं। अतः इस प्रकार की मानसिक्ता रखने वाले हिन्दू माता-पिता कन्या भ्रूण हत्या जैसे जघन्य पाप का समर्थन कदापि नहीं कर सकते।
  • परिवार नियोजन के लिये हिन्दू धर्म तो गर्भपात का ही विरोध करता रहा है और संयम पर बल देता रहा है। पुत्री तथा पुत्रियों को अनचाहे कह कर गर्भपात के तरीके से हत्या की कुप्रथा पाश्चात्य समाज की देन है जो संयम में विशवास नही रखते  और अपने आप को माडर्न समझते हैं।
  • महिलाओं के लिये विविध प्रकार के प्राचीन कालिक वस्त्राभूष्ण, सौन्दर्य प्रसाधन, सुगन्धित द्रव्य इस बात का प्रमाण हैं कि हिन्दू समाज में पुत्रियों को प्रेम दुलार से सजा कर पाला जाता था और कन्या भ्रूण हत्या जैसी घृणित बात सोचना भी कठिन था।
  • माता पिता विवाह के समय अपनी बेटियों को स्वेच्छा से दहेज में धन, सम्पत्ति आदि देते हैं। वह किसी आर्थिक कारण से भी बेटी को बोझ नहीं समझते। कुछ नीच लोग दहेज की माँग करते हैं परन्तु हिन्दू धर्म उन का समर्थन कभी नहीं करता।
  • रक्षाबन्घन का पर्व समस्त भारत में भाई बहन के प्रेम का प्रतीक है। ऐसा त्योहार किसी अन्य मानवी समाज में नहीं मनाया जाता। फिर इन परम्पराओं को स्वेच्छा से मानने वाला समाज कन्या भ्रूण हत्या का समर्थन कभी नहीं करे गा।

कन्या भ्रूण हत्या की कुप्रथा भारत के कुछ भागों में इस्लामी शासन काल में उभरी थी। ‘महान’ कहे जाने वाले मुग़ल बादशाह अकबर ने जब अपने राजनैतिक स्वार्थ के कारण राजपूत परिवारों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने आरम्भ किये तो बदले में मुग़लों को भी राजपूत परिवारों में बेटियाँ ब्याहनी ज़रूरी थीं। यदि मुगल शाहजादियों के विवाह राजपूतों के साथ होते तो मुगल बादशाहों को राजपूत जमाईयों के लिये मुगल शाहजादों के समान दर्जा भी देना पडना था। इस से बचने के लिये धूर्त ‘अकबर महान’ ने मुगल शाहजादियों के विवाह पर ही रोक लगा दी थी। मुगल शाहजादियों के विवाह पर प्रतिबन्ध अकबर के काल से आरम्भ हो कर जहाँगीर तथा शाहजहाँ के काल तक रहा क्यों कि अकबर की तरह राजपूतों से इकतरफा वैवाहिक सम्बन्ध उन्हों ने भी बनाये रखे थे। शाहजहाँ की दोनों पुत्रियाँ जहाँ आरा और रौशन आरा अविवाहित जीवन जीती रहीं थी। औरंगजेब को राजपूतों से वैवाहिक सम्बन्ध रखने की चाह नहीं थी अतः उस ने मुगल शाहजादियों पर से प्रतिबन्ध हटा दिया था। ‘अकबर महान’ का निर्णय अमानवी और धूर्ततापूर्ण था। सम्भव है कि कई मुगल शाहजादियों की जन्म समय हत्या भी किले के तहखानों में करी जाती होगी जिस से प्रेरणा पा कर कुछ राजपूत सामन्तों ने भी बेटी मुगलों को देने के बजाये उन की हत्या करना आधिक सम्मान जनक समझा हो। कुछ भी हो हिन्दू समाज इस प्रकार की घृणित प्रथा का समर्थन नहीं करता।

आज पाश्चात्य प्रभाव के कारण गर्भपात जैसी अमानवीय कुप्रथाओं का चलन है। कुछ कमीने लोग लिंग जाँच करवाने के पश्चात कन्या भ्रूण की हत्या भी करवाते हैं किन्तु इस प्रकार की कुप्रथाओं का हिन्दू धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। हिन्दू धर्म प्रचारक इस का स्दैव विरोध करते हैं। इन कुकर्मों को हिन्दू समाज का धार्मिक या सामाजिक समर्थन नहीं है।  

विश्व सभ्यता का सूत्रधार  

हिन्दू समाज को दुष्प्रचार से भयभीत अथवा त्रास्त होने के बजाये तथ्यों के आधार पर दुष्प्रचार का खण्डन करना चाहिये और यदि कोई हिन्दू इस प्रकार का घृणित काम निजि तौर पर करे तो उस का पूर्णत्या बहिष्कार भी करना चाहिये।

चाँद शर्मा

 

 

23 – वर्ण व्यवस्था का औचित्य


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, यह चारों वर्ण हिन्दू समाज के चार स्तम्भ हैं जिन पर समाज की आधार शिला टिकी हुयी है। सभी वर्णों के कार्य़ क्षेत्र का भी महत्व बराबर है। सभी का लक्ष्य पूरे समाज का कल्याण सेवा और परस्पर निर्भरता है। जो अशिक्षित हो, संस्कार हीन हो, और पाँच यम तथा पाँच नियम का पालन नहीं करते हों उन्हें ही शूद्र की श्रेणी में रखा गया है। सभी शूद्र अपने पुरुषार्थ से ज्ञान प्राप्त कर के ही, अपने कर्मों से उच्चतर वर्णों में प्रवेश पा सकते हैं।

कालान्तर व्यवसाईक आधार पर बने सामाजिक वर्गीकरण में वैचारिक तथा आर्थिक वर्गीकरण भी समा गया है जिस का कुछ असर रीति रिवाजों पर भी पडा है और समाज में परिवारिक सम्बन्ध वर्णों तथा जातियों में सीमित हो गये हैं। यह स्वाभाविक प्रतिक्रिया भी भारत के साथ साथ अन्य देशों में भी हुयी है लेकिन इस के अपवाद भी प्रचुर मात्रा में देखे जा सकते हैं।

कर्मानुसार जीवन शैली 

आधुनिक प्रशासनिक विशेज्ञ्य जिन तथ्यों को कार्य पद्धति तथा कार्य संस्कृति में शामिल करते हैं उन्हें जाब डिस्क्रिपशन तथा जाब स्पेसिफिकेशन कहा जाता है। यही तथ्य हिन्दू वर्ण व्यवस्था में पहले से ही संकलित थे। हिन्दू समाज ने प्रत्येक वर्ण के लिये कार्य शैली तथा जीवन पद्धति केवल कार्यशाला तक ही सीमित नहीं रखी थी अपितु उसे जीवन पर्यन्त अपनाने की सलाह दी है। ब्राह्मणों के लिये जीवन पर्यन्त यम-नियम पालन के साथ साधारण और सात्विक जीवन शैली निर्धारित की गयी है। जहाँ उन के लिये माँस मदिरा रहित सात्विक भोजन सुझाया गया है वहीं क्षत्रियों और वैश्यों के लिये राजसिक भोजन के साथ राग रंग के सभी प्रावधान भी नियोजित किये हैं। शूद्र वर्ग के लिये तामसिक भोजन को पर्याप्त माना है क्यों कि इस वर्ण को परिश्रम करने के लिये अतिरिक्त ऊर्जा चाहिये। स्वास्थ के प्रति जागरूक सभी आधुनिक समुदायों में भी लोग इसी प्रकार के भोजन और जीवन प्रणाली को अपनाने की सलाह देते हैं। आधुनिक प्रशासनिक सोच विचार और प्राचीन भारतीय सामाजिक गठन जीवन शैली में कोई फर्क नहीं। विश्व में सभी जगह बुद्धिजीवी सात्विक जीवन शैली अपनाते हैं, प्रशासनिक अधिकारी वर्ग और व्यापारी वर्ग राजसिक शैली तथा श्रमिक वर्ग तामसिक जीवन बिताते हैं।  

श्रम का सम्मान

हिन्दू समाज ने प्रत्येक प्रकार की सामाजिक सेवा को .यत्थोचित सम्मान दिया है जिस का प्रत्यक्ष प्रमाण वानर रूपी हनुमान जी को देवतुल्य पद की प्राप्ति है। सभी कार्यों में सेवक धर्म को उच्च मानते हुये हनुमान जी को सेवक धर्म का प्रतीक माना गया है तथा उन्हें पँचदेवों में उन्हें प्रमुख स्थान दिया गया है। इस प्रकार वर्ण व्यवस्था में शरीरिक श्रम को पूर्णत्या सम्मानित किया गया है।

क्षमतानुसार श्रम विभाजन

बनजारा जीवन पद्धति में सभी बराबर थे, परन्तु सभी सभ्य समाजों में शिक्षा, समृद्धि तथा व्यवसाय के आधार पर आज भी सामाजिक वर्गीकरण है। लार्डस् और कामनर्स इंगलैण्ड में भी हैं। अमेरिका में श्वेत और ‘ब्लैक्स’ हैं, आका और गुलाम इस्लाम में चले आ रहे हैं, किन्तु श्रम विभाजन पर आधारित भारतीय समाज रंग या नस्ल भेद पर आधारित विश्व के अन्य समाजों से बेहतर है। मल्टी नेशनल कम्पनियों में भी प्रशासनिक सुविधा के लिये श्रमिकों को पृथक पृथक विभागों, ग्रेडों तथा श्रेणियों में बाँटा जाता है।

वर्ण व्यवस्था में कर्तव्य विभाजन किसी वर्ण के अन्तर्गत जन्म लेने के आधार पर नहीं था। प्राचीन काल के समाज में जितने भी काम किये जाते थे, उन से सम्बन्धित कर्तव्यों का बटवारा मनु महाराज ने वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत मनुष्यों की मनोदशा तथा रुचि के अनुसार किया था। विश्व में कोई भी देश, जाति, या समाज ऐसा नहीं है जिस में सामाजिक वर्गीकरण और असामानतायें ना हों। यहाँ तक कि वह सोशोलिस्ट ’ देश, जो अपने देश की व्यवस्था को पूर्णत्या जाति हीन रख कर सभी के लिये बराबरी का दावा करते हैं वहाँ भी कुछ लोग दूसरों से अधिक प्रभावशाली होते हैं।

व्यवसायिक वातावर्ण

सामान्य स्थितियों के लिये परिवारिक अथवा पैत्रिक व्यवसाय का चुनाव यथार्थपूर्ण एवमं उचित है क्योंकि पैत्रिक व्यवसाय के गुणों का प्रभाव बालक में होना स्वाभाविक है। परम्परानुसार सभी देशों में संतान अपने माता पिता की सम्पति के साथ अपना पैत्रिक व्यवसाय भी अपनाती आयी है। इंगलैण्ड में और कई देशों में आज भी राजा का पद राज परिवार के ज्येष्ट पुत्र को ही प्रदान किया जाता है। ऐसा करने का मुख्य कारण यह है कि होश सम्भालने के साथ ही बालक अपने पैत्रिक व्यवसाय के वातावरण से परिचित होना शुरु कर देता है और व्यस्क होने पर उसे ही अपने माता पिता की विरासत समझ कर सहज में अपना लेता है। परिवारिक वातावर्ण का प्रभाव दक्षता प्राप्त करने में भी सहायक होंता हैं।

बाल्यकाल से किसी भी बालक की रुचि जान लेना कठिन है। इसलिये परिवारिक व्यवसाय को ही अस्थायी तौर पर चुनने का रिवाज चला आ रहा है। जो बालक परिवारिक गुण, वातावरण तथा व्यवसाय चुन लेते हैं उन्हे उस व्यवसाय से जुड़े उपकरण, अनुभव तथा व्यावसायिक सम्बन्ध सहजता में ही प्राप्त हो जाते हैं जो निजि तथा व्यवसाय की सफलता के मार्ग खोल देने में सहायक होते हैं। किन्तु जन्मजात व्यवसाय के विरुध अन्य व्यवसाय क्षमता और रुचि के आधार पर प्राप्त करने में किसी विरोध का कोई औचित्य नहीं। 

जन्म-जात का अपवाद

हिन्दू ग्रन्थों में कई प्रमाण हैं जब जन्मजात व्यवसायों को त्याग कर कईयों ने दूसरे व्यवसायों में श्रेष्ठता और सफलता प्राप्त की थी। इन अपवादों में परशुराम, गुरु द्रोणाचार्य तथा कृपाचार्य के नाम उल्लेखनीय हैं जो जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु उन्हों ने क्षत्रियों के व्यवसाय अपनाये और ख्याति प्राप्त की। विशवमित्र क्षत्रिय थे, वाल्मिकि शूद्र थे, किन्तु आज वह महर्षि की उपाधि से पूजित तथा स्मर्णीय हैं – अपनी जन्म जाति से नहीं। इस में कोई शक नहीं कि पैत्रिक व्वसाय के बदले दूसरा व्यवसाय अपनाने के लिये उन्हें कड़ा परिश्रम भी करना पडा था।

केवल किसी वर्ण में जन्म पाने से कोई भी छोटा या बड़ा नहीं बन जाता। भारत के हिन्दू समाज में ऐसे उदाहरण भी हैं जब कर्मों की वजह से उच्च जाति में जन्में लोगों को घृणा से तथा निम्न जाति मे उत्पन्न जनों को श्रद्धा से स्मर्ण किया जाता है। रावण जन्म से ब्राह्णण था किन्तु क्षत्रिय राम की तुलना में उसे ऐक दुष्ट के रुप में जाना जाता है। मनु महाराज की वर्ण व्यवस्था में वर्ण बदलने का भी विधान था। जैसे ब्राह्मणों को शास्त्र के बदले शस्त्र उठाना उचित था उसी प्रकार धर्म परायण क्षत्रियों के लिये दुष्ट ब्राह्णणों का वध करना भी उचित था।

      आत्मनश्च परित्राणो दक्षिणानां च संगरे।

             स्त्रीविप्राभ्युपपत्तौ चघ्नन्धर्मण न दुष्यति।।

      गुरुं वा बालवृद्धौ वा ब्राह्मणं वा बहुश्रुतम्।

             आततायिनमायान्तं हन्यादेवाविचारयन्।। (मनु स्मृति 8- 349-350)

(जब स्त्रियों और ब्राह्मणों की रक्षा के लिये आवश्यक हो तब दिूजातियों को शस्त्र ग्रहण करना चाहिये। ऐसे समय धर्मतः हिंसा करने में दोष नहीं है। गुरु, ब्राह्मण, वृद्ध या बहुत शास्त्रों का जानने वाला ब्राह्मण भी आततायी हो कर मारने के लिये आये तो उसे बे-खटके मार डाले।)

उच्च शिक्षा पर प्रतिबन्ध

वैज्ञानिक जन्म-जात (जैनेटिक) असमानताओं पर विचार करें तो सभी मानव ऐक समान नहीं होते। साधारणत्या जो फल जिस पेड पर लगता है वह उसी के नाम से पहचाना जाता है उस के गुण बाद में दिखते हैं। जैसे कहने मात्र के लिये कबूतर और बाज ‘पक्षियों’ की श्रेणी में आते हैं, शेर और बैल दोनो चौपाये हैं। लेकिन कबूतर के अण्डों से बाज नहीं पैदा होते। इसी तरह यदि शेर के शावकों को बचपन से ही गाय का दूध पिला कर घरेलू पशूओं के साथ ही पाला जाय तो भी बडे होने पर उन्हें हल या में बैलगाडी में नहीं जोता जा सकता।

प्रकृति ने ही मानव मस्तिष्क में असमान्तायें बनायी हैं। ऐक ही माता पिता की सन्ताने बुद्धि, विचारों तथा रुचि में ऐक दूसरे से भिन्न होती हैं। मनुष्य की बुद्धि का विकास जन्म तथा पालन पोषण के वातावरण पर निर्भर करता है। उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के लिये उत्तम बुद्धि की आवश्यक्ता पड़ती है। उच्च शिक्षा के साधन सीमित तथा महंगे होने के कारण उन को ऐसे विद्यार्थियों पर बर्बाद नहीं किया जा सकता जिन में उच्च शिक्षा ग्रहण करने की तथा कड़ी मेहनत करने की कमी हो।  उच्च शिक्षा पर प्रतिबन्ध केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के सभी देशों में लगते रहे हैं और आज भी लगते है। उच्च शिक्षा की योग्यता परखने के लिये विद्यार्थियों को रुचि परीक्षा (एप्टीच्यूट टैस्ट) में उत्तीर्ण होना पड़ता है। जो इस परीक्षा में निर्धारित स्तर तक के अंक प्राप्त नहीं कर सकते उन्हें उच्च शिक्षा में प्रवेश नहीं दिया जाता।

समाज हित में प्रतिबन्ध

ज्ञान की शक्ति दुधारी तलवार की तरह होती है। उस का प्रयोग सृजन तथा विनाश दोनो के लिये किया जा सकता है। जैसे जिस व्यक्ति के संस्कार होंगे वैसे ही वह ज्ञान को प्रयोग में लाये गा। जो लोग कमप्यूटर-वायरस बनाते हैं वह भी कमप्यूटर विशेज्ञ होते हैं। जो रक्त तथा किडनी चुरा कर बेचते हैं वह भी डाक्टर होते हैं। वह अपने बुरे संस्कारों के कारण ऐसे घृणित काम करते हैं।  महाभारत में ज्ञान के दुर्प्योग का ऐक उदाहरण है। जब गुरु द्रोणाचार्य ने एकलव्य को धनुर्विद्या से ऐक कुत्ते का मुहँ बन्द करते देखा तो उन्हों नें एकलव्य का अंगूठा गुरु-दक्षिणा में माँग कर उस की धनुर्विद्या को निष्क्रिय करवा कर क्रूरता का अपयश अपने सिर ले लिया था। और भी कई उल्लेख मिलते हैं जब उच्च ज्ञान का दुर्प्योग होने की सम्भावना का विचार कर के ऋषि अपने ही शिष्य के ज्ञान को शाप दे कर सीमित अथवा निष्क्रिय कर देते थे। 

आज अमेरिका और संयुक्त राष्ट्रपरिष्द भी गुरु द्रोणाचार्य की नीति अपनाते हैं। य़दि अमेरिका अथवा विकसित योरूपीय देश प्रमाणु शक्ति का परीक्षण करता है तो उस में उन्हें कोई आपत्ति नहीं दिखती, परन्तु यदि कोई अविकसित देश प्रमाणु परीक्षण करे तो उन्हें वह आपत्तिजनक लगता है क्योंकि अविकसित होने के कारण वह देश शक्ति का दुर्प्योग करें गा।

सार्वजनिक स्वास्थ हित में प्रतिबन्ध

 
समाज में कई कार्यक्षेत्र ऐसे भी होते हैं जहाँ का वातावरण दुष्कर और दुर्गन्ध पूर्ण होता है। अतः सार्वजनिक स्वास्थ हित में यह आवश्यक है कि संक्रामिक वातावर्ण में काम करने वाले लोगों को सार्वजनिक स्थानों से बहिष्कृत रखा जाये। जैसे आप्रेशन थियेटर तथा इसी प्रकार के अन्य स्थल सभी लोगों के लिये वर्जित होते हैं उसी प्रकार ऐसे व्यक्ति जो प्रदूष्णयुक्त स्थलों से जुडे रहते हैं उन को रसोईयों, मन्दिरों तथा अन्य सार्वजिक सुविधाओं से निष्कासित रखने का प्रावधान है। यह हिन्दू समाज के स्वास्थ के प्रति जागरुकता का प्रमाण है तथा आज भी ज़रूरी है। आधुनिक देशों तथा समुदायों मे भी प्रदूष्णयुक्त व्यक्तियों के साथ स्मपर्क पर पाबन्दी लगी रहती है।

हिन्दू समाज के विघटन की राजनीति  

इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मध्यकाल में कुछ लोगों ने छुआछूत की प्रथा को अनुचित ढंग से बढ़ावा भी दिया और हिन्दू समाज को बाँटने की दिशा में विकृत योगदान दिया जिस के कारण हिन्दू समाज को बदनामी और इसाईयों तथा मुसलमानों को दुष्प्रचार कर के धर्मान्तरण करने के का बहाना भी मिला। कुछ अयोग्य राजनेताओं को अपने लिये वोट बैंक भी प्राप्त हुये हैं जिन के सहारे वह अपने लिये उच्च पदवियाँ तलाशते रहते हैं। सत्यता यह है कि शूद्र हिन्दू समाज का अभिन्न अंग हैं और सामाजिक आधारशिला का चौथा पाया। उन के प्रति छुआ छूत की प्रथा केवल प्रदूष्ण निग्रह के निमित थी जो आधुनिक उपकरणों के आजाने से अब अप्रासंगिक हो चुकी है।

प्राचीन काल में शूद्रों, वैश्यों तथा क्षत्रियों ने अपनी अपनी उन्नति कर के अपनी सामाजिक स्थिति को सुधारा तथा ऐक से दूसरे वर्ण में प्रवेश किया। कालान्तर वर्ण व्यवस्था जन्मजात बनती गयी। जिस प्रकार एक बालक व्यस्क होने पर पिता की सम्पत्ति गृहण करता है उसी प्रकार उसे वर्ण संज्ञा भी विरासत में ही मिलने लगी थी। इस से बडा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि भारत की प्रजा तन्त्र और धर्म निर्पेक्ष शासन व्यवस्था में प्रधान मन्त्री पद के दावेदार आज भी केवल ऐक ही राजनैतिक परिवार से आते हैं और समाज जागरण छोड समाचार पत्र उन के प्रसार में जुट जाते हैं। आज कल कोई नेता पिछडे वर्ण के लोगों को परिश्रम कर के आगे बढने के लिये प्रेरित नहीं करता केवल आरक्षण की मांग ही करता है ताकि वह स्दैव पिछडे ही रहैं।

यह दुर्भाग्य है कि आजकल भी यही सिद्धान्त सरकारी नियमों में अपनाया जा रहा है। आज भी जाति का प्रमाण पत्र जन्म के आधार पर ही दिया जाता है कर्म के आधार पर नहीं। जैसे विद्यालय और महाविद्यालय योग्यता के आधार पर प्रमाण पत्र देते हैं उसी प्रकार सरकारी विभाग जन्म के आधार पर पिछडेपन के प्रमाण पत्र दे देते हैं – यथार्थ की ओर कोई नहीं देखता। यह विडम्बना है कि आज के हिन्दू ज्ञानी बनने के बजाय अज्ञानता और पिछड़ेपन का प्रमाण पत्र पाने की होड़ में लगे हुये है। आज जरूरत इस बात की है आरक्षण का लालच दे कर कुछ वर्गों को स्दैव के लिये पिछडा बना कर रखने के बजाय उन को परिश्रम तथा ज्ञान के माध्यम से समाज में उन्नत किया जाये।

 

चाँद शर्मा

 

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