हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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43 – खेल-कूद के प्रावधान


क्रिकेट, हाकी, बास्केटबाल, वोलीबाल, सक्वाश और टेनिस आदि खेलों के सामने ऐसे लगने लगा है कि हमारे देश में कोई भी खेल नहीं खेला जाता था और खेलना कूदना हमें अंग्रेज़ों ने ही सिखाया। वास्तव में यह सभी खेल जन साधारण के नहीं हैं क्योंकि इन्हें खेलने के लिये बहुत महंगे उपकरणों की, जैसे की विस्तरित मैदान और साजो सामान की आवश्यक्ता पडती है जिन्हें जुटा पाना आम जनता के लिये तो सम्भव ही नहीं है। आजकल भारत में खेलों दूारा मनोरंजन केवल देखने मात्र तक सीमित रह गया है। प्रत्यक्ष खेलना तो केवल उन साधन सम्पन्न लोगों के लिये ही सम्भव है जो महंगी कलबों के सदस्य बन सकें। इस की तुलना में प्राचीन भारतीय खेल खरचीले ना हो कर सर्व साधारण के लिये मनोरंजन तथा व्यायाम का माध्यम थे।

शरीरिक विकास और व्यायाम

आत्म-ज्ञान के लिये स्वस्थ और स्वच्छ शरीर का होना अनिवार्य है। हम सुख-दुःख शरीर के माध्यम से ही अनुभव करते हैं अतः व्यायाम का महत्व भारत में बचपन से ही शुरु हो जाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिये ‘काया-साधना ’ करनी पडती है। हिन्दू मतानुसार शारीरिक क्षमता की बढौतरी करते रहना प्रत्येक प्राणी का निजि कर्तव्य है। अतः शरीर के समस्त अंगों के बारे में जानकारी होनी चाहिये। योग का अभिप्राय शारीरिक शक्ति की वृद्धि और इन्द्रीयों पर पूर्ण नियन्त्रण करना है। इस साधना की प्राकाष्ठा समाधि, ऐकाग्रता तथा शारीरिक चलन हैं जिन का विकास सभी खेलों में अत्यन्त आवश्यक है। अष्टांग योग साधना के अन्तरगत आसन (उचित प्रकार से अंगों का प्रयोग), प्राणायाम (श्वास नियन्त्रण), तथा प्रत्याहार (इन्द्रियों पर नियन्त्रण) मुख्य हैं।

शरीरिक क्षमताओं को प्रोत्साहन

वैदिक काल – वैदिक काल से ही सभी को शारीरिक क्षमता वृद्धि के लिये प्रोत्साहित किया जाता था। जहाँ ब्राह्मणों को अध्यात्मिक तथा मानसिक विकास के लिये प्रोत्साहित किया जाता था, वहीं  क्षत्रियों को शरीरिक विकास के लिये रथों की दौड, धनुर्विद्या, तलवारबाज़ी, घुड सवारी, मल-युद्ध, तैराकी, तथा आखेट का प्ररिशिक्षण दिया जाता था। श्रमिक वर्ग भी बैलगाडियों की दौड में भाग लेते थे। आधुनिक औल्मपिक खेलों की बहुत सी परम्परायें भारत के माध्यम से ही यूनान में गयीं थीं। हडप्पा तथा मोइनजोदारो के अवशेषों से ज्ञात होता है कि ईसा से 2500-1550 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी सभ्यता में कई प्रकार के अस्त्र-शस्त्र प्रयोग किये जाते थे। उन में से तोरण (जेविलिन), चक्र (डिस्कस) इत्यादि खेल मनोरंजन के लिये प्रयोग किये जाते थे।

इस के अतिरिक्त बलराम, भीमसेन, हनुमान, जामावन्त, और जरासन्ध आदि के नाम मल-युद्ध में प्रख्यात हैं। विवाह के क्षेत्र में भी शारिरिक बल के प्रमाण स्वरूप स्वयंबर में भी शारीरिक शक्ति और दक्षता का प्रदर्शन किसी ना किसी रूप में शामिल किया जाता था। ऱाम ने शिव-धनुष पर प्रत्यन्चा चढा कर और अर्जुन नें नीचे रखे तेल के कढायें में मछली की आँख का प्रतिबिम्ब देख कर ऊपर घूमती हुयी मछली की आँख का भेदन कर के निजि दक्षता का प्रमाण ही तो दिया था। 

बुद्ध काल – बुद्ध काल में शारीरिक क्षमता बनाने तथा दर्शाने के विधान अपनी प्राकाष्ठा पर पहुँच गये थे। गौतम बुद्ध स्वयं सक्ष्म धनुर्धर थे और रथ दौड, तैराकी तथा गोला फैंकने आदि की स्पर्द्धाओं में भाग ले चुके थे। ‘विलास-मणि-मंजरी’ ग्रंथ में त्र्युवेदाचार्य नें इस प्रकार की घटनाओं का उल्लेख किया है। अन्य ग्रंथ ‘मानस-उल्हास’ (1135 ईसवी) में सोमेश्वर नें भारश्रम (व्हेट लिफटिंग) और भ्रमण-श्रम ( व्हेट के साथ चलना-दौडना) आदि मनोरंजक खेलों का उल्लेख किया है। यह दोनो आज औलम्पिक्स खेलों की प्रतिस्पर्धायें बन चुकी हैं। मल-स्तम्भ ऐक विशिष्ट प्रकार की कला थी जिस में प्रतिस्पर्धी कमर तक पानी में खडे रह कर तथा अपने अपने सहयोगियों के कन्धों पर सवार हो कर ऐक दूसरे से मलयुद्ध करते थे। 

गुप्त काल – चीन के पर्यटक ऐवं राजदूत फाहियान तथा ह्यूनत्साँग ने भी कई प्रकार की भारतीय खेल प्रतिस्पर्धाओं का उल्लेख किया है। नालन्दा तथा तक्षशिला के शिक्षार्थियों में तैराकी, तलवारबाज़ी, दौड़, मलयुद्ध, तथा कई प्रकार की गेंद के साथ खेली जाने वाले खेल लोकप्रिय थे।

मध्य काल – सोहलवीं शताब्दी के विजयनगर में निवास कर रहे पुर्तगीज़ राजदूत के उल्लेखानुसार महाराज कृष्णदेव राय के राज्य में कई खेलोपयोगी क्रीडा स्थल थे तथा महाराज कृष्णदेव राय स्वयं भी अति उत्तम घुडसवार, और मलयोद्धा थे। 

बाह्य-खेल

भारतीय खेलों की मुख्य विशेषता थी कि मनोरंजन करने के लिये किसी विशिष्ट प्रकार के साजो सामान की आवश्यक्ता नहीं पडती थी। ना ही किसी वकालत प्रशिक्षशित अम्पायर की ज़रूरत पडती थी। खेल का मुख्य लक्ष्य मनोरंजन के साथ साथ शारीरिक क्षमताओं का विकास करना होता था। भारत के कुछ लोकप्रिय खेल जो आज पाश्चात्य देशों में स्टेटस-सिम्बल माने जाते हैं इस प्रकार थेः-

  • सगोल कंगजेट – आधुनिक पोलो की तरह का घुड सवारी युक्त खेल 34 ईसवी में मणिपुर राज्य में खेला जाता था। इसे ‘सगोल कंगजेट’ कहा जाता था। सगोल (घोडा), कंग (गेन्द) तथा जेट (हाकी की तरह की स्टिक)। कालान्तर मुस्लिम शासक उसी प्रकार से ‘चौग़ान’ (पोलो) और अफग़ानिस्तान वासी घोडे पर बैठकर ‘बुज़कशी’ खेलते थे। बुजकशी का खेल अति क्रूर था क्यों कि केवल मनोरंजन के लिये ही ऐक जिन्दा भेड को घुड सवार एक दूसरे से छीन झपट कर टुकडे टुकडे कर देते थे। सगोल कंगजेट का खेल अँग्रेज़ों ने पूर्वी भारत के चाय बागान वासियों से सीखा और बाद में उस के नियम आदि बना कर उन्नीसवीं शताब्दी में इसे पोलो के नाम से योरुपीय देशों में प्रसारित किया।
  • बैटलदोड – बैटलदोड का प्रचलन प्राचीन भारत में आज से 2 हजार वर्ष पूर्व था। उस खेल को आधुनिक बेड मिन्टन की तरह पक्षियों के पंखों से बनी एक गेन्द से खेला जाता था। आधुनिक बेड मिन्टन खेल अंग्रेज़ों दूारा बैटलदोड का रुपान्तर और संशोधन मात्र है।
  • कबड्डी – इस भारतीय खेल के लिये किसी विशेष साधनों की आवशयक्ता नहीं होती। धरती पर ऐक छोटे मैदान को लकीर खेंच कर दो बराबर भागों में बाँट दिया जाता है। दो टीमें ऐक दूसरे के सामने खेलती हैं। उन्हें विपरीत खिलाडी को छूना या पकडना होता है । दोनों टीमें अपने अपने खिलाडियों को बारी बारी से विपरीत टीम के पाले में भेजती हैं जो ऐक ही श्वास में “कब्डी-कब्डी” बोलता हुआ जाता है और बिना दूसरा श्वास भरे वापिस अपने भाग में आता है। यदि श्वास टूट जाये तो वह असफल माना जाता है। य़दि कोई खिलाडी सीमा से बाहर चला जाये या पकड लिया जाय तो वह असफल घोषित किया जाता है। भारत में तीन प्रकार की कब्डडी खेली जाती है जिन में से संजीवनी कब्डडी, कब्डडी फेडरेशन दूारा नियमित और मान्य है।
  • गिल्ली डंडा – यह खेल समस्त भारत में अत्यनत लोक प्रिय रहा है। इस खेल के लिये लकडी का ऐक छोटा ‘डंडा’, तथा ऐक दोनों ओर से नोकीली ‘गिल्ली’ की आवश्यक्ता पडती है। गिल्ली को डंडे से चोट कर के थोडा उछाला जाता है और फिर उछली अवस्था में ही उसे पुनः डंडे के आघात से, जहाँ तक हो सके, फैंका जाता है। जो जितनी दूर तक फैंक सके, उसी के आधार पर अंको (स्कोर) का निर्णय होता है। इस खेल के स्थानीय नियम प्रचिल्लित हैं। यदि इसी खेल को गोल्फ की तरह का उच्च कोटि का साजो सामान और आकर्ष्ण प्रदान करा दिया जाये तो यह खेल आज भी विश्व स्तर पर गोल्फ को भी मात दे सकता है जैसे यदि फाईबर-ग्लास या चन्दन की लकडी की मान्यता प्राप्त वजन और आकार की पालिश करी हुयीं खूबसूरत गिल्लियाँ और डंडे, जिन्हें लैदर के कैरीबैग्स सें सहायक उठा कर खिलाडियों के साथ मखमली घास के लम्बे-चौडे ‘गिल्ली-डंडा कोर्स’ पर चलें, फैशनेबल युवक-युवतियाँ छतरियों के नीचे बैठ कर दूरबीनों से अन्तर्राष्ट्रीय मैचों को देखने के लिये आमन्त्रित हों, दूरियाँ मापने के लिये स्वचालित ट्रालियों पर अम्पायर सवार हों और साथ में कमेंनट्री चलती रहै तो निश्चय ही भारत का प्राचीन खेल गिल्ली डंडा गोल्फ की तरह सम्मानजनक खेल बन सकता है।

आंतरिक खेल

खेल और मनोरंजन केवल पुरुषों तक ही सीमित नहीं थे। महिलाओं को भी खेलों में भाग लेने की पूर्ण स्वतन्त्रता थी। उस के लिये पर्याप्त व्यव्स्था भी थी। स्त्रियाँ आत्म-रक्षा की कला में भी निपुण थीं। वह घरेलु क्रीडाओं के माध्यम से भी मनोरंजन कर सकती थीं जैसे कि ‘किकली’, रस्सी के साथ विभिन्न प्रकार से कूदना, ‘मुर्ग़-युद्ध’, ‘बटेर-दून्द’, आदि। अन्य घरेलु साधन इस प्रकार थे जो परिवार में घर के अन्दर खेले जा सकते थे।

  • शतरंज – युद्ध कला पर आधारित यह खेल राज घरानों तथा सामान्य लोगों में अति लोक प्रिय रहा है। ‘अमरकोश’ के अनुसार इस का प्राचीन नाम ‘चतुरंगिनी’ था जिस का अर्थ चार अंगों वाली सैना था। इस में हाथी, घोडे, रथ तथा पैदल सैनिक भाग लेते थे। इस का अन्य नाम ‘अष्टपदी’ भी था। इस को खेलने के लिये ऐक तख्ते की आवश्यक्ता पडती थी जिस पर प्रत्येक दिशा में आठ खाने बने होते थे। यह खेल युद्ध की चालें, सुरक्षा तथा आक्रमण के सिद्धान्तों का अद्भुत मिश्रण था। छटी शताब्दी में यह खेल महाराज अंनुश्रिवण के समय (531 – 579 ईस्वी) भारत से ईरान में लोकप्रिय हुआ। तब इसे ‘चतुरआंग’, ‘चतरांग’ और फिर कालान्तर अरबी भाषा में ‘शतरंज’ कहा जाने लगा। ईरान में शतरंज के बारे में प्राचीन उल्लेख 600 ईसवी में कर्नामके अरताख शातिरे पापाकान में मिलता है। फिर दसवीं शताब्दी में फिरदौसी कृत महाकाव्य ‘शाहनामा’ में भी इस खेल का उल्लेख है जो विदित करता है कि शतरंज का खेल भारत के राजदूत के माध्यम से ईरान में लाया गया था। भारत से ही यह खेल चीन और जापान में भी गया। चीन के साहित्य में इस का उल्लेख न्यू सेंग जू की पुस्तक यू क्वाइ लू (बुक आफ मार्वल्स) में मिलता है जो आठवीं शताब्दी के अंत में लिखी गयी थी। दक्षिण पूर्व ऐशिया के देशों ने शतरंज का खेल भारत से ही आयात किया तथा कुछ देशों ने जैसे कि स्याम आदि ने भारत से चीन की मार्फत आयात कर के सीखा।
  • मोक्ष-पट (साँपसीढी) – इस खेल का प्रारम्भिक उल्लेख और श्रेय तेहरवीं शताब्दी में महाराष्ट्र के संत-कवि ज्ञानदेव को जाता है। उस समय इस खेल को मोक्ष-पट का नाम दिया गया था। खेल का लक्ष्य केवल मनोरंजन ही नहीं था अपितु हिन्दू धर्म मर्यादाओं का ज्ञान मनोरंजन के साथ साथ जन साधारण को देना भी था। खेल को एक कपडे पर चित्रित किया गया था जिस में कई खाने बने होते थे और उन्हें ‘घर’ की संज्ञा दी गयी थी। प्रत्येक घर को दया, करुणा, भय आदि भाव-वाचक संज्ञयाओं से पहचाना जाता था। सीढियाँ सद्गुणों को तथा साँप अवगुणों का प्रतिनिधित्व करते थे। साँप और सीढियों का भी अभिप्राय था। साँप की तरह की हिंसा जीव को नरक में धकेल देती थी तथा विद्याभ्यास उसे सीढियों के सहारे उत्थान की ओर ले जाते थे। खेल को सारिकाओं या कौडियों की सहायता से खेला जाता था। सतरहवीं शताब्दी में यह खेल थँजावर में प्रचिल्लित हुआ। इस के आकार में वृद्धि की गयी तथा कई अन्य बदलाव भी किये गये। तब इसे ‘परमपद सोपान-पट्टा’ कहा जाने लगा। इस खेल की नैतिकता विकटोरियन काल के अंग्रेजों को भी कदाचित भा गयी और वह इस खेल को 1892 में इंगलैण्ड ले गये। वहाँ से यह खेल अन्य योरूपीय देशों में लुड्डो अथवा स्नेक्स एण्ड लेडर्स के नाम से फैल गया।
  • गंजिफा – सामन्यता ताश जैसे इस खेल का भी धार्मिक और नैतिक महत्व था। ताश की तरह के पत्ते गोलाकार शक्ल के होते थे, उन पर लाख के माध्यम से या किसी अन्य पदार्थ से चित्र बने होते थे। ग़रीब लोग कागज़ या कँजी लगे कडक कपडे के कार्ड भी प्रयोग करते थे। सामर्थवान लोग हाथी दाँत, कछुए की हड्डी अथवा सीप के कार्ड प्रयोग करते थे। उस समय इस खेल में लगभग 12 कार्ड होते थे जिन पर पौराणिक चित्र बने होते थे। खेल के एक अन्य संस्करण ‘नवग्रह-गंजिफा’ में 108 कार्ड प्रयोग किये जाते थे। उन को 9 कार्ड की गड्डियों में रखा जाता था और प्रत्येक गड्डी सौर मण्डल के नव ग्रहों को दर्शाती थी।
  • पच्चीसी –  यह खेल लगभग 2200 वर्ष पुराना है। इसे भारत का राष्ट्रीय खेल कहना उचित हो गा। यह खेल ‘चौपड’, ‘चौसर’ अथवा ‘चौपद’ के नाम से जाना जाता है तथा आज भी भारत में खेला जाता है। यह लोकप्रिय और मनोरंजक भी है तथा नियमों आदि से बाधित भी है। मुस्लिम काल में यह खेल शासकीय वर्ग तथा सामान्य लोगों के घरों में ‘पांसा’ के नाम से खेला जाता था।

इस के अतिरिक्त जन जातियाँ भी जिमनास्टिक की तरह के प्रदर्शनकारी खेलों में पारंगत थी। बाजीगर चलते फिरते सरकस थे। उन के लिये बाँस की सहायता से अपना शरीरिक संतुलन नियन्त्रित कर के रस्सों के ऊपर चलना साधारण सी बात है और आज कल भी वह करते हैं। केवल हाथों के बल पर चलना फिरना, बाँस की सहायता से ऊंची छलाँग (हाई जम्प)भरना आदि के अधुनिक खेल वह बिना किसी सुरक्षा आडम्बरों के दिखा सकते हैं। यह खेद का विषय है कि भारत के आधुनिक शासकों नें इस संस्कृति के विकास के लिये कोई संरक्षण नहीं दिया है और यह कलायें लगभग लुप्त होती जा रही हैं और हमारे सामने ही हमारी विरासत उजडती जा रही है। उसी प्रकार 1960 के दशक तक यह सभी मनोरंजक खेल प्राय भारत के गाँवों और नगरों में खेले जाते थे परन्तु अब यह लुप्त होते जा रहै हैं। अगर ऐसा ही चलता रहा तो आने वाले समय में युवा कम्पूटर गेम्स के माध्यम से ही महंगे विदेशी खेल खेला करें गे या केवल टी वी पर ही खेल देखा करें गे। 

चाँद शर्मा

26 – हमारी सामाजिक परम्परायें


किसी भी देश या समाज के कानून वहाँ के सामाजिक विकास, सभ्यता, तथा नैतिक्ता मूल्यों के दर्पण होते हैं। जहाँ कोई नियम-कानून नहीं होते वहाँ ‘जिस की लाठी उस की भैंस’ के आधार पर जंगल-राज होता है। आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व समस्त योरूप में जंगल-राज ही था मगर जो लोग यह समझते हैं कि भारत में शिष्टाचार के औपचारिक नियम योरुप वासियों की देन है वह केवल अपनी अज्ञानता का ही प्रदर्शन करते हैं क्यों कि सभ्यता और शिष्टाचार का आरम्भ तो भारत से ही हुआ था। हिन्दू समाज की सामाजिक परम्परायें मानव समाज के और स्थानीय पर्यावरण के सभी अंगों को एक सूत्र में रखने के अभिप्राय से विकसित हुई हैं ताकि ‘जियो और जीने दो ’ के आदर्श को साकार किया जा सकें।

समाज शास्त्र के अग्रिम ग्रंथ मनुसमृति में सभी नैतिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, व्यवसायिक विषयों पर विस्तरित आलेख हैं। मनुस्मृति के पश्चात अन्य स्मृतियां भी समय समय पर सामाजिक व्यवस्था में प्रभावशाली रहीं परन्तु मुख्यतः मूल मनुस्मृति ही सर्वोपरि रही। समय समय पर उन प्रावधानों पर पुनर्विचार और संशोधन भी होते रहे हैं तथा अधिकाँश प्रावधान आज भी सभी मानवी समाजों में वैद्य हैं। केवल उदाहरण के लिये यहाँ कुछ सीमित सी बातों का उल्लेख किया गया है।

सार्वजनिक स्वच्छता  

भोजन तथा स्वास्थ सम्बन्धी व्यवस्थाओं के लिये मनुस्मृति में लिखा है कि आदर की दृष्टी से किया भोजन बल और तेज का देता है, और अनादर की दृष्टी से किया गया भोजन दोनों का नाश कर देता है। किसी को जूठा ना दे और ना किसी का जूठा स्वयं ही खावें। अधिक भोजन न करे और ना ही बिना भोजन कर कहीं यात्रा करे। परोसे गये भोजन की कभी आलोचना नहीं करनी चाहिये। प्रत्येक भोजन के पश्चात दाँत तथा मुख को अच्छी तरह से स्वच्छ करना चाहिये। यह सभी नियम आज भी सर्वमान्य हैं जैसे तब थे। 

किसी को भी नग्न हो कर स्नान नहीं करना चाहिये। जल के स्त्रोत्र में, जुते हुये खेत में, राख के ढेर पर, किसी मन्दिर य़ा अन्य सार्वजनिक स्थल पर मूत्र विसर्जन नहीं करना चाहिये। राख को इस लिये शामिल किया गया है क्यों कि यह सभी पदार्थों को शुद्ध करने का सक्ष्म साधन है। नियमों के उल्लंघन के कारण प्रदूषण सब से बडी समस्या बन चुका है।

भारतीय शिष्टाचार  

सम्बोधन – आजकल अन्य समाजों में माता पिता के अतिरिक्त सभी पुरुषों को ‘अंकल’ और स्त्रियों को आँटी ’ कह कर ही सम्बोधित किया जाता है जो ध्यानाकर्षण करने के लिये केवल औपचारिक सम्बोधन मात्र ही होता है। इस की तुलना में भारतीय समाज में सभी सम्बन्धों को कोई ना कोई विशिष्ट नाम दिया गया है ताकि ऐक दूसरे के सम्बन्धों की घनिष्टता को पहचाना जा सके। कानूनी सम्बन्धों का परिवारों में प्रयोग नहीं होता। किसी को ‘फादर इन ला, मदर इन ला, सन इन ला, या ‘डाटर इन ला कह कर नहीं पुकारा जाता। हिन्दू समाज में सभी मानवी सम्बन्धों को आदर पूर्वक सार्थक किया गया है। सभी सम्बन्ध प्राकृतिक सम्बन्धों से आगे विकसित होते हैं और वह कानून का सहारा नहीं लेते।

आयु का सम्मान – सम्बन्धों में आयु का विशेष महत्व है। अपने अग्रजों को स्दैव उन के सम्बन्ध की संज्ञा से सम्बोधित किया जाता है उन के नाम से नहीं। वरिष्ठ आयु में कनिष्ठों को स्दैव प्रिय शब्द और आशीर्वाद ही प्रदान कर के सम्बोधित करते हैं। यह केवल अग्रजों का विशेष अधिकार है कि वह कनिष्ठों को उन के नाम से पुकारें। आजकल टी वी चैनलों पर बेटे-बेटी की आयु वाले पाश्चातय संस्कृति में ढले एंकर अपने दादा-दादी की आयु वालों को नाम से सम्बोधित कर के अपना संस्कारी दिवालियापन ही परस्तुत करते हैं और इस बेशर्मी को ‘प्रगतिशीलता’ मान बैठे हैं। उन्हें ज्ञात ही नहीं कि उन के पूर्वज मनु नें सभ्य शिष्टाचार की मर्यादायें ईसा के जन्म से कई शताब्दियाँ पूर्व स्थापित कीं थीं। 

प्रत्यभिवादन – प्रत्येक अग्रज तथा कनिष्ठ को अभिवादन का यथेष्ट उत्तर अवश्य देना चाहिये। भारत की यह प्रथा आज सभी देशों के सैनिक नियमों में भी शामिल है।     

          यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्।

                 नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः ।। (मनु स्मृति 2- 125-126)

       जो विप्र अभिवादन करने का प्रत्यभिवादन करना नहीं जानता हो पण्डितों को उसे अभिवादन नहीं करना चाहिये। जैसे शूद्र है वैसा ही वह भी है।

गुरू-शिष्य परम्परा – यदि अग्रज अपने स्थान पर ना हों तो उन के आसन पर नहीं बैठना चाहिये तथा परोक्ष में भी गुरु का नाम आदर से लेना चाहिये। गुरु के चलने, बोलने या किसी प्रकार की शारीरिक चेष्टा की नकल नहीं करें। जहाँ गुरु का उपहास अथवा निन्दा होती हो वहाँ कानों को बन्द कर लें अथवा कहीं अन्यत्र चले जायें।

सोये हुए, बैठे हुए, भोजन करते हुए, मुहं फेर कर खड़े हुए गुरु से संभाषण नहीं करना चहिये। यदि गुरु बैठे हों तो स्वयं उठ कर, खड़े हों तो सामने जा कर, आते हों तो उन के सम्मुख चल कर, चलते हों तो उन के पीछे दौड़ कर गुरु की आज्ञा सुननी चाहिये।

अतिथि सत्कार भारतीय समाज में अतिथि को देव तुल्य मान कर सत्कार करने का विधान हैः

                 अप्रणोद्योSतिथिः सायं सूर्योढी गृहमेधिना।

                       काले प्राप्तास्त्वकाले वा नास्यानश्नगृहे वसेत्।। (मनु स्मृति 3- 105)

       सूर्यास्त के समय यदि कोई अतिथि घर पर आ जाये तो उसे नहीं टालना चाहिये। अतिथि समय पर आये या असमय, उसे भोजन उवश्य करा दें।

सेवकों की देख भाल सेवकों के साथ संवेदनशीलता का व्यवहार करने के विषय में विस्तरित विवर्ण मनु स्मृति में हैं जैसे कि –

                भुभवत्स्वथ विप्रेषु स्वेषु भ़त्येषु चैव हि।

                       भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्ठं तु दम्पति।। (मनु स्मृति 3- 116)

पहले ब्राह्मणों को और अपने भृत्यों को भोजन करा कर पीछे जो अन्न बचे वह पति पत्नी भोजन करें।

हिन्दू धर्म में रीति रिवाजों को मानना स्वैच्छिक है, अनिवार्य नहीं है। परन्तु यदि किसी पुजारी से कोई पूजा, अर्चना या विधि करवायी है तो उसे उचित दक्षिणा देना अनिवार्य है। सदा सत्य बोलना चाहिये और प्रिय वचन बोलने चाहिये।

वृद्ध, रोगी, भार वाहक, स्त्रियाँ, विदूान, राजा तथा वाहन पर बैठे रोगियों का मार्ग पर पहला अधिकार होता है।

कुछ प्रावधानों का संक्षिप्त उल्लेख इस लिये किया गया है कि भारतीय जीवन का हर क्षेत्र विस्तरित नियमों से समाजिक बन्धनों के साथ जुडा हुआ है जो वर्तमान में अनदेखे किये जा रहै हैं।

अपराध तथा दण्ड 

आज के संदर्भ में यह प्रावधान अति प्रसंगिक हैं। प्रत्येक शासक  का प्रथम कर्तव्य है कि वह अपराधियों को उचति दण्ड दे। जो कोई भी अपराधियों का संरक्षण करे, उन से सम्पर्क रखे, उन को भोजन अथवा आश्रय प्रदान करें उन्हें भी अपराधी की भान्ति दण्ड देना चाहिये।

मनु महाराज ने बहुत सारे दण्डों का विधान भी लिखा है। जैसे कि जो कोई भी जल स्त्रोत्रों के दूषित करे, मार्गों में रुकावट डाले, गति रोधक खडे करे – उन को कडा दण्ड देना चाहिये।

महत्वशाली तथ्य यह भी है कि मनु महाराज नें रोगियों, बालकों, वृद्धों,स्त्रियों और त्रास्तों को मानवी आधार पर दण्ड विधान से छूट भी दी है।

राजकीय व्यव्स्था को प्रभावशाली बनाये रखने के विचार से अपराधियों को सार्वजनिक स्थलों पर दण्ड देने का विधान सुझाया गया है। लेख को सीमित रखने के लिये केवल भावार्थ ही दिये गये हैं जिन के बारे में वर्तमान शासक आज भी सजग नहीं हैं –

  • गौ हत्या, पशुओं के साथ निर्दयता का व्यवहार करना या केवल मनोरंजन के लिये पशुओ का वद्य करना।
  • राज तन्त्र के विरुद्ध षटयन्त्र करना।
  • हत्या तथा काला जादू टोना करना।
  • स्त्रियों, बच्चों की तस्करी करना तथा माता पिता तथा गुरूओं की अन देखी करना
  • पर-स्त्री गमन, राजद्रोह, तथा वैश्या-वृति करना और करवाना।
  • प्रतिबन्धित वस्तुओ का व्यापार करना, जुआ खेलना और खिलाना।
  • चोरी, झपटमारी, तस्करी, आदि।
  • उधार ना चुकाना तथा व्यापारिक अनुबन्धों से पलट जाना।

असामाजिक व्यवहार

मनु महाराज ने कई प्रकार के अनैतिक व्यवहार उल्लेख किये हैं जैसे किः –

  • दिन के समय सोना, दूसरों के अवगुणों का बखान करना, निन्दा चुगली, अपरिचित स्त्री से घनिष्टता रखना।
  • सार्वजनिक स्थलों पर मद्य पान, नाचना तथा आवारागर्दी करना,
  • सार्वजनिक शान्ति भंग करना, कोलाहल करना।
  • किसी की कमजोरी को दुर्भावना से उजागर करना।
  • बुरे कर्मों से अपनी शैखी बघारना,
  • ईर्षा करना,
  • गाली गलोच करना,
  • विपरीत लिंग के अपरिचितों को फूल, माला, उपहार आदि भेजना, उन से हँसी मजाक करना, उन के आभूष्णों, अंगों को छूना, आलिंगन करना, उन के साथ आसन पर बैठना तथा वह सभी काम जिन से सामाजिक शान्ति भंग हो करना शामिल हैं।

जन क्ल्याण सुविधायें

मनु ने उल्लेख किया है कि शासक को कुयें तथा नहरें खुदवानी चाहियें और राज्य की सीमा पर मन्दिरों का निर्माण करवाना चाहिये। असामाजिक गतिविधियों को नियन्त्रित करने के लिये प्रशासन को ऐसे स्थानों पर गुप्तचरों के दूारा निगरानी रखनी चाहिये जैसे कि मिष्टान्न भण्डार, मद्य शालायें, चौराहै, विश्रामग्रह, खाली घर, वन, उद्यान, बाजार, तथा वैश्याग्रह।

मनु ने जन कल्याण सम्बन्धी इन विष्यों पर भी विस्तरित विधान सुझाये हैं-

  • नाविकों के शुल्क, तथा दुर्घटना होने पर मुआवजा,
  • ऋण, जमानत, तथा गिरवी रखने के प्रावधान,
  • पागलों तथा बालकों का संरक्षँण तथा अभिभावकों के कर्तव्य,
  • धोबीघाटों पर स्वच्छता सम्बन्धी नियम.
  • कर चोरी, तस्करी, तथा मिलावट खोरी, और झोला छाप चिकित्स्कों पर नियंत्रण,
  • व्यवसायिक सम्बन्धी नियम,
  • उत्तराधिकार के नियम  

शासक को जन सुविधायाओं के निर्माण तथा उन्हें चलाने के लिये कर लेना चाहिये। कर व्यवस्था से निर्धनों को छूट नहीं होनी चाहिये अन्यथ्वा निर्धनों को स्दैव छूट पाने की आदत पड जाये गी। आज के युग में जब सरकारें तुष्टिकरण और सबसिडिज की राजनीति करती हैं उस के संदर्भ में मनु महाराज का यह विघान अति प्रसंगिक है। शासकों को व्यापिरियों के तोलने तथा मापने के उपकरणों का निरन्तर नीरीक्षण करते रहना चाहिये। 

तन्त्र को क्रियावन्त रखने के उपाय 

कोई भी विधान तब तक सक्षम नहीं होता जब तक उस को लागू करने के उपायों का समावेष ना किया जाय। इस बात को भी मनु ने अपने विधान में उचित स्थान दिया है। मनुस्मृति में ज्यूरी की तरह अनुशासनिक समिति का विस्तरित प्रावधान किया गया है। विधान में जो विषय अलिखित हैं उन्हें सामन्य ज्ञान के माध्यम से समय, स्थान तथा लक्ष्य पर विचार कर के सुलझाना चाहिये। य़ह उल्लेख भी किया गया है कि ऐक विदूान का मत ऐक सहस्त्र अज्ञानियों के मत के बराबर होता है। वोट बैंक की गणना का कोई अर्थ नहीं।

प्रत्येक विधान तत्कालिक समाज की उन्नति का पैमाना होता है। मनु ने उस समय विधान बनाये थे जब संसार के अधिकतर मानवी समुदाय गुफाओं में रहते थे और बंजारा जीवन से ही मुक्त नहीं हो पाये थे। भारतीय समाज कोई पिछडा हुआ दकियानूसी समाज नहीं था ना ही सपेरों या लुटेरों का देश था जैसा कि योरूपवासी अपनी ही अज्ञानता वश कहते रहे हैं और हमारे अंग्रेज़ी ग्रस्त भारतीय उन की हाँ में हाँ मिलाते रहे हैं। उन्हें आभास होना चाहिये कि आदि काल से ही हिन्दू सभ्यता ऐक पूर्णत्या विकसित सभ्यता थी और हम उसी मनुवादी सभ्यता के वारिस हैं।   

चाँद शर्मा

15 – विशाल महाभारत


महाभारत को पहले भारत संहिता कहा जाता था। ज्ञान तथा जीवन दर्शन का ग्रँथ होने के कारण इसे पंचम वेद भी कहते हैं। कालान्तर इस का नाम महाभारत पडा। विश्व साहित्य में महाभारत सब से विशाल महाकाव्य है जिस के रचनाकार मह़ृर्षि वेद व्यास थे। रामायण की तरह इस महाकाव्य को भी विश्व की सभी भाषाओं में अनुवाद किया जा चुका है तथा भारत के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के लेखक भी इस ग्रंथ से प्ररेरित हुये हैं। महाभारत का रूपान्तर काव्य के अतिरिक्त कथा, नाटक, और कथा-चित्रावलियों में भी हो चुका है। भारत की समस्त नृत्य शैलियों तथा संगीत नाटिकाओं में भी इस महाकाव्य के कथांशों को दर्शाया जाता है। महाभारत कथाओं पर कितने ही श्रंखला चल-चित्रों का निर्माण भी हो चुका है तथा अभी भी इस महाकाव्य का कथानक इतना सशक्त है कि आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर के बेनहूर, हैरी पाटर, अवतार और लार्ड आफ दि रिंग्स से भी अधिक भव्य चल-चित्रों का निर्माण सफलता पूर्वक किया जा सकता है।

भारतीय जीवन का चित्रण

यह महाकाव्य भारतीय जीवन के सभी अंगों का विस्तरित चित्रण करता है। प्राचीन काल में सेंसर शिप नहीं होती थी। शेक्सपियर आदि के नाटकों के मूल संस्करणों में भद्दी गालियों से भरे सम्वाद भी मिलते हैं जो आजकल विश्व विद्यालयों के संस्करणों में पुनः सम्पादित कर के निकाल दिये जाते हैं। यथार्थवाद के नाम पर भी कई चल चित्रों में गाली गलौच वाली भाषा के संवाद होते हैं किन्तु महाभारत के रचना कार ने अपनी लेखनी पर स्वेच्छिक नियंत्रण रखा है। कौरवों तथा पाँडवों के जन्म से जुडे़ कथानक को अलंकार के रूप से लिखा गया है  ताकि उस में कोई अशलीलता ना आये। पाठक चाहें तो उसे यथार्थ से जोड कर देखें, चाहे तो ग्रंथकार की कल्पना को सराहें। किन्तु जो कुछ और जैसे भी लिखा है वह वैज्ञियानिक दृष्टि से भी सम्भव है।

युगों की ऐतिहासिक कडी

महाकाव्य रामायण की गाथा त्रैता युग की घटना है तो महाभारत की कथा दूआपर युग से आरम्भ हो कर कलियुग के आगमन तक का इतिहास है। कुछ पात्र तो रामायण और महाभारत में संयुक्त पात्र हैं जैसे कि देवऋर्षि नारद, भगवान परशुराम तथा हनुमान जो कि सतयुग, त्रेता, दूआपर और कलियुग को जोडने की कड़ी बन चुके हैं। यह पात्र स्नातन धर्म की निरन्तर श्रंखला को आदि काल से आधुनिक युग तक जोडते हैं।

कौरवों तथा पाँडवों को मिला कर महाभारत के युद्ध में 18 अक्षौहिणी सैनाओं ने भाग लिया था। ऐक अक्षौहिणी सेना में 21870 रथ, 21870 हाथी, 109350 पैदल ऐर 65610 घुड सवार होते हैं। युद्ध के उल्लेख महाकाव्यों के अनुरूप भव्य होते हुये भी सैनिक दृष्टि से तर्क संगत हैं तथा ऐक विश्व युद्ध का आभास देते हैं।

महाभारत मुख्यता कौरव-पाँडव वंशो, उन के वंशजों तथा तत्कालीन भारत के अन्य वंशों के परस्पर सम्बन्धों, संघर्षों, रीति रिवाजों की गाथा है जो अंततः निर्णायक महाभारत युद्ध की ओर बढ़ती है। महाभारत युद्ध अठारह दिन चलता है और उस में दोनों पक्षों की अठारह अक्षोहणी सेना के साथ भारत के लग-भग सभी क्षत्रिय वीरों का अंत हो जाता है। महाभारत कथानक में सभी पात्र निजि गाथा के साथ संजीव हो कर जुड़ते हैं तथा मानव जीवन के उच्चतम एवं निम्नतम व्यव्हारिक स्तरों को दर्शाते हैं। लग भग एक लाख श्र्लोकों  में से छहत्तर हजार श्र्लोकों में तो पात्रों के आख्यानों का उल्लेख है जो महाकाव्य को महायुद्ध के कलाईमेक्स की ओर ले जाते हैं।

महाभारत काल में दर्शायी गयी भारतीय सभ्यता एक अति विकसित सभ्यता है तथा दर्शाये गये पात्र महामानव होते हुये भी यथार्थ स्वरूप लगते हैं। कथानक के पात्र केवल भारत में ही नहीं अपितु स्वर्ग लोक और पाताल लोक में भी विचरते हैं। एक उल्लेखनीत तथ्य और भी उजागर होता है कि रामायण का अपेक्षा महाभारत में राक्षस पात्र बहुत कम हैं जिस से सामाजिक विकास का आभास मिलता है। 

नैतिक महत्व 

रामायण में तो केवल राम का चरित्र ही आदर्श कर्तव्यपरायणता का प्रत्येक स्थिति के लिये  कीर्तिमान है किन्तु महाभारत में सामाजिक जीवन की कई घटनाओं तथा परिस्थतियों में समस्याओं से जूझना चित्रित किया गया है। महाभारत में लग भग बीस हजार से अधिक श्र्लोक धर्म ऐवं नीति के बारे में हैं।

श्रीमद् भागवद गीता

श्रीमद् भागवद गीता महाभारत महाकाव्य का ही विशिष्ठ भाग है। यह संसार की सब से लम्बी दार्शनिक कविता है। गीता महाभारत युद्ध आरम्भ होने से पहले भगवान कृष्ण और कुन्ती पुत्र अर्जुन के बीच वार्तालाप की शैली में लिखी गयी है। गीता की दार्शनिक्ता  संक्षिप्त में उपनिष्दों तथा हिन्दू विचारधारा का पूर्ण सारांश है। गीता का संदेश महान, प्रेरणादायक, तर्क संगत तथा प्रत्येक स्थिति में यथेष्ठ है। संक्षिप्त में गीता सार इस प्रकार हैः-

  • जब भी संसार में धर्म की हानि होती है ईश्वर धर्म की पुनः स्थापना करने के लिये किसी ना किसी रूप में अवतरित होते हैं।
  • ईश्वर सभी प्रकार के ज्ञान का स्त्रोत्र हैं। वह सर्व शक्तिमान, सर्वज्ञ्य तथा सर्व व्यापक हैं। 
  • म़त्यु केवल शरीर की होती है। आत्मा अजर और अमर है। वह पहले शरीर के अंत के पश्चात दूसरे शरीर में पुनः प्रवेश कर के नये शरीर के अनुकूल क्रियायें करती है।
  • जन्म-मरण का यह क्रम आत्मा की मुक्ति तक निरन्तर चलता रहता है।
  • सत्य और धर्म स्दैव अधर्म पर विजयी होते हैं।
  • सभी एक ही ईश्वर की अपनी अपनी आस्थानुसार आराधना करते हैं किन्तु ईश्वर के जिस रूप में आराधक आस्था व्यक्त करता है ईश्वर उसी रूप को सार्थक कर के उपासक की आराधना को स्वीकार कर लेते हैं। इसी वाक्य में हिन्दू धर्म की धर्म निर्पैक्षता समायी हुयी है।
  • हर प्राणी को अपनी निजि रुचि के अनुकूल धर्मानुसार कर्म करना चाहिये तथा अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देना चाहिये।
  • हर प्राणी को बिना किसी पुरस्कार के लोभ या त्रिरस्कार के भय के अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये तथा अपने मनोभावों को कर्तव्य पालन करते समय विरक्त रखना चाहिये।
  • प्राणी का अधिकार केवल कर्म पर है, कर्म के फल पर नहीं। कर्म फल ईश्वर के आधीन है।
  • अहिंसा परम धर्म है उसी प्रकार धर्म रक्षा हेतु हिंसा भी उचित है।
  • अति सर्वत्र वर्जित है।

आत्म विकास

महाभारत की कथा में श्रीकृष्ण की भूमिका अत्यन्त महत्वशाली है। युद्ध को टालने की सभी कोशिशें असफल होने के पश्चात श्रीकृष्ण ने उस महायुद्ध के संचालन में ऐक विशिष्ट भूमिका निभाई तथा आसुरी और अधर्म प्रवृति की शक्तियों पर विजय पाने का मार्ग भी दर्शाया। किसी आदर्श की सफलता के लिये युक्ति प्रयोग करने का अनुमोदन किया। कौरव सैना के अजय महारथियों का वध युक्ति से ही किया गया था जिस के प्रमुख सलाहकार श्रीकृष्ण स्वयं थे। कोरे आदर्श, अहिंसा तथा निष्क्रियता से अधर्म पर विजय प्राप्त नहीं की जा सकती। उस के लिये कर्मयोग तथा युक्ति का प्रयोग नितान्त आवश्यक है।  

श्रीमद् भागवद गीता में मानव के आत्म विकास के चार विकल्प योग साधनाओं के रूप में बताये गये हैं –

  • कर्म योगः – कर्म योग साधना कर्मठ व्यक्तियों के लिये है। इस का अर्थ है कि प्रत्येक परिस्थिति में अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म के साथ किसी पुरस्कार की चाह अथवा त्रिरस्कार का भय त्याग दो। 
  • भक्ति योगः- भक्ति योगः साधना निष्क्रयता का आभास देता है। ईश्वर में श्रद्धा रखो तथा जब परिस्थिति आ जाये तो अपना कर्तव्य निभाओं किन्तु अपने कर्म को ईश्वर की आज्ञा समझ कर करो जिस में निजि स्वार्थ कुछ नहीं होना चाहिये। अच्छा – बुरा जो कुछ भी फल निकले वह ईश्वरीय इच्छा समझ कर हताश होने की ज़रूरत नहीं। कर्ता ईश्वर है और जैसा ईश्वर रखे उसी में संतुष्ट रहो।
  • राज योगः – राज योगः का सिद्धान्त अष्टांग योग भी कहलाता है। य़म, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि इस योग के आठ अंग हैं जिन का निरन्तर अभ्यास मानव को स्वस्थ शरीर तथा पूर्णत्या विकसित दिमागं की क्षमता प्रदान करता है जिस से मानव प्रत्येक परिस्थिति में धैर्य तथा स्थित प्रज्ञ्य रह कर अपने कर्तव्य तथा कर्म का चयन कर सके। इस प्रकार मानव अपनी इन्द्रियों तथा भावनाओं को वश में रखते हुये संतुलित निर्णय तथा कर्म कर सकता है। 
  • ज्ञान योगः – ज्ञान योगः की साधना उन व्यक्तियों के लिये है जो सूक्षम विचारों के साथ अपने कर्तव्य पालन के सभी तथ्यों पर विचार कर के उचित निर्णय करने में कुशल हों। कुछ भी तथ्य छूटना नहीं चाहिये। ज्ञान योगः साधना कठिन होने के कारण बहुत कम व्यक्ति ही इस मार्ग पर चलते हैं।

मध्य मार्ग इन सभी साधनाओं का मिश्रण है जिस में छोड़ा बहुत अंग निजि रुचि अनुसार चारों साधनाओं से लिया जा सकता है। कर्मठ व्यक्ति कर्म योग को अपनाये गा किन्तु भाग्य तथा ईश्वर के प्रति श्रद्धालु भक्ति मार्ग को अपने लिये चुने गा। तर्कवादी राज योग से निर्णय तथा कर्म का चेयन करें गे और योगी संन्यासी तथा दार्शनिक साधक ज्ञान योग से ही कर्म करें गे। पशु पक्षी अपने कर्म निजि परिवृति के अनुसार करते हैं जिस लिये उन्हें कर्ता का अभिमान या क्षोभ नहीं होता। सारांश सभी का ऐक है कि अपना कर्म निस्वार्थ हो कर करो और फल की चाह ना करो।

गीता की दार्शनिक्ता विश्व में सब से प्राचीन है और वह सभी जातियों देशों के लिये प्रत्येक स्थिति में मान्य है। हिन्दू विचार धारा सब से सरल तथा सभी विचारधाराओं का संक्षिप्त विकलप है।

ऐतिहासिक महत्व

मानव सृष्टि के इतिहास में भारत का इतिहास सर्वप्राचीन माना जाता है। भारत के सूर्यवंश और चन्दवंश का इतिहास जितना पुराना है उतना पुराना इतिहास विश्व के अन्य किसी भी वंश का नहीं है। यदि रामायण सूर्यवंशी राजाओं का इतिहास है तो महाभारत चन्द्रवंशी राजाओं का इतिहास है। चीन सीरिया और मिश्र में जिन राजवंशों का वृतान्त पाया जाता है वह चन्द्रवंश की ही शाखायें हैं।

उन दिनों इतिहास, आख्यान, संहिता तथा पुराण को ऐक ही अर्थ में प्रयोग किया जाता था। रामायण, महाभारत तथा पुराण हमारे प्राचीन इतिहास के बहुमूल्य स्त्रोत्र हैं जिन को केवल साहित्य समझ कर अछूता छोड़ दिया गया है। महाभारत काल के पश्चात से मौर्य वंश तक का इतिहास नष्ट अथवा लुप्त हो चुका है। इतिहास की विक्षप्त श्रंखलाओं को पुनः जोड़ने के लिये हमें पुराणों तथा महाकाव्यों पर शोध करना होगा।

चाँद शर्मा

 

12 – दर्शनशास्त्र – तर्क विज्ञान


आज कल अंग्रेज़ी विचारक जब किसी तथ्य का विशलेषण करते हैं तो उस का थ्री डाईमेंशनल वुयू लेते हैं जैसे कि लम्बाई, चौड़ाई और ऊँचाई। किन्तु सही अनुमान लगाने के लिये लक्ष्य के आगे, पीछे, दाहिने, बाँयें, ऊपर और नीचे भी देखना पडता है। इसी को उन्हीं की भाषा में सिख्सअथ डाईमेंशनल वुयू कह सकते है। दर्शन शास्त्रों ने आज से हजारों वर्ष पूर्व ऐसा ही किया था और विश्व में तर्क विज्ञान लोजिक की नींव डाली थी।

मानव की अतृप्त जिज्ञासा उसे सृष्टि के अदभुत रहस्यों का अनुसंधान करने के लिये स्दैव ही प्रोत्साहित करती रही है। सृष्टि को किस ने बनाया, मैं कौन हूँ, मैं कहाँ से आया हूँ, मृत्यु के पश्चात मैं कहाँ जाऊँगा आदि मूल प्रश्नों का उत्तर खोजने में मानव आदि काल से ही लगा रहा है। इन्हीं रहस्यों की खोज ने दार्शनिक्ता के साहित्य को जन्म दिया है। ऋषि मुनियों ने समाधिष्ट हो कर आत्म चिन्तन तथा अन्तर विशलेष्ण कर के उन जटिल प्रश्नों का उत्तर खोजा है।

तथ्यों की सच्चाई को देखना ही उन का दर्शन करना है अतः इस क्रिया को दर्शन ज्ञान की संज्ञा दी गयी है। स्नातन धर्म विचारधारा केवल एक ही परम सत्य में विशवास रखती है किन्तु उसी सत्य का छः प्रथक -प्रथक दृष्टिकोणों से आंकलन किया गया है। यही छः वैचारिक आंकलन (सिख्सअथ डाईमेंशनल वुयू) स्नातन धर्म की दार्शनिक्ता पद्धति का आधार हैं। इन षट् दर्शनों में बहुत सी समानतायें हैं क्यों कि सभी विचारधारायें उपनिष्दों से ही उपजी हैं, विशलेषण की पद्धति में भिन्नता है।

दर्शन शास्त्रों की शैली 

दर्शन शास्त्रों को संस्कृत सूत्रों में लिखा गया है। सूत्र लेखन एक विशष्ठ कला है जिस में कम से कम शब्दों का प्रयोग कर के अधिकत्म भावार्थ दिया जाता है। किसी विषय की पुनार्वृति नहीं की जाती। इस प्रक्रिया से सूत्रों का मूल अर्थ समझने में कुछ कठिनाई भी अवश्य होती है। जन-साधारण उन्हें केवल व्याख्या, टिप्पणी अथवा मीमांसा की सहायता से ही समझ सकते हैं। सौभाग्य से हिन्दू धर्म साहित्य में बहुत से विदऊआनो ने मीमांसायें लिखी हैं जो जन साधारण को उपलब्ध हैं। हिन्दू दर्शन शास्त्र के प्रति बढ़ती हुई रुचि की वजह से कई नये परन्तु सक्ष्म मीमांसाकारों ने भी अपना अमूल्य योग-दान दिया है जिन में रामकृष्ण मिशन के वैदान्ती अग्रगण्य हैं। जिन वैज्ञानिक तथ्यों पर सभी आधुनिक वैचारिक भी एकमत हैं वह इस प्रकार हैः-

  • सृष्टि चक्र अनन्त, निरन्तर तथा चिरन्तर हैं। सृष्टि का ना कोई आदि है ना कोई अन्त है। सृष्टि चक्र में सृष्टि का स़ृजन, पालन तथा हनन शामिल है।
  • आत्मा जीवन मृत्यु का निमित हैं। आत्मा बार बार पुनर्जन्म लेती रहती है।
  • धार्मिक मूल्य ही सृष्टि, मानव जीवन तथा प्रारब्ध का आधार हैं।
  • ज्ञान तथा योग मोक्ष और मुक्ति प्राप्ति का साधन हैं।

षट दर्शन

दर्शन शास्त्रों में अध्यात्मिक दार्शनिक्ता के साथ साथ मनोविज्ञान, भौतिक ज्ञान, तथा कई विषयों जैसे कि हिप्नोटिज्म तथा मेसमेरिज्म, हठयोग आदि, पर सूक्षम ज्ञान को उदाहरण सहित दर्शाया गया है। इन ग्रंथों को यदि मानवी ज्ञान का कोष (एनसाईक्लोपीडिया) कहा जाय तो वह भी पर्याप्त ना होगा। प्रत्येक विषय के तत्वों का निचोड कर के पुनः व्याख्या के साथ समझाया गया है।

उदाहरण के लिये, दर्शन शास्त्रों में दार्शनिक्ता से करी गयी छानबीन का ऐक नमूना इस प्रकार है।

ऐक छोटे से छोटे कीट से ले कर बडे से बडे सम्राट तक सभी हर समय तीनों प्रकार के – अध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दुःखों से छुटकारा पाने का यत्न करते रहते हैं, किन्तु छुटकारा फिर भी नहीं मिलता। मृगतृष्णा के सदृश जिन वस्तुओं के पीछे मनुष्य सुख समझकर दौडता रहता है, प्राप्त होने पर वे दःख का कारण ही सिद्ध होती हैं। इस लिये तत्वदर्शी के लिये निम्न चार प्रश्न उपस्थित होते हैं –

  • हेय – दुःख का वास्तविक स्वरूप क्या है जिस का त्याग किया जा सके।
  • हेय हेतु – दुःख कहाँ से उत्पन्न होता है – उस के कारण को पहचानना।
  • हान –  दुःख रहित अवस्था कैसी होती है।
  • हानोपाय – दुःख निवृति का उपाय क्या है।

इन चारों रहस्यपूर्ण प्रश्नों को समझने के लिये दर्शन शास्त्रों में इन तीन तत्वों को  छोटे छोटे और सरल सूत्रों में युक्ति युक्त कर के इस प्रकार वर्णन किया गया हैः-

  • चेतनतत्व आत्मा – दुःख किस को होता है जिस को दुःख होता है उस (जीव) का वास्तविक स्वरूप क्या है।
  • जडतत्व – जहाँ से दुःख की उत्पति होती है और जिस का धर्म ही दुःख है उसे प्रकृति कहते हैं। इस के यथार्थ स्वरूप को समझ लेने से पहला और दूसरा दोनों प्रश्न सुलझ जाते हैं।
  • चेतनतत्व परमातमा – ऊपरलिखित दोनों तत्वों के अतिरिक्त ऐक तीसरे तत्व को मानना भी आवश्यक हो जाता है जो पहले के अनुकूल और दूसरे के प्रतिकूल हो । जिस में पूर्ण ज्ञान हो, जो सर्वज्ञ हो, सर्व व्यापक और सर्व शक्तिमान हो। उसी के पास पहुँचना ही आत्मा का लक्ष्य है। इस तर्क से तीसरे और चौथे प्रश्न का उत्तर भी मिल जाता है।

दार्शनिक्ता के छः मुख्य स्त्रोत्र मीसांसा, वेदान्त, न्याय, वैशेषिक, सांख्य और योग वेदों के उपांग कहलाते हैं तथा उन का उदाहरण सहित सारांश इस प्रकार हैः –

मीमांसा शास्त्र – वेद मन्त्रों में आत्मा तथा परमात्मा की जानकारी को ज्ञानकाण्ड तथा कर्म काण्ड, उपासना और ज्ञानकाण्ड पर विचार करने को मीमांसा कहते हैं। मीमांसा के दो भाग हैं। कर्मकाण्ड को पूर्व मीमांसा तथा ज्ञानकाण्ड को उत्तरी मीमांसा कहते हैं। मीमांसा शास्त्र दर्शनों में सब से बडा है। इस के सुत्रों की संख्या 2644 है और इस में 909 अधिकरण हैं जो अन्य सभी दर्शनों की सम्मिलित संख्या के बराबर हैं। मीमांसा अधिकरणों के विषय ईश्वर, प्रकृति, जीवात्मा, पुनर्जन्म, मृत्यपश्चात अवस्था, कर्म, उपासना, ज्ञान, बन्ध और मोक्ष हैं। वेद मन्त्रों में बतलाई हुई शिक्षा का नाम कर्मकाण्ड है। कर्म तीन प्रकार के हैं जिन्हें नित्यकर्म (नित्य करने योग्य), निमत्तक कर्म (किसी कारण वश करने वाले कर्म – जैसे पुत्र होने पर उस का नामकरण करना) तथा काम्य कर्म (किसी इच्छा पूर्ति के लिये) कहते हैं। मन की वृतियों को सब ओर से हटा कर केवन एक लक्ष्य पर  केन्द्रित करने की शिक्षा का नाम उपासना है। ईसा से कोई 600-100 वर्ष पूर्व जैमिनी ऋषि ने मीमांसा शास्त्र की रचना करी थी। वह महाऋषि बाद्रायाण के शिष्य थे। इन के कथन का सार है कि कर्म के बिना सभी ज्ञान निष्फल है और वह सुखदायक नहीं हो सकता। जब तक सत्य बोलना क्रियात्मिक जीवन शैली में नहीं अपनाया जाता उस का कोरा ज्ञान होना बेमतलब है। केवल कर्म रहित ज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती।

वेदान्त शास्त्र – इस दार्शनिक्ता के जनक महाऋषि बाद्रायण थे जो ईसा से 600-200 वर्ष पूर्व हुये। सारांश में विविधता केवल देखने में है परन्तु वास्तव में सभी में सृजनकर्ता की ही छवि है। ज्ञान प्रत्येक काल में बढता रहता है और उस का अर्जित करना कभी समाप्त नहीं होता। वैदिक ज्ञान संकलित ज्ञान का विशलेषण तथा ग्रहण करना निरन्तर क्रिया है। अतः वेदान्त शास्त्र आधुनिक विचारधारा का अग्रज है।

न्याय शास्त्र – ईसा से 400 वर्ष पूर्व गौतम ऋषि ने न्याय शास्त्र की रचना की थी। इस को तर्क विद्या भी कहा जाता है क्यों कि प्रत्येक विषय को तर्क की कसौटी से जाना और परखा गया है। न्याय सूत्र पाँच अध्यायों में विभक्त है। संसार में लोग दुःख से बचना चाहते हैं। यथार्थ ज्ञान का साघन प्रमाण है। प्रमाणों से किसी वस्तु की परीक्षा करना ही न्याय है। न्याय दर्शन के अनुसार चार मुख्य (प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम) प्रमाण हैं जो आज भी विश्व भर के न्यायालयों की कार्य शैली की जड़ हैं। उदाहरण के तौर पर इन्द्रियों की अनुभूतियों से प्राप्त ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण माना जाता है। जैसे धुआँ अग्नि के बिना नहीं होता इस लिये धुआँ अग्नि का अनुमान प्रमाण है। अज्ञान तथा इच्छायें दुःख के जन्म का कारण हैं। अतः दुःख के निवारण का अचूक विकल्प इच्छाओं पर नियन्त्रण और ज्ञान है।

वैशेषिका शास्त्र वैशेषिक सूत्रों की संख्या 370 है जो दस अध्यायों में विभक्त है। विशेष शब्द से तात्प्रिय है वह गुण जो ऐक वस्तु को अन्य वस्तुओं से अलग करता हौ। उन विशोष तत्वों का ज्ञान ही सत्य की ओर ले जाता है। यदि कोई अन्धेरे में खम्बे को चोर समझ ले तो वास्तव में दर्शक नें चोर और खम्बे की समान विशेषता लम्बाई के आधार पर ही चोर से भय भीत होने का निर्णय कर लिया है जो सत्य से कोसों दूर है। य़दि उसे अन्य विशेषताओं का ज्ञान भी होता तो दर्शक को भय भीत ना होना पडता और वह दुःख रहित होता। दैनिक जीवन में हमारी मानसिक्ता इसी प्रकार से दुखों को प्रगट करती रहती है। ईसा से 300 वर्ष पूर्व काणाद ऋषि ने अणु विज्ञान को जन्म दिया।

सांख्य शास्त्र – यह भारत की प्राचीनतम दार्शनिक्ता है जिसे कपिल ऋषि नें ईसा से 600 वर्ष पूर्व व्याखित किया था। इस के 527 सांख्य सूत्र हैं और छः अध्यायों में विभक्त है।  सांख्य के बहुत से प्राचीन ग्रन्थ इस समय लुप्त हैं, कई ऐक के केवल नाम ही मिलते हैं। यह पूर्णत्या वैज्ञियानिक मार्ग है। दुःख के कारण अध्यात्मिक (निजि शरीर और बुद्धि सें असमंजस), अधिभौतिक (दूसरों के कारण) कारण, तथा अतिदैविक (प्राकृतिक आपदायें)। उन कारणों का ज्ञान और तर्क संगत विशलेशण ही सुख दुख को समान कर सकता है। जिस प्रकार जागा हुआ मनुष्य स्वप्नावस्था में देखे शरीर को सत्य नहीं मानता, उसी प्रकार सिद्ध पुरुष जिस शरीर से अपने शरीर का साक्षाताकार करता है उस शरीर को भी अपना नहीं मानता। उस के कर्मों में भी लिप्त नहीं होता। वह आत्मा को शरीर से अलग समझ कर परमात्मा से साक्षाताकार करता है और कर्म के अच्छे बुरे प्रभावों तथा परिणाम स्वरूप सुख दुख से भी मुक्त हो जाता है। सांख्य दर्शन ने विश्व की सभी दार्शनिक्ताओं विशेषकर यूनानीओं को प्रभावित किया है। गीता साँख्य योग का ही मुख्य ग्रन्थ है। सांख्य और योग के अभ्यन्तर रूप के अतिरिक्त कार्य क्षेत्र में उस का रूप कैसा होना चाहिये, इस बात को गीता में  विशेषता के साथ स्पष्ट शब्दों में दर्शाया गया है।   

योग शास्त्र – योग के दार्शनिक स्वरूप को समझने के लिये तो दर्शनों का ज्ञान आवश्यक है ही, परन्तु दर्शनों का यथार्थ ज्ञान भी योग दूआरा ही प्राप्त किया जा सकता है। दोनों ऐक दूसरे के पूरक हैं। यदि व्यवहार को शुद्ध और आहार को सात्ति्वक बना कर शरीर को ठीक रखें और विषयों से मन को हटा कर अनितर्मपख करें तो अपने भीतर के खजाने का पता लग सकता है। योग वास्तव में ऐक दर्शन नहीं है। वह तो वृत्तियों के रूप में  आत्मा के स्वरूप  को अनुभव करने की एक विशष्ट कला है। पर कला का भी दार्शनिक आधार होना चाहिये। जिस प्रकार न्याय (तर्क) का कला होने पर भी दर्शनों में समावेश किया जाता है उसी प्रकार योग की गणना दर्शनों में की गई है।  ईसा से 300 वर्ष पूर्व रचित पतंजलि योग सूत्र योग विद्या का विस्तरित ग्रंथ है। योग करना अपने आप को जानने का मार्ग है। साधारणत्या लोग आसन करने को ही योग समझते हैं, परन्तु योग का क्षेत्र अधिक विस्तरित है। इस के आठ अंग हैं। सदाचार तथा नैतिकता के सिद्धान्तों को यम कहते हैं। बिना स्वस्थ, स्वच्छ और निर्मल शरीर के योग मार्ग की प्रथम  सीढी पर पग धरना दुर्गम है।  स्वयं के प्रति अनुशासित और स्वच्छ रहना नियम हैं। शरीर के समस्त अंगों को क्रियात्मिक रखना आसन के अन्तर्गत आता है। प्राणायाम श्वासों को नियमित और स्वेच्छानुसार संचालित करना है। हर प्राणायाम शरीर और मन पर  अलग तरह के प्रभाव डालता है। पंचेन्द्रियों को संसार से हटा कर आत्म केन्द्रित करने की कला प्रत्याहार है। वह नियन्त्रित ना हों तो उन की अंतहीन माँगे कभी पूरी नहीं हो सकतीं। धारणा का अर्थ है मन का स्थिर केन्द्रण। ध्यान में व्यक्ति शरीर और संसार से विलग हो कर आद्यात्मा में खो जाता है। समाधि का अर्थ है साथ हो जाना। यह परम जागृति है। यही योग का लक्ष्य है।

दर्शन शास्त्र वैदिक ज्ञान को समझने में सहायक हैं। किन्तु हिन्दू इस संकलित ज्ञान को भी अंतिम परिकाष्ठा नही मानते। वह अतिरिक्त विशलेष्ण को प्रोत्साहित करते हैं क्यों कि वैचारिक स्वतन्त्रता ही स्नातन धर्म का आधार स्तम्भ है। य़ह हर मानव का अधिकार है कि वह चाहे तो पूरे को, या अधूरे को या किसी भी मत को स्वीकार ना करे। हिन्दू धर्म में वैचारिक विरोधाभास मान्य हैं। दर्शन शास्त्र ही विश्व में लोजिक और रीज़निंग के प्रथम ग्रंथ हैं जब कि योरूप के देशों के लोग हाथों की उंगलियों पर भी गिनना भी नहीं जानते थे।

चाँद शर्मा

टैग का बादल