हिन्दू धर्म वर्तमान राजनैतिक परिपेक्ष में

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60 – हिन्दू मान्यताओं का विनाश


‘जियो और जीने दो’ के मूल मंत्र को क्रियात्मिक रूप देने के लिये मानव समुदायों ने अपनी स्थानीय भूगौलिक, राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सभ्यता के विकास की परिस्थितियों को ध्यान में रख कर अपने अपने समुदायों के लिये ‘धर्म’ सम्बन्धी ‘नियम’ बनाये थे। यह नियम आपसी सम्बन्धों में शान्ति तथा भाईचारा बनाये रखने के लिये हैं जिन का पालन करना सभी का ‘कर्तव्य’ है। जब भी किसी एक समुदाय के लोग दूसरे समुदाय के क्षैत्र में घुस कर अपने समुदाय के नियम कायदे ज़बरदस्ती दूसरे समुदायों पर लागू करते थे तो लड़ाई झगडे भी होने स्वाभाविक थे।

असमानताओं का संघर्ष

भारत ना तो कोई निर्जन क्षेत्र था ना ही अविकसित या असभ्य देश था। इस्लामी लुटेरों की तुलना में भारतवासी सभ्य, सुशिक्षित और समृद्ध थे। मुस्लिम धर्म और हिन्दू धर्म में कोई समानता नहीं थी क्यों कि इस्लाम प्रत्येक क्षेत्र में हिन्दू धर्म के विरुद्ध नकारात्मिक दृष्टिकोण पर आधिरित था। अतः हिन्दूओं ने मुसलमानों के आगे आत्मसम्पर्ण करने के बजाय उन के विरुद्ध अपना निजि ऐवं सामूहिक संघर्ष जारी रखा और अपने देश के ऊपर मुस्लिम अधिकार को आज तक भी स्वीकारा नहीं। असमानताओं के कारण संघर्ष का होना स्वाभाविक ही था।

इस्लाम से पूर्व हिन्दूस्तान में जो विदेशी धर्मों के लोग बाहर से आते रहै उन्हों ने यहाँ के नियम कायदों को स्वेच्छा से अपनाया था। वैचारिक आदान-प्रदान के अनुसार वह स्थानीय लोगों के साथ घुल-मिल चुके थे। मुस्लिम भारत में जबरदस्ती घुसे और स्थानीय हिन्दू संस्कृति से हर बात पर उलझते रहे हैं। अपनी अलग पहिचान बनाये रखने के लिये वह स्थानीय साम्प्रदायिक समानताओं पर ही प्रहार करते रहे। उन का विशवास ‘जियो और जीने दो’ में बिलकुल नहीं था। वह ‘खुद जियो मगर दूसरों को मत जीने दो’ के सिद्धान्त पर ही चलते रहै हैं। उन की विचारधारा तथा कार्य शैली में धर्म निर्पेक्ष्ता, सहनशीलता तथा परस्पर सौहार्द के लिये कोई स्थान नहीं। विपरीत सोच के कारण वह भारत में घुल मिल नही सके।

समझने की बात है, अमेरिका में सभी वाहन सडक के दाहिनी ओर चलाये जाते हैं और उन की बनावट भी उसी प्रकार की है। इस के विपरीत भारत में सभी वाहन सडक के बाईं ओर चलते हैं और उन की स्टीरिंग भी इस के अनुकूल है। जब तक दोनो अपने अपने स्थानीय इलाकों में चलें गे तो कोई समस्या नहीं हो गी। लेकिन अगर वह अपने क्षेत्र से बाहर दूसरे क्षेत्र में जबरदस्ती चलाये जायें गे तो दुर्घटनायें भी अवश्य हों गी। यही नियम धर्म की व्यवस्थाओं पर भी लागू होता है। यदि कोई भी दो विपरीत धर्म अपनी अपनी भूगौलिक सीमाओं को जबरदस्ती लाँघ जाते हैं तो संघर्ष को टाला नहीं जा सकता। खूनी संघर्ष भारत की सीमाओं में प्रवेश कर चुका था लेकिन हिन्दू उस समय संगठित और सैनिक तौर पर तैय्यार नहीं थे। अतः ऐक के बाद ऐक हिन्दूओं की पहचान, मान मर्यादा और जीवित रहने की सुविधायें मिटनी शुरु हो गयीं।

हिन्दू गुलामों की मण्डियाँ

कत्लेआम में मरने के अतिरिक्त लाखों की संख्या में हिन्दू ‘लापता’ हो गये थे क्यों कि आक्रान्ताओं ने उन्हें ग़ुलाम बना कर भारत से बाहर ले जा कर बेच दिया। अरब, बग़दाद, समरकन्द आदि स्थानों में काफिरों की मण्डियां लगा करती थी जो हिन्दूओं से भरी रहती थी और वहाँ स्त्री पुरूषों को बेचा जाता था। उन से सभी तरह के अमानवी काम करवाये जाते थे। उन के जीवन का कोई अस्तीत्व नहीं होता था। काफिरों को चाबुक से मारना, हाथ पाँव तोड देना, काट देना, उन का यौन शोषण करना आदि तो प्रत्येक मुसलमान के दैनिक धार्मिक कर्तव्य माने जाते थे। यातनाओं से केवल वही थोडा बच सकते थे जो इस्लाम में परिवर्तित हो जाते थे। फिर उन को भी शेष हिन्दूओं पर मुस्लिम तरीके के अत्याचार करने का अधिकार प्राप्त हो जाता था। धर्म परिवर्तन से भारत में मुस्लमानों की संख्या बढने लगी थी। 

कई बन्दी तो भारत से बाहर जाते समय मार्ग में ही यातनाओं के कारण मर जाते थे। तैमूर जब ऐक लाख गुलामों को भारत से समरकन्द ले जा रहा था तो ऐक ही रात में अधिकतर लोग ‘हिन्दू-कोह’ पर्वत की बर्फीली चोटियों पर सर्दी से मर गये थे। इस घटना के बाद उस पर्वत का नाम ‘हिन्दूकुश’ (हिन्दूओं को मारने वाला) पड गया था।

मन्दिरों का विध्वंस

समय समय पर मुस्लमानों ने कई प्रसिद्ध हिन्दू मन्दिरों को भ्रष्ट और ध्वस्त किया । गुजरात के तट पर स्थित सोमनाथ मन्दिर को लूटा गया तथा मूर्तियों को खण्डित कर दिया गया था। काशी में स्थित विष्णु मन्दिर को तोड कर वहाँ आलमगीर मस्जिद का निर्माण किया गया। अयोध्या स्थित त्रेता के ठाकुर (भगवान राम) के मन्दिर को तोड कर मन्दिर के मलबे से ही बाबरी मस्जिद बना दी गयी थी। मथुरा के कृष्ण मन्दिर में औरंगजेब ने गौ वध करवा कर पहले तो उसे भ्रष्ट करवाया और फिर वहाँ पर भी मस्जिद का निर्माण कर दिया गया। यह केवल कुछ मुख्य मन्दिरों की कहानी है जहाँ विध्वंस के प्रमाण आज भी देखे जा सकते हैं। इस के अतिरिक्त लगभग 63000 छोटे बडे पूजा स्थल समस्त भारत में तोडे और विकृत किये गये या मस्जिदों और मज़ारों में परिवर्तित किये गये थे।

कई हिन्दू मूल की भव्य इमारतों की पहचान इस्लामी कर दी गयी थी जैसे कि दिल्ली में महरोली स्थित ‘ध्रुव-स्तम्भ’ (कुतुब मीनार) तथा आगरा स्थित ‘ताजो-महालय’ (ताज महल)। उन स्थलों के हिन्दू भवन होने के व्यापक प्रमाण आज भी अपनी रिहाई की दुहाई दे रहे हैं।

विध्वंस के कुकर्मों में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब (1658-1707) का नाम सब से ऊपर आता है। उस के आदेशानुसार बरबाद किये गये पूजा स्थलों की गिनती करने के लिये चारों उंगलियों की आवशक्ता पडे गी। औरंगजेब केवल मन्दिरों को मस्जिदों में परिवर्तित करवा कर ही संतुष्ट नहीं रहा उस नें पूजा करने वालों का भी कत्ल करवाया जिस के उल्लेख इतिहास के पृष्टों और विश्व भर की वेब-साईटस पर देखे जा सकते हैं। औरंगजेब ने अपने बडे भाई दारा शिकोह को इस लिये कत्ल करवा दिया था क्यों कि वह उपनिष्दों की हिन्दू विचारधारा का समर्थन करता था।

ईस्लामीकरण का दौर

सर्वत्र इस्लाम फैलाने के प्रयत्न भारत में आठ शताब्दियों तक चलते रहे। नगरों के नाम बदले गये, पूजा स्थलों के स्वरूप बदले गये, तथा हिन्दूओं के विधान और इमान बदले गये। मन्दिरों और नगरों से ‘माले-ग़नीमत’ (लूटी हुयी सम्पत्ति) और ‘जज़िया’ के धन से मुस्लिम फकीरों को खैरात बटवाने इस्तेमाल किया जाता था। मुस्लिम शासकों ने जन साधारण के कल्याण के लिये कोई कार्य नहीं किया था। ‘माले-ग़नीमत’ से प्राप्त धन का व्यय लडाईयों, शासकों के ‘हरम’, महल, किले और मृतकों के लिये मकबरे बनवाने पर ही खर्च किया जाता था। अपनी विलासता के लिये सभी छोटे बडे शासकों ने अपहरण करी हुई सुन्दर स्त्रियों के ‘हरम’ पाल रखे थे।

बादशाह शाहजहाँ के ‘हरम’ में सात सौ से अधिक युवा स्त्रियाँ थी। उन के अतिरिक्त उस के अनैतिक यौन सम्बन्ध कई निकटत्म सम्बन्धियों की पत्नियों के साथ भी थे। यहीं बस नहीं – उस के ‘नाजायज-सम्बन्ध’ उस की अपनी ज्येष्ट पुत्री जहाँनआरा के साथ भी इतिहास के पृष्टों पर उल्लेखित हैं। अपने लिये कितने ही महल और किले बनवाने के अतिरिक्त शाहजहाँ ने अपनी बेगम मुमताज़ महल के लिये अपने ‘प्रेम के प्रतीक स्वरूप’ ताजमहल का ‘निर्माण’ करवाया था। इन तथ्यो का अन्य पहलू भी है जिस के अनुसार ताज महल को मूलतः हिन्दू मन्दिर ताजो महालय बताया जाता है जिसे शाहजहाँ ने जयपुर नरेश मिर्ज़ा राजा जयसिहं से छीन कर मकबरे में परिवर्तित करवा दिया था। इस विवादस्पद तथ्य के पक्ष में ताजमहल की शिल्पकला के प्रमाणों के अतिरिक्त शाहजहाँ की जीवनी तथा गेजेट ‘बादशाहनामा’ से भी मिलते हैं और यह ऐक निष्पक्ष जाँच का विषय है। मुमताज महल (अरज़ुमन्द बानो) की मृत्यु बुरहानपुर (महाराष्ट्र) में हुई थी जहाँ उसे दफनाया गया था। जब ताजमहल ‘तैय्यार’ हुआ तो उस की सडी गली हड्डियो को निकाल कर पुनः ताज महल में दफनाया गया था।

हिन्दूओं की बचाव नीति

मुस्लिम काल में धर्म निष्ठ रह कर जीवन काटने के लिये हिन्दूओं को बहुत बडी कीमत चुकानी पडी थी। यद्यपि कई हिन्दू राजाओं ने अपनी आस्थाओं पर अडिग रह कर मुस्लमानों से संघर्ष जारी रखा किन्तु वह संगठित नहीं हो सके और इसी कारण प्रभावशाली भी नहीं हो सके। अधिकतर हिन्दू शासक अपने परम्परागत नैतिक नियमों के बन्धन में रह कर युद्ध कर के मर जाना सम्मान जनक समझते थे। दुर्भाग्य से वह देश और धर्म के लिये ‘जीना’ नहीं जानते थे। उन के विपरीत मुस्लिम जीने के लिये नैतिकता का त्याग कर के छल और नरसंहार करते थे। जरूरत पडने पर वह गद्दार हिन्दूओं की चापलूसी भी करते थे, शरण देने वाले की पीठ में खंजर घोंपने से गरेज नहीं करते थे और इन्हीं चालों से विजयी हो जाते थे। राजपूतों को राजपूतों के विरुद्ध लडवाना उन की मुख्य रण निति थी। 

हिन्दूओं की बचाव नीति

अपनी धन सम्पत्ति, माताओं, बहनों, पत्नियों तथा परिवार के अन्य जनों को अत्याचार, बलात्कार, अपहरण तथा मृत्यु से बचाने के लिये उन्हे असाहनीय स्थितियों के साथ निर्वाह करना पडता था। कई विकल्प प्रगट होने लगे जो इस प्रकार हैः-

पलायनवाद – बचाव का ऐक पक्ष ‘पलायनवाद’ के रुप में उजागर हुआ। ब्राह्मणो, संतों, कवियों तथा बुद्धि जीवियों ने अपने आप को मुस्लमानों का ‘दास’ कहलवाने के बजाये हिन्दू धर्म के किसी देवी-देवता का ‘दास’ बन जाना स्वीकारना आरम्भ कर दिया। उन्हों ने आपने नाम के साथ ‘आचार्य’ आदि की उपाधि त्याग कर दास कहलवाना शुरु कर दिया। अतः उन का नामकरण रामदास, कृष्णदास, तुलसीदास आदि हो गया तथा ‘कर्मयोग’ को त्याग कर मन की शान्ति और तन की सुरक्षा के लिये वह ‘भक्तियोग’ पर आश्रित हो गये। 

हिन्दू मुस्लिम भाईचारे का प्रचार – निरन्तर भय और असुरक्षा के वातावरण में रहने के कारण कुछ नें राम और कृष्ण को महा मानवों के रुप में निहारा तो कबीर दास तथा गुरू नानक जैसे संतों ने परमात्मा की निराकार छवि का प्रचार किया। उन्हों ने ‘हिन्दू-मुस्लिम प्रेम और भाईचारे’ का संदेश भी दिया किन्तु हिन्दू तो उन के अनुयायी बने, पर कोई मुस्लिम उन का अनुयायी नहीं बना। हिन्दूओं ने तो कबीर और साईं बाबा को सत्कार दिया परन्तु मुस्लिम उन से भी दूर ही रहै हैं। कालान्तर गुरुजनों के शिष्यों नें हिन्दू समाज के अन्दर अपनी विशिष्ट पहचान बना कर कई उप-मत बना लिये और कुछ रीति रिवाजों का भी विकेन्द्रीयकरण कर दिया। फिर भी वह सभी मुख्य हिन्दू विचारधारा से जुडे रहे। वह सभी मुस्लिमों को प्रभावित करने में विफल रहै।

वंशावली पंजीकरण की प्रथा

इसी बचावी क्रम में ब्राह्मण वर्ग भूगौलिक क्षेत्रों के आधार पर अपने अपने यजमानों से साम्प्रिक्त हो गया। उन्हों अपने अपने भूगौलिक विभाग के जन्म मरण के आँकडे ऐकत्रित करने शुरु कर दिये। इस क्रिया के मुख्य केन्द्र कुम्भ स्थलों पर थे जैसे कि काशी, हरिदूवार, प्रयाग और ऩाशिक। आज भी हिन्दू परिवार जब तीर्थयात्रा करने उन स्थलों पर जाते हैं तो रेलवे स्टेशन पर ही विभागीय पुरोहित अपने अपने यजमानों को तलाश लेते हैं। क्षेत्रीय पुरोहितों के पास अपना कई पुरानी पीढियों पहले के पूर्वजों के नाम ढूंडे जा सकते हैं।

ऱिवाज था कि जब भी कोई परिवार तीर्थयात्रा पर जाये गा तो विभागीय पुरोहित के पास जा कर अपने परिवार के सभी जन्म, मरण, विवाह तथा अन्य मुख्य घटनाओं का ब्योरा दर्ज करवा कर उन की पोथी पर हस्ताक्षर या उंगूठे का निशान लगाये गा। पोथी से लगभग पाँच पीढी पूर्व की नामावली आज भी प्राप्त की जा सकती है। हिन्दूओं ने जो प्रावधान सैंकडों वर्ष पूव स्थापित किया था वैसा प्रबन्ध आधुनिक सरकारी केन्द्रों पर भी उपलब्द्ध नहीं है।

सौभाग्य की बात है कि कुछ स्थानों पर इन आलेखों का कम्प्यूटरीकरण भी किया जा रहा है किन्तु युवा पीढी की उदासीनता के कारण पुरोहितों को आर्थिक आभाव भी है। उन की युवा पीढी इस व्यवसाय के प्रति अस्वस्थ नहीं रही। हो सकता है कुछ काल पश्चात यह सक्षम प्रथा भी इतिहास के पन्नों पर ही सिमिट कर रह जाये। 

कुछ हिन्दू निष्ठावानों ने भृगु संहिता जैसे ग्रन्थों को छिपा कर नष्ट होने से बचा लिया था। भृगु संहिता सभी प्रकार की जन्मकुणडलियों का बृहदृ संकलन है जो गणित की दृष्टि से सम्भव हो सकती हैं। इन का प्रयोग कुण्डली से मेल खाने वाले व्यक्ति के जीवन में घटित होने वाली घटनाओं का पू्र्वानुमान लगाने के लिये किया जाता है। यह ग्रंथ विक्षिप्त अवस्था में आज भी उपलब्द्ध है तथा उत्तरी भारत के कई परिवारों के पास इस के कुछ अंश हैँ। जिस किसी व्यक्ति की जन्म कुण्डली और जन्म स्थान ग्रन्थ के किसी पृष्ट से मिल जाता है तो उस के जीवन की अगली पिछली घटनाओं की व्याख्या कर दी जाती है जो अधिकतर लोगों को सच्ची जान पडती है।

जैसे तैसे अधिकाँश हिन्दू मर मर कर अपने लिये जीने का प्रवधान ही तालाशते रहै क्यों की उन में संगठन का सर्वत्र आभाव था और नकारात्मिक उदासीनता ने उन्हें ग्रस्त कर लिया था। लेकिन फिर भी जब जब सम्भव हुआ हिन्दों ने अपने धर्म की खातिर मुस्लिम शासन का सक्ष्मता से विरोध भी जारी रखा मगर ऐकता ना होने के कारण असफल रहै।

चाँद शर्मा

 

 

 

 

54 – भारतीय ज्ञान का निर्यात


भारतीय साहित्य का नष्टीकरण इतना व्यापक था कि प्राचीन इतिहास के कोई उल्लेख शेष नहीं बचे थे और वास्तव में आज जो कुछ भी भारतीय इतिहास में पढाया जाता है उस का सर्जन योरूपियन लोगों ने लंका, चीन, मयनमार (बर्मा), तिब्बत आदि देशों से प्राप्त प्राचीन ग्रन्थों से, बचे खुचे पुरातत्व समारकों के अवशेषों और इस्लामी शासकों के ‘वाक्यानवीसों’ के लेखान आदि से इकठ्ठा किया है। बहुत कुछ स्वार्थवश मन घडन्त भी जोडा है जिस से अंग्रेज़ी उपनेषवाद की नीति को समर्थन मिलता रहै।

बचे खुचे अवशेष

मुस्लिम आक्रान्ताओं ने विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया था और बुद्धिजीवियों को कत्ल कर दिया था। फिर भी सौभाग्यवश गणित, विज्ञान, खगोलशास्त्र, चिकित्सा तथा दर्शन क्षेत्र के कई ग्रन्थ तक्षशिला, नालन्दा, ओदान्तपुरी, विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के नष्ट होने से पूर्व अरबी भाषा में अनुवादित हो चुके थे। इसी श्रंखला में सौभाग्यवशः-

  • कुछ धार्मिक तथा अध्यात्मिक ग्रन्थों की मूल प्रतियाँ जो देश भर में कई स्थलों पर कुछ हितेषियों ने बचा कर छिपा दीं थी वह भी बच गयीं। उन्हीं में से कुछ को कालान्तर अरबी फारसी में अनुवाद कर के अरब देशों में प्रयोग किया गया और फिर वह योरुप में भी अनुवादित रूप में ही पहुँच गयीं।
  • कुछ सूफी दार्शनिक भारतीय ज्ञान-विज्ञान तथा ललित कलाओं से प्रभावित भी हुये थे और उन्हों ने भी उस ज्ञान का क्रियात्मक इस्तेमाल भी किया।

अपवाद स्वरूप कुछ गिने चुने मुस्लिम बुद्धिजीवियों तथा शासकों ने भारत के ज्ञान-विज्ञान को संरक्षण भी दिया और उस में योग्दान भी दिया जिन में हिन्दी साहित्य, कला तथा संगीत के क्षेत्र मुख्य हैं। इन में अमीर खुसरो, मलिक मुहम्मद जायसी, रहीम, रसखान, तानसेन, दारा शिकोह, मसीतखान और रजाखान के नाम मुख्य हैं।

संगीत का रूपान्तिकरण

तेहरवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने भारतीय संगीत पद्धति में संस्कृत शब्दों के उच्चारण के स्थान पर तबले के बोल तथा निरअर्थक शब्दों को फिट कर के भारतीय रागों में ‘तराना गायन शैली’ का समावेश किया था। ‘कव्वाली’ गायन शैली आयात करने का श्रेय भी अमीर खुसरो तथा सूफी संतों को जाता है।

खुसरो ने ‘वीणा’ वाद्य यन्त्र से प्रेरित हो कर ‘सितार’ वाद्य का निर्माण किया। ‘पखावज’ को दो भागों में विभाजित कर के ‘तबले’ का रूप भी खुसरो ने दिया। यह सभी प्रयोग बाद में लोक प्रिय तो हो गये किन्तु संगीतकारों में अभी भी खुसरो के प्रयोगत्मिक प्रयासों को पूर्णत्या स्वीकारा नहीं है क्योंकि भारत में सितार वाद्ययन्त्र खुसरो से पूर्वकालीन ही माना जाता है। सितार पर आज भी मसीतखान (दिल्ली) और रजाखान (लखनऊ) की ‘बंदिशें’ ही बजाई जाती हैं।

विशेष अनुवादी प्रयत्न

अनुवाद के क्षेत्र में कुछ मुख्य उदाहरण निम्नलिखित है –

अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी – ‘बृहतसंहिता’ का सर्वप्रथम सर्वप्रथम महमूद गज़नवी के समकालीन अलबैरूनी ने अरबी भाषा में अनुवाद किया था । तत्पश्चात इसी भारतीय ग्रन्थ का फारसी भाषा में अज़ीज़ शम्स बहा ए नूरी ने अनुवाद किया।

नक्शाबी – 1362 ईसवी मेंसुलतान फिरोज शाह तुग़लक ने नगरकोट पर आक्रमण किया तथा वहाँ उसे ज्वालामुखी  मन्दिर से 1300 प्राचीन ग्रन्थ मिले। अधिकाँश ग्रन्थ तो नष्ट कर दिये गये थे किन्तु उन में से कुछ ग्रन्थों को फारसी भाषा में अनुवाद किया गया। इज्जुद्दीन खालिद खानी ने भौतिक विज्ञान तथा खगोल विज्ञान के ग्रन्थों को ‘दालाएल फिरोज़शाही’ तथा ‘अबदुल’ के नाम से अनुवादित किया।. 

सुलतान ज़ायनुल अबादीन – सुलतान ज़ायनुल अबादीन ने कई संस्कृत ग्रन्थों का अनुवाद करवाया। इस के अतिरिक्त सुलतान सिकन्दर लोदी ने भी कई ग्रन्थों का अनुवाद फारसी भाषा को समृद्ध करने के लिये करवाया।

क़बर – गिने चुने संस्कृत ग्रन्थों का अरबी तथा फारसी भाषा में अनुवाद करने के लिये मुगल शहनशाह अक़बर ने ‘मक़तबखाना’ नाम से ऐक विभाग कायम किया था। अकबर के उत्तराधिकारी जहाँगीर के काल में भी वैसा होता रहा। पश्चात उस के पोते दारा शिकोह ने उपनिष्दों का अनुवाद फारसी में करवाया था।

अन्तकुवेतिल दुपरोन – उन्हों नेअरबी फारसी में अनुवादित संस्कृत ग्रन्थों का फरैंच तथा लेटिन भाषाओं में अनुवाद किया जो योरुप में भारतीय साहित्य को लोकप्रिय करने का निमित बने। जर्मन विदूान स्कोपन्हार भी इन्ही से प्रभावित हुआ था।

ज्ञान के प्रति योरुपियन उदासीनता

आरम्भ में योरुपवासी भारतीय ज्ञान को अपनाने के प्रति उदासीन से रहे। अधिकतर ग्रन्थों का अनुवाद ही होता रहा परन्तु उन में अर्जित ज्ञान को प्रयोगात्मिक नहीं किया गया था। आरम्भ में य़ोरुपवासी भारत के अंकों तथा दशामलव पद्धति को समझ पाने में भी विफल रहे थे। सन 1548- 1620 में डच गणितिज्ञय साईमन स्टीवन ने अपनी कृति ‘ला-थिन्डे’ के माध्यम से कुछ सफलता प्राप्त की थी। उस के पश्चात 1621 में माकिनी तथा क्रिस्टोफर क्लाइडस नें भारतीय पद्धति को अपनी कृतियों में और सरलता से उजागर किया। 1621 में ही बैकिट ने अरबी भाषा में अनुवादित संस्करण को लेटिन भाषा में ‘अर्थमैटिका’ के नाम से प्रकाशित किया 

विदेशी पर्यटकों के वृतान्त

प्राचीन काल से ही भारत में विदेशी राजदूत अथवा पर्यटक के रूप में आते रहै हैं। उन्हों ने वापिस जा कर भारत के ज्ञान, अध्यात्मिक्ता, कला-संस्कृति तथा समृद्धि के विषय में जो आलेख और वृतान्त अपने अपने देश वासियों को दिये उन के कारण भी समस्त विश्व में भारत का नाम ऐक समृद्ध ऐवम शक्तिशाली देश के रूप में उभरा और रिनेसाँ के युग में भारत खोजने के लिये योरूपीय देशों में होड सी मच गयी थी। फ्रांस, डच डैन तथा इंग्लैण्ड वासी भारत के कपडे, स्वर्ण, रत्न, इत्र आदि सुगंधित द्रव्यों तथा गर्म मसालों की प्रसिद्धि से प्रभावित हो चुके थे। ऋषि वात्सायन के ‘कामसूत्र’ ने भी योरुप वासियों को विशेषता प्रभावित किया। अतः इंग्लैण्ड, फ्राँस, हालैण्ड, स्पेन तथा पुर्तगाल के नाविक भारत तक पहुँने की दौड में लग गये थे। विदेशी राजदूतों तथा पर्यटकों में मुख्य नाम निम्नलिखित हैं –

  • मैग्स्थनीज – ईसा से 350-290 वर्ष पूर्व यूनानी राजदूत मैग्स्थनीज सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में रहा। स्वदेश जा कर उस ने ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक लिख कर भारत की तत्कालीन स्मृद्धि, राजनैतिक तथा प्रशासनिक परिस्थस्तियों, बुद्ध धर्म के प्रचार तथा ‘हरकुलीस’ की भारत यात्रा के बारे में अपने देश वासियों को अवगत कराया।
  • बौद्ध प्रचारक – सम्राट अशोकनें तिब्बत, अफगानिस्तान, लंका, बर्मा, कम्बोडिया, चीन, जापान, तथा दक्षिण ऐशिया के कई दूीपों में बौद्ध प्रचारक भेजे थे। विश्व का सब से बडा बौद्ध स्मारक बोरोबन्दर (इण्डोनेशिया) में आठवी शताब्दी में बनाया गया था। कम्बोडिया में विष्णु का भव्य मन्दिर है। तिब्बती भाषाकी वर्णमाला गुप्तकालीन प्रभावित है।
  • फाह्यिान – पाँचवी शताब्दी के प्रथम चरण में चीनी राजदूत फाह्यिान सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमदिूतीय के दरबार में आया था। वह कपिलस्तु, लंका तथा मगध में रहा जहाँ उस ने कई बौद्ध ग्रंथों को चीनी भाषा में अनुवाद किया और अपने साथ चीन ले गया। उस के आलेखों से प्रेरणा पा कर प्रसिद्ध चीनी ऐतिहासिक उपन्यास जरनी टु दि वेस्ट अंग्रेजी में लिखा गया था।
  • ह्यूनत्साँग –602 इस्वी में अन्य चीनी पर्यटक ह्यूनसाँग समरकन्द, अफगानिस्तान के रास्ते से सम्राट हर्षवर्द्धन के दरबार में आया था। भारत में वह 657 इस्वी तक रह कर उस ने उस ने संस्कृत का अध्यन किया और की ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया। बौद्ध मत तथा योग सम्बन्धी विषयों को उस ने अपने देश में प्रचारित किया।
  • इबन बतूता – लम्बे प्रवासों के कारण इबन बतूता को मध्यकालीन युग (1304-1368)का महान प्रवासी माना जाता है जिस ने लग भग 75000 मील की भिन्न भिन्न देशों की यात्रायें की थी जिन में पश्चिमी मध्य ऐशिया से ले कर चीन और दक्षिण पूर्वी ऐशिया के देश शामिल हैं। तुगलक वंश के सुलतान मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल में वह अफगानिस्तान, हिन्दूकुश होता हुआ हिन्दुस्तान आया। वह सुलतान के दरबार में रहा और फिर हाँसी, खम्भात, कालीकट होता हुआ जावा सुमात्रा भी गया था। राजपूतों के नगर हाँसी को उस ने विश्व का अति सुन्दर नगर उल्लेख किया है। इबन बतूता के वृतान्त योरुपीय नाविकों के लिये प्रेरणादायक और मार्गदर्शक रहै।  
  • सर टामस रो –ईस्ट इण्डिया कम्पनी का व्यापार भारत में पुर्तगालियों के आने के लगभग सौ वर्ष पीछे शुरु हुआ था। अपने व्यापार को बढाने के लिये उन्हों ने इंग्लैण्ड के तत्कालकि राजा जेम्स प्रथम को भारत में एक राजदूत भेजने की प्रार्थना की थी तभी अंग्रेजी राजदूत सर टामस रो सन 1615 में मुगल शहनशाह जहाँगीर के दरबार में आया था। टामस रो ने जहाँगीर के साथ शराब पीने की मार्फत मित्रता बढाई और अंग्रेजों को भारत में व्यापार करने की सहूलियतों के साथ साथ इसाई धर्म फैलाने की इजाज़त भी दिलवायीं। उस के प्रयासों से ईस्ट इण्डिया कम्पनी को भारत के साथ व्यापार करने में बढावा मिला और इंग्लैंड में वस्त्र निर्माण का काम शुरु हुआ। उसी के समकालीन कैप्टन हाकिन (1608) ने भी भारतीय स्मृद्धि के चर्चे समस्त योरुप वासियों को सुनाये।
  • मार्को पोलो – मार्को पोलो (1254-1324) ने पहली बार ‘सिल्क-मार्ग’ से चीन यात्रा करी और समुद्री मार्ग से वापिस ‘वेनिस-लौच’ गया था। उस ने योरुपवासियों को चीन, भारत  तथा दक्षिण ऐशिया के राज्यों के बारे में ‘दि ट्रैवल्स आफ मार्को पोलो के माध्यम से इस क्षेत्र के जन जीवन, दार्शनिक्ता, रेखागणित, खगोल विज्ञान, तथा ज्योतिष, के बारे में अवगत करवाया जिस से प्रेरणा ले कर कोलम्बस भारत खोज के लिये निकला था।

मैक्स मुल्लर दूारा ऋगवेद अनुवाद

उपनिष्दों के ज्ञान योरुप में प्रचारित किया जा चुका था जिस से वैज्ञानिक ज्ञान को क्रियात्मिक रूप मिल रहा था। सन 1845 में जर्मन विदूान मैक्स मुल्लर ने सर्व प्रथम ‘हितोपदेश ’ कथा संग्रह का अनुवाद किया। तत्पश्चात वह हिन्दू साहित्य और दार्शनिक्ता की ओर अधिक प्रभावित हुआ। उस ने 1846 में ईस्ट ईण्डिया कम्पनी से सम्पर्क किया और ‘ब्रह्मो-समाज’ में शामिल हो कर भारत में संस्कृत का अध्यन किया। उसी ने ऋगवेद का जर्मन भाषा में अनुवाद किया जो कालान्तर अंग्रेजी में भी अनुवाद किया गया था। मेक्स मुल्लर ने चार्ल्स डार्विन की जीव उत्पति और विकास थियोरी को नहीं स्वीकारा था और उस ने हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को प्राकृतिक शक्तियों का सांकेतिक चित्रण के रूप सें स्वीकारा था जो हिन्दू विचारधारा की पुष्टि करता था। मैक्स मुल्लर के अनुवाद के फलस्वरूप योरूपवासियों में वेदों के प्रति अधिक जिज्ञासा बढी।

प्राकृतिक संयोग से बचाव 

हमें निसंकोच स्वीकारना होगा कि देश भक्ति, ज्ञान जिज्ञासा तथा ज्ञान को क्रियाशील बनाने के दृढ़ निशच्य में अंग्रेज कम से कम हमारी वर्तमान पीढी से कहीं आगे रहै हैं। उन्हों ने यूनान के माध्यम से भारतीय ज्ञान को सीखा, उस पर अनुसंधान किये और अपनी तकनीक के सहारे उसे साकार भी कर दिखाया। इस क्षेत्र में हम असफल रहै हैं। हमें तो अपने पूर्वजों के ज्ञान का अहसास ही नहीं है।

यह केवल ऐक प्राकृतिक संयोग ही है कि हमारे कई अमूल्य ग्रन्थ और उन की हस्तलिपियाँ मुस्लिम कट्टरपंथियों को हाथों नष्ट होने से बच गयीं और विश्व पटल पर आज फिर से दिखायी पड रही हैं। किसी के माध्यम से ही सही – उन का प्रयोग आज तक मानव कल्याण के लिये किया गया है। यदि वैसा ना हुआ होता तो शायद भारत में कुछ भी ना बच पाता। राजनैतिक संरक्षण के अभाव के कारण हमारे विद्या कोषों की क्षति लूट के कारण होती रही है। हम क्षति का अनुमान लगाने में भी असमर्थ हैं। हमारी सरकार धर्म निर्पेक्ष कहलाने की लालसा में हिन्दू धरोहर को बचाने कि दिशा में कोई प्रयास नहीं कर रही। जब तक देश की युवा पीढी अपनी विरासत को बचाने के लिये कृत संकल्प नहीं होती तब तक हमारे पूर्वजों के अर्जित किये हुये खजाने नष्ट अथवा लुप्त होते रहें गे।

उल्लेखनीय है कि प्रचीन ग्रंथों के रख रखाव में स्वामी रामदेव के पतंजली योगपीठ ने सराहनीय काम किया है और पतंजली योगपीठ में कई दुर्लभ ग्रंथों को पुनर्जीवित किया गया है।

चाँद शर्मा

11 – उपनिष्द – वेदों की व्याख्या


उपनिष्द आध्यात्मिक्ता और विज्ञान का मिश्रण हैं तथा उन की गणना फँडामेन्टल साईंस के ग्रंथों के साथ होनी चाहिये। वेद ईश्वरीय विज्ञान है। उपनिष्द का मुख्य अर्थ ब्रह्मविध्या है। इन में अधिकतर वेदों में बताये गये आध्यात्मिक विचारों को समझाया गया है। वेदों के संकलन के पश्चात कई ऋषियों ने अपनी अनुभूतियों से वैदिक ज्ञान कोष में वृद्धि की। उन्हों ने संकलित ज्ञान की व्याख्या, आलोचना, तथा उस में संशोधन भी किया। इस प्रकार का ज्ञान आज उपनिष्दों तथा दर्शन शास्त्रों के रूप में संकलित है। इस प्रकार का ज्ञान भारत से बाहर अन्य किसी धर्म की पुस्तक में नहीं है।

प्रत्येक उपनिष्द किसी ना किसी वेद से जुडा हुआ है। उपनिष्दों के लेखन की शैली प्रश्नोत्तर की है। शिष्य अपने गुरुओं से प्रश्न पूछते हैं और ऋषि शिष्यों के प्रश्नों के उत्तर दे कर उन की जिज्ञासा का समाधान करते हैं। प्रश्नोत्तर की शैली का बड़ा लाभ यह है कि विषयों के सभी पक्षों पर पूर्ण विचार हो जाता है। उदाहरण के तौर पर प्रश्नौत्तर इस प्रकार के विषयों से सम्बन्धित हैं–

         आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, दोनों का क्या सम्बन्ध है, जीवन का आधार क्या है,

         हम क्यों जीवित हैं, हमें प्राण कौन देता है, हमें कौन और क्यों जीवित रखता है,

         हमारी इन्द्रीयों को कर्म करने की प्ररेणा तथा शक्ति कौन देता है आदि।

गुरू प्रश्नो का उत्तर देते समय .यथोचित उदाहरण या प्रसंग भी बताते हैं। ऋषियों तथा शिष्यों की संख्या असीमित है। उपनिष्दों का ज्ञान ही हिन्दू धर्म का वास्तविक वैज्ञियानिक तथा दार्शनिक ज्ञान है जिसे पौराणिक चित्रों के और कथाओं तथा अन्य ग्रंथों के माध्यम से सरल कर के समझाया गया है। 

वेदों को मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया गया है जिन्हें उपनिष्द भाग (ज्ञान खण्ड), मंत्र भाग, तथा ब्राह्मणः भाग कह सकते हैं। पुराणों के अनुसार वेदों में 1180 तरह के ज्ञान खण्ड (फेकल्टीज – विषय) थे तथा प्रत्येक खण्ड का ऐक या अधिक उपनिष्द भी थे। यह मानव समाज का दुर्भाग्य है कि अधिकत्म उपनिष्दों को अहिन्दूओं को धर्मान्धता कि कारण नष्ट कर दिया गया और उन के कुछ खंडित अँश ही आज देखे जा सकते हैं। केवल 10 उपनिष्द ही पूर्णत्या उप्लबद्ध हैं जिन का संक्षिप्त ब्योरा इस प्रकार हैः –

  1. ईशवासोपनिष्द – यह सब से संक्षिप्त उपनिष्द शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में 18 मंत्र हैं। इस में ईश्वर का महत्व, तथा विद्या और अविद्या का विषलेशण किया गया है, जैसे कि सभी जीवों में आत्मा समान है तथा सभी प्राणियों में ईश्वर का ही आभास है। आत्म बोध ही ईश्वर का ज्ञान है। इस उपनिष्द के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति की आयु सौ वर्ष है। सार्थक्ता तथा असार्थक्ता के विषय में भी वार्तालाप है। इसी उपनिष्द के संलगित भाग सुभल उपनिष्द में मानव हृदय की 72 नाडियों तथा मृत्यु प्रक्रिया समय आत्मा किस प्रकार शरीर छोडती है, शरीर के तत्व किस प्रकार अपने मूल तत्वों में विलीन होते हैं आदि के बारे में भी विस्तार पूर्वक बताया गया है । इस उपनिष्द के अन्य भागों में योग के बारे में भी बताया गया है।
  2. केनोपनिष्द – केन शब्द का अर्थ है – कौन (करता है), अथवा किस ने (किया)। केनोपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है तथा इस के चार भाग हैं। इस उपनिष्द में 34 मंत्र हैं। सब से प्रथम मंत्र ऊँ का मंत्र है। कई प्रश्नों पर वार्तालाप किया गया है जैसे कि मन को कौन नियन्त्रित करता है। कौन प्ररेणा देता है। निष्कर्ष में उत्तर दिया गया है कि सभी कुछ सर्व शक्तिमान ईश्वर के आदेशानुसार होता है।
  3. कठोपनिष्द – कठोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस के लेखक कथ ऋषि वौशामप्यान के शिष्य थे। इस के दो भाग हैं। इस उपनिष्द में यमराज नचिकेता को कई विषयों पर गूढ़ ज्ञान देते हैं जैसे शरीर की सभी इन्द्रियाँ बाहर की ओर हैं अतः वह केवल बाहरी ज्ञान  ही प्राप्त कर सकती हैं और आंतरिक आत्मां को नहीं देख सकतीं। आत्मा का दर्शन करने के लिये उन्हें बाहर का सम्बन्ध तोड़ कर अपने अन्दर ही केन्द्रित करना हो गा। ईश्वर सर्व व्यापक है और सृष्टि के कण कण में विद्यमान है किन्तु सभी देह धारियों में वह देह-हीन की तरह है। ईश्वर ही सभी का प्राणाधार हैं। इस के अन्य भाग में शरीर के पाँच कोषों का वर्णन है जिन्हें अन्नमय ( भोजन से बना), प्राणमय ( चौदह प्रकार की वायु से बना) मनोमय (जो इन्द्रियों को संचालित करता है), विज्ञानमय (जो इन्द्रियों दूआरा एकत्रित ज्ञान का विशलेशण करता है), तथा आनन्दमय ( जो ब्रह्मलीन होता है) कोष कहते हैं। शरीर में आत्मा की स्थिति दूध में मक्खन के जैसी है जो अदृष्य हो कर भी विद्यमान है। इस उपनिष्द के अन्य भाग गर्भ उपनिष्द में ऋषि पिप्लाद ने गर्भधारण से ले कर भ्रूण विकास के जन्म लेने तक का विस्तरित विवरण दिया है। इसी के अन्य सम्बन्धित भाग – शरीरिक उपनिष्द में शरीर के सभी अंगों का, तथा कुण्डालिनी उपनिष्द में कुण्डालिनी शक्ति जाग्रण करने का सम्पूर्ण वर्णन है।
  4. प्रश्र्नोपनिष्द – प्रश्र्नोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस के छः भाग हैं तथा इस में 64 मंत्र हैं। इस उपनिष्द में ऋषि भारदूआज, सत्यकाम, गार्गी, अशवालयम, भार्गव, तथा कात्यान महृषि पिपलाद से कई विषयों पर प्रश्नवार्ता करते हैं तथा महृषि पिपलाद उन्हें ब्रह्मज्ञान देते हैं। इस उपनिष्द में सूर्य की दिशानुसार वर्ष के दो भागों उत्तरायण तथा दक्षिणायन  (नार्दन एण्ड स्दर्न हेमिस्फीयर्स) का भी वर्णन है। अश्वलायन पूछते हैं कि शरीर में प्राण (श्वास-वायु) किस प्रकार आते हैं तो उत्तर में ऋषि पिप्लाद कहते हैं कि पाँच प्रकार के प्राण शरीर में रहते हैं। हृदय में प्राण, गुदा में अपान, नाभि में समान, स्नायु तन्त्रों में ध्यान, तथा सुष्मणा नाडी में उडयान – यह पाँचों प्रकार के प्राण पुरुष के वीर्य में स्थिर रहते हैं जिसे कभी नष्ट नहीं करना चाहिये। अतः प्राण रक्षा के लिये ब्रह्मचर्य पालन का महत्व सर्वाधिक है। 
  5. मुणडकोपनिष्द मुणडकोपनिष्द अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस में ब्रह्मा जी अपने पुत्र अथर्वः को ब्रह्मज्ञान देते हैं। आगे चल कर वही ज्ञान अथर्वः ऋषि अंगिरा तथा शौणिक को प्रदान करते हैं। इस में दो भाग हैं। एक भाग में परःविद्या( संसारिक-ज्ञान) तथा दूसरे भाग में अपरः विद्या (ब्रह्म ज्ञान) का उल्लेख है।
  6. माण्डूक्योपनिष्द माण्डूक्योपनिष्द भी अथर्व वेद से सम्बन्धित है। इस की चार शाखायें  अगमा, वेदाध्या, अदूवैतः तथा अथलाशान्ति हैं। इस उपनिष्द में मन की जागृति एवमं सुशु्प्ति आदि दशाओं के बारे में  वार्तालाप है। ऊँ की व्याख्या भी इस उपनिष्द में की गयी है।
  7. तैत्तिरीयोपनिष्द –  तैत्तिरीयोपनिष्द कृष्ण यजुर्वेद से सम्बन्धित है। इस में आदिलोकः, आदिज्योतिषः, आदिप्रज्ञा, आदिविद्या तथा अध्यात्म के सिद्धान्तों के बारे में वर्णन किया गया है। 
  8. ऐतरेयोपनिष्द ऐतरेयोपनिष्द ऋगवेद से सम्बन्धित है तथा इस में तीन भाग हैं। इस मे सृष्टि की उत्पति तथा अन्न दूआरा शरीर में जीवन प्रवेश तथा मानव शरीर के विकास आदि विषयों पर प्रकाश डाला गया है। इस उपनिष्द में अध्यात्मिक शक्तियों के विकास तथा अध्यात्मिक उत्थान के पश्चात इन्द्रियों की क्रिया, जन्म, मरण तथा पुनर्जन्म के बारे में भी विस्तार से समझाया गया है।
  9. छान्दोग्य उपनिष्द – छान्दोग्य उपनिष्द सामवेद से सम्बन्धित उपनिष्द है। यह बडा़ ग्रन्थ है जिस में ओंकार की विस्तरित व्याख्या की गयी है। इस के अतिरिक्त कई जटिल प्रश्नों के उत्तर दिये गये हैं जैसे कि मृत्यु के पश्चात क्या होता है, पुनर्जन्म कैसे होता है, पित्रलोक भरता क्यों नहीं आदि। अन्य भाग में यम-नियम तथा शरीर के आंतरिक अंग और शरीर स्थित चक्र भी विस्तार से समझाये गये हैं।
  10. बृहदारण्यकोपनिष्द बृहदारण्यकोपनिष्द सब से बड़ा उपनिष्द है तथा शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित है । इस में छः भाग हैं। इस में कई विषयों पर ज्ञान दिया गया है जैसे कि अश्वमेधयज्ञ, सन्ध्या, कर्म, विचार, ब्रह्मा, सगुण, निर्गुण, प्रजापति, दैव, असुर, जीव तथा ज्ञान आदि। इसी उपनिष्द में याज्ञवालाक्या तथा उन की पत्नी मैत्री के मध्य कई महत्व पूर्ण विषयों पर वार्तालाप है।

इन के अतिरिक्त  एक अन्य ग्यारहवाँ उपनिष्द श्र्वेताश्र्वतरोपनिष्द ईसा से लग-भग 250 या 200 वर्ष पूर्व किसी अनाम लेखक ने भी लिखा है। यह प्राचीन उपनिष्दों में अंतिम है। इस का विषय मानवीय संघर्ष, विरह, त्रास्तियां, विफलतायें तथा आत्मिक सफलतायें है।

उपनिष्दों ने भारतीय दार्शनिक्ता के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। हिन्दू विचारधारा तथा बाद में पनपे बौध तथा जैन मत उपनिष्दों के सूक्ष्म ज्ञान उपनिष्दों से अत्याधिक प्रभावित हुये हैं। स्नातन धर्म के वैज्ञियानिक तथ्यों को विकिसत करने का श्रेय उपनिष्दों को ही जाता है। इन्हीं को वेदान्त कहते हैं।

उपनिष्दों के ज्ञान से इस्लाम भी अछूता नहीं रहा। उपनिष्दों ने सूफी विचारधारा को प्रभावित किया। 17 वीं शताब्दी में शाहजहाँ के ज्येष्ट पुत्र दारा शिकोह ने उपनिष्दों के ज्ञान से प्रभावित हो कर उन का अनुवाद भी करवाया था किन्तु दारा शिकोह को ऐसी मानसिक स्वतन्त्रता की कीमत अपना सिर कटवा कर चुकानी पडी थी क्यों कि उसी के छोटे भाई औरंगज़ेब ने दारा को काफिर होने के अपराध में मृत्यु दण्ड दिया था।

हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र है कि वह चाहे तो किसी भी धार्मिक ग्रंथ की ना केवल समीक्षा, आलोचना,  अथवा व्याख्या निजि मतानुसार करे अपितु उस का प्रचार भी कर सकता है। ऐसी धार्मिक स्वतन्त्रता के कारण हिन्दू धर्म में रूढि़वाद, कट्टर पंथी मानसिक्ता तथा फण्डामेंटलिस्ट विचारों का होना सम्भव नहीं। मानसिक स्वतन्त्रता के फलस्वरूप हिन्दू धर्म में समय समय पर नयी विचारधाराओं का सर्जन तथा विलय भी होता रहा है।

चाँद शर्मा

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